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स्तवनानि
५३५ करी शाणो, ए फरी फरी नहिं आवे टाणो ॥ जय० ॥४॥ तुमें धन कण कंचननी माया, करतां अशुचि कीनी काया, किम तरशो विण ए गिरिराया ॥ ज० ॥ ५ एम शुनमति वचन सुणी ताजां, ए जजो जगगुरु आतम राजा, गिरि फरसे धरी मन शुचि माजा ॥ जय० ॥ ६ ॥ संवत सररिषि गज चंद समे, फागुणशुदि त्रीज बुधवार गमे, गिरिदर्शने करतां चित्त रमे ॥ जय० ॥ ७ ॥ प्रनु पदपद्म तणी सेवा, करतां नित्य लहियें शिव मेवा, कहे रूपविजय मुऊ ते हेवा ॥ जश् ॥ ७ ॥ इति ॥
॥ अथ श्री गिरनारनूषण नेमनाथजीनुं स्तवन ॥ ॥ गो वाबरमां चारवां, आहिरनो अवतार ॥ रूमु गोकुलीयुं ॥ ए देशी ॥ ॥राजुल उन्नी मालीये, जपे जोमी हाथ॥साहेब शामलीया ॥ कामणगारा कंथजी,उरा आवो नाथ ॥ सा ॥१॥ मुख मटकाळु ताहरूं, अणियाला लोचन्न सा॥ मोहनगारी मूरतें, मोद्यं माहरुं मन्न ॥ सा ॥२॥ वहाला केम रह्या वेगला,तोरण उन्ना आय।सा॥पुरव पुरव पुण्यें में लह्यो,एवो आज बनाव ॥सा॥३॥ एहवे सहु पशुयें मली, कीधो सबलो शोर ॥सा॥ बोमावी पाबा वट्या, राजुल चित्तहुं चोर ॥सा॥॥ सहसा वनमांहे जश्, सहज पुरुष संघात ॥सा॥ सर्व विरति नारी वरी, आपण सरखी जात ॥सा॥॥ पंचा वनमें दहामले, पाम्या केवल नाण ॥ सा ॥ लोकालोकप्रकाश तुं, जाणे ऊग्यो नाणसा,॥६॥राजुल आवी रंगशुं, लागी प्रजुने पाय ॥साणामुजने मूको एकली, केम शिवमंदिर जाय ॥सा॥७॥ वीतराग नावें वस्या, संयम लश जिनहाथ ॥ सा शिवमंदिर नेलां थयां, अविचल बेहुनो साथ ॥ सा ॥ ७ ॥ वाचक राम विजय कहे, सुण खामी अरदास ॥ सा ॥ राजुल जेम तारी तुमें, तेम तारो हुँ दास ॥ सा ॥ ए ॥ इति ॥ ॥अथ श्रीअष्टापदजीतुं स्तवन ॥ कुंअर गंजारो नजरें ॥
देखतां जी ॥ ए देशी ॥ ॥ चउ अ दस दोय बंदीयें जी,वर्तमान जगदीश रे ॥ अष्टापद गीरी ऊपरें जी, नमतां वाधे जगीश रे॥च॥॥ जरत नरतपति जिनमुखें जी, उच्चरियां व्रत बार रे ॥ दर्शन शुछिने कारणे रे, चोवीश प्रजुनो विहार रे ॥ च ॥२॥ उंचपणे कोश तिग कयु जी, योजन एक विस्तार रे ॥ नि ज निज मान जरावीयां जी, बिंब वपर उपगार रे ॥ च ॥३॥ अजि
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