________________
संथारापोरिसि अर्थसहित. २५३ रागादिक प्रत्नावथी रहित एकज, ( मे के० ) महारो (अप्पा के०) श्रा त्मा बे, ( सेसा के०) शेष थाकता रह्या जे ( संजोगलरकणा के ) - व्यथकी तन, धन, कुटुंबादि संयोग मिलापरूप अने नावथकी विषय कषा यादिरूप संयोग मिलाप, एवा (नावा के७) नाव जे जे ते (सव्वे के०) सर्वे (मे के०) महारा वरूपथकी (बाहिरा के०) बाह्य बे, एटले न्यारा ॥१॥
संजोगमूला जीवेण, पत्ता उस्कपरंपरा ॥ तम्हा
संजोगसंबंध, सवं तिविदेण वोसिरियं ॥३॥ अर्थः-तन, धन, कुटुंब ममत्वादि रूपनो (संयोग के०) संयोग एटले मि लाप, तेहीज (मूला के०) मूलकारण ले जेनुं एवी (उस्कपरंपरा के०) फुःख नी श्रेणी ते (जीवेण के० ) जीवें (पत्ता के०) पामी (तम्हा के०) ते कार ण माटें (संजोगसंबंधं के०) पूर्वोक्त जे संयोग संबंध , ते (सवं के०) सर्व प्रत्ये (तिविहेण के० ) त्रिविधं करी ( वोसिरियं के०) हूं वोसिरा, ढुं अथवा त्यागु बुं, एम कहे, ॥ १३ ॥
अरिहंतो मह देवो, जावजीवं सुसाहुणो गुरुणो ॥ जिणपन्नत्तं तत्तं, श्य सम्मत्तं मए गहियं ॥ १४॥ अर्थः-( अरिहंतो के० ) श्रीअरिहंत अने सिक नगवंत, ते ( मह के०) महारा ( देवो के०) देव . ( जावजी के० ) ज्यां सुधी जीवु त्यां सुधी (सुसाहुणो के०) सुसाधु, जे जिनमतने विषे सावधान सम्यक ज्ञानक्रियावान् एवा आचार्य उपाध्याय अने मुनि, ते महारा (गुरुणो के ) गुरु , ज्यां सुधी जीवं, त्यां सुधी ( जिण के० ) जिनेश्वर देवोयें (पन्नत्तं के०) प्ररूप्युं नांख्युं एवं जे दयामूल तथा विनयमूल तत्त्व, अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र अने तपोरूप ( तत्तं के ) तत्त्व, ते महारो धर्म बे. जावजीव सुधी (श्य के०) ए प्रकारें (सम्मत्तं के) सम्यक्त्व (मए के० ) महारे जीवें (गहियं के० ) ग्रडं अंगीकार कीधुं ॥ १४ ॥ इति रात्रिसंस्तारकविधिसूत्रार्थः ॥
खमित्र खमाविअ मइ खमिय, सबद जीवनिका य॥ सिह साख आलोयणद, मुजाद व न ना
२५
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org