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लघुशांतिस्तव अर्थसहित. २७३ टले नविष्यकालने जाणनारी बुद्धि, (बुद्धि के ) सांप्रतदर्शिनी एटले वर्तमानकालना विषयनी जाणनारी एवी बुद्धि, ते प्रत्ये (प्रदानाय के) अतिशयपणे देवाने माटें (नित्यं के०) सदैव निरंतर, (उद्यते के) सावधान उद्यमवंत, एवा सर्व संबोधनयुक्त (देवि के०) हे देवि ! तमें बो ॥ १० ॥ जिनशासननिरतानां, शांतिनतानां च जगति जनतानाम् ॥ श्रीसंपत्कीर्तियशो, वईनि जयदेवि विजयस्व ॥ ११ ॥
अर्थ-(जिनशासन के) श्रीवीतरागना शासनने विषे (निरतानां के०) रक्त ते रागवंत तत्पर एवा अने (च के०) वली केहवा ? तो के (शांति नतानां के०) श्रीशांतिनाथप्रत्ये नमस्कार करनारा, प्रणाम करनारा एवा (जगति के०) जगतने विषे ( जनतानां के० ) जनसमुदायो जे , तेमने (श्री के० ) लक्ष्मी, ते सुवर्णादि तथा (संपत् के०) झफिविस्तार, ( किर्ति के) ख्याति, ते एक दिग्व्यापि, (यश के०) यश ते सर्व दिग्रव्यापी एटले सर्वत्र प्रसिफि तेनी (वर्कनि के) वधारनार एवी (जयदेवि के०) हे जया नामा देवि ! तमें ( विजयख के० ) सर्वोत्कर्षे करी वत्तॊ ॥ ११ ॥
सलिलानलविषविषधर, उष्टग्रहराजरोगरण नयतः॥रादसरिपुगणमारी, चौरेतिश्वापदादि न्यः॥१२॥ अथ रद रद सुशिवं, कुरु कुरु शांतिं च कुरु कुरु सदेति॥तुष्टिं कुरु कुरु पुष्टिं.
कुरु कुरु स्वस्ति च कुरु कुरु त्वं ॥ १३ ॥ अर्थः-(सविल के०) जल ते समुद्रादिकनां, (अनल के० ) अग्नि ते उत्पातरूप, (विष के ) विष ते अफीणादिक, (विषधर के०) सर्प (उष्टग्रह के०) दृष्ट ग्रह एटले चालवामां अशुल एवा शनिश्चर, राहु, केतु श्रादिक पुष्टखनाववाला ग्रह, (राज के०) उष्टस्वनाव वाला दंमादि क करनारा अर्थग्रहण करनारा एवा राजा, (रोग के०) उष्टज्वर, नगंदर, महोदरादिक रोग अने (रण के०) संग्राम, ए' सर्वना (जयतः के०) लय थकी (रद रद के०) रक्षण कर, रक्षण कर. वली (राक्षस के०) राक्षस ते व्यंतर विशेष, (रिपुगण के०) शत्रुना समूह, (मारी के०) मरकोनो उप
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