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________________ ४६५ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. अप्पमइ नवबोदवं, नासियं विवरियं च जमिद मए॥ तं सोहंतु गीयना, अणनिनिवसि अमन रिणो॥४१॥ इति गुरु वंदनकनाष्यं समाप्तम् ॥ अर्थः-श्रा वांदणांनो विचार ते (अप्पम के०) अल्प डे मति जेहनी एवा जे (नव्व के ) नव्यप्राणी तेमना (बोहबं के०) बोध ज्ञानने अर्थे (नासियं के) नांख्यो परंतु श्रावश्यक बृहकृत्त्यादिक ग्रंथने विषे एनो अत्यंत विस्तार ने त्यांची विशेषे जोवं, शहां संदेपथी कह्यो बे.तेमांहे जे अनानोगें (विवरिअं के०) विपरीतपणे (च के०) वली (जं के०) जे (इह के ) ए नाष्यमांहे ( मए के० ) महाराथी कहेवाणुं होय (तं के०) तेने वली (अणनिनिवेसि के०) अकदाग्रही एटले हग्वादरहित एवा अने ( अमछरिणो के०) मत्सरपणाना परिणामें रहित, गुणना रागी एवा जे (गीयबा के०) गीतार्थ एटले गीतना अर्थ तेना जाण अर्था त् सूत्रार्थना जाण तथा निश्चय व्यवहारने विषे कुशल होय ते ( सोहं तु के०) शोधजो, अर्थात् शुद्ध करजो. ए ४ए बोलें करी श्रीगुरुने वांदणां देवानो विधि कह्यो ॥ आंहीं " श्वामि खमासमणो वंदिलं जावणिजा ए निसीहियाए” इत्यादिक गुरुवंदन सूत्र जो पण ग्रंथकारें मूल पाठ मां गाथारूपें कडं नथी, तो पण प्रसंगथी तेनो अर्थ लखवो जोश ये, परंतु या प्रतिक्रमणने विषे प्रथम सुगुरु वांदणांमां ते अर्थ सविस्तर लखाइ गयेलो होवाथी आ ठेकाणे लख्यो नथी. इति श्रीगुरुवंदनक नाष्य अर्थ सहित संपूर्ण ॥४१॥ हवे एवा गुणवंत गुरुप्रत्ये वांदणां देश्ने तेमना मुखथी यथाशक्तियें पच्चरकाण लेवू, केम के 'झानस्य फलं विरतिः' एवं वचन जे. वली आगम मध्ये कयु डे के, “पच्चरकाणेणं नंते जीवे किं जणय पच्चरकाणेण य आसव दाराशनिरंनंति” तेमाटें पच्चरकाण करवानो महोटो लाज जे. ते पच्चरकाण शुं? अने ते केटला प्रकारनां पञ्चरकाणो जे? इत्यादिक जाणवा माटें त्रीजु पञ्चरकाण जाष्य कहे . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003850
Book TitlePratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1906
Total Pages620
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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