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________________ ३२७ प्रतिक्रमण सूत्र. णीयें होय नहीं? अर्थात् कांति, प्रताप श्रने यश तेना समूहेंज जाणे शोने बे. केम के ? नीलरत्नना गढने प्रजुना श्यामवर्णनी सदृशता डे तथा सुवर्ण ना गढने नगवानना प्रतापनी सदृशता बे, तथा रूपाना गढने नगवानना यशनी सदृशता , माटें ए उत्प्रेक्षा करी, ते योग्यज डे ॥२७॥ दिव्यसृजोजिन! नमत्रिदशाधिपाना, मुत्सृज्य रत्न रचितानपि मौलिबंधान ॥पादौ श्रयंति नवतो यदि वा परत्र, त्वत्संगमे सुमनसो न रमंतएव ॥ २ ॥ अर्थः-(जिन के०) हे जिन! (दिव्यसृजः के०) मनोहर एवी जे पुष्पनी माला ते (नमत्रिदशाधिपानां के०) तमारा चरणने विषे नमेला एवा जे देवेंलो तेमना (रत्नर चितानपि के५) वैमुर्य मणिरत्नोयें रचित एवा पण ( मौलिबंधान् के०) मुकुटो जे जे तेने ( उत्सृज्य के ) त्याग करीने (जवतो के० ) तमारा (पादौ के०) चरणारविंदने (श्रयंति के) आश्र य करे बे, एटले इंझोना मुकुटमा रहेलीयो जे पुष्पमाला जे, ते मुकुटनो त्याग करीने नगवानना चरणारविंदमां पडे डे. श्राही दृष्टांत कहे .(यदिवा के ) अथवा (सुमनसः के०) पंमित अथवा देवता जे जे, ते (त्वत्संगमे के० ) तमारा संगम बते (परत्र के) अन्यस्थानकें (न रमंत एव के ) नथीज रमता. कारण के ते तमारा संग तेज आनंद पामे बे, तेम पुष्प, नाम पण सुमनस डे माटें पुष्पमालायें जे तमारा चरणा रविंदनो आश्रय कस्यो बे, ते युक्तज डे ॥॥ हवे जिनोक्त मार्गने जे आश्रय करीने रह्या , तेने जिन तारे , ते कहे बे. त्वं नाथ! जन्मजलधेर्विपराङ्मुखोपि, यत्तारयस्यसु मतो निजपृष्ठलग्नान् ॥युक्तं दि पार्थिवनिपस्य सत स्तवैव, चित्रं विनो! यदसि कर्मविपाकशून्यः॥२॥ अर्थः-(त्वं के० ) तमें ( नाथ के ) हे स्वामिन् ! (जन्मजलधेः के०) जवसमुअथकी (विपराङ्मुखोपि के.) विशेषे करी पराङ्मुख थयेला डो उता पण ( निजपृष्ठलग्नान् के ) तमारी पोतानी वांसे वलगेला ए वा (असुमतः के०) प्राणीयो जे डे, तेने (यत् के ) जे कारण माटें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003850
Book TitlePratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1906
Total Pages620
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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