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________________ कल्याणमंदिरस्तोत्र अर्थसहित. ३१ पन्यासने माटें .(महानुनावाः के०) महोटो ने प्रजाव जेमनो एवा (म ध्यविवर्तिनः के०) मध्यस्थ अपक्षपाती पुरुष जे जे तेनुं (एतत्स्वरूपं के) एबुंज स्वरूप ,एटले खनाव के (यत् के०) जे कारण माटे ( विग्रहं के०) वढवाम जे मांहोमांहे थता क्लेश,तेनो परस्पर विवाद तेने (प्रशमयं ति के०) उपशमावे . तेम तमें पण शरीर अने जीवनो परस्पर विग्रह टालवाने शरीरनो नाश करो बो, ते (हि के) निश्चे युक्तज ॥ १६ ॥ आत्मा मनीषिभिरयं त्वदनेदबुध्या,ध्यातोजिनें! नवतीद नवत्प्रानवः॥ पानीयमप्यमृतमित्यनुचित्य मानं, किं नाम नो विषविकारमपाकरोति ॥ १७ ॥ अर्थः-(जिने के०) हे जिने ! (मनीषिभिः के०) पंमितो जे जे तेम णें (अयं के०) आ (आत्मा के०) जीव ते, ( त्वदन्नेदबुद्ध्या के० ) तमारी साथे अनेदबुछियें करीने (ध्यातः के०) ध्यान कस्यो बतो (नवत्प्रजावः के०) तमारा सरखो ने महिमा जेनो एवो (इह के) या संसारनेविषे (नवति केण्) थाय . त्यां दृष्टांत कहे जे. जेम केः-(नाम के०) नामशब्द कोमलामंत्रणमां बे. अथवा प्रसिद्ध अर्थमां ने. (पानीयमपि के०)जल जे बे, ते पण (अमृतं के०) अमृत ले ( इति के) ए प्रकारें (अनुचिंत्यमानं के) चिंतन कडं उतुं अथवा मणिमंत्रादिकें करी संस्कारित कझुं तुं ( विषकारं के) विषना विकारने (किं के०) शुं ( नोअपाकरोति के०) नथी दूर करतुं ? अर्थात् अमृत बुझियें चिंतवन कमु अथवा मंत्रित क घु एवं जल पण अमृत तुल्य थश्ने विषविकारने टालेज डे ॥ १७ ॥ हवे अन्यदर्शनीयोयें पण नामांतर कल्पनायें करीने तमो श्रीवीत रागदेवज ध्यान करेला बो, ते कहे . त्वामेव वीततमसं परवादिनोपि, नूनं विनो! हरिद रादिधिया प्रपन्नाः॥ किं काचकामलिनिरीश! सितो पिशंखो, नो गृह्यते विविधवर्णविपर्ययेण ॥ १७ ॥ अर्थः-( विनो के ) हे स्वामिन् ! ( नूनं के) निश्चे ( परवादिनोपि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003850
Book TitlePratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1906
Total Pages620
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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