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प्रतिक्रमण सूत्र. पुर्गति पडता जीवने जी, धारे ते धर्म होय ॥ न ए आंकणी ॥ पंच महावत साधुनां जी, दश विध धर्म विचार ॥ हित करीने जिनवर कह्यां जी, श्रावकनां व्रत बार ॥॥ ज० ॥ पंचुंबर चारे विगय जी, विष सहु माटी रे हीम ॥ रात्रिनोजनने कह्यां जी, बहुबीजांनो नीम ॥३॥ ज० ॥ घोलवमां वली रींगणां जी, अनंतकाय बत्रीश ॥ अणजाण्यां फल फूल मां जी, संधाणां निश दीस ॥ ४ ॥ ज० ॥ चलित अन्न वासी थयुं जी, तुछ सह फल दद ॥ धर्मि नर खाये नहीं जी, ए बावीश अनदय ॥५॥ ज॥ न करे निरूंधसपणे जी, घरना आरंन धीर ॥ जीवतणी जयणा घणी जी, न पिये अणगल नीर ॥६॥ न ॥ घृत परें पाणी वावरे जी, बीये करतां पाप ॥ सामायिकत्रत पोषधे जी, टाले नवना ताप ॥७॥ ज॥ सुगुरु सुदेव सुधर्मनी जी, सेवा नक्ति सदीव ॥ धर्मशास्त्र सुणतां थकां जी, समजे कोमल जीव ॥ ॥न ॥ मास मासने यांतरे जी, कुश अग्र मुंजे वाल ॥ कला न पहोंचे शोलमी जी, श्री जिनधर्म विशा ल ॥॥ ज०॥ जिनधर्म मुक्तिपुरी दीये जी, चजगति व्रमण मिथ्यात्व ॥ एम जिनहर्ष प्रकाशियेंजी, त्रीजुं तत्त्व विख्यात ॥ १० ॥ ज० ॥ इति ॥
॥ ढाल सातमी ॥ मधुकर आज रहो रे मत चलो ॥ ए देशी ॥
॥ श्रीजिनधर्म आराधियें जी, करी निज समकित शुझ॥ नवियण ॥ तप जप किरिया कीधली जी, लेखे पडे विशुझ॥१॥ ज०॥ श्री०॥ कंचन कशी कशी लीजीयें जी, नाणुं लीजें परीख ॥न॥ देव धर्म गुरु जोश्नेजी,
आदरियें सुणि शीख ॥२॥न० ॥ श्री० ॥ कुगुरु कुदेव कुधर्मने जी, पर हरिये विष जेम ॥ न० ॥ सुगुरु सुदेव सुधर्मनें जी, ग्रहीयें अमृत तेम ॥३॥ न ॥ श्री० ॥ मूलधर्म तो जिन कह्यो जी, समकित सुरतरु एह ॥ न ॥ नव नव सुख संपत्तिथकी जी, समकितशुं धरि नेह ॥४॥ ॥॥ श्री॥ सत्तरशै बत्रीश समे जी, नन शुदि दशमी दीस ॥नास मकितसीत्तरी ए रची जी, पुर पाटण सुजगीश ॥५॥ ज०॥ श्री॥ नण जो गुणजो नावशुं जी, लेशो अविचल श्रेय ॥ना शांतिहर्षवाचक तणो जी, कहे जिनहर्ष विनेय ॥६॥नाश्री॥ इति समकितसित्तरी संपूर्णा ॥
॥अथ श्री आराधनानुं स्तवन प्रारंजः ॥ ॥ दोहा ॥ सकल सिफिदायक सदा, चोवीशे जिनराय ॥ सहगुरुसा
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