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स्तवनानि.
५६५ रनो, आठ पवयण फल होय रे ॥ नाश आठ कर्मनो मूलथी, अष्टमीफल जोय रे ॥ विण ॥॥ आदि जिन जन्म दीदा तणो, अजितनुं जन्म कल्याण रे ॥ च्यवन संजव तणुं एह तिथे, अनिनंदन निर्वाण रे ॥ वि० ॥॥ सुमति सुव्रत नमि जनमीया, नेमनो मुक्ति दिन जाण रे ॥ पास जि न एह तिथे सिझला, सातमा जिन च्यवनमान रे ॥ वि॥१॥ एह ति थि साधतो राजियो, दंमविरज लही मुक्ति रे ॥ कर्म हणवा नणी अष्ट मी, कहे सूत्र नियुक्ति रे ॥विण ॥१९॥ अतीत अनागत कालना, जिन त णां के कल्याण रे ॥ एह तिथे वली घणा संयमी, पामशे पद निर्वा ण रे ॥वि० ॥१२॥ धर्मवासित पशु पंखीयां, एह तिथे करे उपवास रे ॥ व्रतधारी जीव पोसो करे, जेहने धर्म अन्यास रे ॥ वि० ॥१३॥ नांखीयो वीरें आठम तणो, नविकहित एह अधिकार रे ॥ जिनमुखें उच्चरे प्रा णीया, पामशे नव तणो पार रे ॥ वि॥१४॥ एहथी संपदा सवि लहे, ट ले कष्टनी कोडि रे ॥ सेवजो शिष्य बुध प्रेमनो, कहे कांति कर जोमि रे॥ वि० ॥१५॥ कलश ॥ एम त्रिजग नाषण, अचल शासन, बर्डमान, जिने श्वरू ॥ बुध प्रेम गुरु सुपसाय पामी, संथुण्यो अलवेसरू ॥ जिनगुण प्र संगें, नणो रंगें, स्तवन ए, आठम तणो ॥ जे नविक नावें, सुणे गावे, कांति सुख, पावे घणो ॥ १॥ श्लोक संख्या ॥४३॥
॥अथ एकादशीनुं स्तवन लिख्यते ॥ ॥ जगपति नायक नेमि जिणंद, द्वारिका नगरी समोसस्या ॥ जगप ति वंदवा कृष्ण नरिंद, जादव कोमशुं परिवस्या ॥ १॥ जगपति धिगुण फूल अमूल, नक्ति गुणे माला रची ॥ जगपति पूजी पूडे कृष्ण, दायिक समकित शिवरुचि॥॥जगपति चारित्र धर्म अशक्त,रक्त आरंज परिग्रहे॥ जगपति मुफ आतम उझार, कारण तुम विण कोण कहे ॥३॥ जगपति तुम सरिखो मुऊ नाथ, माथे गाजे गुणनिलो ॥ जगपति को उपाय ब ताव, जिय व शिववधू कंतलो ॥ ४ ॥ नरपति उज्ज्वल मागशिर मास, आराधो एकादशी ॥ नरपति एकशो ने पंचाश, कल्याणक तिथि उससी ॥५॥ नरपति दश क्षेत्रे त्रण काल, चोवीशी त्रीशे मली ॥ नरपति नेवू जिननां कल्याण, विवरी कहुँ आगल वली ॥६॥ नरपति अर दीदा नमी नाण, मत्रीजन्म व्रत केवली ॥ नरपति वर्तमान चोवीशी, मांहे क
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