SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अजितशांतिस्तव अर्थसदित. २६ए पर्वतो तेनो (वई के) पति एवो जे कनकाचल एटले मेरुपर्वत, ते पण (तं के) ते जगवंतना स्थिरतागुणें करीने तुलनाप्रत्ये (न पाव के०) पामी शके नहीं. अर्थात् ए पूर्वेक्त सर्व पदार्थों जगवंतना गुणनी बराबरी करी शकता नथी ॥ १७ ॥ श्रा, खिजितक नामा छंद जाणवो. ___ हवे श्री शांतिनाथजीने स्तवे बे. तिबवर पवत्तयं तम रय रहियं, धीर जण थुअ चित्रं चुअ कलि कलुसं ॥ संति सुद प्पवत्तयं तिगरण पयज, संति महं महामुणिं सरण मुवणमे ॥२॥ ललिअयं ॥ अर्थः-(तिबवर के०) श्रेष्ठ तीर्थ जे चतुर्विध संघ अथवा प्रथम गणधर तेना ( पवत्तयं के० ) प्रवर्तक अथवा तिर्थमां वर एटले श्रेष्ठ एवो जे धर्म तेने तीर्थवर कहिये ते धर्मरूप तीर्थना प्रवर्तक एवा तथा (तम के० ) अज्ञान(रय के०) रज ते बध्यमान कर्म, उपलक्षणथी बंधातुं एवं जे कर्म, तेणें करी ( रहियं के०) रहित एवा तथा (धीर के०) बुद्धियें क री शोने, तेने धीर कहिये, एवा (जण के०) जन जे , तेमणे (थुश्र के०) वाणीयें करी स्तुति कस्या अने (अच्चियं के०) फूलें करी अर्चन क ख्या एवा तथा ( चुत्र के ) बांमयुं ए ( कलि के) वैर अथवा कलह तेनुं ( कलुसं के) कानुष्य एटले पाप जेणे एवा तथा (संति के०) मोद, तेनुं जे ( सुह के ) सुख तेने अर्थे (प्पवत्तयं के०) प्रवर्त्तता एवा जे साधु तेने दं एटले पालन करनार अथवा मोदसुखना प्रवर्तक एटले करनार एवा (महामुर्णिसंति के०) महोटा मुनि जे श्रीशांतिनाथजी ते प्रत्ये (तिगरण के०) मन, वचन अने काया तेणें करी ( पयर्ड के०) पवित्र तो एवो ( अहं के) हुँ (सरणं के०) शरणप्रत्यें (उवणमे के) उपनमे एटले जाजं दुं ॥ १७ ॥ आ ललितक नामा छंद जाणवो ॥ हवे त्रण लोकें करी श्री अजितनाथजीने स्तवे बे. विणणय सिरि र अंजलि रिसिगण संथ थि मिविबुदादिव धण व नर वश्थ्य मदि अच्चि अं बहुसो ॥अश्रुग्गय सरय दिवायर समदिन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003850
Book TitlePratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1906
Total Pages620
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy