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________________ ខូចច प्रतिक्रमणसूत्र. हवे स्तवनारंज सामर्थ्यने दृढ करतो बतो कहे . मत्वेति नाथ ! तव संस्तवनं मयेद, मारन्यते त नुधियापि तव प्रनावात् ॥ चेतोदरिष्यति सतां नलिनीदलेषु,मुक्ताफलद्युतिमुपैति ननूदबिंजान॥ अर्थः-(नाथ के०) हे नाथ. ! (इति के०) ए पूर्वोक्त प्रकारे पापनुं हर ण करनारा एवा आ स्तोत्रने (मत्वा के०) मानीने (तनुधियापि के) मं दबुझिवालो एवो पण (मया के ) हुँ जे बुं, तेणें (तव केश) तमारूं (दं के०) आ (संस्तवनं के) स्तवन जे , ते करवाने (आरंज्यते के०) था रंज कराय बे. ते (तव के०) तमारा (प्रनावात् के०) प्रनावथकी (सतां के०) संत पुरुषो एटले सऊन पुरुषोनां (चेतः के) चित्तने (हरिष्यति के०) हरण करशे, परंतु खल पुरुषोनां (चित्तने) हरण नहिं करे, एवी सू चना करवाने अर्थे (सतां) ए पद ग्रहण करघु बे. तिहां उपमान कहे , ते जेम के:-(नलिनीदलेषु के०) कमलपत्रने विषे पडेलो एवो जे (उदविं पुः के०) उदकनो बिंडु, ते कमलना प्रजावें करीने ( मुक्ताफलद्युति के०) मुक्ताफलनी शुति एटले कांति तेना जेवी शोनाने ( ननु के०) निश्चे (उ पैति के) पामे , तेम तमारा प्रजावधी आ महारुं करेलु जे स्तवन,ते सत्कविविरचित काव्यनी बायाने पामशे ॥७॥ हवे सर्वज्ञ एवा नगवाननुं स्तवन, ते तो सकलदोष हरणकारक हो, परंतु ते श्रीसर्वइसंबंधिनी कथा पण सकलडरित हरे , ते कहे जे. आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं, त्वत्संकथापि जगतां उरितानि इंति॥ दूरे सहस्त्रयिरणः कुरुते प्रनैव, पद्माकरेषु जलजानि विकाशनांजि ॥ ए॥ अर्थः-हे देव ! (अस्त के) नाश पाम्या डे ( समस्तदोषं के०) समग्र दोष जेथकी एवं (तव के०) तमारुं (स्तवनं के०) स्तवन जे जे, ते (आस्तां के) दूर रहो, परंतु (त्वत्संकथापि केण) तमारी मात्र आ लव तथा पर जवना चरित्रनी कथा जे करवी, ते पण (जगतां के०) जगन्निवासी लो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003850
Book TitlePratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1906
Total Pages620
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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