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चार मंगल तथा स्तुतयः कर्म ॥ मंगल चोथु बोलीयें, जगमांहे श्री जिनधर्म ॥ए चार मंगल गावशे जे, प्रनातें धरी प्रेम ॥ ते कोमि मंगल पामशे, उदयरत्न नांखे एम॥४॥
॥ अथ श्री वीतरागाष्टकं ॥ भुजंगप्रयात बंद ॥ ॥ शिवं शुद्ध बुझ परं विश्वनाथं, न देवो न बंधुन कर्म न कर्ता ॥ न अंगं न संगं न चेठा न कामं, चिदानंदरूपं नमो वीतरागं ॥१॥न बं धो न मोदो न रागादि लोकं, न योगं न नोगं न व्याधिन शोकं ॥न को धं न मानं न माया न लोनं ॥ चि० ॥॥ न हस्तौ न पादौ न घ्राणं न जिह्वा, न चकुर्न कर्णं न वक्रं न निमा ॥ न स्वामी न नृत्यं न देवो न मयं ॥ चि० ॥३॥ न जन्मं न मृत्युर्न मोदं न चिंता, न कुमो न जी तो न कृश्यं न तुंडा ॥ न स्वेदं न खेदं न वर्णं न मुजा ॥ चि॥४॥ त्रिदंडे त्रिखंडे हरे विश्वनाथं, हृषीकेश विध्वस्त कर्मा रिजालं ॥ न पुण्यं न पापं न चादादि प्रायं ॥ चि०॥५॥ न बालो न वृद्धो न तुबो न मूढो, न खेदं न नेदं न मूर्त्तिन मेहा ॥ न कृष्णं न शुक्लं न मोहं न तंडा ॥ चि०॥६॥ न आद्यं न मध्यं न अंतं न मन्या, न अव्यं न क्षेत्रं न दृष्टो न नावा ॥ न गुरुन शिष्यो न हीनं न दीनं ॥ चि० ॥ ७॥ इदं ज्ञान रूपं स्वयं तत्त्ववेदी, न पूर्ण शून्यं न चैत्यस्वरूपी ॥ न चान्योऽन्य निन्नं न परमार्थमेकं ॥ चि॥ ॥ शार्दूलविक्रीमितं वृत्तं ॥ आत्माराम गुणाकरं गुणनिधिं चैतन्यरत्नाकरं, सर्वे नूतगतागते सुखःखे झाते त्वया सर्वगे ॥ त्रैलोक्याधिपते स्वयं स्वमनसा ध्यायति योगी श्वरा, वंदे तं हरिवंशहर्षहृदयं श्रीमान् हृदान्युद्यतम् ॥ ए॥ इति ॥
॥अथ स्तुतयोविख्यते ॥
॥ तत्र प्रथम श्री सीमंधर जिनथोय ॥ ॥ सीमंधर जिनवर, सुखकर साहेब देव ॥ अरिहंत सकलनी, जाव धरी करूं सेव ॥ सकल आगम पारग, गणधर नांखित वाणी ॥ जयवंती आणा, ज्ञानविमल गुणखाणी ॥१॥ ए थोय चार वखत पण कहेवाय जे.
॥अथ सीमंधरजिननी थोय ॥ ॥ श्रीसीमंधर देव सुहंकर, मुनि मन पंकज हंसा जी ॥ कुंथु अर जिन अंतर जनम्या, तिहुश्रण जस परशंसा जी ॥ सुव्रत नमि अंतर वरी दीदा, शिक्षा जगत निरासें जी ॥ उदय पेढाल जिनांतरमा प्रजु, जाशे शिववह
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