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________________ ६ प्रतिक्रमणसूत्र. तथा मानसिक दुःख अने दारिख प्राप्त न थाय, केम के जो मनुष्यमां उ पजे, तो रोगादिकें रहित थाय अने समस्त हितार्थ करी संपत्तिमान् थाय. माटे तेने शारीरिक अने मानसिक छुःखप्राप्त न थाय. तथा कृषि समृद्धि वान् होय माटें दरिडीपणे न होय अने तिर्यंचमां उपजे, तो पण कनक, रत्न, चिंतामणि, कल्पम, पट्टतुरंगम, जयकुंजरा दिने विषं उपजे, तिहां पूजा पामे. अथवा ते मनुष्य पण केहवो ? तो के तिरिए एटले पशु समान एवा बाल गोपाल कृषीवलादिक तेने विषेपण कदाचित् कर्मना वशथकी उपजे, कोण उपजे ? तो के तुमप्रत्यें प्रणामनां करनार एवा (जीवा के ) जीवो, तो तिहां पण (पुरकदोगचं के) जुःख अने दारिजप्रत्ये (नपावंति के) न पामे. या गाथामां लघु तेत्रीश, अने गुरु चार, सर्व मली सामंत्रीश अदरो ने ॥३॥ ॥ तुद सम्मत्ते लझे चिंतामणिकप्पपायवघ्नदिए ॥ पावंति अविग्धेणं, जीवा अयरामरं गणं ॥४॥ अर्थः-(चिंतामणि के०) चिंतामणिरत्नथकी अने ( कप्पपायवप्न हिए के ) कल्पपादप एटले कल्पवृदयकी अधिक ऐवो ( तुह के०) त मारा ( सम्मत्ते के ) सम्यक्त्व दर्शनने (लके के ) पामे बते, (अवि ग्घेणं के) विनरहितपणे (जीवा के०) नव्य जीवो, (अयरामरं के०) अजर एटले ज्यां जरा नथी अने अमर एटले ज्यां मरण नथी, एवं (गणं के) स्थान, तेप्रत्ये (पावंति के०) पामे बे, पण तमारुं सम्यग् दर्शन माम्याविना को जीव, मोदप्रत्ये पामे नहीं. आ गाथामां लघु उंगणत्रीश, अने गुरु ब, सर्व मती पांत्रीश अदरो ने ॥४॥ ॥अ संथुई महायस, जत्तिनरनिग्नरेण दिएण ॥ ता देव दिज बोदिं, नवे नवे पास जिणचंद॥५॥ इति ॥१६॥ अर्थः-(महायस के०) हे महायशः! एटले हे त्रैलोक्यव्यापकयशः! (न त्तिप्पर के ) नक्तिने समूहें करी ( निप्परेण के) पूर्णजरें एटले नक्तिना समुदायें करी परिपूर्ण जघु एवं, ( हिएण के०) हृदय एटले चित्त तेवा चित्तें करी में सेवके (श्य के०) ए प्रकारे तुऊने (संथुङ के०) संस्तुत एट Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003850
Book TitlePratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1906
Total Pages620
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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