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अजितशांतिस्तव अर्थसहित. शए हवे त्रण श्लोकें करी अजितनाथ अने शांतिनाथने स्तवे बे. बत्त चामर पमाग जूव जव मंमिश्रा, जय वर मगर तुरय सिरिवत्र सुलंबणा ॥ दीव समुद्द मंदर दिसा गय सोदिआ, सबिअ वसद सीह रदचकवरं किया ॥ पागंतर ॥ सिरिवन सुलंबणा ॥ ३२॥ ललिययं ॥ अर्थः-(बत्त के० ) बत्र, ( चामर के) चामर, (पमाग के०) पता का, ( जूव के०) यूप, (जब के०) यव, एवां लक्षणोयें करीने (मंमि श्रा के०) मंमित सुशोनित एवा तथा (ऊयवर के) सिंहादि रूपोपलदित ध्वजवर, ( मगर के) मगरमत्स्य, जलजंतु, (तुरय के) अश्व, (सिरि व के०) श्रीवत्स ते उत्तम पुरुषोना वदःस्थलमां होय बे, अने पगमां पण थवानो संचव जे. (सुलंबणा के०) ते सर्व शोजायमान डे लांउन जे मने एवा तथा (दीव के०) छीप ते जंबूछीपादिक, (समुद्द के०) समुप, ते लवणोदधि प्रमुख, (मंदर के) मेरु पर्वत अथवा प्रासाद पण जाणवो. (दिसागय के) दिग्गज, जे प्रधान हस्ती,एवा लक्षणे करी एटले आकारें करीने (सोहिया के०) शोनित एवा ने तथा (सबिध के ) स्वस्तिक, (वसह के०) वृषन, (सीह के०) सिंह, (रह के०) रथ (चक के०) चक्र (वर के०) श्रेष्ठ तेणें करी(अंकियाके) अंकित एटले चिन्हित एवां. पागं तरें (सिरि के०) लदमी, (वड के) वृद, ते कल्पवृदादिक तेना (सुलंगणा के) नलां शोजन लांबनो डे एटले लदो बे, श्रीशांतिनाथना हाथ प गादिक अंगोने विषे एवा ॥ ३२ ॥ आ, ललितकनामा छंद जाणवो.
सदाव लह सम प्पश्शा, अदोस उहा गुणेहिं जिहा ॥ पसाय सिहा तवेण पुछा, सिरीहिं श्छा
रिसीहिं जुहा ॥ ३३ ॥ वाणवासिया ॥ अर्थः-वली केहेवा वे ? तो के (सहाव के०) खजावें करीने (लहा के०) ललित एटले शोजायमान बे, तथा ( समप्पा के०) समा ते अस्थपुट एटले विषमोन्नत रहित एवी नूमिकाने विषे प्रतिष्ठित एटले रह्या डे अ थवा असम एटले निरुपम ने प्रतिमा जेमनी एवा ने तथा (अदोसडा
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