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प्रतिक्रमण सूत्र. ने पनी ॥ अणुजाणद जिहिला, हिजा ॥ अणुजा पद परम गुरु ॥गुरु गुण रयणेहिं मंमिश्र सरीरा ॥ बहुपम्पुिन्ना पोरिसि, राश्श संथारए गमि ॥ १॥ अर्थः-हवे अर्थ विनाषायें करी संथारानो विधि लखीये बैयें. अहींयां साधु तथा श्रावक, पमिकमणां करीने पड़ी स्वाध्याय करे, एटले नणवं, गणवू करे, पठी पोरिसी थये बते आचार्य समीपें आवे, तिहां खमासमण दश्ने कहे. श्वाकारेण संदिसह जगवन् “बहु पमिपुला पोरिसि,राश्य सं थारए गमि” एनो अर्थ लखियें बैयें. (नगवन के ) हे नगवन् ! संपू र्ण ऐश्वर्यादिक गुणे युक्त! तमें(श्चाकारेण के०) पोतानी श्छायें करी. मुऊ ने ( संदिसह के०) आदेश आपो. (बहुपमिपुलापोरिसि के०) घणी प्रतिपूर्ण एवी पोरिसि थ माटे (राश्य के) रात्रि संबंधी (संथारए के)संथारा प्रत्ये (गमि के०) ढुं करूं ? गुरु आदेश थापे, पठी इरियावहियं पू र्वक चैत्यवंदन करे, पठी शरीरचिंता लघुशंकादिक कार्य सर्व करे, पढी यत्ना यें करी संथारो करे. पड़ी माबो पग, संथारानी साथें राखीने मुखवस्त्रिका नुं प्रतिलेखन करे एटले मुहपत्ती पमिलेहे, पडी त्रण वार निसिही जणे, (निसिही के०) पाप व्यापारनो निषेध करीने, (महामुणीणं के०) महोटा मुनीश्वर एवा (गोयमाईणं के०) श्रीगौतमादिक. ( खमामसणाणं के०) दमाश्रमण जे जे, ते प्रत्ये (णमो के०) नमस्कार करे, पडी (जिहिला के ) हे ज्येष्ठार्याः ! एटले हे वृसाधुरी ? तमें मुजने (अणुजाणह के०) आशा आपो, ए प्रकारे कहेतो थको, संथारानी उपर रह्यो थको, नम स्कारपूर्वक सामायिक पाठ त्रण वार जणे, पड़ी आवी रीतें कहे, ते कहे ने. (गुरुगुणरयणेहिं के प्रतिरूपादिक आचार्यना गुरुगुण एटले महोटा जे गुण, ते रूप रत्नोयें करी ( मंमिअसरीरा के० ) मंमित , शोनित ने शरीर जेनां एवा (परमगुरु के०) उत्कृष्ट गुरुङ तेमने संबोधन दर, बोला वीयें, के हे परमगुरु ! तमे मुझने (अणुजाणह के०) आदेश आपो. प्रति पूर्ण एटले घणी एवी पोरिसि थर, माटें रात्रिसंथारकनी उपर हुं तिष्टुं ? एटले विश्राम करूं? निजा मुकाउं! अहींयां सुधी गद्यपाठ तथा एक गाथा मां संथारानी आझानुं स्वरूप कर्वा ॥१॥
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