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________________ जावंत के विसा अर्थसहित. ७३ ते जावारिहंतनी पेरें वांदवा योग्य बे, अहिं नामजिन ने जाव जिन पण द्रव्यमां स्थापन करी वांदवा. या गाथामां लघु एकत्रीश, गुरु चार, सर्व मली पत्रीश अक्षरो वे. ते पूर्वला साथै मेलवतां लघु ( २६५ ) गुरु (३२) मली ( १०१ ) प्रक्षरो थाय ॥ १० ॥ १३ ॥ ॥ अथ जावंति चेाई ॥ ॥ ॥ जावंति चेाई, उडे दे तिरिच्य लोए सवाई ताई वंदे, इह संतो तब संताई ॥ १ ॥ १४ ॥ अर्थः- (उड़े के० ) ऊर्ध्वलोकने विषे ( ० ) वली (दे के० ) धोलोक विषे ( ० ) वली ( तिरियलोए के० ) तिलोकने विषे ( जावंति के० ) जेटला (चेश्याएं के०) चैत्यानि एटले जिनप्रतिमा बे. (ताई सवाई के०) तानि सर्वाणि एटले ते सर्व प्रत्यें (वंदे के०) हुं वांडु तुं, ते केवो को हुं बांड हुं? तो के ( इहसंतो के ० ) अहींया रह्यो थको ने कहेवी ते जिनप्रतिमा बे? तो के, (त के० ) तिहां त्रण लोकमांडे (संताई के० ) ती विराजमान रही बे, एटले ऊर्ध्वलोकें वैमानिक मांहे (८४७०२३ ) एटलां त्याने विषे ( १५२०४४४७६० ) जिनप्रतिमा बे, तथा ज्योतिषी मध्यें असंख्याता प्रासाद ने संख्यातां बिंब वे तथा अधोलोकें जवन पतिमध्यें ( 99200000 ) प्रासाद बे. तिहां ( १३८५६००००oo ) बिंब बे. तेमज व्यंतरमां संख्याता प्रासाद ने असंख्यातां बिंब बे. तथा तिर्यंचलोकमां ( ३२५० ) प्रासाद. तिहां ( ३०२१३२० ) एटलां शाश्वतां जिनबिंब अशाश्वतानुं कांहिं गणित नथी, ते हुं अहींयां ने ते चैत्य तिहां वे तेनेहींयांथकी हुं बांडुं कुं. या गाथामां चार पद बे, चार संपदा बे, लघु वत्रीश अने गुरु त्रण, सर्व मली पांत्रीश रो बे ॥ १ ॥ इति ॥ १४ ॥ ॥ अथ जावंत केवि साहू ॥ जावंत केवि साहू, जरदेवयमदाविदेदे च ॥ सधेसिं तेसिं पण, तिविदेण तिदमविरयाणं ॥ १ ॥ इति ॥ १५॥ अर्थ: - (रह के० ) पांच जरत, ( एरवय के० ) पांच ऐरवत, (०) वली (महाविदेहे ० ) पांच महाविदेह, ए पंदर क्षेत्रने विषे ( जावंत के० ) १० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003850
Book TitlePratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1906
Total Pages620
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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