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________________ कल्याण मंदिरस्तोत्र अर्थसदित. हवे पांचमो सिंहासननामा प्रातिहार्यातिशय कहे . श्यामं गभीर गिरमुज्ज्वलहेमरत्न, सिंहासनस्थमिद नव्यशिखंडिनस्त्वाम् ॥ आलोकयंति रजसेन नदंत मु, श्रमीकराद्विशिरसीव नवांबुवादम् ॥ २३ ॥ अर्थः- ( हे स्वामिन्! या संसारक्षेत्रने विषे ( जव्य शिखं मिनः के० ) व्यरूप शिखंमी जे मोर बे, ते ( इह के० ) या समवसरणने विषे ( त्वां ho) तमोने ( उज्ज्वल के० ) निर्मल देदीप्यमान ( हेमरल के० ) सु वर्ण तथा रत्न तेणें मिश्रित एवा ( सिंहासनस्थं के० ) सिंहासनने वि बेठा थका ने (श्यामं के० ) श्यामवर्णयुक्त तथा ( गजीर गिरं के० ) गंजीर बे वाली जेमनी एवा तमोने ( रजसेन के० ) उत्सुकपणायें करीने (लोकयति के० ) जोवे बे, ते केवी रीतें जोवे बे ? तो के ( चामीकराडि के० ) मेरुपर्वतना ( शिरसि के० ) शिखर तेने विषे (उ चैः के० ) उंचे खरें करी (नदंतं के०) शब्द करतो एटले गर्जना करतो एवो ( नवांबुवाई के० ) नवीन मेघनेज ( श्व के० ) जेम. अर्थात् हिं मेरुपर्वतने स्थानके सिंहासन जावं, ने मेघने स्थानकें प्रजुनुं श्याम शरीर जाणवुं तथा गर्जनाने स्थानकें प्रजुनी वाणी समजवी ॥ २३॥ वे मंगलाख्यनामा बडो प्रातिहार्यातिशय कहे बे, उता तव शितिद्युतिमंमलेन, लुप्तदवविरशो कतरुद्भव | सान्निध्यतोऽपि यदि वा तव वीतराग, रात को सचेतनोपि ॥ २४ ॥ ३२५ अर्थ :- हे स्वामिन्! (तव के० ) तमारुं (ऊछता के० ) उंचुं जातुं एवं श्रथवा प्रसरतुं एवं (शितिद्युतिमंडलेन के० ) श्याम जे प्रजा तेनुं जे मं मूल अर्थात् नामंगल. तेणें करीने ( लुप्त के० ) लोपाणी बे एटले आ छादित (द० ) पानमानी ( बविः के० ) बवि एटले कांति अर्थात् रक्तता जेनी एवो ( अशोकतरुः के० ) अशोकवृक्ष ते ( बनूव ho ) होतो हवो. ए अर्थ युक्तज बे, केम के ? ( यदिवा के० ) अथवा ( वीतराग के० ) गयो ने रागाने द्वेष जेथकी एवा हे वीतराग ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003850
Book TitlePratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1906
Total Pages620
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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