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स्नातस्यानी स्तुति अर्थसहित.
ए कुंदिगोरकीरतुसारवन्ना, सरोजदना कमले निसन्ना ॥वाएसिरी पुबयवग्गदबा, सुदाय
सा अम्द सया पसबा ॥४॥ इति ॥२०॥ अर्थः-(सा के ) ते (वाएसरी के०) वागीश्वरी एटले श्रुतदेवी सरखाति ( अम्ह के०) अमने (सया के०) सदा निरंतर, (सुहाय के०) सु खाय एटले सुखने माटे था. इति शेषः ॥ हवे ते वागीश्वरी केहवी ? तो के (कुंद के०) मचकुंद जातिनां फूल, (के०) चंद्रमा, (गोरकीर के०) गायन उध तथा (तुसार के) हिम, ए चारनी पेरें उज्ज्वल डे, (वन्ना के ) वर्ण जेनो, वली ते वागीश्वरी केहवी ? तो के ( सरोज हबा के०) सरोजहस्ता बे. तिहां (सरोज के) कमल तेणें करी सहित डे (हबा के) हाथ जेनो एटले हाथमां कमल धारण कयुं . वली ते वागीश्वरी केहेवी ? तो के (कमले के०) कमलमां (निसन्ना के०) बेस बुं बे, रहेq ने जेनुं एवी जे. वली ते वागीश्वरी केहवी डे ? तो के पुत्रय वग्गहबा . तिहां (पुबय के०) पुस्तकनो जे (वग्ग के० ) वर्ग एटले समूह, ते (हबा के) जेना हाथने विषे जे. वली ते श्रुतदेवी केहवी ? तो के (पसबा के०) प्रशस्ता एटले श्रीसंघनी नक्ति विद्यादानादिक करवाथकि, प्रशस्त उत्तम ॥४॥ आ गाथामां लघु पांत्रीश तथा गुरु नव, सर्वादर चुम्मालीश , ए चारे गाथामां पद शोल, संपदा शोल, लघु एकशो एकाघुन्न, गुरु पच्चीश, सर्वादर एकशो गेतेर २ ॥ इति ॥ २४॥
॥ अथ स्नातस्यानी स्तुतिप्रारंजः॥
॥ तत्र प्रथमं वर्षमानस्तुतिः॥ स्नातस्याप्रतिमस्य मेरुशिखरे शच्या विनोः शै शवे, रूपालोकनविस्मयाहृतरसत्रांत्या चमच्चदु षा ॥ नन्मृष्टं नयनप्रनाधवलितं दीरोदकाशंकया,
वकं यस्य पुनः पुनः सजयति श्रीवर्धमानो जिनः॥२॥ अर्थः-(शच्या के०) साणी जे तेणें (मेरुशिखरे के) मेरु पर्वतना शिखरने विषे (स्नातस्य के०) नवराव्या अने (अप्रतिमस्य के०) निरुपम
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