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________________ २२० प्रतिक्रमण सूत्र. ख्यातोऽष्टापदपर्वतोगजपदः सम्मेतशैलाभिधः, श्रोमा न रैवतकःप्रसिध्मदिमा शQजयो मडंपः॥ वैनारःकन काचलोऽबुंदगिरिःश्रीचित्रक्टादय,स्तत्र श्रीशषनादयो जिनवराः कुर्वतु वो मंगलम् ॥ ३२ ॥ इति ॥५॥ अर्थः-( ख्यात के० ) प्रख्यातवंत एवो, (अष्टापदपर्वतः के) अ ष्टापद पर्वत, तथा ( गजपदः के०) गजपद पर्वत, वली ( सम्मेतशैलानि धः के) सम्मेतशिखरनामा पर्वत, तथा ( श्रीमान् के) लदमीवंत एवो ( रैवतकः के०) रेवताचल ते गिरनार पर्वत, तथा (प्रसिद्धम हिमा के) प्रसिफ महिमा जेनो एवो (शत्रुजयो मंगपः के) श्रीसिझगि रिमंझप पर्वत, वली (वैनारः के० ) वैनार पर्वत, तथा ( कनकाचलः केण ) मेरुपर्वत, तथा ( अर्बुद गिरिः के० ) आबू पर्वत, तथा (श्रीचित्र कूटादयः के०) श्रीचित्रकूटादिक पर्वतो जे जे (तत्र के) तेने विषे (श्रीष नादयः के०) श्रीषनादिक (जिनवराः के०) जिनवरो बे, एटले सामान्य केवलीने विषे प्रधान एवा तीर्थंकरो बे, ते (वः के०) तमाळं (मंगलंके०) कल्याण तेने (कुर्वंतु के० ) करो ॥ ३५ ॥ इति सकलाईत्संपूर्णम् ॥५॥ ॥ अथ श्रीश्रावकपादिकादिसंदेपातिचारा लिख्यते ॥ ॥ नाणंमि दसणंमि अ, चरणंमि तवंमि तहय विरियमि ॥ आयरणं आयारो, श्श्र एसो पंचहा नणि ॥१॥ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्रा चार, तपाचार, वीर्याचार. ए पंचविध आचारमांहि अनेरो जे को अति चार, पद दिवसमांहे सूक्ष्म, बादर, जाणतां, अजाणतां, हु हुश, ते सवि हुं मन, वचन, कायायें करी तस्स मिला मि मुकनं ॥१॥ तत्र ज्ञानाचार आठ अतिचार ॥ काले विणए बहुमाणे,उवहाणे तहय निन्दवणे ॥ वंजण अब तऊनए, अहविहो नाणमायारो॥२॥ ज्ञान का लवेलायें लण्यो, गण्यो विनयहीन, बहुमानहीन,योग उपधानहीन, अनेरा कन्हें जणी, अनेरो गुरु कह्यो. देववंदन वादणे, पमिकमणे, सजाय कर तां, जणतां, गुणतां, कूमो अदर, कान्हा मात्रे, आगलो उडो जण्यो सूत्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003850
Book TitlePratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1906
Total Pages620
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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