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________________ २६६ प्रतिक्रमण सूत्र. अर्थः-(अहवाइजेसुदीवसमुद्देसु के०) अढी द्वीप बे समुष संबंधी जे (पनरससुकम्मन्नूमीसु के ) पंदर कर्मनूमी क्षेत्रने विषे, (जावंत के०) जेटला ( केवि के०) कोश पण ( साहू के०) साधु, (रयहरणगुबपमिग्ग हधारा के०) रजोहरण ते उघो अने गुडो ते पात्रानी जोलीनी उपरतुं उ पकरण अने पतद्ग्रह ते पाठे इत्यादिक धर्मोपकरणना (धारा के०) धारण करनारा ॥१॥ एटले सुधी साधुनो वेषमात्र जणाव्यो परंतु ते वेष तो गु ण विना अप्रमाण कह्यो बे, माटें हवे गुण कही देखाडे . वली ते साधु के हवा ने ? तो के (पंचमहत्वयधारा के०) पाच महाव्रतना धरणहार बे, व ली केहवा बे ? तो के(अधारससहस्ससीलंगधारा के०) अष्टादश सहस्त्र शील नां चारित्रनां अंग जे अंश ने तेना धरनार, वली केहवा जे? तो के (अरक यायारचरित्ता के०)अदत संपूर्ण श्राचाररूप चारित्र तेना धरणहार जे. (ते सवे के०) ते सर्वप्रत्ये (सिरसा के०) ललाटें करीने (मणसा के० ) मनें क रीने (मबएण के०) मस्तकें करीने (वंदामि के०) हुं वांउं . अथवामबए ण वंदामि ए वचनें पंचांग प्रणामें करी वां ॥२॥ इति सर्वसाधु नमस्कार सूत्रार्थनाया बेहु गाथामां लघु बहोंतेर, गुरु तेर, सर्वादर पंच्याशी ॥४॥ ॥अथ वरकनक ॥ अथवा सप्ततिशत जिनस्तुतिः॥ वरकनकशंखविधुम, मरकतघनसन्निनं विगतमोहम् ॥ सप्ततिशतं जिनानां, सर्वामरपूजितं वंदे ॥१॥४२॥ अर्थः-(जिनानां के०) जिनेंस्रो संबंधी ( सप्ततिशतं के० ) सप्ततिशत प्रत्यें एटले एकशो सित्तेर जिनेसोप्रत्ये (वंदे के०) हुं वांडं . ते जिन सप्ततिशत केहबुं ? तो के (वर के०) प्रधान एवं ( कनक के० ) सुवर्ण, शंख के०) शंख, ( विजुम के०) प्रवालां, ( मरकत के०) नीलमणि, (घन के०) सजल मेघ, तेना (सन्निनं के०) सर बे, एटले पांचव ों ने जेना एवं जे. वली ते सप्ततिशत केहवं ? तो के ( विगतमोहं के) मोहादिक रहित . वली केहबुं बे ? तो के ( सर्वामरपूजितं के०) सर्व अमर एटले देवता पूजे जे जेने एवं ॥१॥ इति ॥ ४२ ॥ ॥ अथ तीर्थ वंदना ।। ॥ सकल तीर्थ बंदूं कर जोड्य, जिनवरनामें मंगल कोड्य ॥ पहेले खर्गे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003850
Book TitlePratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1906
Total Pages620
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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