________________
अजित शांतिस्तव अर्थसहित. २६५ लक्षण, तेने ( र के) आपनार एवा, अने ( संतिमं के० ) रूडे प्रकारें तस्यु ने ( सब के०) सर्वोयें (जया के) मृत्यु जेथकी, अर्थात् जेथकी सर्व मृत्युनय तरे के एवा, (संतिं के) श्रीशांतिनाथ (जिणं के०) तीर्थंकर तेने (थुणामि के०) स्तुति करं बुं. श्या माटें स्तुति करं बुं ? तो के ( मे के०) महारा उपसर्गनी ( संतिं के० ) शांति तेने ( वेहेळं के) विधातुं एटले करवाने अर्थे स्तुति करुं बुं ॥१॥ श्रा, रासानंदित बंद बे.
वली अजितनाथने स्तवे बे. इकाग विदेह नरीसर, नर वसहा मुणि वसदा ॥ नव सारय ससि सकलाणण, विगय तमा विदा रया ॥अजि उत्तम तेज गुणेदिं, मदा मुणि अ मिअ बलाविजल कुला ॥ पणमामि ते नव नय
मूरण, जग सरणा मम सरणं ॥१३॥ चित्तलेदा॥ अर्थः-(इकाग के०) इक्ष्वाकुकुलवंशमां उत्पन्न श्रया माटे हे इकाग कुलवंश्य ! तथा ( विदेह के ) विदेहनामा देश तेना ( नरीसर के) नरेश्वर एटले राजा माटे हे विदेहनरेश्वर! तथा (नर के०) मनुष्य तेमां ( वसहा के ) वृषन एटले श्रेष्ठ माटे हे नरवृषन! तथा (मुणिवसहा के०) मुनिमांहे एक अद्वितीय एटले मुनिधर्ममां धोरी, अथवा मुनीसोनी सना तेने विषे जे नवो स्तव जेमनो एवा, तेना संबोधने हे मुनिवृषन ! तथा ( नव के ) नवो उग्यो एवो जे (सारय के) शारद एटले शरद् शतु संबंधी ( ससि के० ) चंडमा तेनी पेरें ( सकल के०) शोजावंत ठे (आणण के) आनन एटले मुख जेमनुं माटे हे नवशारदशशिसकला नन! वली ( विगयतमा के०) गयुं ने तम ते अज्ञानरूप अंधकार जेना थकी माटे हे विगततम ! तथा ( विहुअरया के ) विघुत एटले गयुं डे फेड्यु बे निकाचित कर्मरूप रज जेणें माटे हे विधुतरज! तथा (अजित के) रागादिकें न जीताय माटे हे अजित ! तथा ( गुणेहिं के०) बाह्य अन्यंतर एवा गुणोयें करी (उत्तम के०) श्रेष्ठ बे, (तेय के०) तेज जेमनुं एवा माटे हे उत्तमतेज ! तथा (महामुणि के०) महातपस्वीयो जे महोटा
www.jainelibrary.org
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only