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प्रतिक्रमण सूत्र. होय, तेतो लिपिरूप होय, ए पण विरोध , ते विरोधनो परिहार करे ले (अदर के०) स्थिर ने निश्चल ने (प्रकृतिः के०) स्वजाव जेनो ते अद रप्रकृति कहियें, अर्थात् शाश्वतरूप डो, अथवा अक्षर जे मोद तेज डे प्रकृति एटले स्वजाव जेनो एवा तथा (अलिपिः के०) नथी कर्मरूप लेप जेने एवा तमें बो तथा (अज्ञानवत्यपि के०) अज्ञानवाला एवा पण (त्व यि के०) तमारे विषे निश्चंथकी (विश्वविकाशहेतुः के०) त्रण जगत्ने प्र काश करवानुं हेतुलूत एवं जे (ज्ञानं के०) ज्ञान ते (सदैव के०) निरंतर (कथंचित् के०) केमज (एव के०) निश्चे (स्फुरति के) स्फुरे ? एटले जे अज्ञानवान् होय, तेने ज्ञान स्फुरे नहीं, ए विरोध बे, ते विरोधना परिहारने माटें कहे . अज्ञान अने अवति ए बे पद जूदां करीने अर्थ करवो, त्यारे (अझान् के०) ज्ञान रहित एवा जे मूर्खजन तेने (श्रवति के०) सम्यक् बोध करे बते ( त्वयि के ) तमारे विषे ज्ञान स्फुरे वे ॥३०॥
हवे जे जिननी अवज्ञा करे , तेने ते अवज्ञा अनर्थने
__माटें थाय बे, ते त्रण काव्ये करी कहे जे. प्राग्नारसंनृतननांसि रजांसि रोषा, उबापितानि कमरेन शठेन यानि॥गयापि तैस्तव न नाथ! दता
हताशो, ग्रस्तस्त्वमीनिरयमेव परं पुरात्मा ॥ ३१॥ अर्थः-(नाथ के०) हे नाथ ! (कमठेन के०) कमगसुर जे तेणें (रोषात् केप) कोपथकी एटले कषायना उदयथकी (यानि के०) जे रजांसि के०) रजो, तमारा उद्देशें करीने (उजापितानि के०) उमामीयो (तैः के०) ते रजोयें करीने (तव के०) तमारी (गयापि के०) शरीरनी लाया एटले कांति ते पण (न हता के०) न हणाणी, ते रज केवीयो जे? तो के (प्राग्नार के) अधिकपणायें करीने (संतृत के०) नस्यां ने व्याप्यां ले (ननां सि के०) आकाशो जेणे एवी जे. हवे ते कमगसुर केहवो ? तो के (शठे न के०) मूर्ख एवो जे. (परं के०) परंतु (हताशः के०) हणाणी जे आशा जेनी एवो (कुरात्मा के०) पुष्ट आत्मा जेनो एवो (अयमेव के०) एज कमगसुर ते पोतेंज (अमीनिः के०) एज रजोयें करीने (ग्रस्तः के०) व्याप्त थयो. अर्थात् रज जे पापरूप कर्म तेणें करीने पोतेंज व्याप्त थयो ॥ ३१ ॥
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