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अजितशांतिस्तव अर्थसहित. पर अर्थः-( एवं के) ए प्रकारें ( तवबलविजलं के०) तपोबलें करीने विपुल विस्तीर्ण विशाल एबुं अने ( ववगय के०) गयुं (कम्मरयमलं के०) कर्मरूप रज अने मल जेमने एवं तथा (सासयं के०) शाश्वती एवी तथा ( विउलं के) विपुल विस्तीर्ण ने सुख जेने विषे एवी (गई के०) गति जे तेने (गयं के०) गत एटले प्राप्त थयुं, एवं (अजिअसंति जिजुअलं के०) अजितशांतिजिनयुगल एटले बीजा अने शोलमा तीर्थंकर, युगल तेने (मए के) में, (शुभं के) स्तुति कडं ॥ ॥ ३५ ॥ श्रा, गाथा नामक बंद जाणवो. तं बहु गुणप्पसायं, मुक सुदेण परमेण अविसायं ॥ नासेज मे विसायं, कुणन अ परिसावि अ पसायं ॥३६॥गादा ॥
अर्थः-वली (तं के ) ते पूर्वोक्त जिनयुगल केहq डे ? तो के (बहु गुणप्पसायं के०) ज्ञानादिक अनेक गुणोनो ने प्रसाद जेमने एवं तथा (पर मेण के० ) परम उत्कृष्ट एवा (मुरकसुदेण के) मोदसुख जे तेणें करी (अविसायं के०) नथी विषाद जेमने एवं जिनयुगल, ते (मे के०) म हारा ( विसायं के०) विषाद जे जे तेने ( नासेउ के) नाशने (कुणउ के०) करो, (अ के०) वली (परिसावि के०) आ प्रस्तुत स्तव सांजलनारी जे विछानोनी सजा ते पण महारी उपर गुण- ग्रहण अने दोषनो त्याग ते रूप, ( पसायं के०) प्रसादने करो ॥ ३६ ॥ श्रा पण गाथाछंद जाणवो.
हवे स्तवनना अंतमां मंगलशब्दोयें करीने प्रणिधान कहे बे. तं मोएन अनंदि, पावेन अनंदिसेण मनिनंदि॥परिसावि य सुद नंदि, मम य दिसन संजमे नंदि॥ ३७॥गादा ॥
अर्थः-(तं के) ते अजितशांतियुगल ते, मने (मोएल के) मोद एटले हर्ष तेने द्यो,आपो (अ के) अने सर्व लोकोने (नंदि के) समाधिने (पावेल के०) प्राप्त करो. (अ के) वली या स्तवन करनार जे (नंदिसेण के०) नंदिषेण कवि, तेने (अजिनंदि के ( सर्व प्रकारे समृद्धि सानंदने पमामो.(य के०) तथा (परिसावि के) आ गावन सांजलनार जे श्रोता जनोनी पर्षदा,
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