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________________ २४७ नमिऊण अर्थसहित. (वणे के०) वनने विषे. वली आही केटलाएक तो एवो अर्थ करे ने के, (मऊंत के०) दह्यांत एटले दहन थवा योग्य एवं जे वन तेनो अंत ए टले अवसान ने जेमां, तेने दह्यांत कहिये ते दह्यांत जे दवाग्नि तेनी (मुक के०) सरल एवी जे ज्वाला तेना श्राकुलितपणायें करीने मूढ एवा जे ( मय के०) अरण्यवासी पशुङ तेनो ( बहु के ) घणो अत्यंत (नीस ण के०) जयंकर एवो (आराव के०) श्राकंद तेणें करीने (नीसणंमि के०) जयनीत थयेवू एवं (वणे के७) वनने विषे ॥६॥ (जगगुरुणो के०) वसा मर्थ्यथकी थयेला एवा जगतना गुरु जे श्री पार्श्वनाथ स्वामी तेमनुं (कमजुयलं के०) चरणयुगल, ते चरणयुगल केहबुं ले ? तो के ( निवावि अ के०) निर्वापित एटले आपत्तिना तापने प्रशमनें करी सुखीयो कस्यो डे (सयल तिहुश्रणानोरं के ) समग्र त्रिजुवना जोग एटले परिपूर्ण त्रण जुवन जेणे एवं चरणयुगल बे. आहीं श्रानोग शब्द जे , ते अनि पणनिषेधार्थ डे, एवा प्रजुना चरणकमलने (जे के०) जे मणुश्रा के०) मनुष्यो (संजरंति के० ) स्मरण करे . ( तेसिं के०) ते स्मरण करनार जनोने पूर्वोक्त जे (जलणो के०) दावाग्नि ते (जयं के) जय प्रत्ये (नकुण के) नथी करतो ॥ ७॥ हवे गाथायुग्में करीने जगवंतनो चोथो विषधरजयनिवारकत्व महिमाने देखामतो बतो कहे . विलसंत नोग नीसण, फुरिआरुण नयण तरल जीहाल। जग्गनुअंग नवलज, य सदं नीसणायारं ॥ ७ ॥ मन्नंति कीम सरिसं, दूर परिबूढ विसम विसवेगा ॥ तुद नामकर फुडसि, इमत्तं गुरुआ नरा लोए । ए॥ अर्थः-( विलसंत के० ) सुशोजित एवा (जोग के० ) फणा जे जेना अथवा ( विलसंत के०) सुशोनित (नोग के) देह जेनो एवो तथा (जीसण के०) नयंकर अने (फुरित्र के ) स्फुरित एटले चपल अने (अरुण के०) आरक्त ने ( नयन के ) चहु जेनां एवो तथा (तरल के०) चंचल ले (जीहालं के० ) जिव्हा जेनी एवो ( जग्गजुश्रंग के०) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003850
Book TitlePratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1906
Total Pages620
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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