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जक्तामरस्तोत्र अर्थसदित.
एनए कोनां (कुरितानि के०) पाप जे जे, तेमने (हंति के०) हणे , तिहां उपमा कहे बे, के (सहस्रकिरणः के) सूर्य जे जे, ते तो (दूरे के०) दूर रहो, परंतु तेनी (प्रजैव के०) प्रना जे , तेज (पद्माकरेषु के०) पद्मना आकर, एटले समूह ने जेमां एवां सरोवरादिक तेने विषे रहेलां एवां जे (जलजानि के०) कमलो तेने (विकाशनांजि के०) विकस्वर एटले प्रकाशने जजनारां एवांने (कुरुते के०) करे . अर्थात् सूर्येदय थयाथी पूर्वे प्रवर्त्तनारी एवी सू र्यनी प्रजाज जेवारें कमलने विकखर करनारी थाय , तेवारें सूर्य पोतें तेनो विकाश करे, तेमां तो झुंज कहेवू ? तेम अहिंयां पण जगवंतनी कथाज जेवारें पुरितनाशिनी बे, तो जगवंतनुं स्तोत्र पुरित निवारण करे, तेमां तो झुंज कहेवू ? ॥ ५॥
हवे नगवंतना गुणनी स्तुतिनु फल कहे . नात्यनुतं जुवननूषणनूत ! नाथ, नूतैर्गुणैवि नवंतमनिष्टुवंतः॥तुल्या नवंति नवतोननु तेन
किं वा, नृत्याश्रितं यश्च नात्मसमं करोति॥२०॥ अर्थः-(जुवननूषणचूत के०) हे जगतने विषे नूषणरूप ! अर्थात् हे जगदाजरणसमान ! (नूतैः के०) सत्य एटले असत्य नहिं एवा तमारा (गुणैः के०) गुणोयें करीने (जुवि के०) जगतने विषे (नवंतं के) तमोने (अनिष्टुवंतः के ) स्तुति करनारा एवा जे जनो , ते जनो, रूपें तथा गुणें करीने (नवतः के) तमारी (तुल्याः के०) तुल्य एटले समान ( नवं ति के ) थाय बे. तेमां (नअत्यनुतं के०) अति आश्चर्य नथी. (ननु के०) प्रश्नमां, (नाथ के०) हे नाथ ! (यः के०) जे को धनवान् खामी, (श्हके०) श्रा लोकने विषे पोताने (आश्रितं के०) आश्रय करीने रह्यो एवो जे सेव क, तेने (नूत्या के०) संपत्तियें करीने, (लक्ष्मीयें करीने ) महत्त्वें करीने, (आत्मसमं के०) पोतानी तुल्य (न करोति के०) नहीं करे, तो (वा के०) अथवा (तेन के०) तेखामीयें करीने (किं के०) शुं ? अर्थात् कांहींज नहीं. तेम स्तवनकर्ता कहे , के हुँ पण तमारी स्तुति करतो तो तमारी पेठे तीर्थंकर नामकर्मने संपादन करनारो श्राश्श ॥ १० ॥
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