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________________ जयवीयराय अर्थसदित. ए सातमो (सुहगुरु के.) शुजगुरु जे शुझप्ररूपक कालानुसारें शुद्धकि याना खप करनारा गुरु तेनो (जोगो के ) योग एटले समागम महारे था, आठमो ( तवयण केu) तम्चन एटले तेहीज सदगुरुना वचन नी अथवा जिनवचननी ( सेवणा के० ) सेवा एटले आराधना था. ते क्यां सुधी था ? तो के मारे ज्यां सुधी (आनवं के०) संसार बे, त्यां सुधी था. ते सेवना केवी रीतें था ? तो के ( अखंमा के०) अखंम परिपूर्ण जेथी परगुणमां चित्त प्रवेश करे नहीं. सदा निज गुणमां ज चित्त वर्ते, अथवा ए आठ वानां ज्यांसुधी हुं संसारमा रहुँ, त्यां सुधी मुऊने था. किंबहुना. ए गाथामां लघु पांत्रीश, गुरु चार, सदर उंगण चालीश ॥२॥ए बे गाथा श्रीगणधरजीनी करेली बे, एमां प्रणिधान मननी समाधिनी याचना करी, ते प्रायः करीने निःसंगानिलाषरूपत्व बे. ए बे गाथामां पद आठ , संपदा आठ . एकोत्तेर लघु अने आठ गुरु सर्व मली उंगणाएंशी अदरो के. बेहु जावंतना मेलवतां (१५२) थाय. हवे आगली त्रण गाथा पूर्वाचार्यकृत ने माटे मुख आगल बे हाथ जोमी देव वांदवानी समाप्तिये कहे, ते कहे . वारिजाइ जवि निआ, ण बंधणं वीराय तुह समए ॥ तहवि मम हुऊ सेवा, नवे नवे तुम्ह चलणाणं ॥ ३ ॥ अर्थः-(वीराय के ) हे श्रीवीतराग! ( तुह के० ) तमारा (समए के) सिद्धांत तेने विषे ( जशवि के ) यद्यपि एटले जो पण (निाण बंधणं के ) नियाणानुं वांधq एटले अमुक राज्यादिकनी पदवी हुँ पामुं ? एवा निदाननी वांगनुं करवू, तेने (वारिजा के०) वायुं बे, निषेध्युं बे. ( तहवि के ) तथापि एटले तो पण हुं एटयुं मायुं बुं जे ( तुम्हचल णाणं के० ) तमारा. चरणोनी ( सेवा के० ) नक्ति, ते (मम के) महारे ( नवेनवे के० ) जन्म जन्मने विषे (हुआ के ) होजो ॥३॥ श्रा गाथामां लघु आमत्रीश, गुरु त्रण, सर्व मली एकतालीश अकरो ॥ ॥ उककर्ज, कम्मक समादिमरणं च बोदिलानो अ॥ संपजाऊँ मह एअं, तुद नाह पणामकरणेणं ॥ ४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003850
Book TitlePratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1906
Total Pages620
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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