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प्रतिक्रमण सूत्र. अर्थः-(ॐ के ) कार परमात्मावाचक प्रणव बीज बे, (ही के०) हीकार मायाबीज ते वश करनार , (श्री के०) श्रीकार लदमीबीज ते अव्यागमन कारण , तथा (धृति के ) धैर्य, (मति के०) बुद्धि, की र्ति के०) यश, ( कांति के ) शोजा, (बुद्धि के०) वर्तमाने उपजती सांप्र तदर्शिनी बुद्धि, (लक्ष्मी के) धनादि संपत्ति, ( मेधा के० ) धारण कर वानी बुकि, (विद्यासाधन के०) चौद विद्यानुं साधन, तथा (प्रवेशन के०) गृहप्रवेश तथा (निवेशनेषु के०) निवेशन जे मुकाम तेने विषे (सुगृहीतना मानः केप) शोजन ग्रहवा योग्य नाम जेमनुं एवा ( ते के) ते पूर्वोक्त ( जिनेंताः के ) तीर्थंकरो ते सदैव ( जयंतु के ) जयवंता वर्तो ॥
ॐ रोहिणी प्राप्ति वजशृंखला वजांकुशी अप्रति चक्रा पुरुषदत्ता काली माहाकाली गौरी गांधारी सर्वास्त्रा महाज्वाला मानवी वैरुट्या अबुप्ता मानसी महामानसी षोमश विद्यादेव्यो रदंतु वो नित्यं स्वादा॥ आचार्योपाध्यायप्रनिति चातुवर्ण्यस्य ॥
श्रीश्रमणसंघस्य शांतिर्नवतु तुष्टिनवतु पुष्टिनवतु॥ अर्थः-वली रोहिणीश्री आरंजीने मूलमां लखेली एवी महामानसी देवी पर्यंत (षोमश के०) शोल एवी ( विद्यादेव्यः के) विद्याधिष्ठात्री देवीयो ( वः के ) तमोने (नित्यं के०) निरंतर ( रदंतु स्वाहा के) र दाण करो. ए ठेकाणे ( वाहा के ) स्वाहा नणवू. कारण के ते वृछनो आम्नाय बे. को ठेकाणे उँ स्वाहा एवो पण पाठ . वली पाहिं ( 3 के) कार ते मंगलार्थ बोलवो. पडी (आचार्योपाध्यायप्रनृति के०) श्रा चार्य अने उपाध्याय प्रमुख (चातुर्वर्ण्यस्य के०) आचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी, ए चार प्रकारवाला एवा (श्रीश्रमणसंघस्य के० ) सुशोजित एवा श्रमण जे श्रीवीर जगवान् तेना संघने ( शांतिर्नवतु के० ) शांति हो, ( तुष्टिर्नवतु के ) तुष्टि था ( पुष्टिर्नवतु के ) धर्मनी पुष्टि था ॥
ॐ ग्रहाश्चंड सूर्यागारक बृहस्पति शुक्र शनैश्चर राहु केतु सहिताःसलोकपालाः सोम यम वरुण कु
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