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स्तवनानि. ॥ शुंग ॥ सीताने मन रामजी ॥ प्र ॥ तेम वाध्यो तुमशुं नेह ॥शु॥२॥ रोहिणीने मन चंदजी ॥प्र॥ वली रेवायें गजराज ॥ शुंग॥समय समय प्रनु सांजरे ॥ ॥ मनमामां महाराज ॥ शुं ॥३॥ निःस्नेही थक्ष न वि बूटीयें ॥ प्र० ॥ करुणानंद कहा ॥ शुंग ॥ गुण अवगुण जोता रखे, ॥प्र॥ तो तारक केम कहा ॥ शुं०॥४॥ रढ लागी प्रजु रूपनी ॥प्र॥ मुने न गमे बीजी वात ॥\ण॥ वाहे वात बने नहिं ॥प्र॥ मलियें मूकी ब्रांति ॥ शुं० ॥५॥ सेवे चिंतामणि फले ॥प्र०॥ तुं तो त्रिजुवननाथ ॥ध्रु॥ सो वातें बोउं नहिं ॥प्र॥ हवे आव्या मूऊ हाथ ॥ शुंग ॥६॥ मुदनी वात मूको परी ॥ ॥ जिम जाणो तिम तार ॥ शुं॥ सहगुरु सुंदर कविरायनो ॥ प्र॥ पद्मने प्रजुशुं प्यार ॥ शुं०॥ ॥ इति ॥
॥अथ सिझचक्रस्तवनं ॥ अवसर पामिने रे, कीजें नव आंबिलनी उली ॥ उली करतां आपद जाये, झछि सिकि लहियें बहुली ॥ ॥१॥ श्राशो ने चैत्र श्रादरशुं, सात मथी संजाली रे ॥ बालस महेली यांबिल करशे, तस घर नित्य दीवा ली ॥ अ॥॥ पूनमने दिन पूरी थाते, प्रेमेशुं पखाली रे ॥ सिद्धचक्रने शुभ आराधी,जाप जपे जपमाली ॥अ॥३॥ देहरे जश्ने देव जुहारो, आ दीश्वर अरिहंत रे ॥ चोवीशे चाहीने पूजो, नावेशुं नगवंत ॥ अ॥४॥ बे टंकें पडिकमणुं बोल्युं, देववंदन त्रण काल रे ॥ श्रीश्रीपालतणी परें समजी, चित्तमां राखो चाल ॥ अ० ॥५॥ समकित पामी अंतरजामी, आराधो एकांत रे ॥ स्याहादपंथें संचरतां, आवे नवनो अंत ॥ अन ॥६॥ सत्तर चोराणुयें शुिदि चैत्रीयें, बारशें बनावी रे ॥ सिद्धचक्र गातां सुख संपत्ति,चालीने घेर आवी ॥ ॥॥ उदयरतन वाचक उपदेशें,जे नर नारी चाले रे ॥ नवनी नावठ ते लांजीने, मुक्तिपुरीमां महाले ॥णान
॥ अथ पूजाविधिाश्रयी श्रीसुविधिजिनस्तवनं ॥ ॥ चोपाश्नी देशीमां॥सुविधिनाथनी पूजा सार, करतां सघले जय ज यकार ॥ पूजानी विधि धारो सही, श्रीजगवंतें शास्त्र कही ॥१॥ पूर्व स न्मुख स्नान आदरो, पश्चिम दिशि रही दातण करो ॥ उत्तरें वस्त्र पहेरो सही, पूजो उत्तर पूर्व मुख रही ॥२॥ घरमां पेसतां वामें नाग, देरासर करवानो लाग ७ दोढ हाथ नूमिथी कीजीयें, उंचुं नीचुं सहुथी वरजीयें
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