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भक्तामरस्तोत्र अर्थसहित. ३०० हवे निगमादि बंधन- जय टालतो उतो कहे बे. आपादकंठमुरुशृंखलवेष्टितांगा, गाढं बृदनिगम कोटिनिघृष्टजंघाः ॥ त्वन्नाममंत्रमनिशं मनुजाःस्म
रंतः, सद्यः स्वयं विगतबंधनया नवंति ॥ ४॥ अर्थः-हे कर्मबंधनरहित ! (आपादकं के०) जेना पगथी मामीने ग ला पर्यंत (उरुशृंखल के०) महोटी श्रृंखला तेणें करी (वेष्टितांगा के०) वेष्टित एटले निब सर्व अंगो जेमनां एवा अने (गाढं के०)श्र त्यंत (बृहन्निगमकोटि के०) महोटी बेमीयो तेनी कोटियो जे जीणी श्रणी यो तेणें करीने (निघृष्टजंघाके) निःशेषपणायें करीने घसाती ने जंघा जेम नी एवा पुःखित थयेला पुरुषो बतां (त्वन्नाम के०) तमारूं जे नाम ते रू प (मंत्र के०) मंत्र जे बे, तेने (अनिशं के०) रात्रि दिवस अर्थात् निरंत र ( स्मरंतः के० ) स्मरण करता एवा ( मनुजाः के०) मनुष्यो, ते (सद्यः के०) तत्काल (वयं के०) पोतानी मेलें ( विगतबंधनयाः के) विशेषे करीने गयुं ने बंधनजय जेमनुं एवा (जवंति के०) थाय ने ॥ ४५ ॥
हवे पूर्वोक्त सर्व नयने त्याग करतो तो संदेपथी कहे जे. मत्तजिमृगराजदवानलादि, संग्रामवारिधिमदो दरबंधनोत्रम् ॥ तस्याशु नाशमुपयाति जयं निये
व, यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥४३॥ अर्थः-हे प्रनो! ( यः के० ) जे ( मतिमान् के० ) बुद्धिमान् पुरुष, ( तावकं के० ) तमारं (श्मं के) श्रा (स्तवं के०) स्तवन जे जे तेने (अधीते के० ) लणे , (तस्य के० ) ते पुरुषने (मत्त के० ) मदोन्मत्त एवो ( छिपेंड के०) महान् हस्ती अने (मृगराज के०) सिंह, तथा (द वानल के० ) वनाग्नि तथा (अहि के०) सर्प अने ( संग्राम के) सं ग्राम, अने (वारिधि के०) समुज, तथा (महोदर के) जलोदरादि रो ग, अने (बंधन के०) बंधीखानुं ए आठ वानां ते थकी (उद्धं के ) उ त्पन्न थयुं एबुं जे (जयं के० ) जय ते ( नियेव के०) बीके करीनेज जे म होय नहिं ? तेम (श्राशु के०) शीघ्र उतावलु ( नाशं के०) नाशने
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