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THE FREE INDOLOGICAL
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- The TFIC Team.
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श्रीवीतरागाय नमः |
श्रीशुभचन्द्राचार्य विरचित
पाण्डव-पुराण
अथवा
जैन महाभारत ।
अनुवादक, श्रीयुक्त पं० घनश्यामदासजी न्यायतीर्थ
प्रकाशक,
- जैनसाहित्यप्रसारक कार्यालय, हीराबाग, गिरगॉव -- बम्बई ।
फागुन,
वीर नि० २४४६ |
प्रथम संस्करण |
मूल्य पाँच रुपया
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प्रकाशक, उदयलाल काशलीवाल,
और बिहारीलाल कठनरा, मालिक-जैनसाहित्यप्रसारक कार्यालय
हीराबाग, गिरगाँव-नम्बई।
मुहक, रा. चिंतामण सखाराम देवळे, मुंबईवैभव प्रेस, सम्हट्स ऑफ इंडिया सोसायटीज होम, संढर्ट रोड,
"गिरगाव-मुबई।
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विनय ।
प्रिय महाभाग पाठक, आज आपके सामने एक विशाल भेंट लेकर उपस्थित हूँ । इस बातका तो मै दावा नहीं कर सकता कि मुझे अपने कार्यमें पूरी सफलता प्राप्त हुई है और वह आपका यथेष्ट मनोरंजन करेगी; परतु इतना जरूर है कि यह भेंट एक नये रूपमें है, अत एव बहुत आशा है कि आपकी दृष्टि इस ओर आकर्षित होगी | पांडवपुराणका एक सुंदर अनुवाद स्वर्गीय कविवर बुलाकीदासजीका मौजूद है; और यह मी सच है कि उसकी सुंदरताको यह नहीं पा सकता । पर वह कवितामें है, अत एव उससे हर प्रान्तके भाई जो त्रजभाषा नहीं जानते - लाभ नहीं उठा सकते । दूसरे आजकछ लोगोंका चित्त अपनी मातृभाषा हिन्दीकी उन्नतिकी और दिन पर दिन अधिकाधिक आकृष्ट होता जाता है । और इसमें भी सदेह नहीं कि यह एक शुभ चिह्न है । इस बातकी बड़ी आवश्यकता है कि भारत के सब धर्मोंका साहित्य एक ऐसी भाषामें हो जिसे साधारण प्रयत्नसे, सत्र प्रान्तके लोग, जिज्ञासा होने पर समझ सकें । ऐसी भाषा यदि कोई है तो वह 'हिन्दी' ही है । अत एव आवश्यकता है कि हम उससे अपने धार्मिक साहित्यका भी भंडार भरें ।
।
इन्हीं एक दो बातोंको लेकर मैंने यह अनुवाद किया है अनुवाद - कार्यमें मैं कहाँतक सफल हुआ हूँ, इसके विषयमें मुझे कुछ नहीं कहना है । सिर्फ यह निवेदन करना आवश्यक समझता हॅू कि मेरा इस रूपमें यह प्रारंमीय प्रयत्न है। और इसी कारण मार्वोका यथेष्ट व्यक्त करना तथा सुन्दर सुगठित वाक्य रचना करना आदिका इस अनुवाद बढ़ा अभाव है। वह आप जैसे विज्ञक बहुत खटकेगा मी; परंतु फिर भी मैं निराश न होकर आपसे उत्साह पानेकी ही आशा करूँगा ।
इस काम में मुझे अपने प्रिय मित्र श्रीयुक्त उदयलालजी काशळीवाढसे बहुत कुछ सहायता मिली है, अत एव मै उनका चिर आमारी हूँ ।
विनीत, वनश्यामदास न्यायतीर्थ |
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प्रकाशककी दो बातें।
• हमें इस बातका आज गौरव प्राप्त है कि हम वीर प्रभुकी परम दयासे अपने कार्यक्षेत्रमें वरावर आगे बढ़ते जा रहे है । और यह आत्म-विश्वास हो गया है कि दिनों दिन हम अधिक आधक क्षमताशाली हो सकेंगे । जिस समय हमने अपने कार्यालयका काम आरंम किया था उस समय हमें एक छोटीसी पुस्तकके प्रकाशित करनेमें भी कठिनाईका सामना करना पड़ता था; परंतु आज हमने इतनी क्षमता प्राप्त कर ली है कि सौ सौ फार्मोके महान् महान् ग्रथोंके प्रकाशित करनेकी भी हम आयोजना कर सके है । हमें अपनी इस सफलताका अभिमान है; और इसके लिए हम प्रभुकी अनन्त दयाके ऋणी है । साथ ही हम अपने उन परमस्नेही वन्धुओंके भी आभारी है जिन्होंने हमें मौके मौके पर अपने हार्दिक स्नेहसे उत्साहित कर सब प्रकारसे आगे बढ़नेका अवसर दिया है. । अपनी इस आत्म-कथाके बाद हमें जो खास बात कहना है वह यह है।
इस समय हमारे हाथमें दो महान् कार्य थे। उनमें आन पहला कार्य पाडव-पुराणका छपाना समाप्त होता है; और अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार उसे हम उदार ग्राहकोंकी सेवामें भेज रहे है । हमने जो सौ सौ रुपये कर्ज देनेवाली योजना प्रकाशित की है हमें विश्वास है कि उसके अनुसार यदि कुछ महानुभाव सज्जन इस कार्यमें हमारा हाथ नवटाते तो हमें अवश्य कठिनाईका सामना करना पड़ता । इसके लिए हम उन सज्जनोंके चिर कृतज्ञ रहेंगे।
दूसरा कार्य जो पद्म पुराणके छपानेका है वह भी जारी कर दिया गया है। पहले हमारी इच्छा थी कि हम पद्म-पुराणका केवल हिन्दी अनुवाद ही प्रकाशित करें । पर बाद हमें अपनी यह इच्छा पूज्यवर श्रीयुक्त पं० “धन्नालालनी काशलीवाल तथा अन्य कई मित्रोंके सत्परामर्श देने पर बदल देना पड़ी । अब हमने निश्चय किया है कि पद्म-पुराणको हम मूल संस्कृत सहित ही प्रकाशित करेंगे । यह ठीक है कि इस योजनाके अनुसार हमारी कठिनाइयाँ कुछ बढ़ जायँगी; परंतु वीर प्रमुकी अनन्त दयासे हम उन्हें पार कर जावेंगे। . इसके लिए दो बातें हम निवेदन करना चाहते हैं । एक तो यह कि निन सज्जनोंने हमें डेढ़ वर्षकी अवधिके लिए सौ रुपया कर्ज दिया है वे उस अवधिको बढ़ा
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कर दो वर्षकी कर दें । कारण यह कि पहले विचारों के अनुसार केवल हिन्दी भाषामें पान-पुराण छपवाया जाता तो वह कोई आठ महीनेमें समाप्त हो जाता और तब हम
अपनी प्रतिज्ञाको ठीक समय पर पूरा कर देते; परंतु अब उसके संस्कृत सहित छपवानमें सवा या डेढ़ वर्ष लग जायगा। पहले हमने अनुमान किया था कि सारा ग्रंथ कोई सौ फामीमें समाप्त हो जायगा; पर अब देखते है कि वह लगभग डेढ़सौ फार्मोसे कममें न होगा । इसी प्रकार उसके मूल्यमें भी हमें १० ) की जगह १८) करने पड़ेंगे । ऐसी हालतमें हमें अपनी प्रतिज्ञाको पूरा करनेमें कुछ कठिनाई पडेगी । अत एव हम आशा करते है कि हमारे सहायक-गण हमारी इस प्रार्थनोको अपनी उदार स्वीकृतिसे सफल करेंगे।
दूसरी बात यह है कि पहले हमने अपनी भेंटकी योजना * सिर्फ २० ग्राहकोंके लिए की थी; परंतु अब वह हमें ४० के लिए कर देनी पड़ी है । और यह प्रकट करते हमें बड़ी प्रसन्नता होती है कि हमारी योजनाके अनुसार हमें २८ ग्राहक मिल भी गये है। अब सिर्फ १२ और शेष है। हमें विश्वास है उदार महानुभावोंकी कृपासे हम बहुत शीघ्र सफलता लाभ कर लेंगे।
आपके कृपापात्र, उदयलाल विहारीलाल,
मालिक।
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___* इस योजनाको अन्यत्र पढ़नेकी कृपा कीजिए।'
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हमारे उदार सहायक - गण ।
[ उन सज्जनोंके शुभ नाम हम यहाँ पर बड़ी कृतज्ञता के साथ प्रकट करते हैं जिन्होंने हमें सौ सौ या इससे अधिक रुपया कर्ज देकर अपनी उदारसे चिर-वाधित किया है । ] २०० ) श्रीमान् सेठ गुरुमुखरायजी सुखानन्दजी, बम्बई । पडित रामप्रसादजी, बम्बई ।
१०० )
सेठ चिरंजीलालजी बडजाते, वर्धा ।
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१०० ) श्रीमती विदुषी मगनवाईजी, बम्बई ( संचालिका श्राविकाश्रम बम्बई )
विदुषी कंकुबाईजी, शोलापुर (सुपुत्री सेठ हीराचंदजी नेमीचन्दजी )
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१०० ) १०० ) श्रीमान् सेठ बालमुकुन्दजी दिगम्बरदासजी, सीहोर कॅट
१०० )
सेठ पदमचदजी भूरामलजी, बम्बई ।
१०० )
सेठ फूलचदजी पाटनी, बम्बई । (हेड मुनीम राय बहादुर
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सेठ लालचन्दजी सेठी, सेठ बिनोदीरामजी बालचंदजी वाले झालरापाटन ।
बाबू माणिकचन्दजी बैनाड़ा, बम्बई ( महामंत्री बम्बई दि० जैन प्रान्तिक सभ्ग ) सेठ बापूलालजी काला, बम्बई ( हेड मुनीम रायबहादुर सेठ ओंकारजी
कस्तूरचन्दजी सा० )
17
सेठ मोतीसिंगई रुखन सिगई, अंजनगाव सुर्जी ।
सेठ लल्लूभाई लखमीचंद चौकसी, बम्बई ।
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(सहा० महामंत्री भा० दि० जैन तीर्थक्षेत्र - कमेटी )
सेठ गुरुमुखरायजी निहालचंदजी, बम्बई ।
सेठ मोतीलालजी कासलीवाल, बम्बई ( सेठ दौलतरामजी कुन्दनमलजी वाले )
सेठ तिलोकचंदजी कल्याणमलजी )
सेठ चुन्नीलाल हेमचंद जरीवाले, बम्बई ।
सेठ रामगोपालजी, बम्बई (हेड मुनीम दानवीर रायबहादुर सर
सेठ स्वरूपचंदजी हुकमचंदजी नाईट )
सेठ हीराचन्द्रजी, सुपुत्र स्व० सेठ - माणिकचन्द्र लामचन्द्र, बम्बई । सेठ तलकचंद सखाराम, बम्बई ।
बाबू मूलचंदजी साहब, दीवान मकड़ाई स्टेट |
सेठ हरीभाई देवकरण, शोलापुर ।
सेठ रावजी सखाराम दोशी, शोलापुर ( मंत्री बम्बई परीक्षालय ) रायवहादुर सेठ माणिकचन्द्र सेठी, झालरापाटन
( सेठ विनोदीरामजी बालचंदजी वाले )
सेठ माणिकचंद पानाचंद एण्ड कम्पनी जौहरी, बम्बई । सेठ शामलालजी दुलासा, कारंजा ( बराड़ )
शाह डाह्याभाई शिवलाल, गिरीडी ।
सेठ मदनमोहनजी, पाण्ड्या ( विनोद मिल उज्जैन )
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आवश्यकीय निवेदन। लगभग ३३) रु० मूल्यके ग्रंथ बिना मूल्य ।
उन सज्जनोंको हम अपनी चरितमालाके निम्न लिखित ग्रंथ, जो कि प्रकाशित हो चुके हैं और हो रहे हैं, बड़े आदरके साथ भेंट करेंगे; जो सिर्फ दो वर्षके लिए १००) रु० बतौर कर्जके हमें देंगे । इस अवधिके समाप्त होने पर उनका रुपया वापस कर दिया जावेगा । और सहानुभूतिके साथ उन्होंने जो हमारे काममें सहायता दी है उसके उपलक्षमें उन्हें लगभग ३३ ) मूल्यके १३ ग्रंथ भेंट किये जायेंगे । जो ग्रंथ तैयार हैं वे सहायताकी सूचना मिलते ही सेवामें भेज दिये जावेंगे
और जो महान् ग्रंथ श्री पद्म-पुराण' संस्कृत सहित छप रहा है वह तैयार. होने पर भेजा जावेगा । यह भेंट सिर्फ ४० महाशयोंके लिए हैं।
भेटके ग्रन्थ । १०) पद्मपुराण (छप रहा है) १) भक्तामरकथा ५) पाण्डवपुराण
॥) सुदर्शनचरित ३) पुण्यासव-कथाकोप 10) नागकुमारचरित २) नेमिपुराण
।) यशोधरचरित ११) सम्यक्त्वकौमुदी
1) पवनदूत . १) चन्द्रप्रभचरित ।
क) श्रेणिकचरित.
-॥ सुकुमालचरित हमारे यहाँ सब प्रकारके जैनग्रंथ हर, समय विक्रयार्थ तैयार रहते हैं। हमारा नया सूचीपत्र छप कर तैयार है। उसे मॅगा कर देखिए ।
. 'निवेदक
उदयलाल बिहारीलाल, मालिक-जैनसाहित्यप्रसारक कार्यालय ।
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कुछ शुशियाँ।
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তাহাতি माणिग्रहण आपने योजना अष्टमीष्टे राजोंको पुत्रष
.
और
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शुद्धि पाणिग्रहण अपने योजन अष्टमीके राजोंके पुरुष ओर दुर्योधनकी लिखे पाढवोंकी कृष्णसे स्वीकार करें और साथ ही तेरहवें वर्षको कहीं गुप्त वेषमें बितावें । करते कर्मकी चेष्टाको सकता विचारे वह
कर्णकी लिख पाडवकी - कृष्ण स्वीकार करें
२५८ ४ २६२ ४ २६४ २२
२६६ ५ २६६ २५
करते कर्मको चेष्टाकी सवता
वचारे वहू
विरुक्त
विरक्त
अखिर
पुरुषों
और
आसिर पुरुष
ओर चित्रांगद पूछी .
चित्रांदग
पूछा
कोष
काध जो अधिक मासका जो गुप्तवेषमें बिताना युधिष्ठिरने कहा युधिष्ठिरने कहा कि मैं धर्मोपदेशक पुरोहित कि मैं बनेगा । भीमने कहा कि मै वाले
बोले
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হদি गांगेयका
पृष्ठ पंक्ति २९६ १९
शुद्धि गांगेयके झुकाता हूँ धनुर्धर अर्जुनके
م م م م م
झुकता हूँ धनुधर अर्जुनको
प्रद्युम्न
प्रद्युम्र
चक्री
कृष्ण
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नृत्योयत बालक पर पर गिर
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अमरकंका अकेले विचार दुर्योधन
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अमरकंकका अकेला विचार विचार युर्योधन ।
३५७ २ ३५७ ७
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पशुओंको
पशुओं
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कहते कहते
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कहते बिष शय्या परिग्रह न सह
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जिनदत्त
जियदत्त
भीम
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३७९ ७ ३७९ २८
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श्रीवतिय नमः। श्रीशुभचन्द्र भट्टारक विरचित
पाण्डव-पुराण
अथवा जैन महाभारत।
पहला अध्याय ।
श्रीसिद्ध भगवानको प्रणाम है जो सिद्धिके दाता और भण्डार हैं,
"जिनके सभी कार्य सिद्ध हो चुके है तथा जो प्रमाण-नयसे प्रसिद्ध और सर्वज्ञ हैं । वे मेरे लिए सिद्धि प्रदान करें-मुझे सिद्धि दें।।
श्री आदिनाथ प्रभुको नमस्कार है जो धर्मसे सुशोभित और धर्म-तीर्थके चलानेवाले है तथा जो बैलके चिह्नसे युक्त और कर्मभूमिके आरम्भमें सभी व्यवस्था बतानेके कारण आदि ब्रह्मा हैं । वे मेरे इस कार्यकी ठीक व्यवस्था करें।
चन्द्रमाकी कान्तिके समान ही जिनके शरीरकी कान्ति-आभा-है, जो चन्द्रमाके चिह्नसे युक्त और चन्द्र द्वारा पूज्य-स्तुत्य हैं उन सदाचन्द्र चन्द्रमभ भगवानका मैं स्तवन करता हूँ।
शान्ति-स्वरूप और शान्तिके विधाता सोलहवें तीर्थंकर श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्रकी मैं स्तुति करता हूँ। वे स्वयं निष्पाप हैं और भव्य जीवोंके कर्म-शत्रुओंको शान्त करनेवाले हैं तथा जिनके चरण-कमलोंमें हिरणका चिह्न है । वे शान्तिनाथ मस मुझे शान्ति दें।
श्री नेमिनाथ भगवानको मैं स्मरण करता हूँ जो धर्म-रूप रथकी नेमि (धुरा ) है, तीन लोकके स्वामी और कामदेवके मदको चकना-चूर करनेवाले हैं तथा जिनके शासनकी सभी सत्पुरुष प्रशंसा करते हैं-कीर्ति गाते हैं ।
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पाण्डव-पुराण।
जो बाल-पनमें ही कामदेव पर विजय-लाभ कर महावीर, अतिवीर, वीर और सन्मति आदि नामोंसे प्रसिद्ध हुए वे अन्तिम तीर्थकर वर्द्धमान स्वामी मेरी रक्षा करें। • चार ज्ञानोंके धारक गौतम नाम गणधरको नमस्कार है जो संघके अधिपति होनेसे गणनायक और गणेश कहे जाते हैं । तथा दिव्यवाणी द्वारा हमेशा तत्त्वोंकी गणना करते रहनेके कारण विद्वान् लोग जिन्हें वाचस्पति कहते हैं। वे प्रतिभाके पुंज मुझे प्रतिभा प्रदान करें।
जो कर्म-शत्रुओंके साथ लड़ाई स्थिर वने रह कर आत्म-स्वरूपमें स्थिर (लीन ) हो चुके हैं वे परम पूज्य युधिष्ठिर मेरे मनोमन्दिरमें विराजें और धर्म अर्थकी सिद्धिमें मेरी सहाय करें।
___उन भीम महामुनिको मै याद करता हूँ जो कर्म-शत्रुओंको जीतनेमें भीमभयंकर योधा-धीरवीर और तेजवाले हैं। वे मेरे पापकाँको हरें।
जो कामदेवसे रहित और कामदेवकी नाई सुन्दर रूपवाले हैं, संसारभसिद्ध और विशुद्ध परिणामी है वे आत्म-संयमी अर्जुन मुनि मेरे हृदयमें निवास करें।
देवता-गण जिनकी सदा सेवा करते हैं तथा जिनका शासन निर्दोष है वे नकुल और कुलके कलंकको दूर करनेवाले सहदेव भी मेरे हृदयमें विराजें।
उन भद्रबाहु श्रुतकेवलीकी जय हो जो महान तपस्वी और कल्याणके पुंज हैं और संसारी दीन-दुखी जीवोंको सहारा देनेके कारण जिन्हें महावाहु कहते हैं तथा जो इसी कलिकालमें ज्ञान-रूपी नौका पर सवार हो-श्रुतज्ञान सागरसे पार हुए हैं। वे मुझे ज्ञान-दान दें।
जिनकी शिष्य-परम्परा संसार प्रसिद्ध है और जिन्हें सारा संसार हाथ जोड़ नमस्कार करता है वे स्वामी कार्तिकेय मुनि मेरी सहायता करें ।
___ उन कुंदकुंद स्वामीकी जय हो जिन्होंने गिरनार पर्वतके शिखर पर पत्थरकी बनी हुई ब्राह्मी देवीसे यह साक्षी दिलवाई कि "दिगम्बर धर्म पहलेका है।"
देवागमके जैसा महत्त्ववाला स्तोत्र वना कर जिन्होंने देव-आप्त-विषयके सिद्धान्तको खूब ही माँज डाला-सन्देह-रहित कर दिया-तथा जिनके सभी काम कल्याण-रूप हैं वे भारत-भूषण समन्तभद्र स्वामी सारे संसारको सुखी करें।
पूज्य पुरुष भी जिनके पादों-चरणोंको पूजते हैं और इसी कारण जिनका " पूज्यपाद " नाम सार्थक है तथा जो न्याय-व्याकरण आदि अनेक शाखोंके पूर्ण
सिद्धान्तको खूब व भारत-भूषण समन्तामाको पूजते हैं और इसनिक शास्त्रों के पूर्ण ..
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पहला अध्याय। ज्ञाता हुए हैं और जिनके उत्तम गुण पृथ्वी पर निर्मल चाँदनीकी भॉति प्रकाशित हो रहे हैं उन जगत्पूज्य पूज्यपाद स्वामीकी जय हो।
वे कलंक-रहित अकलंक देव मुझे ज्ञान-दान दें जिन्होंने घड़े बैठी हुई मायादेवीको वातकी वातमें चुप कर दिया-हरा दिया और संसारमें जैनधर्मकी धुजा फहरा दी-प्रभावना की।
उन जिनसेन यतिकी जय हो जो वास्तवमें जिनसेन है-अर्थात् सम्यग्दृष्टि आदिमें मुख्य हैं तथा सरस्वतीके मन्दिर हैं। और जिन्होंने पुण्य-पुरुषोंके चरितोको गूंथ कर अथाह पुराण-समुद्रको जन्म दिया।
वे गुणभद्र भदन्त मेरी सहायता करें जो पुराण-रूप पहाड़ पर प्रकाश डालनेके लिए सूरजके तुल्य हैं।
उनके पुराणको देख कर तथा अन्य संसार-प्रसिद्ध कथाके आधार पर यह पांडव-पुराण नाम ग्रन्थ लिखा जाता है । इसका दूसरा नाम भारत या महाभारत भी है। ... इतना भारी गहरा यह पुराण-समुद्र कहाँ ? और इसकी थाह लेनेको सर्वथा असमर्थ मेरी तुच्छ बुद्धि कहाँ ? इन दोनोंकी कुछ भी बरावरी नहीं; तो भी इस ग्रन्थराजके कहनेका मैंने जो साहस किया है वह मेरा अति साहस है । इसे देख कर लोग हॅसेंगे तो सही, परन्तु फिर भी शास्त्र-पारंगत पुराने जिनसेन आदि महाकवियोंका स्मरण करनेसे मुझे जो पुण्य-लाभ हुआ है उसके वलसे मैं इस ग्रन्थ-समुद्रमें अवगाहन करता हूँ-इसके लिखनेका साहस करता हूँ | जिस तरह वोलनेकी इच्छा करनेवाले गूंगे और भारी ऊँचे सुमेरु पर्वत पर चढ़ जानेकी इच्छा करनेवाले पंगु पुरुषकी लोग हँसी उड़ाते हैं उसी तरह इस अति साहसके लिए वे मेरी भी हँसी उड़ावें तो यह कोई नई बात नहीं । अथवा जैसे एक दुबली-पतली गाय भी दूध पिला कर अपने बछड़ेको पालने का भरसक प्रयत्न करती है वैसे ही यद्यपि मैं अल्पज्ञ हूँ तो भी अपनी शक्तिके अनुसार इसके लिखनेका प्रयत्न करता हूँ। इस ग्रन्थमें जो कुछ भी लिखा जायगा उसमें यद्यपि पुराने महर्षियोंकी कृतिसे कोई नयापन न होगा तो भी इसकी उपादेयतामें कमी न आयगी; क्योंकि दीपक सूरजके द्वारा प्रकाशित पदार्थोंको ही प्रकाशित करता है और तव भी वह उपादेय होता है।
- यद्यपि संसारमें पलाश आदिके निसार और निरर्थक वृक्षोंके समान खोदे स्वभाववाले कवि बहुत हैं और आम आदि उत्तम वृक्षोंके समान उत्तम
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पाण्डव-पुराण । स्वभाववाले कम; तो भी कितने ही सत्पुरुष अब तक मौजूद हैं जो सोनेमेसे मैलको साफ करनेवाली आगकी भॉति कविताके दोषोंको छोड़ कर उसके गुणों पर ही दृष्टि देते है और उसका आदर करते हैं । परन्तु असत्पुरुषोंका स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे सूरजको दोष देनेवाले उल्लू पक्षीकी नॉई दूसरोंकी कृतिको दोष-ही-दोष दिया करते हैं-उन्हें गुण तो सूझते ही नहीं; क्योंकि उनका स्वभाव ही उस आगकी तरह है जो जला कर दाह पैदा करती है। और सत्पुरुषोंका स्वभाव उन मेघोंके समान होता है जो निरपेक्ष भावसे लोगोंको ठंडा और मीठा जल पिला कर उनकी प्यासको वुझा देते हैं । दुष्ट पुरुष मतवाले पुरुषके समान होते है । वे कभी हेय-उपादेय और हित-अहितका विचार ही नहीं करते; किन्तु अपने दुष्ट स्वभावसे सारे संसारको दुष्ट बना डालनेकी चेष्टामें लगे रहते हैं। सजन पुरुष समय पर बरसनेवाले मेघोंके समान होते हैं। वे अपने अमूल्य
और उदार उपदेशोंके द्वारा लोगोंको हितकी और झुकानेकी चेष्टा कर उन्हें सुखी बनानेमें लगे रहते है । तथा जिस तरह सॉप विष और चन्द्रमा अमृत देता है उसी तरह दुष्ट लोग संसारको दुःख और सज्जन लोग सुख देते हैं। इस प्रकार सुजन और दुर्जनके स्वभावका जो यह विचार किया गया है इस पर पाठक ध्यान देंगे और इससे वे बहुत लाभ उठावेंगे। __आचार्योंका मत है कि हर एक कथामें नीचे लिखी छह बातें अवश्य ही होनी चाहिए, क्योंकि इनके बिना कथाकी कुछ भी कीमत नहीं।
१ मंगल-जिनेन्द्रदेवके गुण-गानको मंगल कहते है, कारण मंगलका जो मळ-गालन-पाप-विनाशन-रूप-अर्थ है वह उसमें मौजूद है। क्योंकि इस मंगलसे भव्य जीवोंका कर्म-मल धुल जाता है । यह मंगल इस इतिहास-समुद्रकी आदिमें किया जा चुका है।
__ २ निमित्त-ग्रन्थके रचे जानेका निमित्त पापका विनाश माना गया है और वह इस इतिहासमें मौजूद है क्योंकि इसको बनानेसे मेरे और सुननेसे श्रोताओं के पाप-कर्म हलके होंगे।
३ कारण-ग्रन्थ-रचनाका कारण भव्य जीवोंके चित्तका समाधान हो जाना माना गया है। वह भी इस ग्रन्थमें विद्यमान है। क्योंकि यह कथा प्रसिद्ध श्रोता श्रेणिक राजाके प्रश्न करने पर उनके चित्तके समाधान करनेको श्रीमहावीर प्रभुने कही थी।
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पहला अध्याय |
४ कर्ता - इस ग्रन्थके मूलकर्ता तो तीर्थकर भगवान है और उत्तर- कर्ता गौतम स्वामी तथा विष्णुनन्दि, अपराजित, गोवर्द्धन, भद्रबाहु आदि श्रुतकेवली और ऋषिगण है।
५ अभिधान --- इस ग्रन्थका नाम पांडव-पुराण है, क्योंकि इसमें पुराण पुरुपोंकी कथा कही गई है, इस लिए तो यह पुराण है और वे पुराण- पुरुष पाडव हैं, इस लिए इसका नाम पांडव-पुराण पड़ा है ।
६ संख्या - अर्थतः तो इसकी संख्या अनंत है; पर अक्षर-रचना के हिसावसे संख्यात ही है ।
इन छह वातोंका विचार कर ही पुराणकारको पुराणकी रचना करनी चाहिए | इसी नियमके अनुसार यहाँ इन पर विचार किया गया है । पर ध्यान रहे कि ये बातें द्रव्य, क्षेत्र, तीर्थ, काल, और भावके भेदसे पॉच ही हैं । यह सव विचार कर ही पुराणकार अपने पुराणको आरम्भ करते हैं । और श्रोताओंके मनोविनोदके लिए उसकी आदिमें वक्ता, श्रोता और कथाका भी विचार कर लेते हैं । उसीके अनुसार यहाँ भी वक्ता आदिके स्वरूप पर विचार किया जाता है
वक्ता — उपदेश देनेवाला - वह अच्छा है जो शुद्ध और साफ बोलनेवाला, व्याख्याता, धीरवीर, बुद्धिमान और साफ-स्वच्छ अभिप्रायवाला हो; जिसे लोक व्यवहारका पूरा पूरा ज्ञान हो जो चतुर हो; पूरा विद्वान और शास्त्रोंके रहस्यको जाननेवाला हो; निस्पृह तथा मंद कपायवाला हो; जिसकी इंद्रियॉ वशमें हों और जो आत्म-संयमी हो; शान्त-मूर्ति, सुन्दर एवं मनोहर नेत्रोंवाला और देखने में प्यारा लगता हो; जिसे संसार - समुद्र से पार करनेवाले तत्त्वोंका पूरा पूरा ज्ञान हो; जो छह मत और न्यायका पूर्ण विद्वान हो; जिसके मतको सभी मानते हों; जो स्वयंव्रतका धारक और व्रती पुरुषों द्वारा मान्य हो, जिन आगमका प्रेमी, चतुर और उत्तम लक्षणोंवाला हो; राजा लोग जिसका सत्कार करते हों; जिसका पक्ष समर्थ --- शक्तिवाला हो; जो प्रश्नोंका पहलेसे ही उत्तर जाननेवाला, सुन्दर और कुलीन हो; अपने देश और अपनी जातिका हो : प्रतिभावाला, शिष्टाचारी और अनिष्ट आपत्ति वगैरहसे रहित हो; सम्यग्दृष्टि और मीठा बोलनेवाला हो; सबको प्यारा और खूब समझानेवाला हो; गौरवशाली और प्रसन्न - 'चित्त हो; वादियोंका स्वामी और उनके ऊपर अपना प्रभाव डालनेवाला हो;
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पाण्डव-पुराण। जो कवियोंमें उत्तम और दूसरोंकी निंदा नहीं करनेवाला हो और शीलका सागर, गुरु और शास्ता हो ।
श्रोता-उपदेश सुननेवाला-वह अच्छा है जो शीलसे विभूषित और सभ्यतसे युक्त हो सुन्दर हो; दाता हो; भोक्ता और नाना लक्षणोंवाला हो; व्रतोंका धारक, धर्मात्मा पुरुषोंको आश्रय देनेवाला और परिपूर्ण इंद्रियोंवाला हो; उदार और पवित्र-चित्त हो; हेय-उपादेयका जाननेवाला हो; शुशूपा, श्रवण, ग्रहण, धारण और स्मरण इनमें प्रवीण हो; तर्क-वितर्कके द्वारा हर एक पदार्थका विचार करनेवाला हो; तत्त्वज्ञानी और तत्त्व-चर्चाका प्रेमी हो; कुलीन, प्रवीण
और गुरुकी आज्ञाका पालक हो; एवं विवेकी और विनयी हो; स्वच्छ अभिमायौवाला हो; सावधान और क्रिया-कांडका पूरा पूरा जानकार हो; सुन्दर और सम्यज्ञानी हो; दयालु और दया कर दीन-दुखी और भूखे जीवोंको दान देनेवाला हो; जैनधर्मकी प्रभावना करनेवाला, सदाचारी, विचारवाला और धर्मज्ञ तथा धर्मात्मा हो; हर एक क्रिया आदि चारित्रके पालनेमें अगुआ हो; मीठा बोलनेवाला हो; जिसको सत्पुरुष मानते हों और जो अभिमान-रहित सरल स्वभाववाला हो ।
उस श्रोताके शुभ, अशुभ आदि बहुत भेद हैं । हंस, गाय आदिके स्वभावसमान श्रोता उत्तम हैं । मिट्टी, तोता आदिके स्वभाव-समान श्रोता मध्यम तथा विल्ली, बकरा, शिला, साँप, कौआ, छेदवाला घड़ा, चलिनी, डॉस, भैंसा और जोंक (गोंच ) के स्वभाव-समान श्रोता अधम हैं।
असत्र श्रोताओंको उपदेश देना-शास्त्र सुनाना-व्यर्थ है, क्योंकि जैसे टूटे-फूटे घड़ेमें पानी नहीं ठहरता वैसे ही उनके हृदय पर उपदेशका कुछ भी असर नहीं होता; और सत् श्रोताओंको दिया हुआ उपदेश उपजाऊ भूमिमें वोये हुए वीजकी भॉति कई गुणा फलता है। ____ कथा-वाक्योंकी रचनाके द्वारा किसी पदार्थके वर्णन करनेको कथा कहते हैं । कथाके दो भेद है; एक सत्कथा और दूसरी विकथा।
सत्कथा वह है जिसमें व्रत, ध्यान, तप, दान और संयम आदि तथा पुण्य-पापका फल और चरम शरीरी आदि पुरुषोंके विचित्र चरितोंका वर्णन हो । सत्कथाको कहने या सुननेसे धर्म-अर्थकी वृद्धि होती है, सुख मिलता है। उसके चार भेद हैं । उनको भी सुनिए ।
जिस कथासे रागभाव घट कर संवेगकी वृद्धि हो वह संवेगिनी कथा है। जिसमें धर्म तथा धर्मके फलका और वैराग्यका कथन हो वह निर्वेगिनी कथा है । तथा
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पहला अध्याय ।
जिसमें तर्क-वितर्कके द्वारा स्याद्वाद कथंचित् मतका मंडन और दूसरे कपोल-कल्पित मिथ्या मतोंका खंडन किया गया हो वह आक्षेपिनी कथा है । इसको कहने या सुननेसे ज्ञानका विकाश होता है । और जिसमें रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ) का निरूपण और मिथ्यात्व आदिका खंडन किया गया हो वह.विक्षेपिनी कथा है । इन गुणोंकी खान कथाके कहने या सुननेसे गुणोंकी वृद्धि होती है।
विकथा-खोटी कथा-वह है जो मिथ्यात्वियों-व्यास आदि झूठे लोगोंकी गढ़ी हुई कपोल-कल्पित वातोंसे भरी हुई हो । विकथाके कहने या सुननसे पाप-बंघ और पुण्य क्षीण होता है। - हर एक सत्कथाके आरम्भमें जिन सात अंगोंका होना अतीव उपयोगी
और आवश्यक है वे ये है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, तीर्थ, फल और प्रकृत । इसी नियमको लेकर यहाँ सब कुछ लिखा गया है । अव इस पवित्र पुराणका आरम्भ किया जाता है।
जम्बूद्वीप एक प्रसिद्ध और सुन्दर द्वीप है । वह सत्पुरुषोंका निवास और सम्पत्तिका खजाना है। उसमें भरत नाम एक पवित्र और मनोहर क्षेत्र है । वह भारती-सरस्वती से विभूपित अतिशय शोभावाला है। इसके छह खंड है । उनमें एक आर्यखंड है । वह धीरवीर और इन्द्र जैसी विभूतिवाले परोपकारी आर्य पुरुपोंका निवास है । वहॉके आर्य पुरुष अभयदान देनेवाले और धर्मात्मा हैं । आर्यखंडमें विदेह नाम एक मनोहर देश है। वह भी सुन्दर और उत्तम गुणोंसे युक्त नर-नारियोंसे विभूपित है । वहॉके नर-नारियोंको किसी भी वातकी कमी नहीं है । वे हमेशा अमन-चैनसे अपना समय विताते हैं । वहाँसे लोग सदा काल विदेह (मुक्त) होते है । वहॉके पुण्य-पुरुप ध्यानामि और कठिन तपस्याके द्वारा कर्म-ईधनको जला कर विदेह-मुक्ति-अवस्थाको प्राप्त हो जाते हैं और जान पड़ता है कि इसी लिए इस देशका नाम विदेह पड़ा है।
विदेह देशमें पृथ्वीका भूषण कुंडनपुर नाम एक सुन्दर नगर है। उसमें जो उत्तम उत्तम पुरुप निवास करते हैं उनसे वह ऐसा जान पड़ता है कि मानों वह इन्द्र आदि देवता-गणका निवास स्थान अमरावती ही है । कुंडनपुरके राजा सिद्धार्थ थे। वे नाथवंशी थे। उनके सभी मनोरथ सफल थे-उन्हें किसी भी बातकी कमी न थी। उनकी रानीका नाम त्रिशलादेवी था। वे नदीकी तुलना करती थीं।
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पाण्डव-पुराण |
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जिस भाँति नदी पहाड़ से निकल समुद्र में जाकर गिरती है उसी भाँति वे भी - चेटक रूप पहाड़ से उत्पन्न हो सिद्धार्थ समुद्र में जाकर मिल गई थीं । नदी समुद्रकी प्रिया होती है, वे सिद्धार्थ समुद्रकी प्यारी थीं और इसी कारण लोग उन्हें प्रियकारिणी भी कहते थे । वे उच्च कुलमें पैदा हुई थीं। उत्तम गुणोंकी खान और भंडार थीं । वे सभी कलाओं में प्रवीण और हर एक काममें चतुरा थीं । भगवान महावीर छह महीने बाद उनके गर्भ में आनेवाले थे, पर इसके पहलेही से छप्पन देवकुमारियां उनकी सेवा--उपासना करती थीं। तथा कुबेर आदि देवता-गण भी भाँति भाँतिकी दिव्य वस्तुएँ ला ला कर उनकी उपासना करते थे । एक समय त्रिशलादेवी अपने शयनागारमें पलंग पर सुखकी नींदमें सोई हुई थीं । रातका पिछला पहर था । इस समय उन्होंने सोलह स्वमको देखा ।
स्वम ये थे | हाथी, बैल, सिंह, लक्ष्मी, भाला युगल, चंद्रमा, सुरंज, मछली- युगल, कलेश, तालींव, समुद्र, सिंहसन, व्योमैंयान (देवतका विमान), भूमिगृह ( धरणेन्द्रका विमान), रत्नरीशि, और अ'ि 1
प्रातःकाल महारानीने इन स्वप्नोंका फल सिद्धार्थ महाराजसे पूछा । उन्होंने उनका फल कह कर रानीको सन्तुष्ट किया ।
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इसी समय कोमल हाथ-पाँववाली और गजगामिनी त्रिशलादेवीने स्वर्गके पुष्पक विमान से चय कर आये हुए एक भाग्यवान देवको अपने गर्भ-कमलमें धारण किया । इस दिन अषाढ़ सुदी छट और हस्त नक्षत्र था । इसके बाद वीरप्रभुका गर्भोत्सव करनेके लिए इन्द्र वगैरह देवता- गण गजों तथा अन्य अन्य वाहनों पर सवार हो - हो कर स्वते कुंडनपुर आये और उन्होंने वहाँ भगवानका खूब गर्भोत्सव मनाया तथा भगवानकी माताकी भारी भक्ति से पूजा की । धीरे धीरे जब गर्भके दिन पूरे हुए तब चैत सुदी तेरसके दिन त्रिशलादेवीने भगवान् वीरमभुको जन्म दिया; जैसे पूर्व दिशा सूरजको जन्म देती है । उससे दशों दिशायें उज्ज्वल हो गई तथा सारे संसारमें आनंद - मंगल छा गया । चौदस के दिन बड़ी भारी विभूतिके साथ इन्द्र आदि देवता-गण स्वर्गसे कुंडनपुर आये और वहाँसे भगवानको सुमेरु पर्वत पर ले गये । सुमेरु पर उन्होंने भगवानका बड़े भारी ठाट-बाट के साथ अभिषेक किया और शत्रुओंके दल पर विजय-लाभ करनेवाले वीरमका बर्द्धमान नाम रख उन्हें दिव्य वस्त्र और आभूषण पहिनाये ।
तीस वर्षकी अवस्था तक तो भगवान गिरस्ती रहे; पर बाद किसी वैराग्यके
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पहला अध्यार्य। कारणको पाकर वे विरक्त हो गये और उन्होंने अपने विरक्त होनेका समाचार अपने कुटुम्बी भाई-बन्धुओंको कह सुनाया। ____ इसके बाद भगवानको विरक्त हुए जान कर अपना नियोग पूरा करनेको पॉच ब्रह्म स्वर्गसे लौकान्तिक देव उनकी सेवामें आ पहुंचे और वे उनके वैराग्यकी प्रशंसा तथा भक्ति कर चले गये । पीछे थोड़ी ही देरमें इन्द्र आदि देवता-गण आये और उन्होंने प्रभुको भक्तिभावसे नमस्कार किया-उनकी स्तुति और पूजा की। इस समय प्रजा असीम आमोद-प्रमोदमें मस्त थी । वाद इन्द्रने भगवानको स्नान फरा कर दिव्य-वस्त्र और आभूषण पहिनाये और भक्ति-भारसे नम्र हो उन सक्ने भूतल-भूपण भगवानकी फिर पूजा-स्तुति की तथा मुक्त कंठसे उनके वैराग्य और विचारोंकी प्रशंसा की । इसके बाद वे भॉति भॉतिके चित्रोंसे चित्र विचित्र और रंग-विरंगी तरह तरहकी कलशियोंसे विभूषित चन्द्रप्रभा नाम एक सुन्दर पालकीमें श्री चीरमभुको विराजमान कर नगरसे बाहर उद्यानकी
ओर ले गये । वहाँ कोकोत्तम वीर भगवानने अगहन वदी दसमीके दिन, हस्त नक्षत्रमें, पष्ठ योगके वाद, दो पहरके समय, जिन दीक्षा धारण की और उसी समय वे चार ज्ञानके धारक हो गये। उन्हें मनापर्यय ज्ञान हो गया।
इसके बाद वीरमभुने सभी देशोंमें विहार कर बारह वर्ष घोर तप किया। वे जहाँ जहाँ जाते थे वहाँ उन्हें लोग बड़ी भक्तिसे पारणा कराते थे। आलस और विपय-वासना तो उनके पास तक न फटक पाते थे।विहार करते करते कुछ दिनोंके बाद भगवान जंभिका नाम एक गॉवमें आये । उसमें वहनेवाली ऋजुकूला नाम नदीके किनारे तालका एक घना जंगल था। भगवान उस जंगल में एक वृक्षके नीचे रक्खी हुई पवित्र शिला पर ध्यानस्थ हो गये । इसके बाद भगवान वैशाख सुदी दसमीके दिन, दो पहरके समय, पष्ठ योग और हस्त नक्षत्र, क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हुए । और अन्तर्मुहूर्त कालमें ही उन्होंने दुष्ट घाति-कर्मोंकी सैतालीस, आयुकर्मकी तीन और नामकर्मकी तेरह-कुल तिरेसठ-कर्म-प्रकृतियोंका नाश कर सब पदार्थों और उनकी अनंत पर्यायोंको एक साथ हमेशा जाननेवाले केवल-ज्ञानको प्राप्त किया।
इसके बाद वीर भगवान सारे संसारमें धर्मका उपदेश करते हुए विपुलाचल पर्वत पर आये । इस समय समवशरण उनके साथ ही था । उसकी विभू'तिका कोई ठिकाना न था।छत्र, चमर, सिंहासन, भामण्डल, (शरीरकी कान्तिका
पाण्डव-पुराण २
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पाण्डव-पुराण। पूर), फूलोंकी वरसा, अशोकक्ष, दिव्यध्वनि और हजारों दुन्दभी वाजोंका शब्द इन आठ भातिहााँसे वह और भी सुशोभित था। उसमें आने-जानेवाले लोगोंके कोलाहल शब्दसे दशों दिशायें गूंज रही थीं। और देवतागण द्वारा ले आये गये गौतम आदि गणधर भी वहाँ भगवानकी सेवामें उपस्थित थे । तात्पर्य यह कि उस वक्तकी शोभा अपूर्व थी।
मगध उत्तम गुणों से भरपूर और एक मनोहर देश है। धर्मात्मा और सत्पुरुपोंका वह निवास है; अतः ऐसा जान पड़ता है कि देवता-गणका निवास स्थान स्वर्गलोक ही है। उसमें राजगृह नाम एक सुन्दर नगर है । राजगृहमें भारी विशाल
और मनोहर राज-मन्दिर बने हुए हैं, जिनसे वह ऐसा जान पड़ता है मानों इन्द्रका पुर ही है । श्रेणिक वहाँके राजा थे। वे उत्तम श्रेणीके पुरुष थे, गुणोंके भंडार और सम्यग्दृष्टि थे । उदार-चित्त थे, प्रतापी और भारी ऐश्वर्यवाले थे । उनकी महारानीका नाम चेलिनी था। चेलिनी पर वे बहुत लाड़-प्यार करते थे।
एक दिन उनके पास यह खबर आई कि विपुलाचल पर्वत पर वीरमभु आये है । इस शुभ समाचारसे वे बहुत प्रसन्न हुए और उसी वक्त वीरप्रभुकी वन्दनाको गये, जिस भॉति आदिनाथ प्रभुके शुभ आगमनको सुन कर उनकी वन्दनाको उदार आशय भरत चक्रवर्ती गये थे । इस समय चार प्रकारकी सेना या यों कि चतुरंगी सेना महाराजके साथ-साथ थी। सजे-धजे घोड़े, सुन्दर लम्बे मोटे दातोंवाले हाथी, भाँति भॉतिकी वस्तुओंसे सजे हुए रथ और मनोहारी नृत्य करते हुए पयादे थे। भॉति भाँतिके वाजोंकी ध्वनिसे सव दिशायें गूंज रही थीं। वन्दीजन महाराजके यशको गाते जा रहे थे। सारांश यह कि उस समयका दृश्य अपूर्व ही था । थोड़े ही समयमें महाराज वीरममुके पास पहुंचे और वहाँ वे हाथी परसे उतर पड़े । एवं छत्र, चमर आदि राज-चिन्होंको वहीं छोड़ कर उनकी सभामें पहुँचे । वहाँ जाकर उन्होंने तीन लोक नाथ वीरप्रभुको एक मनोहर सिंहासन पर विराजे हुए देखा। उनके शिर पर छत्र-त्रय सुशोभित थे। वे और
और देवतोंसे भिन्न वीतराग रूपमें थे। और वहाँ सभी सभ्यगण उनकी और उनके तपश्चरण आदि कर्तव्योंकी पुनः पुनः प्रशंसा करते थे। एवं राजा-महाराजा और देवता गण उन्हें नमस्कार कर उनके चरणोंकी धूलिको अपने मस्तक पर
चढ़ाते थे; उनकी पूजा-वन्दना करते थे । वीरप्रभुको देख कर महाराजने उनकी , बन्दना की और भक्तिभावसे उन्हें नमस्कार किया। इसके बाद स्तुत्य ( स्तुति
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पहला अध्याय।
योग्य), स्तोता ( स्तुति-फर्ता ), स्तुति (गुण-गान ) और उसका फल इन चारों बातोंको जान कर उन्होने स्तुति करना आरम्भ किया । हे तीन लोकके स्वामी और देवोंके देव वीरप्रभु! आपके गुण अपार है; अतएव उनको गानेके लिए इन्द्र जैसा भारी शक्तिवाला भी जब असमर्थ है तब मुझ जैसे मन्द बुद्धियोंकी तो ताकत ही क्या है जो आपके गुणोंका गान कर सकेपरन्तु तो भी आपकी भक्तिके वश हो मै आपके गुणोंका कुछ गान करता हूँ । हे देवाधिदेव भगवन् ! आप चित्त-रहित होकर भी चैतन्य-स्वरूप हैं, इन्द्रियोंसे रहित और विशु हैं, कर्म-मल-रहित निर्मल है । रूप, रस, गंध आदिसे रहित होकर भी उनके जाननेवाले हैं । सभी पदार्थोंको हमेशा जाननेवाले सर्वज्ञ हैं । तीन लोकके पति हैं । हे वीर प्रभु! मैं आपकी वन्दना कर आपको नमस्कार करता हूँ। इस विपुलाचलको सुशोभित कर आपने यहाँ लोक अलोक प्रकाशित किया है, अतः आप जीव मात्रको पापसे बचानेवाले एक रक्षक हैं । हे प्रभु ! मैं आपकी कहॉ तक तारीफ करूँ, आपने वालपनमें ही तो काम जैसे वीरको वशमें कर लिया और खेल-कूदके वक्त सॉपोंका भेष बना वना कर जो देवता-गण आपके पास आये थे उन्हें तथा और और शत्रुओंको जीत कर आपने अपने 'वीर' नामको सार्थक कर दिखाया । हे भगवन् ! एक दिन आप खेल रहे थे और इसी समय वहाँ आकाशगामी कोई योगीजन आ निकले । उन्होंने आपको खेलते हुए देखा और देखते ही उनका एक भारी सन्देह दूर हो गया, जो उनके हृदयमें कीलेकी भॉति चुभ रहा था । इसी कारण उन्होंने आपको सन्मति कहा और आपकी भारी भक्ति की--पूजा-प्रशंसा की ।
इसी तरह मुनि-अवस्थामें आप एक दिन ध्यानस्थ थे। उस समय आपके ऊपर शंकरकी दृष्टि जा पड़ी। उसने क्रोधमें आ आपको भारी उपसर्ग किया, पर वह आपको रंच मात्र भी न चला सका । तब उसने आपको महावीर कहा और आपकी खूब स्तुति की। आपका ज्ञान-चंद्र पूर्ण वृद्धिंगत है, इस लिए आप वर्द्धमान हैं । इस भाँति पूर्ण भक्तिभावसे भगवानका स्तवन कर श्रेणिक महाराज जाकर मनुष्योंके कोठेमें बैठ गये । पश्चात् वीरप्रभुने कंठ, तालु आदिकी क्रियाके विना ही निरक्षरी दिव्यध्वनिके द्वारा धर्मका उपदेश करना आरम्भ किया। वे कहने लगे कि राजन् ! धर्ममें जी लगाओ।धर्म दयाको कहते है। इस दयाधर्मके दो भेद है, एक सनिधर्म और दूसरा श्रावकधर्म । पहले धर्ममें तिल-तुष मात्र भी परिग्रह नहीं होता।
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पाडण्व-पुराण ।
का अभाव ही मुनियोंका
उसमें निर्ग्रन्धता ही मधान है। निर्ग्रन्थता -- ममता - भाव सर्वस्व है । वही दुर्द्धर तप है । वही उत्तम ध्यान है । निर्मल- ज्ञान और उत्तम गुण भी वही है । उसके बिना मुनि मुनि ही नहीं कहला सकता, और इसी लिए सुनिधर्ममें उसे पहला स्थान मिला है । पर इसका धारण करना बहुत कठिन है । अब श्रावकधर्मको सुनिए । इसके शील, तप, दान, और भवाना ये चार भेद हैं । इसको पालने से स्वर्ग-सुख मिलता है । शील ब्रह्मचर्यको कहते है । यह आत्माका सच्चा स्वभाव है । इसके द्वारा और और व्रतोंकी रक्षा होती है। बहुत क्या कहा जावे, इसके होने पर और और गुण विना परिश्रम ही प्राप्त हो जाते है । इस कारण इसे अवश्य पालना चाहिए । तप इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे हटा कर वशमें करनेको या यों कि शरीरको वशमें कर लेनेको तप कहते हैं । वह वाह्य और अभ्यन्तर भेद से
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छः छः प्रकारका है ।
दान- मन-वचन-कार्यकी शुद्धि - पूर्वक उत्तम, मध्यम और जघन्य पात्रके अर्थ धन खर्च करनेको दान कहते हैं । इसके आहार, औषध, शास्त्र और अभय ये चार भेद है । इसका फल भोगभूमि है । पर इतना विशेष है कि जैसे उत्तम आदि पात्रोंके लिए दान दिया जायगा वैसा ही उत्तम आदि भोगभूमिरूप फल भी मिलेगा ।
भावना - जिनधर्मके मनन और चैतन्य - स्वरूप आत्माकी या यों कि हृदयकी शुद्धिका नाम भावना है । भावनासे आत्म-वल बढ़ता है ।
इस भाँति प्रभुने धर्मका उपदेश किया । जिसको सुन कर भव्यजीव बहुत सुखी हुए। इसके बाद महाराजको नगर जानेकी इच्छा हुई और वे प्रभुको प्रणाम कर वापिस चले आये । वाद नरेन्द्रों और देवतों द्वारा सेवित वीरप्रभुने भी और और देशों में धर्मका उपदेश करने के लिए वहाँसे विहार किया । कुछ काल बाद महाराज अपने नगरको जा पहुँचे और वहाँ वे चेलिन के साथ आमोद-प्रमोदसे काल विताने लगे । चेलिनी रानी बड़े उदार दिलकी थी। वह चंचल स्वभाववाली और स्वभावसे ही हमेशा वीरप्रभुका ध्यान किया करती थी । इधर दीन-दुखी जीवोंकों सुखी बनानेके लिए महाराज हमेशा दान देते थे और उधर संसार - तापसे संतप्त जीवोंको शान्ति पहुॅचानेके लिए वीरमभु अपनी दिव्यवाणीके द्वारा धर्मका उपदेश करते थे । धीरे धीरे वीरमने बहुतसे आर्य देशों में विहार किया और
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पहला-अध्याय।
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सब जगह धर्मका उपदेश कर संसार तापसे संतप्त जीवोंका ताप बुझाया- उन्हें शान्ति दी। वीर भगवानने जिन जिन आर्य देशोंमें विहार किया था वे ये हैं
कोशल, कुरुजांगल, अंग, वंग, कलिंग काश्मीर, कोंकण, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र भेदपाट, सुभोटक, मालवा, कर्नाट, कर्णकोशल, पराभीर, सुगंभीर और विराट । इसके बाद मगधदेशको प्रतिबोधने के लिए भगवान दुवारा विपुलाचल पर्वत पर आये और वहाँ वे ऐसे शोभित हुए मानों पूर्व दिशामें उदयाचल पर सूरजका उदय ही हुआ है।
कुछ समय बाद इधर उधर घूमता फिरता वनपाल वहाँ आया और वीरप्रभुकी वचन-अगोचर विभूतिको देख कर अचम्भेमें पड़ गया। वह सोचने लगा कि यह क्या बात है ! थोड़ी ही देरमें वह सब बातें समझ गया और सब ऋतुओंके फल-फूल लेकर इस शुभ समाचारके साथ राजमंदिर पहुंचा । वहाँ पुण्यवान महाराज एक मनोहर सिंहासन पर विराजे थे और देश-विदेशोंसे आई हुई भेटोंकी देख-भाल करते थे । उनके ऊपर एक अपूर्व छत्र लगा हुआ था, जो धूपकी बाधाको दूर करता था । उनकी लम्बी और मजबूत भुजाएँ उनके पराक्रमको कहती थीं । गायक-गण संगीत द्वारा उनका गुण-गान करते थे। सैकड़ों कुलीन राजा-महाराजा हाथमें तलवार ले-ले सेवामें उपस्थित हो उनका यश गाते थे। उनके दोनों कुंडल ऐसे जान पड़ते थे मानों वे चॉद और सूरज ही हैं। उनके मुकुटकी किरणें सव ओर फेल रही थी और ऐसी जान पड़ती थीं मानों महाराज उनके द्वारा आकाश-पट पर अपना चित्र ही लिख रहे है। उनके मनोहर हारकी कान्ति सव ओर विस्तृत हो रही थी, जान पड़ता था कि वह सव लोगोंकी हँसी उड़ा रही है । अपने कड़े, अंगद और वाजूवंदोंकी कान्ति द्वारा वे अँधेरेको दूर करते थे, और दॉतोंकी उज्ज्वल किरणोंसे पृथ्वी-तलको उज्ज्वल करते थे। इतनेमें द्वारपालकी आज्ञासे वनपाल भीतर आया । और सब ऋतुओं के फल-फूल महाराजकी भेंट कर तथा उन्हें नमस्कार कर हर्षके साथ बोला कि देवोंके देव ! आज वनमें विपुलाचल पर्वत पर वीरप्रभु आये है। वे नाथवंशके दीपक है, पृथ्वीके तिलक और स्वामी है। राजन् ! यह सव उन्हींका माहात्म्य है जो आज वनमें क्रूर-चित्त और जीवोंको महान् संकटमें डालनेवाली व्याघ्री भी अपने बच्चेकी चाहसे गायके वछवे पर प्रेम करती है । तथा सिंह और हाथीके बच्चे अपने जातीय रैर-विरोधको भूल कर सुखकी इच्छासे एक जगह खेलते है।
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पाण्डव-पुराण।
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साँप और नौला हितकी इच्छासे एक दूसरेको अपने पास स्थान देते है-एक जगह किलोलें करते है । विल्ली और चूहा भाई-बन्धुओंकी तरह साथ-साथ खेलनेको तैयार है ! तथा यह थीं उन्हीं महात्माका प्रभाव है कि जो ताल-तलइयाँ दरसोंसे सूखी पड़ी थीं वे आज जबसे लवालब भर गई हैं । और कोक, हंस आदि पक्षी उन पर कलरव शब्द करते हैं । तथा बहुत दिनोंके सूखे हुए तालवृक्ष भी आज फल-फूल और पत्तोंसे लहलहा उठे हैं; फल-फूलोंके भारसे पृथ्वी तक नीचे झुक गये हैं। जान पड़ता है कि वे पृथ्वी तक नीचे झुक कर भगवानको नमस्कार ही करते है। इसके सिवा राजन् ! यह जो और और सब वृक्षों पर अकालमें ही फल-पुष्प आ गये हैं इससे जान पड़ता है कि ये सब वृक्ष अपनेआपको अहमिन्द्र मान फल-पुष्प ले-ले कर प्रभुकी सेवा और भक्ति करनेको ही उपस्थित हुए हैं। महाराज ! सब ऋतुओंके फल-पुष्पोंको एक साथ आया देख कर पहले तो मुझे अचंभा हुआ, पर पीछे उन प्रभुका माहात्म्य जान सब ऋतुओंके फल-फूलोंको लेकर मैं आपकी सेवामें आया हूँ। इस शुभ समाचारको सुन कर महाराजके हर्षका कुछ पार न रहा। उनके रोमाञ्च हो आये और मुँह प्रसन्न हो उठा । इस समय महाराजने संदेशा लानेवाले वनपालको खब धन-सम्पत्ति दीउसे मालामाल कर दिया । और आप सिंहासनको छोड़ जिस दिशामें वीरप्रभु थे उस ओरको सात पेंड़ आगे गये तथा वहॉले उन्होंने अनेक राजोंके साथ-साथ वीरमभुको विनीतभावसे नमस्कार किया । बाद वे अपने स्थान पर आ बैठे । इस वक्त वीरमभुकी वन्दनाके लिए वे बहुत ही उत्सुक हो रहे थे। ।
__ वीरप्रभु गुणोंके आश्रय हैं, उनको गुणोंने इस अभिप्रायसे अपना आश्रय बनाया कि जिसमें वे (गुण) सारे संसारमें प्रसिद्ध हो जायें। वीरप्रभुने ही व्रतोंका उपदेश किया है और उन्होंने ही धर्म-तीर्थको उलाया है । तथा वे सिद्धिके स्वामी
और संसार भरके रक्षक हैं । एवं संसारी जीवोंके मोह-मदको उतारनेवाले हैं। उन वीरम के लिए स्वस्ति हो।
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दूसरा अध्याय। wroom mr.. .. . दूसरा अध्याय।
-orउन परम पवित्र और महावीर वीरप्रभुको नमस्कार है जो सम्पूर्ण वैरियों “पर विजय-लाभ कर संसार-समुद्रको पार कर चुके है।
इसके बाद इसे गद्गद हो महाराजने संसारको आनंद देनेवाली आनंद मेरी वजवाई और दान देकर सभी प्रजाको अमन-चैनमें कर दिया। भेरीके शद्धको सुनते ही अपने अपने मनोरथोंकी सिद्धिकी इच्छासे सब लोग वस्त्र, आभूपण, गहने-गॉठे पहिन कर यात्राके लिए तैयार हुए। सईसोंने हर्पित होकर हलती-चलती हुई सुन्दर किसवारवाले घोडों पर मनोहर पलाण रखे । महावतोने, दंत-प्रहारसे दिग्गजोंको भी डरानेवाले सुन्दर हाथियों पर मनोहर झूलें डाली । सारथी-गण मनोहर पहियोंवाले रथोंमें सुन्दर सुन्दर घोड़ोंको जोत कर उन्हें राज मन्दिरमें ले आये । और पयादे-गण कोई पालकी पर, कोई वैलों पर और कोई ऊँटों पर सवार हो-हो कर सव राजवाड़ेके चौकमें आ उपस्थित हुए | उनके हाथोंमें ढाल, तलवार, माला और शक्ति आदि कई एक हथियार थे । और चाँद जैसे सुन्दर मुंहवाले, ग-युक्त नर्तकी-गण नटोंको साथ लिये हुए नृत्य करनेको तैयार हो-हो कर आये तथा महाराजके आगे नृत्य करने लगे। इस भॉति महाराजको सभी सामग्री सुलभ थी। उनका पराक्रम अद्भुत था और वे लक्ष्मी के स्वामी थे। अतः जान पड़ता था कि वे दूसरे कुवेर ही हैं। कारण कुबेर भी अद्भुत पराक्रमी और लक्ष्मीका पति होता है। इस तरह सज-धज कर तैयार हो वे निर्भय अभयकुमार और पवित्र वारिपेण कुमारको साथ लेकर वीरप्रभुकी वन्दनाको गये। इस समय उनके साथ जिनभक्त चेलिनी भी थीं। जव उद्यान पास आ गया तब वे हाथी परसे उतर पड़े एवं जल्दीसे वीरम के समवसरणमें जा पहुंचे। वहाँ उन्होंने वीरमभुको जी भर देख कर बार बार नमस्कार किया । वाद सबके सब अपने योग्य स्थानमें जा स्थिर-चित्त हो वैठ गये । और सबने ध्यान देकर धर्मका उपदेश सुना।
इसके बाद महाराज खड़े हुए और उन्होंने ज्ञानी गण-नायक गौतम गुरुकी वन्दना कर उनका यो गुण-गान आरम्भ किया। भगवन् ! आप महाभूति है, राजा-महाराजा सभी आपकी पूना-स्तुति करते हैं। आपके ज्ञान-रूप आलोकमें सभी पदार्थ एक साथ झलकते है, दीख पड़ते है । प्रभो आपके लिए कोई भी वस्तु
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पाण्डव-पुराण अगम्य नहीं है, क्योंकि आपका ज्ञान तो एक बड़े भारी समुद्रके वरावर है और यह सारा संसार उसमें एक बूंद की नॉई है । हे नाथ ! आपके पास वह उत्तविद्या है जो सारे संसार पर अपना प्रकाश डालती है, उसमें यह सारा संसा हमेशा गायके खुरके वरावर झलकता है । तथा हे महर्षि ! आप बहुतसी वृद्धिं गत ऋद्धियोंके धारक हैं। बीज ऋद्धिसे युक्त और मनःपर्ययज्ञानी हैं। पादानु सारिणी ऋद्धिवाले और परमावधिज्ञानके धारक, हैं। आपमें सभी पदार्थीको जाननेवाली विद्या है जो निर्मल आकाशमें सूरजकी भाँति शोभा पाती है । सभ 'जीवोंके सभी रोगोंको दूर करनेवाली सर्वोपधिऋद्धिके आप स्वामी हैं । औ इसी लिए कहा जाता है कि आपकी परोपकारिता वचनातीत है । एवं आप चारण ऋद्धिके वलसे आकाशमें चलते हैं और मार्गके जीव-जन्तुओकी पीड़ा बचाते हैं, अत: आप परम दयालु-दया-स्तंभ-हैं। इसके सिवा अक्षीण ऋद्धि भी आपको है । बहुत कहाँ तक कहें, आकाशके तारोंकी भाँति आपकी ऋद्धियोंकी कुछ गिर्न नहीं है । कृपासिन्धु भगवन् ! मुझे एक सन्देह है, और साथ ही आशा त विश्वास है कि वह आपके प्रसादसे अब मेरे हृदयसे निकल जायगा, उसे अव में हृदयमें स्थान नहीं मिलेगा, जिस तरह जलती हुई आगसे हर एक चीजका निकल जाता है और उसमें फिर उसे स्थान नहीं पाता । क्योंकि प्रभो, न संसारमें आप ही उत्तम हैं; सबके गुरु और आश्रय हैं; महामुनि, सर्वज्ञ-पुत्र सर्वज्ञशिष्य हैं । हे सर्वज्ञ ! आपसे मैं बहुत कुछ जानना चा " और उस और लोगोंका भी हित होगा; क्योंकि वह सबके लिए उपयोगी है । हे पुरु तम! प्रसन्न हो कर मुझ पर दया करो । दयानिधे ! मैं कुरुवंशके दीपय पाण्डवोंका चरित सुना चाहता हूँ । सुना जाता है कि पांडव लोग कौरव थे और बहुतसे राजा महाराजा उनके सेवक थे। इसमें मुझे यह सन्देह है कि वे कौनसे वंश पैदा हुए ? कुरुवंश किस युगमें हुआ या चला ? इसके सिवा गुण और गौरववे धारक कुरुवंशमें पृथ्वी पर कौन कौनसे प्रसिद्ध पुरुषोंने जन्म पाया ? और उस वंशमें धर्म-तीर्थके प्रवर्तक और जगत्-पूज्य कौन कौन तीर्थकर . . चक्रवर उत्पन्न हुए ? नाथ ! अन्यमतके शास्त्रोमें जो पांडवोंका चरित पाया जाता है व. तो सर्वथा वॉझ स्त्रीके पुत्रकी सुन्दरताका वर्णन है; मिथ्या है । उसमें कुछ में सार नहीं है । सुनिए।
काशीका शांतनु राजा कहीं युद्धके लिए गया था। वहाँ उसे अपनी प्रिया ऋतु समयकी याद हो आई। और उसने उसे नति-दान देने के लिए अपना वीर्य भेज
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दूसरा अध्याय।
on - ... नेका विचार किया । उसने एक तॉवे वर्तन मॅगाया और उसमें वीर्य रख क उसके मुंह पर अपने नामकी मुहर लगा दी । तथा उसको एक श्येन पक्षीके गां वाँध कर अपनी प्रियाके पास ले जानेके लिए पक्षीको काशी भेज दिया वह लीला मात्रमें ही मार्गको तय कर गंगा नदीके तट पर जा पहुंचा । उ देख कर उस पर एक दूसरा श्येन पक्षी झपट पड़ा । दोनोंकी आपसमें खू छेड़-छाड़ हुई और परस्परकी गूंचा-नॅचमें वह वर्तन उस पक्षीके गलेसे छूट क गंगामें जा पड़ा और टूट-फूट गया। उसमें जो वीर्य था वह दैवयोगसे एक मछली उदरमें चला गया; एवं उसके उदरमें ठहर कर वह गर्भके रूपमें परिणत हो गया
तात्पर्य यह कि उस वीर्यसे एक मछली गर्भवती हो गई । गर्भके नौ मही पूरे हो ही चुके थे कि दैवयोगसे उस मछली पर एक दिन किसी धीवरकी हा पड़ गई । उसने उसे पकड़ कर चीर डाला । उस वक्त उसके गर्भसे एक लड़की हुई जो कि संसारमें मत्स्यगंधाके नामसे प्रसिद्ध है । मत्स्यगंधाके शरीररं बदबू बहुत आनी थी। इस कारण उस धीवरने उसे नदीके तट पर ही वसा दिय था । वह वहीं रहती थी और नौका चला-चला कर अपनी उदर-पालना किय करती थी । धीरे धीरे वह युवती हुई । दैवयोगसे एक दिन नौकामें जाते हुए पराशर ऋपिके साथ उसका समागम हो गया। उसने व्यास जैसे सुन्दर और वेद-वेदांगके ज्ञाता पुत्रको जन्म दिया । व्यास बालकपनमें ही तप तपनेके लिए अपने ५४ राशर ऋषिके पास चले गये।
एक दिन शांत-चित्त सांतनु राजाकी दृष्टि उस मत्स्यगंधाके ऊपर जा पई और वह उसके ऊपर निछावर हो गया । तथा मोहके वश होकर उसने उसवे साथ विवाह कर लिया । कुछ काल बाद शांतनु के सम्बन्धसे उसके दो पुत्र पैद हुए । एक चित्र और दूसरा विचित्र । चित्रका व्याह अंबा और विचित्रक व्याह अंबिकाके साथ हुआ। इन दोनोंकी अंबालिका नाम एक दासी थी। दैवयोगरे थोड़े ही समयमें सांतनु राजाका परलोक हो गया और चित्रविचित्र दोनों भाई राज-पाटके मालिक हुए । कालकी गति विकराल है । उस पर किसीका जोर नहीं चलता । वह दुष्ट कुछ ही कालमें चित्र विचित्रको भी निगल गया । इनके कोई सन्तान न थी, अतः राज-पाट सव सूना हो गया। तव मत्स्यगंधाने राज-काज चलानेके लिए व्यासको बुलाया ।वे आये और राज-पाटका सम्बन्ध पाकर उन्होंने भारी भारी कुकर्म किये । वे कहने लगे कि गन्धिके ! मेरी
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पाण्डव-पुराण । बात सुनो जो सभीके हितकी है। वह यह कि यदि तुम्हारी दोनों वधुएँ और उनकी दासी मेरे आगे हो लज्जा छोड़ कर नंगी निकल जायें तो वे अवश्य ही गर्भवती होगी या यों कि वे गर्भधारण करेंगी। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं । तुम मेरी बात पर विश्वास रख कर ऐसा करो। गन्धिकाने वैसा ही किया और वे तीनों गर्भवती हो गई । धीरे धीरे जब गर्भके दिन पूरे हुए तव अंवा और अविकाने धृतराष्ट्र, अन्धक और कुष्टरोगी पांडुको जन्म दिया तथा वालिकाने विदुरको पैदा किया। भगवन् ! अव कहिए कि जो यह सुना जाता है कि अंवाअविकामें आसक्त-चित्त व्याससे इनकी उत्पत्ति हुई, यह कहाँ तक सत्य है ?
गांधारीका सौ अज आदि राजोंके साथ विवाह हुआ और फिर भी उसे सती कहा है, यह कहॉ तक ठीक है ? तथा सुना जाता है कि अज आदिको उनके पिता यदुवंशी राजा भोजक-दृष्टिने मार डाला तव वे मर कर भूत हुए और भूतपर्यायमें ही उन्होंने गांधारीके साथ समागम किया । यह भी एक विचित्र वात है और प्रश्न उठता है कि क्या मनुष्यनीके साथ देव भी समागम करते है ? भारी अचम्भेकी वात तो यह कि भूतोंके समागमसे उसने गर्भ भी धारण किया, पर उसका वह गर्भ अधुरे दिनोंका ही गिर पड़ा । वाद वह कपासमें रख कर बढ़ाया गया
और नौ महीने पूरे हो चुकने पर उससे दुर्योधन आदि कौरवोंकी उत्पत्ति हुई ? ___इसके बाद गांधारीका गोलक (विधवासे उत्पन्न हुए जार-पुत्र ) धृतराष्ट्रके साथ पुनर्विवाह हो गया। हे देव ! यह सब कथा आकाशके फूलकी प्रशंसाकी भॉति निष्फल-व्यर्थ है । इसके कहने या सुननेसे कुछ भी लाभकी आशा नहीं। पर न जाने लोग फिर भी ऐसी मनगढन्त कथा पर कैसे विश्वास करते है । एवं सफेद कुष्टवाले और गोलक पोडका विवाह कुन्ती और माद्रीके साथ हुआ वताया जाता है । एक दिन इन्द्रके जैसी शोभाका धारक पाण्डु राजा अपनी दोनों भार्या
ओंको साथ लेकर वनमें शिकारके लिए गया और उसने हिरण जैसे गरीब और मूक पशुओंको मारनेका इरादा किया । हे प्रभो! यह वात बड़ी खटकती है कि कौरव लोग भारी दयालु और सज्जन थे, फिर भी वे दीन-हीन पशुगोंको वध करनेका इरादा करें यह उनका काम कहॉ तक उचित है ? उसी वनमें दो तपस्वी भृगका रूप धर कर मैथुन-क्रियामें आसक्त चित्त हो रहे थे । इतनेमें वाण-विद्याविशारद पांडुने उन पर वाण छोड़ा । यहाँ यह शंका होती है कि क्या मनुष्य भी मृगका रूप बना सकते हैं ? और एक धर्मात्मा राजा मृग जैसे मूक पशुओं पर
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दूसरा अध्याय । women com वाण चला कर उन्हें दुःख दे, यह कहाँ तक उचित कर्तव्य है ? उस वाणके द्वारा वेधा जाकर जव मृग मारा गया तव मृगी बहुत ही दुखी हुई और मैथुन-क्रियामें आसक्त-चित्त उस मृगीने राजाको यह शाप दिया कि मेरे पतिकी नॉई तुम भी अपनी मियाके साथ समागम करते समय ही कालके मुंहमें जाओगे-मरोगे । इस शापको सुन कर राजाको बहुत दुःख हुआ और उसने उसी वक्त प्रतिज्ञा की कि मैं आजसे जन्मभर स्त्रीके साथ समागम ही नहीं करूँगा । भगवन् !
और भी सुना जाता है कि सूरजके सम्बन्धसे कुन्तीने अपने कर्ण द्वारा कर्णको जन्म दिया, पर आज तक कहीं कानसे पैदा हुए मनुष्य देखनेमें नहीं आये । तव कहिए यह कहॉ तक सम्भव बात है ? __इसके बाद कुन्तीका सधर्मके साथ समागम हुआ जिसप्ते उसे गर्भ रहा और उसने युधिष्ठिर जैले योधा पुत्रको जन्म दिया । एवं कुन्तीने वायुके समागमसे निर्भय भीम और इन्द्रके समागमसे अर्जुन (चाँदी) के समान प्रभाषाले गर्जुनको पैदा किया। इसी प्रकार रूप-श्रीसे युक्त माद्रीने भी आश्विनेय सुरके सम्बन्धसे नकुल और सहदेवको जन्म दिया। ये दोनों उत्तम गुणोंके भंडार थे । इन सवको किसी भी वातकी कमी न थी। हे प्रभो! इस कहानीसे जान पडता है कि. पांडव लोग कुंड थे-~-सधवासे उत्पन्न हुए नार-पुत्र थे । अब बताइए कि ऐसे सत्पुरुषोंकी इस मॉनि उत्पत्ति क्यों हुई ? यह बात सची है या मिथ्या ? ।
भीम भारी वलवान, समझदार और बुद्धिका सागर था तथा वारतवमें उसका आहार भी बहुत कम था, पर न जाने लोग क्यों कहते है कि भीम दस मानी अन्न रोज खाता था !
और भी सुनते हैं कि गांगेय ऋषि गंगानदीसे पैदा हुए ? परन्तु हे नाथ ! यहाँ यह तर्क उठता है कि नदियोंसे यदि मनुष्योंकी उत्पत्ति होने लगे तो फिर कोई विवाह ही क्यों करेगा और घर-गिरस्तीके झंझट में ही काहेको फंसेगा ।
कहते हैं कि द्रौपदी बहुत ही सुन्दरी थी, सती थी, शीलको अखंड पालती थी। परन्तु फिर भी वह पॉचों पांडवोंको भोगती थी । हे नाथ ! कहिए कि जव वह सती थी तो उसके पाँच पति कैसे हो सकते हैं ? और कदाचित् हों भी तो ऐसी हालतमें वह सती कहाँ रही ? यह वात परस्पर विरुद्ध है । दूसरी बात यह कि जब वह युधिष्ठिरके साथ कामासक्त होती थी उस समय और और पांडव उसके देवर हुए, जो पुत्रके वरावर होते है। फिर वह उनके साथ कैसे रमनी थी ?
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और जब वह और और पांडवों के साथ काम-क्रीड़ा करती थी उस वक्त युधिष्ठिर उसके जेठ हुए, जो कि पितासे कम नहीं होता। ऐसी हालतमें वह युधिष्ठिरको कैसे भोग सकती थी। यह सब बड़े ही अचंभेकी कहानी है !
हे भगवन् ! इस कथाको कह कर या सुन कर कुछ भी फलकी इच्छा करना वालूको पेल कर तैल और जलको विलो कर घीकी इच्छा करना है । तात्पर्य यह कि जैसे वालूको तेलके लिए पेलना और पानीको घीके लिए बिलोना व्यर्थ है वैसे ही यह कहानी भी व्यर्थका वारजाल है । इसमें कुछ भी सार और सचाई नहीं । तव इसको कहने या सुननेसे फलकी आशा ही क्या हो सकती है । या यों कि जिस तरह फलकी आशा कर शिला पर वीज वोना किसी कामका नहीं उसी तरह मनोरथ-सिद्धिकी लालसासे ऐसी कथा बतानेवाले पुराणको कहना या सुनना भी किसी प्रयोजनका नहीं ।
हे प्रभो ! मेरे हृदयमे कुछ और भी सन्देह उठ रहे हैं,अतः आपसे निवेदन है कि आप नीचे लिखी बातोंको समझा कर उन्हें दूर कीजिए और संसारका हित कीजिए।
१ गंगाके जलके समान-स्वच्छ गांगेय ऋषिका माहात्म्य, २ द्रोणाचायका पराक्रम, ३ भीमका पराक्रम, ४ हरिवंशकी उत्पत्ति, ५ द्वारिका पुरीकी रचना, ६ कृष्ण और नेमिनाथका बल, ७ जरासिंधका सत्तानाश, ८ कौरव और पांडवोंका वैर, ९ तथा उनके वैरका कारण, १० पांडवोंका विदेश जाना और फिर वापिस लौटना, ११ द्रौपदीका हरण, १२ उत्तर मथुराकी हालत, १३ रकृष्णका मरण होने पर पांडवोंका नेमिनाथ स्वामीके पास आना, १४ पांडवोंके पूर्वभव, १५ द्रौपदीका पंच भरतारीपनेका कलंक, १६ पांडवोंकी दीक्षा, १७ पांड. वॉका शत्रुजय पर्वत पर जाना, १८ वहाँ घोर परीपहोंका सहना, १९ तीन पांडवोंको केवलज्ञान होना, और उनका मोक्ष जाना, २० दो पांडवोंका पंच अनुकत्तरमें अहमिन्द्र पद पाना।। र हे देव ! इन प्रश्नोंके समाधानको सुन कर सभी जीव सुखी होंगे, अतः हे रंसबके हितैपी और सबके हितके लिए तैयार रहनेवाले प्रभो! आप इनका शीघ्र ही
समाधान कीजिए । क्योंकि आपको छोड़ कर और कोई भी इन प्रश्नोंको हल नहीं शकर सकता । इस प्रकार वीरप्रभुकी सभामें श्रेणिक महाराजने बहुतसे प्रश्न किये। गये प्रश्न संदेहको मिटानेवाले और सबके हितकारी हैं। इसके बाद जव गौतमगुरु उत्तरमें बोलने लगे तव संसार-तापको दूर करनेवाली उनकी दिव्यवाणीको सुन कर भव्य
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दूसरा अध्याय। पुरुषोंको बहुत आनंद हुआ, वे हर्षसे गद्गद हो गये; जैसे सूरजके तापको मिटानेवाले मेघोंका निमित्त पाकर अन्नके खेत हरे-भरे हो जाते हैं । इसी तरह भेषके शब्दको सुन कर मयूरकी नॉई शिष्य-गण भी उनकी वाणीको सुन कर नॉचने लग/ गये। तात्पर्य यह कि उन्हें बहुत ही हर्ष हुआ। उस समय गौतम भगवानके दाँतोंकी स्वन्छ किरणें जाकर सभी समाजनोंके ऊपर पड़ती थीं, अतः ऐसा जान पड़ता था कि वे स्वभावसे ही पवित्र-चित्त सभासदोंको और भी पवित्र वना देनेके लिए स्नान ही करा रही है । गौतम प्रभु निष्पाप-पवित्र आत्मा-थे, तेजस्वी थे, उनका तेज चारों ओर फैल रहा था। वे अपने तेजसे घिरे हुए अपूर्व ही शोभाको धारण कर रहे थे। वे आत्म-स्वरूपमें लीन और गुणोंके भंडार थे। ____ गौतम गुरुके चारों तरफ जो और और शिष्य-गण विराने थे वे श्रेणिक राजाके प्रश्नोंको सुन कर बहुत ही हर्पित हुए; कारण पांडवोंके चरितको सुननेका उन्हें अच्छा मौका आ मिला था। तथा वहॉ जो देवतों द्वारा पूजे जानेवाले और
और ऋषि-गण बैठे थे वे महाराजके प्रश्नोंको सुन कर कहने लगे कि प्रसिद्ध पांडव पुराणको सुननेकी हमारी बहुत दिनोंसे इच्छा थी, आशा है कि वह अब पूरी जायगी। राजन् ! आपने मगध देशके बहुतसे शत्रुओंको जीत लिया है, . , सम्यग्दर्शनसे युक्त और मिष्टभाषी है तथा भावी तीर्थकर हैं । आपके प्र..." सुन कर हमें बहुत खुशी हुई और हमारे पुण्णोदयकी भी उद्भूति हुई । कर हमारी बहुत इच्छा थी कि हम पुराण-पुरुषोंके पुराणको सुने और वह .. आज हम सुन रहे हैं । इसके सिवा और क्या खुशीकी वात होगी । राजन् । आपने हमारे सन्देह रूप अंधेरेको हटा दिया, इस लिए आप सूरज है , आपने हमारे गुणोंको गौरव दिया, अतः आप गुरुसे भी गुरु है। अपने १ . चाहनेवाले पुरुपोंके हितका प्रश्न किया, इस लिए आप हितैषी हैं और .. जीवोंके मिथ्यात-रोगको दूर करते है, इस लिए परोपकारी सच्चे वैद्य है। ममें कहा है कि पुराणोंको सुननेसे आत्माका कल्याण होता है । इस समय ९ . लोग इस पुराणको आपके निमित्तसे सुन ही रहे है । तब यही करना होगा कि हमारा कल्याण करनेवाले है--संसारकी सत्ता नाश करनेवाले है।
इस भारतवर्पमें पहले भरत आदि बहुतसे इसके स्वामी होगये हैं । ६ पुराणको सुन कर देशावधि नाम महान् ज्ञानको पाया था। कृष्ण नारायणने ने नाथ भगवानकी सभामें पुराण पुरुषोंके चरितको सुन कर उसी समय तीर्थ
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पाण्डव-पुराण |
नाम कर्मको बाँधा था, जिसके प्रभाव से वे धर्म-तीर्थको चलानेवाले तीर्थकर भगवान _होंगे। और उसी तरह आप भी आज वीरमयुकी सभायें आगममें कही हुई सत्कमेथाओं को सुन रहे हैं, अत एव आप भी आगे उत्सर्पिणी कालमें महापद्म नाम प्रथम तीर्थकर होंगे। यह सब पुराणपुरुपों की कथा कहने या सुननेका ही प्रभाव है । कोराजन् ! अब देखो कि हम भी तुम्हारे निमित्तसे इस पवित्र पुराणको सुनते हैं और आशा है कि हमारे मनोरथकी भी सिद्धि होगी । सच है गुणी पुरुषोंकी संगतिसे गुण का लाभ होता ही है । राजन् ! आपमें अगणित गुण है और वे सभी के सभी गौरव युक्त हैं। जिनागममें आपका अटूट प्रेम है । आप धर्मात्मा और धर्मात्माओं के साथ गाय-बछड़े की भाँति प्रीति रखनेवाले हैं। आपके समान गुणी राजा न तो उदेखा और न इस समय देख ही पड़ता है । सच है गुणज्ञताको सभी पूजते ' यॅ और गुणीका सव जगह आदर होता है ।
इस प्रकार उन महर्षियोंने महाराजकी खूब ही प्रशंसा की । सच है नीरणियोंके समागम से सूतकी नॉई गुणोंके निमित्तसे छोटासा पुरुष भी बड़े बड़े वृहात्माओं द्वारा गण्यमान्य हो जाता है ।
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इसके बाद विद्वानों द्वारा पूजे जानेवाले और जगत् के गुरु वाचस्पति गौतम , गणधर अपनी गंभीर ध्वनिसे कहने लगे कि श्रेणिक महाराज ! तुमने बहुत अच्छी पूछी । हे शास्त्र - विशारद ! तुमने जो संसार - प्रसिद्ध वात पूछी है उसको अब वामि थोड़े में कहते है । तुम सावधान चित्त हो कर सुनो ।
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इस भरत क्षेत्र में पहले भोगभूमि थी और कल्पवृक्षों के निमित्तसे लोगोंका 'नचाहे आराम से काल गुजरता था । पर धीरे धीरे जब भोग भूमिका क्षय शाने लगा और तीसरे कालका पल्यका कुल आठवाँ भाग काल वाकी रह गया को चौदह कुलकर उत्पन्न हुए । वे दिगीश्वर थे अर्थात् यद्यपि तेरह कुलकरों अहक राजा प्रजाका कुछ भी सम्बन्ध न था, पर तो भी लोगों में वे मुख्य गिने हैते थे । वे बहुतसी कला - चतुराइयों को जानते थे । और उन्होंने अनेक कुलोंकी हितैवस्था की थी । उनके नाम थे— प्रतिश्रुत, सन्मेति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीकर, धर, विपुलवाहन, चक्षुष्मान, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनर्जिव तौर नाभिराज |
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संदे इन्होंने हा, मा, और धिक इन तीन दंडोंको नियत किया था और इन्हींके
लश लोगों पर हिंसक जन्तुओं आदिके निमित्तसे जो आपत्तियाँ आती थीं उन्हें ये
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दूसरा अध्याय ।
दूर करते थे । चौदहवें कुलकर नाभिराजाका ब्याह मरुदेवीके साथ हुआ । इसी समयसे इनके रहनेके लिए इन्द्रने आकर अयोध्या नगरीकी रचना की
और कुवेरको आज्ञा की कि यहाँ पर भगवान आदिनाथ जन्म लेंगे, इस लिए तुम अभीसे यहॉ रत्नोंकी बरसा करो । इन्द्रकी आज्ञाको शिरोधार्य कर अबेरने वहाँ बराबर पंद्रह महीने रत्नोंकी बरसा की तथा देवियोंने आकर गर्भशोधन आदि क्रियायें की। इसी समय सर्वार्थसिद्धि नाम विमानसे एक देव चय कर अपाढ़ वदि दोजके दिन मरुदेवीके गर्भमें आया । भगवानको गर्भ धारण किये हुए मरुदेवी ऐसी जान पड़ती थी मानों रत्नोंको भीतर रखनेवाली पृथ्वी ही है । तात्पर्य यह कि वह उस वक्त रत्नोंकी खानिकी नॉई शोभती थी । भगवानकी. माता मरुदेवीकी छप्पन्न देवकुमारियाँ सदा काल सेवा करती थीं । उनका काल अमन-चैनके साथ वीतता था । जप आसानीसे नौ महीने पूरे हो गये तब उन्होंने चैत सुदि नौमीके दिन भगवान आदिनाथ प्रभुको जन्म दिया; जैसे सीप अमूल्य मोतियोंको पैदा करती है । आदिनाथ प्रभुका जन्म सबको शुभकल्याणका निमित्त हुआ । भगवानका जन्म होते ही देवतोंके सिंहासन हिल गये-उनके वहाँ हलचल मच गई । सच है सत्पुरुषोंके चरितकी सभीको सूचना मिल जाती है । इसके बाद अवधिज्ञान द्वारा भगवानका जन्म जान कर देवता-गण उसी वक्त स्वर्गसे चल कर थोड़ी ही देरमें अयोध्या नगरीमें आ पहुँचे। वहाँ आकर सभी देवता-गण और ऐरावत हाथी पर चढ़ा हुआ इन्द्र तो नाभिराजाके महलके द्वार पर खड़ा रह गया और सुन्दर रूपकी सीमा मानिनी| इन्द्राणीको उसने मनोहर प्रसूति-गृहमें भगवानको ले आनेके लिए भेजा । भक्तिभावसे भरी हुई इन्द्राणी गुप्तरूपसे भीनर गई और वहाँ उसने गुणोंके भंडार
और मनोहर आदिनाथ प्रभुको एक अनोखी शय्या पर लेटे हुए देखा । उसने माता-सहित उन्हें नमस्कार किया । उत्तम और इष्ट गुणोंके पुंज भगवानको २० कर इन्द्राणीका हृदय बहुत ही सन्तुष्ट हुआ । हर्षके मारे उसका सारा शरीर रोमा श्चित हो गया । उसने भगवानके गुणोंके गौरवको अच्छी तरह समझा इसके बाद वह भगवानकी माताको मायाकी नींदमें सुला कर और उनके .. माया-मय वालकको लिटा कर आप प्रभुको लेकर बाहिर चली आई।
इस वक्त भगवानके शरीरका अत्यन्त दुर्लभ स्पर्श कर और उनके मुस: कमळका दर्शन कर इन्द्राणीको असीम हर्ष हुआ । उसने भगवानको पह
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पाण्डव-पुराण। लाकर इन्द्र के हाथों में सोंप दिया । उस वक्त प्रभु ऐसे जान पड़े मानों पूर्व दिशामें उदयाचल पर उदयको प्राप्त हुए सूरज ही हैं।
इसके बाद श्रीमान् सुरेन्द्र देवता-गणके साथ-साथ वालक प्रभुको लेकर गाजे-बाजेके साथ खूब उत्सव करता हुआ सुमेरु पर्वतके शिखर पर जा पहुंचा। ' वहाँ पांडुरुवनकी पाण्डुक गिला पर-जो अनादि कालीन सिंहासन हैबहुतसे देवोंके साथ साथ इन्द्रने आदि प्रभुको विराजमान किया। इसके वाद देवता-गण जल लानेको क्षीरसागर गये, जिससे उसमें इल-चल मच गई । वहॉसे वे सोनेके एक हजार कलश भर कर लाये । उन कलशोंके द्वारा इन्द्रने भगवानको स्नान कराया और उन्हें दिव्य वस्त्रा-भूपण पिहिना कर उनकी भारी भक्ति-स्तुति की और प्रभुका ऋषभ नाम रक्खा । इस प्रकार जन्मकल्याणको पूरा कर सुरेन्द्र प्रभुको गजोत्तम ऐरावत हाथी पर सवार कर उनकी पूजा-भक्ति करता हुआ अयोध्या पुरीमें ले आया । यहाँ आकर उसने माया-निद्रासे रहित मल्देवीको-जो कि नाभिराजाके पास
ठी हुई थीं बड़ी भारी आदरकी दृष्टिसे देखा और नाभिराजाको नमस्कार कर बाल-सुरज श्री आदिनभुको माताकी गोदमें दे दिया । इसके बाद उसने सुमेरु परकी सारी कथा कह सुनाई और भगवानका जो नाम रक्खा था वह भी बताया। "सके वाद सैकड़ों नटी-नटोंसे भी उत्तम नृत्य करनेवाले इन्द्रने आनन्दमें 'आकर इंद्राणीके साथ साथ खूब ही नृत्य किया; और प्रभुकी सेवा सँभाल करनेको चतुर चतुर देवतोंको वहीं छोड़ कर, नाभिराजाकी आजा लेकर वह
वर्गको चला गया । भगवानके चरणकमलोकी देवता-गण हमेशा . भारी चिक्तिसे सेवा करते थे । प्रभु तीन ज्ञानके स्वामी थे । धीरे धीरे कुछ समय नीत जाने पर प्रभुने कुमार अवस्थामें पैर रक्खा; और क्रमसे जब वे [ पौवन अवस्थामें आये उस समय उनके तेजसे दशों दिशाएँ गकाश-मय होगई । ह भगवानका जीवन धर्म-मय था, अतः वे हमेशा भव्य जीवोंसे घिरे रहते थे ।
सके बाद प्रभुने इन्द्र और नाभिराजांकी प्रेरणासे यशस्वती और सुनंदाके साथ व्याह किया । प्रभुका समय बड़े सुखसे वीतने लगा । इसी समय प्रजा र भारी कष्ट आकर उपस्थित हुआ । धीरे धीरे सव कल्पवृक्ष नष्ट 'ये । यह देख लोगोंको बहुत अचंभा हुआ और वे जीविकाके विना __खी होकर नाभिराजाके पास आये तथा उनसे निवेदन करने लगे कि
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राजन् ! हम लोग खाने पीनके विना बहुत दुखी हो रहे हैं। देखिए, हमारे शरीर कितने कृश हो गये हैं और हमारे हृदयमें एक भारी हलचलसी मच रही है । इस लिए हम सब आपसे बिन्ती करते हैं कि आप हमारे दुःखोंको दूर कर हमें सुखी बनाइए । हे नाथ ! जो कल्पवृक्ष हमें पिताकी भॉति पालते पोसते थे वे न जाने क्यों हमारे देखते देखते ही बिला गये। उनके विना अब हम लोग बहुत ही दुखी हो रहे हैं. हमें जीविकाका कुछ भी उपाय नहीं सूझता । उन दीन-दुखी जीवोंकी पुकारको सुन कर वुद्धिशाली नाभिराजाने उन्हें बहुत कुछ समझाया-बुझाया और बाद आदिनाथ भगवान के पास भेज दिया । भूखके मारे वे मुरझा रहे थे; शर्मके मारसे उनके मस्तक नीचेको झुक गये थे । वहाँसे चल कर वे भगवानके पास आये और भगवानको उन्होंने अपनी सारी कहानी कह सुनाई । उन्होंने कहा कि हे देव ! हे देवेश और संस्तुत्य ! आपके गर्भोत्सवके समय देवतोंने मूसलधार जलकी वरसाकी भॉति रत्नोंकी बरसा की थी, जिससे उस वक्त हम लोगोंको अपनी दरिद्रताका कुछ भान न हुआ था । वह अव न जाने कहाँ चली गई । हे नाथ ! इस समय आप कोई ऐसा उपाय बताइए जिससे हमारी भूख भाग जाय और हम सब सुखी हो। जायँ । प्रभो ! पुण्यात्मा और पवित्र देवता-गण भी जब आपकी आज्ञाको मानते है--शिरोधार्य करते हैं तव फिर इस वक्त आपको दुर्लभ ही क्या है । यदि आप चाहें तो एक क्षणमें ही हमें धन-दौलतसे सुखी बना सकते हैं । देव ! यदि आपके होते हुए भी हम लोग मर गये तो आपकी दयालुता कहाँ रहेगी ! इस लिए हे पवित्र ! आप हमारी रक्षा करो, हमें बचाओ । भूखके मारे हम लोगोंके शरीर बहुत कृश हो गये हैं-प्राण निकलते हैं। उनके दीन वचनोंको सुन कर प्रभुका हृदय दयासे भर आया । सच है गरीबोंको देख कर सभीको दया आ जाती है। इसके उत्तरमें तीन ज्ञानके धारक प्रभुने कहा कि पृथ्वी पर अनेक जातिके वृक्ष है और उनमें अनेक प्रकारके गुण है । तुम लोग उनको उपयोगमें लाओ। वृक्षोंमें कुछ तो खानेके कामके है और कुछ नहीं भी है। इस लिए तुम लोग पहले उन वृक्षोंका आदर करो जो तुम्हारे खानेके कामके हैं । और ऐसा ही। उत्तम पुरुष करते है । देखो, वृक्ष, बेल और तृण ये तीन वनस्पतियाँ है और इन्हींके खाने योग्य और न खाने योग्य ऐसे दो भेद हैं । वृक्षोंमें नीचे लिखे वृक्ष आदि खानेके योग्य हैं । उनकै नाम सुनो
पाण्डव-पुराण ४
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पाण्डव-पुराण । आय, नालिकेर, नीबू, जॉबू, केला, विजौरा, मधुपुष्प, नारंगी, कमरख, तेंदू, कैथ, वेर, ऑवला, चारोली, श्रीफल इत्यादि वृक्ष; दाख, कुप्मांडी और चिर्भटा इत्यादि लताएँ; ब्रीहि, शालि, मूंग, राजमाप, उड़द, गेहूं, सरसों, कोदों, मसूर, चना, जौ, धान, तुअर इत्यादि अन्न-भूखको दूर करनेके 'लिए इन चीजोकों काममें लाना चाहिए । अन्नके भेदोंको समझा कर प्रभुने उनके पिकालेकी विधि वताई; और मिट्टी आदिके वर्तनोंसे काम लेना बना कर उनके । भेद बताये । तथा असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और पशुपालन इन छ: उकयों का भी भगवानने उपदेश किया । इसके बाद प्रभुने भरत आदि अपने एक ३ सौ एक पुत्रोंको शिक्षा दी और ब्राह्मी, सुन्दरी इन दोनों पुत्रियोंको भॉति भॉतिकी पकलाएँ सिखाई । इसके बाद शुभ मुहूर्तमें इन्द्रके साथ-साथ नाभिराजाने प्रभुको इप्रजाके हितके लिए उत्तम राज-सिंहासन पर बैठा कर उनका राज्याभिषेक किया। ए राज-पाटको सँभालते ही विद्वानों द्वारा पूजे जानेवाले भभुने इन्द्रको आज्ञा दी कि तुम विदेहकी भॉति यहाँ भी देशोंकी रचना करो । प्रभुकी आज्ञा पाते ही इन्द्रने कोशल आदि देशोंकी रचना की और उनकी नीचे लिखे माफिक व्यवस्था साकी । उसका वर्णन सुनिए। । जिसके चारों ओर वाड़ हो वह गॉव और जिसके सब ओर कोट फिरा हो जह'
पुर है । नदी और पहाड़के वीचमें जो हो उसे खेट तथा चारों ओरसे पर्वतोंके द्वारा घिरे हुएको कर्वट कहते हैं । जिससे पाँचसौ गॉव लगते है उसे मटंव और "जिसमें रत्नोंकी खाने हो उसे पत्तन कहते हैं । जो समुद्रके किनारेसे भिज्ञ हो वह द्रोण और जो पर्वतके ऊपर हो वह वाहन है। इसके सिवा प्रभुने तीन वणोंकी व्यवस्था की। वे वर्ण हैं-क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । जिनका आचरण गिरा हुआ था उन्हें भगवानने शूद्र कहा तथा उत्तम आचरणवालोंको उनके कम-बढ़ आचरणको "लेकर वैश्य और क्षत्रिय कहा । इस प्रकारकी वर्ण-व्यवस्था करके प्रभुने जो क्षत्रि
योंके भेद किये थे उन्हें सुनिए । वे चार हैं । मिष्टभाषी इक्ष्वाकु, कौरव, हरिवंश सऔर नाथवंश । इसके सिवा प्रभुने संसार-मसिद्ध कौरववंशमें उत्तम लक्षणोंके धाधारक दो श्रेष्ठ राजोंकी स्थापना की। उनके नाम थे सोम और श्रेयान्स ।
पुरुजांगल नाम एक प्रसिद्ध देश है । वह भूमंडलका भूषण और उत्तम गुणोंको भंडार है। वहाँकी जमीनमें एक अपूर्व गुण है। वह यह कि उसमें बिना बोये जोते ही धान्य पैदा होता है। उस धान्य द्वारा लोगोंको भारी सुख होता
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दूसरा अध्याय ।
२७ है । अतएव कहा जाता है कि वह उत्तम गुणों का खजाना है । वहॉके खेतोंमें तीनों ऋतुओंके उत्पन्न हुए अन्नके ढेरके ढेर लगे रहते हैं, जिनसे वे खेत ऐसे देख पड़ते हैं मानों अन्नसे भरपूर राजाके कोठे ही हैं। वहाँके वनकी श्री (शोभा) एक महारानीके साथ तुलना करती है। महारानी कुलीन और सुन्दरी होती है वह भी कुलीन (पृथ्वीमें मिली हुई) और सुन्दरी है। महारानी सफला (बालबच्चोंवाली) और शुभ होती हैं वह भी सफला (फलोवाली ) और शुभ-अच्छे फल देनेवाली है। महारानी राजाके भोगोंको साधती है वह सभी लोगोंके भोगोंको साधती है, उन्हें फल देती है। वहाँके गाँव बिल्कुल पास पास है । वे इतने कि एक गॉवसे दूसरे गॉवमें मुर्गा उड़ कर जा सकता है । उनमें बड़े बड़े सत्पुरुषोंका निवास है और बड़ी उँची तथा मनको मोहनेवाली महलोकी लाखों कतारें बनी हुई हैं। वहाँके तालाब अपने अमृत जैसे मीठे और स्वच्छ जलसे लोगोंके संतापको दूर,करते हैं। वे ऐसे जान पड़ते हैं मानो मुनिजनोंके ध्यान ही हैं। कारण, ध्यान भी तो संसार-तापको हरता है और निर्मल होता है । वहाँके धान्य कर्मों के
दयकी नॉई नियत समय पर अपना फल देते हैं । वहाँ कभी अकाल नहीं पड़ने पाता । पुण्यके उदयसे वहाँ रवर्गके देव आकर जन्म लेते है और वे भव्य दुष्टता, मात्सर्य, क्रोध आदि भावोंसे रहित त्यागी सरीखे होते हैं। एवं वहॉके वनमें फले हुए वृक्ष, पक्षियोंके द्वारा कल-कल शब्द करके पथिक लोगोंको बुलाते हैं और जो जैसे फलोंको चाहते है उन्हें वैसे फल देते है। अतः उन वृक्षोंको कल्पवृक्ष भी कह सकते है । वहाँके सभी मनुष्य सुन्दर है तथा सभी वृक्ष फलोंसे लदे हुए है, जिससे वे कल्पटक्षोकी समता करते है । वहाँके जिनालय भारी भारी ऊँचे हैं, मनोहर और धर्मके दाता हैं। वहॉकी स्त्रियाँ अपने रूप-लावण्य, कला और सुरसे देवांगनाओंको भी जीतती है, उन्हें नीचा दिखाती हैं, लना देती हैं।
वहाँके नगरोंके पासमें अन्नकी बड़ी बड़ी देरियाँ लगी रहती हैं । वे ऐसे जान पड़ती हैं मानों सूरजको विश्राम देनेके लिए पहाड़ ही खड़े किये गये है। वहॉके बगीचों, द्रोणों, पत्तनों, वाहनों और नगरोंमें महलोंकी मनोहर कतारें वने हुई है । वहाँके तालाव चित्तके साथ तुलना करते है । क्योंकि चित्त गंभीर और . मनोज्ञ (मनसे जाननेवाला) होता है वे भी गहरे और मनोज्ञ-सुन्दर है । चिर . सरस (रसोंको जाननेवाला) और तृष्णाको घातनेवाला होता है वे भी सरसमीठे जलवाले और प्यासको बुझानेवाले हैं। एवं चित्त सपद्म (कमलाकार
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पाडण्व-पुराण । ता है और वे कमलोंवाले हैं। वहॉके बगीचे स्त्रियोंके तुल्य हैं । स्त्रियाँ मुन्दर, कामकी उद्दीपक और तिलक लगाए होती हैं वे भी सुन्दर, कामके उत्तेजक , मौर तिलकके वृक्षोंसे युक्त हैं । स्त्रियाँ सपुप्पा ( रजोधर्मवाली) और सफला
वाल-बच्चोंवाली) होती है वे भी फल और पुष्पोंवाले है । तात्पर्य यह कि वे बहुत ही मनोहर और सुखदाता हैं।
___ वहाँके खेतोंमें जो धान्य फलके भारसे नम गये है वह ऐसे जान पड़ते है मानों अपने पास बुलानेके लिए पथिक लोगोंको नमस्कार ही करते है। इससे अधिक उनकी और क्या तारीफ की जाय । वह देश अपनी विभूति और आतापको दूर करनेवाले महलोंकी कतारोसे ऐसा जान पड़ता है मानों सब देशोंका अधिपति ही है। उसकी भूमि देवचरु, उत्तरकुरु भोगभूमिके जैसी है
और इसी लिए उसे कुरुजांगल कहते है । इस देशको देखनेसे भारतके कला-कोविदोंकी चतुराईका चित्र हृदय पर खिंचे विना नहीं रहता । सारांश यह कि वह देश सब तरहसे सुन्दर और सम्पत्तिका खजाना है। न कुरुजांगल देशमें हाथियोंके समूहसे भरपूर एक हस्तिनागपुर नाम नगर है। वह दुष्ट, अभिमानी पुरुषोके घमंडको एक मिनटमें ही चकना-चूर कर देता है। वहॉके कोटके कॅगरों पर आकर तारा-गण ऐसे जान पड़ने लगते है मानों जड़े हुए क्ताफल ही हैं। और कोटके दरवाजों पर जो गुमटियाँ बनी हुई है उन पर आकर वॉद सोनेके कलशसा देख पड़ने लगता है । विप-जलसे भरी हुई और मणियोंसे जड़ी हुई वहॉकी खाई ऐसी जान पड़ती है मानों नगरकी सेवाको आये हुए रोषनागद्वारा छोड़ी हुई भयावती कॉचली ही है। कारण वह भी विषसे परिपूर्ण
और मणियोंके जैसी जड़ी हुई चित्र-विचित्र छोटे छोटे दानोवाली होती है । र वहॉ जो सत्पुरुषोंकी अटारियाँ बनी हुई हैं उनकी भूमि वहुत ही मनोहर है। और उनमें जो सत्पुरुष रहते हैं उनके चढ़ने और उतरनेसे वे ऐसी मालूम साड़ती है मानों नरक और स्वर्गको जानेका रास्ता ही बताती है । वहाँके जिनालय
बहुत ऊँचे है। उनके शिखरोंमें ध्वजाएँ लगी हुई हैं और उनमें हमेशा ही बाजे वजा र करते हैं, जिससे ऐसा जान पड़ता है कि वे ध्वजारूप हाथों और वाजोंके शब्दों के यारा भव्य जीवोंको ही बुलाते हैं, और शिखरोंके ऊपरी भागमें लगे हुए दंडों की लंटियोंके झुन झुन शब्दोंके द्वारा उनसे यही कहते हैं कि हे भव्यजनो ! पुण्यका चय करो, उसके प्रभावसे तुम लोग हमारे बराबर ऊँचे-उन्नत हो जाओगे।
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दूसरा अध्याय । वहाँके सभी लोग दानी है; धनी और ज्ञानी है तथा मान-मत्सरसे रहित और उत्तम ऋद्धियोंसे युक्त हैं। वे महिमाशाली हैं और एक दूसरेसे गाय-बछड़ेकी नॉई भीति रखनेवाले हैं। वहॉ भंग (टेढ़ापन) केवल वालोंमें है, नर-नारियोंमे नहीं है। चंचलता उत्तम स्त्रियोंमें ही है और किसीमें नहीं है । नेत्र ही नवीन वधूके मुख देखनेको याचना करते है और कोई मॅगता-भिखारी नहीं है। केवल मृदंग ही वहाँ ताड़े जाते हैं, परन्तु अपराध करके कोई ताड़ना नहीं पाता । वहॉ मदन जातिके वृक्ष तो है, पर मदन-कामदेवका बोलवाला नहीं है । केवल वृक्षोंसे पत्तोंका पतन होता है; परन्तु उत्तम अवस्थासे नीचे कोई नहीं गिरता । वहाँके सत्पुरुषोंमें दान देनेके लिए तो चढ़ा-ऊपरी देख पड़ती है, पर और और कामों में नहीं । कामी पुरुषोंके चित्तको तो स्त्रियाँ चुराती हैं। परन्तु इसके सिवा वहाँ और चोरी नहीं होती; वहाँ चोर-लवाड़ पुरुप ही नहीं है । एवं कामी पुरुष ही केवल स्त्रियोंसे डरते हैं और किसीको वहाँ-डर-भय नहीं है । पुष्प ही वृक्षों परसे हरे जाते है, इसके सिवा कोई किसीकी चीजको नहीं हरता । वहाँ यदि नीचता ( गहराई ) है तो नाभि• मंडल में है, पुरुष कोई भी नीच नहीं है। वहाँ केवल व्याकरण-शास्त्रमें तो किप प्रत्ययका लोप-विनाश-सुना जाता है, पर और कहीं भी विनाश शब्दका प्रयोग नहीं होता। वहॉके पत्थर तो अवश्य नीरस है, पर पुरुष कोई भी नीरस-रूखे स्वभावाले नहीं हैं । वहाँ सभी पुरुष ज्ञानी है, कोई मूर्ख नहीं है । वहॉकी सभी स्त्रियाँ शीलवती हैं, कोई दुःशीला नहीं है । वहाँके वृक्ष हमेशा फलोंसे लदे रहते है । तात्पर्य यह कि वह देश सव तरह शोभाका स्थान है । उसका कोट वहुत मनोहर
और सारे संसारको वशमें करनेवाला है। जान पड़ता है कि भयके मारे केकी रूप धर कर शेष नाग ही उसकी सेवा करता है । वहाँके सभी धनवाले धीर-वीर हैं। उन्हें पुण्यका पूर्ण फल प्राप्त है । वे हमेशा धर्म, अर्थ और कामका यथायोग्य सेवन करते हैं और उनके फलको भोगते हैं । वे दान, पूजा आदि सत्कर्मोंके द्वारा पापकर्मीका नाश किया करते है । अतः पाप-काँके उदयसे होनेवाले रोग-शोक उनके पास ही नहीं फटक पाते। उनके सभी काम शुभं होते हैं और वे हमेशा अमन-चैनसे रहा करते है । वहॉकी खाईमें नीले कमलोंकी बहुतसी कतारें है और वे कमल फूले हुए हैं । जान पड़ता है कि वह खाई एकदम , अपने वहुतसे नेत्रोंको खोल कर अपने मध्यभागकी शोभाको ही देख रही है । उसक
मध्यभागमें जो वहाँके महलोंकी परछाई आकर पड़ती है उससे उसकी अपूर्व । शोभा देखनेके ही योग्य है । उसको देखनेसे नेत्र खिल उठते है । वहॉके बाजार
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रत्नोंकी बहुतसी राशियों लगी हुई हैं । अतः रत्नोको खरीदने के लिए वहाँ रुपया आदि मूल धन ले ले कर वहुतसे व्यापारी लोग आते है और रत्नोंकी जाँच करते हुए इधर से उधर डोलते फिरते देखे जाते हैं । उस समय रत्नों में उनका जो प्रतिविम्व पड़ता है और उन पर जो रत्नोंकी किरणें आकर पड़ती है उससे वे बहुत ही शोभा पाते है; जिस तरह अपने तेजसे विभूषित तारागण सुमेरुके इधर उधर घूमते फिरते सुशोभित होते हैं । वहाँके लोग कल्याण और मंगलकी सिद्धिके लिए जिनेन्द्र भगवानकी नित्य और अठाईके दिनोंमें पूजा किया करते हैं और कुदेवोंसे वे दूर रहते हैं । वहॉकी स्त्रियोंके मुहँ चाँदके समतुल्य हैं और वे ही रात में अँवरको हटा देते हैं, अत एव वहाँ रातमें जो दीपक जलाये जाते हैं वे केवल मंगलके लिए ही जलाये जाते है; अंधेरा हटानेको नहीं ! वहॉकी नर-नारियॉ पान खानेकी भारी शौकीन हैं, इस लिए वहाँके बाजारों में पानोंकी पीकोंसे इतना भारी कीचड़ मच जाता है कि उसमें यदि कोई मदोन्मत्त हाथी भी आकर फॅस जाय तो उसका वहाँसे निकलना कठिन पड़ जाता है । वहॉकी स्त्रियाँ अपने पॉवोंमें खूब ही कस्तूरी लगाती हैं जिसकी खुशबूसे उनके पास भौरोंके समुदायके समुदाय उड़े हुए चले आते है । और वे पुकार पुकार कर कामीजनोंको कहते हैं कि जिस तरह हम लोग स्त्रियोंके शुभ और सार चरण-कमलोंकी सेवा करते हैं यदि सुख चाहते हो तो तुम भी हमारी नॉई उनके चरण-कमलोंकी सेवा करो ।
वहाँ आदिनाथ प्रभुने दो राजों की स्थापना की । वे दोनो कुरुवंशके भूषण थे, उत्तम पुरुष और भाई भाई थे । उनके नाम थे सोमप्रभ और श्रेयान्स | सोम"मकी रानीका नाम लक्ष्मीमती था । वह चाँद जैसे सुन्दर मुहॅबाली और सुन्दरताकी सीमा थी; सती थी। वह सोममभ महाराजको प्राणोंसे भी कहीं अधिक प्यारी थी । लोग उसको सरस्वतीकी उपमा देते थे। क्योंकि जिस तरह सरस्वतीमें मनोहर दोंका विन्यास होता है और अलंकार आदि होते है उसी तरह वह भी मनोहर "दोंका विन्यास करती हुई चलती थी और भाँति भाँतिके अलंकार - गहनेठेसे विभूषित थी । सरस्वती में गूढ़ अर्थ और उत्तम उत्तम गुण होते हैं वह
श्री गूढ़ अभिप्रायवाली थी और उसमें भी अनेक उत्तम उत्तम गुण थे । सरस्वती सनर्दोष और लोगोंको रमानेवाली होती है वह भी दोप- रहित और लोगों को सुख देनेवाली थी । तात्पर्य यह कि वह गुणों-सूतोंसे गोये गये और मनोहर
रो
हनों की चमकती हुई पिटारीसी जान पड़ती थी । क्योंकि उसका शरीर बहुत सुन्दर और चमकीला था । उसमें बहुतसे गुण और भूषण थे । उसके कुंडल
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दूसरा अध्याय । और केयूरोकी अद्भुत ही शोभा थी। उसके गलेका हार मनको मोहनेवाला था। उसके हाथों की उँगुलियोंमें सुन्दर अगूठियाँ और कमरमें मनोहर करधनी थी । बहुत क्या कहा जावे वह उपमा रहित थी । उसको किसी भी वस्तुकी उपमा नहीं दी जा सकती थी। उसका मुह चन्द्र के जैसा और नेत्र मृगके जैसे थे। मस्तक आधे चॉदकी नॉई था तथा पके हुए नारियल के समान स्थूल और सुन्दर उसके कुच थे। सारांश यह कि उसकी शोभा सव तरहसे बढ़ी-चढ़ी हुई थी। उसको देख कर ऐसा थान होता था कि मानों ब्रह्माने पहले संसारकी रचना कर खूब ही अनुभव किया और पीछेसे इसकी रचना कर स्त्रियोंकी सुन्दरताकी सीमा ही वॉध दी है।
सोममम और लक्ष्मीमतीके बड़े पुत्रका नाम जय था । वह रूपशाली और शत्रुदलका घातक था; विजय-लक्ष्मीका पति था । अधिक क्या कहा जाय वह साक्षात् जयकी मूर्ति ही था।
भगवान आदिनाथ इस समय पृथ्वीतल पर नीतिका प्रचार कर रहे थे। उन्होंने रत्न आदि धनकी खान पृथ्वीको सुधा-मयी बना दिया था, उसमें सब जगह सुख फैला दिया था। वे प्रजाका शासन करते हुए अपूर्व शोभा पाते थे। एक समय इन्द्रकी आज्ञासे गंधर्व-सहित लीलांजना नामकी एक गुणवत्ती अप्सरा आई और प्रभुके आगे नृत्य करने लगी। वह बड़ी चतुराईसे हाव-भाव दिखाती थी तथा बिजलीकी भाँति चंचल थी। कभी आकाशमें जाती और कभी पृथ्वीपर' आती थी। एवं उसमें बहुतसे गुण थे। वह वीणा और वॉसुरीके विनोदसे चंचल होती हुई तालके अनुसार नृत्य करती थी, और कभी कभी सुन्दर आलाप भी लेती थी। इस प्रकार उस देवांगनाने खूब ही नाच किया। जिसको देख कर वहाँ बैठे हुए सभी सभासद चित्रमें लिखेसे रह गये । उनकी एक ऐसी विचित्र हालत होगई कि जिसका कहना वचनोंसे वाहिर है । दैवयोगसे नृत्य करते करते ही उसी वक्त उस नीलांजनाकी आयु पूरी होगई और वह देखते देखते ही अदृश्य हो गई । और नाच भी उसी समय बन्द हो गया जैसे जड़ोंके उखड़ जाने पर वृक्ष जाता है।
उसके मरणको और और सभासदों तो न जान पाया, पर प्रभु जान गये इसके बाद विपत्ति रहित, निर्भय परिणामी प्रभु संसारसे विरक्त होकर उसकी पर यो विचार करने लगे कि संसारी जीवोंका जीवन चुल्लू के जलकी भॉति . धीरे विखर जानेवाला है। फिर आश्चर्य है कि मेघोंकी नॉई विला जानेवाले २
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पाण्डव-पुराण।
जीवन पर पाप-कर्मके अधीन हो ये जीव क्यों नित्यताका विश्वास करते हैं; और हमेगा उसको अपनी सम्पत्ति समझ कर संसार-समुद्रमें गोते लगाया करते हैं। इस प्रकार सोच विचार कर आत्माका अनुभव करनेवाले उन प्रभुने भरतको बुला उन्हें भारतवर्षका राज दिया; वली वाहुवलीको मनोरम पोदनापुरका राज-पाट संभलाया तथा अपने और और पुत्रोंको और और देशोका अधिपति बना आप निश्चिन्त हो गये । इसी समय देवता-गण आये और प्रभुको स्नान-भूपणसे सजा कर, पालकीमें सवार कर वनको ले चले । इस वक्त भॉति भाँतिके भूषणोंसे विभूषित आदि प्रभुके साथ भरत आदि हजारों राजा भी थे। जंगलमें जा प्रभुको उन्होंने वहाँ एक बड़के वृक्षके नीचे विराजमान किया। इसके बाद प्रभुने केशलोंच आदि क्रियाओंको करके चैत वदि नौमीके दिन जैनेन्द्री दीक्षा धारण की ।
इसके बाद उन निष्पाप प्रभुने छः महीनेके लिए योग धारण किया और उपवासोंसे युक्त तथा संसार-द्वारा सेवित वे प्रभु उस वक्त तेजो-मय हो गये । उनका तेज सव और फैल गया। भगवान तेजके पुंज और संसारके लिए दर्शनीय थे । जब योगका समय समाप्त हुआ तब प्रभुने वहाँसे चल कर वहुतसे देशों में, नगर नगरमें, घर घर विहार किया; जैसे एक एक तारागणके पास चन्द्रमा विहार करता है । परन्तु उन्हें कहीं भी पारणा करनेका योग न मिला। मिले कहॉसे, उस वक्त सारे संसारमें कोई आहार देनेकी विधि ही न जानता था। 'जहाँ जहाँ प्रभु जाते थे वहाँ वहॉके लोग हर्षके भरे दौड़ दौड़ कर उनके पैरों पर पड़ जाते थे। तथा कई लोग प्रभुकी मेंट करनेको उत्तम उत्तम चीजें-घोड़ा, हाथी, रत्न वगैरह-लाते थे; कन्या, अन्न और वस्त्र ले-ले कर प्रभुके आगे आते थे; एवं कोई निर्दोष भूपण, आसन, शयन और सुगन्धित पुप्प ला-ला कर उनके सन्मुख खते थे । इस तरह प्रभुने मौन धर कर इर्यापथ शुद्धिसे छः महीने तक विहार केया, पर कही भी उन्हें आहारका योग न मिल सका । इसके बाद वे विहार करते - दरते हस्तिनागपुर आये । हस्तिनागपुरके राजा श्रेयान्स थे । वे बड़े भाग्यशाली दाजा थे । रातका समय था। वे निःशंक हो शय्या पर सुखसे सोये हुए थे। "उस वक्त उन्होंने स्वममें सुमेरु पर्वत, कल्पवृक्ष, चॉद, मूरज तथा गहरा समुद्र
खा । स्वम देखनेके बाद वे जागे और उन्होंने सव स्वप्नोंको जैसाका तैसा भीमप्रभ महाराजसे कह सुनाया। सोमप्रभने उत्तरमें कहा कि सुमेरुको देखनेसे चा, कल्पवृक्षको देखनेसे उसीके समान दाता, चन्द्रमाके देखनेसे उसके मान ही संसारको शान्ति देनेवाला और सुरजको देखनेसे प्रतापी एवं समुद्रको
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दूसरा अध्याय।
देखनेसे संसार-समुद्रसे पार जानेवाला कोई महान् पुरुष नियमसे आज अपने घर आयगा । इसके बाद दो पहरके समय सच मुच ही प्रभु उनके घर आ पहुंचे। प्रभुको देखते ही श्रेयान्सको बहुत हर्प हुआ । उन्हें अपने पिछले भवकी याद हो आई । उन्हें यह भी स्मरण हो आया कि दिगम्बर मुनियों को किस विधिसे आहार दिया जाता है । फिर क्या था, वे सोमप्रभ सहित प्रभुके चरणों में पड़ गये और उन्होंने वैशाख सुदी तीन दिन प्रभुको साँटके मधुर रसका आहार दिया। भगवान को आहार देनेके प्रभावसे उनके यहाँ रत्नोंकी बरसा हुई। आहार लेकर मौनी और महामना प्रभु वहॉसे वनका चले गये और घोर तप तपने लगे। इसके बाद एक हजार वर्षमें प्रभुको केवलज्ञान प्राप्त हुआ-वे केवली हो गये।
इधर भरत महाराजकी आयुधशालामें चक्ररत्नकी उत्पत्ति हुई और वे बहुतसी सेनाको साथ लेकर भारतवर्षको अधीन करने के लिए तैयार हुए । उस समय भरतने कौरव कुलदीपक जयको चुलाया और उन्हें सेनापतिका पद दिया। चक्रवर्तीके चौदह रत्नोंगेंसे सेनापति एक रत्न है। इस रत्नकी हजार देव रक्षा करते है । इसके बाद भरत चक्रवर्तीने दिग्विजय करना आरम्भ किया और साठ हजार वर्षमें सारे भरत-क्षेत्रको अपने अधीन कर लिया। एवं दिग्विजयका अन्त होने पर वे वापिस अयोध्या नगरीमें आ पहुँचे । सेनापति जयने मेघेश्वर देवतोंको । बड़ी बहादुरीसे जीता था, जिससे प्रसन्न होकर चक्रवर्तीने उनका नाम भी मेघेश्वर रख दिया। इसके बाद जय अपने राज्य गजपुरमें आये और वहाँ अमनचैनसे रहने लगे।
उन मेघेश्वर जयकी जय हो, जो शुद्ध मना है; मनोहर रूपकी राशि हैं; बड़े बड़े प्रचंड शत्रुओं पर विजय-लाभ करनेको उद्यत है । जिन्होंने राजनीतिक द्वारा बैरियोंके समूहके समूह नष्ट-भ्रष्ट कर दिये और जो चक्रवर्तीके हृदयको प्रफुल्लित करनेके लिए सूरज हैं । एवं जिन्होंने मेघेश्वरको जीत कर सुरेन्द्रकी समता की और अपने अखंड पराक्रमसे वैरियों पर विजय पाई । जो सच्चे गुणोंके भंडार और तेजके पुंज है । जयशील होनेके कारणसे ही जिन्हें जय कहते हैं । जो सेनापति-रत्न हैं तथा देवता-गण और महान् पुरुष जिनकी सेवा करत हैं । यहाँ ग्रन्थकार कहते हैं कि संसारमें धर्मके फलसे ही पुरुष गण्य-मान्य होते हैं। पूज्य तथा उत्तम उत्तम पद पाते है । इस कारण जीवमात्रका पहला कर्तव्य है कि वह हमेशा धर्मका ध्यान रक्खे ।
पांडव पुराण ५
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पाण्डव-पुराण ।
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तीसरा अध्याय।
उन आदिनाथ प्रभुको नमस्कार है जो वैलके चिन्हसे युक्त हैं, धर्म-मय और
धर्मके दाता है तथा धर्मके अर्थी पुरुप जिनकी सेवा करते है, और जो वैरियों पर विजय-काम कर चुके हैं।
सेनापति जयके सिवा सोमप्रभ महाराजके विजय आदि चौदह पुत्र और थे। वे सबके सब गुणोंके भंडार और मनोहर रूपवाले थे । वे ऐसे जान पड़ते थे मानों चौदह कुलकर ही है । इन पंद्रह पुत्रोंके द्वारा श्रीमान् सोमप्रभ महाराज इन्द्र जैसे सुशोभित थे । एक समय किसी निमित्तको पाकर वे संसारभोग आदिसे विरक्त हो गये। उन्होंने अपना सारा राज-पाट अपने पुत्रोंको सौंप कर शूरवीर जयको उन सवका मुखिया बना दिया । इसके बाद वे ऋषभ प्रभुके पास गये और उनसे दीक्षा लेकर दिगम्बर हो गये । एवं कुछ कालमें कर्मजालको तोड़ कर वे मोक्ष-महलमें जा विराजे ।
इधर जय अपने चाचा श्रेयान्सके साथ-साथ पहलेकी भाँति ही राजसुख भोगने लगे । एक दिन वे विहारके लिए एक घने जंगलमें गये । उन्होंने
हॉ बैठे हुए एक मुनिको देख नमस्कार किया। मुनिका नाम शीलगुप्त था । जयने एक नाग और नागिनीके साथ-साथ उनसे धर्मका उपदेश सुना । धर्मको तुन कर उनका चित्त बहुत संतुष्ट हुआ । इसके बाद वे नगरको चले आये। रसा ऋतुका आरम्भ ही था कि उस समय अकस्मात् वज्रपातके द्वारा वह नाग शान्त-चित्तसे मर कर नागकुमार जातिका देव हुआ।
- इसके बाद एक दिन हाथी पर सवार हो जय महाराज फिर दुवारा उसी वनमें गये । वहाँ जाकर उन्होंने उसी नागिनीको, जिसने कि उनके साथ-साथ पहले धर्मका उपदेश सुना था, एक नीच जातिके काकोदर (सॉप) के साथ क्रीड़ा करते हुए देखा । इस पर उन्हें बहुत क्रोध आया । उन्होंने क्रीड़ा-कमलके द्वारा उन दोनोंको मारा तथा धिक्कार दिया। राजाको मारते देख इधर उधरसे आ-आ कर उनके सभी सिपाहियोंने भी उन्हें लकड़ी, पत्थर आदिके द्वारा मारना शुरू किया। सच है राजाका कोप होने पर नीच चरितवालों पर सभी कोप करते है । कोई भी उनकी तारीफ नहीं करता। मारसे काकोदर बहुत ही व्याकुल हुआ और निर्जरा सहित मर कर गंगा नदीम
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तीसरा अध्याय।
काली नामकी जलदेवता हुआ । और वह नागिनी भी पछताती हुई तथा अपने मनमें धर्मका चिन्तन करती हुई मरी और अपने नागकी, जो कि नागकुमार देव हुआ था, प्रिया हुई । उसने नागकुमारसे जयके द्वारा हुई अपनी मौतका सारा हाल कहा, जिसको सुन कर नागकुमारको बहुत क्रोध आया और वह उसी वक्त जयको मारनेकी इच्छासे उनके महलमें पहुंचा। सच है पशु भी अपनी स्त्रीके तिरस्कारको नहीं सह सकता, उसे भी क्रोध हो आता है । रातका समय था और जय अपनी प्रिया लक्ष्मीमतीके साथ महलमें बातचीत कर रहे थे । वे कर रहे थेप्रिये ! मैने आज एक बड़ा कौतुक देखा है, उसे सुनो। इतनी बातचीतके वाद उन्होंने उस नागिनीकी सारी कथा लक्ष्मीमतीको कह सुनाई।
जयकी बात सुन कर वह देव सोचने लगा कि कहॉ तो मैं एक पशु था और कहाँ यह धर्म जिसके प्रभावसे देव होगया । यदि विचारसे देखा जाय तो कहना होगा कि मोक्षकी सिद्धि तक इस संसारमें सत्संगके सिवा कोई दूसरा हितैषी नहीं है । इस विचारके साथ ही क्रोध उसके हृदयसे निकल कर भाग गया और वह विल्कुल शांत-चित्त हो गया। इसके बाद कृतज्ञ और महापुरुष जयकी उस देवने रत्नोंके द्वारा खूब पूजा की और उनको अपनी सारी कथा कह सुनाई । इसके सिवा उसने महरानसे निवेदन किया कि राजन् ! काम पड़ने पर मुझे याद करना। मै उसी वक्त आपकी सेवा उपस्थित हो जाऊँगा । इतना कह कर वह देव अपने स्थानको चला गया।
इधर चक्रवर्तीके साथ-साथ जयकुमार जब सभी दिशाओंको वश कर चुके--उन पर विजय पा चुके तब उन्होंने आक्रमण करना छोड़ दिया और वे एकदम संयमी मुनिकी तरह शान्त-चित्त हो समता भाव धारण कर अमनचैनसे अपना समय बिताने लगे। · काशी नामका एक मनोहर देश है । वह सारे संसारमें प्रसिद्ध है । जान पड़ता है कि मानों भोगभूमि सब जगहसे नष्ट होकर यहीं आगई है । वह साक्षात् भोगभूमि ही है । काशीमें एक वनारस नगरी है । वह विशाल और रवच्छ महलोका स्थान है । उसके भवन स्वर्गके विमानोंसे भी बढ़े-चढ़े हैं । जान पड़ता है कि वह महलोंकी विशालता और स्वच्छतासे स्वर्गके विमानोंको जीत कर अमरावतीकी हंसी उड़ाती है । वहाँके राजा अकंपन थे । उनके तेजके मारे शत्रुगण थर थर कॉपते थे । वे पूर्वोपार्जित पुण्यकर्मको बढ़ाते थे, उसकी रक्षा भी करते
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'पाण्डव-पुराण ।
थे। उनकी प्रियाका नाम सुममा देवी था। सुनमा देवीके शरीरकी प्रभा चॉदके तुल्य थी । वह अपनी विपुल श्रीके द्वारा कुसुदके फूलोंकी प्रभाको धारण करती थी। अकंपन और सुप्रभाके हजार पुत्र थे और वे सबके सव सूरजकी भाँति तेजवाले थे, उन्नतिशाली थे। उनके नाम थे-हेमांगद, सुकेत, श्रीकांत इत्यादि। इनके सिवा उनके सुलोचना और लक्ष्मीमती ये दो पुत्रियाँ थीं । ये दोनों हिमवत और पद्मद्रहसे उत्पन्न हुई गंगा और सिंधुकी समता करती थीं; तथा उनसे भी श्रेष्ठ थीं । बड़ी पुत्री सुलोचना वास्तव में सुलोचना-सुन्दर नेत्रोंवाली-ही थी। कला और गुणों के द्वारा मनको मोहनेवाली चंद्रमाकी शोभाके समान थी। क्योंकि उसमें भी नाना कलाएँ और गुण थे। अत एव वह संसार भरको प्यारी थी-उसे सभी प्रेमदृष्टिसे देखते थे। सुमति नामकी उसकी एक पाय थी, जो उसके गुण और कलाओंको बढ़ानेकी हमेशा ही चेष्टा किया करती थी । जैसे उजेली रात चॉदकी कलाको सदा ही बढ़ाती रहती है । इसकी जॉधैं रंभाकेलेक-समान थीं, अतः लोग इसे रंभा कहते थे। देवांगना-गण इसे देवांगना ही मानता था। इसका केश-पास भारी सुशोभित था, इस लिए लोग इसे सुकेशी कहा करते थे। बहुत क्या कहें, अपने ऐश्वर्यके द्वारा वह इन्द्राणीके जैसी देख पड़ती थी। फाल्गुनकी अठाईका समय था । उस वक्त सुलोचनाने बड़ी भक्तिसे जिनदेवकी पूजा की और व्रत लिया। व्रत-उपवाससे उसका शरीर कृश हो गया था। पूजा-पाठ पूरा कर वह प्रभुकी आसिका देनेके लिए राजाके पास पहुंची। राजा उसके हाथोंमें आसिकाको देख कर उठा और दोनों हाथोंकी अंजलि बना कर उसने आसिकाको वड़े भक्तिभावसे लिया तथा लेकर अपने मस्तक पर चढ़ाया ।
इसके बाद राजाने कहा कि पुत्री! उपवाससे तेरा शरीर बहुत मुरझा रहा है, इस लिए तू जल्दीसे महलको जा और पारणा करले । इतना कह कर राजाने उसे तो विदा कर दिया, पर आप स्वयं इस सोच-विचारमें उलझ गया कि सुलोचना अव युवती होगई है, इसका विवाह कर देना चाहिए।
इस प्रश्नको जब वह स्वयं हल न कर सका तब उसने श्रुतार्थ, सिद्धार्थ, सार्थ और सुमति इन चारों मंत्रियोंको बुलाया और उनके सामने यह प्रश्न रक्खा कि सुलोचना किसे देना चाहिए। : इस प्रश्नको सुन कर श्रुतार्थ वोला कि भारतभूषण भरत चक्रवर्तीका अर्ककीर्ति नाम जो पुत्र है वह इस कन्याके लिए एक उत्तम वर है । क्योंकि कुल, रूप,
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तीसरा अध्याय ।
अवस्था, विद्या, चरित्र, धन और पुरुषार्थ आदि जो जो वरमें देखनेकी बातें है वे सब उसमें पाई जाती हैं। श्रुतार्थकी इस सम्मतिको सुन कर सिद्धार्थ कहने लगा कि आपकी कही हुई सव वातें अर्ककीर्तिमें हैं यह तो ठीक है; परन्तु सामान्य पुरुषका एक बड़े पुरुषके साथ सम्बंध होना उचित नहीं जान पड़ता । इसको विद्वान लोग आदरकी दृष्टिसे नहीं देखते । राजन् ! आपकी बराबरीवाले प्रभंजन, रथचर, बलि, वज्रायुध तथा मेघेश्वर भूमिभुज आदि बहुतसे और और राजा है। उनमें जिसको आप उचित समझें उसको कन्या दें । सिद्धार्थकी सम्मतिको सुन कर सिद्ध-साधक सर्वार्थ नाम मंत्रीने कहा कि राजन् ! भूमिगोचरोंके साथ तो पहलेसे ही सम्बंध होता चला आता है, पर विद्याधरोंके साथ अब तक कोई सम्बंध नहीं हुआ। अत: मेरी सम्मति है कि आप किसी योग्य विद्याधरके साथ ही इस सम्बं. धको स्थिर काजिए । इस अपूर्व सम्बंधसे हम सबको और कन्याको बहुत ही सुख प्राप्त होगा। सबकी सम्मति सुन कर पीछेरो सुगति मंत्री बोला कि मेरी सम्मति है कि और और वातोंकी अपेक्षा इस वक्त स्वयंवर-विधि करना ही ठीक होगा और उससे सबको सुख-शान्ति भी मिलेगी। सुमतिकी इस सम्मतिको सुन कर बुद्धिमान अकंपनने कहा कि बहुत अच्छा स्वयंवर ही होना चाहिए । इस समय अकंपनने सुप्रभा और हेमांगदकी भी सम्मति ली और स्वयंवर करना ही निश्चित किया । इसके बाद अकंपनने सव राजोंके पास पत्र दे-दे कर दूत भेजे और स्वयंवरमें आनेके लिए उनसे आग्रह किया।
जयकुमार और सुलोचनाके भावी शुभ सम्बंधको जान कर इसी समय पहले स्वर्गसे एक देव आया। उसका नाम था चित्रांगद । वह अकंपनके पास आ कहने लगा कि मैं सुलोचनाके स्वयंवरको देखनेकी इच्छासे यहाँ आया हूँ। यह कह कर उस देवने नगरके पासमें ही जो एक ब्रह्म स्थान बना हुआ था, उससे उत्तरकी और पूर्व मुखवाला बहुत विशाल सर्वतोभद्र नामक महल बनाया; और उसके चारों ओर सुन्दर स्वयंवर मंडपकी जैसी होनी चाहिएरचना की । वह देव सम्यग्दृष्टि था, बुद्धिमान और शुद्ध-चित्त था । उसने जितना कुछ काम किया था वह सब हर्षके साथ और उत्तम रीतिसे किया था। तात्पर्य यह कि उसने स्वयंवरकी अपूर्व और विधिपूर्वक रचना की थी। , दूत-गण गये और जाकर उन्होंने राजा-महाराजोंको अकंपनके पत्र दिये। राज-गण पत्रके द्वारा अकंपन राजाके भीतरी भावको समझ कर स्वयंवरके
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पाण्डव-पुराण । आये । प्रायः तीन समुद्रके भीतर भीतरके सभी राजा-गण वनारसमें आ उ स्थित हुए; एवं समय पर स्वयंवर मंडपमें अपने अपने योग्य स्थानों ५
आ विराजे। ___उधर सुलोचनाने स्नान आदिसे निवट कर सुन्दर सुन्दर वस्त्र और गहनेगॉठे पहिने, तथा सिद्ध परमात्माकी पूजा कर उनकी आसिकाको मस्तक पर चढ़ाया। इसके बाद महेन्द्रदत्त नाम कंचुकी उसे रथमें बैठा कर स्वयंवर मंडपमें लाया। सुलोचना अपने रूपसे रतिको भी नीचा दिखाती थी। इस समय सुप्रभा देवी सहित अकंपन महाराज भी वहाँ आये और वे एक ओर स्वयंवर मंडपके पासमें ही बैठ गये । जान पड़ता था कि इन्द्राणीको साथ लेकर इन्द्र ही रवर्गसे स्वयंवर देखनेको आया है । इनके सिवा चतुरंगी सेना और छोटे भाइयोंको साथ लेकर हेमांगद भी वहाँ आ पहुँचा । हेमांगदका स्वच्छ हृदय प्रीति और प्रमोदसे खूब भर रहा था। थोड़ी ही देरमें सुलोचनाका स्थ मंडपमें आ पहुँचा । कंचुकीने रथको रोका । सुलोचना रथसे उतर कर मंडपमें आई। इसके बाद जब सुलोचना वरमाल हाथमें ले पतिवरणको चली तब कंचुकीने उन विद्याधर राजोंको दिखा कर सुलोचनासे कहा कि पुत्री! यह नमिका पुत्र सुनमि है। यह दक्षिण श्रेणीका राजा है । यदि तुम चाहो तो इसे वरो। यह · सुनमिका पुत्र सुवन है। यह उत्तर श्रेणीका राजा है। इस तरह उसने क्रमशः सभी विद्याधरोंका सुलोचनाको परिचय कराया । इसी प्रकार और और सभी राजों, महाराजोंका परिचय देता हुआ वह सूरजकी प्रभाके समान प्रभावाले भरत चक्रवर्तीके पुत्र, गुणोंके भंडार कुमार अर्ककीर्तिके पास पहुंचा । वहाँ जा उसने सुलोचनाको उनका परिचय दिया। पर वह अर्ककीर्ति आदि सभी राजोंको छोड़ती हुई अन्तमें किसीसे
भी नहीं जीते जानेवाले जयकुमारके पास पहुंची, जिस तरह कोयल वसन्त "ऋतुमें और और सभी वृक्षोंको छोड़ कर आमके पेड़ पर जा पहुंचती है । सुलोचनाको जयमें आसक्त-चित्त देख कंचुकी वोला कि पुत्री ! ये जगत्मसिद्ध जय महाराज हैं । सोमप्रभ महाराजके पुत्र है । इनका सौदर्य वचनातीत है । कामदेवके क्सौंदर्यसे भी बढ़ा-चढ़ा है । देखती तो हो, हाथके कंकणको दर्पणकी जरूरत ही
क्या है। उत्तर भारतवर्षमें इन्होंने मेघेश्वर देवोंको जीत कर जो सिंहनाद किया था , गीतह मेघेश्वर देवतोंके शब्दको भी जीतता था। उस समय खुश होकर भरत चक्र- .
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Annan unna.
तीसरा अध्याय।
rnmmmmmmmmmmmmmmmmin ~ mom mom amonomwwwser sf अपने दोनों हाथोंसे इनके सिर पर 'वीर-पदक' वॉधा था और इनका मेघेनाम रक्खा था। इतना सुन कर पूर्वभवके प्रेमसे वह मानिनी उस सुन्दति और कुन्दके समान स्वच्छ गुणोंवाले जयको देख कर और उनकी तारीफ कर बहुत ही हर्षित हुई।
उसने वरमाला जयके गलेमें डाल दी। उस समय होनेवाले बाजोंके महान शब्दसे दशों दिशायें गूंज उठीं । जान पड़ता था कि वाजोंका शब्द कन्याके अपूर्व उत्साहको दिकन्याओं तक पहुँचा रहा है-उन्हें सुना रहा है । तथा सब लोग एकदम घोषणा करने लगे कि कन्याने बहुत ही अच्छा किया जो जयको वरा; एवं साधुजन उसकी पुरुष-परीक्षाकी योग्यताको देख कर उसे साधुवाद देने लगे। परन्तु अर्ककीर्तिके खोटी सम्मति देनेवाले एक कर्मचारीसे यह सव चातें न सही गई और उसने अर्ककीर्तिको भड़का कर कहा कि महाराज ! अकंपन यदि जयको ही कन्या देना चाहते थे तो उन्होंने हम संबको व्यर्थ ही यहाँ बुला कर हमारा तिरस्कार क्यों किया, जो संसारमें युगों तक व्यापक रहेगा। यह सुन कर अर्ककीर्ति कुछ लजित हुए। उन्होंने अपना मस्तक नीचा कर लिया । यह देख उस कर्मचारीने और भी जोशकी आग फूंकना शुरू किया । वह बोला अकंपनने आपको अपने घर बुलाकर आपके साथमें बड़ी भारी दुष्टता की है। विचारिए तो सही कि कहाँ तो आप चक्रवर्तीके पुत्र श्रीमान् और कहाँ यह जय आपका सेवक । इस वातका अकंपनने कुछ भी सोच-विचार न किया और आपके होते हुए भी आपको छोड़ कर इस सेवकको कन्या दे दी । अकंपनने आपके साथ दुष्टता ही नहीं की, किन्तु भारी नीचता भी की है, जो कि अक्षम्य है।
इस प्रकार भड़कानेवाली वचन-रूप-वायुके द्वारा अर्ककीर्तिकी क्रोधामि खुब ही धधक उठी । वह बोला कि इस दुष्टात्माने मेरे होते हुए भी मुझे छोड़ कर मेरे . सेवकको कन्या दी, यह बड़ा भारी अपराध किया । इसे इसका फल अवश्य ही चखाना चाहिए।
उस वक्त तो पिताजीके भयसे मैने जयको 'वीर-पदक' का प्रदान करना सह लिया था । पर इस समय सभी सौभाग्यको हरनेवाली इस मालाकी क्षतिको मैं क्यों कर सह सकता हूँ। क्रोधके वश हो जानेके कारण अर्ककीर्तिने इस तरह सभी मान-मर्यादा ड़ दी-हेय-उपादेयका ज्ञान उसके हृदयसे कूच कर गया, और वह एकदम
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पाण्डव-पुराण ।
युद्ध करनेको तैयार हो गया । जान पड़ता था कि मानों प्रलयकालका मेघ ही उमड़ रहा है; क्योंकि प्रलयकालका मेघ भी हेय-उपादेय रहित और मर्यादा रहित होता है । इसके बाद अनवद्यमति मंत्रीने, जो कि मंत्रीके सभी लक्षणोंसे युक्त था, अर्फकीर्तिको न्याय-युक्त और हितकर वचनों द्वारा समझाना शुरू किया। राजन् ! आपके वंशसे धर्म-तीर्थ चला और जयके वंशसे दान-तीर्थ । इस अपेक्षासे तो आप और जय वरावर ही है। दूसरी बात यह कि आपका
और जयका स्वामी-भृत्यका घनिष्ट सम्बन्ध है । अत एव आपको अपना कुछ भी पराभव नहीं समझना चाहिए । राजन् ! पहले तो पराई स्त्रीकी चाह करना ही अनुचित है और दूसरे यदि लड-भिड़ कर जवरदस्ती सुलोचना लाई भी जायगी तो निश्चय है कि वह आपकी भार्या न होगी; भले ही अपने प्राण खो बैठे । उस वक्त प्रताप-पूर्ण जयका यश संसारमें दिनकी नाई हमेशा स्थित रहेगा और रातकी नॉई संसार भरमें आपकी अपकीर्ति फैल जायगी। राजन् ! जल्दी मतकीजिए; अभी युद्धके लिए तैयारी मत कीजिए। यह मत समझिए कि मैं ही बलवान हूँ और मेरे पास ही सब साधन है। किन्तु उधर अकंपनके पक्षमें भी बहुतसे राजा हैं और उनके पासमें काफी साधन भी है। राजन् ! धर्म, अर्थ, काम इन तीनों पुरुषार्थोंकी प्राप्ति होना पुरुषोंके लिए कोई आसान बात नहीं है; परन्तु इन तीनोंको आप साध चुके हैं और बहुत आसानीसे । पर अव न्यायको लॉप कर उनका व्यर्थ ही सत्यानाश मत कीजिए । देखिए, संसारमें बहुतसे राजा हैं और उनके यहाँ बहुतसे कन्यारत्न है । मैं निश्चयसे कहता हूँ कि उन कन्यारत्नोंको ला-ला कर आपके भंडारमें जमा कर दूंगा । इस वातमें आप बिल्कुल ही संदेह न करें । यह स्वयंवर-विधि. है । इसमें यह नियम नहीं है कि मान्य पुरुषके गलेमें ही वरमाला डाली जाय और गरीवके गलेमें न डाली जाय । किन्तु कन्याके ऊपर ही सब वात निर्भर है ! वह जिसे चाहे पसंद करे । तात्पर्य यह कि जिसको कन्या पसंद करेगी वही उसका वर होगा। इस प्रकार न्याय-पूर्ण वचोंके द्वारा मंत्रीने बहुत कुछ समझायाबुझाया, पर अर्ककीर्तिके हृदय पर उसका कुछ भी असर न पड़ा; जिस तरह कि अनेक युक्तियोंसे कमलिनीके पत्ते पर डाला हुआ जलका एक कण भी नहीं ठहरता । उस कुबुद्धि, हठी और तिरस्कारके पात्र राजाने मंत्रीकी इस अमूल्य
सम्मतिकी कुछ भी परवाह न की और सेनापतिको वुला कर अपने • पक्षके तमाम राजोंसे लड़ाई के दृढ़ निश्चयको कह सुनाया। एवं सब कुछ ठीक-ठाक
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तीसरा अध्याय ।
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करके उस दुराग्रहीने थोड़ी ही देरमें तीन लोकको डरा देनेवाली रणभेरी बजवा दी । भेरीके शब्दको सुन कर सभी राज-गण युद्धके लिए उत्सुक हो उठे
और चलते हुए भटोंके हाथोंके चंचल शब्दोंके द्वारा अपनी निठुरता दिखलाने लगे । सब सेना तैयार होकर क्रमसे चलने लगी । सबसे आगे पर्वतके वरावर ऊँचे और सजे हुए हाथी चले जाते थे । हाथियोंके पीछे युद्ध-समुद्रकी तरंगोंकी नॉई चंचल और पलाण आदिसे सुशोभित घोड़े चलते थे । घोड़ोंके पीछे चीत्कार शब्द करते हुए रथ और उनके वाद पयादे-गण चलते थे। पयादोंके हाथोंमें भाँति भॉतिके हथियार थे। किसीके हाथमें दंड था, कोई धनुष और कोई भाला लिये था । एवं किसीके हाथमें तलवार थी। इस प्रकार सेनाके साथ अर्ककीर्ति विजयघोप नाम हाथी पर सवार होकर अकंपन महाराज पर जा चढ़ा । अकंपनने जब इस समाचारको सुना तब मंत्रियोंसे सलाह कर अर्ककीनिके पास एक दूत भेजा । दूतने जाकर अर्ककीर्तिसे कहा कि कुमार ! इस तरह मान-मर्यादाको लॉपना आपको शोभा नहीं देता। हे चक्रिपुत्र ! आप रंजको छोड़ कर प्रसन्न होइए, व्यर्थका झगड़ा मत छेड़िए । जहाँ तक बन सका दूतने बहुत कुछ नम्र निवेदन किया, पर जब अर्ककीर्ति पर उसका कुछ भी असर न हुआ तब वह लाचार हो वापिस लौट आया और उसने जैसाका तैसा सब हाल अकंपन महाराजको सुना दिया। वह सब सुन कर जयने कहा कि कोई फिकरकी बात नहीं, मैं उस परस्त्री-लंपटको सॉकलको पकड़ने के लिए तैयार हुए वन्दरकी भॉति एक मिनटमें ही बॉध लूंगा । इसके बाद जयने वह मेघधोषा नाम भेरी बजवाई, जिसको कि उन्होंने मेघकुमारको जीत कर प्राप्त किया था। तात्पर्य यह कि इधरसे जयकुमारने भी युद्धकी घोषणा कर दी। भेरीके शब्दको सुनते ही जयकुमारकी सेना भी चल पड़ी। लहराते हुए समुद्रकी भॉति मतवाले हाथी चलते हुए ऐसे जान पड़ते थे मानों मदसे घूमते हैं । एवं पृथ्वी को अपनी टापोंके द्वारा खोदते और हांसते हुए वायुके वेगकी भॉति चचल शीघ्रगामी घोड़े और सभी हथियारोंसे भरपूर रथ-समूह चलने लगे। रथोंके ऊपर धुजाएँ फहराती थीं, जिनसे ऐसा जान पड़ता था कि मानों वे और
और मनुष्योंको युद्धके लिए ही बुलाती हैं। इसी तरह पयादेगण भी आमोदप्रमोदके साथ युद्धस्थानमें पहुँचनेको उद्यत हो गये । इस समय वहॉकी स्त्रियाँ भी भटोंका काम करती थीं । वहाँका और क्या वर्णन किया जा सकता है । एवं अपनी सेनाको साथ लेकर स्वयं अकंप और वैरियोंको थर थर कॅपानेवाले अकंपन
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पाण्डव-पुराण । भी युद्धस्थलमें शत्रुसे जा भिड़े । इसी समय सूर्यमित्र, सुकेतु, जयवर्मा, श्रीधर और देवकीर्ति आदि मुकुटवद्ध राजा तथा और और नाथवंशी, सोमवंशी राजा जयसे आ मिले । इनके सिवा अर्द्ध विधेशोंको साथ लेकर मेघमम नाम विद्याधर भी जयकी सहायताको आया । तात्पर्य यह कि जयका पक्ष भी वहुत प्रवल था । इस वक्त मेघेश्वर (जय ) ने एशरव्यूह रचा, जिससे उनकी अपूर्व ही शोभा होगई । यह देख अर्ककीर्तिने चक्रव्यूहकी रचना की और जयके मकरव्यूहको भेद डाला | इसके बाद सुनीम आदि विद्याधरोंने, जो अर्ककीर्तिके पक्षमें थे, तायव्यूहकी रचना की । इसी समय अष्टचंद्र आदि विद्याधर लोग भी अर्ककीर्तिकी ओर आ पहुँचे । रणस्थलमें एक दूसरे योधाओं के साथ प्रचंड युद्ध होने लगा । दोनों ओरके वाण शत्रुओंके हृदयको भेदने लगे । योधाओंमें दंडों, तलवारों, भालों, गदों, शरों, सूशलों, हलों और शिलाओं के द्वारा तथा एक दूसरेके वालों की खेंचातानीके द्वारा खूब ही घमासान युद्ध हुआ। इधर अर्ककीर्तिने जलती हुई भागकी शिखाके समान तीक्ष्ण वाणोंके द्वारा शत्रुदलके वीरोंके हृदयोंको छेद-भेद डाला, जिसको देख कर जयकुमारने अपने छोटे भाइयोंको साथ ले वजकांड धनुपके द्वारा भीपण युद्ध किया और थोडीसी देरमें ही शत्रुदलके वीरोंको शस्त्र प्रहार द्वारा तहस-नहस कर दिया जिस तरह कीर्ति और विजयका अभिलाषी वादी शास्त्रकी युक्तियों द्वारा प्रतिवादीको परास्त कर देता है । इसके बाद आकाशमें जाकर जयके पक्षके विद्याधरोंने शत्रुपक्षके विद्याधरोंका खूब ही तिरस्कार किया और वे विद्यायुद्धके अभिमानसे हमेशाके लिए युद्धकी प्रतिज्ञा करने लगे। उन्होंने कहा कि हम हमेशा तुम लोगोंसे युद्ध करनेको तैयार हैं। कभी पीछा पैर देनेवाले नहीं ।
इस वक्त नीचेसे भूमिगोचरी और ऊपरसे विद्याधर लोग वरावर वलसे बाणोंको छोड़ रहे थे, जिससे कि वे बीच में ही एक दूसरके मुहॅसे टकरा कर रह जाते थे; किसीको हानि नहीं पहुंचा पाते थे । उनके विद्यावलका यह एक नमूना है। इसके बाद जयकुमारने भाइयों सहित यमका रूप बनाया और वे सबके सब घोड़ों पर चढ़ कर सिंहकी नॉई शत्रुदलके साथ युद्ध करने लगे। इस समय जयकी जीत होने लगी, जिसको देख कर और और सभी युद्धकुशल बीर उन पर एकदम टूट पड़े। जिस तरहसे आग पर पतंगे एकदम आ गिरते हैं। इसके बाद हाथियोंकी सेनाको लॉघ कर अर्ककीर्तिने जयके ऊपर आक्रमण किया । जयने भी विजयार्द्ध नामके गजोत्तम पर सवार हो उसके साथ युद्ध आरंभ किया कुछ भी उठा न रक्खा।
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तीसरा अध्याय |
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चक्रवर्तीने अर्ककीर्तिको दो वस्तुएँ दी थीं एक वज्रकांड धनुष और दूसरा सफेद घोड़ोंवाला रथ । इस समय अर्ककीर्तिने इन दोनोंसे काम लिया । जयलक्ष्मीको पाने के लिए उत्सुक अर्ककीर्तिके कुछ विजय चिह्न दिखने लगे----उसने विजयकी धुजासी फहरा दी । यह देख वन्दीजन आकर उसकी स्तुति करने लगे । अर्ककीर्तिकी विजय होती देख यमके तुल्य पराक्रमी जयने वज्रकांड धनुषद्वारा बातकी बातनें दिग्गजोंके मदको नष्ट कर वार्णोंके समूह द्वारा अर्ककीर्तिको प्रभा रहित कर दिया; जिस तरह मेघमाला सूरजको तेज रहित कर देती है । जयने अर्ककीर्तिके शस्त्र, धुजा, छत्र, चमर आदि सभी राजचिन्ह
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भेद डाले और साथमें ही उसकी उद्धतताका भी इलाज कर दिया । यह देख कर अष्टचंद्र वगैरह राजे रणकोविद जयके इष्टका विघात करने को तैयार हुए; परन्तु वे उसका बाल भी बॉका न कर सके । उधर भुजवली आदि राजा हेमांगद के साथ लड़ने को तैयार हुए। वे ऐसे जान पड़ते थे मानों सिंहोंका समूह ही है । और हेमांगद के भाई वगैरह जो सिंहकी नॉई लड़ने को तैयार थे, उनसे लड़ने को आये । एवं अपने छोटे भाइयोंको साथ लिए हुए अनंतसेन आया और जयके भाइयोंके साथ आ भिड़ा। दोनों पक्षके राजोंमें खूब ही लड़ाई हुई । क्रोधके मारे दोनों पक्षके राजा कॉपते थे । यह सब हाल देख कर जयको खूब ही रोष आया और वह एकदम उन पर टूट पड़ा । जयके पुण्यप्रताप से इसी समय उस नागकुमारका, जिसका कि पहले जिक्र आ चुका है, आसन डगमगाने लगा, जिससे उसने जयके संकटको जान लिया । वह उसी वक्त आया और जयको नागपाश और अर्धचन्द्र शर देकर चला गया । फिर क्या था, वाणको पाते ही जयने उसको वज्रकांड धनुष्य पर चढ़ाया और अष्टचन्द्र आदिको रथ सहित भस्म कर दिया । यह देख कुमारका अभिमान नष्ट हो गया; जिस तरह दॉत और सड़के कट जाने पर हाथी और हथियार छिन जाने पर यम निर्मद हो जाता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि कर्मकी चेष्टा बड़ी कष्टमय होती है । इसके बाद विधिके ज्ञाता जयने सरलता के साथ अर्ककीर्तिको पकड़ लिया । देखो, जो अर्ककीर्ति एक भारी गण्य-मान्य पुरुष था उसीकी आज यह हालत हो गई । सच है, मार्गको छोड़ कर जो औधे रास्ते से जाता है वह अवश्य ही दुखी होता है । इसके वाद अस्त होते हुए सूरजके समान प्रथा रहित अर्क - कीर्ति जय रथ में बैठा कर आप स्वयं हाथी पर सवार हुआ । अर्क - कीर्तिके सिवा जयने उसके अनुयायी और और विद्याधरोंको भी नागपाश से
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पाण्डव-पुराण |
वॉध लिया था । इस प्रकार शत्रुओ पर विजय लाभ कर सिंहके समान पराक्रमी राजा जय बड़ा सुखी हुआ । जब देवतोंको जयके जीतकी खबर लगी तब उन्होंने आकाशसे फूलोंकी बरसा की और जयध्वनिसे दशों दिशाओंको शब्द-मय कर दिया। इसके बाद जयने रणस्थलका निरीक्षण किया और मरे हुए बीरोंकी दग्ध क्रिया तथा जीते हुओंकी जीवनक्रिया अर्थात् औषधि वगैरहका प्रबंध किया । यह सब किये बाद जय अकंपन महाराजके साथ साथ काशी आये । काशी मनुष्योंसे भरपूर और लहलहाती हुई धुनाओंसे सुशोभित थी और भाँति भाँतिकी सम्पत्ति से सजाई गई थी, जान पड़ता था कि जयकी जीतकी खुशीमें नगरीने अपनी काया ही पलट डाली है । वहाँ पहुँच कर जयने पकड़े हुए राजों और अर्ककीर्तिको चतुर पुरुषोंके द्वारा आश्वासन दिलवा कर उन्हें उनके योग्य स्थान पर ठहराया । इसके बाद जय वगैरहने यह समझ कर कि सव विवाधाओंका नाश जिनेन्द्र देवके प्रसादसे ही होता हैं, उनकी पूजा-वन्दना की और भाँति भॉतिकी स्तुतियों द्वारा उनकी स्तुति की। बाद सबके सब अपने अपने स्थानको चले गये । वहाँ जाकर जय और अकंपनने पकड़े हुए राजों और विद्याधरोंको छोड़ दिया और योग्य मीठे वचनों द्वारा उनके हृदयोंमें विश्वास करा दिया कि तुम लोग किसी भी तरहकी चिन्ता मत करो ।
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इसके बाद भव्य और सरलचित्त जय और अकंपनने अर्ककीर्ति कुमारकी स्तुति कर उन्हें नमस्कार किया और कहा कि कुमार ! हमारे कुलोंको आपने ही बढ़ाया, पाला तथा पोषा है । फिर ये कुल आपके ही द्वारा कैसे नष्ट हो सकते थे । इसी लिए ऐसा हुआ । वास्तव में आपकी हार नहीं हुई । हम सब लोग तो आपके ही सेवक है । और एक बात यह कि सुत, बंधु तथा सिपाही वगैरहसे चाहे सौ अपराध ही क्यों न हो जायें, महापुरुष सभी माफ कर देते है; क्योंकि वास्तवमें उत्तम पुरुषोंका क्षमा ही भूषण है । कुमार ! हम अविवेकियोंसे आपका एक अपराध हो गया है, पर हम आपके सेवक है, इस लिए आप हमें क्षमा प्रदान कर दें। हमारी यही अभ्यर्थना है । प्रभो ! एक सुलोचनाकी तो वात ही क्या है, यह सर्वस्व ही आपका है और हम भी आपके हैं। यदि आपको सुलोचनाकी चाह ही थी तो पहलेसे ही स्वयंवर विधिको रोक देना चाहिए था । पर वास्तव में ऐसा भाव आपका न था; क्योंकि आप तो विश्वके पालक हैं । किन्तु किसी दुष्ट पुरुषने आपको आगकी नाई भडका दिया और उसीसे
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तीसरा अध्याय।
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यह सब ऐसा हुआ है । अस्तु, अब आपसे यही नम्र प्रार्थना है कि आप हमारे ऊपर ठंडे जलकी भॉति ही ठंडे हो जाइए। इसके बाद अकंपनने अर्ककीर्तिको बहुत सम्पत्ति दी और लक्ष्मीमती नाम पुत्रीका उसके साथ ब्याह कर दिया। इस तरह अकंपन बड़े आदरके साथ अर्ककीर्तिको सन्तुष्ट कर और हाथी पर चढ़ा बहुत से राजों महाराजों सहित उसके देशको रवाना कर दिया; एवं और और राजोंको भी हाथी घोड़े आदिकी भेंट द्वारा सन्तुष्ट कर उन्हें विदा दी। वे भी सव अपने अपने नगरको चले गये।
इसके बाद बड़े भारी ठाट-बाटके साथ वह नागकुमार आया और उसने जयशील जयकुमारके साथ भली भॉति सुलोचनाका विवाह करवाया । देखो, यह सव पुण्यका ही माहात्म्य है जो देवता-गण भी सेवामें आकर उपस्थित हो जाते है।
इसके बाद जयने अकंपनकी सम्मतिसे रत्न आदि भेंट देकर सुमुख नाम एक दूतको चक्रवर्तीके पास भेजा । वह गया और चक्रवर्तीके सामने रत्न आदि भेंट रख कर तथा उन्हें हाथ जोड़ प्रणाम कर नम्रता-पूर्वक बोला कि प्रभो! अकंपन महाराज आपके डरसे आपको यह जताना चाहते है कि मैंने स्वयंवर विधि करके जयकुमारको अपनी सुलोचना नाम कन्या दी है । स्वयंवरमें आनेकी कुमारने भी कृपा की थी और जब कन्याने जयके गलेमें वरमाला डाली तव उन्होंने अपनी सम्मति भी प्रगट की थी। पर पीछेसे न जाने किसी पापीने कुमारके कान भर दिये, जिससे वे क्रुद्ध हो गये और उन्होंने युद्ध छेड़ दिया । वह सब हाल श्रीमान्ने अवधिज्ञान-चक्षुके द्वारा प्रत्यक्ष ही देखा है । हे प्रभो ! अब जो कर्तव्य हो सो कीजिए, जिसमें हमारी अर्थ-क्षति न हो और हमें क्लेश भी न पहुँचे; एवं हम मारे न जायें। इस प्रकार दीनता भरे वचनों द्वारा नम्र निवेदन कर चुकने पर दूत तो एक ओर बैठ गया और परचक्रको भय देनेवाले चक्रवर्तीने उत्तरमें यों कहना शुरू किया कि अकंपनने ऐसे नम्र वचनोंको लेकर तुम्हें व्यर्थ ही भेजा। क्योंकि वे बड़े हैं, अतएव मेरे लिए आदिनाथ प्रभुसे कम नहीं हैं। जिस तरह आदिनाथ प्रभु मोक्षमार्गके प्रवर्तक गुरु हैं, दानकी प्रवृत्ति करनेवाले श्रेयान्स राजा है तथा चक्रवर्तीपनेका मैं अगुआ हूँ उसी तरह वे भी तो स्वयंवर-विधिक विधाता है-चलानेवाले हैं। यदि आज वे न. होते तो स्वयंवर-विधिको कौन चलाता, यह बात तो निश्चित ही है । यहाँ भोगभूमि
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पाण्डव-पुराण |
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होनेसे जो पुराने मार्ग लुप्तमाय हो गये थे उनको जिन सत्पुरुषोंने फिरसे प्रचलित किया है, उनमें नयापन डाला है वे सारे संसारके पूज्य हैं। ऐसे पुण्य प्रसंग पर अर्ककीर्तिने जो वहाँ अन्याय से लड़ाई की उससे उसने युग- पर्यन्त के लिए मेरे यशमें धन्वा लगा दिया; अपयशी पुरुषोंमें मेरी गिनती करवा दी। इस प्रकार चक्रवर्तीने दूतको समझा-बुझा कर वापिस लौटा दिया। उसने वापिस आकर अकंपन और जयको नमस्कार कर चक्रवर्तीके जैसे तैसे वचन उन्हें कह सुनाये ।
इस प्रकार चक्रवर्तीका उत्तर सुन वे बड़े प्रसन्न हुए। इसके बाद कुछ काल तक जयकुमार और सुलोचनाने वहीं सुखसे निवास कर बाद अपने नगरको जानेकी इच्छा की और अकंपन महाराजको अपनी इच्छा कह सुनाई । अकंपनने हाथी घोड़ों आदि से खूव सन्मान कर उन्हें विदा किया और साथमें हेमांगद आदि राजको भेजा। सुर और बन्धुवर्ग से घिरे हुए दोनों दम्पति गंगातट पर आये । वहाँ आकर उन्होंने सब सेनाको तो वहीं ठहरा दिया और आप कितने ही उत्तम पुरुषोको साथ लेकर अयोध्या नगरीको गये । वहाँ नगरीसे वाहिर आकर अर्ककीर्ति आदिने उनकी खूब अगवानी की और उन्हें वे नगरीमें लाये । जिस समय जयने अर्क कीर्ति आदि के साथ-साथ नगरीमें प्रवेश किया उस समय ऐसा भान होता था कि बहुतसे देवतोंके साथ-साथ इन्द्र ही अमरावतीमें प्रवेश कर रहा है। वे सीधे राजसभायें गये और सभानायक चक्रवर्तीको नमस्कार कर उनके दिखाये हुए स्थान पर जा बैठे । चक्रवर्ती ने कहा कि जय, तुम चन्द्रवदनी वधूको यहाँ क्यों नहीं लाये | हम उसके देखने को बहुत ही उत्सुक हैं। क्या करें, अकंपनने तो इस विल्कुल नये विवाह - महोत्सबमें हमें निमंत्रण ही नहीं दिया । बताओ तो सही क्या यह बात ठीक है । क्या उन्होंने हम लोगोंको बन्धुओंसे बाहिर कर दिया है । अस्तु जो हो, परन्तु तुम्हारे लिए तो मैं पिताके तुल्य हॅू; तुम्हें तो मुझे अगुआ बना कर ही अपना विवाह करना था, पर तुम भी हमें भूल गये; तुमने भी तो निमंत्रण नहीं दिया । इस प्रकारकी अपूर्व अपूर्व बातें कह कर चक्रवर्ती ने उन्हें सन्तुष्ट किया और उनका योग्य आव आदर किया । इसके बाद जय महामना चक्रवर्तीको नमस्कार कर वापिस लौट आये; तथा हाथी पर सवार हो शीघ्र ही गंगातट पर जा पहुॅचे। वे प्राणोंसे भी कहीं अधिक प्यारी सुलोचनाको देखने लिए उत्सुक हो रहे थे। इतने में ही उन्होंने सुखे वृक्षकी डाली पर सूरजकी ओर मुहॅ किये बैठे हुए एक कौवेकी वोली सुनी । उसे सुनते ही उन्हें
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तीसरा अध्याय।
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अपनी प्रियाके सम्बन्धमें कोई भारी अनिष्टकी शंका हुई और मूर्छ आ गई। वे वे होश हो गये । उनकी यह दशा देख उसी नागकुमारने आकर शीतल-सुगन्धित वस्तुओंके उपचारसे उन्हें सचेत किया और कहा कि आप सुलोचनाकी चिन्ता न करें; वह सब तरहसे सुखी है । जयने उसके वचनों पर विश्वास कर शीघ्रताके कारण विना घाटके ही ऊभट मार्ग द्वारा हाथीको गंगामें उतार दिया। हाथीके दॉत सुन्दर और चमकीले थे। वह जलमें सूंड उठाए ऐसा भान होता था मानों तैरता हुआ मगर ही है । पाठक भूले न होंगे कि काकोदर मर कर गंगामें कालीदेवी हुआ था। धीरे धीरे जब वह हाथी बीच धारमें पहुंचा तब उस कालीदेवीने उसे रोक दिया, जिससे वह आगे जानेको असमर्थ होगया। सच है अपने स्थान पर निर्वल भी बल दिखाने लग जाता है । ज्यों ही हाथीको कालीने पकड़ा, त्यों ही वह जलमें डूबने लगा। उसको डूबता हुआ देख कर, हेमांगद आदि जो गंगातट पर खड़े थे, शीघ्र ही गंगामें कूद पड़े। उधर सुलोचना भी आहार, शरीर आदिसे ममता भावको छोड़ कर सभी उपद्रवोंको दूर करनेवाले " णमो अर्हताणं " मंत्रका जाप करने लगी और बहुतसे सखीजनोंके साथ-साथ वह भी गंगाके भीतर उतर पड़ी।
इसी गंगातट पर एक गंगा नाम देवी रहती थी । सहसा आसनके कम्पायमान होनेसे सव - हाल जान कर वह उसी वक्त वहाँ आई और गंगासे सबको सही सलामत निकाल कर उसने किनारे पर पहुंचा दिया । एवं उसने दुष्ट कालीको खूब ही ताड़ना दी और उसे जयकुमारके पास लाई । सच है पुण्य-योगसे सब जगह जीत ही जीत होती है । इसके बाद गंगादेवीने नदीके तट पर सभी सम्पत्तिसे भरपूर एक मनोहर महल बनाया। और उसमें एक मनोहर सिंहासन पर सुलोचनाको वैठा कर उसने उसकी बड़ी भक्तिसे सेवा-पूजा की। इसके बाद वह बोली कि वसन्ततिलक नाम उद्यानमें जब मुझे साँपने काट खाया था तब आपने मुझे नमस्कार मंत्र दिया था । अत: आपकी ही कृपासे मैं यहाँ गंगाकी अधिष्ठात्री और सौधर्म इन्द्रकी नियोगिनी देवी हुई हूँ । देवी ! यह सव आपके दिये हुए मंत्रसे ही हुआ है, अत: मैं आपकी चिर कृतज्ञ हूँ। यह सव. सुन जयकुमारने सुलोचनाको कहा कि प्रिये ! इसकी सारी कहानी कहो।
उत्तरमें सुलोचनाने यों कहना आरम्भ किया कि विंध्याचल पर्वत पर एक विध्यपुरी नाम नगरी है । वहाँ विध्यध्वज राजा राज्य करते है। उनकी रानीका नाम प्रियंगुश्री है । उनके एक विध्यश्री नाम कन्या थी।
पर उतर पड़ा।
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पाण्डव पुराण । विध्यध्वजने उस कन्याको सभी गुण-सम्पन्न बनानेके लिए मेरे पास भेज दिया। मेरा उस पर और उसका मुझ पर पूरा स्नेह था । एक दिन ... हम दोनों वसन्ततिफल नाम उद्यानमें क्रीड़ा कर रही थीं । दैवयोगसे इतनेमें उसे एक सॉपने काट खाया और वह उसी वक्त वेहोश हो गई । उस वक्त मैंने उसे नमस्कार मंत्र दिया तथा उसका माहात्म्य भी समझा दिया। बाद कुछ देरमें वह उस मंत्रका जाप करती हुई मर गई और यहाँ आकर यह गंगादेवी हुई। इसने उसी धर्मानुरागसे मुझ पर यह स्नेह दिखाया है । यह सब कहानी सुन कर जयने गंगादेवीको विदा कर आप फहराती हुई धुजाओंवाले उसके बनाए हुए मनोहर महलमें गये । वहाँ रात पूरी कर सवेरे वे सूरजकी नॉई उठे और गंगाके किनारे किनारे चल कर शीघ्र ही हस्तनागपुर आ पहुँचे । हस्तनागपुर अपनी सुन्दर सामग्रीसे मनुष्यसा जान पड़ता था। मनुष्यके हाथ होते हैं, इसके उड़ती हुई पताकाएँ ही हाथ थीं । मनुष्यके मुख होता है, इसके सुवर्णकलश ही सुन्दर मुख था । पुरुषके वक्षस्थल होता है, इसके बड़े बड़े तोरण ही वक्षस्थल जैसे थे । मनुष्यके नेत्र होते है, उसके झरोखे ही नेत्र थे । मनुष्यके कटीभाग, पैर और नख होते हैं, उसके भी गुमटियोंके नीचेकी गहराई सी जो होती है वह कटीभाग और खंभे पॉव तथा उनमें जड़े हुए रत्न ही नख थे । एवं मनुष्य के स्त्री होती है, उसके भी सत्पुरुषोंकी संख्यारूपी स्त्री थी । वहुत क्या कहें, इस नगरकी अपूर्व ही शोभा थी । सव तरहसे सजे-धजे हस्तनागपुरको देख कर जय महाराज बहुत ही सन्तुष्ट हुए । वे सुलोचना सहित वहाँ ऐसे शोभते थे मानों जयका अवतार ही है । जयने नगरमें उसी तरह प्रवेश किया, जिस तरह कि चक्रवती अयोध्या नगरी में प्रवेश करता है। एवं वहॉ वे सच्चे सुखोंको देनेवाली अपनी प्रियाके साथ-साथ सुखसे सुन्दर महलोंमें निवास करने लगे। सुलोचनाके मुख-कमलके भ्रमरके जैसे जय अपने छोटे भाइयों सहित पृथ्वीका पालन करते हुए इन्द्र के जैसे शोभते थे।
___एक दिन जय महाराजने महलके ऊपरसे एक कबूतरोंके जोड़ेको देखा और उसे देखते ही, “.मेरी प्रभावती कहाँ है। यह कह कर वे बेहोश होगये। तथा मीठी मीठी ध्वनि करनेवाले उन कबूतरोंको देख कर सुलोचनाको भी जातिस्मरण हो आया एवं वह भी हा, “ मेरा रतिवर कहा है । यह कह मूर्छित हो गई । उस समय सभी. कुटुम्ब-परिवारके लोग इकट्ठे हो गये और उन्होंने चंदन आदि शीतल वस्तुओंके उपचार द्वारा उनकी मूर्खाको दूर किया; जिस तरह रत्नोंकी ज्योति अँधेरेको
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दूर कर देती है । वे दोनों जव सचेत हुए तव उन्हें अपने परिवारके लोगोंकी विह्वलता देख कर बहुत ही अचंभा हुआ और साथ ही पिछले भवोंका स्मरण हो
आया। जयने सुलोचनासे कहा कि प्रिये ! अपने पिछले जन्मोंका सारा हाल सुना कर इन सबके कौतुकको मिटाओ । अपने प्रियतमकी आज्ञा पाकर वह मिष्टभापिणी यों कहने लगी कि-"जम्बूद्वीपके पूर्व-विदेहमें एक पुष्कलावती देश है। उसमें मृणालवती नाम पुरी है । वहाँके राजा सुकेतु थे । इसी नगरीमें एक रतिवर्मा नाम सेठ रहते थे। उनकी स्त्रीका नाम कनकश्री और पुत्रका नाम भवदेव था । यहाँ श्रीदत्त नाम एक वैश्य और थे। उनकी स्त्रीका नाम विमलश्री और पुत्रीका नाम रतिवेगा था। वह सती थी। एवं अशोकदेव नाम एक तीसरे सेठ
और यहीं रहते थे। उनकी स्त्रीका नाम जिनदत्ता और पुत्रका नाम सुकान्त था। वह हमेशा धर्म-कर्ममें लगा रहता था। एक बार भवदेवके माता-पिताने उसके लिए रतिवेगाके माता-पितासे उसकी याचना की और उन्हें इस काममें सफलता भी प्राप्त हुई। भवदेवका चाल-चलन खराव था, इस लिए लोग उसे दुर्मुख भी फहा करते थे। एक समय धन कमानेकी इच्छासे जव भवदेव दूसरे देशको जा रहा था तव श्रीदत्तने उससे विवाहके सम्बन्धमें कहा कि अव इस समय तो आप व्यापारके लिए जा रहे है, पर यह तो वताइए कि विवाह कब तक रुका रहेगा। इस पर वह बारह वर्षकी प्रतिज्ञा करके परदेशको चला गया। वह कह गया कि यदि मैं वारह व पीछा न आऊँ तो इस कन्याका व्याह तुम दूसरेके साथमें कर देना।
दैवयोगसे ऐसा ही हुआ। धीरे धीरे बारह वर्ष पूरे होगये, पर वह वापिस न आया । आखिर रतिवेगाके पिता श्रीदत्तने बड़े भारी ठाटवाटके साथ अपनी कन्याका व्याह अशोकके सुकांत नाम पुत्रके साथ कर दिया । रतिवेगा साक्षात् रति ही थी । इसके बाद जब भवदेव परदेशसे घर आया और उसने रतिवेगाके व्याहकी चर्चा सुनी तव वह बहुत क्रुद्ध हुआ। उसने सुकान्त तथा रतिवेगाको मार डालनेका निश्चय किया । जिसको सुन कर डरके मारे सुकान्त रतिवेगाको साथ लेकर वनमें चला गया। वहाँ सरोवर पर शक्तिपेण नामका एक राजा ठहरा हुआ था। वे उसकी शरणमें गये। पीछेसे दुख भी उन्हें मारनेके लिए वहीं आ पहुँचा । पर वहाँ जब उसका कुछ भी वश न चला तव वह शक्तिषेण राजाके भयसे वापिस लौट आया । दैवयोगसे इसी समय शक्तिपेणके डेरे पर चारण मुनि आहारके लिए आये और शक्तिपेणने उन्हें शुद्ध भावोंसे आहार दिया तथा उनकी खूब पूजा-भक्ति की। - पाण्डव-पुराण ५
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यह देख कर वे दोनों दम्पती बहुत आनन्दित हुए; और बारह भावनाओंका चिंतन करते हुए सुखसे वहीं पर रहने लगे। इसके बाद मौका पाकर उन दोनों दम्पतीको भवदेवने आग लगा कर जला डाला और मौका मिलने पर शक्तिषेणके भटोंने उसे भी मार डाला।
पूर्वविदेहकी पुण्डरीकनी नगरीमें-जिस समयका यह जिक्र है उस समयप्रजापाल राजा राज्य करता था; और वहीं पर एक कुवेरमित्र नाम सेठ रहता था। सेठ पर राजाकी पूरी कृपादृष्टि थी। सेठकी बत्तीस स्त्रियाँ थीं। उनमें धनवती मुख्य थी। सेठके घर पर सुकान्तका जीव रतिवर नाम कबूतर और रतिवेगाका जीव रतिषणा नाम उसकी कबूतरी हुई। वे दोनों सेठके घरमें विखरे हुए चॉवलोंको चुग कर सांसारिक विचित्र सुखोंका अनुभव करते हुए सुख-चैनसे अपना काल विताते थे।
एक समय सेठके घर आहारके लिए दो चारण मुनि आये । उन्हें देख कर उन दम्पतीका हृदय हर्षसे गद्गद हो उठा और उन्होंने शुद्ध भावोंसे युनिको आहारके लिए पड़गाहा; तथा बड़ी भक्तिसे आहार दिया। उस समय उन कबूतरोंकी दृष्टि भी उन मुनियोंके ऊपर पड़ी। उन्होंने मुनियोंके चरण-क्रमलोका दर्शन कर उन्हें नमस्कार किया। मुनियोंको देखते ही उन दोनोंको अपने पिछले भवोंका स्मरण हो आया। उन्हें पहिले भवके मुनिदानकी याद हो आई, जो कि शक्तिपेण राजाने दिया था। मुनियों के पास आकर उन्होंने मुनिदानकी खूव अनुमोदना की और उसके प्रभावसे पुण्यवन्ध किया । एक दिन दाना चुगनेके लिए वे कपोत-दम्पती किसी दूसरे गाँव गये हुए थे । वहाँ उनका शत्रु पापी भवदेवका जीव विलाव हुआ था। वह इन्हें देखते ही क्रोधमें आ मार कर खागया।
वहीं विजया की दक्षिण श्रेणीमें एक गांधार देश है। उसमें शीखली नाम नगरी है। वहाँका राजा आदित्यगति था । आदित्यगतिकी स्त्रीका नाम शशिप्रभा था। उसके गर्भसे वह कबूतर हिरण्यवर्मा नाम पुत्र हुआ। वहीं विजायर्द्धकी उत्तर श्रेणीमें एक गौरी देश है । उसमें भोगपुर नाम नगर है । वहाँका वायुरथ विद्याधर राजा था। उसकी रानीका नाम स्वयंप्रभा था। उसके गर्भसे वह रतिषणा नाम कबूतरी प्रभावती नाम पुत्री हुई । एक दिन राजाने देखा कि प्रभावती युवती हो गई है, उसका किसी योग्य वरके साथ ब्याह कर देना चाहिए। इस प्रश्नको हल करनेके लिए उसने मंत्रियोंको बुलाया और उनसे पूछा कि प्रभावती किसे देना चाहिए । सब मंत्रियोंने विचार करके कहा कि महाराज ! सवकी सम्मति है
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कि स्वयंवर - विधि करनी चाहिए । राजाने उनकी इस सम्मतिको स्वीकार किया, और उसीके अनुसार कार्य आरम्भ कर दिया । देश विदेशसे विद्याधर राजा बुलाये गये । और जो जो कन्याके अर्थी थे वे सब आकर वहाँ उपस्थित हो गये । स्वयंवर के समय सव स्वयंवर मंडपमें आकर अपने योग्य स्थानों पर बैठे । प्रभावती वरमाला ले पतिवरणको मंडपमें आई, पर उसने किसीको भी न वरा - पसंद न किया । यह देख उसके माता-पिताने उससे पूछा कि पुत्री यह क्या घात हैं ? कन्याने उत्तर में कहा कि जो कोई मुझे गति-युद्ध जीत लेगा में उसीके गले में वरमाला डालूंगी |
इसके बाद दूसरे दिन फिर स्वयंवर हुआ। उस समय प्रभावतीने सिद्धकूट चैत्यालय के शिखर पर से माला नीचेको डाली । पर किसीने भी वहाँ बने हुए मेरुकी तीन प्रदक्षिणा देकर उस मालाको वीचही में न ले पाया । तब सत्र लज्जित हो अपने अपने घरको चले गये। इसके बाद हिरण्यवर्मा आया । वह गतियुद्ध में बहुत ही प्रवीण था । उसने मेरुकी तीन परिक्रमा देकर बीचही में मालाको हाथोंमें ले लिया । यह देख प्रभावतीने बड़ी खुशी से उसके कंठमें वरमाला पहिना दी। इसके बाद हिरण्यवर्माने सिद्धकूट चैत्यालय में जाकर भगवानके स्तवन आदि कल्याणकारी उत्सवके साथ विधि पूर्वक प्रभावतीका पाणिग्रहण किया ।
इसके कुछ दिनों बाद एक दिन प्रभावतीने एक कबूतरोंके जोड़ेको उड़ते देखा । उसे देखते ही उसे अपने पिछले भवोंकी याद हो आई और उसके परिणाम विरक्त हो गये । उस समय प्रभावतीने एक चारण मुनिसे पूछा कि प्रभो ! मेरे पिछले भवकी कथा कहिए। मुनिने उत्तर में पीछे लिखी हुई वधू-वर आदिकी सभी कथा कह दी | उसे सुन कर प्रभावती और हिरण्यवर्मामें गाढ़ प्रीति उत्पन्न हो गई। एक दिन आदित्यगति नष्ट होते हुए बादलों को देख कर विरक्त हो गया; और हिरण्यवर्माको राज्य देकर उसने जिनदीक्षा धारण करली । हिरण्यवर्माने बढ़ी उत्तपताके साथ बहुत दिनों तक राज्य किया; परन्तु कुछ काल बाद किसी निमित्तको पा वह भी विरक्त हो गया । उसने अपने पुत्र स्वर्णवर्माको राज्य देकर आप स्वयं पैदल श्रीपुर आ श्रीपाल नाम मुनिसे दीक्षित हो गया । वह बड़ा निर्लोभी था देवता- गण उसकी सेवा करते थे । अपने स्वामीको जित देख प्रभावतीने भी गुणवती नाम अर्जिकासे जिनदीक्षा लेली; और कायक्लेश तप तथा शास्त्रचिन्तनके द्वारा वह शरीरको सुखाने लगी। कुछ समय बाद हिरण्यवर्मा और प्रभावती
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पाण्डव-पुराण। दोनोंने वहाँसे विहार किया; और विहार करते करते वे पुंडरीकनी नगरीमें आये । वहाँ प्रभावतीको देख कर मियदत्ता सेठानीने संघकी गुराणीसे पूछा कि यह कौन है और इसके ऊपर जो मेरे हृदयमें प्रवल स्नेह हो आया है इसका क्या कारण है ? यह सुन कर प्रभावतीने कहा कि क्या तुम्हें अपने घरमें रहनेवाले उस कपोत-युगलकी याद नहीं है। मैं वही तो हूँ जो तुम्हारे घरमें रतिषणा नाम कवूतरी थी । यह सुन कर सेठानी बोली कि और वह रतिवर कहाँ है ? प्रभावतीने कहा कि वह भी मर कर विद्याधरोंका ईश्वर हुआ था। अव मुनि होकर विहार करता हुआ यहीं आया है। उसका नाम है हिरण्यवर्मा । प्रियदत्ताने मुनिके पास जाकर उन्हें नमस्कार किया। इसके बाद वह भी प्रभावतीके उपदेशसे अर्जिका हो गई । वह बड़ी क्षमा गुणकी धारक थी। सच है वैराग्यका फल ही ऐसा है ।
__इसके बाद एक दिन हिरण्यवर्मा मुनिने सात दिनके लिए मसान भूमिमें ध्यान लगाया। इधर उस मार्जारके जीव दुष्ट-बुद्धि विद्युच्चोरने प्रियदत्ताकी दासीके मुँइसे उन मुनिराजके पिछले भवोंका हाल सुन रक्खाथा। अनः विभंगावधि ज्ञानसे उन्हें ध्यानस्थ जान कर वह वहाँ आया; और उसने हिरण्यवर्मा तथा प्रभावतीको एस साथ जलती हुई चितामें झोंक दिया। उस समय आगकी कठिन परीपहको शुद्ध भावोंसे सह कर वे दोनों मरे और पुण्यके प्रभावसे स्वर्गमें देव हुए । यह वात जव स्वर्णवर्माके कानमें पड़ी तव उसने विद्युच्चोरको मार डालनेका निश्चय किया । परन्तु अवधिज्ञान द्वारा स्वर्णवर्माके इस विचारको जान कर मुनिका रूप बना वे दोनों देव आये
और उन्होंने पुत्रको समझा-बुझा कर शांत कर दिया । इसके बाद दिव्यरूप धारी स्वर्णवर्माको दिव्य वस्त्र-आभूपण वगैरह भेंट कर वे स्वर्गको चले गये । एक दिन उन देवोंने भीम महामुनिको देख कर, उन्हें नमस्कार कर उनसे धर्मका उपदेश सुना। मुनिने कहा कि यह धर्म दया, सत्य और संयम-मय है । इससे जीवोंका कल्याण होता है और उन्हें इससे मन चाहे पदार्थोंकी प्राप्ति होती है । इस पर देवने कहा कि हे वेदके ज्ञाता ! यह कहिए कि आपके दीक्षित हो जानेमें क्या कारण है। इसके उत्तरमें मुनिने कहा कि मैं पुण्डरीकनी नगरीमें एक दरिद्र कुलमें पैदा हुआ था। मेरा नाम भीम है । एक समय मौका पाकर मैंने एक मुनिराजसे आठ मूल गुणों और व्रतोंको ग्रहण किया तथा घर जाकर यह सव हाल पिताजीको कह सुनाया। वे मुझसे बहुत ही नाराज हुए। उन्होंने मुझे बहुत कुछ समझाया, पर मैने उनकी एक वात न मानी । क्योंकि मुझे जाति-स्मरण द्वारा अपने पिछले भव मालूम हो चुके थे । मैं विरक्त हो दीक्षित हो गया-दिगम्बर साधु बन गया। '
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तीसरा अध्याय।
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मैं अपने पहले भवमें भवदेव नाम वैश्य-पुत्र था । इस भवमें मैंने वैर-विरोधके कारण रतिवेगा और सुकान्तको मार डाला था। इसके बाद मर कर जब वे कबूतर हुए तब मैं मार्जार हुआ और मार्जारके भवमें भी मैंने उन्हें मार खाया । इसके बाद वे हिरण्यवर्मा और प्रभावती हुए तथा मैं विद्युच्चोर हुआ । इस बार भी मैने उन्हें जलती हुई आगमें डाल कर जला डाला था। उस पाप महापापके कारण मैं दुःखोंके स्थान नरकमें जा पड़ा; और वहाँ मुझे बड़े भारी दुःख भोगने पड़े।सच है पापसे जीवोंको सभी दुःख सहने पड़ते हैं। नरकसे निकल कर मुझे संसारमें जो चक्कर लगाना पड़ा है उसके भयसे मेरा आत्मा अब भी अत्यन्त भयभीत हो रहा है। इस विचित्र कथाको सुन उन देवोंको सब बातोंका ज्ञान हो गया । वे संसारको वहुत ही बुरा समझने लगे । इसके बाद रागरंगमें मस्त और साता-वेदनी-रूप सागरमें गोते लगानेवाले वे देव स्वर्गको चले गये । उनके चले जाने बाद निर्भय, परन्तु फिर भी संसारसे भयभीत भीम महामुनीने वारह भावनाओं का चिन्तन कर
और अधाकरण, अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण परिणामोंके द्वारा पाप-कर्मोंको हलका कर क्षायिकसम्यक्त और क्षायिक चारित्र प्राप्त किया । एवं विघ्न वाधा-रूप मेघोंको उड़ानेके लिए वायुके समान और घाति-कर्मोंके घातक उन महामुनिने केवलज्ञान प्राप्त कर तथा कुछ समय बाद अघाति काँको भी घात कर वे मोक्षके अनंत सुखके भोक्ता हो गये।
यहॉ सुलोचना जयकुमारको याद दिलाती है कि हे नाथ ! उस समय हम भी उन महामुनिकी वन्दनाको गये थे और वन्दना कर वापिस स्वर्गको चले गये थे । इसके बाद स्वर्गसे चय कर हम लोग इस भरत क्षेत्रमें पैदा हुए हैं। आप भरत चक्रवर्तीके सेनापति और सोमप्रभ राजाके पुत्र हुए; एवं जयलक्ष्मीके भी पति हुए। और मैं महाराज अकंपनकी पुत्री हुई, जिनके भयसे शत्रु लोग कॉपते है, जो परम दयालु हैं, सुन्दर रूपवाले है, तथा जो दूसरोंसे नष्ट न होनेवाले मजाके कष्टोंको प्रीतिसे दूर करनेवाले हैं। नाथ ! यही कारण है कि आज कबूतरोके जोड़ेको देख कर आप तो ' हा प्रभावती' कह कर मूर्छित हो गये और मैं उसी भवके अपने स्वामी रतिवेगको याद कर ' हा रतिवेग' कह मूर्छित हो गई। इस प्रकार यहाँ हम क्रीड़ा करनेवाले सुन्दर और लज्जाशील दम्पती हुए है;
और निमित्त पाकर इस समय हमें जाति-स्मरण भी हो गया है । इस प्रकार सुलोचनाने पूर्व भवकी सब बातें कह सुनाई, जिन्हें सुन कर जयकुमारको वड़ा सन्तोप हुआ। सच है स्त्रीके वचनोंसे कौन प्रसन्न नहीं होता। इसके बाद वे मन
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पाण्डव-पुराण ।
चाहे भोगोंको भोगते हुए सुख-चैनसे काल बिताने लगे । इनके पास विद्याधरके भव प्राप्त की हुई वहुतसी विद्यायें थीं, जिनके प्रभावसे वे मेरु और कुलाचलों पर जहाँ चाहते जाकर क्रीड़ा करते थे और सांसारिक सुखोंका स्वाद लेते थे । एक वार जयकुमार क्रीड़ाके लिए कैलाश पर्वत के मनोहर वनमें गये और वहाँ सुलोचनाको एक स्थान पर छोड़ कर स्वयं कुछ दूर निकल गये । देवयोगसे इसी समय इन्द्रने अपनी समामें जयकुमारके शीलवती बड़ी बड़ाई की और सुलोचनाके पातिव्रत्यको सराहा । इन्द्रके द्वारा की गई उनकी वह प्रशंसा रविप्रभ नाम एक देवसे न सही गई और उसने उसी समय कांचना नामकी एक अप्सराको जयके पास भेजा । वह जयके पास आकर कहने लगी
इसी भरतक्षेत्रके विजयार्द्धकी उत्तर श्रेणीमें एक रत्नपुर नाम नगर है । वहाँका राजा पिंगलगांधार है । उसकी रानीका नाम सुप्रभा है और पुत्रीका नाम विद्युत्प्रभा । मैं वही विद्युत्प्रभा हूँ | मेरा ब्याह राजा नमिके साथमें हुआ था । एक दिन मैने पुण्ययोग से मेरुके नन्दन वनमें आपको क्रीड़ा करते हुए देखा । तभी से मै आपके लिए बहुत उत्सुक हूँ । मेरे चित्त पर आपका चित्र खिंच गया है। दुर्भाग्यसे इतने दिनों तक आपके दर्शनका मौका न मिला । पुण्यके उदयसे आज फिर आपके दर्शन हो गये । अतः हे जय ! मुझे स्वीकार कर मेरे साथ मनचाहे सुख भोगो ।
विद्युत्प्रभाकी इस प्रकार दुष्ट चेष्टा देख कर जयने कहा कि तुम ऐसा पाप मत विचारो; मैं परस्त्रीका त्यागी हूँ । तुम यहाँसे अभी चली जाओ । इस प्रकार जयने उसे खूब डाटा-डपटा। यह देख विद्युत्मभाको बड़ा क्रोध आया। वह राक्षसीका रूप बना जय पर उपद्रव करने लगी । परन्तु उस दुष्टाका जब जय पर कुछ वश न चला तब वह वहाँ से भाग कर सुलोचनाके पास पहुँची । सुलोचनाने भी उसे खूब फटकारा | अन्तमें वह उसके शीलके माहात्म्यसे डर कर क्षणभरमें अदृश्य हो गई। देखो, शील - व्रतधारियोंसे देव भी डरते हैं। स्वर्गमें जाकर उसने स्वामीको नमस्कार किया और जयकुमार तथा सुलोचना के शीलकी बड़ी प्रशंसा की । सुन कर रविप्रभको वढ़ा आश्रर्य हुआ। इसके बाद उसने स्वयं आकर बड़े विनयसे उन दम्पतीको नमस्कार किया और उन्हें अपना सारा हाल कह सुनाया; और कहा कि आपका मैं अपराधी हूँ। आप मुझे क्षमा करें। इसके बाद वह उन दम्पतीको रत्नाभरण और दिव्यवस्त्र भेंट कर स्वर्गको चला गया । इधर जयकुमार भी अपनी कान्ताके साथ-साथ नगरको चले आये ।
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तीसरा अध्याय । एक बार अनेक राजों द्वारा सेवित जयकुमारका संसारकी विचित्र गति पर ध्यान गया; संसारकी अनित्यताका उनकी बुद्धि पर चित्र खिंच गया। उन्होंने आदिनाथ प्रभुके पास जाकर ध्यानपूर्वक धर्मका उपदेश सुना; तथा संसार-देह-भोगोंसे विरक्त होकर शिवंकर महादेवीके साथ-साथ अपने अनंतवीर्य नाम पुत्रका राज्याभिषेक कर उन्हें अपने पद पर बैठाया और स्वयं सव परिग्रहको छोड़ कर बहुतसे राजोंके साथ-साथ दिगम्बर हो गये । इसके बाद थोड़े ही दिनोंमें सात ऋद्धियाँ तथा मनःपर्ययज्ञान लाभ कर वे आदिनाथ भगवानके इकहत्तरवें गणधर हुए; और क्रमसे घातिकमौके नाशसे उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया । इधर पति-वियोगसे पीड़ित सुलोचनाने भी विरक्त होकर सुभद्रा नाम भरतकी पत्नी के साथ-साथ ब्राह्मी आर्याके पास अर्जिकाके व्रत ग्रहण कर लिये; और तप कर वह अच्युत स्वर्गके अनुत्तर विमानमें देव हो गई । इसके बाद ऋषभप्रभुने सम्पूर्ण देशों में विहार कर धर्मका उपदेश किया; और धीरे धीरे सब जगहकी भव्यजन-रूप वनश्रेणीको सींच कर कैलाश पर्वत पर पहुंचे। वहाँ प्रभुने चौदह दिन तक मुक्तिका कारण योग धारण कर योगनिरोध किया, और माघवदी चौदसको प्रात:काल, पूर्व मुख कर निष्पाप आदिप्रभु पद्मासनसे औदारिक शरीर छोड़ कर अव्यय मोक्षपदको प्राप्त हो गये । उस समय सव सुर-असुरोंने आकर प्रभुका निर्वाण महोत्सव मनाया और सिद्धि लाभकी इच्छासे पुण्य-बंध किया । इसके बाद जय भी अघाति काँका नाश कर कल्याण-मय मोक्ष-अवस्थाके भोक्ता हो गये। ___उन जयकी जय हो जो संसारके विजेता और सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता है; शत्रु-रूप आगको घुझानेके लिए मेघ हैं; मनोमलको शोधनेवाले और विपुल शुद्धिके सम्पादक हैं तथा जो कौरवोंके शिरोमणि है; और सब भव्य-जन जिनकी स्तुति करते हैं। इस प्रकार तत्त्वोंके स्वरूपको वता कर और अनन्त जीवोंको संसारसे पार कर भगवान आदिनाथ निर्वाणको चले गये । अव भवभोगी और शुद्ध सवेगयोगी दयालु भरत महाराज मोक्ष-अवस्था लाभ करें।
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पाण्डव-पुराण |
चौथा अध्याय ।
उन आदिनाथ के गुणोंका मैं स्मरण करता हूँ जो पुराणपुरुपोंमें उत्तम है; जिनका अभ्युदय संसार - प्रसिद्ध है और जो उत्तम अवस्थाको प्राप्त कर चुके हैं।
जयके बाद आकाशमें चंद्रमाकी भाँति कुरुवंशमें अनन्तवीर्य राजा हुआ । इसके वाद कुरुचंद्र, शुभंकर, धीरवीर धृतिंकर, धृतिदेव और गुणोंका पुंज गुणदेव राजा हुआ । इनके बाद धृतिमित्र आदि और और बहुतसे राजोंने अपने जन्मसे कुरुवंशको अलंकृत किया। बाद सुप्रतिष्ठ आदि कई एक स्वर्गगामी पुण्यवान् राजा हुए। अनंतर भ्रमघोष, हरिघोष, हरिध्वज, रविघोष, महावीर्य, पृथ्वीनाथ प्रथु, गजवाहन आदि सैकड़ों राजोंके हो चुकने पर विजय नरेश हुए। यह संसारप्रसिद्ध और जयश्री के पति थे । इनके बाद सनत्कुमार, सुकुमार, वीरकुमार, विश्व, वैश्वनर, विश्वध्वज और धुजाके जैसा वृहत्केतु आदि बहुत से कर्मवीर राजोंने इस वंशमें जन्म लिया | बाद विश्वसेन महाराजने इस वंशका मुख उज्ज्वल किया इन्हींके यहाँ परमपूज्य सोलहवें तीर्थंकर श्रीशान्तिनाथ भगवानका जन्म हुआ है। अब थोड़े में श्री शान्तिनाथ प्रभुका चरित लिखा जाता है । यह सत्पुरुषोंको सच्चामार्ग सुझानेवाला और परम पवित्र है । उसे सुनिए ।
भरतक्षेत्र के बीच में एक विजयार्द्ध पर्वत है। इसकी दक्षिण श्रेणीमें रथनूपुर नगर है | वहाँका राजा ज्वलनजटी था । वह विद्याधरोंका अगुआ और सव गुण-सम्पन्न था। उसकी रानीका नाम वायुवेगा था । वह वायुके वेगकी तरह चंचल और सुन्दरी थी । ज्वलनजटी और वायुवेगाके एक पुत्र था । उसका नाम अर्ककीर्ति था । वह भी संसार - प्रसिद्ध था --- उसकी कीर्ति सारे संसार में व्याप्त थी । तथा इनके स्वयंप्रभा नामकी एक पुत्री भी थी जो अपनी शोभासे लक्ष्मीकी बरावरी करती थी । एक दिन राजाको खबर लगी कि वनमें जगनंदन और अभिनंदन नाम दो मुनीश्वर आये हैं । खबर पाते ही वह उनकी वन्दना के लिए वनमें गया । वहाँ पहुँच कर उसने मुनीश्वरोंकी बन्दना की और उनसे धर्मका उपदेश सुना तथा सम्यग्दर्शन ग्रहण किया । उसके साथ स्वयंप्रमाने भी धर्म धारण किया । इसके बाद ज्वलनजी मुनीश्वरोंको नमस्कार कर नगरको वापिस लौट आया ।
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चौथा अध्याय |
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इसके बाद एक बार पर्व के दिनोंमें स्वयंप्रभाने वड़े आनन्दके साथ उपवास किया । यद्यपि उपवाससे उसका शरीर कृश हो गया था तो भी उसकी शोभा अपूर्व थी । स्वयंप्रमाने जिनेन्द्र देवकी बड़ी भक्तिसे पूजा की और उनके चरण1 कमलोकी शेषा लाकर अपने पिताको प्रदान की । पिताने उसे भक्तिके साथ मस्तक पर चढ़ाया । उस समय स्वयंप्रभाके पिता ज्वलनजटीने देखा कि अब कन्या युवती हो गई हैं, इसका किसी उत्तम वरके साथ विवाह कर देना योग्य है । इसके बाद ही उसके मनमें प्रश्न उठा कि स्वयंप्रभा जैसी सुन्दरी कन्या किले दी जानी चाहिए | इस प्रश्नको जब वह स्वयं हल न कर सका तब उसने अपने मंत्रिवर्गको बुलाया और उनसे कन्या देनेके सम्वन्धमें सलाह पूछी । इस पर शास्त्रज्ञ सुश्रुत नाम मंत्रीने कहा कि महाराज ! इसी विजयार्द्धकी उत्तर श्रेणीमें एक अलकापुरी नाम नगरी है | वहाँका राजा मयूरग्रीव है । उसकी रानीका नाम नीलांजना है । उनके कई एक पुत्र हैं । वे सब महान बली हैं । उनके नाम अश्वग्रीव, नीलकंठ और वज्रकंठ इत्यादि है । अवग्रीव की खीका नाम कनकचित्रा है | अश्वग्रीव और कनकचित्राके पांचसौ पुत्र हैं। अश्वग्रीवका हरिस्मक नाम मंत्री और शतविन्दु नाम निमित्तक है । वह तीन खंड पृथ्वीका स्वामी है । मेरी सम्मति है कि आप अश्वग्रीव जैसे विस्तृत राज्यवाले राजाको कन्या दें, तो कन्याको सुख होगा और आपको भी शान्ति मिलेगी । सुश्रुतकी वातको सुन कर वहुश्रुत नाम मंत्रीने कहा कि तुम्हारा कहना ठीक है; परन्तु अश्वग्रीवकी अवस्था अधिक है, अत एव यदि उसे कन्या दी जायगी तो सम्भव है कि वह भोगों से वंचित रह जाय अर्थात् हमेशा सौभाग्यवती न रहेवैधव्य जैसे महान संकट में पड़ जाय । देखो ! वरमें ये नौ गुण तो अवश्य ही होने चाहिए | उच्च जाति, नीरोगता, योग्य आयु, शील, शास्त्रका ज्ञान, सुन्दर सुडौल शरीर, धन-दौलत, पक्ष और कुटुम्ब । अश्वग्रीवमें इनमेंकी बहुतसी बातें नहीं है, इस लिए यह स्वयंप्रभाके योग्य नहीं है । दूसरा और कोई वर खोजा जाना चाहिए । कारण, स्पष्ट देख-भाल कर ही सत्पुरुष सन्तुष्ट होते हैं और अपनी कन्या प्रदान करते है । सुश्रुत ने फिर कहा कि महाराज ! और देखिए, गगनवल्लभ पुरमें सिंहरथ, मेघपुर में पद्मरथ, चित्रपुरमें अरिंजय, अश्वपुरमें हेमरथ, रत्नपुरमें धनंजय इत्यादि बहुतसे राजा है । इनमेंसे जो आपको पसंद पड़े उसे पुण्यवती और सौभाग्यशालिनी प्रभावती को दीजिए । यह सुन कर श्रुतसागर नाम मंत्रीने कहा कि महाराज ! स्वयंप्रभा के योग्य वर मैं बताता हूँ, सुनिए ।
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पाण्डव-पुराण ८
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पाण्डव-पुराण ।
इसी विजयार्द्धकी उत्तर श्रेणीमें सुरेन्द्रकान्त नगर है । वहाँके राजाका नाम मेघवाहन है । उसकी रानीका नाम मेघमालिनी है । उनके विद्युत्लभ नाम पुत्र और ज्योतिर्माला नाय एक कन्या है । एक दिन मेघवाहन सिद्धकूट चैत्यालय गया और वहाँ उसने एक चारण मुनिको देखा । उनका नाम वरधर्म था। उन्हें नमस्कार कर उसने उनसे धर्मका उपदेश सुना और अपने पुत्र विद्युत्मभके पिछले भवोंका हाल पूछा । मुनिराजने कहा कि" जम्बूद्वीपके पूर्व विदेहमें एक वत्स्यकावती देश है । उसमें प्रभापुरी नाम नगरी है । वहाँका राजा नंदन था। उसके पुत्रका नाम विजयभद्र था । वह वीर
और प्रतापी था । उसकी भार्याका नाम जयसेना था । एक दिन विजयभद्र क्रीड़ाके लिए उद्यानमें गया और वहाँ एक फलको पेड़से नीचे पड़ता हुआ देख कर वह विरक्त हो गया तथा पिहिताश्रव मुनिके पास जा, चार हजार राजोंके साथ-साथ उसने जैनेन्द्री दीक्षा धारण कर ली-वह दिगम्बर यति हो गया। एवं वह कुछ कालमें मर कर शान्त भावोंके प्रभावसे माहेन्द्र स्वर्गके चक्रक नाम विमानमें देव हुआ। वहाँ उसकी सात सागरकी आयु हुई। वह वहाँसे चयकर अब यह तेरा पुत्र विद्युत्मभ हुआ है और यह थोड़े ही समयमें मोक्ष जायगा।" मैं भी उस समय वहीं पर था । पिहिताश्रव मुनिके मुखसे यह हाल मैंने स्वयं सुना है । अतः मेरी सम्मति है कि उसे ही कन्या देना योग्य है। और ज्योतिर्माला नामकी जो उसकी पुत्री है वह अपने कुमार अर्ककीर्तिके योग्य है । इस लिए उसे हम अर्कीर्तिके निमित्त ले लेंगे। श्रुतसागरके इन वचनोंको सुन कर सुमति मंत्रीने कहा कि राजन् ! स्वयंप्रभाको प्रायः सभी विद्याधर चाहते हैं । इस लिए अपनी खुशीसे किसी एकको दे देने पर वे बड़ा वैर-विरोध खड़ा करेंगे, अत: स्वयंवर करना सबसे उत्तम और ठीक होगा। यह कह कर सुमति चुप हो गया। राजाने उसकी बात स्वीकार कर मंत्री वर्गको विदा किया। इसके बाद राजाने संभिन्नश्रोत नाम एक पौराणिकको बुला कर उससे पूछा कि पंडितजी स्वयंप्रभाका वर कौन होगा। यह सुन पौराणिकने कहा कि मै शास्त्रके आधारसे जो कुछ कहता हूँ उसे आप ध्यानसे सुनिए।
सुरम्य देशमें एक पोदनापुर नगर है। उसका राजा प्रजापति है । उसकी दो रानियाँ हैं । एक भद्रा और दूसरी मृगावती। भद्राके पुत्रका नाम विजय
और मृगावतीके पुत्रका नाम त्रिपृष्ठ है । वे दोनों ग्यारहवें, तीर्थकरके., तीर्थमें . नारायण और बलभद्र होनेवाले हैं। वे महान बली और अश्वग्रीवको मार
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चौथा अध्याय । कर तीन खंडके पति होनेवाले है । एवं त्रिपृष्ठ संसार परिभ्रमण कर अन्तिम तीर्थकर होगा । अतः तीन खंडके भोक्ता त्रिपृष्ठको ही कन्या देनी चाहिए। यह कन्या उसके मनको मोह कर कल्याणकी भागिनी बनेगी और उसके निमित्तसे आप सब विद्याधरोंके स्वामी बनेंगे । पौराणिकके इन वचनोंको सुन कर राजाने उसका खूब सत्कार किया और उसके वचनों पर निश्चय कर किया।
- इसके बाद राजाने उसी समय इन्दू नाम दूतको बुलाया और उसे पत्र तथा भेंट दे, तथा सव बातें समझा कर प्रजापति महाराजके पास भेजा । क्योंकि जयगुप्त नामक निमित्त ज्ञानीसे वह पहिले ही सुन चुका था कि स्वयंप्रभाका पर त्रिपृष्ठ नारायण होगा। दूत राजमहलके सभाभवनमें पहुंचा और वरके लिए जो भेंट ले गया था, उसे उसने प्रजापति महाराजके सामने रख दी तथा उनके हाथमें पत्र देकर विनय-पूर्वक कहा कि देव ! ज्वलनजटी महाराजकी इच्छा है कि उनकी स्वयंप्रभा नाम लक्ष्मीके जैसी कन्याको त्रिपृष्ठ ग्रहण करें। इसके बाद पत्रके द्वारा पूरा हाल जान कर प्रजापतिने दूतका खूप आदर-सत्कार किया और वदलेकी भेंट देकर उससे कहा कि " जैसी तुम्हारे महाराजकी इच्छा है वैसा ही होगा। दूत वहॉसे विदा होकर वापिस रथनूपुर आया और उसने सारी कार्य-सिद्धिको बड़ी युक्तिके साथ महाराजको कह सुनाया। इसके बाद पड़ी भारी विभूति और ठाटबाटके साथ ज्वलनजटी स्वयंमभाको लेकर पोदनापुर पहुंचे। उनका आना जान कर प्रजापति अगवानीके लिए नगरके वाहर आये और बड़े आदरके साथ ज्वलनजटीको नगरमें ले गये। वहाँ उन्होंने एक सुन्दर सुहावने मंडपमें उन्हें ठहराया। इसके बाद ज्वलनटीने विवाहकी सब विधि यथायोग्य समाप्त कर त्रिपृष्ठके लिए कन्या प्रदान की और साथ ही सिंहविद्या, नागविद्या तथा तायविद्या ये तीन विद्यायें दी।
इसी समय उत्तर श्रेणीकी अलकापुरीमें जहाँ पर अश्वग्रीव रहता था, तीन भॉतिके उपद्रव हुए । दिव्य, भौम और अन्तरीक्ष । पहिले कभी नहीं हुए ऐसे इन अपूर्व उपद्रवोंको देख कर वहॉके लोग बहुत ही व्याकुल हुए। उस समय अश्वग्रीवने शतविन्दु निमित्तज्ञानीको बुलाया और उससे पूछा कि बताओ, इन उपद्रवों का फल क्या है ? शतविन्दुने कहा कि जिसने सिंधुदेशमें सिंहका मार कर अपना पराक्रम दिखाया, जिसने आपके पास आती हुई भेंटको जबरदस्ती रास्तेमें ही छीन लिया और ज्वलनजटी खगेश्वरकी स्वयंममा नाम कन्याको जिस धीरवीरने वरा उसके द्वारा आपको क्षोभ प्राप्त होगा-आप दुखी होंगे । इस लिए आप उसे खोज कर पहिलेसे ही अपना प्रवन्ध कर उसके नाशका यत्न कीजिए ।
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पाडण्व-पुराण ।
nommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm यह सुन अश्वग्रीवने उसी समय मंत्रियोंको आज्ञा दी कि तुम लोग उस शत्रुकी जल्दी खोज करो और विषके अंकुरकी नाँई उसे जड़से उखाड़ कर फैंक दो; नहीं तो वह पीछे बहुत दुःख देगा । मंत्रियोकी सलाहसे गूढचर लोग पोदनापुर भेजे गये । वहाँ उन्होंने तलाश किया और शतविन्दुकी बताई हुई सिंहवध आदि वातों परसे यह निश्चय किया कि आत्माभिमानी यह त्रिपृष्ठ ही हमारे महाराजका शत्रु है । इसीके मिमित्तसे सव उपद्रव हो रहे हैं । इतना पता लेकर वे वापिस आये और उन्होंने राजाको अपने दिलका सब हाल कह सुनाया, जिसे सुन अश्वग्रीव और भी भयभीत हुआ | उसने त्रिपृष्टके पास चिंतागति
और मनोगति नामक दो दूतोंको भेजा। वे दोनों निपृष्ठके पास पहुंचे तथा उन्हें भेंट दे, नमस्कार कर बड़े आदरके साथ वोले कि राजन् ! विद्याधरोंके अधिपति अश्वग्रीवने आपके लिए यह आज्ञा की है कि मैं स्थावर्त पर्वत पर आता हूँ और आप भी वहाँ आकर मुझसे मिलें । इसी लिए हम लोग आपको लेने के लिए आये हैं। कृपा कर आप चलिए । इस पर त्रिपृष्ठने क्रोध भरे शब्दोंमें कहा कि मैंने आज तक उष्ट्रग्रीव, खरग्रीव और अश्वग्रीववाले मनुष्य कहीं नहीं देखे, फिर यह घोड़े कैसी गर्दनवाला मनुष्य कहाँसे आया! त्रिपृष्ठकी व्यंग्योक्ति सुन कर दूतोंने कहा कि यह आपका ख्याल गलत है । एक विद्याधरोंके स्वामी और सारे संसार द्वारा पूजे जानेवाले पुरुषोत्तमके लिए ऐसे शब्दोंका प्रयोग करना आपको शोभा नहीं देता। इस पर त्रिपृष्ठने कहा कि यदि तुम्हारा स्वामी आकाशमें चलनेवाला विद्याधर है तो वह पक्ष-युक्त पक्षी होगा, उसको देखनेके लिए मुझे अवकाश नहीं-मैं नहीं आ सकता। इसके उत्तरमें दूतोंने कहा कि हमारा स्वामी चक्रनायक है। उन्हें देखे विना अभिमानमें भूल कर ऐसी ऊंटपटाँग वाते वकना ठीक नहीं है । उनके कोपसे शरीरमें रहना तक कठिन हो जाता है तव पृथ्वी पर तो रह ही कौन सकता है। दूतोंके ऐसे कठोर वचनोंको सुन कर त्रिपृष्ठने कहा कि यदि तुम्हारा स्वामी चक्रनायक है तो वह घड़ा बनानेवाला कारीगरोंका अगुआ कुम्हार है । उसके लिए क्या तो भेजा जाय और क्या उससे मेल-मिलाप किया जाय । यह सुन दूतोंने क्रोधभरे शब्दोंमें कहा कि जिस कन्यारत्नको आपने अपना भोग्य पदार्थ बना लिया है वह क्या आपको पच जायगा ? नहीं, कभी नहीं । ज्वलनजटी और प्रजापति कौन खेतका मूली हैं और चक्रवतीके क्रोधके आगे वे क्या कर सकते है । इतना कह कर वे दोनों कुबुद्धि दूत वापिस लौट आये और अश्वग्रीवके पास आ, उसे नमस्कार कर उन्होंने
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चौथा अध्याय। त्रिपृष्टने जो कुछ फदा था वह सब ज्योंका त्यों कह सुनाया, जिसे सुन कर अश्वग्रीवके शोधका पारा बहुत ही चढ गया और उसने रणभेरी बजवा दी। संसार भरंग फैलनेवाले भेरीके गन्दको मुन कर सभी राजा-गण अश्वग्रीवकी सेवामें आ उपस्थिन हुए। पोंकि चकवन के शोधके मारे सभी भयभीत हो उरके भारसे दन जाते है । पृथ्वी पर कोई भी सुग्य-चैन से नहीं रह सकता ।
इसके बाद अश्वग्रीव चतुरंगसेनाके साथ स्थावर्त पर्वतकी ओर रवाना हुआ। इस समय दो दिशायें आग उगलने लगा । उल्कापात होने लगा और पृथ्वी फाँपन लगी । अवको आया जान प्रजापमिके दोनों पुत्र भी आ पहुँचे । दोनों भोग्की रेनामें बना भयंकर युद्ध हुआ । यह देख त्रिपृष्ठको बहुत कोप आया। यह आगला हो गया और अश्वग्री पर स्वयं ही जा चढ़ा । उधरसे अवग्रीव . भी पहिले जन्म के बैरके कारण लदनेको तयार ही था । दोनीने खब वाणोंकी परसा की, जिससे सारी सेना विल्कुल बाणमय देस पड़ने लगी। इस तरह उन दानाम सामान्य शखों द्वारा बहुत ही युद्ध हुआ, पर जब एक दुसरेको कोई भी न जीत सका तब उन शक्तिशालियाने विधायुद्ध करना आरम्भ किया। विद्यायुद्ध करते हुए भी पान देर हो गई और अश्वग्रीवका विद्यावल व्यर्थ जाने लगा। तब बांध माफर अन्यग्रीवने वैरी पर चा चलाया । चक्र तीन प्रदक्षिणा कर दैवयोगसे निपट के साथ आगया । अन्तमें उस चली बिपृष्ठने उसी चक्र द्वारा अम्बग्रीवकी गर्दन काट कर उसे घराशायी बना दिया । इस प्रकार विजय और त्रिपृष्ठ आध भरवक्षेत्र अधिपति हुए और विद्यावल, राजा-महाराजा, व्यंतर
और मागध सभी उनकी सेवा करने लगे । इसके बाद त्रिपृष्ठने ज्वलनजटीको दोनों श्रेणियोंका स्वागी बना दिया । सच है बड़े पुरुपोंके आश्रयसे सभी प्रभुता प्राप्त हो जाती है; कुछ दुर्लभ नहीं रह जाता।
इसके बाद पूर्व पुण्यके उदयसे त्रिपृष्ठ नारायणको खंग, शर्ख, धनुंप, चक्र, दंडे, शक्ति, गदा ये सात रत्न और विजय वलभद्रको रत्नमाला, गंदा, मुशल
और हल ये चार रत्न प्राप्त हुए। इन रत्नोंकी हजारों देवतागण सेवा करते हैं । विपृष्ठकी सोलह हजार रानियाँ थीं, उनमसे पट्टरानीका सौभाग्य स्वयंप्रभाको ही माप्त था । विजयकी आठ हजार रानियाँ थीं । वे सभी भीलवती, रूपवती और गुणों की खान थी । इसके बाद प्रजापति राजाने भी अपनी ज्योतिर्माला नाम पुत्रीका विवाह बड़े भारी गट-घाटसे ज्वलन
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पाण्डव-पुराण।
mommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm जटीके पुत्र अर्ककीर्तिके साथ कर दिया। इससे दोनों राजोंमें परस्पर खूब गाढ़ी भीति हो गई। अर्ककीर्ति और ज्योतिर्मालाके अमिततेज नामका पुत्र और सुतारा नामकी पुत्री हुई । इसी भाँति त्रिपृष्ठ और स्वयंप्रभाके भी श्रीविजय और विजयभद्र नाम दो पुत्र तथा ज्योतिःममा नाम एक कन्या हुई । इसके बाद किसी निमित्तको पाकर प्रजापति संसार-विषयभोगोंसे उदास होगये और पिहिताश्रव मुनिके पास जैनेन्द्री दीक्षा धारण कर तथा तपके द्वारा कोका नाश कर मोक्षधामको चले गये । यह सुन ज्वलनजटी भी अर्ककीर्ति पर राज-भार डाल कर जगनंदन मुनिके पास दिगम्वरी दीक्षा ले परम ध्यानके प्रभावसे परम पदके स्वामी हो गये।
इसके बाद जब ज्योति प्रभाका स्वयंवर रचा गया तब उसने अमिततेजको वरा, उसके गलेमें वरमाला डाली और अर्ककीर्तिकी पुत्री सुताराने अपने स्वयंवरमें श्रीविजय पर आसक्त हो उसके गलेमें वरमाला डाली । स्वयंवरके बाद दोनोंका परस्पर में खूब धूमधामके साथ विवाह महोत्सव किया गया । इसके वाद बहुत दिन तक राज-सुख भोग आयुका अन्त होने पर नारायण मर कर सातवें नरक गया और विजय वलभद्रने श्रीविजयको राज-पद देकर विजयभद्रको युवराज वनाया। तथा वह स्वयं भाईके शोकसे व्याकुल हो स्वर्णकुंभ मुनिके पास दीक्षित हो गया। उसके साथमें सात हजार राजोंने भी संयमको ग्रहण किया। एवं थोड़े ही समयमें घातिया कर्मोंको नाश कर वह परमोदयका धारक केवली हो गया। यह सुन अर्ककीर्ति भी अमिततेजको राज-भार सौंप कर विपुलमति मुनिराजके चरणों में तपस्वी हो गया । इसके बाद अमिततेज और अर्ककीर्तिने बहुत काल तक अविकल राज-सुख भोगा । उन्हें कोई बातकी चिन्ता न हुई। ____एक दिन पोदनापुरके नरेशकी सभामें एक नया मनुष्य आया और राजाको आशीर्वाद देकर वोला कि राजन् ! मेरी बात जरा ध्यानसे सुनिए । आजसे सातवें दिन आपके-पोदनापुरके राजाके-मस्तक पर महावज्रकी वरसा होगी, इस लिए उससे वचनेका कुछ उपाय कीजिए। यह सुन क्रोध आ विजयभद्र युवराजने कहा कि पंडितजी ! यह तो बताओ कि उस समय तुम्हारे मस्तक पर काहेकी वरसा होगी। इस पर उस निमित्तज्ञानीने अहंकार भरे शब्दोंमें कहा कि महाराज!
सुनिए-उस समय मेरे मस्तक पर अभिषेक पूर्वक रत्नोंकी वरसा होगी। उसके ___ इन वचनोंको सुन श्रीविजयको वड़ा अचंभा हुआ। उन्होंने कहा कि भद्र ! यहाँ
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चौथा अध्याय ।
आओ, वेठो, मेरी बात सुनो । बताओ कि तुम्हारा गुरु कौन हैं और कौन गोत्रमें तुम्हारा जन्म हुआ है ? तुमने कौन कौन शास्त्र पढ़े या देखे हैं और किस निमित्तसे तुमने यह वात जानी है ? तुम्हारा नाम क्या है ? इनके उत्तरमें उस निमित्तज्ञने कहा कि कुंडलपुर नाम नगरमें सिंहरथ नाम राजा है। उसके पुरोहितका नाम सुरगुरु है । उसका मै शिष्य हूँ । मैने विजय वलभद्रके साथ दीक्षा लेकर अष्टांग निमित्त-शास्त्रोंको पढ़ा है । अन्तरिक्ष, भौम, अंगंग, लक्षण, व्यंजन, छिन्न, स्वर और स्त्रनं । इनके लक्षण और भेद मुझे सब मालूम हैं। कुछ समय वाद भूखसे व्याकुल हो मैंने दीक्षा छोड़ दी और हमेशा दुखी होकर इधर उधर घूमने-फिरने लगा। कुछ काल बाद में पद्मिनी खेट नाम नगरमें आया । वहाँ सोमशर्मा नाम मेरा मामा रहता था । उसकी स्त्रीका नाम हिरण्यलामा था। उसके चंद्रानना नामकी एक कन्या थी । उस कन्याका मेरे मामाने मेरे साथ विवाह कर दिया और साथमें कुछ धन भी दिया । तब तो मैंने सब चिन्ता .छोड़ दी और धन कमाने आदि वातों पर कुछ भी ध्यान न दे निमित्त-शास्त्रके
अध्ययनमें अपना मन लगाया । धीरे धीरे मेरे मामाका दिया हुआ जब सव धन खर्च हो चुका तव मेरी स्त्री वहुत खिन्न हुई और एक दिन भोजनके समय उसने क्रोधभरे शब्दोंमे मुझसे कहा कि क्या यह धन तुम्हीने कमाया था! यह कह कर उसने क्रोधके साथ निमित्त ज्ञानकी बातें जानने के उपयोगमें आनेवाली कोड़ियोंको मेरे सामने फैक दी, जो वहीं पड़ी हुई थीं । उनसे मैंने यह निश्चय किया कि पोदनापुरके नरेशके मस्तक पर वज्रपात होगा । और जो भोजन करनेकी स्फटिककी थाली में प्रतिविम्बित मेरी मूर्ति पर सूरजकी किरणें पड़ रही थी तथा उसी समय मेरी मूर्ति पर मेरी स्त्रीने हाथ धोनेके जलकी जो धारा डाल दी थी उससे मैंने यह जाना कि मुझे अभिषेक पूर्वक राज-लाभ होगा। मेरा नाम अमोघजिह्व है । मैंने ऊपर कहे हुए निमित्तसे जान कर ही आपको सूचना दी है। दूसरा और कोई कारण नहीं।
यह सुन राजाने उसे तो विदा कर दिया और बाद कुछ सोच-विचार कर मंत्रियोंको बुलाया। उनसे उसने कहा कि एक बड़ा भयंकर समाचार है ! और वह यह है कि आजसे सातवें दिन पोदनापुरके राजाके ऊपर वज्रापात होगा! यह सुन सुमति मंत्री बोला कि इसके लिए कोई चिन्ता करनेकी बात नहीं है । आपको हम एक लोहे के सन्दूकमें बन्द करके समुद्रके भीतर छोड़ देंगे, इससे आपकी रक्षा हो जायगी। इस पर सुबुद्धिने कहा कि समुद्रमें तो मगर मच्छके निगल जानेका
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पाण्डव-पुराण । भय है, इस लिए वहाँ न छोड़ कर आपको विजयार्द्धकी गुफामें हम लोग छिपा देगे । उनकी ये बातें सुन कर बुद्धिसागर मंत्री वोला कि मै एक प्रसिद्ध कहानी कहता हूँ; उसे सुनिए।
सिंहपुरमें एक दुष्ट तपस्वी रहता था। उसका नाम सोम था । वह वादविवादका बहुत प्रेमी था । एक दिन शास्त्रार्थमें उसे जिनदासने जीत लिया, जिससे वह बहुत लज्जित और दुखी हुआ; तथा खोटे परिणामोंसे मर कर भैसा हुआ। उसका स्वामी उस पर विल्कुल दया नहीं करता था, किन्तु उसे हमेशा ही बोझा ढोनेके काममें लगाये रखता था । बोझा ढोनेके कारण वह धीरे धीरे दुवला हो गया। उस समय उसे अपने पहले भवोकी याद हो आई और वह वहाँसे भी वैर वॉध कर मरा और मसानभूमिमें दुष्ट राक्षस हुआ। सिंहपुरमें दो राजा थे; एक भीम और दूसरा कुंभ । कुंभका रसोइया बहुत ही चतुर था । लोग उसको रसायनपाक नामसे पुकारते थे। वह हमेशा राजाको मांस पका कर खानेके लिए देता था। एक दिन उसने राजाको मनुष्यका मांस पका कर खिलाया । वह राजाको बहुत स्वादिष्ट मालूम पड़ा । राजा लोलुपताके वश हो रसोइयासे बोला कि तुझे रोज ऐसा ही अच्छा मांस पकाना चाहिए । रसोइया जी हाँ, हुजूर कह कर उस दिनसे मनुष्यका मांस पका-पका कर राजाको खिलाने लगा । जव यह बात शहरके लोगोंको मालूम पड़ी कि यह दुष्ट राजा मनुष्य-भक्षक है तब उन्होंने एकता करके उसे नगरसे वाहिर निकाल दिया। मंत्री वगैरहने भी उस दुष्टका साथ न दिया। केवल उसके साथ एक मात्र रसोइया रह गया। दुष्ट राजाने एक दिन उसे भी मार कर खा डाला । अब वह पहिले कहे हुए राक्षसकी आराधना कर उसकी सहायतासे मजाके लोगोंको मार मार कर खाने लगा और नगरके वाहिर घूमने लगा । उस समय लोग बहुत ही भयभीत हुए। उन्होंने सिंहपुरमें रहना ही छोड़ दिया और कुंभकारपुर नामक पुरको वसा कर वे वहाँ रहने लगे। उन्होंने दुखी हो कहा कि हे राक्षस ! तू प्रति दिन एक आदमी और एक गाड़ी अन्न ले लिया कर; परन्तु और और मनुष्यों पर तो दयादृष्टि कर। . .
वहीं पर एक चंडकौशिक नाम वाइव (जाति) रता था । उसकी स्त्रीका नाम सोमश्री था । सोमश्रीके भूतोंकी सेवा-उपासनाके प्रभावसे मौड्यकौशिक
नाम पुत्र हुआ था। क्रमशः राक्षसके पास जानेकी मौड्यकौशिककी भी वारी .. आई । प्रतिदिनकी नॉई अन्नकी गाड़ीके साथ वह भेजा गया । वह कुंभके
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चौथा अध्याय ।
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पास पहुॅचा । उसे देख कर कुंभ उसको खानेके लिए झपटा। तब भूतोंसे न रहा गया। वे कुंभपर टूट पड़े और उन्होंने कुंभकी डंडों, लातों और हाथोंसे खूब खबर ली और उसे लेजा कर एक अजगर के बिलंमें डाल दिया । अजगर उसे एक क्षणमें ही निगल गया । जब कि कर्मके निमित्तसे ही सब कुछ होता है। तब बताओ कि राजाको विजयार्द्धकी गुफामें डालनेसे भी क्या लाभ होगा 1 मेरी सम्मति है कि जैसा कर्मका उदय होगा वैसा तो होकर ही रहेगा फिर उटपटांग उपायको काममें लानेसे फल ही क्या है ? यह सुन मतिसागरने हितकर वचनोंमें कहा कि निमित्तज्ञानीने वज्रपातका होना पोदनापुरके राजाके ऊपर बताया है; किसी खासके ऊपर तो बताया ही नहीं है । तब दुःख और रंजकी कोई बात ही नहीं है । सात दिनके लिए किसी और व्यक्तिको राजा बना कर सिंहासन पर बैठा दिया जाना चाहिए। यह सुन युक्ति- विशारद सभी मंत्रियोंने मतिसागरकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की । इसके बाद सबकी सम्मति से राज सिंहासन पर राजाके प्रतिबिंबकी स्थापना कर दी गई। सवने “यही पोदनापुरका स्वामी है " इस बुद्धिसे उसे नमस्कार किया और उसकी आज्ञा शिरोधार्य की ।
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उधर राजा श्रीविजयने राज-काज छोड़-छाड़ कर प्रभुकी सेवा - भक्ति में मन लगाया । वे गरीवोंको दान देने लगे और मन्दिरों में शान्तिका देनेवाला शान्ति महोत्सव करने लगे । धीरे धीरे सातवाँ दिन आया और निमित्तज्ञानीके कहे अनुसार राजाके प्रतिविम्व पर वज्रपात हुआ । जब सब उपद्रव शान्त हो चुका तब शहर के लोगोंने भाँति भॉतिके बाजों और नटी नटोंके नृत्य-गान के द्वारा खूब महोत्सव किया : और उस निमित्तज्ञानीको पद्मिनीखेट सहित सौ गाँव भेट देकर वस्त्र आभूषणोंसे उसका खूब आदर सत्कार किया ।
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इसके बाद मंत्रियोंने सोनेके कलशोंसे अभिषेक कर श्रीविजयको धूमधामके साथ फिर राज - सिंहासन पर विराजमान कर दिया उन्हें फिर अपना राजा बना लिया । एक दिन अपनी माता स्वयंप्रभासे आकाशगामिनी विद्या लेकर वह सुतारा सहित ज्योतिर्वन में क्रीड़ा करनेको गये । वहाँ उन्होंने सुताराके साथ खूब मनचाही क्रीड़ा की ।
चमरचंच पुरीका राजा इन्द्राशनि था । उसका अशनिघोष नामक एक पुत्र था। वह सूरज पर्यन्तका स्वामी था और बड़ा मीठा बोलनेवाला था । वह भ्रामरीविद्याको साध कर वनसे अपने शहरको वापिस लौटा जा रहा था । इतने -
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पाण्डव-पुराण। में उसकी दृष्टि नाना लक्षणोंसे युक्त सुतारा रानी पर जा पड़ी । उसे देख कर उसका मन ललचा गया और वह उसे ले जानेके लिए उद्यत हो गया । उसने छलसे राजाके सन्मुख एक माया-मय मृग छोड़ा। वह नृत्य करता हुआ बहुत ही मनोहर जान पड़ता था। उसे देख कर मनोरमा सुताराने पतिदेवसे कहा कि हे प्रिय ! आप इस सुन्दर हिरणको दिल बहलानेके लिए पकड़ लाइए । सुताराके कहने पर राजा तो मृगको पकड़ लानेके लिए चला गया और इधर अशनिघोषने राजाका रूप धर कर सुताराके पास आकर कहा कि प्रिये ! आओ कुछ जल्दी है, अतएव सूर्यास्तके पहिले पहिले हम नगरको पहुच जाय । इतना कह कर वह सुताराको विमानमें बैठा कर आकाश मार्गसे ले चला । कुछ दूर पहुँच कर उस.कामीने अपना वास्तव रूप प्रगट किया, जिसको देख कर सुतारा बड़ी चिन्तित हुई। वह सोचने लगी कि यह कौन है ? उधर जब वह माया-मय मृग राजाके हाथ न आया और बहुत दूर निकल गया तव श्रीविजय वापिस लौट कर उसी स्थान पर आये, जहाँ वे सुताराको छोड़ गये थे । वहाँ उन्होंने वैताली विद्याको सुताराके रूपमें बैठी हुई देखा, जो अशनिघोषकी आज्ञासे वहाँ सुताराका रूप धर कर बैठी थी और यह कह रही थी कि मुझे कुक्कर नाय सर्पने काट खाया है । उसे देख कर मालूम पड़ता था मानो वह मर रही है । उसे इस दशामें देख कर श्रीविजय बड़े व्याकुल हुए। उन्होंने मणि, मंत्र, औषध आदिके बहुतसे उपचार किये पर जब कुछ भी फल न हुआ तब समझा कि यह विष वड़ा विषम और प्राणोंको हरनेवाला है। इसका उतरना बहुत ही कठिन है । अन्तमें वह भी उसके साथ मरनेको तैयार होगये । उन्होंने चिता बना कर उस पर सुताराको रख दिया और सूर्यकान्त मणिसे आग जला कर चिताको सुलगा दिया । इसके बाद वह स्वयं आकुल हो चितामें कूदनेके लिए पैर रखनेको ही थे कि इतनेमें आकाशसे उनके पास दो विद्याधर आ पहुँचे और उन्होंने विच्छेदिनी विद्याके द्वारा उस वैताली विद्याको नष्ट कर अपने वायें पैरसे उसके एक जोरकी ठोकर लगाई, जिसे न सह कर वह अपना वास्तविक रूप प्रगट कर उसी समय अदृश्य हो गई।
यह देख श्रीविजयको बहुत ही अचंभा हुआ । उन्होंने विद्याधरोंसे पूछा कि, यह वात.क्या है ? उन्होंने उसकी कथा इस भॉति कहना प्रारंभ की
भरतक्षेत्रके विजयार्द्ध पर्वतकी उत्तर श्रेणी में एक ज्योति प्रभपुरं नाम नगर है । वहाँका मैं राजा हूँ । मेरा नाम संभिन्न है। मेरी प्यारी स्त्रीका नाम सर्वकल्याणी है । और यह द्वीपशिख नाम मेरा सुखी और सुकुमार पुत्र है । स्थन् ।
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पुरके राजा अमिततेज हमारे स्वामी हैं । मै उनके साथ-साथ शिखरतल उद्यान में क्रीड़ा करनेके लिए गया था। वहॉसे लौट कर आकाश-मार्गसे जाते हुए मैने एक वडा भारी विमान जाते देखा और यह आर्तवाणी सुनी कि मेरा स्वामी जयी श्रीविजय नरेश कहाँ है ! हे रथनूपुरके स्वामी अमिततेज! तुम मेरी रक्षा करो। यहाँ आकर अपना प्रभाव दिखाओ । यह सुन मैं उस विमानके पास गया और उसमें बैठे हुए व्यक्तिको नमस्कार कर मैंने पूछा कि तुम कौन हो और यह कौन है जिसे तुम बलात् लिये जाते हो । यह सुन अशनिघोप क्रुद्ध हो वोला कि मेरा नाम अशनिघोष है, मैं विद्याधर हूँ और चमरचंच पुरका राजा हूँ । यह सुतारा है
और इसे मैं जबरदस्ती हरे लिये जाता हूँ । यदि तुममें शक्ति हो तो तुम दोनों इसे छुड़ानेका प्रयत्न करो । सुन कर मैंने सोचा कि यह मेरे स्वामीकी बहिन है
और इसे यह हरे लिये जाता है । ऐसे समय मेरा चुप रहना ठीक नहीं है । इसे मार कर मै इसकी रक्षा अवश्य करूँगा। इतना सोच कर मैं युद्धको तैयार हो गया। मुझे युद्धके लिए उद्यत देख सुतारा वोली कि तुम युद्ध मत छेड़ो; किन्तु ज्योतिवनमें पोदनापुर-नायक मेरे पति श्रीविजय हैं, उनके पास जाकर उनसे मेरा सब हाल कह दो । अतः मै सुताराका भेजा हुआ यहाँ आपके पास आया हूँ। और जो यहाँ सुतारा बैठी थी वह सुतारा न थी; किन्तु अशनिघोपकी सिखाई हुई वैताली विद्या उसके रूपमें थी । इसी लिए वह मेरी ताड़नासे भाग गई है। यह सुन राजाने उस विद्याधरसे कहा कि कृपा कर तुम पोदनापुर जाकर वहाँ मेरी माता, छोटे भाई और बन्धुओंसे यह सब समाचार कह दो । राजाके कहनेसे विद्याधरने उसी समय अपने पुत्र द्वीपशिखको जो उसीके साथ था, शीघ्र ही पोदनापुर भेज दिया। उधर पोदनापुरमें भी इस समय बड़े उपद्रव हो रहे थे। उनको देख कर वहाँ अमोघनित और जयगुप्त नामक निमित्तज्ञानियोंसे पूछा गया कि इन उपद्रवोंका क्या फल है ? उन्होंने कहा कि श्रीविजय नरेश पर कोई आपत्ति आई थी; परंतु वह अब कुछ दूर हो गई है तथा अभी थोड़ी देरमें ही कोई उनकी कुशल-वार्ता लेकर यहॉ आयेगा। तुम स्वस्थ हो, भय मत करो। निमित्वज्ञानीके इन वचनोंको सुन कर स्वयंप्रभा आदि सब सन्तुष्ट होकर पहिलेकी भाँति ही अपने काम-काज करने लगे । इतनेमें ही आकाशसे द्वीपशिख पृथ्वीतल पर आया और उसने स्वयंप्रभाको प्रणाम कर उससे विजयनरेशकी सब कथा कह कर कहा कि श्रीविजय नरेश कुशल हैं; आप लोग किसी प्रकारकी चिन्ता न करें। इसके बाद द्वीपशिखने सुताराके हरे जाने आदिका सव हाल
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पाडण्व-पुराण। कहा, जिसको सुन कर स्वयंप्रभा दावानलसे जली हुई वेलके समान मुरझा गई अथवा बुझते हुए दीयेकी प्रभा रहित शिखाके समान तेजहीन हो गई; या यों कहिए कि जिस तरह मेघकी ध्वनिको सुन कर हंसिनी शोकमें डूब जाती है उसी तरह वह भी पूत्रवधूके हरे जानेको सुन कर बहुत शोकाकुल हुई । इसके बाद ही वह विद्याधरों तथा पुत्रोंको साथ लेकर चतुरंग सेना-सहित उसी वनमें पहुंची जहाँ श्रीविजय थे । अपनी माता स्वयंप्रभाको आती हुई देख कर उसके पास आ श्रीविजयने उसे छोटे भाइयों-सहित नमस्कार किया । दुःखिनी माताने पुत्रको देख कर कहा कि उठो, वत्स उठो, घरको चलो और शोक छोड़ो । माताकी आज्ञासे श्रीविजय आदि सव नगरको लौट आये । वहाँ आकर जब पुत्र शान्तचित्त हुआ तव स्वयंप्रभाने उससे सुताराके हरे जानेका सारा हाल पूछा । श्रीविजयने मातासे सबका सब हाल जैसाका तैसा कह कर कहा कि माता! यह संभिम विद्याधर हम लोगोंका बड़ा उपकारी है । यह बुद्धिमान् आमिततेजका सेवक है। इसने हमारे साथ जो कुछ उपकार किया है वह वचनातीत है।।
इसके बाद श्रीविजय, माता और अपने छोटे भाई विजयभद्रसे सलाह कर तथा विजयभद्रको पोदनापुरकी रक्षाके लिए छोड़ कर माताके साथ विमानमें बैंठ स्थनपुर पहुँचे । पुत्र-सहित अपनी भुआको आया जान कर अमिततेज अगवानीके लिए नगरके वाहिर आया और उन्हें लेजाकर उसने एक उत्तम स्थानमें ठहराया। इसके बाद स्वयंप्रभाने अमिततेजके पास आकर उससे अशनिघोषका सारा हाल कहा । उसे सुन कर अमिततेजने अशनिघोषके पास अपना दूत भेजा । दूतका नाम मरीचि था । वह अशनिघोपके पास पहुँचा । अशनिघोषने उसे निष्ठुर और कर्कश वचन कह कर फटकारा । इतने वापिस आकर अशनिघोषके जैसेके तैसे वचन अमिततेजसे कहे। इसके बाद अमिततेजने मंत्रियोंसे सलाह कर अशनिघोषका नाश करनेका संकल्प किया और श्रीविजयको युद्धवीय, अनवारण और वंधमोचन ये तीन विद्यायें जो उसकी परम्परासे चली आ रही थीं, देकर तथा रस्मिवेग सुवेग आदि पुत्रोंको साथ भेज कर उसे शत्रुके साथ युद्ध करनेको भेजा। और स्वयं सहस्र नाम अपने बड़े पुत्रको साथ ले ह्रीमंत पर्वत पर गया और वहाँ संजयंत मुनिके चरणोंमें बैठ कर अन्य विद्याओंको नष्ट करनेवाली महाज्वाला नामकी विद्या सिद्ध करने लगा । इधर दुष्ट अशनिघोषने श्रीविजयको आया सुन कर रस्मिवेग आदिके साथ युद्ध करनेको सुघोष, : शतघोष और सहस्रघोष आदि अपने पुत्रोंको भेजा। वे सब श्रीविजयके विद्या- ।
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चौथा अध्याय। धरोंके साथ लड़ाईमें मारे गये। यह सुन अशनिघोषको बहुत क्रोध आया। तव वह स्वयं युद्ध के लिए आ चढ़ा । दोनोंमें घमासान युद्ध होने लगा । युद्धभूमि कोलाहलसे पूर्ण हो गई । वैरीफे शरीरको खंड खंड करने के लिए श्रीविजय जो वाण छोड़ता था, उन्हें अशनिघोष भ्रामरीविद्याके वळसे नष्ट कर अपने दूने रूप बनाता जाता था। इसी तरह ज्यों ज्यों श्रीविजय वाणोंके द्वारा उसके शरीरको खंड खंड करता जाता था त्यो त्यों वह अपने रूपोंको अनेक बनाता जाता था । थोड़ी ही देरमें सारा युद्धस्थल अशनिघोष-मय देख पड़ने लगा। उधरसे सब विद्याओंका स्वामी रथनूपुरका अधिपति अमिततेज भी महाज्वाला विद्याको सिद्ध कर युद्धस्थलमें आ पहुंचा और पंद्रह दिन वरापर युद्ध कर उसने महाज्वालाके प्रभावसे अशनिघोपकी सारी विद्याएँ नष्ट कर दी। तब अशनिघोष बहुत ही लज्जित हुआ और वहॉसे भाग कर वह भयके मारे कैलाश पर्वत पर विजय भगवानकी सभामें जा छिपा । उसके पीछे पीछे और और राजगण भी उसके पकड़नेको वहॉ जा पहुंचे। पर वे सब मानस्तंभोंको देखते ही मान-रहित हो शान्तचित्त हो गये उनका जो कुछ वैर-विरोध था वह सब मिट गया। उन्होंने भगवान्की तीन प्रदक्षिणा देकर उन्हें नमस्कार किया और सबके सव एक साथ बैठ गये । इसी समय वहाँ अशनिघोषकी माता आसुरी भी साथमें सुताराको लेकर आ गई । वह उनसे वोली कि मेरे पुत्रका जो अपराध हुआ है उसे आप दोनो ही क्षमा करो। इतना कह कर उसने श्रीविजय और अमिततेजको सुतारा सौंप दी । इसके बाद अमिततेजके पूछने पर विजय भगवान धर्मका उपदेश करने लगे । उन्होंने सम्यग्दर्शन व्रत और तत्त्वोंका व्याख्यान किया। उसे सुन कर अमिततेजने पूछा कि भगवन् ! यह बताइए कि अशनिघोपने मेरी बहिन सुताराको क्यों हरा ? इसके उत्तरमें भगवान् बोले कि मैं. इसका कारण बताता हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो।
भरतक्षेत्रके मगधदेशमें अचलग्राम नामक एक गॉव है । वहाँ एक धरणीघर नाम ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्रीका नाम अग्निला था । उसके इन्द्रभूति और अभिभूति नाम दो पुत्र हुए। वे बहुत सुन्दर थे । इनके सिवा धरणीधरके एक दासी पुत्र भी था। उसका नाम था कपिल । वह हमेशा वेदके पढ़नेमें लगा रहता था। थोड़े ही समयमें वह वेदका अच्छा जानकार पण्डित हो गया। उसे ऐसा देख कर ईसे धरणीधरने घरसे निकाल दिया। पिताके इस वर्तावसे वह बहुत खेदखिन्न हुआ। घरसे निकल कर थोड़े ही दिनोंमें रह रत्नपुर पहुंचा।
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पाण्डव-पुराण।
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वहाँ एक सत्यकि नाम ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्रीका नाम जाम्बू था। उसके एक सत्यभामा नाम पुत्री थी। एक दिन कपिलको देख कर सत्यकिने सोचा कि यह लड़का वेदका पाठी अच्छा विद्वान् है । इसके साथ कन्या ब्याह देना योग्य
और शास्त्रके अनुकूल है । इसके बाद उसने कपिलके साथ विधि-पूर्वक सत्यभामाका विवाह कर दिया । कपिल वहाँ रह कर थोड़े ही दिनोंमें खूब धनी हो गया। राजाकी ओरसे भी उसकी पूछताछ होने लगी । जब धरणीधरने सुना कि कपिल खूब धनाढ्य और राज्यमान हो गया है तब वह दरिद्री दरिद्रता नष्ट करनेके लिए उसके पास रत्नपुर आया । कपिलने उसे दूरसे आता देख उठ कर नमस्कार किया और लोगोंमें ऐसी प्रसिद्धि कर दी कि यह मेरा पिता है। धरणीधरने भी लोगोंसे यही कहा कि यह मेरा प्रिय पुत्र है । कपिलने धरणीधरको धन, . वस्त्र, आभूषण आदि खूब सम्पत्ति दी जिससे उसकी दरिद्रता दूर हो गई और वह एक भला मानस बन गया । एक दिन सत्यभामाने धन, वस्त्र आदिसे धरणीधरका खूब आदर सत्कार कर भक्तिभाव दिखाते हुए एकान्तमें पूछा कि कपिलजी क्या सचमुच ही ये आपके पुत्र हैं ? धरणीधर लोभके वश कपिलकी सारी कथा सत्यभामाको सुना कर उसी समय दूसरे देशको रवाना हो गया। सच है धन मनुष्यसे क्या क्या काम नहीं करा लेता।
स्थनूपुरका राजा श्रीषेण था। उसकी दो रानियाँ थीं। एक सिंहनंदिता और दूसरी आनंदिता । उसके इन्द्र और उपेंद्र नाम दो पुत्र थे। पतिके ऐसे चरितको सुन कर सत्यभामा श्रीषेणकी शरणमें आई और उसने महाराजसे अपने पतिका सारा हाल जैसा सुना था कह दिया, जिसको सुन कर राजाने कपिलको शहर वाहिर निकाल देनेकी आज्ञा देदी। एक दिन श्रीपेणके यहाँ दो चारणमुनि आये। उनके नाम अमितगति और अरिंजय थे । उनको राजाने पड़गाहा और नमस्कार आदि कर विधि-पूर्वक आहार दिया, जिससे राजाको अतिशय पुण्य-लाभ हुआ । श्रीषेणकी दोनों रानियों और सत्यभामाने मुनिदानकी अनुमोदना की, जिसके प्रभावसे उन्होंने राजाके साथ साथ उत्तम भोगभूमिकी तीन पल्यकी आयुका बंध किया । कौशाम्बीका राजा महाबल था । उसकी रानीका नाम श्रीमती था । उसके एक श्रीकान्ता नामकी पुत्री थी । महावलने श्रीकान्ताका विवाह इन्द्रसेनके साथ कर दिया था और श्रीकान्ताके साथ इन्द्रको , एक दासी प्रदान की थी। दैवयोगसे वह दासी उपेन्द्रसेन पर आसक्त हो गई। यह वात जब इन्द्रसेनके कानों पहुंची तब उसे बड़ा क्रोध आया और वह उपेन्द्रके ,
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साथ युद्ध करने को तैयार हो गया । दोनों भाई भाईमें युद्धकी तैयारी सुन कर श्रीपेण उनकी लड़ाई निवटानेके लिए उनके पास गया । उन्हें बहुत कुछ समझाया, पर वह सफल न हुआ । तब उसे बहुत ग्लानि हुई और अपना कहना न मानने के कारण दुःख मे उसने स्वयं विपका फूल सूंघ कर आत्महत्या करली | श्रीपेणकी यह दशा देख दोनों रानियों और सत्यभामाने भी विपफूल सूँघ कर आत्मघात कर लिया । श्रीपेण और रानी सिंहनंदिताका जीव मर कर घातकीखंड दीपकी उत्तरकुरु नाम उत्तम भोगभूमिमें युगल उत्पन्न हुए । एवं अनिंदिता और सत्यभामा जीव भी युगल उत्पन्न हुए । इनमें अनिंदिताका जीव तो खीलिंग छेद कर पुरुष हुआ था और सत्यभामा उसकी स्त्री हुई थी । उनकी आयु तीन पल्यकी थी । वे सबके सब वहॉ कल्पवृक्षोंके सुख भोगते थे और सुखचैन से अपना समय बिताते थे । आयु पूरी होने पर मर कर शेष पुण्य के प्रभावसे वे देव गतिमें गये । श्रीपेणका जीव सौधर्म स्वर्गमें श्रीप्रभ नाम देव हुआ और सिंहनंदिताका जीव उसकी विद्युत्प्रभा नाम देवी हुई । एवं अनिंदिताका जीव विमलभ विमानमें भवदेव नाम देव और सत्यभामाका जीव उसी विमान में शुक्लममा नाम उसकी देवी हुई । उनकी आयु पॉच पल्यकी थी । आयु पर्यन्त स्वर्गके सुखोंको भोग कर वे वहाँसे चय कर श्रीपेणका जीव तो तुम अमिततेज हुए हो और सिंहनंहिताका जीव ज्योतिःप्रभा नाम तुम्हारी कान्ता हुई है । एवं अनिंदिताका जीव श्रीविजय और सत्यभामाका जीव सुतारा हुई है । उधर उस दुष्ट कपिलके जीवने बहुत काल तक संसार परिभ्रमण कर अनन्त दुःख उठाये । सच है पायसे जीवोंको घोरातिघोर दुःख उठाने पड़ते हैं । भूतरमण वनमें ऐशवती नदी के किनारे तापसियोंका एक आश्रम था । उसमें एक कौशिक नाम तापस रहता था । उसकी स्त्रीका नाम चपलवेगा था । कपिलका जीव उसके वहाँ मृगशंग नाम पुत्र हुआ । वह भी तापस हो गया। एक दिन मृगांगने चपलवेग नाम विद्याधरोंके राजाकी विभूतिको देख कर यह निदान किया कि अगले भवमें मैं इसके यहाॅ पुत्र जन्म धारण करूँ । राजन् ! निदानके प्रभाव से वह मृगशृंग ही चपलवेगके यहाँ यह अशनिघोष नाम पुत्र हुआ है । इसको हित अहितका कुछ भी विचार नहीं है । उसी स्नेहके वशीभूत हो इसने सुन्दरी सुताराको हरा था। अमिततेज ! तुम इस भवसे पाँचवें भवमें चक्रवर्ती, तीर्थंकर और कामदेव इन तीन पदोंके धारी महात्मा होओगे । यह कथा सुन कर अश निघोष, स्वयंप्रभा और सुतारा आदि तथा और बहुतसे सत्पुरुष उस समय
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संयम धारण कर साधु हो गये । इसके बाद भगवानको नमस्कार कर श्रीविजय आदि सब अमिततेजके साथ धुजा, तोरणोंसे सुसज्जित अपने अपने नगरोंको चले आये | नगरमै आकर अमिततेजने धर्म-साधनमें अधिक मन लगाया । वे पर्वदिनों में उपवास करते अपने किये हुए अपराधोंका प्रायश्चित लेते, भगवानकी पूजा और स्तुतिमें दत्तचित्त रहते, पात्रोंको दान देते तथा हमेशा धर्मकथामें लीन रहते । ऐसा करते करते उन्हें निर्मल और निर्दोष सम्यग्दर्शनकी प्राप्त हो गई थी। वे बड़े मंदकपायी और प्रेमसे पिताकी नई प्रजाका पालन करते थे; मुनियोंकी भाँति शान्तचित्त और धर्म-कर्म में लीन तथा उभय लोकसम्बन्धि हितके इच्छुक थे । वे बहुतसी विद्याओंके भंडार थे, जो कुल और जातिके निमित्तसे उन्हें प्राप्त हुई थीं । उनके नाम सुनिए । प्रज्ञप्ति, आग और जलको थांभनेवाली स्तंभिनी, कामरूपिणी, विश्वप्रकाशिका, अप्रतिघात- कामिनी, आकाशगामिनी, उत्पत्तिनी, वशंकरी, आवेशिनी, शत्रुदमा, प्रस्थापनी, आवर्तनी, प्रहरणी, प्रमोहनी, विपाटिनी, संक्रामणी, संग्रणी, भंजनी, प्रवर्तिनी, प्रतापनी, प्रभावती, पलायिनी, निक्षेपिणी, चांडाली, शवरी, गौरी, खट्टांगिका, श्रीमृद्गुणी, शतसंकुला, मातंगी, रोहिणी, कुष्मांडी, वरवेगिका, महावेगा, मनोवेगा, चंडवेगा, लघुकरी, पर्णलघ्वी, चपलवेगा, वेगावती, महाज्वाला, शीतवैतालिका, उष्णतालिका, सर्वविद्या-समुच्छेदा, बंधप्रमोचिनी, प्रहारावरणी, युद्धवीर्या, चामरी और योगिनी इत्यादि । वे इन विद्याओं और दोनों श्रेणियोंके स्वामी थे; एवं संसार - प्रसिद्ध थे । पुण्यके उदयसे उन्हें भोग-विलासकी सब सामग्री यथेष्ट प्राप्त थी । एक दिन पुण्य-योगसे उनके यहाँ दमवर नाम चारण मुनि आहारको आये | अमिततेजने उन्हें विधि-पूर्वक आहार-दान दिया, जिसके प्रभावसे उनके यहाॅ पंचाश्वर्यकी वर्षा हुई ।
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एक समय अमिततेज और श्रीविजय दोनों वनमें विहार के लिए गये हुए थे । वहाँ उन्होंने सुरगुरु और देवगुरु नाम दो महर्षियोंको देखा । दोनोंने सुनियो को भक्तिभाव से नमस्कार कर उनसे धर्मका उपदेश सुना । इसके बाद श्रीविजयने उनसे नम्रता भरे शब्दों में पूछा कि प्रभो ! मेरी और मेरे पिनाकी पूर्वभवकी कथा कहिए । मुनिराजने श्रीविजय के पूर्वभवोंका और त्रिपृष्ट नारायणके विश्वनन्दिके भवसे लेकर कई एक भवका वर्णन किया । श्रीविजयने पिताके माहात्म्यको सुन कर उनके पदकी प्राप्तिका निदान बाँधा | बाद खेचरों और भूचरों
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दोनोंने विपुलमति उनकी आयु अव श्रद्धाभक्ति के साथ अर्कतेजको और
द्वारा सेवित वे दोनों अपने अपने नगरको चले आये और वहॉ सुखामृतका पान करते हुए सुखसे काल विताने लगे । एक वार इन और विमलमति नाम मुनीश्वरोंके मुख-कमलसे यह सुना कि केवलं एक ही महीनेकी शेष रह गई है । यह सुन वे और भी तन- मनसे धर्मपालन करने लगे । इसके बाद अमिततेजने श्रीविजयने श्रीदत्त को राज-पाट सौंप कर भक्तिसे अष्टाहिक पूजा की और दोनों नंदनवन के पास के चंदनवनमें गये । वहाँ उन्होंने मुनियोंके समागममें प्रायोपगमन नाम संन्यास धारण किया और शान्त परिणामोंसे प्राणोंका त्याग कर वे स्वर्गमें देव हुए। अमिततेजका जीव तेरहवें स्वर्गके नंद्यावर्त विमानमें रविचूलक और श्रीविजयका जीव उसी स्वर्गके स्वस्तिक विमानमें मणिचूलक नाम देव हुआ । वहाँ उनकी बीस सागरकी आयु हुई । आयुपर्यन्त सुख भोग कर वे वहाँसे चय इसी जम्बूदीपके पूर्व विदेहमें वत्सकावती देशकी प्रभाकरी नगरीमें स्तिमितसागर राजाके यहाँ पुत्र हुए।
स्तिमितसागर की दो रानियाँ थीं; एक वसुंधरा और दूसरी अनुमति । इनमें से वसुंधराके गर्भ से रविचूलकका जीव अपराजित और अनुमतिके गर्भसे मणिचूलकका जीव अनंतवीर्य पुत्र हुआ। वे दोनों जगतके नेत्र-कमलोंको मकुलित करनेवाले और सदाकाल ही उदित रहनेवाले सूरज थे; लक्ष्मीको आनन्द देनेवाले और धीरवीर थे । जव वे दोनों युवा हुए तब स्तिमितसागर किसी कारण - वश संसार-भोगोंसे विरक्त हो, पुत्रों पर राज-भार डाल, वनमें जा स्वयंप्रभ गुरुके पास दीक्षित हो गया । दैवयोगसे एक दिन स्तिमितसागरने धरणेन्द्रकी विभूति देखी और उसके पानेका निदान किया । निदानके प्रभावसे वह मर कर धरणेन्द्र ही हुआ । ग्रन्थकार कहते हैं कि आत्मिक सुखको नष्ट करनेवाले निदान बंधको धिक्कार है । इधर अपराजित और अनंतवीर्य पृथ्वीका भरण-पोषण करते हुए इन्द्र और प्रतीन्द्रके जैसे सुशोभित होते थे। एक दिन उनकी सेवामें किसी राजाने वर्वरी और चिलातिका नामकी दो नर्तकी भेजीं । वे बहुत ही मनोहारी सुखदाई नृत्य करती थीं । उनका नृत्य देखनेको और और बहुत से राजोंके साथ वे दोनों भाई भी नाट्यशाला में बैठे हुए थे। उस समय उनकी अपूर्व ही शोभा थी । दैवयोग से उसी समय उन्हें देखने को वहाँ नारद आये; परन्तु अपराजित और अनन्तवीर्य - का उपयोग नृत्यकी ओर लग रहा था, इस लिए उन्होंने नारदको न देख पाया ।
पाण्डव-पुराण १०
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पाण्डव-पुराण । mmmmmmmmmmmmmmm wome . . . . .nw or mamer marrammmmmanm
इससे अपना अपमान समझ नारद जल-भुन कर आग-बबूला हो गये; और उसी समय कॅवार मासके सूरजकी नाई तरते हुए जीयोका अनिष्ट करनेवाले नारद दमतारि प्रतिनारायणके नगर पहुँचे । दमतारि सिंहासन पर विराजमान था। बहुतसे सभ्यगण उसकी सेवामें उपस्थित थे। यह महापुरुप बहुत गौरव-युक्त था। मनोरथकी सिद्धिकी लालसासे सभी जन आ-आ कर उसकी उपासना-सेवा करते थे । उसको देख कर नारदजी आकाशसे पृथ्वीतल पर उतरे और दमतारिको शुभ आशीर्वाद देकर सभामण्डपमें आ खड़े हुए। उन्हें देखते ही राजा सिंहासन छोड़ कर उठ खड़ा हुआ और उसने नमस्कार कर उन्हें बड़े आव-आदरके साथ मनोहर सिंहासन पर बैठाया । इसके बाद दमतारि बोला, महाराज ! आप भक्तों पर प्रेमकी दृष्टिसे देखनेवाले अन्योत्तम है, संसार-पारेभ्रमणको मिटानेवाले
और जीवोंको विभूति देकर सुखी करनेवाले हैं, एवं आप सब तरह सुशोभित हैं । कहिए कि आज आपका यहाँ पधारना कैसे हुगा । यह सुन नारदजी बोले, राजन् ! सुनिए । मैं हमेशा आपके योग्य सारसूत और उत्तम पदार्थोकी खोजमें इधर उधर घूमा करता हूँ । मैंने कल रंभा और उर्वशीके समान दो दर्तकियोंको प्रभाकरीपुरीके राजा अपराजित और अनंतचीर्यकी सभागे नृत्य करते हुए देखा और इसी समाचारको लेकर मैं आपके पास आया हूँ । कारण वे दोनों आपके ही योग्य हैं । अतः घुझसे यह अनिष्ट सहन नहीं हुआ और मैं शीघ्र ही यहाँ चला आया हूँ । सभी मानते हैं कि शिरोधार्य चूडानणि रत्न यदि पैरमें पहिन लिया जाय तो किसीको भी सहन न होगा । राजन् ! जिस तरह अमूल्य मणि रंक-दरिद्री पुरुषके यहाँ शोभा नहीं पाता, वह राजों, रईसों, साहूकारोंके यहॉ ही शोभित होता है उसी तरह वे नर्तकी भी अपराजित और अनंतवीर्यके यहॉ शोभा नहीं पाती; वे आप जैसे महापुरुपके यहाँ ही शोमा पावेंगी । यह सुन दमतारिने उसी समय कुछ मेंट देकर दूतको अपराजित और अनंतवीर्यके पास भेजा, जो बहुत ही चतुर और समयोचित कार्यों में कुशल था। प्रभाकरीपुरीमें पहुँच कर उसने उन पुरुषोत्तमोको सभामंडपमें बैठे हुए देखा और उनके भागे भेंट रख कर उन्हें नमस्कार किया तथा कहा कि रागन् ! आप महानुभावों के लिए दमतारि रतिनारायणने कुशलका संदेशा भेजा है तथा मुझे आपके पास भेज कर आपसे उन दो नर्तकियोंकी याचना की है जो कि आपके पास है । कृपा कर आप उन दोनों-वरी और चिलातिका-नर्तकियोंको उन्हें दे दीजिए । इससे परस्परमें बहुत ही गाढ़ी प्रीति हो जाएगी । यह सुन उन
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चौथा अध्याय।
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सखिक नर्तकी पातली कलाये । उसे लेकर का मजाक
अपनी कनकश्रीको ले गा । दैवयोगसे बहकमय
दोनोंने दूतको तो वाहिर भेज दिया और मंत्रियोंको भीतर बुला कर उनसे पूछा कि इस समय क्या कर्तव्य है ? इसनेमें पुण्ययोगसे अमिततेजके भवमें जो जो विद्यायें प्राश थीं वे सब आकर अपराजितसे कहने लगी कि हम शत्रको तहस-नहस करने के लिए समर्थ हैं। आप किसी भी तरहकी चिन्ता न करें । इतना कह-कर वे विधायें अपराजितका काम करनेको उचत हो गई। तब व दोनों भाई प्रभाकरी राजधानीकी रक्षाके लिए मंत्रीको नियत कर तथा स्वयं नर्तकियोंका रूप बना कर दूतके साथ-साथ वहॉसे शिवमन्दिरपुरको चल पड़े और थोड़ी ही देर वहाँ जा पहुँचे । वहाँ उन्होंने मतारिके सामने बहुत ही उत्तम नृत्य किया, जिसको देख कर उसे बहुत अचम्भा हुआ । खुश होकर उसने नृत्यकला सीखने के लिए अपनी कनकधी पुत्रीको उनके साथ कर दिया-उन्हें सौंप दिया । वे नर्तकी-रूपधारी कनकनीको ले गये और उन्होंने उसे यथायोग्य नृत्य गीत आदि बहुतसी कलायें सिखा दी । दैवयोगसे वह कन्या अनंतवीर्य पर आसक्त हो गई । तब ने दोनों उसे लेकर आकाशमें चले गये । यह सव समाचार सुन कर दमतारिने बहुतसे योधाओंको भेजा; परन्तु अपराजितने उन्हें एक मिनटमें ही मार भगाया । तव क्रुद्ध होकर दमतारिने
और और सुभटाको भेजनेकी योजना की, पर वे भी अपराजितके सामने न ठहर सके । आखिर वह स्वयं ही युद्ध करनेको तैयार हुआ और सोचने लगा कि यह नर्तकियोंका प्रभाव नहीं है, किन्तु कुछ छल है । इसके बाद पूर्वभवको प्राप्त हुई विद्याओं के द्वारा अपराजितने दयतारिके साथ खूब ही घमासान युद्ध किया । तथा दमतारिके साथ अनंतवीर्यका भी बहुत देर तक युद्ध हुआ। आखिरमें क्रुद्ध हो दमतारिने चक्रियोंको भी डरा देनेवाला चक्र लिया
और उसे अनंतवीर्य पर चलाया । पुण्य योगसे वह अनंतवीर्यकी प्रदक्षिणा देकर उसके हाथमें आ पहुंचा और उसीके द्वारा अनंतवीर्यने दमतारिका काम तमाम कर दिया; उसे मार डाला । उस समय सभी विद्याधर आये और उन तीन खंडके स्वामियोंको प्रणाम करने लगे।
इसके बाद विद्याधरों और अतुल सम्पत्ति सहित वे प्रभाकरी पुरीको वापिस लौटे । मार्गमें आते हुए उन्होंने कीर्तिधर नाम जिन भगवानको देखा और उन्हें नमस्कार कर उनसे धका उपदेश सुना तथा कनकश्रीके भवोंको भी पूछा।
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पाण्डव पुराण।
अपने पूर्वभवोंको सुन कनकनी विरक्त हो गई और उसने अर्जिकाके व्रत ग्रहण कर लिये । इसके बाद वे दोनों कनकनीकी प्रशंसा और भगवानकी वन्दना कर समवसरणसे वाहिर आये और प्रभाकरी पुरीको रवाना हुए । अपराजित और अनंतवीर्यकी देवता-गण आ-आ कर सेवा करते थे। उनके चरणोंमें नमते थे । वे हमेशा आमोद-प्रमोदसे रहते थे; कभी खेदखिन्न नहीं होते थे। उनका कोई भी वैरी नहीं रहा था । वे सर्वथा निंदा आदि अपवादोंसे रहित थे; उनका कोई निंदक न था । एवं वे विषाद-रहित और धर्मके फलको प्राप्त कर चुके थे तथा पुण्यका पटह पीटते थे कि देखो पुण्यका ऐसा फल मिलता है।
जिसने बड़े बलवान सेनावाले अजय्य शत्रुओं पर भी क्षणभरमें विजय-लाभ कर अपना अपराजित नाम सार्थक कर दिखाया वह अपराजित बलदेव जयवन्त हो । और जिसने अपने वीर्यसे दमतारि मतिनारायणके वीर्यको नष्ट कर दिया और जो शूरवीरों में श्रेष्ठ है, सभी शक्तिओंको दिखानेवाले और धर्म-मय वह अनवार्य प्रतिनारायण सर्वज्ञके प्रभावसे सुशोभित हो।
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पाँचवाँ अध्याय। पाँचवाँ अध्याय ।
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उन अजितनाथ भभुकी में विधिपूर्वक वन्दना-स्तुति करता हूँ जो कामदेवको
जीतनेवाले और अपराजिन-किसीसे नहीं जीते जानेवाले-है; तथा जीतने योग्य सभी शत्रुओं पर जो विजय-लाभ कर चुके हैं, और महान पुरुष जिनकी पूजा-स्तुति करते हैं।
इसके बाद तीन खंडके राज-पाटको पाकर अनंतवीर्यने सब प्रकारके सुखोंको अमन-चैनसे भोगा और आयुका अन्त होने पर वह पापके फलसे रत्नप्रभा नाम नरककी पहली पृथ्वीमें नारकी हुआ । तथा अपराजित अजितसेनको राज-काज सँभला कर यशोधर मुनिके पास दिगम्बर हो गया और अवधिज्ञान-रूपी निधिको प्राप्त कर उसने एक महीनेके लिए संन्यास धारण कर लिया, जिसके प्रभावसे वह अच्युत स्वर्गका स्वामी इन्द्र हुआ।
और वह अनंतवीर्यका जीव जो कि पहले नरकमें नारकी हुआ था, पूर्वभवके पिता धरणेन्द्रके सम्बोधनेसे सम्यग्दृष्टि हो गया। उसने मनकी चपलताको छोड़ कर धर्म पर अटल विश्वास जमाया और संख्यात वर्षकी आयुको पूरी कर वहाँसे निकला और फिर इसी मध्यलोकमें आ गया।
इसी भरतक्षेत्रके विजयालकी उत्तरश्रेणीमें एक व्योमवल्लभ नाम नगर है । वहाँका राजा मेघवाहन था । उसकी रानीका मेघमालिनी नाम था । वह अनंतवीर्यका जीव नरकसे आकर उनके यहाँ मेघनाद नाम दोनों श्रेणियोंका स्वामी पुत्ररत्न पैदा हुआ। एक समय वह सुमेरुके नंदनवनमें गया और वहाँ मज्ञप्ति विद्याको साधने लगा । इतनेमें उसके ऊपर उसके पूर्वभवके बड़े भाई अच्युत इन्द्रकी दृष्टि पड़ी । तव प्रेमके वश हो वह आया और उसने मेघनादको खूब समझाया । पुण्ययोगसे उसके समझानेसे वह समझ गया
और दीक्षित हो नंदन नाम पर्वत पर प्रतिमायोग लगा कर ध्यानस्थ हो गया। पाठकोंको अभी अश्वग्रीवकी कथा भूली न होगी । उसका छोटा भाई सुकंठ संसार-समुद्रमें चक्कर लगा कर असुर जातिका देव हुआ था । दैवयोगसे वह वहाँसे निकला और मेघनाद मुनिको ध्यानस्थ देख उसे बड़ा क्रोध आया । उसने मुनिको घोरातिघोर उपसर्ग किये । पर वह रंचमात्र भी उन्हें न डिगा सका। इस समय मुनिने उपसर्गोको समताभावसे सहा जिससे वह अच्युत स्वर्गमें जा
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पाण्डव-पुराण |
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प्रतींद्र हो गया और वहाँ पूर्व भवके बड़े भाई इन्द्रके साथ सोलहवें स्वर्गके अपूर्व सुख भोगने लगा | दहॉकी आयुको पूरी कर पहले वहाँसे इन्द्र चया और जम्बूद्वीप के पूर्वविदेहके मंगलावती देशमें रत्नसंचयपुरके राजा क्षेमंकरकी रानी कनकमालाके गर्भ से वज्रायुध नाम उत्तम लक्षणोंवाला पुत्र उत्पन्न हुआ । वह आधान, प्रीति, सुप्रीति, वृत्ति और गोद इत्यादि क्रियाओंसे युक्त था । उसका मुख-चन्द्र अपनी प्रभाके द्वारा अंधेरेको दूर करता था | नवीन अवस्थामें ही उसका व्याह राजलक्ष्मी नाम राजपुत्रीके लाथ हो गया 1 तथा अनंतवीर्यका जीव जो मतीन्द्र था, वहाँसे चया और वज्रायुध तथा राजलक्ष्मीके यहाँ पुत्र उत्पन्न हुआ । उसका नाम रक्खा गया सहस्रायुध । सहत्रायुधकी भामिनीका नाम श्रीषेणा था । वह साक्षात् लक्ष्मी ही थी; सुन्दर रूप लावण्यवाली थी । सहस्रायुध और श्रीषेणाके कनकशान्ति नाम पुत्र हुआ । वह ताये हुए सोनेकी कान्तिके समान कान्तिवाला था । इस प्रकार पुत्र-पौत्र आदिके साथ क्षेमंकर राजा सुखचैन से राज सुख भोगता था एक दिन दूसरे स्वर्गके इन्द्रने अपनी सभा वज्रायुधके दृढ़ सम्यक्त्वकी खूब ही प्रशंसा की और कहा कि वज्रायुध गुणोंका आधार है । सम्यक्त्वके निमित्त से उसके सभी गुणका विकाश हो गया है । पर यह प्रशंसा विचित्रचूलक नाम एक देवसे न सही गई और वह पंडितका भेष बना कर वज्रायुधके पास पहुँचा; और बादकी इच्छासे वह उससे कहने लगा कि राजन् ! सुना है कि आप जीवादि तत्वों के विचार में बड़े पण्डित हैं । कहिए कि जीव आदिसे पर्याय भिन्न होती है या अभिन्न ? यदि भिन्न होती है तब तो पर्याय निराधार और पर्यायी कूटस्थ ठहरता है, सो ये दोनों ही बातें नहीं बन सकतीं और शून्यवाद आकर उपस्थित होता है। और यदि कहो कि जीव आदिसे पर्याय अभिन्न होती हैं तो यह पर्याय है और यह पर्यायी ( जीवादि) है, यह भेद व्यवहार ही सर्वथा मिटा जाता हैं । इस लिए जव कि एकका दूसरेमें समावेश नहीं होता, तब जीव आदि अथवा पर्याय दोमेंसे एकको ही मानना योग्य है । यदि इस पर यह कहो कि द्रव्य तो एक ही हैं; केवल उसकी पर्यायें अनेक देख पड़ती है तो आपके कहनेसे सारा संसार एक रूप ही हो जायगा और जो यह नाना रूप देख पड़ता है वह कुछ भी नहीं बनेगा । एवं लोगोंको पुण्य-पापका फल भी नहीं मिलेगा और बन्ध भी के अभाव में मोक्ष भी नहीं बन सकेगा । एवं यह प्रश्न उठता है
न होगा; तथा कि वह द्रव्य
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पाँचवाँ अध्याय ।
र यह पूछा जाय बिन्ध निर्णय करके यह स्याद्वाद हमे
आनेकी कहानको चला गया और बारह भावन
नित्य है या क्षणिक ? इन दोनों पक्षोंमें ही वस्तुमें अर्थक्रिया नहीं वनेगी। और अर्थक्रियाके अभावमें वस्तुकी सत्ताके अभावसे वस्तु कुछ भी नहीं ठहरेगी। इस लिए जीव आदि पदार्थोकी केवलमात्र कल्पना है। राजन् ! ऐसी झूठी कपोलकल्पित बातोंमें आप मत फॅसो । इनमें कुछ भी तत्व नहीं है । उसके इन वचनोंको सुन कर वज्रायुधने कहा कि विद्वन् ! सुनिए, जरा मेरे वचनों पर ध्यान दीजिए। क्षणिक एकान्त और नित्य एकान्त पक्षमें ये दोप आते हैं । इसी तरह सर्वथा भेदवाद और सर्वथा अभेदवादमें दोष देख पडते. हैं । पर स्याद्वादमतको माननेवालोंके यहाँ ये दोष नहीं आते । उनक यहाँ पुण्य-पापका आस्रव होकर बंध होता है और फिर बंधके अभाव से मोक्ष अवस्था माप्त होती है । यदि इस पर यह पूछा जाय कि स्याद्वादकी सिद्धि कैसे होती है तो यह उत्तर दिया जायगा कि स्याद्वादके सम्बन्धमें निर्णय करके देखा जा चुका है, कोई भी वाधक उसके विपयमें उपस्थित नहीं होता; क्योंकि यह स्यावाद हमेशा ही सब पदाथों में मौजूद रहता है । राजाके इस प्रकारके उत्तरको सुन कर वह देव हार मान गया और अपनी वहाँ आनेकी कहानीको सुना कर तथा दिव्य वस्त्रआभूषणों द्वारा वज्रायुधकी पूजा कर स्वर्गको चला गया । इसके बाद पृथ्वीकी रक्षा करनेवाला क्षेमंकर राजा प्रतिवोधको प्राप्त हुआ और बारह भावनाओं पर विचार करने लगा। इतनेमें पांचवें ब्रह्म स्वर्गसे लौकान्तिक देव आये
और उन्होंने क्षेगकर राजाके वैराग्यकी खूब तारीफ की तथा भक्ति-स्तुति की। इसके बाद क्षेमंकरने वज्रायुधको बुलाया और उस पर राज-भार डाल कर आप वनमें जाकर दिगम्बर हो गया । थोड़े ही समयमें उसे केवलज्ञान लाभ हो गया। उस समय वह विशु तीर्थंकर भगवान खूर ही सुशोभित होते थे। इसके बाद वसन्तका समय आया और कामदेवका मभाव बढ़ने लगा। तव बुद्धिमान बज्रायुध राजा वन-कीडाको गया । वहाँ वह अपनी रानियोंके साथ सुदर्शन नामके सरोवरमें जल-क्रीडा कर रहा था । इसी समय किसी दुष्ट विद्याधरने उसके ऊपर एक पत्थरकी शिला डाल दी और आकर उसे नागपाश द्वारा बॉध लिया । परन्तु उस बलीने हाथ से ही उस शिलाके उसी समय खंड खंड कर दिगे और नागपाशको भी नष्ट कर दिया । तव पूर्वभवका वैरी बह विद्युष्ट चुपके से भाग गया । और राजा अपनी देवियोंके
साथ साथ नगरको चला आया तथा वहाँ सुखसे रहने लगा । कुछ कालमें • धर्मके प्रभावसे उसके यहाँ निधियों सहित चक्ररत्नकी उत्पत्ति हुई और वह
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पाण्डव-पुराण ।
चक्रवर्तीकी लक्ष्मीको सुख-चैनसे भोगने लगा । उसका मन हमेशा भोगोंसे भरपूर रहता था। जिस समय वज्रायुध छहों खंडका निर्विघ्न राज्य करता था उस समय विजयार्द्धकी दक्षिण श्रेणीमें शिवमन्दिर नाम नगरका विमलवाहन नाम राजा था। उसकी प्रियाका नाम विमला था। वह शुभ लक्षणोंवाली थी। उसके कनकमाला नाम एक पुत्री हुई । वह कनकशान्तिके साथमें ब्याह दी गई । स्तोकसारपुरके राजा समुद्रसेन और उसकी रानी जयसेनाके एक वसन्तसेना नाम कन्या थी। वह भी कनकशान्तिके साथ व्याही गई । इन दोनों भार्याओंको पाकर कनकशान्ति अमनचैनसे सांसारिक सुख भोगने लगा। एक दिन कनकशान्ति कुमार अपनी दोनों भार्याओंको साथ लेकर क्रीड़ाके लिए इनमें गया था। वहाँ उसने विमलप्रभ नाम मुनीश्वरको देखा और उन्हें नमस्कार कर उनसे धर्मका उपदेश सुना । एवं धर्मको सुन कर उसका मन वैराग्यसे लिप्त हो गया और उसी समय उसने जैनेन्द्री दीक्षा धारण कर ली। अपने पतिको दीक्षित हुआ देख कर कनकमाला और वसन्तसेना भी विमला नाम अर्जिकासे जिनदीक्षा लेकर तप करने लगी । ग्रन्थकार कहते हैं , कि कुलवती स्त्रियोंको ऐसा ही करना चाहिए।
एक दिन कनकशान्ति योगी सिद्धाचल पर ध्यान लगाये हुए था। वहाँ उसे विद्याधरोंने बड़े उपसर्ग किये । पर वह उन उपसर्गोंसे रंचमात्र भी न टला, जिससे उसे केवलज्ञान हो गया-वह केवली हो गया अपने पोतेको केवलज्ञान हुभा देख कर वज्रायुध चक्रवर्ती भी संसार-देह-भोगोंसे विरक्त हो गया । और सहस्रायुधको राज-पाट सौंप कर, घरसे निकल, क्षेपंकर भगवानके पास जा दीक्षित हो गया-उसने दीक्षा लेली और सिद्धाचल पर एक वर्षके लिए प्रतिमायोग धारण कर वह ध्यानस्थ हो गया । इस समय वज्रायुधके पैरों तक सॉपोंने वामी वना ली थी और कंठ तक उसे वेलोंने वेढ़ लिया था। उधर अश्वग्रीवके रत्नकंठ और रत्नायुध दो पुत्र संसारमें परिभ्रमण कर अतिबल और महावल नाम दो असुर हुए थे । वे वज्रायुधके पास आये और उसे बड़ा कष्ट देने लगे। } एवं रंभा और तिलोत्तमाका रूप बना बना कर उसका ध्यानसे मन चलानेको उद्यत हुए; परन्तु वह ध्यानसे विल्कुल ही नहीं चला । यह देख वे चुप-चाप भाग गये । इसके बाद वे प्रगट होकर वज्रायुधके पास आये और उसकी पूजा-भक्ति एवं उसे नमस्कार कर स्वर्गको चले गये।
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पाँचवाँ अध्याय । ____ इधर कोई वैराग्यका निमित्त पा सहस्रायुध भी विरक्त हो गया और शान्तवलीको राज-पाट सॅभला कर उसने पिहितास्रव मुनिसे जिनदीक्षा लेलीवह भी दिगम्बर वन गया । इसके बाद ध्यान समाप्त होने पर वज्रायुध और सहस्रायुध दोनों साथ साथ विपुलाचल पर्वत पर आये और शान्त परिणामोंसे उन्होंने माणोंका त्याग किया, जिससे वे निष्पाप ऊर्ध्व अवेयकके सौमनस नाम अधो विमानमें उनतीस सागरकी आयुवाले हँसमुख उत्तम देव हुए । एवं आयुपर्यन्त वहाँके सुखौंको भोग कर वज्रायुधका जीव चया और जम्बूदीपके पूर्व विदेहमें पुष्कलावती देशकी पुण्डरीकिनी नगरीमें घनरथ नाम राजाकी मनोहरा नाम रानीके गर्भसे मेघरथ नाम पुत्र हुआ। मेघरथके जन्म-समय घनरथने वड़ा भारी महोत्सव किया । एवं घनरथ राजाकी मनोरमा रानीके गर्भसे सहस्रायुधका जीव जो अहमिन्द्र था, वह दृढ़रथ नाम पुत्र उत्पन्न हुआ । दोनों क्रम क्रमसे बढ़ने लगे । जव वे युवा हुए तब घनरथने उनका विवाह महोत्सव किया । मेघरथका ब्याह प्रियमित्रा और मनोरमाके साथ हुआ और दृढ़रथका मन
मोहिनी सुमतिके साथ । कुछ कालमें मेघरथकी प्रियमित्रा नाम भार्याने नन्दि। बर्द्धन नाम पुत्रको जन्म दिया और दृढ़रथकी सुमति नाम भार्याने वरसेन नाम
पुत्रको । इस प्रकार पुत्र, पौत्र आदि सम्पतिसे घनरथ ऐसा जान पड़ता था मानों तारा-गण, चाँद और सूरजसे युक्त सुमेरु पर्वत ही है। एक समय घनस्थने किसी कारणसे उदास हो मेघरथको राज-पाट सौंप कर जैनेन्द्री दीक्षा धारण करली । उसके दीक्षा समय लौकान्तिक देव आये तथा और और देवतागणने आकर उसका दीक्षा-कल्याणक किया । वह अपना आप ही गुरु था--- तीर्थकर था। उसने थोड़ी ही देरमें घाति कर्मोंको घात कर केवलज्ञान-निधि प्राप्त कर ली-वह केवली हो गया ।
इसके बाद एक समय मेघरथ राजा देवरमण नाम उद्यानमें अपनी रानियोंको साथ लेकर क्रीड़ा करनेको गया था। वहाँ जाकर वह एक चंद्रकान्त शिला पर बैठ गया । इतनेमें आकाशमार्गसे जाता हुआ एक विद्याधर वहाँसे आ निकला। वहाँ उसका विमान रुक गया । उस वक्त उसने शिला पर बैठे हुए मेघरथको देखा और देखते ही वह क्रोधसे लाल पीला हो गया । तथा शिला-सहित राजाको उठानेके लिये विद्यावलसे वह उस शिलाके नीचे घुस गया । यह बात राजाको भी मालूम पड़ गई और उसने उस शिलाको अपने पॉवके अँगूठेके अग्रभागसे कुछ दवा दिया । तब वह विद्याधर उस शिलाके भारको
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पाण्डव-पुराण |
सहने के लिए असमर्थ हो चिल्लाने लगा । उस वक्त उसकी रोनेको आवाजको उसकी स्त्रीने सुना और वह उसी समय मेघरथ के शरण में आई तथा पतिके जीवनकी भिक्षा माँगने लगी | मेघरथने तव शिलापरसे अपने वलको बिल्कुल हटा लिया । यह देख कर प्रियमित्राने मेघरथको पूछा कि प्रिय ! यह क्या वात है । उत्तर में मेघरथने कहा कि विजयार्द्ध पर्वत पर एक अलकपुर है। उसका राजा है विद्युष्ट्र और रानी है अनिलवेगा । उन दोनोंका पुत्र यह सिंहस्थ है । यह विमलवाहन मुनिकी वन्दनाको गया था । अव वहाँसे वापिस घरको जा रहा है । अभी थोड़ी देर पहले इसका विमान आपसे आप ही यहाँ रुक गया था । तब इसने इधर उधर देख भाल की और मुझे देख कर गर्वसे क्रोध किया तथा आग बबूला हो मुझ सहित शिला उठानके लिए यह इस शिलाके नीचे घुस गया। मुझे मालूम होते ही मैने उसी वक्त इस शिलाको अपने पैरके अँगूठे से दबा दिया । तव भारको न सह सकने के कारण यह चिल्लाया । जिसको सुन इसके जीवनकी भिक्षा के लिए यह इसकी मनोरमा नाम स्त्री आई है । इस प्रकार सव हाल कह कर तथा उस विद्याधरको संतोष दिला कर उन्होंने उसे वहाँसे रवाना किया |
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एक समय मेघरथ राजाने दमवर नाम चारणमुनिको आहार दिया, जिसके प्रभाव से उसके यहाँ देवतोंने पॉच अचम्भेकी बातें कीं । यह राजा हमेशा शक्ति - अनुसार तप करता था । अष्टाह्निक पर्व आया । राजाने विधिपूर्वक भगवान की पूजा वगैरह से खूब ही उत्सव किया और प्रोषधोपवास व्रत लिया; तथा रात के वक्त प्रतिमायोग घर कर वह मेरुकी नाँई अचल हो ध्यानस्थ हो गया ।
इसी समय ईशान इन्द्र अपनी सभामें बैठा था । उसने वहाँसे मेघरथको ध्यानस्थ देखा और उसकी स्तुति करना आरम्भ की कि आज आपका परम धैर्य है । इस लिए सारे संसारकी असाताको मिटानेवाले आत्मध्यानमें लीन और चिदात्मा - आपको मेरा प्रणाम है । यह सुन देवतोंने इन्द्रको कहा कि हे देव ! आप किसकी स्तुति कर रहे हैं । यह सुन इन्द्रने उत्तर में कहा कि शुद्ध सम्यग्दृष्टि मेघरथ राजा प्रतिमायोगमें लीन हो रहा है । वह ज्ञानी उत्तम गुणोंका भंडार होनेसे पूज्य है । इस लिए मैंने उसे नमस्कार. किया है । इन्द्रकी यह बात अतिरूपा और सुरूपा नामकी दो देवियों से न सही गई और वे उसी वक्त मेघरथके पास पहुंचीं । वहाँ उन्होंने विभ्रम, हाव,
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पाँचवॉ अध्याय
भाद, विलास, गीत, नृत्य आदि भॉति भॉतिकी चेष्टाएँ की, पर वे उसे चला न सकीं; जिस तरह अचल और उत्तम मेरु विजलीके द्वारा रंचमात्र भी नहीं चलता । तब उन्हें इन्द्रकी बातों पर पक्का विश्वास हो गया और ये मेघरथको नमस्कार कर अपने स्थानको चली आई। इसी तरह एक दिन समामें ईशान इन्द्रने प्रियमित्राके रूपकी प्रशंसा की । जिसको सुन कर रतिपेण और रति नामकी दो देवियाँ साक्षात् उसके रूपको देखनेके लिए आई; और स्नानके समयमें सुगन्धित तैल आदिसे मले गये भूपण-वन रहित उसके सुन्दर शरीरको देख कर वे कहने लगी कि जव इस समय इसका रूप ऐसा सुन्दर है तब शृंगार आदि करने पर कैसा सुन्दर होगा ! इसके बाद उन्होंने कन्याका रूप बनाया और वे चतुराईसे कहने लगी कि देवी! हम तुम्हारा रूप देखनेको आई हैं। इसके बाद रानीने अपने वत-आभूपण वगैरह पहिने और सुगन्धित पुष्प वगैरह गूंथे । उस समय उसका रूप देख कर वे देवियाँ अपना माथा पीटने लगी। यह देख उनसे रानीने पूछा कि यह वात क्या है ? वे कहने लगी कि चतुरे ! सुनो, ईशान इन्द्रने तुम्हारे रूपकी जैसी प्रशंसा की थी वह वैसा ही है, परन्तु स्नानके वक्त जो शोभा थी वह इस वक्त नहीं है । इतना कह कर वे देवियों तो अपने स्थानको चली आई और इधर रानीको अपने रूपको क्षणक्षयी जान कर वैराग्य हो आया । तब उसे राजाने आश्वासन दिया और कहा कि हम तुम दोनों साथसाथ ही दीक्षा लेंगे; क्योंकि मेरा दिल भी उदास हो रहा है । एक दिन राजा मनोहर नाम उद्यानको गया । वहाँ उसने अपने पिता धनरथ नाम प्रभुके दर्शन किये और उन्हें नमरकार किया । वे एक मनोहर सिंहासन पर विराजे हुए बहुत ही सुशोभित होते थे । राजा वैठ गया और उस कृतीने कल्याणकी वांछासे पूछा कि भगवन् ! क्रिया-संस्कारसे क्या लाभ है ? इस पर प्रभुने उत्तर दिया कि राजन् ! सुनिए । श्रावकाध्ययनमें जो १०८ क्रियायें बताई हैं उनमेंसे ५३ क्रियायें तो गर्भान्वय नामसे पुकारी जाती हैं और वे गर्भसे लेकर मरण तककी विधिको बताती हैं । ४८ क्रियायें दीक्षान्वय नामसे पुकारी जाती है; और वे दीक्षासे लेकर निर्वाण तककीः साधनेवाली हैं । और सात कन्चय क्रियायें हैं । वे सिद्धान्तको बताती हैं । इन क्रियाओंसे आत्माका पल बढ़ता है, उसमें नये नये संस्कार पैदा होते हैं, जिनसे अच्छी अच्छी भावनायें पैदा होती हैं । इस तरह धनरथ प्रभुके कहे हुए क्रियाओंके विधान-स्वरूप और फलको तथा श्रावकधर्मको सुन कर वह आत्म-दृष्टि विरक्त हो गया और
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पाण्डव-पुराण।
अपने छोटे भाई दृढ़रथसे उसने कहा कि तुम राज-पाटको संभालो; मैं अव तपोंको तपूँगा । इस पर शीघ्र ही परिग्रहको छोड़नेकी चाह रखनेवाला दृढ़रथ कहने लगा कि भाई ! राज-काजमें आपको जो जो दोष देख पड़ते हैं, उनको मैं भी तो देख रहा हूँ। इससे मैं यह सोचता हूँ कि पहले ग्रहण कर पीछे छोड़नेकी अपेक्षा पहलेसे ग्रहण ही न करे, यही अच्छा है । कारण कि कीचड़ लगा कर धोनेकी अपेक्षा उसको पहिलेसे नहीं लगाना ही बुद्धिमान् लोग अच्छा मानते हैं । इस तरहकी बातचीतसे अपने हँसमुख छोटे भाईको राजसे विरक्त जान कर मेघरथने मेघसेन नाम अपने पुत्रको बुलाया और उसे राज-पाट सॅभला दिया। इसके बाद वह सात हजार राजों और अपने छोटे भाई सहित दिगम्वर हो गया; उसने संयमको ग्रहण कर लिया; और थोड़े ही समयमें वह द्वादशांगका परिगामी श्रुतकेवली हो गया । उसने सोलह कारण भावनाओंको भाकर तीर्थकर नाम कर्मका बंध किया । एवं वह दृढ़, दृढ़रथके साथ-साथ नमस्तिलक पर्वत पर गया और वहाँ दोनोंने शरीर-आहार आदिसे ममता भावको त्याग कर एक महीनेके लिए संन्यास धारण किया तथा अन्त समयमें प्राणोंको त्याग कर वे सर्वार्थसिद्धि नाम विमानमें अहमिंद्र हुए। वहाँ उनका शरीर स्फटिकके समान स्वच्छ और स्फुरायमान प्रभावाला हुआ । तेतीस सागरकी उनकी आयु हुई । साढ़े सोलह महीनेमें वे श्वासोच्छास लेते थे और मनचाहा अमृतका आहार करते थे; सो भी तेतीस हजार वर्ष बीत चुकने पर एक बार । उनके मैथुन-क्रिया स्त्री-संभोग रहित उत्तम सुख था और लोकनाड़ीके भीतर सब जगह अपने योग्य द्रव्यको विषय करनेवाला उनके अवधिज्ञान था, जिसके द्वारा वे लोकभरकी बातोंको जानते थे। तथा उनके विहार करनेको विक्रिया-शक्ति भी उतनी ही थी । एक हाथका ऊँचा उनका शरीर था । और इस भवके बाद मनुष्यका भव पाकर उसीसे वे मोक्ष जानेवाले थे। ___ जम्बूदीपके भरतक्षेत्रमें एक कुरुजांगल नाम देश है । उसमें इस्तनापुर नाम नगर है। वहॉका राजा विश्वसेन था। वह बड़ा चतुर था, नीतिका ज्ञाता था। उसकी रानीका नाम था ऐरादेवी । वह बहुत सुन्दरी और सुन्दर नेत्रांचाली थी। तथा श्री, ही, धृति आदि देवियोंसे भी उसका पहला नम्बर था । वह रूपलावण्यकी एक सीमा ही थी। रातका वक्त था और वह शय्या पर सुखकी नींदमें सोई हुई थी । उस वक्त उसने सोलह स्वमों और मुंहमें प्रवेश करते हुए एक उन्नत हाथीको देखा । इस समय मेघरथका जीव जो अहमिंद्र,
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पाँचवाँ अध्याय।
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था वह सर्वार्थसिद्धिसे चय कर उसके गर्भमें आया । उस दिन भादों पदी सातें थी। इसके बाद वह जगी और शय्यासे उठी तथा प्रभातकी क्रियाओंसे निवट कर और वस्त्र-आभूषण वगैरह पहिन कर हर्षित होती हुई पतिदेवके पास गई । उस समय उसने बहुन दान किया, जिससे कि उसके हाथोंकी अपूर्व ही शोभा थी । वह उस वक्त चलती हुई कल्पवेलसी जान पडती थी । स्वामीने उसे आदरके साथ आधे सिंहासन पर बैठाया और उसका बहुत आदर किया । इसके बाद उस मानिनी रानीने स्वामीसे अपने रातवाले स्वमोंका फल पूछा । उत्तरमें स्वामीने कहा कि इन स्वभोंसे जान पडता है कि तुम्हारे गर्भसे संसारका उद्धारक कोई महात्मा जन्म लेगा । यह सुन कर वह बहुत ही हर्षित हुई । इसके बाद अवधिज्ञान द्वारा भगवानको गर्भमें आया जान चतुरंग सेना सहित इन्द्रगण आये और प्रभुका स्वर्गावतरण-कल्याण बड़ी भारी धूमधामके साथ कर अपने अपने स्थानको चले गये । इसके बाद रानीका ज्यों ज्यों गर्भ वृद्धिंगत होता जाता था त्यों त्यों उसका प्रभाव बढ़ता जाता था, शरीर दीप्त होता जाता था और वह दयावाली दया और दानमें रक्त होती जाती थी । उसकी देवता-गण पन्द्रह महीनेसे रत्नोंकी बरसा द्वारा सेवा उपासना कर रहे थे। उस देवीने जेठ वदी चौदसके दिन उत्तम सुत रत्नको जन्म दिया। प्रभुका जन्म होते ही देवोंके यहाँ आपसे आप विना बजाये महाशंख, भेरी सिंहनाद, घंटा आदि वाजोंके शब्द हुए; जिनसे उन्हें भगवानके जन्मकी सूचना मिल गई । खवर पाते ही हर्षसे भेरे हुए देवता-गण सहित इन्द्र-गण आये; और विश्वसेन महाराजके महलसे सुन्दर रूपवाले प्रभुको लेकर सुमेरु पर्वत पर गये । वहाँ धर्मके मेमी इन्द्रने प्रभुको सिंहासन पर विराजमान कर सुवर्णके कलशोंसे उनका अभिषेक किया; एवं बड़ी भक्तिसे उनकी प्रशंसा-स्तुति की । वहाँसे वापिस आकर इन्द्रने प्रभुको उनकी माताकी गोदमें दिया । प्रभुकी आयु एक लाख वर्षकी थी । उनका नाम शान्तिनाथ था। उनका शरीर चालीस धनुष ऊँचा था, अचल था, उत्तम लक्षणोंवाला था, तथा यौवनसे उन्नत था । इसके बाद दृढ़रथ सर्वार्थसिदिसे चय कर उसी विश्वसेन राजाकी यशस्वती रानीके गर्भसे चक्रायुध नाम पुत्र हुआ। चक्रायुधकी बहुतसे पुरुष सेवा करते थे। उसकी स्तुति करते थे। इसके वाद विश्वसेन राजाने कुल, शील, कला रूप और अवस्था सौभाग्य आदिसे विभूषित बहुतसी कन्याओंके साथ शान्तिनाथ प्रभुका ब्याह किया और उन्हें
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पाण्डव-पुराण ।
राज पद दे दिया । इस समय प्रभु सूरजकी प्रभाको भी जीतते थे । इसके कुछ काल वाद उनकी आयुधशाला में चक्ररत्न पैदा हुआ, जिसके द्वारा उन्होंने छहों खंडोंको विजय किया; सभी राजोंको जीत लिया । एवं उनके शस्त्रगृहमें चक्रे, छत्रे, दंडे, अर्सि और लक्ष्मीगृहमें धर्म, चूड़ामणि कॉकिंणी तथा हस्ति नागपुर में पुरोहित, गृईपति, सेनापति, स्थपति तथा विजयार्द्धमें कैन्या, थी और घोड़ों ये १४ रत्न पैदा हुए । इस प्रकारकी अतुल विभूतिको पाकर शान्तिनाथ प्रभुने बहुत काल तक सुख-चैनसे राज किया । एक दिन प्रभु खूब ही अभिमानसे भरे हुए, दर्पण में अपना मुॅह देख रहे थे। उस वक्त उन्होंने अपनी मूर्तिको पहिले किसी और रूपमें और फिर बादमें किसी और ही रूपमें देखा । तत्र इसी निमित्त से वे संसारसे उदास हो गये और उनका जो विषयोंमें राग था वह उनसे कोसों दूर भाग गया । इतनेमें स्वर्गसे लौकान्तिक देव आये और उन्होंने प्रभुका स्तोत्र करके अपना नियोग पूरा किया | इसके बाद देवता- गण के साथ-साथ इन्द्र वगैरह आये और प्रभुका अभिषेक कर उन्होंने उन्हें भाँति भाँति के वस्त्र आभूषण पहिनाये; तथा पालकी में बैठा कर वे उन्हें सहस्राभुवनमें ले गये और वहाँ एक शिला पर विराजमान किया । इस समय प्रभुने पंचमुष्टि केशलोंच किया तथा वस्त्र आभूषण वगैरह सब उतार कर, उनसे ममत्व छोड़ वे दिगम्बर हो गये । इस दिन जेठ वदी चौथ थी और दो पहरका समय था । इसी दिन प्रभुके साथ साथ चक्रायुध आदि हजारों और और राजोंने भी संयमको धारण किया । इस समय प्रभुने छह दिनोंके उपवासके बाद हमेशा आहार लेनेकी प्रतिज्ञा की । दीक्षा लेते ही प्रभुको मन:पर्ययज्ञान हो गया और वे चार ज्ञानके धारी हो गये । इसके बाद पारणाके लिए वे शिवमन्दिरपुर गये और वहाँ उन्हें सुमित्र राजाने शुद्ध आहार दिया । एक दिन सहस्राभुवनमें भाइयों सहित छह उपवासोंको एक साथ करनेवाले वे प्रभु पूर्व दिशाको मुँह कर ध्यानस्थ हो गये । प्रभु सोलह वर्ष तक छद्मस्थ अर्थात् अल्पज्ञानी रहे । वाद उन्हें पौष सुदी दसमीके दिन सामके समय केवलज्ञान हो गया । भगवान्के चक्रायुध आदि छत्तीस गणधर हुए । उनके समवसरणमें बारह सभायें थीं और वे सब सभ्योंसे भरपूर थीं। इसके वाद सुर-असुरों द्वारा सेवित उन प्रभुने पृथ्वीतल पर विहार किया । जब उनकी एक महीने की आयु शेष रह गई तब वे सम्मेदशिखर पर पहुँचे और जेठ वदी चौदसके दिन सिद्ध-स्थानमें जा विराजे । तथा चक्रायुध आदि धीरवीर नौ हजार मुनिगण, कर्मसमूहको नाश कर निर्वाणको प्राप्त हुए । इस वक्त सुर-असुरोंने
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पाँचवाँ अध्याय । आकर सबका निर्वाण महोत्सव किया; तथा प्रभुके गुणोंका स्मरण कर वे सब अपने अपने स्थानको चले गये । एवं वहॉ और और महापुरुष जो महोत्सवमें शामिल हुए थे, वे भी प्रभुके गुणोंका स्मरण करते हुए अपने अपने नगरोंको गये । इस तरह आदि जिन करके द्वारा स्थापित कौरव-वंशमें इन्द्रों द्वारा पूज्य श्री शान्तिनाथ प्रभुका जन्म हुआ । शान्तिनाथ प्रभुके चरण-कमलोंमें चक्रवर्ती भी आफर नमते हैं। वे गुणोंके भंडार और गुणवालोंके द्वारा पूजे जानेवाले हैं; काम आदि शत्रु
ओंके नाशक और विजय लक्ष्मीके पति हैं। चक्ररत्नके स्वामी हैं, धर्मतीर्थके प्रवर्तक तीर्थकर हैं। उनके सुन्दर रूपको देख कर जगत्पति भी मोहित हो जाते है । वे कीर्ति, स्फूर्ति, सुमूर्तिके सदन हैं; एवं नीतिविद्याके आलय हैं, चक्रवर्ती है, कामदेव हैं; और उत्तम, एवं सार्थ तीर्थके चलानेके कारण तीर्थंकर हैं। तात्पर्य यह कि वे दक्ष तीन पदवीके धारक हैं तथा जिनका पक्ष सचा और हितैपी है । वे शान्तिके स्वामी शान्तिनाथ प्रभु मेरी रक्षा करें।
शान्तिनाथ प्रभु शान्तिके कर्ता और शान्तिके स्थान हैं। उनके निमित्तसे सत्पुरुप शान्तिको पाते हैं । वे मोक्षके दाता और स्वयं मोक्ष मार्ग पर चलनेवाले हैं। उनके निमित्तसे जीवोंको सैकड़ों सुख मिलते हैं। उनके मोहका नाश होता है
और उन्हें उत्तम उत्तम गुण प्राप्त होते हैं। उन शान्तिनाथ प्रभुके लिए मेरा नमस्कार है । मैं उन शान्तिनाथ स्वामीको अपने मनोमन्दिरमें विराजमान करता हूँ। वे मुझे सुख दें।
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पाण्डव-पुराण
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छठा अध्याय ।
-oporroroउन कुंथुनाथ भगवानको प्रणाम है, जो कुंथु आदि जीवोंकी रक्षा करनेवाले
और भव्य-जीवोंको उत्तम मार्गमें लगानेवाले है। उनके हितैषी हैं ।
शान्तिनाथ प्रभुके बाद कुरुवंशमें उनका पुत्र श्रीमान नारायण नाम राजा हुआ। इसके बाद शान्तिवर्द्धन और उसका पुत्र शान्तिचन्द्र नाम राजा हुआ। इनके वाद चन्द्रचिन्ह और कुरु राजाने इस वंशको आभारी किया । एवं इन राजोंके बाद इस वंशमें और और बहुतसे राजा हुए । इसके बाद सूरसेन नाम एक प्रतापी राजाने इसकी शोभा बढ़ाई । उसके समय सब जगह नीतिसे काम लिया जाता था । कहीं भी किसीको ईति भीत नहीं सताती थी। तात्पर्य यह कि वहॉ इति भीति नहीं थी, जैसे दिनमें तारा-गणका नहीं होते। वह शूर था, शूरवीरोंका स्वामी था । उसकी हजारों शूरवीर सेवा करते थे । उसके शरीरकी आमा सूरजकी प्रभासे कम न थी । उसका इतना बढ़ा चढ़ा पराक्रम था कि बड़े बड़े शूरवीर भी आकर उसका आश्रय लेते थे। उसके प्रतापसे शत्रुराजा अपने अपने नगरोंको छोड़ कर वनमें जा छिपते थे और वहॉ चे शय्याके बिना ही गुफाओंके अंधेरेमें सोते थे । उसकी भार्याका नाम था श्रीकान्ता । उसका शरीर लक्ष्मीके शरीर जैसा था । वह लक्ष्मीके साथ तुलना करती थी। लक्ष्मी समुद्रसे पैदा हुई है । वह गुणोंके समुद्रसे पैदा हुई थी। लक्ष्मीका अपने भाई चाँदके समान मुख था । इसका भी चाँद जैसा मुख था । लक्ष्मी सारे संसारको आनंद देती है । यह भी जगतभरको आनंद देनेवाली थी। श्रीकान्ताके नख बड़े सुन्दर थे; जान पड़ता था कि मानों इसके नेत्रोंके तारों द्वारा जीते गये और इसके गुणों द्वारा खींचे गये तारा-गण ही हैं, और सुखी होनेकी इच्छासे दे नखोंके छलसे इसकी सेवा करते हैं। इसके मुख-रूपी चन्द्रमाको देख कर कमल बहुत ही लज्जित हुए, अतएव वे छाया आदिके विना ही जलमें रहने लगें तथा जान पड़ता है कि इसीसे चन्द्रमा और कमलोंमें परस्पर विरोध हो गया है। इसके गलमें चमकीला और मनोहर हार पड़ा हुआ था, जो कुचोंके बीचसे लटकता था। जान पड़ता था कि जैसे पूर्व भवके रागभावके कारण निधिकी इच्छासें सॉप धनके खजाने पर बैठ जाता है उसी तरहसे यह हार भी-निधि-शोभाकी इच्छासे इन कुचरूपी महान
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छठा अध्याय ।
कुंभी सेवा करता है। श्री आदि देवियाँ हमेशा ही श्रीकान्ताकी सेवामें उपस्थित रहा करती थीं और उसके सभी काम-काज करती थीं । सच है कि पुण्यके योग से कोई भी वस्तु दर्लभ नहीं रह जाती । अचम्भेकी वात तो यह है कि धीरवीर और धनका मेघ - कुबेर उसके ऑगनमें जलकी नॉई रत्नोंकी चरसा करता था । उस समय रत्नोंकी वरसासे सारी पृथ्वीमें धन ही धन हो गया था । कहीं भी कोई दरिद्री न था और पृथ्वीका वसुधा नाम सफल हो गया था । के गर्भात्सव के समय ऐसा कोई भी काम न हुआ जो जीवको प्रमोदका देनेवाला न हो ।
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एक दिन श्रीकान्ता सुखकी नींदमें सोई हुई थी । रातका पिछला पहर था । उस समय उस देवीने मोलह स्वमको देखा । मनुष्यों को पालने पोपनेवाळी वह सवेरे भाँति भाँतिके वाजोंकी आवाजको सुन कर सेजसे उठी । इस समय उसके हृदयमें बडा हर्ष हो रहा था । उसने प्रभातकी नित्य क्रियायें कीं, स्नान किया तथा वत्र, मंगल-रूप आभूषण आदि पहने और सभा पहुँची । उस समय सभा ऐसी शोभने लगी जैसा कि विजलीसे आकाश सुशोभित होता है । वहाँ वह राजाको नमस्कार कर आधे सिंहासन पर जाकर बैठ गई और विश्वाधाओंको हरनेवाले उन स्वप्नोंको उसने जैसाका तैसा राजासे कह दिया | उन्हें सुन कर राजाने अवधिज्ञान द्वारा उनका फल जान लिया, और क्रमसे होनेवाले उनके फलको रानीसे कह दिया। उस समय राजाके वचन-रूप किरणोंके स्पर्शसे रानीका मुख कमल खिल उठा; जिस तरह सूरजकी किरणों संसर्गसे कमल खिल जाते हैं। इसके बाद सावन वदी दसमीके दिन रानीने सर्वार्थसिद्धि से चय कर आये हुए एक देवको देवियों द्वारा शोध हुए अपने गर्भ में धारण किया। प्रभु के गर्भ समयको जानकर देवतों सहित ज्ञानी इन्द्र आया और उसने गर्भास की खूब ही धूम मचाई - चहल-पहल की । मुक्ताफलको धारण करनेवाली निर्मल सीपकी नई श्रीकान्ता मञ्जुको गर्भमें लिये हुए बड़ी शोभा पाती थी । उस समय उसका शरीर तेज-मय हो गया था, परन्तु उसको गर्व रंचमात्र भी न था । सुन्दरी देवांगनायें उसकी हमेशा सेवा करती थीं और वह सेवाके फलको देती थी अर्थात् उसकी सेवासे उन्हें स्वयमेव ही फल मिलता था । देवियाँ उससे काव्योंका गूढ़ गुढ़ अर्थ पूछती थीं कि देवी ! संसारमें सार क्या है ? सुख किसे कहते हैं? और जीवों को सुख-दुःख देनेवाला कौन है ? | एक बात यह है कि इन प्रश्नों के ऐसे उत्तर बताइये, जिनका कि पहला अक्षर ही भिन्न भिन्न हो और सब अक्षर एक ही हो । रानीने उत्तर दिया कि संसारमें धर्म सार है। शर्म कल्याण को सुख
पाण्डव-पुराण १२
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पाण्डव-पुराण |
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कहते हैं; और अपने शुभ-अशुभ भावोंसे इकट्ठे किये हुए पुण्य-पाप कर्म ही जीवोंको सुख-दुःख देते हैं। कर्मके निमित्तसे वे वॅधते और जन्म लेते है। कर्म के बड़े संकटको सहते हैं । एवं कर्मके निमित्तसे ही जीवोंको सांसारिक सुख होता है । इसके बाद फिर भी देवियोंने पूछा कि देवी ! सूर्यसे क्या उत्पन्न होता है ? विद्वानों के मुँहमें क्या रहता है १ अर्जुन किसे कहते हैं ? और गंगा किसे कहते हैं ? रातीने उत्तर में कहा भागी - रथी । तात्पर्य यह कि सूरजसे भा— आभा-- उत्पन्न • होती है । विद्वानों के मुँह में गी वाणी - सरस्वती रहती है। अर्जुन रथीको कहते हैं । और गंगा भागरथीको कहते हैं । इस तरह प्रभुकी माताका दिल बहलानेके लिए देवियों प्रश्न करती थीं और माता उत्तर देती थी । इसके वाद जब नौ महीना पूरे हो गये तब उस देवीने वैशाख सुदी पड़वा के दिन पुत्ररत्नको जन्म दिया; जिस भाँति पूरव दिशा सूरजको जन्म देती है । प्रभुका जन्म जान कर इसी समय स्वर्ग से इन्द्र आदि देवता- गण आये; और वे आकाशगामी मञ्जुको सुमेरु पर्वतकी शिखरपर ले गये । वहाँ उन्हें सिंहासन पर विराजमान कर और भाँति भॉतिके उत्तम पाठको पढ़कर उनकी स्तुति की; और क्षीरसागरका जल लाकर उनका अभिषेक किया | उनका कुंथुनाथ नाम रखा । इसके बाद उन्हें वापिस नगरको ले आये और उनके माता- पिताको सौप दिया । क्रम क्रमसे बढ़कर प्रभुने यौवन अवस्था में पैर रक्खा । इस समय प्रभुके सभी गुण वृद्धिंगत थे । उनके शरीरकी ऊँचाई पैंतीस धनुष थी। उनकी कान्ति ताये हुए सोने सरीखी थी । मञ्जुकी आयु पाँच हजार वर्ष कम एक लाख वर्षकी थी । कुछ काल बाद प्रभुका राज्यभिषेक हुआ और नीति से प्रजा पालन करते हुए वे राज -सुख भोगने लगे । इसके बाद उनकी आयुधशाला में चक्र रत्नकी उत्पत्ति हुई, जिलको पाकर वे छहों खंडके राजा चक्रवतीं हो गये । एक दिन उन्हें अपने पिछले भवकी याद हो आई और वे संसार से विरक्त हो गये । यह जान पाँचवें ब्रह्मस्वर्ग से लौकान्तिक देव आये और संसारसे उदास-चित्त प्रभुकी उन्होंने स्तुति की। इसके बाद प्रभुको दीक्षा लेने को तैयार देख वे प्रभुकी स्तुति पूजा कर अपने स्थानको चले गये । इसके बाद प्रभु अपने पुत्रको राज-पाट संभला कर विजया नाम पालकीयें सवार हो देवेन्द्रों के साथ-साथ सहेतुक वनमें पहुँचे । वहाँ उन्होंने केशलोंच कर हजारों राजों के साथ-साथ संयमको, धारण किया और उसी दिनसे उन्होंने छह दिन बाद आहार लेने की हमेशा के लिए प्रतिज्ञा की। वहीं हस्तनागपुर में धर्ममित्र नाम एक श्रावक रहता था । उसने पारणाके दिन प्रभुको खीरका आहार दिया; जिससे उसके घर पॉच
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छठा अध्याय। amamannamromainwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww mmmmmmmmmmmmistrino mmmmameimulumnwmnnar
अचम्मकी बातें हुई । एवं प्रभु सहेतुक वनमें सोलह वर्ष छमस्थ-अवस्थामें रहे । वाद तिलक क्षके नीचे बैठे हुए उन उद्यमशील प्रभुने घाति कर्मोंका नाश फर चैत सुदी तीजके दिन शामके समय केवल-ज्ञान लाभ किया । इस समय कुवेरने आकर प्रभुके समवसरणकी रचना की; और सुर-असुर तथा मनुष्यगण आ-आकर उनकी-वन्दना-रतुति करने लगे । प्रभुकी सेवामें स्वयम्भू आदि पैंतीस गणधर उपस्थित थे । उनके समवसरणमें सातसौ यतीश्वर और तिरेपन हजार एकसौ पचास शिष्य थे। दो हजार पाँचसौ अवधि ज्ञानी और तेतीस हजार फेवलज्ञानी ये । पाँच हजार एकसौ विक्रिया ऋद्धिके धारक और मनःपर्यय ज्ञानी तेतीससौ थे । एवं वाद-विजेता वादी दो हजार पचास थे । सब मिला कर कुल साठ हजार यतीश्वर थे । तथा ६० हजार तीनसौ पचास भर्जिकाएँ थी । दो लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थी । इसी तरह असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे । इस प्रकार संघ-सहित प्रभुने सव पृथ्वीतल पर विहार किया । अन्तमें विहार करते करते वे हजारों मुनियों सहित सम्मेदाचल पर पहुँचे । वहाँ प्रमुने एक महीने तक योगनिरोध किया; और सम्पूर्ण शेष कोको नाश फर चे मोक्ष-स्थानको चले गये। प्रभुके साथ-साथ और और बहुतसे मुनि भी मोक्ष-अवस्थाको प्राप्त हुए । आजके दिन वैशाख सुदी पड़वा थी । प्रभुका निर्वाण जान उत्कंठित हुए बहुतसे देव आये। उन्होंने प्रभुका खूब निर्वाण-महोत्सव मनाया और प्रभुको नमस्कार किया । इसके बाद ममुके गुणोंको स्मरण करते हुए इन्द्र आदि सभी देवता-गण वहाँसे स्वर्गको चले गये।
जो पहले, पूर्वविदेह राजोंके मुकुटोंके तटसे स्पर्शित हैं चरणकमल जिसके ऐसा वैभवशाली सिंहरथ नाम राना था और वहाँसे फिर सर्वार्थसिद्धिको गया; एवं सर्वार्थसिद्धि विमानसे चयकर जो कुंथु आदि जीवोंकी दयाके पालक और उनको सुख देनेवाले कुंथुनाथ प्रभु हुए । कुंथुनाथ प्रभु चक्रवर्ती, तीर्थकर और कामदेव इन तीन पदोंके धारक हुए। वे हमें उत्तम उत्तम गुणोंका दान दें और हमारी पुष्टि करें । जो पाप-रूपी-वैरियों पर विजय-लाभ करनेवाले हैं, कामदेवको गथ कर चकनाचूर करनेवाले हैं एवं जो पृथ्वीतल पर धर्मका प्रचार करनेवाले और तीन लोक द्वारा पूजे जानेवाले हैं; वे कुंथुनाथ भगवान् तुम्हारी रक्षा करें । जो कुंथु आदि जीवोंकी दयासे भरपूर है, उत्तम मार्गके पथिक और तीर्थकर हैं, चक्रवर्ती हैं और पुण्यके भंडारको भरनेवाले हैं तथा संसार-रूप वनको जला देनेवाले हैं वे प्रभु सबको सुख दें।
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पाण्डव-पुराण।
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सातवाँ अध्याय ।
उन अरजिनको नमस्कार करता हूँ जो कर्म-शत्रुओं पर विजय-लाभ
करनेवाले हैं, चक्रवर्ती आदि जिनकी पूजा करते हैं, जो सभी गुणोंके आधार और सार है। तथा जो तीर्थकर हैं सारे संसारसे उत्कृष्ट हैं। ___ इस तरह और और बहुतसे राजोंके हो चुकने पर कुरुवंशमें एक सुन्दराकृति सुदर्शन नाम राजा हुआ । उसकी प्रियाका नाम था मित्रसेना । वह सती थी। श्रीआदि देवियाँ उसकी सेवा करती थीं। 'उसके निमित्तसे पृथ्वी पर धनकी धारा पड़ती थी। एक दिन उसने सोलह स्वमोंको देखा और फाल्गुन सुदी तीजके दिन गर्भको धारण किया । उसका गर्भ संसारके लिए शुभ था; कल्याणका दाता था । उसी समय प्रभुका स्वर्गावतरण कल्याणक करनेको चार निकायके देवता-गण आये। परम उत्साहसे उन्होंने उत्सव किया । इसके बाद प्रभुके माता-पिताको नमस्कार कर वे स्वर्ग-स्थानको चले गये। यद्यपि उस निर्मल गर्भका बहुत भार था तो भी मित्रसेनाको यह भार कुछ भी न जान पड़ता था। इसके बाद गर्भके दिन पूरे हो जाने पर अगहन सुदी चौदसके दिन उसने पुत्ररत्नको जन्म दिया। जन्मसे ही प्रभु तीन ज्ञानके धारक थे । वे तीर्थकर थे। इसी समय स्वर्गसे इन्द्र आदि देवता-गण आये और प्रभुको सुमेरु पर्वत पर ले गये । वहाँ उन्होंने प्रभुको सुवर्णके कलशोंसे स्नान कराया और उनका अर नाम रखा । क्रम क्रमसे कुछ काल बाद प्रभु युवा अवस्थाको प्राप्त हुए। उनका शरीर तीस धनुष ऊँचा था, ताये हुए सोनेकीसी कान्तिवाला था। उनकी आयु चौरासी हजार वर्षकी थी। प्रभुका एक हजार कन्याके साथ व्याह हुआ । इसके कुछ काल बाद वे राजा हुए । देवता-गण हमेशा आ-आकर उनको नमस्कार करते थे । कुछ समय बाद उनकी आयुधेशालामें चक्र-रत्न उत्पन्न हुआ, जिसके द्वारा अरजिनने बत्तीस हजार राजोंको अपने अधीन किया, उन्हें नमाया । वे अर चक्रवर्ती पुण्यात्मा और कृतकृत्य थे । उनके यहाँ अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी लाख हाथी तथा चौरासी लाख ही रथ थे। वे इतनी विभूतिके स्वामी थे । इसके सिवा वे बत्तीस हजार देशोंके स्वामी थे। छियानवें हजार स्त्रियोंके भोक्ता थे । वहत्तर हजार पुरोंके रक्षक थे । एवं ।' निन्यानवें इजार द्रोण और अड़तालीस हजार पत्तनोंके वे मालिक थे । उन
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सातवाँ अध्याय। womenternmommmmmierrimminer प्रभुफे सोलह हजार खेट और छियानवें हजार गाँव थे । एवं वे चौदह हजार वाहनों और समुद्रपर्यन्त दीपोंका पालन करते थे । वे बत्तीस हजार नाटकोंको देखते थे। उनके यहॉ एक करोड़ थालियॉ, तीन करोड़ गायें और एक करोड़ हल थे। सातसौ कुक्षिवास और अठत्तरसौ अटवी-दुर्ग थे । उनको अठारह हजार म्लेच्छ राजा नमस्कार करते थे । उनके यहाँ नौ निधियाँ और चौदह रत्न थे। उनके चरणोंकी रक्षा करनेवाली उनके यहाँ दो खड़ाउऍ थी जो विप-विकारको दूर करती थीं । चक्रवर्तीका अभेद्य नाम कवच और अजितेजय नाम रथ था। वज्रकांड नाम धनुप और अमोघ नाम शर थे। उनके वज्रतुंडा नाम शक्ति और सिंहाटक नाय भाला था | सुनंदा नाम तलवार
और भूतमुख नाम खेट-ढाल-थी। सुदर्शन नाम चक्र और चंडवेग नाम दंड था, जो दुष्ट प्रजाको दंड देता था। वज्रमयी चर्मरत्न, चिंतामणि और काँकिणी रत्न थे । पवनंजय नाम घोड़ा और विजय-पर्वत नाम हाथी था । एवं उनके यहॉ आनंद देनेवाली वारह भेरियाँ थीं; और बारह विजयघोष नाम नगाड़े थे। इस प्रकारकी ऋद्धिवाले प्रभु एक दिन किसी वैराग्यके निमित्तको पाकर विरक्त हो गये और उन्होंने अरविंदकुमारको सारा राज-पाट सौंप दिया । इसी समय अपना नियोग पूरा करनेको लौकान्तिक देव आये और उन्होंने प्रभुके आगे मार्गका निर्देश किया। इसके बाद सच्चे मार्गको वतानेवाले वे प्रभु वैजयन्ती नाम पालकी में सवार हो देवता-गणके साथ साथ सहेतुफ वनमें गये । वहाँ उन्होंने वन्यवृत्ति अर्थात् दिगम्बर मुद्रा धारण की । तात्पर्य यह कि अगहन सुदी दसमीके दिन हजारों राजों-सहित वे देवतों द्वारा सेवित और इंद्रके स्वामी प्रभु दीक्षित हो गये और उन्होंने छह उपवासों के बाद आहार लेनेकी प्रतिज्ञा की। वाद चार ज्ञानके धारक उन बुद्धिमान स्वामीने पारणाके दिन चक्रपुरमें अपराजित राजाके यहाँ पारणा फिया । प्रभुने सोलह वर्ष छद्मस्थावस्था बिताये । वाद घाति कर्मोको घातकर निष्पाप और विनवाधासे रहित वे प्रभु, आमके वृक्षके नीचे बैठे हुए कातिक सुदी पारसके दिन षष्ठोपवासके प्रभावसे फेवलज्ञानी हुए । उस समय सुर-असुर सभी आये और उन्होंने भगवानके पंचम ज्ञानकी पूजा की और घातिकर्मोंके अरि-वैरी-अराजिनका समवरण रचा। इसके बाद सम्मेदशिखर पर योगनिरोध कर हजारों मुनियों-सहित वे चैत वदी अमावसके दिन मोक्ष-महलमें जा विराजे । इस समय देवता-गण आये और उन्होंने मीठे मीठे शब्दों द्वारा प्रभुका गुण-गान किया और विकल्प
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पाण्डव-पुराण |
जालोंका छोड़ कर निर्द्वद हो उनका निर्वाण महोत्सव मनाया - जिससे उनकी आत्मा पवित्र हो गई; उनका पाप-मल हलका हो गया ।
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उन अरजिनकी जय हो जो वैरियोंके समूहको जीतनेवाले हैं, जिनके चरण कमलों की सुरेन्द्रों के समूह भी पूजा करते हैं, जो सब विद्याओंके भंडार हैं, जो भव्य जीवोंको धर्मका उपदेश करते है और जो धर्म-मय और धर्मसे सुशोभित परमात्मा हैं । जो महात्मा पहले धनपति नाम राजा थे वह बाद मुनियों में I श्रेष्ठ मुनीश्वर हुए और आत्म-संयम तथा शत्रुओं पर विजय पाने के प्रभाव से संजयंत विमान में देवतोंके अधिपति अहमिन्द्र हुए । वहाँसे चय कर भरत क्षेत्र में धर्मात्माओंके पति धर्मराज - तीर्थकर हुए । अरजिन तीर्थकर, सम्पूर्ण मनुष्योंके स्वामी चक्रवर्ती और कामदेव थे । तात्पर्य यह कि वे तीर्थंकर, चक्रवर्ती और कामदेव इन तीन पदोंके धारक थे । वे तुम्हारी रक्षा करें ।
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आठवॉ अध्याय।
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आठवाँ अध्याय ।
अरनाथ प्रभुके बाद अरविंद नाम उनका पुत्र राजा हुआ । उसके बाद
'शूर, पद्मरथ और रथी राज-पाटके भोक्ता राजा हुए । रथीके बाद उसका मेघरथ नाम पुत्र राजा हुआ | उसकी प्रियाका नाम पद्मावती था । पद्मावती के गर्भसे विष्णु और पथरथ नाम दो पुत्र उत्पन्न हुए । वे दोनों महान वली थे । एक समय निष्पाप और बुद्धिमान् मेघरथ राजा किसी निमित्तको पाकर विष्णु नाम पुत्र-सहित दिगम्बर हो गया। उसके पीछे दयालु पद्मरथ कुरुजांगल देशके हस्तनागपुरका राजा हुआ; उसने हस्तनागपुरके राज-सिंहासनको अलंकृत किया।
इसी समय अवन्ती देशमे उज्जैनी नगरीका श्रीवर्मा नाम राजा था और उसके चार मंत्री थे। उनके नाम क्रमसे वकि, वृहस्पति, प्रल्हाद और नमुचि थे। वे वाद-विवाद करने में बहुत कुशल थे । उनकी जाति वाड़व थी। वादकी इच्छासे उनका दिल हमेशा ही डॉवाडोल रहा करता था । एक दिन उज्जैनीमें अकंपन-आचार्य आये । उनके साथ सौ मुनि और थे । वे सब वहाँ आकर बनमें ठहरे | भविष्यके ज्ञाता अकंपन मुनिने उसी वक्त सब मुनियोको वादविवाद करनेके लिए मना कर दिया । मुनियोंको आया जान सभी नगरवासी उनकी वन्दनाको वनमें आये । उन्हें जाते हुए देख कर राजाने कहा कि ये लोग कहाँ जाते हैं ! इसके उत्तरमें मंत्रियोंने कहा कि ये सब लोग मुनीश्वरोंकी चन्दनाको जा रहे हैं । यह सुन राजाके हृदयमें भी भक्तिका संचार हो आया और वह भी उसी समय वन्दनाके लिए चला।
वनमें जाकर उसने मुनियोकी वन्दना की । पर मुनियोंने बदलेमें राजाको शुभाशीर्वाद न दिया । यह देख राजासे मंत्रियोंने कहा कि राजन निश्चयसे ये लोग कोरे वैल हैं। इनमें कुछ भी ज्ञान नहीं है।
इसके बाद वे सब वहाँसे राजाके साथ साथ चले आये । दैवयोग मार्गमें आते हुए उन्हें एक श्रुतसागर नाम पाल मुनि देख पड़े । उन्हें देख कर मंत्रियौन सी उड़ाते हुए कहा कि राजन् , यह एक युवा बैल है। • यह सुन मुनिने मंत्रियोंके साथ बहुत विवाद किया और उन्हें हरा दिया, जिससे वे बहुत ही लजाये । इसके बाद मुनि अपने स्थानको चले आये और वहाँ
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पाण्डव-पुराण । उन्होंने जैसाका तैसा सब हाल गुरुवर्यको कह सुनाया। इस पर गुरुवर्य ने कहा कि वत्स ! तुम जाओ और जहाँ वाद-विवाद हुआ है वहीं जाकर रात भर ठहरो; नहीं तो सब संघको आपत्तिमें पड़ना पड़ेगा। गुरुकी इस आज्ञाको शिरोधार्य कर श्रुतसागर गये और जहाँ वाद-विवाद हुआ था वहीं पहुंचे । रातके वक्त वे दुष्ट उन्हें मारनेको चले । वे जा रहे थे । इतनेमें मार्गमें वादके स्थल पर उन्हें सहसा वे ही मुनि देख पड़े। उन्हें देखते ही उन दुष्टोंके क्रोधका पारा चढ़ गया और वे हथियारों द्वारा उन्हें मारनेको तैयार हो गये । उन्होंने मुनिके ऊपर ज्यों ही हथियार छोड़ें त्यों ही पुरदेवताने आकर उन्हें बीचमें ही रोक दिया; उनके हथियार कील दिये । तब वे बहुत घबड़ाये । उनका चित्त बहुत ही व्याकुल हुआ। और अचंभेकी बात यह हुई कि उन्होंने जो मुनिको मारनेके लिए उन पर तलवारें उठाई थीं उनसे उन मुनिके ऊपर तोरण जैसी अपूर्व शोभा हो गई। सवेरा हुआ। राजाको खबर लगी। राजाने वहाँ आकर उन्हें दुष्कृत्यमें प्रवृत्ति करनेके कारण कीले हुए खंभेसे खड़े देखे । राजा बहुत विगड़ा । उसने उनका सिर मुड़ाकर गधे पर चढ़ा शहरसे वाहिर निकलवा दिया । वहाँसे वे राजा पद्मरथके पास हस्तनापुर गये और उन्होंने पद्मरथके साथ बहुत नम्रताका व्यवहार किया, जिससे उसने उन्हें अपना मंत्री बना लिया और उनकी सब तरह रक्षा की। इसके बाद एक समय पद्मरथके एक शत्रु राजाने उसे बहुत ही डर दिखाया जिससे पद्मरथ बड़ा भयभीत हुआ और प्रजामें भी कोलाहल मच गया । उस वक्त बलि मंत्रीने नाना युक्तियों द्वारा शत्रु को पकड़ लिया । इससे राजा पद्मरथ उस पर बहुत ही प्रसन्न हुआ और उसने उसे आज्ञा की कि इस समय तुम जो जी चाहे मॉगो। इस पर बलिने कहा कि महाराज, मैं सात दिनके लिए आपका राज्य चाहता हूँ । राजा तो उस पर मोहित हो ही चुका था, अंतः उसने सात दिनके लिए उसे राज्य देना स्वीकार कर लिया। इसके बाद एक समय विहार करते करते अकंपन आचार्य सातसौ मुनियोंके संघ-सहित वहाँ आ गये और योगकी सिद्धिके लिए उन्होंने वर्षाऋतुमें भी वहीं रहना स्वीकार किया । तथा उन्होंने सब योगि-, योंसे यह भी कह दिया कि आप लोग वादियोंसे वाद-विवाद नहीं करना नहीं तो वड़ा-भारी संताप भोगना पड़ेगा .। मुनियोंके आनेकी खबर बलिको मालूम हुई तब वह राजाके पाप्त गया और उसने पूर्व प्रतिज्ञाके अनुसार उससे सात दिनके लिए राज्य माँगा । राजाने भी उसे सात दिनको राजा बना दिया।
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आठवाँ अध्याय।
९७ राज्य पाकर बलि कुवेरकी नॉई खूब ही धन लुटाने लगा और उसने जाकर सातसौ मुनियों सहित अकंपन आचार्यको सेनाके द्वारा वेढ़ लिया । कारण, वह उन साधुओं पर पहलेसे ही रुष्ट था । वह अग्निमय यज्ञ करवा कर उन्हें संताप देने लगा। यह खबर जव विष्णुकुमार मुनिको लगी तव वे चलकर उदासीन भावको धारण करनेवाले पद्मरथ राजाके पास आये और उससे उन्होंने प्रेरणा कर कहा कि सत्पुरुपों द्वारा वन्दित और पूजित इस राज्य-पद पर स्थित होकर भी आप इस दुर्जन मंत्रीको अन्यायसे क्यों नहीं रोकते । हे कोविद ! मेरे इस प्रश्नका आप जल्दीसे उत्तर दीजिए । राजाने उत्तरमें कहा कि मैं सात दिनके लिए पलिको राज-पाट दे चुका हूँ। इस लिए अब मैं उसको रोक नहीं सकता। हाँ ! यदि आप रोक सकते हैं तो भले ही रोक दीजिए। इसके उत्तरमें विष्णुकुमारने कहा कि दुष्ट पुरुप जल्दीसे न्यायके रहस्यको नहीं पहिचान सकते । राजन् ! न जाने तुममें यह खलता कहाँसे आ गई, जो तुम पूज्य पुरुषोंका अनादर होते हुए भी नहीं चेतते । इसमें सन्देह नहीं कि मैं तो इस पापिष्ट और चतुराई-विमूढ़ पुरुपको इस अन्यायसे रोकूँगा ही । इतनी बातचीतके वाद विष्णुकुमारने वामनका रूप बनाया और वे उसी वक्त यज्ञभूमिमें पहुँचे । वहाँ उस वामनने अपनेको ब्रामण वर्णका बतलाया । वह कहने लगा कि मैं वेदवेदांगका पारगामी द्विज हूँ; वेदके अर्थको खूब समझता हूँ। और आप मनोरथको सिद्ध करनेवाले दाता हैं । अतः मुझे भी कुछ दान दीजिए । यह सुन वह चलीं बलिराजा वोला कि जो तुम्हारा जी चाहे सो तुम मॉग लो। मैं अवश्य दूंगा । क्योंकि पात्रमें द्रव्य देनेसे पदलेमें सुख मिलता है। इस पर विष्णुने कहा कि मुझे केवल तीन पैड भूमि चाहिए । इस पर वहाँ जितने लोग बैठे थे सब-के-सव वोल उठे कि विम ! तुमने इतनी थोड़ीसी याचना क्यों की। देखो, यह वलिराजा तो कुवेरकी नॉई महान दानी राजा है । फिर आपकी यह तनिकसी याचना कुछ ठीकसी नहीं मालम पड़ती । विष्णु बोला कि राजन् ! बहुत बातचीतसे कोई लाभ नहीं । वस, आप तो अब संकल्प-धारा छोड़िए। इसके बाद तीन पैंड पृथ्वीका संकल्प हुआ और संकल्पके बाद ही विष्णुकुमारने सारे संसारको घेरनेके लिए विक्रियाऋद्धिके द्वारा बड़ा भारी रूप बना लिया । इसके बाद उसने पॉव फैलाकर एक पॉव तो सुमेरुके शिखर पर रक्खा और दूसरा मानुपोत्तर पर्वत पर रक्खा । उस समय सुर-असुर और नारद आदि सभी वीणा ले-ले कर संगीत द्वारा उनका यशो गान कर
पाण्डव-पुराण १३
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पाण्डव-पुराण । नेको उद्यत हुए। वे कहने लगे कि विभो ! अब पॉच खींच लो पाँव खींच लो । एवं चामर जातिके देवतोंने वीणा बजा कर मुनिको प्रसन्न किया। उन्होंने सन्तुष्ट होकर विद्याधर राजोंको घोषा, सुघोषा, महाघोषा और घोषवती आदि वीणाएँ दीं। राजन् ! इसी प्रकार आपने भी मुझे प्रसन्न होकर तीन पैंड पृथ्वी दी थी। अव वताइए कि मै तीसरा पैंड किधरसे, नापू । तात्पर्य यह कि अब आप मेरे तीसरे पैंडको भी अवकाश दीजिये । कारण, अब यहाँ कहीं पैर रखनेको अवकाश नहीं सूझता । इतना कह कर क्रोधमें आ बलशाली विष्णुकुमारने राजा बलिको बाँध लिया वह जो मुनियोंको उपद्रच कर रहा था उसको एक मिनटमें अनायास ही वारण कर दिया और योगियोंकी रक्षा करली । वाद उस वली बलिराजाने भी मुनियोंकी रक्षा की
और अधर्मको रोक कर उत्तम रीतिसे धर्मको धारण किया, जो कि उसके योग्य था । इसके बाद संसारमै धर्मके प्रभावको फैलानेवाला वह विष्णुकुमार मुनि अपने स्थानको चला गया ।
पनरथ राजाके वाद क्रमसे पद्मनाभ, महापन, सुपन और कीर्ति, सुकीर्ति, पसुकीर्ति, वासुकि आदि बहुतसे राजा हुए । इसके बाद सांतनु नाम राजा हुआ, जो शक्तिवाला और कौरवों में अगुआ था; पृथ्वीको सुखी करनेवाला था। उसकी प्रियाका नाम था सबकी। वह रामचन्द्रकी सीताकी भॉति सती थी। उसके गर्भसे सांतनु राजाके पारासर नाम एक पुत्र पैदा हुआ, जो बहुत वली था।
रत्नपुरमें जयी जन्हु नाम एक राजा था। वह विद्याधर था। उसके गंगा नामकी एक पुत्री थी । वह पवित्र शरीरवाली और गुणोंकी खान थी । एक समय जन्हुने सत्यवाणी नाम किसी निमित्वज्ञानीसे उसके विवाहके सम्बन्ध पूछा और उसके कहे अनुसार गंगाका व्याह पारासरके साथमें कर दिया। गंगा जैसी पत्नीको पाकर पारासरको बहुत ही हर्ष हुआ। वह मनोहर शरीरवाला तथा कामकी महिमासे भरपूर राजकुमार उसके साथसाथ सुन्दर सुन्दर महलोंमें मनचाही कीड़ा करने लगा। कुछ काल वाद उसके यहाँ पुत्र उत्पन्न हुआ । उसका नाम रक्खा गया गांगेय । वह बृहस्पतिक तुल्य था। धीरे धीरे वह दोजके चॉदकी नाई बढ़ने लगा और क्रम क्रमसे उसने सभी विद्यायें सीख ली । यह धनुपविद्या बहुत निपुण था और चाहे जैसा ही निशाना क्यों न हो, एक मिनटमें ही छेद डालता था । एक दिन पुण्ययोगसे ।
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आठवाँ अध्याय। उसने एक चारणमुनिके मुखसे धर्मका उपदेश सुना और सभी सुख देनेवाले दया धर्मको यथाशक्ति ग्रहण भी किया। इसके बाद पारासर राजाने उसे युवराज बना दिया। सच है कि योग्य पुत्रको पिता और योग्य शिष्यको गुरु अपनी सारी सम्पत्ति दे डालता है, तब युवराज पदकी तो बात ही क्या है।
एक समय पारासर यमुना नदीके किनारे क्रीड़ाके लिए गया था। वहाँ उसने नौकामें बैठी हुई चकोर जैसे सुन्दर नेत्रोंवाली एक मनोरमा कन्याको देखा। उसको देखते ही पारासरका मन मोहित हो गया, वह उस पर निछावर हो गया । और कामासक्त हो वह उसके पास जाकर कहने लगा कि तुम कौन हो ? किसकी पुत्री हो ? वह वोली कि राजन् ! मैं यहीं गंगातट पर निवास करनेवाले मल्लाहोंके अधिपतिकी पुत्री हूँ और मेरा नाम है गुणवती । मैं अपने पिताकी आज्ञासे हमेशा यहाँ नौका चलाया करती हूँ। क्योंकि कुलीन कन्याएँ कभी माता पिताके प्रतिकूल नहीं होती।
___ यह सुन पारासर राजा कन्याकी चाह वश वह उसी समय उसके पिताके , पास गया। पारासरको आता देख धीवरने उसका बड़ा आव-आदरके साथ स्वागत किया, जिससे पारासरको बहुत ही खुशी हुई।
इसके बाद राजाने उस शिष्टाचारीको अपना मनोरथ कह सुनाया कि तुम्हारी गुणवती पुत्रीको मैं अपनी सहचारिणी बनाना चाहता हूँ।
यह सुन धीवरने कहा-राजन् ! इस पतिंवरा कन्याके देनेको तुम्हारे लिए मेरा उत्साह नहीं होता । कारण, तुम्हारे राज-पाटको सँभालनेके लिए गांगेय नाम एक पराक्रमी पुत्र मौजूद है । तब आप ही बताइये कि मेरी कन्यासे जो सन्तान होगी वह गांगेयके होते हुए क्या कभी राज-पाटको भोग सकेगी ? अतः राजन् ! आप इस सम्बन्धकी बातचीत ही मत छेडिए । इस प्रकार उस धीवरने जव युक्तिसे कन्या देनेका निषेध किया तो राजाका मुंह मुरझा गया-चेहरा उतर गया; और आखिर वह अपने घरको चला आया । अपने पिताका मुरझाया हुआ चेहरा देख कर गांगेय वहुत व्याकुल हुआ । वह सोचने लगा कि क्या मैंने इनका कुछ अविनय किया है ? या और किसीने इनकी आज्ञा भंग की है ? या इन्हें मेरी माताका स्मरण हो आया है ? क्यों इनका मुंह कालासा देख पड़ता है । इस प्रकारके ऊहापोहके बाद जब वह कुछ भी निश्चय न कर सका तब उस जयाने एकान्तमें मंत्रीसे
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पाण्डव-पुराण |
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पूछा कि आज महाराजका मुँह मलिन क्यों हो रहा है ? इसके उत्तर में मंत्रीने गांगेयको सारा कच्चा हाल कह सुनाया । तव गांगेय उसी वक्त उस धीवर के घर गया और धीवरको कहने लगा कि तुमने जो राजाका अनादर किया | यह अच्छा नहीं किया । उत्तरमें वह घविर बोला कि कुमार इसका कारण सुनिए । वह यह कि जो सौतका पुत्र होते हुए भी अपनी कन्या देता है वह अपनी प्राणोंसे प्यारी पुत्रीको अँधेरे कुएमें ही ढकेल देता है । हे नररत्न ! जिसके तुम सरीखे सौत - पुत्र मौजूद हो, तुम्हीं कहो कि मेरी कन्या के पुत्रको कैसे सुख हो सकता है ? क्या सिंहके होते हुए मृग-गण भी सुखी हो सकते हैं ?
कुमार ! मेरी पुत्रीकी भावी सन्तान किसी तरह भी राज्यको नहीं भोग' सकेगी; किन्तु उल्टी आपत्तिमें फॅस जायगी । क्योंकि तुम्हें छोड़कर राजलक्ष्मी दूसरेके पास नहीं जा सकती; वह दूसरेको पसंद नहीं कर सकतीजैसे कि समुद्रको छोड़कर नदियाँ तालावोंमें गिरना पसंद नहीं करतीं । इस पर गांगेयने अपने भावी मातामहको यों समझना आरम्भ किया कि यह केवल मात्र आपका भ्रम है । क्योंकि और और वंशोंसे इस कुरुवंशका निराला ही स्वभाव है । बताइए कि कहीं हंस और बगुलेका भी एक स्वभाव हो सकता है । और भी सुनिए कि मै गुणवती सतीको अपनी मातासे भी कहीं अधिक आदरकी दृष्टिसे देखूँगा । इसके बाद गांगेयने हाथ उठा कर कहा कि मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि गुणवतीकी भावी संतान ही राज- पाटकी भोक्ता होगी, मैं नहीं । इस पर फिर धीवरने कहा कि कुमार ! आगे जो आपकी सन्तान होगी वह कैसे किसी दूसरेके राज-काजको सह सकेगी खड़ा होता है कि गुणवतीकी सन्तान राज्यसे वंचित ही रह जायगी । यह सुनते ही गांगेय उसके अभिप्रायको ताड़ गया और कहने लगा कि तुम्हारी इस चिन्ताको भी मैं अभी अभी मिटाये देता हूँ । यहाँ तुम और आकाशमें सिद्ध, गंधर्व, विद्याधर वगैरह सभी सुनो कि आजसे मैं जन्म भरके लिए ब्रह्मचारी होता हूँ; ब्रह्मचर्य लेता हूँ | इतनी बातचीत के बाद धीवरने कन्याको बुलाया और अपनी गोद में बैठा लिया । इसके बाद उस बुद्धिशालीने गांगेयसे कहा कि तुमने जो पिताके मनोरथको साधनेके लिये ब्रह्मचर्य व्रत लिया है इससे जान पड़ता है कि संसारमें तुम बड़े गुणवान् हो । दूसरे मैं तुमसे एक कहानी कहता हूँ । उसे तुम सावधान चित्त हो सुनो ।
अतः फिर भी वही प्रश्न
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आठवाँ अध्याय।
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एक दिन मैं विश्रामके अर्थ यमुना नदीके तट पर गया था । वहॉ मैंने अशोक वृक्षके नीचे सुन्दर रूपवाली तथा उसी समयकी पैदा हुई और किसी पापी द्वारा वहाँ छोड़ दी गई एक कन्याको देखा । मेरे कोई सन्तान न थी, इस लिए मैं हमेशा सन्तानकी स्पृहामें लगा रहता था । मैं उस सुरूपा कन्याको लेनेके लिये कुछ अचम्भेके साथ प्रत्त हुआ । तब आकाशवाणी हुई कि रत्नपुरके राजा रत्नांगदकी रानी रत्नवतीके गर्भसे यह कन्या उत्पन्न हुई
और इसे यहाँ रत्नांगदके वैरी किसी खेचर-विद्याधर-ने लाकर डाल दी है। यह सुन मैने निःशंक भावसे उसे उठा लिया और लाकर अपनी निःसन्तान प्रियाकी गोदमें दे दी; तथा उसका नाम गुणवती रख दिया । वह मेरे यहॉ पल कर सयानी हो गई। वही यह मेरी पुत्री है । तुम मेरी इस पुत्रीको अपने पिता सांतनु राजाके लिए ग्रहण करो । इसके बाद गांगेय गुणवतीको लेकर अपने नगरको लौट आया और वहाँ उसने विधिपूर्वक उसका अपने पिताके साथ व्याह कर दिया । गुणवती पत्नीको पाकर सांतनु वड़ा सुखी हुआ, जैसे कि गरीव पुरुष भारी खजानेको पाकर सुखी होता है । गुणवतीको गधिका और योजनगंधिका भी कहते हैं । कुछ काल बाद उसके गर्भसे खोटी आदतोंसे रहित और उत्तम अभ्यास करनेवाला एक व्यास नाम पुत्र पैदा हुआ। वह पापको घटानेवाला धर्मात्मा था । सवाका रवामी था। उसकी भामिनीका नाम था सुभद्रा । वह बड़ी भद्र थी । उसके गर्भसे तीन पुत्र उत्पन्न हुए । उनके नाम थे क्रमसे धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर । ये तीनों वहुत ही सुन्दर थे । बड़े बली और वलसे उद्धत थे।
भरतक्षेत्रके हरिवर्प नाम देशमें एक भोगपुर नाम नगर है । वह अतिशय शोभाशाली है । उसमें सभी भोग-सामग्री मौजूद है, जिससे वह इन्द्र आदि देवता-गणके स्वर्ग-स्थानको भी जीतता है । आदिनाथ प्रभु द्वारा स्थापित हरिवंशका प्रभंजन नामका वहाँ राजा था । उसे सभी सुख प्राप्त थे । वह सुखका सागर था। उसकी मियाका नाम था मृकंडू । वह रूपवती, लावण्यवती और भाँति भॉतिके भूषणोंसे विभूपित थी । उसके गोल और कठिन स्तन थे तथा केलेके खंभेकी नाई सुन्दर जॉचे थीं । अधिक कहॉ तक कहा जावे वह इन्द्रकी शचीसे किसी भी बातमें कम न थी।
कौशाम्बी नगरीमे एक सेठ रहता था । उसका नाम था सुमुख । वह सुन्दर मुखवाला और धनी था । उसने किसी वक्त धन-दौलतके लोभमें आ
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१०२ . पाण्डव-पुराण । वनमाला नाम वीरदत्तकी स्त्रीको हर लिया था । एक समय उसने मुनिको आहार दान दिया, जिसके प्रभावसे वह मर कर प्रभंजन राजाके यहाँ सिंहकेतु नाम पुत्र उत्पन्न हुआ। वह अपने तेजसे सूरजको भी जीतता था।
उसी हरिवर्ष देशके शीलनगरमें वज्रघोष नाम एक राजा था । उसकी प्रियाका नाम था सुप्रभा । उसके गर्भसे वनमालाका जीव विद्युत्मभा नाम पुत्री उत्पन्न हुई। वह सुन्दर रूपवाली और मन तथा नेत्रोंको आनंद देनेवाली थी। कुछ काल बाद उसका विवाह सिंहकेतुके साथ हो गया। उधर वह वीरदत्त मरकर चित्रांगद नाम देव हुआ । एक दिन सिंहकेतु और विद्युत्लभा दोनों वनमें क्रीड़ा कर रहे थे । उन दम्पतीको उस चित्रांगद नाम देवने हर लिया। वह उन दोनोंको मारना ही चाहता था कि उसके मित्र सूर्यमभ देवने उसे मारनेसे रोक दिया और वह मान भी गया । तात्पर्य यह कि उसने उन्हें मारा नहीं, किन्तु चम्पानगरीके वनमें छोड़ दिया । फिर वे दोनों देव स्वर्गको चले गये। दैवयोगसे इसी समय चंपानगरीका चंद्रकीर्ति नाम राजा मर गया था । उसके कोई भी सन्तान न थी । अत: राजाके निश्चयके लिए हाथी छोड़ा गया । हाथी वनमें आया और उसने इन दम्पतीका अभिषेक किया। इन्हें वहॉका राज-पद मिल गया । उस समय सिंहकेतुने अपना सारा हाल वहाँके लोगोंसे कहा; जिसको सुनकर वे बहुत हर्षित हुए और उन्होंने सिंहकेतुकी खूव पूजा-स्तुति की। तथा मृकंडूका पुत्र होनेसे उन्होंने उसका मार्कण्डेय नाम प्रसिद्ध किया। इसके बाद हरिगिरि, हेमगिरि, वसुगिरि आदि राजोंकी वंशपरम्परा चली । उसके बाद सूर और वीर ये दो भाई भाई राजा हुए । सूरकी रानीका नाम सुरसुन्दरी था । वह अपनी सुन्दरतासे देवागनाओंकी समता करती थी। कुछ काल बाद सूर और सुरसुन्दरीके अन्धकदृष्टि नाम नीतिका ज्ञाता एक पुत्र पैदा हुआ। उसकी भार्याका नाम था भद्रा । वह बड़ी भद्र थी और कल्याणके मार्ग पर चलनेवाली थी। उसका मुख चाँदके जैसा था। कुच मनोहर थे । दृष्टि चंचल थी, जिसके लोगोंपर पड़ते ही उनका दिल चंचल हो उठता था । अन्धकदृष्टिके भद्राके गर्भसे दस पुत्र उत्पन्न हुए। वे सभी नीतिके ज्ञाता थे। प्रसिद्ध और उत्तम पुरुष थे । उनका मस्तक विशाल और सुन्दर था। वहुत क्या कहें वे दस धर्मसे देख पड़ते थे। उनके क्रमसे नाम थे-समुद्रविजय, स्तिमितसागर, हिमवत् , विजय, अटेल, धारण, पूरण, सुवीर, अभिनंदन और वसुँदेव । वसुदेव । वास्तवमें वसुदेव-धनदेव-ही था; महायलि और सुभट था । एवं अंधकष्टदिके
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आठव अध्याय |
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दो पुत्रियाँ हुई । एक कुन्ती और दूसरी मद्री । कुन्ती नाना कलाओं में निपुण और कुचरूपी कुंभों के भारसे नम्र थी । पूरे चॉदके समान सुन्दर उसका मुख था और उन्नत नितम्व थे तथा कमर बिल्कुल पतली थी । वह अपने शरीर की कान्ति द्वारा हमेशा अंधेरेको दूर करती थी । अपनी कटाक्ष-रूप- सुधा-धारासे देवांगनाओं को भी जीतती थी । एवं मद्री भी मूर्त्तिमान् अनंग -- कामदेवकी समता करती थी । जान पड़ता था कि अनंगने यह शरीर ही धारण कर लिया है । वह अपने कटाक्षोंसे देवों और पंडितोंको भी जीतती थी । एवं देवतोंकी घरावरी करती थी । यहाँ गणधर प्रभु कहते हैं कि श्रेणिक ! अब हम क्रमसे समुद्रविजय आदि की परस्परमें प्रीति रखनेवाली मियाओंके नाम कहते हैं । सो तुम सुनो ।
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सुखकी खान शिवादेवी, गंभीर स्वरवाली धृतिधात्री, सुन्दर प्रभावाली स्वयंप्रभा नीति से चलनेवाली सुनीता, सीताके समान ही सुन्दराकृति सीता, मीठे वचन बोलनेवाली मिर्यवाक, मभारूप भूपणवाली प्रभावती, सोनेफी नाँई उज्ज्वल फैलिंगी, सुन्दर प्रभावाली सुभा ये क्रमसे नौकी स्त्रियोंके नाम हैं ।
समुद्रविजय आदिका सुवीर नाम एक भाई मथुरा में रहता था । उसकी प्रियाका नाम था पद्मावती । सुवीर और पद्मावती के भोजकदृष्टि नाम एक पुत्र था । उसकी प्रेयसीफा नाम सुमति था । वह सुन्दर मुखवाली और उत्तम ज्ञानवाली थी । उसका मन बहुत निर्मल था । भोजकदृष्टिके सुमति मियाके गर्भ से उग्रसेन, महासेन और देवसेन नाम तीन पुत्र उत्पन्न हुए । वे लोगोंको आनंद देनेवाले और अपनी वाहनको खुश करनेवाले थे । उनकी वहिनका नाम था गांधारी । वह बड़ी घीरवीर और गुणोंकी खान थी । पूरे चॉदके समान सुन्दर उसका मुख था | वह नम्र और चतुरा थी; गोल और कठोर कुचोंवाली थी । उग्रसेन आदिकी स्त्रियोंके क्रमसे पद्मावती, महासेना और देवसेना ये नाम थे । ये तीनों ही हँसमुखी थीं ।
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राजगृहका राजा वृहद्रथ था । वह इन्द्र जैसा सुशोभित था । उसकी सभायें बड़े बड़े राजा महाराजा उपस्थित रहते थे । वह राज सिंह था । उसकी भामिनीका नाम था श्रीमती । वह बहुत ही सुन्दरी थी । जान पड़ता था कि वह दूसरी लक्ष्मी ही है । दृहद्रथ और श्रीमतीके एक जरासंघ नाम पुत्र हुआ । वह भी बहुत प्रतापी और तेजस्वी था; तथा भरतक्षेत्रके तीन खंडोंका स्वामी
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पाडण्व-पुराण । wwwwwwwmmmmmmmmwwwwinna mmmmonwrom था । राजोंके राजा भी उसकी सेवा करते थे । वह भविनारायण था । शठोंकी शठताका वह बहुत अच्छा इलाज करता था।
एक समय व्यासने कुन्तीके पिता अंधकदृष्टिसे पांडुके लिए सुकेशी कुन्तीकी याचना की । तव अंधकवृष्टिने इस पर अपने पुत्रोंके साथ एकान्तमें विचार किया और यह निश्चय किया कि पांडुको कुष्ट रोग है, इस लिए उसे कन्या देना योग्य नहीं । इसके बाद पहलेकी भाँति व्यासने कुन्तीके सम्बन्धमें अंधकदृष्टिसे वार वार प्रार्थना की; परन्तु उसे सफलता प्राप्त न हुई। तात्पर्य यह कि अंधकदृष्टिने पांडुके लिए कुन्तीका देना स्वीकार न किया। आखिर व्यास अपने चित्तमें धीरज घर कर चुप रह गया।
___ उधर इन्द्र जैसी विभूतिका धारक पांडु राजा कुन्तीके रूप पर निछावर हो चुका था। उसके बिना उसे एक मिनट भी चैन न थी; जैसे कि रतिके विना कामदेवको कल नहीं पड़ती । पांडुताका स्थान पांडु राजा कुन्तीका स्मरण करता करता ज्वरवाले पुरुषकी नॉई विह्वल और भूतग्रस्त पुरुषकी भॉति अस्थिर-चित्त हो गया था । कुन्तीके वियोगसे उसका शरीर झुलससा गया था, जैसे वज्रपातसे शालवृक्ष झुलस जाता है, परन्तु तो भी उसके भस्मकी भाँति पांडके शरीरकी अपूर्व ही शोभा थी।
एक दिन पांडु वनमें क्रीड़ाके लिए गया; और वहाँ वह फूलोंके उपहारकी शय्यावाले लतामंडपमें क्रीड़ा करने लगा । इतनेमें वहाँ पड़ी हुई उसे एक अंगूठी देख पड़ी । वह उसके पास गया और उसने उसे उठा लिया। इसी समय इधर उधर कुछ देखते फिरते हुए किसी विद्याधर पर पांडुकी दृष्टि जा पड़ी। उसे देखकर पांडुने पूछा कि भाई, तुम क्या खोजते फिरते हो? उत्तरमें विद्याधरने कहा कि मैं मेरी अंगूठी खोजता हूँ। यह सुन पांडने उसे अगूठी दिखाकर कहा कि महान पुरुषों द्वारा मान्य और विद्याधरोंके अधिपति! आप अंगूठी खोजनेका कष्ट काहेको उगते हैं। आपकी अंगूठी तो यह है । हे खगपति ! कहिए कि आपकी यह अंगूठी खोई कैसे गई थी? इस पर विचारशील विद्याधर बोला कि मै विजयाई पर्वतका निवासी वज्रमाली नाम विद्याघर हूँ। मैं अपनी प्राणप्यारीके साथ इस सघन वनमें सुख-क्रीड़ा करनेको आया था, और क्रीड़ा कर जब यहाँसे वापिस लौटा उस समय भूलसे विमानके किसी छिद्र द्वारा मेरी यह अँगूठी गिर गई। मुझे इसकी खबर न पड़ी।
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और मैं वेगसे विमान लिये चला गया। पीछे जब कुछ देरमें याद आई तब उस माणप्यारी अंगूठीको खोजनके लिए मैं लौट कर यहाँ आया हूँ । उसकी बात पूरी ही न हो पाई थी कि वीचमें ही पॉडु वोल उठा कि इसके द्वारा आप कौनसा काम साधते हैं । विद्याधरने कहा कि यह अंगूठी मनचाही वस्तु देनेवाकी है। इसके द्वारा जैसा रूप चाहें बना सकते है । यह यथेष्ट रूपकी देनेवाली है । यह । सुन पांडु कहने लगा कि मित्र ! यदि यह ऐसी है तो कुछ दिनोंके लिए मुझे दे दीजिए । मैं इसे हमेशा अपने हाथकी उंगुलीमें पहनूंगा; और पीछे कार्य सिद्ध हो जाने पर आपको वापिस दे दूंगा। इस तरहकी प्रार्थना करने पर उस परोपकारी वज्रमाली विद्याधरने पांडुको वह अंगूठी देदी । उसने विचारा कि जड़ मेघतो विना याचनाके ही दूसरोंको मीठा-ठंडा-जल पिलाते हैं और मैं चेतन होकर यदि याचना करने पर भी अँगूठी न दूं तो मैं जड़ मेघोंसे भी गया वीता हो जाऊँगा।
अॅगठीको उँगलीमें पहिन कर वह खरीपुरको चला गया, जहाँ कि सूर राजा रहता था । वहाँ रातके वक्त उसने अंगूठीके प्रभावसे अदृश्य रूप बनाकर अन्तःपुरके रनवासमें प्रवेश किया तथा कुन्तीके रूपकी मन ही मन कल्पना करता हुआ वह उसके महलमें पहुँचा । कुन्ती आसन पर बैठी हुई थी । सुन्दर वस्त्र पहिने थी। उसका शरीर सुडौल, कोमल और रूप लावण्यवाला था। वह कामदेवकी रतिके समान ही देख पड़ती थी।
उसने कामदेवको अपने भुजारूप दंडोंसे विशेष दंडवाला कर दिया था, अत एव कामके जोरसे वह मदनातुर हो रही थी, उसके हृदयमें कामदेव बस गया था । वह मदके उन्मादसे विलक्षण ही विनोद करती थी । उसका मन बहुत गंभीर था । साराश यह है कि यह सब बातें उसमें थीं, पर वह इनको अपने गहरे मनके सिवा किसीके कर्ण-कुहरमें नहीं जाने देती थी। उसके गोल और कठिन कुचोंके भार और भारी नितम्बोंके भारसे उसकी कमर बिल्कुल पतली हो गई थी । ठीक ही है कि चाहे कोई भी हो, जो मध्यस्थ होता है उसे तकलीफ सहनी ही पड़ती है । जयशील अनंग-कामदेव-जव सारे संसारको एकदम जीत चुका और उसे कहीं भी रहनेको जगह न रही तब घूमता फिरता वह इसके पास आया और इसमें कुचोंमें स्थिर हो गया। यदि ऐसा नहीं हो तो फिर कुचोंके स्पर्शसे वह प्रगट क्यों हो आता है।
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पाण्डव-पुराण।
ऐसी प्रसिद्धि है कि महादेवने कामको जला डाला था। परन्तु काम फिर भी लोगोंको पीड़ा देता है । अतः यहाँ यह प्रश्न उठता है कि वह जीवित कैसे हो गया ! इसके उत्तरमें कवि उत्पेक्षा करता है कि कुन्तीके जघन-स्थलको सुंघ कर कामदेव जीवित हो गया है। जैसे कमलों पर उड़नेवाला भौंरा उनके रसको पीकर होशमें आ जाता है । यह अचम्भेकी बात है कि चित्रके जैसी लिखी हुई होकर भी वह विचित्र आकारोंको धारण करती थी। उसके नेत्र चित्रमें लिखे हुए हरिणके नेत्रों कैसी आभावाले थे; परन्तु फिर भी वे मनुष्य के नेत्र रूप हरिणोंको बॉध लेते थे । यह सब देख-कर पांडुने सोचा कि इसके विना मैं अब अपना व्यर्थ ही समय खो रहा हूँ और वह एकदम मानमद छोड़ कर प्रगट हो गया । इस समय चंद्र जैसे मुहवाले और कान्तिके सदन पांडुको देखकर कुन्तीका दृढ़ शरीर कुचों-सहित काँप गया। वह उसकी सुन्दरता देखकर विचार करने लगी कि इसका ललाट ही इतना कान्तिशाली है या इसमें अष्टमीका आधा चाँद खचित हो रहा है । इसके शिर पर यह केश-पास है या काम-अनिकी शिखा है । इसके सुन्दर कपोल-रूप भीतोंमें कामदेव ही चित्रित हो रहा है। क्योंकि यदि ऐसा नहीं हो तो इसके कपोलों को देखकर स्त्रियोंका काम उद्दीत क्यों हो जाता है । इसके वक्षस्थलमें हारके छलसे लक्ष्मी ही रमती है, क्रीड़ा करती है। यदि ऐसा नहीं हो तो फिर इसके हृदयको पाकर अथोत् इसके मनमें स्थान पाकर पुरुष लक्ष्मीवाले क्यों हो जाते हैं। इसकी दोनों भुजाएँ भोगने योग्य स्त्रियोंको बॉधनेके लिये मानों दो पाश ही हैं। ऐसा न हो तो फिर उन भुजाओंको देखकर स्त्रियाँ वधीसी क्यों हो जाती है। कुन्ती विचारती है कि इसके मुंहमें तो सरस्वती रहती है-सोती है, हृदय-मन्दिरमें लक्ष्मी निवास करती है तथा शरीरमें शोभा रहती है। अब मैं इसके किस भागमें रहूँगी-स्थान पाऊँगी । तात्पर्य यह कि इसके सभी स्थान तो और
औरने घेर लिये हैं, अब मुझे कहाँ जगह मिलेगी; मैं कहाँ रहूँगी । यह सूरज है कि चाँद हैं। इन्द्र है या घमंडी काम है; धरणेन्द्र है कि किन्नर देव है। यह सीमा युक्त, दुर्लध्य और विघ्न-बाधाओंसे रहित मेरे मन्दिरमें कैसे और किस लिये आया है । इतना सोच विचार कर उसने साहसके साथ कहा कि हे साहसशाली! आप कौन हैं और किस कपटसे मेरे महलमें आये हैं । कुन्तीके इन वचनोंको सुनकर उसके आलिंगनके लिये जंभाई लेता हुआ श्रमी, वाग्मी, तत्वज्ञ और कृतज्ञ पांडु बोला कि हे सुश्रोणि ! यदि तुम्हें सुननेकी
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१०७ इच्छा हो तो मनके मैलको दूर कर सुनो । पतिवरे, प्रसिद्ध और वीरे ! मै तुमको सव हाल सुनता हूँ । जरा ध्यान देकर सुनो। - कुरुजांगल देशमें एक हस्तिनागपुर नाम नगर है। वहाँ धृतराष्ट्र राजा रहते हैं। मैं उनका छोटा भाई हूँ। मुझे सब कोई जानते हैं । मैं समता-भावको और क्षमाको धारण करनेवाला हूँ। लोग मुझे पाड पण्डित कहते हैं। क्योंकि मेरेमें संसार भरकी पॉडुता आकर इकट्ठी हो गई है। मेरी आज्ञाको कोई लॉघ नहीं सकता और ऐश्वर्यमें दखल नहीं दे सकता। अतः मै इन्द्र के तुल्य हूँ। और जिस तरह योगी जन आत्माका, कामदेव रतिका और कामी पुरुष स्त्रीका स्मरण करते हैं उसी तरह तुम्हारा स्मरण करता हुआ, कामातुर हो मैं तुम्हारे पास आया हूँ । मेरा मन बिल्कुल तुम्हारे अधीन हो चुका है। वह अब मेरे वशमें नहीं है।
पांडके इन चनोंको गौरके साथ सुन चुकने पर वह वोली कि राजन् ! मैं अभी विना ब्याही हूँ । अतः यदि इस समय यह कार्य होगा तो लोगोंमें बहुत अफवाह उड़ेगी और बड़ी बदनामी होगी । दूसरी बात यह कि पिताकी आज्ञाके बिना चीरा और कुलवती कन्याएँ अपने आप किसीको अपना वर भी नहीं वनाती । इस लिये आप इस अयुक्त वातको न कह कर जो सर्व-सम्मत हो वही वात कहिए । इस पर कामकी पीड़ासे पीड़ित पहुिने उत्तरमें कहा कि कामिनि, तुम्हारे नामके 'कुन्ती' इन दो अक्षरोंके मंत्र द्वारा खींचा गया तो मैं यहाँ तक आया हूँ और यदि इस समय कामकी आज्ञाको लॉघू तो हे भीरु ! मुझे बहुत डर लगता है कि काम न जाने मुझे आज्ञा भंगकी क्या सजा देगा । यह मेरे हृदयको जरित किये डालता है । कामदेवके भयसे कामसे पीड़ित हुए पुरुपोंकी मृत्यु तक हो जाती है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं । इस लिये तुम मेरे वचनोंको अपने हृदयमें स्थान दो और वहॉसे लज्जा-रूपी वेलकी जड़को उखाड़ दो । वास्तव बातको जाननेवाली होकर भी तुम लोकापवादका भय करती हो । देवी, मदोन्मत्त काम-रूपी हाथी मदसे उद्धत होकर नीति-रूप अकुंशको नहीं मानता और स्वच्छन्द हो इधर उधर-जहाँ उसका मन चाहता-घूमता है । और भी सुनो कि तभी तक लोक-लाज रहती है। तभीतक धर्म-वृक्ष हराभरा रहता है और तभी नक शास्त्रज्ञान रहना है जब तक कि काम-रूप हाथी कोप नहीं करता; उद्धत नहीं होता । बस, अब बहुत वात चीतसे कोई लाभ नहीं; किन्तु अन्तिम बात यह है कि या तो अपने शरीरका मेरे हाथमें दे दो या मेरी मृत्युको अपने हाथमें ले लो । देवी, तुम डरो मत; आलिंगन
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दो । यहाँ ग्रन्थकार कहते हैं कि देखो, कामी पुरुषोंकी ऐसी गति होती है । वे योग्य-अयोग्यका कुछ भी विचार नहीं करते -- उनके हृदयसे विवेक कूच कर जाता है । पांडु कहता है कि दयाधर्मको पालनेवाली देवी, अब देर मत करो; किन्तु जल्दी से मन दो, वचन दो, और काम भी दे डालो, क्योंकि तुम्हारे दिये हुए दानके बिना अब मुझे कल नहीं पड़ती; सन्तोष नहीं होता। क्या तुम्हें ज्ञात नहीं कि अर्थी पुरुष दानसे ही सुखी होते हैं । कामसे रुचि रखनेवाली और उत्तम बुद्धिवाली देवी, यदि तुम्हें मेरा यह कहना रुचता हो तो तुम जल्दी से कामके मदको दूर करनेवाली क्रीड़ा करो। देखो, इच्छावाला पुरुष दाताके पास जाता है और दाता उसकी इच्छा को पूरी करता है। इसमें यही एक कारण है कि याचना भंग करना संसार में शोभा नहीं पाता — इसे लोग अच्छा नहीं कहते । हे घूर्णिते ! अब तो तुम आलसको छोड़ दो और मेरी मा घूर्ण विधि - पाहुन गत करो; क्योंकि मैं तुम्हारा प्राघूर्णक— पाहुना हूँ | देखो, अब मेरी याचनाको भंग मत करो। कामदेव बहुत ही निष्ठुर है, वह हमेशा ही नर-नारियोंको दुःख देनेके लिये तैयार रहता है और अपने धनुषको कान तक खींच कर पॉच वाणों द्वारा उन्हें दुःख दिया करता है । और इसी लिये यह कहा जाता है कि तभी तक लाज और कुल रहता है, तभी तक भय और मर्यादा रहती है तथा तभी तक माता-पिता और परिवारकी आन रहती है जब तक कि कामदेव कोप नहीं करता । इतनी बात चीतके बाद उन दोनोंने मदातुर होकर लाज- रूपी परदेको छेद-भेद डाला और बहुत कालके वियोग के कारण उस समय सारी काम चेष्टायें कीं । पांडुने कुन्तीके गलेमें हाथ डाल दिया और — जिस तरह कमलको भौरा चूमता है उसी तरह — उसके मुँह पर अपना मुँह रखकर वह उसका चुम्बन लेने लगा । वह कमलकी गंधको सुँध लेने मात्र से उन्मत्त हुए भरेकी तरह उसके अपूर्व मुँent गंधको कर बड़ा सन्तुष्ट हुआ - उन्मत्त सा हो गया । वह उसके वनको कभी सिकोड़ देता और कभी फैला देता । इस तरह दोनों भुजाओंसे उसका बार बार आलिंगन कर वह उसके साथ भोग-क्रीड़ा करने लगा । हाथी के कुंभस्थलकी नाँई ऊँचे उसके दोनों कुच रूप कुंभों पर पांडुके दोनों हाथ ऐसे जान पड़ते थे मानों वे निधिके लोभी सुखी और आसक्त दो पुरुष ही इन कुंभों की सेवा करते हैं । वियोग-रूपी गरुड़से डरा हुआ और स्त्रीमें दत्तचित्त वह उसके कुच-रूप वनमें क्रीड़ा करने लगा, जैसे गरुड़से डरा हुआ सॉप चंदन-वनमें कीड़ा करता है । वह कभी उछलता, कंभी चुम्बन लेता, कभी हास - विलास और
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आठवाँ अध्याय । कभी और और क्रीड़ायें करता था । वे दोनों एक दूसरेके ऊपर आसक्त होकर बहुत ही प्रमन्न हुए और एक ऐसे विचित्र भावको प्राप्त हो गये, जो कि वचनोंसे वाहिर है । उन दोनोंने एक दूसोका झालिंगन और स्पर्शन करके कुछ काल तक सुखका अनुभव किया । वे परस्परमें एक दूसरेके मुंहको सूंघते थे और जमाई लेते थे । इस प्रकार काम-सुखसे प्यारी मेयसीको प्रसन्न कर वह पांडु पण्डित स्वयं भी खूब प्रसन्न हुआ । ठीक ही है, प्रियासे किसे संतोप नहीं होता । इस तरह अदृश्य-रूपको बनाकर वह अपवित्र हमेशा ही कुन्तीके यहॉ आता जाता रहा और निःशंक होकर उसके साथ काम-क्रीडा करता रहा । एक दिन दैवयोगसे कुन्तीफे साथ बैठे हुए उसे कुन्तीकी धायने प्रत्यक्ष आखों देख लिया और वह मन-ही-मन सोचने लगी कि यह कौन है ? कहाँसे और किस लिये यहाँ
आता है ? इसके बाद जब वह चला गया तव कुछ बनावटीसे नाराजी दिखाकर, अधीर हो, उस धायने व्यग्र मनसे कुन्तीको पूछा कि पुत्री, एक अचम्भेकी बात है, जो मेरे चित्तको चंचल और विदीर्ण करे डालती है । कहते तो सही, यह कौन है ? और हर दिन कहाँसे तेरे पास आता है ? यह सुन कर कुन्तीके मनमें बड़ी धवराहट हुई । उसकी नेत्र चंचल हो गये। शरीर बिल्कुल अचल हो गया । उसमें लोहूका संचार वन्द हो गया। वह कुछ लड़खड़ाती हुई जवानसे, बड़े कष्टके साथ, बोली कि माता! तुम मेरी इस खोटी कृतिको कान देकर सुनो । मैं तुमसे जैसीकी तैसी बात कहे देती हूँ । वात यह है कि कर्मके वश हो कर कामी पुरुष चाहे जैसे दुष्कृत्योंको भी कर डालते हैं। देखो, कर्मके अधीन होकर किस किसने कष्ट नहीं उठाया और कौन कौन नष्ट-भ्रष्ट नहीं हुए । रावण आदि तो नीतिके अच्छे ज्ञाता थे; परन्तु कर्मके झकोरेसे चे भी न बचे-उनको भी आपत्तिका सामना करना पड़ा। माता, कर्मके निमित्त से नहीं होनेवाली घटना तो हो जाती है और होनेवाली आसानसे आसान भी घटना दूर चली जाती है । कर्मके सम्बन्धमें कहॉ तक कहा जावे, इनके निमित्तसे वे वे काम हो जाते हैं, जिनका बड़े बड़े महात्मा और चतुर पुरुषोंने भी कभी स्वममें विचार नहीं किया। माता, एक दिन संध्याके बाद अकस्मात ही कर्मका प्रेरा यह पुरुष मेरे पास आया । ठीक ही है, कि कर्म क्या क्या नहीं करता। मेरी और इसकी परसरमें बातचीत हुई । उस समय मैं कमेंकी प्रेरी हुई अचल चित्तवाली होकर भी इस भोगार्थदर्शी महान पुरुपके द्वारा जीती गई । तात्पर्य यह कि बातचीतमें उसने मुझे अपनी ओर झुका लिया, पर मैं
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पाण्डव-पुराण। उसे अपनी ओर न झुका सकी । यह कुरुदेशके राजा व्यासका पुत्र है। इसे पांडु पण्डित कहते है । इसकी आकृति-धुति-विल्कुल पॉडु ( सफेद) है, जान पड़ता है कि इसी लिए इसका नाम पांडु पड़ा है । यह मेरे रूपको सुनकर मुझ पर बड़ा आसक्त चित्त था। इतनेमें उद्यान-मन्दिरमें इसे वज्रमाली विद्याधर द्वारा एक इच्छित रूप देनेवाली अंगूठी मिल गई। उस अंगूठीके प्रभावसे अदृश्य रूप बनाकर, मेरे साथ रमनेकी इच्छासे, यह मेरे पास आया था। __कुन्तीके ऐसे वचनोंको सुनते ही धायका सारा शरीर काँप उठा; और शरीर-कम्पके सम्बन्धसे पृथ्वी भी हिल गई । वह बोली कि प्यारी पुत्री, दुष्ट कामके वश हो तुमने यह क्या विरूप कर डाला है । देखो, नीतिके विद्वानोने कैसी अच्छी शिक्षा दी है कि स्त्री चाहे वाला हो चाहे वृद्धा, लिखी पढ़ी हो चाहे निरी अपढ़, अंग-हीन हो चाहे युवती और कैसी ही सुन्दरी क्यों न हो उसे पुरुषसे हमेशा दूर ही रहना चाहिए। नहीं तो कभी न कभी अवश्य ही अनिष्ट होगा। वाले, भला इस बातको लोग क्या जानेंगे कि इस पुरुपने ही कन्याके साथ जबरदस्ती की है और कन्या सर्वथा निर्दोष है । वे तो यही कहेंगे कि कन्याने यह बहुत बुरा काम किया है । इसके सिवा इस दुष्कर्मसे कमलकी नॉई स्वच्छ और कलंक-रहित तुम्हारे कुलमें भी तो कलंक लग जायगा। और यह तो बताओ कि जब इस दुष्कृत्यको पिता वगैरह विचारशील पुरुष सुन पाँवेगे तब तुम्हारी और मेरी दोनोंकी ही क्या दशा होगी ?
यह सुनते ही कुन्तीका शरीर काँपने लगा और देखते ही देखते सिकुड़ गया; एवं उसकी कान्ति वगैरह सव हो विदा हो गई । वह बड़ी डरी और निसासें छोड़ने लगी तथा गद्गद हो दीन स्वरमें करने लगी कि माता, तुमने मुझे पाला
और पोषा है, अत: तुम मातासे भी बढ़ कर मेरी महा माता हो और सभी योग्य-अयोग्य बातोंको जानती-समझती हो । इस लिए मेरे ऊपर कृपा कर तुम इस वक्त मुझे मेरा कर्तव्य बताओ । इसीमें मेरी भलाई है । तुम सभी तरह मेरे मनोरथोंको पूरा करने के लिए समर्थ हो, अतः इस समय अब तुम मेरे छल-अपंचको मत देखो; किन्तु मेरे दुःशीलको पवित्र करो-सुधारो और दयाका परिचय दो । माता, मरनेके सिवा अब और तरह मेरी पीड़ा नहीं जा सकती; इस लिए
अब मैं शीघ्र ही अपने प्राण पखेरुओंको उड़ा देनेकी कोशिश करूँगी । कुंतीके ' . ऐसे भारी दुःखभरे शब्दोंको सुनकर धीरा और सभीको आनंद देनेवाली ।
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वह धाय बोली कि मनमोहनी प्यारी पुत्री, तुम कुछ भी भय और चिन्ता मत करो, दिली मैलको धो डालो तथा भरोसा कर लो कि जिस उपाय से तुम्हारी भलाई होगी मैं वही उपाय सोच निकालूँगी । तुम्हें इस सम्बन्धमें तनिक भी चिन्ता नहीं करना चाहिए | तुम तो सुखके साथ अपना समय बिताओ । धाय धैर्य देने में बहुत ही दक्ष थी । उसने उक्त प्रकार कुंतीको खूब ढाढ़स दिया और आप स्वयं राज-महलमें रहकर अपना समय विताने लगी ।
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आठवाँ अध्याय ।
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इसके बाद नय नीतिको जाननेवाली उस धायने कुंतीके दोषोंको जहाँ तक बन सका बहुत दिनों तक छिनाया । धीरे धीरे कुछ ही दिनों में पांडुके सम्बन्ध से कुन्ती गर्भवती हो गई, और धीरे धीरे उसका गर्भ वृद्धिंगत होने लगा | इस समय गर्भको देखकर लोगोंको भाँति भौतिकी भ्रांति होती थी और वह गर्भ भी अपूर्व शोभा पाता था । गर्भ के प्रभावसे कुछ ही कालमें कुन्तीका उदर कड़ा पड़ गया और त्रिवली मिट गई । इस तरह उसके गर्भका पहला चिन्ह प्रगट दीख पड़ने लगा । उसका मुॅह पीला पड़ गया । धूक अधिक आने लगा । बोल-चाल कम हो गया । एवं उसके नेत्र सुन्दर - सुहावने देख पड़ने लगे । साड़ी के ऑचलसे प्रच्छन्न ( ढके हुए) कुच - कुंभ उन्नत और सोनेकी आभा जैसे पीले हो गये । एवं जिस तरह जलसे सींची गई बेल, फूल और पत्तों द्वारा शोभा पाने लगती है उसी तरह गर्भ-भारसे कुचोंके भारको वहन करनेवाली कुन्ती भी शोभा पाती थी ।
एक दिन दैवयोग से गर्भ-भारके श्रमसे थकी हुई कुन्तीको उसके मातापिताने देख लिया | देखकर वे बड़े चिन्तित हुए | घायसे वे वोले कि क्योंरी तू बड़ी दुष्टा है, तुझे नाम मात्र दया नहीं । हे नीच और अनिष्टों को पैदा करनेवाली, तूने कुन्तीसे यह अनिष्ट किस पुरुषके समागमसे करवाया । क्या तू नहीं जानती कि पुत्री और पुत्र वधू ये दोनों चाहे कितने ही ऊँचे कुलकी क्यों न हों यदि स्वतंत्र रहेंगी तो जार संसर्ग द्वारा पवित्र से भी पवित्र कुलमें कलंक लगा देंगी । और इसी विचारसे ही हमने रक्षा के लिए इसे तेरे सुपुर्द किया था । पर तूने ऐसी रक्षा की, जो मगढ ही दीख पड़ती है । यह इतनी बड़ी गलती हुई है कि इसके सम्बन्धसे राजों महाराजोंकी सभा में हमें नीचा मुँह करना पड़ेगा और लाजके मारे हमारे शरीर पर स्याही फिर जायगी । एवं इससे हमें बहुत दुःख उठाना पड़ेगा | नीतिके
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पाण्डव-पुराण | विद्वानोंने कहा है कि स्त्री नदीके तुल्य होती है। कारण कि रस-संस्कार (जलप्रवाह ) के द्वारा जिस तरह नदी अपने किनारोंको गिरा देती है उसी तरह, शृंगारादि रस और संस्कारोंके द्वारा स्त्री भी अपने कुलको दाग लगा देनी है। इस लिए चाहे वे बड़े बड़े पुरुषों के द्वारा ही रक्षित क्यों न हों, पर तो भी नागिन, नखवाले पशुपक्षी, नारी और दुष्ट पुरुप इनका भूलकर भी भरोसा नहीं करना चाहिए । और इसी लिए कहा जाता है कि पुरुपोंको स्त्रीका कभी भरोसा नहीं करना चाहिए । और जब वह कामासक्त हो तब तो उसकी छोह भी अपने ऊपर नहीं पड़ने देना चाहिए । जरा सोच कर तो देख कि स्वभावसे ही लोगोंको सतानेवाली नागिन काट दिये जाने पर कभी विश्वास करने योग्य हो सकती है ! अरी दुष्टा, अब तू ही विचार कि हमने तो. पुत्रीको रक्षाक लिए तेरे सुपुर्द किया था और तूने विना विचारे ही बिल्लीवाली कहावत कर दिखाई । वह यह कि यदि विल्लीको रक्षाके लिए दूध सौंप दिया जाय तो वह रक्षाकी जगह स्वयं ही उसे भक्षण कर जायगी । सो ही तूने किया । यह तेरा कृत्य सर्वथा अक्षम्य है । कुन्तीके माता-पिताके ऐसे डाट-डपट भरे शब्दोंको सुनकर धाय बड़ी भयभीत हुई । उसे कुछ भी उपाय न मुझ पड़ा। उसका सारा शरीर थर थर काँपने लगा और पसीनेसे बिल्कुल ही तर हो गया ।' उसके मुंहकी सारी चमक-दमक नष्ट हो गई । वह जैसे तैसे बोली कि राजन्, आप अशरणोंके लिये शरण है, यादव कुलके पालक हैं, दयाल और धर्मात्मा हैं । कृपाकर सावधान चित्त हो मेरी एक प्रार्थना सुन लीजिये । राजेन्द्र, इसमें न तो कुन्तीका अपराध है और न मेरा ही। किन्तु अपराध है पूर्वभवमें किये हुए कर्मका । पूर्वकृत कर्म जीवोको नटकी नॉई जैसा चाहते नचाते हैं । महाराज सुनिए । कुरुजांगल देश पांडु नाम एक राना है। वह कौरव-वंशी और इन्द्रके जैसी विभूतिका धारक है और अखंड रीतिसे अपने कुलकी रक्षा करता है। एक बार वह कुन्तीके रूप पर आसक्त हो गया और उसके बिना बड़ा क्षोभको प्राप्त हुआ। उसके पिताने कुन्तीके लिये आपसे बहुत बार प्रार्थना की, पर आपने उस पर जब कुछ भी ध्यान नहीं दिया तब वह स्वयं ही कुन्तीसे प्रार्थना करने और उसके साथ रमनेका उपाय सोचने लगा। कारण, उसके हृदयमें कुन्तीके निमित्त से हमेशा ही कामअग्नि बँधका करती थी। दैवयोगसे इसी वीचमें एक दिन वनमें उसकी वज़माली विद्याघरसे भेंट हो गई और उसके द्वारा भॉति भॉतिके रूपोंको देनेवाली
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एक अॅगूठी भी मिल गई । अॅगूठीको हाथमे पहिन कर वह वहाँसे चला और सूरीपुर पहुँचा । वहाँ रात के वक्त उसने अदृश्य रूप बनाया और वह कुन्तीके महलमें पहुँच गया । उस समय कुन्ती वहाँ अकेली ही थी । उसके पास न तो मैं थी और न दूसरी कोई दासी वगैरह थी ऐसी हालत में एकान्त पाकर वह सुन्दराकृति कौरव-वंशी राजा हृदयमें बसनेवाली कुन्तीके साथ गांधर्व व्याह कर उसके साथ प्रति दिन रमने लगा ।
एक दिन एकाएक उसे मैने कुन्तीके महलमें देख लिया और कुन्तीसे उसका सब हाल पूछा । उस समय कुन्तीने उसका जो हाल मुझे कहा था वह मैंने जैसाका तैसा आपको सुना दिया है । राजन् ! इतने दिनों तक तो मैंने पुत्रीकी भरसक रक्षा की और उसके इस दोषको भी प्रगट नहीं होने दिया; परन्तु अब मेरे वशकी बात नहीं रही । अतः इस सम्बन्धमें अव आप जैसा उचित समझें वैसा करें ।
धायके इन वचनों को सुन उन दम्पतीने परस्परमें विचार किया और उत्तर में यह कहा कि तू इस दोपको गुप्त रख; देख, कहीं यह प्रगट न हो जाय । इसके बाद उस धायने कन्याके इस दोषको दबानेका खूब प्रयत्न किया, पर उसे कुछ भी सफलता न हुई । लोगों के कानोकान सब जगह वह फैल ही गई, जिस तरह जलमें छोडी हुई तेलकी बूँद सब जलमें फैल जाती है ।
इसके बाद धीरे धीरे जव नौ महीना पूरे हो गये तत्र कुन्तीने पुत्रको जन्म दिया । पुत्र बाल सुरजकी प्रभाकी नॉई प्रभावाला था । उसके शरीरकी बड़ी शोभा थी । वह कान्तिके पूरसे विभूषित था । पुत्रका जन्म होते ही सूरीपुरमें सब जगह उसकी खबर फैल गई । परन्तु राजाके डर के मारे कोई भी खुले मनसे इल वातको न कह सका । सब गुपचुप कानोकान एक दूसरे को कहते थे। धीरे धीरे यह किंवदन्ती कुन्तीके पिताके कानमें भी जा पड़ी और उन्हें यह मालूम हो गया कि सबने इस बातको जान लिया है । उन्होंने जन्मकी वात कानोंकान सब जगह फैलनेके कारण उस पुत्रका नाम कर्ण रख दिया तथा मंत्रियों की सलाह से उसे कुंडल वगैरह भूषण और रत्न-खचित कवच पहना कर एक सन्दूकमें बन्द कर दिया और उसीमें कर्ण नाम लिख कर एक पत्र तथा कुछ द्रव्य भी रख दिया । इसके बाद उस सन्दूकको तेजी से बहते हुए यमुनानदीके प्रवाहमें छुड़वा दिया ।
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पाडण्व-पुराण |
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यमुनानदीके बिल्कुल किनारे चम्पापुरी नामकी एक नगरी है । उसके महलोंके ऊपरी भागमें सोनेके सुन्दर कलश लगे हुए हैं, जिनसे वह बहुत सुशोभित है | वहाँके मन्दिरों पर धुजायें फहराती हैं, जिनसे ऐसा भान होता है कि मानों धुजा-रूप हार्थोके इशारेसे नगरी उत्तम नर-जन्मको चाहने वाले और शुद्धमना सुर-असुरोंको बुलाती ही है । चम्पानगरीके चारों ओर जो खाई है, वह ऐसी जान पड़ती है कि मानों यह पाताल लोक में वहनेवाली यमुनानदी ही है और पाताल-वासियों पर रुष्ट होकर वह यहाँ आ गई है । यद्यपि चाँद रस्मियोंके समुदायसे भरपूर हैं, भासुर और छिद्र-रहित है; परन्तु तो भी वहाँके ऊँचे शिखरों वाले मन्दिरोंसे विसजाने के कारण वह छिद्रवालासा देख पड़ता है | वहाँके मन्दिरोंके शिखर बड़े ऊँचे हैं, इस लिये उनके साथ चन्द्रमाकी मित्रता हो गई, और इसी कारण वह अब विश्राम के लिये वहाँ आकर ठहरता है । ठीक ही है कि वड़ों के साथ ही बड़ोंकी मित्रता हो पाती है । इसका तात्पर्य यह है कि वहाँके मंदिर महल बड़े बड़े ऊँचे हैं । वहाँ वासुपूज्य प्रभुके गर्भ और जन्म ये दो कल्याणक हुए है; अतः वह पुरी पवित्र है । इसके सिवा उसके पासके वनवें दीक्षा ले केवलज्ञान लाभकर कई भव्यजीव मोक्ष-महलमें जा विराजे है । वह नगरी अंगदेशमें है और उसमें भाँति भॉतिके पुरुषोंका निवास है । वह अगणित गुणोंवाली और केलके थंभ के समान सुन्दर जॉघोंवाली स्त्रियोंसे भासुर है; एवं स्त्रियोंके भासुर मुख चंद्रके द्वारा अँधेरेको दूर कर हमेशा ही उद्योत - रूप ग्हा करती है । वहाँके दानी पुरुष हमेशा ही पात्रोंको दान देते हैं और लाभके निमित्तसे प्रकाशरूप होकर रत्न और हर्षको पाते हैं । ऐसी अपूर्व नगरीका पालक राजा था भानु । वह हमेशा विवेकी और शिष्टजनोंकी रक्षा करता था और दुष्टोका निग्रह करता था । उसके प्रतापसे डर कर जो लोग उदासीन हो जाते थे उन त्रिरक्त पुरुषोंका वह आश्रय था । उसमें बहुत गुण थे, अतः वह उनसे भानुके जैसा सुशोभित था । सूरजकी किरणों जैसी उसके शरीर की कान्ति थी । वह शत्रु-रूप ईंधनको जला डालनेको अग्नि था और प्रतापमें सूरजके जैसा था । उसमें सुरजसे भी यह विशेषता थी कि सुरजका तो रातमें अस्तित्व नहीं रहता; और यह कभी प्रताप और दीप्ति से हीन नहीं होता था; हमेशा ही उदित रहता था- दशों दिशाओंको तेजोमय बनाये रखता था । वह इतना बड़ा दानी था कि उसके दिये '
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आठवाँ अध्याय ।
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दानको पाकर लोग कल्पवृक्षोंको भी भूल जाते थे । एवं इसके होते हुए वे न तो चिंतामणिको याद करते थे और न कामधेनुको ही । वह बड़ा ज्ञानी था । बड़े बड़े शास्त्रज्ञ भी उसे विद्वान् मानते थे। वह युद्धकलामें कुशल योधा था; प्रतापशाली और शत्रु-पक्षका विध्वंसक था। उसकी प्रियाका नाम था राधा। राधाके लिए भानुने देवतोंकी आराधना की थी। तब कहीं वह उसे मिली थी। वह भी प्रेमकी अन्तिम सीमा ही थी। लोग उसे लक्ष्मीकी उपमा देते थे। कारण कि जैसे लक्ष्मी लोगोंको आनंद देकर सुखी बनाती है वैसे ही वह भी प्रजाको आनंद देकर सुखी करती थी । तात्पर्य यह कि उसकी कृपासे प्रजाका समय सुख-चैनसे वीतना था । लक्ष्मीको लोग शुभ मानते हैं । वह भी शुभ थी; उसके दर्शनसे लोगोंके अभीष्टकी सिद्धि होती थी | सच तो यह है कि उसके रूप-लावण्य, कान्ति-कला, गुण-चतुराई और अटूट सौभाग्यकी कोई विद्वान् तारीफ ही नहीं कर सकता है । वह भानुके हृदयसे लगी हुई सरस्वतीसी जान पड़ती थी। क्योंकि सरस्वतीमें अलंकार वगैरह होते हैं, वह भी अलंकार-भूषण वगैरह पहिने थी। सरस्वती सुरीतियाँ बताती है, वह भी अपनी चाल-ढालसे लोगोंको सुरीतियाँ वताती थी। सरस्वती निर्दोष और गुणवती होती है, वह भी दोपरहित और गुणोंसे युक्त थी । सरस्वती लोगोंके हृदय-मन्दिरमें रहती है, वह भी राजाके हृदय-मंदिरमें निवास करती थी। वह रंभाके जैसी सुन्दर थी; यही नहीं किन्तु उससे भी बढ़कर सुन्दर थी । उसकी जॉर्षे केलेके थंभेके जैसी सुन्दर थीं। उसकी दृष्टि लोगोंके मनमें विभ्रम पैदा करती थी । वह भोगोंसे पूर्ण और मनको मोहित करनेवाली होनेके कारण इन्द्रकी इन्द्राणी जैसी शोभती थी। वह बड़ी सम्पत्तिशालिनी थी। विपति उसके पास भी न फटकती थी। यह सब कुछ होने प भी दैवदुर्विपाकसे उसके कोई सन्तान थी।
__एक दिन राजाने एक निमित्तज्ञानीको बुलाया और पूछा कि मेरे यहाँ पुत्र पैदा होगा या नहीं ? इस प्रश्नको सुनकर अष्टांग-निमित्तके पंडित और वाग्मी उस निमित्तज्ञानीने सोचकर कहा कि हे सूरजके जैसे प्रतापशाली और मजा-पालक महाराज, मैं निमित्त-ज्ञानसे आपके इस प्रश्नका उत्तर देता हूँ, उसे सावधान चित्त होकर सुनिए । यमुना नदीके किनारे तुम्हें एक संदूक मिलेगी। उसमें मे एक सुन्दर बालक निकलेगा, जो सारे संसार द्वारा मान्य होगा। इसके वाद कुछ काल बीत चुकने पर ऐसा ही हुआ और एक सन्दूक यमुना नदीके प्रवाहमें बहती हुई किनारे आकर लगी। सन्दूकको वहकर आनेका समाचार सुनकर
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पाण्डव-पुराण ।
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बहुतसे नौकर-चाकरोंको साथ ले राजा वहाँ आया और उसने सन्दूकको जलसे बाहिर निकलवाया। इसके बाद उसे खोलकर देखने पर उसमें एक अद्भुत वालक पड़ा हुआ मिला । उसे उठाकर राजाने अपनी गोदमें ले लिया और निमित्तज्ञानीके वचनों पर गहरी दृष्टिसे विचार कर वह रानीसे बोला कि पिय राधे, तुम शुद्ध विचारोंको अपने हृदयमें स्थान देती हो, समृद्ध और बुद्धिके पारंगत हो, अतः अपने तेजसे सूरजको भी लज्जित करनेवाले इस अतीव मनोहर वालकको ग्रहण कगे-गोदमें लो। स्वामीके इन वचनोंको सुनकर रानी बड़ी प्रसन्न हुई। उसने बड़े हर्षके साथ उस वालकको अपनी गोदमें ले लिया। उसे लेते समय रानी अपने कानोंको खुजा रही थी, अतएव राजाने उसका कर्ण नाम प्रसिद्ध किया। राजा भानुके यहाँ कर्ण कला, शोभा, लक्ष्मी, आदिसे सब प्रकार वढ़ने लगा। उसका तामस--अज्ञान-नष्ट होकर वह सारी पृथ्वीको आनन्द देने लगा । जैसे दोजका चॉद बढ़कर और धीरे धीरे तामस-अँधेरे-को नष्ट कर लोगोंको आनंद देने लगता है।
पुण्योदयसे जिसे ऐसा सौभाग्य प्राप्त है, सारे देवता-गण जिसकी सेवा करते हैं, और जिसका शरीर दिव्य है, जो सकल शास्त्रोंका ज्ञाता है, जिसकी शास्त्र के विषयमें हमेशा ही शुभमति रहती है वह कर्ण सारे संसारमें सुशोभित हो । ___जो शास्त्र-श्रवणमें दक्ष है, कला और कीर्तिका स्वामी है, कान्ति-शाली और करुणा-भावसे पूरित है, जिसका चित्त हमेशा ही दयासे भीगा रहता है, जो कुन्तीका पुत्र तथा-कोमल कासिनी-जनोंको सुख देनेवाला है, मनोहर और सुकृती है, लक्ष्मीका स्थान और प्राणी-रूप कमलोंको विकशित करनेके लिए सूरज है वह कर्ण अपनी श्री-कान्ति-से सुशोभित हो । '
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'शंभवनाथ मञ्जुको नमस्कार हैं, जो सुखके दाता और पापके विध्वंसक हैं, जो संसारसे पार उतारनेवाले हैं, सुखके सागर हैं ।
यहाँ गणधर प्रभु कहते हैं कि हे श्रेणिक, लोग बड़े मूर्ख हैं, जो इस तरहसे पैदा हुए कर्णकी कानसे उत्पत्ति बताते है । उसके जन्मकी बात लोगों में कानोंकान चली थी, इसलिये तो माताके कुलमें उस सुन्दराकृतिका कर्ण नाम पड़ा और चंपानगरी में राजा भानुने जिस समय अपनी रानीको इसे सौंपा उस समय वह कान खुजाती थी, अतएव वहाँ भी कान खुजानेके निमित्तसे भानु नरेशने उसका कर्ण नाम रख दिया ।
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दूसरी बात यह है कि जो लोग जवरदस्ती कर्णकी कानसे ही उत्पत्ति बताते हैं उन्हें इस बात पर भी तो विचार करना चाहिये कि यदि कानसे ही कर्णकी उत्पत्ति हुई हो तो अब भी पृथ्वी पर कान, आँख, नाक वगैरह से मनुष्योंकी उत्पत्ति क्यों नहीं होती । दूसरी बात यह है कि जब आज तक कान वगैरह से कभी मनुष्य की उत्पत्ति न तो सुनी गई और न देखी ही गई तव फिर कानसे कर्णकी उत्पत्ति कैसे हो गई ? यह बात उचित नहीं जान पड़ती । देखो, जिस तरह गायके सींग से कभी भी दूध नहीं निकल सकता उसी तरहसे तीन काल में भी कानसे कभी मनुष्य पैदा नहीं हो सकता । और भी सुनिए । जिस प्रकार वाँझ स्त्री से पुत्र, पत्थर पर अन्न, आकाशमें फूल और गधेके मस्तक में सींग, सॉपके मुँह से अमृतकी उत्पत्ति होना असम्भव है उसी प्रकार कानसे कर्णकी उत्पत्ति होना और कहना भी असम्भव है । यदि ऐसा सम्भव होता तो दुनिया विवाह वगैरह की झंझटोंमें कभी न फॅसती; किन्तु कानसे कर्ण जैसे पुत्रोंकी उत्पत्ति करके ही पुत्रवाली बन जाती । राजन्, कानसे कर्णकी उत्पत्ति बताना, यह सब आकाशके फूलकी सुन्दरताका ही वर्णन है । इसमें कुछ भी सार और सत्य अंश नहीं है | अतः हमने जैसी कर्णकी उत्पत्ति पहले बताई है वही सत्य है और सार है । तुम वैसा ही विश्वास करो | सूरजके समागमसे कुन्तीके कान द्वारा कर्णकी उत्पत्ति होना निरी झूठी बात है | भला मनुष्यनीके साथ सूरजका समागम ही कैसे हो सकता है । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि फिर कर्णको सूर्यसुत क्यों कहते है । इसका उत्तर यह है कि चंपानगरी के राजा भानुने इसका पालन-पोषण किया
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पाण्डव-पुराण ।
womram. we mmm rewom था और भानुका दूसरा नाम सूरज भी है, इसलिये सूर्यसुत नामसे इसकी प्रसिद्धि हो गई। जिस तरह कि नंदगोप नामक गुवालके यहाँ पालन-पोषण होनेके कारण लोग कृष्ण नारायणको भी गोपाल कह कर पुकारते हैं। - अब कौरव-पांडवोंकी शास्त्र और लोकके अनुसार विस्तारसे उत्पत्ति वताई जाती है । सुनिए, एक समय अंधकरष्टिने नय-नीतिके ज्ञाता अपने पुत्रोंके साथ कुन्तीके विवाह सम्बन्ध विचार किया। उस समय यह बात उपस्थित हुई कि यदि पांडुके सिवा दूसरेको कुन्ती दी जायगी तो वह व्यभिचारिणी कही जायगी; और एक बात यह भी है कि उसे ऐसा सुनकर कोई दूसरा ग्रहण भी नहीं करेगा।
___ इसलिये अच्छा इसीमें है कि पांडुको ही कन्या दी जाय । विचार कर अन्तमें उन्होंने पांडुको ही पुत्री देनेका निश्चय किया और उसी समय वरके योग्य भेट तथा पत्र देकर एक विज्ञ और सहनशील दूतको व्यासके पास रवाना किया । वह थोड़े ही समयमें कौरवोंके राजा व्यासकी सभामें पहुँचा । वहाँ द्वारपालकी आज्ञासे भीतर जाकर दूरसे उसने राजाका दर्शन किया। राजा सिंहासन पर विराजे थे । जान पड़ता था कि मानों वे और और राजोंको हॅस
रहे है, या अपने उत्कर्षकी भावना करते हैं । उनके ऊपर जो चमर हुलते थे उनसे • वे आकाशके कुछ हिस्सेको विभूषित करते थे। उनके ऊपर छत्र लगा हुआ था।
वह सूरजके प्रकाशको उनके ऊपर नहीं आने देता था; वह सूरजका तिरस्कार करता था। उनके आगे देश-विदेशके राजा लोगों द्वारा भेजी हुई भेंटोंके ढेरके ढेर लगे हुए थे, जिनसे उनकी अपूर्व ही शोभा हो रही थी। वे ढेर ऐसे जान पड़ते थे कि मानों राजा लोगों द्वारा दिखानेके लिये भेजे गये उनके खजाने ही हैं या पृथ्वी देवीके सुन्दर भूषणोंके जैसे वे राजाके अपूर्व भूषण ही रक्खे हैं । राजा व्यास सारे संसारमें उत्कृष्ट थे। वे कानोंमें मनोहर कुंडल पहिने हुए थे । जान पड़ता था मानों वे चाँद और सूरजके दो मंडल ही हैं और वे कुंडलोंका रूप घर कर इनकी सेवा ही करते है । एवं जैसे वादी शास्त्रके यशको गाते है वैसे ही भॉति भाँतिके मागधों द्वारा उनके यश दिग्गजों तक पहुँचाए जा रहे थे; मानों वे उन मागोंके द्वारा उनकी वाणीसे अमृतकी वरसा करवा रहे थे। वे कटाक्ष-पातकी दीक्षासे दीक्षित नेत्रोंके द्वारा रसीली गंभीर दृष्टिसे लोगोंकी और देखते थे, जान पड़ता था कि वे उन्हें अपने बन्धुओंकी भाँति अपनाते हैं। वे सेवामें आये हुए शत्रुओंको मनचाही दृष्टिसे हॅससे रहे थे । उनके हाथमें एक
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नौवॉ अध्याय ।
११९ तीखी तलवार थी, जिसे देखकर लोभी पुरुष भयभीत होते थे। वे हर्षके साथ दान देते थे, लोगोंको अपनी नम्रता दिखाते थे । वे महान् उद्योगी थे और हर एक वात पर युक्ति द्वारा विचार करते थे । उनका हृदय वड़ा गंभीर था । वे जब तक किसी कामको कर न गुजरते थे तव तक कोई भी उनकी बातको जान न पाता था कि इस समय महाराज क्या करना चाहते हैं । उनके कार्यों को देख कर सव अचम्भा करके रह जाते थे। दूतने आगे बढ़कर, द्वारपाल द्वारा दिखाये हुए पृथ्वीपतियोंके पति व्यास महाराजके आगे भेंट रखी और उन्हें नमस्कार किया। इसके बाद वह बोला कि राजन, सूरीपुरके राजा अंधकष्टिको सब कोई जानता है । वे देवतों पर इन्द्रकी नाँई सुख-पूर्वक अपनी प्रजा पर शासन करते हैं । मभो ! उन्होंने मुझे आपके पास भेजा है। वे चाहते हैं कि आपके राजकुमार पांडुके साथ मेरी पुत्री कुन्तीका ब्याह हो । दूतके इन वचनोंको सुनकर राजाने कहा कि जो वात युक्त है उसे कौन नहीं चाहेगा। भला, अंगूठी और मणिका संयोग किस बुद्धिवानको पसंद नहीं पड़ेगा। व्यासजीको तो पहलेहीसे मालूम था कि कुन्तीको पांडु चाहता है । उन्होंने दूतसे कहा कि जैसी सूरीपुरके ईश अंधकरष्टिकी मनसा है वैसी ही हमारी भी है। उनकी इच्छाके अनुसार हम तैयार हैं। व्यासने इसी समय पांडु और कुन्तीके ब्याहकी सिद्धिके लिये बड़ा भारी महोत्सव किया और सव सभासदोंके आगे प्रतिज्ञा की कि पांडके लिए मुझे कुन्ती . लेना स्वीकार है। ___इसके बाद नाना प्रकारके वस्त्र और आभूपोंके द्वारा उन्होंने दूतका खूब आदर किया और लग्न-दिनका निर्णय करके भेंट सहित उसे सूरीपुरको रवाना कर दिया।
- इसके बाद पांडकुमार विवाहके लिए सूरीपुर जानेको हस्तिनापुरसे निकला । वह नाना प्रकारके बहुमूल्य गहने पहिने था और उसके साथ कितने ही राजागण थे । उसके सिर पर सफेद छत्र लगा हुआ था, जिससे कि वह इन्द्रके जैसा शोभता था । उसके आगे आगे नाना प्रकारके वाजे बजते जाते थे, जिनसे सभी दिशाऍ शब्दमय हो रही थीं। प्रकीर्णक-जन उसके ऊपर चमर ढोरते थे, जिससे वह ऐसा जान पड़ता था मानों सारी पृथ्वी पर एक वही श्रेष्ठ पुरुष है। चमर उसकी इस उत्तमताको ही जता रहे हैं।
पांडके घोड़ोंकी टापोंसे जो धूल उड़कर लोगोंको धूसरित कर रही थी उससे जान पड़ता था कि वह लोगोंको जान-बूझ कर धूलसे रंजित कर विवाह
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के आनंदको प्रगट कर रही है । इस समय वह इन्द्रके जैसा गोमता था; इन्द्रसे किसी भी वातमें कय न था । इस समय पांडुके साथ जो सजे हुए. और सारथियों सहित रथ-समूह जा रहे थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानों जंगम मन्दिर ही है और वे चलने योग्य हो गये है । दाँतोंके प्रहारसे पहाड़ोंको भी गिरा देनेवाले
और अपनी ध्वनिसे दिशाओंको प्रतिध्वनित करनेवाले हाथी चिंघाड़ रहे थे । छत्ता लगाये हुए मित्र मंडल-जो मित्र ( सूरज ) मंडलकी नॉई सुशोभित था-साथ जानेकी खुशीसे हर्पित हो रहा था । नगाड़े-रूप कामी पुरुष यद्यपि वस्त्र वगैरहसे प्रच्छन्न थे; उनके सव ओर कपड़ेकी झालर लगी थी पर तो भी वे उँगुली-रूपी पियाके गाढ़ आलिंगनसे शब्द कर रहे थे। तात्पर्य यह कि मियाके आलिंगनकी खुशीमें उनसे चुप न रहा गया और इसी लिये वे शब्द कर रहे थे। एवं चतुर नट-गण अपनी नटियों के साथ साथ उनके आगे आगे नृत्य कर रहे थे। जान पड़ता था कि मानों वे उत्साहमें आ कोपसे देवांगनाओंके नाचको ही नीचा दिखा रहे हैं। इसी समय हा हा, तुम्बर न नारदोंको जीतनेके लिये अभिमानसे भरे हुए गंधर्व-गण विवाहके समय गानेको उत्तम उत्तम गीत गूंथ रहे थे । पांडुको जाते समय सौभाग्यवती स्त्रियाँ मनोहर स्वरोंमें मंगल पाठ पढ़ रही थीं, मानों वे देवांगनाओंको जीतनेकी ही कोशिश करती थीं। इसके बाद पांडुकी माता सुभद्राने पांडुकी मंगल आरती उतारी और उसे सिद्ध भगवानकी आसिका दी। इस प्रकारके उत्सव-पूर्वक पांडु विवाहके लिए हस्तिनापुरसे सूरीपुरको चला। रास्तेमें पांडुको उसके सेवकजन प्रकृतिकी शोभा दिखाते जाते थे कि कुमार देखिए, यह कमलोंसे पूर्ण और शब्द करती हुई नदी सुन्दर प्रियाकी नाई कैसी मनोहर देख पड़ती है। क्योंकि प्रिया भी कमलोंके भूषण पहिनती है और मीठी वात करती है। इधर देखिए, यह अचल धराधीश ( पहाड़) आपके समान ही उन्नत वंश (वॉस और दूसरे पक्षमें वंश) वाला है, राजोंसे युक्त है; क्योंकि शत्रुओंके भयके मारे राजा-गण यहीं आश्रय पाते है। इसके उत्तम पाद ( नीचा भाग और चरण ) है और इसमें उत्तम उत्तम गुण हैं । तात्पर्य यह कि यह आपसे किसी भी बातमें कम नहीं है। नाथ,
और भी देखिए कि मार्ग, विवाहका उत्सव मनानेके लिए हर्षित मयूरगण अपनी अपनी मयूरीके साथ कैसा सुन्दर नृत्य कर रहे हैं ! जान पड़ता है कि नटियों के साथ साथ उत्तम नर-गण ही नाच रहे हैं। और सघन छायावाले • ये वृक्ष फल और पत्तोंके भारसे पीड़ित हो रहे हैं, अतएव आपकी पाहुनगत
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करके अपना भार हलका करना चाहते हैं; जान पड़ता है ये इसीलिए आपको फल और छाया वगैरह दे रहे हैं। सो ठीक ही है कि अपनी वराबरीवालेकी सभी पाहुनगत करते हैं । ये जव आप जैसे ही उन्नत और फल-फूलोंवाले हैं फिर आपका स्वागत क्यों न करें । ये सूअर देखो, कीचड़में कैसे लोट रहे हैं, मिट्टीसे विल्कुल ही लथ-पथ हो रहे है और वनमें रहनेवाली अंधेरैकी खासी मूर्तिसी देख पड़ते है। राजन्! ये आपके शत्रु ही आपके प्रतापसे यहॉ आ छिपे हैं। इस तरह देवतों, विमानों और तिलोत्तमासे भरे पूरे स्वर्गकी भाँति विद्वानों, विमानों और नरनारियोंसे भरपूर मार्गको देखता-भालता, दिल बहलाता पांडुकुमार थोडे ही समयमें सारे रास्तेको तय कर सूरीपुर जा पहुँचा । कौरववंशी पाडको आया सुनकर यादवेश्वर राजा अंधकदृष्टि उसकी अगवानीके लिये शहरसे बाहिर आया और सामने आकर उससे मिला । वहाँ उन दोनोंने एक दूसरेका सत्कार किया और परस्परमें भेंट की एवं आपसमें कुशल-समाचार प्रछा । इसके बाद वे दोनों पुरीके भीतर आये । पुरीमें जो तोरण बंधे हुए थे वे उसके पॉव थे और मनोहर धुजाएँ उसके हाथ थे। पुरीके ये हाथ-पॉव हवासे खूब हिल रहे थे, जिससे ऐसा भान होता था कि यह पूरी नहीं है, किन्तु नटी है और वह हवारूप नटके द्वारा आदर की गई नाच ही करती है । इस पुरीके सब मन्दिरों पर सोनेके सुन्दर कलश चढ़े हुए थे, जिससे ऐसा जान पड़ता था कि मानों वे पुरीरूपी नटीके उन्नत कुच ही हैं। उसमें कहीं कहीं भॉति भॉतिके रंगके साथिया पुरे हुए थे और स्वस्तिकल्याण-से परिपूर्ण राजागण निवास करते थे । यहाँके महलों पर बैठी हुई नारियॉ मंगल-गीत गाती थीं, जिनसे ऐसा भान होता था मानों वह नारियों के शब्दों द्वारा और और राजोंको ही बुला रही है। इसके दरवाजों पर बंधी हुई मालाओंसे ऐसा जान पड़ता था मानों वह स्वर्गलोकको ही हँसती है । यहॉपर दीवालोंमें चंद्रकान्त मणियाँ जड़ी हुई थी और उन पर आकर चॉदकी चाँदनी पड़ती थी, जिससे वे असमयमें जल वरसाती थीं और मरोंको नाचनेके लिये उत्साहित करती थीं; एवं प्रजागणको भी आनंद देती थीं। इस समय' लोगोंको ऐसा ख्याल होता था कि ये चंद्रकान्त नहीं है। किन्तु घरेलू मेघ ही हैं। यहॉकी भीतें स्फटिककी बनी हुई थीं, अतः उनमें अपने प्रतिविम्बको देखकर स्त्रियोंको ऐसा भ्रम हो जाता था कि क्या यह हमारी सौत तो नहीं आ गई है। वे यह सोच पतिके पाससे हट जाती थीं और पति-गण इसी परसे उनकी खूब हँसी उड़ाते थे । यहॉकी भूमिमें सब जगह हरिनमणियाँ खची हुई थीं, जिनको
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पाण्डव-पुराण । देखकर विचारे मृगोंके बच्चे तृण चरनेके विचारसे आते तो दौड़कर थे, पर जाते थे हताश होकर । यहाँके धीर पुरुष अपने धनसे कुवेरको भी तिरस्कृत करते थे; अन्यथा जिनेन्द्रदेवके जन्मोत्सबके समय कुवेर वहाँ रत्नोंकी वरसा ही काहेको करता। ऐसी सुन्दर पुरीमें उन दोनोंने प्रवेश किया । वहाँ लेजा कर अंधकदृष्टिने खूब सजे हुए एक मनोहर मंडपमें पांडुकुमारको ठहराया और उसकी खूब पाहुनगत की । इसके बाद शुभ मुहूते और शुभ लग्नमें राजोंकी विवाहविधिक जानकार पुरुहितके द्वारा बड़े ठाट-बाटके साथ पांडकुमार फूल-मालोंसे सजी हुई वेदीके पास लाये गये । वहाँ उदारचित्त, मिष्टभापी, गुणाकर तथा कान्तिशाली पांडुकुमारको कुन्ती देवीने अपना वर पसंद किया; जैसे भारती (वाणी ) काव्यको पसंद करती है । इसके सिवा माता-पिता आदि द्वारा सत्कृत मद्रीने भी बड़े स्नेहसे कुन्तीके साथ-ही-साथ कुमारको अपना पति बनाया; जिस तरह सव गुण-सम्पन्न सीता सतीने रामको अपना पति बनाया था । इस समय पांडुकुमारकी सबने पूजा की । किसीने अखंड वस्त्र और कीमती गहने पहिनाये, किसीने हाथी, किसीने रथ, किसीने घोड़ा और किसीने सोना-चॉदी एवं भाँतिके भॉतिके हथियार दिये। कहनेका तात्पर्य यह है कि पांडका लोगोंने सव तरहसे बड़ा आदर-सत्कार किया; किसीने किसी भी वातको उठा न रक्खा । इसके बाद मद्री और कुन्ती दोनों कन्याओंको लिवाकर कौरवोंका अगुआ और भोगी पांडकुमार इन्द्रकी नॉई सब तरहसे सुशोभित हस्तिनापुरको चला आया। वहाँ जब उसने नगरमें प्रवेश किया तब वहॉके. सब कार्यकुशल नरनारीगण अपने अपने काम-काज छोड़कर पांडकुमारको देखनेके लिये आये । इस समय पांडुकी अपार विभूतिको देखकर एक स्त्री दूसरी स्त्रीको पूछती है कि भद्रे, पांडु कहाँ है और कहा जाता है ? देखो तो सही, उसने कैसी विभूतिके साथ नगरमें भवेश किया है । यह सुन कोई और ही स्त्री वोल उठी कि शुभगे और मंगल-मूर्ति देवी, तुम इधर जल्दी आओ, मैं तुम्हें पांडका दर्शन कराये देती हूँ और तुम्हें जो पांडके देखनेका कौतुक हो रहा है उसे अभी मिटाये देती हूँ। कोई स्त्री स्नान कर रही थी, इतनेमें ही उसने पाडु महीपतिके शुभागमनको सुना और वह स्नान करना छोड़ आधा ही कपडा पहिने वाहिर चली आई-~-उसे कुछ भी सुध-बुध न रही। एवं कोई भोजनकी थाली पर जीमनेको बैठी ही थी कि उसने राजाके आनेका समाचार सुना और वह भोजनको छोड़कर एकदम बाहिर निकल आई। किसी स्त्रीने जन पांडुके
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नौवाँ अध्याय ।
१२३ आगमनको सुना तब वह एकदम विचार-विमूढ हो गई और रोते हुए अपने वालकको छोड़ किसी दूसरेके वालकको गोदमें उठाकर बाहिर निकल पड़ी। कोई स्त्री दर्पणमें मुंह देख रही थी, वह दर्पण लिये ही घरके वाहिर आ गई। उसको दर्पण लिये हुए देखकर लोगोंको भ्रम होता था कि कहीं इसका हाथ ही तो ऐसा नहीं है। कोई स्त्री पतिको जीमता छोड़कर भागी, पर उसे कहीं राजा न देख पड़ा-मेघकी नश्वरताकी नॉई उसे राजाका भ्रमसा हो गया, तव वह राजाको देखनेकी इच्छासे इधर-उधर दौडती फिरने लगी। कोई स्त्री आभूपण पहिन रही थी। वह राजाको देखनेके लिये इतनी उत्सुक हो उठी कि उसे अपने गहने-गॉठेके सन्दूकको रखनेकी भी सुध न रही-वह उसे जहॉका तहॉ पड़ा छोड़कर वाहिर आ गई । एवं कोई स्त्री जल्दीमें गलेका हार कमरमें और कमरका सूत्र ( करधौनी) गलेमै पहिन कर वे-सुधसी हुई बाहिर आ खड़ी हुई। किसीने राजाके देखनेकी लालसासे चित्तभंग होकर भाल पर काजलका तिलक
और ऑखोंमें कुंकुमका कज्जल ऑज लिया। ठीक है कि कामी मनुष्यों को कुछ भी विवेक नहीं रहता । कोई भामिनी जो कपड़ा पहिन रही थी, उल्टी कंचुकी - पहिन कर कुच निकाले हुए ही पांडुको देखनेके लिये वाहिर आ गई । उसे देख लोगोंने उसकी खूब ही इसी उड़ाई। ठीक ही है कि कामी जनोंकी लाज फॅच कर जाती है । कोई स्थूलकाय स्त्री गाड़ीमें बैठी हुई किसी दूसरी स्त्रीको कहती है कि सखी, तुम जानेको बहुत ही उत्सुक देख पड़ती हो, जरा ठहरो और मुझे भी देखनेको साथ ले चलो । गर्म-भारसे थकी हुई कोई स्त्री भ्रम हो जानेसे चक्कर खाने लगी और वेहोशसी हुई इधर-उधर घूमती, गिरती, पड़ती फिरने लगी। सच है कि स्त्रियोंकी ऐसी ही गति होती है । वे किसी भी वात पर विचार नहीं करती । कोई स्त्री मार्ग न मिलने पर मार्ग रोकनेवाली स्त्रियोंको मीठे मीठे शब्दोंमें कहती है कि सखी, रास्ता छोड़ दो, मुझे तो महाराज दीखते ही नहीं । एवं कोई तरुणी मार्ग देनेके लिए आगेवाली तरुणी त्रियोंसे कहनी है, पर वे हटती नहीं, तब वह उन्हें गिरा कर चंचल-चित्त होती हुई, जलकी तरंगोंकी नॉई शरीरको भी चंचल बनाकर, फुर्तीसे उनके आगे निकल जाती है । एवं कुन्ती और मद्रीसे युक्त और लक्ष्मीसे परिणीत पांडुको देखकर हर्षिन हुई कोई स्त्री कहती है कि सखी, अगणित लक्षणोंवाले और सफेद छन द्वारा पहिचाने जानेवाले पांडुने इन दोनों सुन्दरियाँको किस पुण्यके उदयसे पाया है । लक्ष्मी और कान्तिके समूह-रूप इन
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पाण्डव-पुराण ।
दोनोके योगसे रंजित पांडु जो कुछ भी सुख-लाभ कर सका है वह सव पुण्यका ही परिणाम है। और सखी, यह भी तो बताओ कि इन दोनोंने भी पूर्वभव कौनसा अपूर्व पुण्य कमाया था, जिसके फलसे इन्होंने ऐसा इन्द्र जैसी विभूति- : वाला और विचक्षण योग्य वर पाया है। इन्होंने सुपात्रके लिये दान दिया है या घोर तपस्या की है। बड़े भक्तिभावसे श्रीगुरुकी सेवा की है या जिन चैत्यालयमें जा जिनेन्द्रदेवकी पूजा की है अथवा शुभ इच्छासे इन्होंने उत्तम पुरुषोंकी सेवा-श्रुश्रूषा की है । इन उत्तम कामों से इन्होंने अवश्य ही कोई काम किया है, नहीं तो उन्हें ऐसा योग्य वर कभी भी नहीं मिल सकता था । पूर्ण चंद्रकी नॉई स्वच्छ और मंडालाकार पांडका छत्र ऐसा जान पड़ता है कि मानों पिंडरूपमें इकट्ठा हुआ उसका यश ही है और छत्रके, वहानेसे उसकी शोभा बढ़ाता है। इस महोदय राजाने शस्त्रोंके तीव्र प्रहार द्वारा पापिष्ट वरियोंके खंड कर कर दिये है । इसके समान वली राजा और कोई नहीं है। इस तरहसे भेंट दे-दे कर लोगोंने पांडुकी खूब स्तुति-भक्ति की।
इसके बाद कुछ देरमें प्रबल प्रतापी पांडुकुमार तो अपने सुन्दर महलमें चला गया और उन दोनों पुत्रवधुओंका, व्यासने अपने मंदिरके पास ही, पूर्ण सम्पत्तिशाली और धुजाओंसे सुशोभित एक महलमें निवास कराया। वाद वह भोगी पांडु पंडित भी उन दोनों प्रियायोंके साथ सुखसे. रमता हुआ वहीं रहने लगा। सच है कि जिसका पुण्य प्रवल होता है उसे किसी भी वातकी कमी नहीं रहती । कुन्तीके कुचोंके स्पर्शसे और उसके मुख-कमलके पानसे पांडुको वड़ी प्रसन्नता हुई, जैसे , मनचाही चीजको पाकर प्रेमी पुरुषोंको प्रीति होती है । उसके सुगंधित मुख कमलको सूंघ कर पांडुकी तृप्ति ही नहीं होती थी; जिस तरह कि कमलकी सुगन्धसे भौरे तृप्त नहीं होते । सच है कि कामसेवनसे किसीको भी सन्तोष नहीं होता। कुन्तीने कटाक्षमय दृष्टिपालसे, मनोहर मुसक्यानसे, मीठी बोल-चालसे और अपने सौंदर्यसे उसका मन विल्कुल अपनी तरफ खींच लिया; अपनेमें बाँध लिया । उस मनस्विनीने उसके मनको अपने अनुपम सौंदर्यसे और कामके पासकी नॉई अपनी दोनों भुजाओंसे उसके गलेको खूब मजबूत बॉध लिया । वह उसे अपने प्राण ही समझने लगी। पांडुने भी उसके साथ काम-सुख भोगते भोगते उसके कोमल हाथों में स्पर्शका, मुख-कमलमें सुगन्धका, बोल-चालमें मनोहर शब्दोंका और उसके शरीरमें मनोहर रूपका जैसा कुछ अनुभव किया और जैसा इन्द्रियोंके सुखोंको
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भोगा वह सब उसके लिये अपूर्व ही था । ठीक ही है कि इन्द्रिय-मुखकी वाञ्छा रखनेवाले जीवोंको स्त्रीके सिवा और कोई गति ही नहीं है। __अपनी नव वधूकी रूप-सुधाका पानकर-दिव्य औषधिको पीकर रोगीकी नॉई-पांडु थोड़े ही कालमें पूर्ण सुखी हो गया; उसका मदन-ज्वर उतर गया । वह उनके साथ कभी महलके बगीचे और कभी वेलोंसे छाये हुए मंडपवाले वनके प्रदेशमें क्रीड़ा करता था। एवं कभी उनके साथ-ही-साथ वह क्रीड़ापर्वत पर जाता और वहाँ मन-चाही क्रीड़ा करता था । कभी कभी नदियों में जा सिकता-स्थलमें विहार करता था । और कभी उनके साथ वावड़ियोंके जलमें तथा हिंडोलोंमें मनको बहलाता था। इस प्रकार भॉति भाँतिके भोगों, जिनेन्द्रदेवके महिमावाले उत्सवों और पात्रदान आदि क्रियाओं द्वारा उसने बहुत काल विताया।
भोजकदृष्टि राजाकी एक पुत्री थी । उसका नाम था गांधारी । वह शीलवती थी, गुणोंकी खान थी और उसने अच्छे अच्छे विद्वानोंसे शिक्षा पाई थी। वह अपने मुखसे चॉदको और नेत्रोंसे मृगीको जीतती थी; तथा रूपसे रतिफो भी नीचा दिखाती थी । अपनी मंद गतिसे वह हथिनीको लजाती थी.।। वह धृतराष्ट्र के साथमें विवाही गई थी । उसका विवाह आर्षविधिसे हुआ था ।
और ऋषभ प्रभुके निमित्तसे जैसे यशस्वतीके सौ पुत्र हुए थे उसी तरह इसके भी सौ पुत्र होनेवाले थे।
इसके बाद कुमुदती नाम देवक राजाकी पुत्रीके साथ प्रेमसे विद्वान् . विदुरका पाणिग्रहण हुआ।
एक दिन रातके पिछले पहर कुन्ती अपनी शय्या पर सुखकी नींद सोई . हुई थी। उस समय उस शुद्धमनाने कई एक शुभ स्वमोंको देखा । उनका हाल सुनिए-.
पहले स्वममें उसने मदसे जिसके कपोल भर रहे हैं और रॉडको जो इधरउधर घुमा रहा है, ऐसा हाथी देखा । दूसरेमें कल्लोलोंसे सुशोभित और शब्द करता समुद्र देखा । तीसरेमें प्रकाशमय और संसारको सुख देनेवाला पूर्ण चॉद देखा । एवं चौथे स्वममें उसने चार डालोंवाला और अर्थियोंको धन देनेवाला कल्पक्ष देखा । इन स्वमोंको देख चुकने पर जब सवेरा हुआ तब वह जागी और प्रभात-कालकी क्रियाओंसे निवट कर उसने सुन्दर वस्त्र और भूषण
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पाण्डव-पुराण। ~~~irur rur . or not.wwmanmmmmmmmmrrormomx.mmmmer
पहिने। इसके बाद वह सुकेशी अपने स्वामी पांडुके पास पहुंची। पांडने उसका यथायोग्य आदर किया और उसे अपने आधे सिंहासन पर बैठाया । इसके बाद । कुन्तीने पांडुको स्वमोंका सब हाल सुना कर उनका फल पूछा । उत्तरमे पांडुने । कहा कि सुन्दरी, ध्यान देकर सुनो । तुमने जो हाथी देखा है उसका तो यह फल है कि तुम्हारे पुत्रका जन्म होगा; समुद्र देखनेसे वह बड़ा गंभीर होगा;, चाँद देखनेसे वह जगत भरको आनंददायी होगा और अन्तमें तुमने जो कल्पवृक्ष देखा है उसका फल यह है कि वह दानी होगा, उससे जो कोई जो कुछ भी याचना करेगा उसे वह वही देगा। और चार शाखायें देखनेका यह फल है कि उसके चार भाई और होंगे । वे पाँचों भाई सुन्दर रूपवाले और विजयी होंगे। इस प्रकार अपने स्वमोका फल सुन कर मुग्ध मनवाली सती कुन्ती वहुत हर्षित हुई। इसके कुछ समय बाद अच्युत स्वर्गसे एक भाग्यशाली देव चया और उसको अपने गर्भ-कमलमें धारण कर कुन्ती गर्भवती हुई । सच तो यह है कि पुण्यके योगसे जीवोको पुत्र आदि कोई भी सामग्री दुर्लभ नहीं रह जाती । धीरे धीरे उसका वह गर्भ वढ़ने लगा और लोगोंको आनंद देने लगा । उसका वह गर्भ शत्रुपक्षका घातक और स्वजनोंको आनंद देनेवाला था ।- पांडर शरीरवाली और चंचल भौहेंवाली गर्भवती कुन्तीको देख कर पांडके हर्षका पार न . रहा। वह उस समय ऐसी मालूम पड़ती थी मानों रत्नोंसे रञ्जित भूमिवाली खान ही है । क्योंकि वह रत्न-जड़ित बहुतसे गहने पहिने थी और उनके रत्नोंकी.. ज्योति पृथ्वी पर पड़ती थी। गर्भके निमित्तसे उसके पेटकी त्रिवली मिट गई थी। जान पड़ता था कि उस त्रिवली भंगसे वह यही जनाती थी कि इस गर्भसे वैरियोंका भंग अवश्यंभावी है । इसके सिवा उनकी और कोई भी गति नहीं हो सकती । कुन्तीको उत्तम मिट्टी खानेकी इच्छा होती थी, जिससे जाना जाता था कि इसके गर्भमें जो पुरुष स्थित है वह सारी पृथ्वीको भोगेगा और सम्पूर्ण राजों महाराजोंको अपने अधीन करेगा। उसके कुच उन्नत हो गये थे और साथमें ही उनके चचक काले पड़ गये थे। जिनसे ऐसा भान होता था कि मानों- वे अपने , स्वजन वन्धुओंकी उन्नति और शत्रुपक्षकी कालिमाको ही जनाते हैं । उसके मुंहमें .. थूक बहुत आता था, उससे जाना जाता था कि वह लोगोंको यही जनाती है कि इस गर्भस्थ बालकके मारे शत्रु-गण मारे मारे फिरेंगे-कहीं भी उन्हें शान्ति नहीं मिलेगी । इस प्रकारके गर्भ-चिन्होंसे अलंकृत कुन्ती देवीकी अलंकार, भोजन, ,' भंषण, वाणी आदि किसी भी वातमें प्रीति नहीं रह गई; परंतु जिनेन्द्रदेवकी ।
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नौवाँ अध्याय ।
१२७ पूजा तथा और और धर्म एवं धर्मके फलमें उसे दोहद रूपसे प्रीति अवश्य होती
थी । वह जिनेन्द्रदेवकी पूजा करती थी, व्रत करती थी और व्रती पुरुषोंमें : वात्सल्य रखती थी । उसे एक बार यह दोहला हुआ था कि मैं युद्धमें बड़े बड़े
शत्रुओंका संहार करूँ । इस तरहसे उसको और और भी बहुतसे दोहले उत्पन्न हुए । इस प्रकार धीरे धीरे जव गर्भके दिन पूरे हो गये तब उस पुण्यवतीने
-जैसा उसका मनोरथ था वैसे ही-उत्तम पुत्रको जन्म दिया । उसके जो पुत्र हुआ उसके नेत्र-कमल खूब विस्तीर्ण थे, मुख चन्द्रके जैसा था । वह नीतिका ज्ञाता
और राज-कुलका अभ्युदय था । वहुत क्या कहें उसकी अपूर्व शोभा थी । जिस समय पुत्रका जन्म हुआ उस समय अँधेरा न जाने कहाँ बिला गया, जैसे सूरजका उदय होते वह बिला जाता है । और जिस तरह रातकी शोभा चॉदसे होती है उसी तरह पुत्र-जन्मके समय पुत्रके द्वारा कुन्तीकी भी अपूर्व शोभा हो गई थी; वह अपूर्व द्युतिको धारण करती थी । या यों कहिए कि उस समय वह पांडुके तेज-रूप सूरजके द्वारा दिनकी दीप्सिसी शोभित होती थी। उस समय डंडोंके सिरोंसे ताडी हुई महान आनंदमेरी वज रही थी और उसके शब्दसे राज-महल गूंज रहा था । जान पड़ता था मानों मेघ ही गरज रहा है । इसके सिवा उस समय नगाड़े, झालर, शंख, काहल, वीणा, मुंदग आदि बाजोंकी भी ध्वनि हो रही थी । इनका शब्द सुनकर ऐसा भान होता था कि मानों ये सव बाजे अपने आप ही खुशीसे बज रहे हैं और संसारको कुन्तीके पुत्र-जन्मकी सूचना करते हैं । इस समय अच्छी अच्छी नर्तकियों को भी लीलामात्रमें जीतनेवाली नटियोंने • लयके साथ महान नृत्य ..... शुरू किया । पुरकी गली गलीमें चंदनके जलकी छटा देख पड़ने लगी। अधिक क्या कहा जावे पुरकी यहाँ तक शोभा और सजावट की गई थी कि जिससे ऐसा भान होता था कि मानों वह स्वर्गकी शोभा और सजावटको हॅस ही रहा है । घर घरमें रत्नोंके तोरण बॉधे गये थे और उत्सबके लिये मंडप सजाये गये थे। एवं रत्नोंके चूर्ण द्वारा भूमिमें नाना रंगकी रत्नावली पूरी गई थी, जो अपूर्व ही शोभा पाती थी । वहाँ घरोंके ऊपर सोनेके बडे बडे कलश चढ़े हुए थे और वे मकान आकाश तक ऊँचे चले गये थे, अतः ऐसी प्रतीति होती थी कि मानों इन मकानों पर आकर सूरज ही तो नहीं स्थित हो गये हैं।
पांडुरूप मेघने जब पुत्र-जन्मके समाचारको सुना तब लोगोंकी इच्छाके अनुसार उसने धारासार बरसाकी तरह खूब ही दानकी बरसा की । उत्तम
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Gaint खूब दान दिया और उनका उचित आदर किया । वह बालक कौरववंश रूप समुद्रको वृद्धिंगत करनेके लिये चॉदके समान हुआ। चॉद जैसे समुद्र को वृद्धिंगत करता है उस महामनाने भी उसी तरह अन्तःपुर सहित सारे पुरमें आनंद ही आनंद फैला दिया सबको दृद्धिंगत कर दिया। इसके उत्पन्न होने पर बन्धुवर्गको लड़ाईमें स्थिर होनेकी भावना हुई । इस लिये उन्होंने इसका नाम युधिष्ठिर रक्खा । और यह जबसे गर्भमें आया तभी से लोगोंको धर्म-साधनका निमित्त बना, इस लिये उन्होंने इसका धर्मराज या धर्मनन्दन नाम भी रक्खा । इसने अपने जन्मसे ही कौरववंशको आनंद दिया, अतः यह कौरवाग्रणी कहलाया । शत्रु वंश रूप अँधेरेको वह हटानेवाला था, इस लिये इसे लोगोंने बाल-चंद्र कहा । माताका दूध पीते समय जो दूध उसके मुॅहसे बाहर आ छलकता था 'उससे उज्ज्वलताको धारण किये हुए शरीर और शरीरकी स्वाभाविक उज्ज्वल कान्तिसे जो दशों दिशाएँ व्याप्त हो रही थीं उससे उसकी अपूर्व ही शोभा थी । वह अपनी मुसक्यान तथा मणिजटित भूमिमें लटपटाते हुए चलने और मन-ही-मन भाषणसे माता-पिताको हमेशा ही प्रसन्न करता रहता था । इन सब बातोंके सिवा उसकी वृद्धि के साथ-ही-साथ उसमें स्वाभाविक गुण भी बढ़ते जाते थे | मानों वे उसके सौदर्य पर मोहित होकर ही उसकी वृद्धिके अनुयायी बने थे ।
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ही रहीं उसे निर्मल मणियोंसे
उसका पिता क्रिया- विधानका अच्छा ज्ञाता था, अतः उसने बालककी अन्नाशन, सुचौल, उपनयन आदि सभी क्रियाएँ कीं । धीरे धीरे दशों दिशाओंमें उसका यश व्याप्त हो गया । उसने क्रमसे वाल-कालको लांघकर युवादस्थामें पैर रक्खा । पर इस समय भी उसकी वाणी, कला, विद्या, छुति, शील' और विज्ञान सभी बातें वैसीकी वैसी स्वाभाविक रंचमात्र भी मद वगैरह न हुआ । उसके मस्तक पर उन्नत और जड़ा हुआ मुकुट ऐसा जान पड़ता था मानों शिखर - सहित सुमेरुका शिखर ही है । उसका मुँह देखने में बहुत ही प्यारा लगता था और वह चाँदके isrst भी लजाता था । क्योंकि चाँद तो कभी कभी घट भी जाता है पर वह तो हमेशा ही एकसा रहता था । उसके कान कुंडलोंसे सुशोभित थे, कपोल दर्पणकी नॉई निर्मल थे और नेत्र सूक्ष्मदर्शी और मनोहर थे । उसकी नाक सुन्दर सुगंधको ग्रहण करनेमें समर्थ और चम्पेके समान शोभाशाली थी । सुन्दर विवाफलके समान सुन्दर उसके ओठ थे । उसकी सुन्दर भौहें बड़ी चंचल थीं । जान पड़ता था.
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१२९ कि मानों तीनों लोकोंको वशमें लाने के लिये कामदेवकी धुनाएँ ही फहरा रहीं हैं। उसके कंठकी हार वगैरहसे अद्भुत ही शोभा थी । अतः उसका कंठ ऐसा शोभता था जैसा कि ज्योत्स्नासे घिरा हुआ सुमेरु शोभता है । उसका वक्षास्थल वड़ा विस्तृत था और उसमें सुन्दर हार पड़ा हुआ था । जान पड़ता था कि वह पहाड़ ही है और उसमें जो हार पड़ा हुआ है वह हार नहीं, किन्तु झरना वह रहा है । उसकी भुजायें महान् स्तंभ सरीखी थीं । वे संसारको पालनेवाली थीं, हाथीकी सूहके तुल्य थीं और उनमें जयलक्ष्मीका निवास था । उसका हस्ततल नक्षत्र, मीन, कूर्म, गदा, शंख, चक्र, तोरण आदि लक्षणोंके द्वारा आकाशके आँगनसा देख पड़ता था । उसका सुन्दर शरीर कटक, अंगद, केयूर और अँगूठी आदि भूषणोंके द्वारा दीप्त हो रहा था, जैसे कि भूषणों के द्वारा कल्पवृक्ष सुशोभित होता है । उसकी नाभि वावड़ीके तुल्य थी, उसमें लावण्य-रूप जल भना था। उसकी कटिमें करधौनी सुशोभित थी और वह दूसरी स्त्रीसी जान पड़ती थी। जिस तरहसे फेनवाले जलसे भरा हुआ नदीका किनारा शोभता है उसी तरह रेशमी वस्त्रोंसे व्याप्त उसके सघन जघन शोभते थे । उसके स्थलउरुस्थल सोनेकी धुतिके समान पीले थे और वे ऐसे मालूम होते थे कि मानों अपने ठहरनेके लिये कामदेवने दो स्तंभ ही खड़े किये हैं । उसकी जंघाएँ पापसमूहका विनाश कर संसारको लॉघ जानेके लिये समर्थ थीं । वे उनिन्द्र थीं, अतएव ऐसी जान पड़ती थी मानों कामके वाण रखनेके ये तूणीर-तरंकस-ही हैं । पराक्रमशाली उसके चरणोंको प्रवेश करनेमें कहीं रुकावट न होती थी, अतएवं सव कोई उन्हें नमस्कार करते थे । वह क्षत्रियों द्वारा सेव्य था और उसके नख नक्षत्रों के समान थे, मानों वे रूप देखने के लिये दर्पण ही बनाये गये थे । उसका रूप उपमा रहित था । उस कौरवेश राजोंके राजाके रूपका वर्णन करनेको संसारमें कोई भी समर्थ नहीं है । इसके बाद कुन्तीने भीमको जन्म दिया। भीम युधिष्ठिरके तुल्य ही शिष्ट था, गुणोके गौरवसे विशिष्ट था, सुन्दर था । उससे बड़े बड़े रणशाली वैरी भी डरते थे । इस लिये लोग उसे दृष्टिभयंकर-भीम-कहते थे । कल्पवृक्षके बहानेसे स्वममें वायुने उसे कुन्तीको दिया था, इस लिये लोग उसे मरुत्तनय कहते हैं । उसकी महान भुजाएँ थीं, शरीर लम्बा-चौड़ा सुन्दर था, कान्तिशाली था। वह गुणोंका पुँज था; महामना, रूपशाली और पृथ्वीका भूषण था । इसके बाद कुन्तीने धनंजय (आग) सरीखे धनंजयको जन्म दिया । वह महान तेजवाला और धन एवं जयको
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प्राप्त था । शत्रु-रूप काठको जलाने के लिये जो धनंजय- - अनिके—समान था । इसका दूसरा नाम अर्जुन था । वह इस लिये पड़ा था कि उसके शरीरकी कान्ति अर्जुन (चॉदी) के समान थी । वह दुष्टों के निग्रह करनेमें दक्ष था, यशको संचय करनेवाला था । उसकी माताने स्वममें इन्द्रको देखा था । इस लिये सत्रुष उसे शक्रसून कहते थे । यदि किसीके सौ जीमें भी हो जायें, तब भी वह उसके रूप, गुण, तेज, यश और बलको नहीं कह सकता । इसके वाद समुद्रकी नॉई गंभीर मद्रीने कुलको उज्ज्वल करनेवाले नकुलको जन्म दिया और देवतौके साथ क्रीड़ा करनेवाले महान वली सहदेवको उत्पन्न किया । इस प्रकार वैरियोंको खंडन करनेवाला और प्रचंड तेजका, धारक पांडु पाँच पुत्रोंके साथ सुख भोगने लगा, जिस तरह नीरोग मनुष्य अपनी पाँचों इन्द्रियोंसे सुख भोगता है । इस प्रकार सब गुण सम्पन्न सुतोंवाली कुन्ती, सुंदर मुद्राको धारण करनेवाली तथा सज्जनोंकी रक्षक मद्री तथा प्रचंड वली पांडु ये तीनों अपने पाँचों श्रेष्ठ पुत्रोंके साथ-साथ आनंदपूर्वक सांसारिक सुखोंको भोगते थे ।
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उधर परम प्रीतिको प्राप्त हुई धृतराष्ट्रकी प्रिया गांधारी अपने बन्धुवर्गके साथ साथ सुख भोग रही थी। वह धैर्यकी खान थी । धृतराष्ट्र गांधार के मुख-कमल के साथ भरेकी नॉई क्रीड़ा' किया करता था । गांधारी के बिना उसे कहीं भी चैन न पड़ती थी । वह उसके साथ सब सांसारिक सुखोंको भोगता था । और ठीक ही है कि कामिनीजनको छोड़कर कामी- पुरुष और जगह कहीं सुख नहीं पाते हैं ।
गांधारी पतिभक्ता साध्वी थी, अतः वह भी हास्य, कटाक्ष और विनोदोंके द्वारा धृतराष्ट्रको खूब रमाती थी । एवं वे दोनों दम्पति विनोदके साथ क्रीड़ा किया करते थे और सुशोभित होते थे, जिस तरह कि मनको मोहनेवाले बिजली और मेघ सुशोभित होते हैं । एक समय उस सदाचारीने गांधारीके साथ महाभोग, वराभोग, आदि क्रीड़ायें कीं । उस समय पुण्ययोगसे गांधारीने गर्भ धारण किया । नीतिके, पंडितोंने कहा है कि संसार में ऐसी कौनसी दुर्लभ वस्तु है जो पुण्ययोग्यसे प्राप्त नहीं होती। धीरे धीरे जब गर्भके दिन पूरे हुए तब उस सुखशालिनीने पुत्रको जन्म दिया, जिससे लोगों को बड़ा भारी हर्ष हुआ । वे परम प्रीतिको प्राप्त हुए। और ऐसे उत्तम पुत्रको जन्म देनेके उपलक्ष्य में पुरंधीजन उसे आशीर्वाद देने लगीं कि हे देवी, तुम लोकोपकारी ऐसे ही सैकड़ों पुत्रोंको पैदा करो | वह पुत्र शत्रुओंके साथ बड़ी भयंकरतासे युद्ध करनेवाला
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था । उसके द्वारा वैरियोंको बड़ा दुःख होता था, इसलिये उसे लोग दुर्योधन कहते थे । वह अपने स्वजनोंके साथ साथ शीघ्र ही परमोदयको माप्त हो गया । इस समय पुत्र जन्मका समाचार लेकर जो पुरुष राजाके पास आया, राजाने उसे अपने छत्र सिंहासन आदि राज-चिन्हों को छोड़कर और कुछ भी देनेकी कसर न की । इसके सिवा राजाने उस समय कैदमें पढ़े हुए कैदियोंको, पींजरेमें बँधे हुए पक्षियोंको तथा जेलखाने में पढ़े हुए शत्रुओंको छोड़ दिया - उन्हें मुक्त कर दिया । उस समय जो भाँति भाँतिके वाजे वजे उनसे उस सुनीतिवाले और सुख के सागरका जन्म उत्सव सभीको ज्ञात हो गया । वह वर्द्धमान था और विद्वान था, युद्धमें बड़ेसे बड़े वैरियों द्वारा भी जीता न जा सकता था । उसने बड़ी सुरवीरता से भी युद्ध करनेवाले कई एक शत्रुओंको प्राण-रहित कर दिया था । इसके बाद गांधारीने दुश्शांसन नाम दूसरे पुत्रको जन्म दिया । वह भी स्पष्टवक्ता और सर्वश्रेष्ठ था । उसकी जितनी कुछ चेष्टा थी वह सब शुभ कार्योंके लिये थी । वह खोटे काममें कभी हाथ न डालता था । इसके वाद गांधारीने अट्ठानवे और और पुत्रोंको पैदा किया। उनके नाम सुनिए । दुर्द्धर्पण, दुर्मर्षण, रणश्रान्त, समध, बिंद, सर्वसह, अर्जुविंद, सुभीमं सुवन्हि, दुःसह, दुसलं, सुत्र, दु:कर्ण, दुःश्रव, वरवंश, अर्वकीर्ण, दीर्घदर्शी, सुलोचन, उपचित्रं विचित्र, चारुचित्रं, शरासन, दुर्मद, दु, मँगाह, युयुत्सु, विर्केट, ऊर्णनाभ सुनभ, नंद, उपनंद, चित्रैवाण, चित्रैवर्मा, सुबर्मा, दुर्विमोचन, अयोबाहु, महाबहु, श्रुतवान, पद्मलोचन, भीमबाडु, भीमवल, सुषेण, पंडित, श्रुतायुध, सुवीर्य, दंडधर, महोदर, चित्रायुध, निःषंगी, पारों, वृंदारक, शत्रुंजय, शर्तींसह, सत्यसंध, सुदुःसह, सुदर्शन, चित्रसेन, सेनानी, दुःपराजय, पराजित, कुंडशायी, विशालाक्ष, जय, दृढ़हस्ते, सुहस्त, वातवेग, सुवर्चस, आदित्यकेतु, वन्हाँशी, निर्बंन्ध, प्रियों दी, कवची, रणशोंढे, कुंडधार, धनुर्धर, उग्ररथ, भीमरथै, शुरैबाहु, अलोलुप, अभय, रौद्रकर्मा, दृष्टरंथ, अनादृष्ट, कुडेभेदी, विरौजी, दीर्घलोचन, प्रथम, प्रेमाथी, दीर्घलाप, वीर्यवान, दीर्घबाहु, महवक्ष, सुलक्षण, विलेक्षण, केक, कांचन, सुर्ध्वज, सुभज, और अरंज । ये सभी पुत्र वर्द्धमान । और इनका यश सब जगह फैल रहा था तथा हमेशा बढ़ता ही जाता था । ये सबके सब शस्त्र और शास्त्र आदि भाँति भौतिकी कलाओंमें निपुण और सुन्दर थे । इस प्रकार ष्यों पांडव और कौरव वृद्धिंगत होते जाते थे, त्यों त्यों, आनंद देनेवाली उनके सम्पत्ति भी बढ़ती जाती थी । दिव्यचक्षुके धारक, 'सुवर्णके समान कान्तिवाले
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एवं ब्रह्मचारी गांगेय (भीष्म पितामह) इन सव पांडवों और कौरवोंकी रक्षा करते थे तथा इन्हें शिक्षा देते थे । धीरे धीरे ये सब पूर्ण समृद्धिशाली हो गये । सच है कि वृद्धके द्वारा पाला-पोपा जाकर कौन परमोदयको नहीं प्राप्त होता । एवं इन परमोदयके धारकोंको द्रोणाचार्य द्विजेशने भी पाला-पोषा, जिससे ये सुन्दराकृति कौरव और पांडव परम वृद्धिको प्राप्त हुए । द्रोण बड़े दयाल थे, शरण-योग्य थे, आश्रितोंको अपनाते थे; अतः उन्होंने धनुष विद्या-रूप समुद्रको पार करने के लिये इन्हें द्रोणी (नौका) का काम दिया और थोड़े ही समयमें इन सवको धनुपविद्यामें निपुण कर दिया । ये सब द्रोणाचार्यका खूव आदर और विनय करते थे; क्योंकि विद्या विनयसे ही प्राप्त होती है । अर्जुन सरलचित्त था, विनयी और पाप-कर्मोंसे रहित था अर्थात् वह हमेशा शुभ क्रियाओंमें ही लगा रहता था । अतः पितृव्य तुल्य और धनुषविद्या-विशारद द्रोणने प्रसन्न होकर उसे धनुप-विद्याकी खूब शिक्षा दी । इसके सिवा द्रोणने उसे शब्दवेधी महाविद्या भी सिखा दी। , अर्जुनको पार्थ भी कहते हैं । पार्थने जो कुछ भी गुरुसे विद्या पाई थी वह सव उसके विनयका फल था । नीतिकार कहते हैं कि गुरुके विनयसे क्या क्या नहीं होता, विनय मनोभिलषित पदार्थों को देनेवाला है; लोगोंके सभी मनोरथोंको साधता है । इस प्रकार अर्जुनने गुरु द्रोणसे, विनयके बल, प्रचंड और अखंड धनुषरूप लक्षणके द्वारा, लक्ष्य (निशाना) वेध करनेको, वेध्य-वेधक भावसे अर्थात् लक्ष्यका बार बार वेध करनेसे सीख लिया, जिसके द्वारा वह सारे जगतके धनुष-विद्याके पंडितोंको नीचा दिखा कर, आकाशमें चाँदकी नॉई, राज्यरूप आँगनमें सुशोभित होने लगा।।
___ इस प्रकार सुख-सागरमें निमम हुए उन पांडवों और कौरवोंका बहुतसा काल बीत गया, पर उसका उन्हें कुछ भी भान न हुआ । ठीक ही है कि सुखी जीवोंका एक वर्ष भी क्षणकी नाई बीत जाता है।
इस तरह पांडु सुखसे अपना समय बिताता था। उसका कोई शत्रु न था और उसके पक्षमें बड़े बड़े वीर थे। स्वयं उसके पुत्र ही आद्वितीय योधा थे। इसके सिवा वह विद्वान् था, अतः उसके पास बुद्धिबल भी था। ,
उसके पुत्र युधिष्ठिर आदि युद्धमें शत्रुओंको एक क्षण भी नहीं ठहरने देते थे; वे सभी अद्वितीय वीर थे । उनको देखकर लोगोंके दिल खुश होते थे
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नौवाँ अध्याय।
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और उनसे वे विभूषित होते थे । चाहे कैसा ही दुनिवार वैरी क्यों न हो उसे वे अपने सामने टिकने ही न देते थे और वैरियों पर विजय पानेको ही अपना परम कर्तव्य जानते थे । भीम बड़ा भयंकर योधा था । लोगोंकी भीतिको दूर करता था । शत्रु-रूप अधेरैको दूर करनेके लिये वह सूरज था; तेजस्वी. था। इसी प्रकार पार्थ भी उत्तम कार्योंको करनेवाला और समर्थ पुरुषों द्वारा पूजा जानेवाला था, द्वीप्तिशाली था । वह पार्थ-अर्जुन-सदा ही सुशोभित हो । उन कौरवोंकी विजय हो जो अतुल और विपुल लीलासे लक्षित हैं, जिनके शरीरमें नाना लक्षण हैं, जो सम्पूर्ण बलके विलाससे अलंकृत-विभूषितहै, निर्मल हैं, मनोहारी हारसे जिनका कंठ विभूषित है, चंचल तथा कमलकी नॉई जिनके नेत्र है और जो जिन भगवानके चरण-कमलोंमें लीन हैं।
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पाण्डव-पुराण।
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दसवाँ अध्याय।
उन अभिनन्दन प्रभुको मैं अपने मनोमन्दिरमें विराजमान करता हूँ जो
आनंदके दाता और भयके घातक हैं । जिनका आत्मा निर्मल और कपायरहित हैं और जो उदार हैं-सवको एक दृष्टिसे देखते हैं।
एक समय सफेद छत्रसे सुशोभित पांडुको क्रीड़ाके लिये वनमें जानेकी इच्छा हुई । तब उसने भेरी वजवाई । भेरीके शब्दको सुनकर चारों प्रकारकी सेना तय्यार हो गई । सूरजके घोड़ोंसे भी सुन्दर, चलते हुए चगर-किसवारवाले चंचल घोड़े सजाये गये । दाँतोंके प्रहारसे पर्वतोंको भी हिला देनेवाले तथा . उन्हींके वरावर ऊँचे बलवान हाथी तैयार किये गये । वे महायुद्धके जैसे देख पड़ते थे। सुन्दर पहियोंसे सजे हुए और लोगोंके पॉवोंको विफल कर देनेवाले रंथ इधरउधरसे तैयार हो-होकर आये । एवं मेघकी नॉई गर्जनेवाले और भयंकर दिखाववाले प्रचंड पयादे-गण धनुष ले-लेकर उपस्थित हुए । इत्यादि शोभासे युक्त पांडु वनको चला । उसकी आज्ञासे मद्री देवी भी उसके साथ साथ चली। वह अद्वितीय सुन्दरी थी। उसके नेत्र कमलसें खिले हुए थे। पूरे चाँदके जैसा मनको मोहनेवाला उसका मुंह था। उसकी मूर्ति देखने ही योग्य थी। उसके हाथकी उँगुलिमें एक सुन्दर अंगूठी थी। उसे वह हमेशा ही पहिने रहा करती थी। वह अपने कर्णफूलोंकी कान्तिसे सूरजकी और दाँतोंकी प्रभासे चाँदकी हँसी उड़ाती थी और कटाक्ष-बाणोंके पातसे मनुष्योंके मनको मोहती थी। कुचोंके भारसे उसकी अपूर्व ही शोभा थी। इसके थोड़ी देर बाद पांडु भाँति भॉषिके वृक्षोंसे सघन वनमें पहुंचा और वहाँ मद्रीके समागमसे उसका मन खूब प्रसन्न हुआ। वहाँ उसने देखा कि कहीं ऊँचे तालवृक्ष, कहीं सरल सरसके वृक्ष खड़े हुए हैं। कहीं सुन्दर मंजरियोंकी सुगन्धसे मनको मोहित करनेवाले आमके वृक्ष लह-कहा रहे हैं । कहीं अशोकक्ष कामनियोंके पाँवोंकी ताड़नाको पाकर हरे भरे हो रहे हैं । कहीं स्त्रियोंके कुल्लोंसे सींचे जाकर वकुलक्ष फल रहे हैं। कहीं नारियोंके संगमको पाकर कुरुवक जातिके वृक्ष विकशित हो रहे हैं। कहीं भौरियोंके साथ साथ भौरे कामदेवके यशको गा रहे हैं, जिसे कामने तीनलोकको जीत करके पाया है। कहीं कोयले मधुर मधुर शब्द कर रही हैं, जाना . जाता है कि वे गर्वको प्राप्त हुई कामनियोंके काम-तंत्रीके तारसे परिष्कृत किये
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दसवाँ अध्याय ।
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wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww गये स्वरोंकी नकल ही उतार रही है । कहीं पद-पद पर कामनियाँ मधुर गीत गा रही हैं। कहीं अपनी तरल तरगोंके शब्द द्वारा किंनरियोंके नादको भी जीत लेनेवाले तालाव देख पड़ते हैं । ऐसे मनोहर वनमें मद्री रानीके साथ साथ पद-पद पर भामनियोंकी नृत्य-कलाको देखते हुए पांडने बड़े सुख-चैनसे समय विताया, और वहाँ क्रीडा की। एवं उसने मनोहर भोगों और रति-कीडासे उत्पन्न हुए हास, रस, विलासोंके द्वारा मद्रीको खूब रमाया; उसके साथ खूष ही क्रीड़ा की। इसके सिवा उसने चन्दनके रससे, अगुरुद्रवके मर्दनसे, सुगंध द्रव्यके निक्षेपसे, स्त्रियोंके कटाक्षमय निरीक्षणोंसे तथा उनके सुन्दर आलापोंसे अपने चित्तको बहुत ही बहलाया; परंतु उसे कहीं भी सन्तोष न हुआउसकी विषय-तृष्णा बढ़ती ही गई । कहीं वह वावड़ियों में जाकर स्त्रियोंके साथ फूलोंके तुल्य कोमल और सुगन्धित चन्दनके जलकी उछलती हुई दोसे क्रीड़ा करता था और कंठ तक पानीमें जब चैठ जाता था तव ऐसा जान पड़ने लगता था मानों तियोंके मुखरूप चॉदको ग्रसनेके लिए राहु ही आ गया है । कुछ देरमें जब वह क्रीडा करता करता थक गया तव उसने वहाँसे चलनेकी इच्छा की । वहाँसे चलकर उसने बहुतसे लता-मंडपोंको देखा । एक लता-मंडपमें वह स्थिर-चित्त होकर वैग भी। वह लता-मंडप गोल था और भौरोंके सुन्दर शब्दोंसे गूंज रहा था । उस लता-मंडपमें उसने एक फूलोंकी शय्या वनवाई और वह कामासक्त हो मद्री-सहित उस पर बैठ गया । वह मद्रीमें इतना आसक्तचित्त हो गया कि उसके मुख-कमल परसे अपना मुख-कमल हटाना ही न चाहता था। उसने स्थूल और कठोर कुचोंवाली मद्रीके साथ वहाँ भी खूब कामक्रीडा की। इससे उसका मदन-ज्वर उतर गया। इसी समयमें उसने मंडपके पास ही क्रीड़ा करते हुए एक हरिणको देखा। वह अपनी हरिणीके साथ काम-क्रीड़ा कर रहा . था । उसे देखते ही राजाने धनुष पर वाण चढ़ाया और उसके ऊपर छोड़ दिया। हरिण उस समय कामासक्त हो रहा था । वाणके लगते ही वह चिल्लाकर जमीन पर गिर पड़ा । उसे बड़ी वेदना हुई । वह मर गया । ग्रन्थकार कहते हैं कि इन भोगोंको धिक्कार है जिनके कारण लुब्धकोंकी ऐसी गति होती है। इसी समय आकाशवाणी हुई कि "भूपाल, ऐसा दुःखदाई काम करना तुम्हें उचित नहीं था। विचारिए कि यदि इन निरपराधी मूक और वनमें रहनेवाले हरिणोंको, राजा ही मारने लगे तो फिर संसारमें उनकी दूसरा कौन रक्षा करेगा । बुद्धिमानोंको तो इन्हें अपराध करने पर भी नहीं मारना
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चाहिए, तब फिर निरपराधियोंकी तो बात ही क्या है । निरपराधियोंको दैवके सिवा और कोई नहीं मारता है । राजन् , यह प्रसिद्ध है 'है कि राजा लोग शिष्टोंको पालते हैं और दुष्टोंका निग्रह करते हैं । यह ठीक है; परन्तु न जाने आप इस युक्ति-युक्त वातको भी क्यों विफल कर रहे हैं । भला देखिए तो सही कि ये गरीब हरिण न तो किसीको मारते हैं, न किसीका धन चुराते है तथा न किसीके रखे हुए अन्न और घासको ही खाते हैं। फिर भी इनके साथमें राजा लोग निर्दयता करें और इन्हें मारें यह उनका कार्य वड़ा निंद्य है । इस अपराधसे परलोकमें उनकी क्या गति होगी; वे कहाँ जायगे ? जरासा चिउँटीके काटने पर अपने शरीरमें जो वेदना होती है उसे जानते हुए भी आपने इस गरीव मृगको मार डाला, यह कहॉ तक उचित था । राजन् , ऐसे जीवोंके घातसे केवल पाप ही होता है । इसलिए हिंसा तो भूलकर भी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि हिंसा सर्वत्र दुःख ही देती है। और जो अधर्मी हिंसामें भी धर्म मानते हैं वे गायके सींगोंसे दूध या आगसे कमलकी उत्पत्ति चाहते हैं; विष खाकर जीना और सॉपके मुंहसे अमृत चाहते हैं; एवं वे डूबते हुए सूरजसे दिनकी और शिला पर बीज बोकर अन्नकी आशा करते है। यह जानकर राजालोगोंको दया करना चाहिए । दया सुखको देनेवाली है और दयासे जीव संसार-समुद्रको पार कर जाते हैं।" इस प्रकार आकाशवाणी सुनकर वह दयालु राजा क्षणभंगुर शरीर-भव-भोगोंसे बड़ा विरक्त हुआ । वह सोचने लगा कि कामकी वाञ्छासे विद्वान् लोग व्यर्थ पाप नहीं करते; क्योंकि पापसे आत्माकी केवल दुर्गति ही होती है । मैं सुखको चाहता हूँ, फिर अचम्भेकी बात है कि व्यर्थ ही प्राणियोंके घातमें क्यों प्रवृत्ति करता हूँ। इससे मुझे कुछ लाभ नहीं और न इससे मेरे उद्देश्यकी ही सिद्धि होती है। और जिस राज्यमें जीवोंके घातसे पाप ही पाप होता है उस राज्यसे भी मुझे क्या मिलना है। सच तो यह है कि जीवोंको संसारमें जितने कुछ दुःख होते है वे सब विषयकषायोंको पुष्ट करनेके लिये ही होते हैं। अतः यह सब विषय-रूप मांस खानेका ही दोष है । हे जीव, इसको तू प्रत्यक्ष ही क्यों नहीं देख लेता। आत्मन, तूने यह राज-काज पहले भी बहुत वार भोगा है और फिर भी त उसीको भोगता है। विचार तो देख, कि भला कोई बुद्धिमान् अपनी सूंठनको भी दुवारा खाता है?
एक वात यह भी है कि यह जीव विषयोंको चाहे जितना ही क्यों न भोगे, पर इनसे इसे कभी संतोष नहीं हो सकता । विचारनेकी बात है कि शरीरोंक
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परस्पर घिसने से जीवको भला सुख ही क्या हो सकता है । भोग भोगते समय विषयोंसे सुखके जैसा भान होता जान पडता है; परन्तु अन्तमें दुःख ही होता है; जैसे धतूरा खानेमें मीठा सा मालूम होता है, पर उससे अन्तमें हानि ही हानि होती है । इसके सिवा यह सब विषय अनित्य हैं कुछ काल ठहर कर अन्तमें सब नष्ट हो जाते है । तव उत्तम पुरुषोंको उचित है कि वे इन्हें पहले से ही छोड़ दें। क्योंकि इनके त्याग से और तो क्या मुक्ति भी मिल जाती है । विचारनेकी वात है कि इन विषयोंसे जब सुर-असुर आदि किसीको भी संतोष न हुआ तब मनुष्य-भवमें प्राप्त हुए जरासे विषयों में तो इस जीवको संतोष ही कैसे हो सकता है । यह समझमें नहीं आता । भला, सोचिए कि जो वडवानल सागर के अनन्त जलसे भी सन्तुष्ट नहीं हुआ वह तिनकेके अग्रभागमें लगे हुए जल - कणसे तृप्त ही क्या होगा । हे आत्मन, तूने पहले अनंत काल तक इन भोगोंको भोगा, पर तुझे तृप्ति नहीं हुई । अघ तो इनसे संतुष्ट हो । इस समय मैं तो आत्म-सुखसे सुखी हूँ, मुझे सन्तोष है और आत्मा के सच्चे सुखका अभिमान है । अत्र मुझे इस स्त्री- मेम से कुछ प्रयोजन नहीं । स्त्रीके ऊपर अनुराग करके रागी पुरुष और तो क्या अपने प्राणोंको भी खो बैठते है तथा राज-काजको भूल जाते हैं। सच हैं कि भोगोंके अधीन हो मिथ्यात्वी जीव सभी अकृत्योंको अपने कृत्य बना लेते हैं ।
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देखो, स्त्रियोंका मुॅह तो श्लेष्म ( खकार वगैरह ) का खजाना है, नेत्र कीचड़ जैसे घिनावने मैलके स्थान हैं, नाक घृणाको पैदा करनेवाले दुर्गन्धित द्रव्यका भंडार हैं । दुःख है कि इस प्रकारके नारीके मुखको मूढ लोग चन्द्रमा कहते हैं, उसमें चॉदकी बुद्धि करते हैं । और है भी ठीक कि जिस पुरुपको रतौध हो जाती है उसे सीप भी चॉदीसी देख पढने लगती है । मूर्ख लोग खीके बालोंको बड़ी बड़ी सुंदर उपमायें देते है और मदोन्मत्त होकर उन पर मोहित होते हैं । एवं मांसपिंड-रूप उनके कुचको वे अमृतके घडे कहते हैं और उनमें मांसभक्षी कौओं की तरह अनुरक्त होते हैं । और तो क्या कामीजन स्त्रियोंके सघन जघनोंमें भी सुख मान कर उनमें अनुरुक्त होते हैं; जैसे विष्टा खानेवाला सूअर विष्टामें अनुरक्त रहता है, और सुख मानता है । इसलिये हे आत्मन्, तू जरा सा विचार तो कर कि इस जगमें जीवको स्त्री-संग से कहाँ ? कैसा ? और कितना सुख मिला है। इस विचार से तेरा चित्त अवश्य ही शान्त होगा; जैसे कि निर्मली आदिके निमित्तसे मैका जल निर्मल हो जाता है । पहले स्त्रीके इस शरीर को ही तो देख, यह सात धातुओं का पिंड है, नष्ट होनेवाला
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और माया-जालका स्थान है । फिर भी तू रागान्ध होकर इस पर अनुराग करता है; जैसे एक दरिद्री पुरुष मिली हुई निधिको अपने प्राणोंसे भी अधिक प्यारी समझता है | यह कैसा मोह है जो निवारण करते करते भी खोटे कामोंमें जीवोंकी बुद्धि बड़ी जल्दी लग जाती है और अच्छे कामोंमें लगाये भी नहीं लगती । अचकी बात तो यह है कि सज्जनोंकी मति विषयोंको पापके हेतु जानती हुई भी उनमें प्रवृत्ति करती है । मोहकी इस प्रदल चेष्टाको धिकार है । इस मोहसे ही जीव अपने आपको भूल जाते हैं और स्त्रीके घिनावने शरीरमें मोहित हो जाते है 1 जिनके अभिप्राय खोटे हैं, मोहित है, वे असद्वस्तुमें सहद्धि करके उगे जाते हैं। देखो, रावण आदिने केवल परस्त्रीको हरण करने रूप अपने खोटे अभिप्राय हीसे अपना राज खोया और परलोकमें दुर्गति पाई । मोहके निमित्तसे जब जीव मोहित होता है तब उसके हृदय पर दुर्मति अपना असर जमा लेती है और वह भाँति भाँति के विकल्प-जालों में पड़ जाता है । वह विचारता है किं कहाँ जाऊँ और क्या करूँ ? कहाँ ठहरू १ मुझे सुख कहाँ मिलेगा ? मैं लक्ष्मी कहाँसे प्राप्त कर सकूँगा ? इसके लिए मुझे किस लक्ष्मीके लाल राजा-महाराजाकी सेवा करनी पड़ेगी ? स्वरूप सौभाग्यवाली स्त्री कैसी होती है और मेरा भोग्य क्या है ? भोग, विभूति मैं कैसे भोग सकूँगा १ रसना इन्द्रियका विषय रस क्या ही अच्छी चीज्रहैं । और और इन्द्रियोंके विषय भी मनोहर है । मेरे मनोरथको कौन सी वस्तु सिद्ध करेगी, मैं शत्रुको कव मारूँगा । पांडु सोचता है विचारी मृगीके प्राण-प्यारे हरिणको एक क्षणमें ही बहुत ही बुरा काम किया। अब मैं आगे कौनसा शुभ इस पापसे मेरा पिंड छूट सके । पांडु इस प्रकार विचार करता करता बेहोश हो गया; उसे अपनी कुछ भी सुधबुध न रही । कुछ काल बाद जब उसे कुछ चेत आया तव इधर उधर भ्रमिष्ट सा देखने लगा । इतने हीमें उसे एक योगीके पवित्र दर्शन हुए । उनका नाम था सुव्रत । वे व्रतोंसे युक्त थे; दीप्त अवधिज्ञानसे तमाम लोककी परिस्थितिको जानते थे स्थिर चित्त थे; गुप्ति-समितिको पालनेचाले आत्म-संयमी थे; छह कायके जीवोंके प्रतिपालक और परमोदयको प्राप्त थे; हमेशा ही आत्म-चिंतनमें लगे रहनेवाले और संसार - देह-भोगों से विरक्त थे; बारह भावनाओंमें लीन और शत्रु-रहित थे; प्रत्यक्ष बुद्धिशाली और अखंड लक्षणोंसे लक्षित थे । उनका शरीर उपवास आदि कायक्लेश से वे जितेन्द्रिय और क्षमाके भंडार थे । उनका पक्ष उत्तम था
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कि मुझ हतात्माने इस धराशायी कर दिया, यह कार्य करूँ, जिसके द्वारा
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भोक्ता थे। स्त्रियोंके कटाक्ष-वाणोंके वे कभी लक्ष्य नहीं होते थे। लोग कहते हैं कि पृथ्वीमें बड़ी भारी क्षमा है; परन्तु उनमें उससे भी कहीं चढ़ीवढ़ी क्षमा थी। उन्होंने अपने क्षमागुणसे पृथ्वीको नीचा दिखा दिया था।मोक्ष-रूप अक्षय-क्षेत्रकी उन्हें सदा आकांक्षा रहती थी। उन्होंने पापों पर विजय पा ली थी । प्रतिक्षण कर्माको क्षीण करते हुए उन्होंने इन्द्रियोंको बिल्कुल ही क्षीण कर डाला था । वे दक्ष थे, क्षेमंकर और क्षोभ-रहित थे । उनके वचन पापको हरनेवाले थे । वे साक्षात् भिक्षु थे। बडे बडे राजा महाराजा भी उनके पैरों पडते थे । वे दीक्षित थे, कर्म-शत्रुओंको नष्ट करने के लिए सदा उद्यत रहते थे और बड़े उत्साही थे। इस समय रात बीत चुकी थी और सरजके उदयका समय था, अत: वे अपने शरीरके तेजसे ऐसे जान पडते थे मानों कि सूरज ही हैं । इसके सिवा वे चार प्रकारके संघसे युक्त थे । उन्हें देखते ही पड्डि उनके चरण कमलों में पड़ गया और नमस्कार कर अपने योग्य स्थानमें बैठा । मुनिने धर्मद्धि देकर राजोंके राजा पांडुसे कहा कि राजन्, इस संसार-वनमें जीव हमेशा ही चक्कर लगाया करते है। कहीं कमी भी स्थिर नहीं हो पाते; जैसे अरहटकी घडी कभी भी ठहर नहीं पाती-हमेशा ही चला करती है । इसलिए जो पुण्यके अर्थी है उन्हें सदा धर्म-सेवन करना चाहिए । धर्मके दो भेद है । एक मुनिधर्म और दूसरा श्रावकधर्म । धर्मसे संसार-परिभ्रमण छूट जाना है । पॉच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति यह तरह प्रकारका यतिवर्म है । छह कायके जीवोंकी मन, वचन और कायसे रक्षा करना अहिंसामहावत है । असत्य वचन न बोलकर हित-मित वचन बोलना सत्यमहानत है । अनर्थकारी अदत्त द्रव्यको ग्रहण नहीं करना अचौर्यमहाव्रत है । देवता, मनुष्यनी तिर्यञ्चनी और चित्रामकी स्त्री इन चारोंके त्यागको ब्रह्मचर्यमहाव्रत कहते हैं । चौदह प्रकारके अन्तरंग और दस प्रकारके वाह्य परिग्रहका त्याग करना परिग्रहत्यागमहाव्रत है । रौद्र, पाड़ा, रति, आहार और इस लोक परलोकका विकल्प मनमें न उठाना मनोगुप्ति है । चार प्रकारकी विकथाका न करना वचन-गुप्ति है । चित्र आदिकी क्रियाओं द्वारा कायमें विकार न होने देना कायगुप्ति है । जब सूरज निकल आये और मार्गमें लोग आने जाने लगें तव चार हाथ पृथ्वी सोधकर, जीवजन्तुओंकी दया करते हुए चलना ईर्यासमिति है । कर्कश आदि दस प्रकारके वचनोंका त्याग करना भापासमिति है । छियालीस दोषोंको टालकर निर्दोष • आहार लेनेको ऐपणासमिति कहते हैं । पाछी, कमण्डलु आदि उपकरणोंका .
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पाण्डव-पुराण। ~~ .www. on an or wrincreamwomwwwmarwmvomwwwwwwwwwwwin देख-सोधकर उठाना धरना आदान-निक्षेपणसमिति है । खकार, मल, मूत्र वगैरहको जीव-जन्तु रहित प्रदेशमें क्षेपना प्रतिष्ठापनासमिति है । इस प्रकार उन वाग्मी मुनिने विस्तारसे यतिधर्मको कहा और इसी तरह श्रावकधर्मको भी बताया; और कहा कि यतिधर्मसे मोक्ष और श्रावक धर्मसे स्वर्ग मिलता है । अतः राजन् , तुम इस धर्ममें मन लगाओ। क्योंकि धर्मसे ही स्वर्गसुखकी माप्ति होती है और क्रमसे मोक्ष भी मिलता है । अब तुम्हारी आयु केवल तेरह दिनकी शेष रह गई है, इसलिए तुम सावधान हो जाओ । तुम तो सब जानते समझते हो, चतुर हो, इसलिए बहुत जल्दी विधिपूर्वक धर्मको धारण करो । देखो, विशुद्ध परिणामोंसे जो विधिपूर्वक धर्मको धारण करता है व धैर्यशाली और बुद्धिमान् अपने आत्माको निर्मल बना लेता है । , इस प्रकार मुनिके वचनोंको सुनकर चंचल-चित्त पांडु असाताके कारण संसारसे बहुत डरा और अनन्त जीवनके लिए उत्सुक हो उसने क्षणिक जीवन पर कुछ काल विचार किया । वह सम्पत्तिको विनलीकी नॉई चंचल समझने लगा। इसके बाद स्थिर-चित्तसे मुनिको नमस्कार कर तथा उनकी स्तुति कर वह वहाँसे अपने नगरको चला आया । वह पापसे,बहुत ही डर गया था और इसीलिए उसके हृदयमें मोक्षसे पूरी पूरी, प्रीति हो गई थी। उसने धृतराष्ट्र वगैरहको अपने महल में बुलाया और मुनिके मुख-कमलसे सुना हुआ साराका स्गरा हाल जैसाका तैसा कहा। पांडुके कहे हुए इस सब हालको सुन कुन्ती वगैरह तो इस प्रकार रोने लगी मानों उनके ऊपर वज्र ही टूट पड़ा है, उनके हृदय दहल गये । वे विलाप करने लगीं । उनकी ऑखोंसे अनवरत ऑसुओंकी धारा बह निकली । सभी दुःखमय हो, गई। उन्हें मूर्छा आ गई। इसके बाद वे ऐसी देख पड़ने लगीं मानों उनमेंसे चेतना विदा ही ले गई हो । शीतोपचार वगैरह उपाय किये जाने पर उनमें चेतना आई । परन्तु उनकी चिन्ता तब भी न गई और उसके मारे वे किकर्तव्य विमूढ़सी रह गईं। तात्पर्य यह है कि उस समय वे असाताके सागरमें डूब गई थी। इसके बाद पांडुने उन्हें आश्वासन देकर कहा कि तुम सब सावधान हो मेरे वचन सुनो । इस संसार-चक्रमें चक्कर लगानेवाले ये जीव हमेशा ही जन्म-मरण किया करते हैं । तब उत्पन्न होने और मरण करनेमें तुम दुःख क्यों करती हो । यह क्या कोई नई बात है। देखो कि जिस भरत चक्रवर्तीने तमाम भूमण्डलको अपने बाहुवलसे जीतकर भोगा वह भी जब कालसे न बचा और उसका सेनापति-रत्न जयकुमार-जिसने सारे संसारको जीतकर मेघेश्वर
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देवतों पर भी विजय पाई-काल वलीकी फलाओं द्वारा अपने प्राणोंका त्यागकर शिवको गया तब हमारी तुम्हारी तो वात ही क्या है। यहाँ तो काल ही वली है, उसके आगे किसीकी भी नहीं चलती। और भी देखो कि जिस कुरुवंश-शिरोमणि कुरु राजाने सम्पूर्ण शत्रुओंफा नाश किया, पर काल-शत्रुने उसका भी ग्रास कर लिया उससे वह भी न बच सका । सच बात तो यह है कि इस असाता-रूप संसारमें चकार लगाता हुआ कोई भी सत्पुरुप सनातन नहीं देख पड़ता; फिर पर्थ शोक करनेसे लाभ ही क्या है । वताओ तो सही कि 'इस पृथ्वीको भोगकर कौन कौन नहीं चले गये; और यहाँ किस किसका हृदय भोगोंसे हताश नहीं हुआ। अब जब कि मेरी विल्कुल ही थोड़ीसी आयु रह गई है तव मैं भोगोंका क्यों विश्वास करूँ, मुझे तो उनका छोडना ही उचित जान पड़ता है। लक्ष्मी, महल, चन्द्रवदनी स्त्रियॉ, हाथी और घोड़े वगैरह ये सब निश्चयसे चंचल-अथिर-हैं। भला, सवेरेके वक्त तिनकोंके आगेके भागमें जो ओसकी दें लगी रहनी है उनमें कान मूढ़ स्थिरताकी घुद्धि करेगा । इस प्रकार सवको समझा बुझाकर पानी पाइ पंडितने शुद्ध मन हो, धन वगैरहसे बुद्धिको हटाकर धर्ममें चित्त लगाया। उस समय पांडुने भक्तिभावसे जिन भगवानकी पूजा की और पापसे भयभीत हो जिनपूजाके साथ-साथ खूब नृत्य-गान आदि उत्सव किया; साधर्मी जनाको चार प्रकारका दान दिया; दीन-दुःखी जीवोंको संतुष्ट किया और अन्य सवको भी यथायोग्य संतुष्ट कर वह भव भेदनेके लिए तैयार हुआ ।
इसके बाद उसने अपने युधिष्ठिर आदि पाँचों पुत्रोंको बुलाया और उन्हें राजभारसे विभूपित कर तथा धृतराष्ट्रके हवाले कर धृतराष्ट्रसे कहा कि भाई, तुम इन मेरे पुत्रोंको अपने पुत्र ही समझकर इनका पालन-पोषण करना । आपसे अधिक कहने सुननेकी आवश्यकता नहीं है, आप कुरुवंशके रक्षक हैं । इसके बाद उसने पुत्रों के पालन-पोपणके सम्बन्धमें कुम्तीको भी उचित शिक्षा दी और वह संसार-देहभोगोंसे विल्कुल ही उदास हो परलोक साधनके लिए तैयार हो गया। इस समय मोहके वश हो युधिष्ठिर आदि सभी रोने लगे। पांडने उन्हें भी अपने राज्यको यथावत णलनेके सम्बन्धमें समझाया । इसके बाद उस चतुरने अपने कुटुंबके सब लोगोंसे क्षमा मांगी और अपनी ओरसे सवको क्षमा फी; तथा परिग्रह वगैरहको छोडकर, घरसे वाहिर हो, वह वनकी ओर चल दिया। वह आत्म-वेदी गंगा-तट पर गया और वहाँ एक मासुक प्रदेशमें संन्यास धारण कर स्थिरताके साथ बैठ गया। उसने आजन्मके लिए आहार, शरीर आदिका त्यागकर ज्ञानी गुरुके
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पाण्डव-पुराण । ~ ~mmmmmmm x mmer woom comn ...... . ... ... .mom ww.rr .. निकट वीरशय्या स्वीकार की । इस वक्त वह आराधना-रूप नौका पर चढ़ कर संसार-समुद्रको पार करनेकी इच्छा रखता था । वह सब जीवों पर हमेशा समताभाव रखता था, सब जीवोंसे मैत्री रखता था, गुणी पुरुषोंको देखकर - बड़ा आनन्दित होता था और विपरीत आचरण करनेवालों पर मध्यस्थ---- उदासीन-रहता था। वह दीन-दुःखी जीवों पर दया करता था। उसका मन बिल्कुल स्वच्छ था । उसने प्रायोपगमन संन्यास धारण किया। वह अपने शरीरकी किसीके द्वारा या अपने आप सेवा-टहल नहीं चाहता था। घोर तप करनेसे उसका शरीर वड़ा कृश हो गया था । पंच परमेष्ठीका सदा काल ध्यान करनेसे उसका हृदय उत्तम उत्तम भावोंका स्थान हो गया था । उपवास आदि . ' द्वारा उसका शरीर ही कृश हुआ था, पर की हुई प्रतिज्ञा एक भी शिथिल न हुई थी। और ऐसा ही होना भी चाहिए, क्योंकि वास्तवमें उत्तम पुरुषोंका व्रत वही है जो कभी भंग न हो । तपके वलसे शरातुके मेघोंकी नॉई उसका स्वच्छ और सफेद शरीर कृश हो गया था, अत: वह ऐसा देख पड़ता था मानों मांस आदिसे रहित स्वच्छ शरीरवाला सुर ही है । उसके शरीरमें केवल चर्म और हड्डी रह गई थी; मांस नाम मात्रको भी न था । दुर्द्धर परीपहोंको सहनेसे उसका आत्मवल प्रगट हो गया था। सच पूछो तो यह सब ध्यानका ही प्रभाव था । वह ध्यानी ध्यानके वळसे हमेशा मस्तक पर सिद्धोंको, मनमें, जिनोंको, मुँहमें साधुओंको, नेत्रोंमे परमात्माको धारण किये रहता था । कानोंसे , मंत्रोंको सुनता था और जीभसे उन्हें बोलता था। वह अपने मनोगृहमें सदा निरंजन अर्हन्तदेवको विराजमान किये रखता था। जिस तरह भ्यानसे तलवार जुदी होती है, उसी तरह वह शरीरसे आत्माको जुदा समझता था। ऐसी अवस्था में ही उस मंत्र-वेदीने अपने प्राणोंका त्याग किया। वह देह-भारसे हलका हो, धर्मके फलसे सौधर्म स्वर्गमें गया। वहाँ उसने मेघ-रहित आकाशमें विजलीकी ' नॉई, एक अन्तर्मुहूर्तमें, नवयौवन परिपूर्ण, सब लक्षणोंसे लक्षित शरीर धारण कर उपपादशय्यामें सोतेसे उठ-बैठनेके जैसा जन्म धारण किया । वह केयूर, कुंडल, सुकुट और अंगद आदि भूषणोंसे विभूषित था, दिव्य वस्त्र पहिने था, सुन्दर सुंदर मालायें उसके गलेमें पड़ी हुई थी । उसके शरीरकी कान्ति दिव्य थी । उस समय उस पर कल्प-वृक्षोंने दिव्य फूलोंकी बरसा की। दुंदुभि वाजे वजे, जिनके शब्दसे दिशाओंके तट गूंज उठे । सुगन्धित शीतल वायु- जल-कणोंको फैकती हुई वही, जिसके सम्बन्धसे इधर उधर
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दसवाँ अध्याय।
१४३ ... om. nnn . nnnn ram सब दिशाओंमें दृष्टि फैलाता हुआ वह वलको प्राप्त हुआ और सोचने लगा कि यह सब क्या है ? स्वम तो नहीं है ? मैं कौन हूँ ? और मुझे जो ये आ-आकर नमस्कार करते हैं, कौन हैं ? ये नृत्य करनेवाली स्त्रियाँ कौन हैं ? इस प्रकार विचार कर वह क्षणभर चकितसा रह गया । वह फिर विचार करने लगा कि मैं कहाँसे आया हूँ ? और यह कौन स्थान है ? इसको देखकर मेरा मन बहुत ही प्रसन्न हो रहा है, यह क्या बात है ? यह किसका आश्रय है ? और यह शश्या कैसी है ? उसके मनमें इस प्रकारकी उथल-पुथल हो ही रही थी कि उसे उसी समय अवधिज्ञान हो गया, जिसके द्वारा उसने पांडवोंका सव हाल जान लिया; और यह भी जान लिया कि मुझे यह तपका फल मिला है, यह दिव्य है । यह देवतोंका स्थान स्वर्ग है। ये जो नमस्कार करते हैं देव है, और यह देवतोंका विमान है । मधुर बोलनेवाली ये देवियाँ हैं, जो मधुर मधुर गीत गाती और नाचती हैं। ये मणियोंके भूपणोंसे विभूपित अप्सरायें है । सारांश यह कि उसने अवधिज्ञानसे अपनी सब शंकाओका आप ही समाधान कर लिया। अहा ! यह सुन्दर ध्वनिवाली मद्री है। मद्री भी उसी जगह देवी हुई थी यह बात आगे यहीं स्पष्ट हो जायगी।
इसके बाद आज्ञाकारी, नम्र और प्रफुल्ल-चित्त देवता-गण हाथ जोड़ नमस्कार कर उस उन्नत देवसे बोले कि प्रभो, पहले स्नान करके तैयार होइए
और विधिपूर्वक जिनेन्द्रदेवकी भक्तिभावसे पूजा कीजिए । देव, देखिए यह देवतोंका समुदाय आप जैसे स्वामीको पाकर आज कैसा उत्सव मना रहा है। यह सब आपकी सेनाके देव है । यह फहराती हुई धुजाओंसे विभूपित नृत्यगृह है । इसे भी देखिये, यह देखनेके ही योग्य है । प्रभो, यह देखो, ये भाँति भॉतिके आभूषणोंसे सुशोभित नर्तफियाँ कैसा सुन्दर नाच कर रही हैं । हे अमरेश्वर ! आप इस समय इस विभूतिके स्वामी हुए हैं और यह सवआपने देवत्वका फल पाया है । इसलिए अब आप चलिए और योग्य क्रियाओंको कीजिए । उनके कहनेसे उस देवने जो अपने कर्तव्य-कर्म थे वे सब किये । इस प्रकार वह सुखी देव कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुए भोगोंको भोगता हुआ सुख-चैनसे अपना समय बिताने लगा। वह भव्य हमेशा भक्तिभावसे सुख-पूर्वक जिनदेवकी पूजा-उपासना किया करता था।
इधर मद्री भी प्यारे पतिके स्नेहसे संसार-देह-भोगोंसे विरक्त हो गई और उसने शुद्ध मनसे पतिदेवके साथ ही साथ संन्यास ग्रहण करनेकी इच्छा की । अपने विचारौके अनुसार वह नकुल-सहदेव इन दोनों पुत्रों तथा कुन्तीको
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पाण्डव-पुराण। राजभार और घर-गिरस्तीका भार सौंप कर संन्यासं धारण करनेके लिये-ना करने पर भी-घरसे निकल पड़ी और गंगा किनारे पहुँची । वहाँ उसने आहारपानका त्यागकरं संन्यासको ग्रहण कर लिया । उसने दर्शन, ज्ञान, चारित्र -
और तप इन चार आराधनाओंकी आराधना की । तपके तेजसे उसके दोनों नेत्र विल्कुल भीतरको घुस गये थे, जान पड़ता था कि मानों भूखके भयसे ही ऐसे हो गये हैं । ठीक ही है, कायरोंकी ऐसी ही गति होती है। उसका अंगभंग हो गया थी, इन्द्रियाँ श्री-रहित हो गई थीं। अन्त समय उसके प्राण अपने पतिदेव पांडुके साथ ही उड़ गये और उसी प्रथम स्वर्गम वह सौंदर्य आदि शुभ गुणोंकी खान देवी हुई। सच है, जब पुण्यका उदय होता है तव सब कुछ आ मिलता है; फिर स्वर्ग मिलनेकी तो बात ही क्या है।
इधर शोकसे पीड़ित कुन्तीने जब पांडुकी मृत्युका हाल सुना तब वह बहुत ही विलाप करने लगी । उसके मुंहसे आहे पर आहे निकलने लगी । वह विल्कुल ही बेचैन हो गई है। इसके बाद वह गंगा-तट पर गई और वहाँ विलाप करती हुई अपने वालोको लोच लोंच कर फैंकने लगी । उर:स्थलमें पड़े हुए मणि-मुक्ताफलोंसे जड़े सोनेके हारको तोड़कर फैंकने लगी । हाथोंको इधर उधर फटकारनेके कारण उसके कंकणं टूट गये । वह शोकसे अत्यन्त विह्वल हो गई । इस तरह दुःखसे पीड़ित होनेके कारण उसे कुछ भी अपना कर्तव्य न सूझ पड़ने लगा। वह किंकर्तव्यविमूढ़सी हो गई । वह विलाप करने लगी कि हा नाथ, हा मिय, हा जीवनाधार और हा कौरव-वंश-रूप आकाशके सूर्य, तुम मुझे छोड़कर कहाँ चले गये ! अब मैं तुम्हारे विना कैसे जीऊँगी। हा सब दुःखोंको हरनेवाले और शुभ कार्योंको करनेवाले वीर, तुम मेरे दुःखोंको क्यों नहीं इरते और अपनी अब वीरता क्यों नहीं दिखाते ! हा चाँद जैसे मुंहवाले
और सवको सुहावने, तुम मेरे संतप्त हृदयको शान्ति क्यों नहीं देते ! हा कुंडलों 'द्वारा विभूषित कानोंवाले और सोनेके जैसी कान्तिके धारक, आप अब मेरे चित्तको प्रसन क्यों नहीं करते ! हा अपने स्वरसे उत्तमसे उत्तम वीणाके स्वरको भी नीचा दिखानेवाले, मेघके समान गंभीर नाद करनेवाले, शंखके जैसे कंठवाले और कोयलके जैसे स्वरवाले, अब आप मुझे दर्शन क्यों नहीं देते और अपने सुन्दर स्वरको क्यों नहीं सुनाते ! हे दुर्वार वैरियोंको भी कुंठित कर . उनके कठके भूषण वननेवाले, विस्तर्णि वृक्षास्थलसे जगत भरमें अपनी- कीर्तिको विस्तृत करनेवाले, आप,मुझ दुःखिनीके दुःखको दूर कर मेरे कंठके भूषण
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दसवाँ अध्याय |
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क्यों नहीं होते और अपनी कीर्तिकी गंध मुझ तक क्यों नहीं आने देते ! प्रभो, आप मुझ दुःखिनीको छोड़कर कहाँ चले गये । आपके बिना अब संसारमें मुझे) कौन मान देगा - मेरा कौन आदर करेगा - मुझे कौन आदरकी दृष्टि से देखेगा। नाथ, तुम्हारे बिना यह महल सूना हो गया है, अब शोभा नहीं पाता। भला, इसे एक चार तो फिर सुशोभित कर दीजिए । स्वामिन्, तुम्हारे बिना मैं अत्यन्त दुःखी हो गई हूँ । मुझे कुछ कर्तव्य ही नहीं सूझ पड़ता। मुझे ऐसा भान होता है कि मानों आज आकाशको भेदकर मेरे मस्तक पर वज्र ही आ पड़ा है । मेरे शरीर पर दुष्ट जलानेवाली आग ही छोड़ दी गई हैं। मुझे बड़ा खेद है । नाथ, बताइए कि तुम्हारे बिना अब मैं यहाँ क्या करूँ; कैसे अपना समय बिताऊँ । हे अमृतवत्सल, तुम्हारे बिना कामसे पीड़ित हुआ मेरा शरीर जला जाता है । मैं कहीं भी जाती हूँ, पर मुझे जरा भी सुख-शान्ति नहीं मिलती । इसलिए हे पुरुषोत्तम, मुझ पर प्रसन्न होकर मुझसे एक वार प्रेम भरे शब्दों में बोलिए । तुम्हारे बिना न तो मुझे भोजन रुचता है और न पानी ही । प्रभो, ऐसे उत्तम और सब तरह से परिपूर्ण राज्यको छोडकर तुमने यह क्या किया | महामिय, तुमने मुझे ऐसी दुःख-मय अवस्थाको ही क्यों दिखाया । देखिए तो, तुम्हारे बिना तुम्हारे ये पवित्र पुत्र क्या करेंगे, किससे शिक्षा पायेंगे और किसके पास जाकर प्रसन्न होंगे । धराधीश, मै आपके विना धीरज कैसे धरूँगी । भला, कहीं तृक्ष के बिना बेल निराधार रह सकती है । शुभाफर, जरा सोचिए तो, कि तुम्हारे विना अब यह आपकी वल्लभा शोभा कैसे पायगी । क्या चॉदके बिना भी कहीं रातकी शोभा होती है । देव, तुम्हारे विना मुझ विरस - शृंगार आदि विहीन का आदर ही कौन करने चला । क्या कहीं कोई विरस - जल-विहीन - सुखे सरोवरको भी आदरकी दृष्टिसे देखता है । सच तो यह है कि पति के बिना स्त्री कहीं भी चैन नहीं पाती; जैसे कि मणियोंके बिना हारलता सुशोभित नहीं होती । कुन्तीके इस तरह रोने-विलपने को सुनकर कौरव भी विलाप करने लगे । युधिष्ठिर आदिके मुॅह आसुओंसे भींग गये । वे विलाप करने लगे देव, यह उत्तम राज्य जिसे आपने छोड़ दिया है, अब आपके विना बिल्कुल शोभा नहीं पाता; जिस तरह कि चाहे कितना ही सुस्वादु भोजन क्यों न हो, पर वह नमकके बिना अच्छा नहीं लगता । देव, जब कि हमें आपने ही छोड़ दिया तब अव हमारी शोभा होना असम्भव ही सा है । क्या कहीं विना दॉतोंके हाथियोंकी शोभा होना सम्भव हो सकता है । और जिस तरह बिना दाँतोंके हाथियोंकी राजा- गण कदर नहीं करते उसी तरह वे हमारी भी इज्जत नहीं करेंगे ।
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प्रभो, आपके बिना यह राज्य भी तो हमारी शोभाके लिए नहीं हो सकता; जैसे राधे-रहित पुष्पोंसे किसीकी शोभा नहीं होती, उल्टी और सुषमा चली जाती है । इस तरह शोकातुर कौरवोंको विद्वान् लोग समझाने लगे कि आप लोग शोक मत करो । यह शोक जीवोंको दुःख ही देता है; इससे किसीको भी सुख नहीं मिलता । और फिर तपस्वी योगियों की मृत्यु पर शोक करना तो बिल्कुल ही व्यर्थ है। कारण, वे मृत्युके प्रसादसे परलोकमें जा उत्तम गतिके उत्तम सुख पाते हैं । इस प्रकार युधिष्ठिर आदिके शोकको वारण कर कौरव-वंशके भूषण वे लोग नगरको वापिस चले आये ।
पाण्डव-पुराण ।
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इसके बाद इस महान देशका राजा धृतराष्ट्र देश-विद्रोहियोंको देशसे निकाल कर महेन्द्रकी भाँति आनन्द के साथ राज्य करने लगा । वह हमेशा गांधारी के मुख कमलकी गंधमें लुब्ध रहता था; जैसे भौंरा कमलकी गंध पर लुब्ध रहता है । और वेलमें जिस भाँति पुष्प-समूह संलम रहता है उसी भाँति वह गॉधारीमें संलग्न रहता था। वह अपने सौ पुत्रोंको शिक्षा देता था, उन्हें राजनीति, सुनीति और देश-वत्सलताका पाठ पढ़ाता था । एवं प्रचंड और अखंड धनुषविद्या के पंडित पांडव-गण भी संकट रहित सुख-चैनसे वहाँ निवास करते थे । उन्हें किसी भी प्रकारकी कोई तकलीफ न थी । उनके शरीर की सोनेकीसी आभा थी । उनके साथमें सदा ही गांगेय रहा करते थे । पर्वत, वृक्ष, पृथ्वी आदि सभीके वे पालक थे । शत्रुओंको त्रासदेने में अति प्रवीण द्रोणाचार्य उनके पक्षमें थे। और वे पाँचों ही पवित्र पांडव - धनुषविद्या में निपुण थे ।
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एक वार धृतराष्ट्र वन-क्रीड़ाको गया । उस समय बड़ा भारी कोलाहल हुआ; जिससे दशों दिशायें गूँज उठीं स्वामी भीलोंने खूब स्तुति की और सुख-लाभकी बाछासे भेंट किये। वहाँ लोकपालोंके अधीश धृतराष्ट्रने शोकको दूर करनेवाले अशोक नामके एक वृक्षको देखा । वह ऐसा जान पड़ता था मानों दूसरा लोकपाल ही है । वहाँ पर उसकी दृष्टि एक स्फटिककी— दर्पण के जैसी निर्मलशिला पर पड़ी । वह सिद्धशिला सी देख पड़ती थी । उसके मध्यभागमें जाकर बहुतसे वृक्षोंका - प्रतिभास पड़ता था और वह भींतमें लिखे हुए निर्मल चित्रोंका भ्रम कराता था । उसके ऊपर एक मुनीन्द्र विराजे हुए थे । वे धीर थे, निर्मल थे, गुणोंके भंडार थे, विपुल ज्ञानवाले थे, विशुद्ध और चैतन्यमूर्ति थे । बड़े बड़े गण्य-मान्य पुरुष उनकी वन्दना स्तुति करते थे । वे परिग्रहके संसर्गसे रहित थे ।
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दसवाँ अध्याय ।
१४७ raamwwwwwwwwwwwwwmmmm उनके पास तिल-तुष मात्र भी परिग्रह न था। वे सिद्धशिला पर बैठे हुए सिद्ध भगवानसे जान पड़ते थे । राजाने देखते ही उन्हें नमस्कार किया और उन्होंने राजाको धर्मवृद्धि दी। इसके बाद राजा स्थिर चित्त हो वैठ गया । मुनि बोले कि राजन्, देखिए इस संसार-वनमें भटकते हुए जीवोंको कहीं भी सुख-साता नहीं मिलती-उन्हें हमेशा जन्म-मरणके चक्करमें ही. पड़ा रहना पड़ता है । जिस तरह समुद्रमें कल्लोलें उठती और विनसती रहती हैं, उसी तरह संसारमें जीव भी मरते और जन्मते रहते हैं । परन्तु जो जीव अज्ञानी हैं वे मोहके वश हो कहीं सुख और कहीं दुःखकी कल्पना कर लेते हैं । पर सचमुच ऐसा नहीं है। किन्तु संसारमें तो सब जगह दुःख ही दुःख है-सुखका लेश भी कहीं नहीं है । हे विद्वान् राजन्, तुम विचार कर तो देखो कि जगत्के जीव हमेशा ही सुख-साताके लिए दौड़ते फिरते रहते है और हमेशा ही उसके लिए उद्यम भी किया करते हैं; परन्तु वे कहीं भी सुख नहीं पाते; जिस तरह मरीचिकाको देखकर विचारा मृग जलकी आशासे दौड़ता फिरता रहता है, पर वह कहीं भी जल नहीं पाता। यह किसका प्रभाव है ? मोह हीका है न ? राजन्, यह सम्पत्ति वगैरह कोई भी चीज जीवोंको सुख देनेवाली नहीं है । जिसके लिए ये जीव व्यर्थ ही लड़ते और झगड़ते हैं । अज्ञानी जीव स्पर्शन इन्द्रियके वश हो बड़े कष्टोंको प्राप्त होते हैं । उससे उन्हें सुख नहीं मिलता; जिस तरह वनमें कागजकी हथिनीको देख, स्पर्शन इन्द्रियके वश हो, हाथी गढ़ेमें पड़ जाता है,
और उसे सुख नहीं मिलता। इसी तरह रसना इन्द्रियकी लंपटतोसे भॉति भाँतिके स्वादोंको चखकर जीव सुखी होना चाहते है, परन्तु सुखी न होकर वे उल्टे कॉटेके मांसको निगल जानेवाली मछलीकी नॉई दुःखी ही होते हैं। और तो क्या कभी कभी अपने प्राणोंको भी खो बैठते हैं । बहुतसे भोले-भाले अज्ञानी पुरुष मनोहर सुगन्धको सूंघ कर, कमलकी गंधसे उन्मत्त हो जानेवाले मौरेकी नॉई उन्मत्त हो जाते हैं और मर जाते हैं । प्रसिद्ध है कि भौंरा कमलमें गंधके लोभसे वैठ जाता है और शाम तक बराबर लुब्ध होकर उसीमें बैठा रहता है और आखिर जव कमल सिकुडने लगता है तब वह उसीमें बैठा रह जाता है और प्राण गवॉ देता है । इसी तरह गंधके लोलपी पुरुष भी अपने प्राणों को व्यर्थ ही गवॉ बैठते हैं । नेत्रोंसे स्त्रीके सुन्दर रूपको देखकर पुरुष लुमा जाते हैं और अन्तमें दुःखका भार उठाते हैं, जैसे दीपक या आगमें पंखी लुभाकर गिरते हैं और जलकर खाक हो जाते हैं । इसी प्रकार कानोंसे मधुरै गीत सुनने
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पाण्डव-पुराण |
की लालसाको प्राप्त होकर मनुष्य विपत्तिके पंजे में जा पड़ते हैं और फिर वहाँसे उन्हें छुटकारा पाना मुश्किल हो जाता है; जैसे हरिण व्याधके गानेसे मोहित हो अपने प्राणोंको खो बैठते हैं । मुनिका यह पवित्र उपदेश सुनकर धृतराष्ट्र ने पूछा कि स्वामिन्, कौरवोंके इस विशाल राज्यको धार्तराष्ट्र- दुर्योधन आदि - भोगेंगे या पांडव-गण । प्रभो, यह तो मैने कान देकर सुना कि जो कुछ पदार्थ दीख रहे हैं या जो प्यारे, उत्कृष्ट और विशिष्ट है वे सभी नष्ट होंगे, यह बात बिल्कुल सच्ची है । क्योंकि वस्तुका स्वभाव ही नाश होना है । और यह भी सुना है कि पहले बहुत से सत्पुरुष जो सव पदार्थोंके ज्ञाता हो गये हैं वे भी सव कालके ग्रास हुए । और जो वर्तमान में सुन्दर सुन्दर पुरुष देख पड़ रहे हैं वे भी कालके ग्रास बनेंगे । भावार्थ यह है, कि इस भूतल पर कोई भी वस्तु या मनुष्य स्थिर नहीं है । परन्तु सवाल यह है कि आगे जो महापुरुष होंगे वे थिर - अमर - होंगे या नहीं ? यह मुझे दया कर बता दीजिए। आगे पांडवोंकी कैसी स्थिति होनेवाली है और क्या आगे धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधन आदि राजा होंगे ? हे नाथ, आप सुव्रत हैं,, योगींद्र और योग-योगांगके पारंगत है; अतः आपसे कोई भी वस्तु छिपी नहीं- आप सब कुछ जानते हैं ।
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मुनि बोले- मगध नाम एक देश है। वह पंडितों बुधों का निवास और रंभाओं नारियों से विभूषित है, अतः वह बुधों — देवतों और रंभाओं — देवगनाओं-से विभूषित स्वर्ग- लोकसा जान पड़ता है । ऐसा जाना जाता है कि मानों वह दूसरा स्वर्गलोक ही है । उसमें एक राजगृह नाम नगर है । वहॉ राजों के राजा राजराज — के ऊंचे महल बने हुए हैं और उसमें धनद - धनको देनेवाले दानी -और अमर - दीर्घजीवी लोग निवास करते हैं । अतः वह अमरावतीकी बराबरी करता है; क्योंकि वहाँ भी राजराज इन्द्र के बड़े ऊँचे महल बने हुए हैं; और उसमें भी धनद - कुबेर -- और अमर रहते हैं । वहाँका राजा है जरासंध | उसे सभी राजा गण मानते है । वह मान-मत्सर से रहित है, नौवाँ प्रतिनारायण है । उसकी रानीका नाम है कालिदसेना । उसका रूप यमुना नदीके जळकी नॉई नीला सा है । उसका शरीर विशाल और लक्ष्मीके जैसा शोभासे व्याप्त है । जरासंघके अपराजित आदि कई भाई हैं। वे अपराजित और उद्योगी हैं । कालयवन आदि विनयी उसके पुत्र हैं । वे नीतिवाले और सुकाल आदिके समान हैं । इस तरहसे वह राजगृहका स्वामी जरासंघ राजसिंह सा सुशोभित होता है। भूचर, खेचर आदि सभी उसकी सेवा करते हैं। उसने सारे
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दसवाँ अध्याय।
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वैरियों पर विजय पा ली है । हे प्रभो, इस सम्बन्धमें मैं यह पूछना चाहता हूँ कि जरासंधका मरण सहज ही होगा या किसी वैरीके द्वारा ? भगवन, कृपा कर आप मेरे इन प्रश्नोंका उत्तर दीजिए, जिससे कि मुझे उक्त बातोंका निश्चय हो जाय । आप इनके समझानेको सर्वथा समर्थ है । क्योंकि आपके दिव्यज्ञानसे कोई भी चीज वाहिर नहीं है । यह सुन मुनिराज बोले कि विशुद्ध बुद्धिवाले राजन् धृतराष्ट्र, मैं तुम्हारे मनकी सव बातोंको कहे देता हूँ, तुम धीरजके साथ सुनो । इस राज्यकै कारण दुर्योधन आदिमें और पांडवोंमें खूब विरोध होगा
और लडाई होगी । तुम्हारे पुत्र दुर्योधन आदि कुरुक्षेत्रके युद्धस्थलमें मरेंगे वहॉ और भी अनेक योवाओं की मृत्यु होगी । और पांडव-गण' निर्भय हो आनन्दके साथ हस्तिनापुरमें जा इन्द्रकी नॉई पृथ्वीका पालन करेंगे।
और तुमने जो नाना दुःखोंको देनेवाला जरासंघका मरण पूछा है उसे भी ध्यान देकर सुनो । कुरुक्षेत्रमें ही कृष्णनारायणके साथ जरासंधका युद्ध होगा
और वहीं कृष्णके हाथ से उसकी मृत्यु होगी । यह हाल सुन धृतराष्ट्रको बडी चिन्ता हुई और उसकी इस चिंताने सारे देशको भी चिंतामें डाल दिया । इसके वाद धृतराष्ट्र योगीन्द्रको नमस्कार कर नगरको चला आया । नगर ललनाओंके चंचल नेत्रोंसे सुशोभित था और मनुष्योंकी रक्षा करता था।
___ श्री और गांधारी देवीसे विभूषित धृतराष्ट्र इस प्रकार शास्त्रका पवित्र उपदेश सुनकर अपने श्रेष्ठ गुणोंके द्वारा कामके कलंकको दूर करनेमें लगा । उसने अपने ऐश्वर्यसे वैरियोंका ध्वंस कर दिया था और इसी निमित्तसे उसका पुण्य विकसित हो उठा था। वह लोगोंमें सुगण्य और गुणोंका पिटारा था, दयाका अवतार था। उसकी बुद्धि बहुत ही सुंदर थी । वह धृतराष्ट्र कौरवोंके कुलको पढ़ाता हुआ अत्यन्त शोभा पाता था।
धर्मराज युधिष्ठिर नीतिमार्ग पर चलते हैं, अतएव धर्मसे उन्हें लक्ष्मी प्राप्त है । वह धर्मके लिए ही हमेशा उत्तम उत्तम आचरणोंको करते है क्योंकि धर्मसे ही जीवोंको सब सुख मिलते है । वह विपुल गुणोंके भंडार हैं, धर्ममें धर्म-बुद्धि करते हैं और अधर्मसे सदा दूर भागते हैं । वह राजोंमें श्रेष्ठ राजा है । अतः हे धर्म, तू उस गुण-गणके धारीकी रक्षा कर ।
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पाण्डव-पुराण ।
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ग्यारहवाँ अध्याय ।
ie . उन सुमतिनाथ प्रभुको नमस्कार है जो बुद्धिक दाता और पंडितों द्वारा पूज्य हैं, जिन्हें सम्पूर्ण इन्द्र और नरेन्द्र आकर नमते हैं; वे मुझे सुमति दें।
एक दिन विचारशील, दूरदर्शी, भविष्यको जाननेवाले, सूरजकी नॉई प्रभासे विभूषित और राजोंसे घिरे हुए धृतराष्ट्रने विचारा कि अहो, मेरे ये दुर्योधन
आदि पुत्र युद्ध करनेमें शूरवीर हैं, शुद्धमना है, बुद्धिशाली चतुर हैं, पंडितों द्वारा सेवित हैं, वुद्धिसे बृहस्पतिके तुल्य हैं, लक्ष्मीके स्वामी है, सर्वश्रेष्ठ और वीर्यशाली हैं, धीरज और गम्भीरतासे युक्त हैं, संसार भर जिनके चरण-कमलोको पूजना है और राज्य के भोक्ता हैं परन्तु ये भी राज्य छोड़कर महायुद्धमें मरेंगे ! अहो, धिक्कार है ऐसे उन्नत राज्य-पदको, और धिक्कार है मरनेवाले इन अपवित्र पापात्मा पुत्रोंको; तथा आत्म-कल्याण नहीं करनेवाले मेरे इस जीवनको भी धिक्कार है । देखो, यह उत्तम राज्य चलके समान है और विषय विषके समान हैं । लक्ष्मी विजलीकी नॉई चंचल है, शोकका स्थान है । ये स्त्रियाँ जीवनको हरनेवाली हैं और पुत्र साँकलके समान है । तथा यह घोड़ोंकी घरा जेलखानेके तुल्य है । हाथी जन्म-जराके आकार हैं । ये रथ अनर्थको करनेवाले हैं और प्यादे-गण विपत्तिके निवास हैं, सम्पत्तिको हरनेवाले हैं। ये परिवारके लोग शत्रुके तुल्य हैं । मंत्री शोकको देनेवाले हैं । एवं भॉति भाँतिके रूपको धरनेवाले ये मित्र अपने अपने स्वार्थके साधक हैं। इस प्रकार धृतराष्ट्रने संसार-भोगोंसे विरक्त हो, गांगेयको बुलाकर उससे ये सव बातें कहीं। वह बोला कि गांगेय, जैसे चॉद हमेशा ही आकाशमें घूमा करता है उसी तरह यह जीव भी सतत संसारमें चक्कर लगाया करता है । अतः मैं अब इस हेय राज्यको पुत्रोंके लिए सौंपे देता हूँ। इतना कह कर उसने अपने पुत्रों और पांडवोंको बुलाया और गांगेष तथा द्रोणाचार्य के सामने उन पर राज्यका सव भार डाल दिया।
इसके बाद उसने मातासुभद्रा सहित वनमें जाकर वहाँ सुव्रत योगांद्रको नगस्कार कर तथा केशोंका लोचकर जिनदीक्षा धारण की । वह विचार-चतुर तेरह प्रकारके चारित्रको पालता था और हमेशा पर्वतकी नाँई अचल होकर चैतन्य-स्वरूपका चिंतन करता था । उसने थोड़े ही समयमें समस्त आगमके अर्थको जान लिया । वह पुद्धिमान् मुनीश्वर हमेशा साधुओंके समागममें रहता था और विहार करता था ।
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ग्यारहवाँ अध्याय ।
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इधर थोडे ही दिन बाद गांगेयने दुर्योधनादितथा वीर युधिष्ठिरको राज्य दे दिया। युधिष्ठिर न्यायका ज्ञाता था, अतः वह न्यायसे पृथ्वीको पालता और धर्मका प्रचार कर • लोगोंको धर्मात्मा वनाता था । उसके राज्य कालमें चोर ये दो अक्षर केवल शास्त्रमें
ही सुने जाते थे और कहीं नगर-गाँवमें इनका प्रवेश न था। उसके राज्य करते समय किसीको किसी तरहका भय न था, सब निर्भय रहते थे परन्तु युवा पुरुष कामनियोंके क्रोधसे जरूर डरते थे-वे कभी उन्हें नाराज नहीं करते थे। उसके समयमें किसी भाग्यशालीकी लक्ष्मी नहीं हरी जाती थी । हॉ, वायु फूलोंकी सुगंधको अवश्य हरती थी और लोगोंके चित्तोंको प्रसन्न करती थी । उसके शासन-कालमें परपरमें कोई किसीको मारता न था । यदि कोई मारनेवाला था तो यम अवश्य था वह जरूर लोगोंको मारता था । वह सुपात्रोंके लिये दान देता था और उनसे मधुर शब्दों में वोलता था । वह परोपकारी था, दूसरोंके अनेक काम कर देता था । इसके सिवा वह लोगोंको यथायोग्य आदर-सत्कारसे संतुष्ट करता था । वह जिनेन्द्रदेवकी भक्तिभावसे पूजा-अर्चा करता था। काम, क्रोध आदि छह वैरियोंको जीतनेके लिये वह सदा उद्यत रहा करता था । वह दया सागरके पार पर पहुँचा हुआ था, परमार्थका ज्ञाता और क्षमाका भंडार था। अत: वह योगी सा सुशोभित होता था।क्योंकि योगी भी परमार्थका ज्ञाता और क्षमाका भंडार होता है।
द्रोणाचार्य इन सव पांडवों और बली दुर्योधनादिके श्रेष्ठ गुरु थे । उन्होंन इन सबको धनुर्वेद, वाण छोडना, लक्ष्य वाँधना और धनुप खींचना आदि सिखाया। पर इन सवमेंसे अर्जुनने ही सार्थक धतुर्वेद-विद्या सीख पाई; क्योंकि वह समर्थ था-योग्य पात्र था। और है भी ऐसी ही बात कि पुण्योदयसे मनुष्योंको वडी जल्दी विद्या आ जाती है । अर्जुन द्रोणाचार्यका बड़ा भक्त था, उनकी वह बहुत सेवा करता था। उस सेवाके प्रभावसे ही वह पूर्ण धनुर्वेदविशारद हो गया। सच है कि गुरु-सेवा सब मनोरथको साधनेवाली होती है। अर्जुनकी इस निष्कपट सेवासे द्रोणाचार्य अर्जुन पर बहुत प्रसन्न थे और इसी लिए उन्होंने उसे पूर्ण धनुष-विद्या सिखा दी थी। सच है कि गुरु-भक्ति मनकी
आशाको पूरा कर देती है । अर्जुनने अपनी धनुष-विद्याके वलसे और सबकी विद्याको विफल कर दिया था, अतः वह उन सबके वीचमें ऐसा शोभता था जैसा कुलाचलोंके बीचमें सुमेरु शोभता है । अर्जुनके सिवा और और पांडवों तथा कौरवोंने भी द्रोणाचार्यसे अपने अपने क्षयोपशमके अनुसार यथायोग्य धनुर्वेदको सीखा-धनुष-विद्याका अभ्यास किया। वे धनुर्विद्या-विशारद विद्वान्
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पाण्डव-पुराण। लोग परस्परमें धनुर्वेदके द्वारा क्रीड़ा करते, धनुष-बाण द्वारा लक्ष्यवेध करते हुए दिल बहलाते । परन्तु दुर्योधन आदिसे पांडवोंकी राज्यवृद्धि न सही गई-वे उनके अम्युदयको देख देखकर जलने लगे और उनके विरोधी वन गये। वे उनके साथ बड़ी उद्धतत्ता दिखाने लगे। उनमें परस्पर स्पर्धा पढ़ने लगी और साथ ही साथ विरोध भी बढ़ता जाने लगा। धीरे धीरे उनमें अतीव दुःखदाई वैर हो गया। यह देख गांगेय आदि गंभीर पुरुषोंने वैर-विरोध मिटानेके लिए युक्तिसे पांडवों
और कौरवोंमें आधा आधा राजा वाँट दिया । परन्तु तो भी प्रचंड पांडवों और कौरवोंमें वैर-विरोध बढ़ता ही गया-वह कम न हुआ। कारण, अकेले कौरव ही पूरे राज्यको चाहते थे। कौरव लोग स्वभावसे ही हृदयके दुष्ट और वाणीके मिष्ट थे । वे रोषके भरे सदा ही पांडवोंको मारनेकी चेष्टामें लगे रहते थे, पर तो भी वाहिरसे प्रीति ही दिखाते थे । इन सब बातोंके रहते हुए भी सब कौरव-पांडव सुन्दर सुंदर प्रदेशोंमें एक साथ क्रीड़ा किया करते थे।
एक दिन महान् योधा भीमसेन अपनी इच्छासे कौरवोंके साथ वनमें क्रीड़ा करनेको गया; और वहाँ अपने आपको धूलसे पूर कर वह कौरवोंसे वोला कि जो कोई मुझे इस धूलमेंसे निकाल लेगा वही घलवानोंमें वली है । यह सुन सबके सव कौरव उसे धूलमेंसे निकालनेको तैयार हुए
और अभिमानमें आकर उसे निकालनेकी प्रतिज्ञा करने लगे। परन्तु वे उसे रंचमात्र भी न चला सके---जोर लगा लगा कर थक गये।ठीक ही है कि बहुतसे चूहे मिलकर सुमेरुको नहीं चला सकते । यह देख उन छुपे हुए शत्रुओंके मनका उत्साह मंद हो गया और उनके मुंह मालन हो गये। इसके बाद वे वहाँ से वापस घर लौट आये।
इसके बाद एक दिन फिर भीमसेन कौरवोंके साथ वनक्रीडाको गया और एक ऐसे वनमें पहुंचा, जो घने वृक्षोंसे सुशोभित था । जिसका एक एक वृक्ष डालियोंके आगेके भागमें लगे हुए पत्तों, फलों और पुष्पोंसे युक्त था। वहॉके मनोहर आमके वृक्ष फलोंके भारसे नम गये थे और उन पर कोयलें बोलती थीं। अतः जान पड़ता था कि मानों वे कोयलोंके शब्दोंके बहानसे फलोंको चाहनेवाले सत्पुरुपोको ही बुलाते हैं । सबेरेकी लाल छटाके जैसे उनके जो लाल पत्ते थे वे मूंगाकी घेलोंको हँसते थे । ठीक ही है कि समानता हँसी ही कराती है । वहॉके खजूर-वृक्ष ऐसे शोभते थे मानों वे जर्जरा जराको ही जीत रहे है । क्योंकि
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वे जरासे भी गये बीते थे अर्थात् जरा तो कुछ दिन मनुष्यको ठहरने भी देती है, पर वे पकते ही फलोंको गिरा देते थे । वहाँ फल-पुष्प आदिकी शोभासे रहित क्षीरवृक्ष थे । एवं वहाँ घुघरूके समान शब्दवाले और विल्कुल छोटे छोटे पत्तोंवाले पवित्र इमलीके वृक्ष थे । वहाँ विपुल और सुन्दर पत्तोंवाले निर्मल केलेके वृक्ष शोभित थे, जो अपने फलोंसे कल्पवृक्षके फलोंको भी जीतते थे। और वहीं कषैले फलोंसे सुशोभित आँवले के वृक्ष थे, वे ऐसे जान पड़ते थे कि मानों मुनि - गण द्वारा जीती गई कषायें ही स्थित है।
ऐसे रमणीक वनमें पहुँच कर उन सबने खूब क्रीड़ा की । वहॉ भीमसेनने एक ऑवलेका वृक्ष देखा । वह खूब फला हुआ था । उसकी डालियाँ बड़ी मोटी थी । वह पत्तोंसे और फलोंसे लदा हुआ था । उस पर अभिमानी कौरवोंके साथ साथ बली भीम क्रीड़ा करने लगा वह उस पर कभी चढ़ता और कभी उतरता था । कोई उस पर चढने का यत्न करता था और फिर चढ़नेको असमर्थ हो स्वयं ही उतर पड़ता था । कोई उसे दिलाता और कोई चढ़नेके लिए उसका आलिंगन करता था, पर डर कर फिर दूर हट जाता था । कोई उसे अपनी छाती के बल खूब हिला डालता था और दूसरा कोई आकर गिरे हुए उसके फलोंको बटोरता था । उस पर चढ़ने के लिए यद्यपि उन सबने बड़ी कोशिशें कीं, पर वह बहुत ही ऊँचा था, इसलिए उस पर कोई भी न चढ़ सका-सव हिम्मत हार गये । कौरवों लिए उस पर चढना कठिन होने पर भी भीमसेन हिम्मतके साथ उस पर अति शीघ्र चढ़ गया । यह देख कौरवोंको बहुत बुरा लगा और वे उस पवित्र आत्माको पेड़ परसे नीचे गिरा देना चाहने लगे---उनके चित्तमें द्वेप-बुद्धि-वश भीमको नीचे गिरा कर कष्ट देनेकी इच्छा हुई । उसको गिरानेके लिए उन्होंने इकट्ठे होकर जोरके साथ उस महान् वृक्षको खूब प्रचंडतासे हिला डाला । परन्तु उस हिलते हुए वृक्ष पर भी वह बली निश्चल ही बैठा रहा-रंच मात्र भी न चला। और है भी ठीक कि नदियोंका चाहे जैसा ही क्षोभ क्यों न हो, उससे समुद्र बिल्कुल नही चलता है । उनके इस उद्योगको देख कर ऊपरसे भीमने कहा कि यदि आप लोगों में इस विपुल वृक्षको उखाड़ देनेकी ताकत हो तो उखाड़िए | परन्तु इतना कहने पर भी वे चंचल-चित्त कुछ भी न कर सके चुप रह गये | सच है कि दीन-दुर्वल पुरुष चाहे कितने ही क्यों न हों, पर वे एक थोडेसे ऊँचे पहाड़को भी नहीं चला सकते । आखिर भीमको उनका खोटा अभिप्राय मालूम पड़ गया और वह अपने घरको चला आया ।
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. इसके बाद एक समय भीम फिर भी कौरवोंके साथ उसी वृक्षके पास गया । अवकी वार जैसे तैसे करके कौरव-गण उसके ऊपर तक चढ़ गये । तव भीमने उस वृक्षको अपनी छातीके वल हाथोंसे पकड़ कर खूव ही . हिला डाला और बड़े अभिमानके साथ उसे जड़से उखाड़ कर कौरवों सहित सिर पर उठा वह भागा । उस समय ऐसा जान पड़ता था कि मानों वह अपने मस्तक पर छत्र ही लगाये हुए है । भीमकी इस दौड़के मारे कौरव लोग उस वृक्ष परसे नीचे गिर पड़े। कोई ऊपरको मुंह किये सीधा गिरा तो कोई नीचेको मुँह किये उल्टा । कोई पॉवोंसे डालियों पर झूम कर सिरकी ओरसे लटका रहा तो कोई हाथोंसे डालियों पर झूम कर सीधा ही लटक कर रह गया । कोई डरके मारे शाखासे चिपट कर सोया सा रह गया तो कोई एक हाथसे डाली पकड़े झूमता ही रह गया । कूद पड़नेसे किसीके पेटमें पीड़ा होने लग गई तो किसीको मूर्छा आ गई, जिससे वह मरणके नजदीक पहुँचनेको हो गया। भीमके इस कार्यसे वे लोग बड़े दुःखी हुए । जान पड़ता था कि मानों भीमके पुण्यके डरसे ही वे व्याकुल हो रहे हैं। तब हाथ जोड़ कर बड़ी नम्रतासे उनमेंसे एकने भीमसे प्रार्थना की। भीम, तुम पवित्र आत्मा हो, गंभीर हृदयवाले हो । अतः परिवारके लोगोंको तकलीफ पहुँचाना तुम्हें शोभा नहीं देता । इस प्रकार मार्थना करने पर भीम उसी समय ठहर गया और उसने घबराये हुए कौरवोंको बड़ा आश्वासन दिया-धीरज बंधाया। इसके बाद वे सब अपने अपने घरोंको आ गये । वहाँ उन सबके साथ भीम जिसकी कि पुरुषार्थसे शोभा थी और जो बड़ा पराक्रमी था, सतत क्रीड़ा करता हुआ आनन्द-चैनसे अपना समय बिताने लगा। एक दिन कौरव किसी बहानेसे भीमको एक तालाव पर ले गये और वहाँ उन मूल्ने मार डालनेकी इच्छासे उसे पानीमें ढकेल दिया । परन्तु वह बली पुण्यात्मा पानीमें न डूवा-वह तैरना जानता था, अतः अपनी भुजा
ओंके बल तालावको पार कर किनारे आ गया । उसको तैर कर पार आया देख कौरव बड़े घवराये-उनका मान गल गया और वे सोचने लगे कि अव क्या करना चाहिए।
इसके बाद कौरवोंको पानी में डुबा देनेकी इच्छासे धीर-वीर भीम भी एक । बार उन्हें भुला कर तालाव पर ले आया और उन्हें उसने तालावमें गिरा दिया। उस समय दीन स्वरसे पचाओ, रक्षा करो इत्यादि कहते हुए कौरव-गण पानीमें डूबने लगे और बड़े दुःखी हुए; और जलकी तरंगोंके सहारे डूबते उतरते हुए
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दुःखके मारे रोने लगे । भीमके हाथों उनकी बड़ी दुर्दशा हुई । अन्तमें वे केश सहते हुए पुण्यके उदयसे, जैसे तैसे पानीसे बाहिर आ गये और बड़े भयभीत हुए अपने अपने महलोंको गये ।
इसके बाद भीमसे भयभीत होकर बुद्धिशाली दुर्योधनने अपने धीरवीर मंत्रियों और छोटे भाइयोंको बुला कर उनके साथ परामर्श किया कि देखो, भीम बड़ा दुर्जय है, धीरवीर और शत्रुओंको जीतनेवाला है, इसकी भुजाएँ बड़ी बलिष्ठ है, वह भयको देनेघाला और युद्धकी प्रतिज्ञा किये हुए है, सब तरह समर्थ है, बल-सम्पन्न और शौर्यशाली है, उसकी बुद्धि वड़ी गंभीर है, वह वैरियोंके ध्वंसके लिए हमेशा ही उद्यत है और नाना युक्तियोंका ज्ञाता है । बड़े खेदकी बात है कि इस . महाभीम भीमके जीते रहते हम सौ भाइयोंका जीवन व्यर्थ ही है । इस लिए इस महान् उत्कट दुरात्माको जिस उपाय या कपटसे बन पड़े हम लोगोंको मार ही डालना चाहिए । देखिए तो इसके मारे हम लोगोंको कितना भय हो रहा है । इसको मारे विना हमारे दिलका सन्ताप मिट ही कैसे सकता है । एक बात यह है कि इसके रहते हम लोग राज्यका पालन भी नहीं कर सकेंगे । इस लिए इसका जल्दी ही इलाज कर देना योग्य है । क्योंकि वैरी बढ न पावें इसके पहले ही उसकी जड़ उखाड़ फेंक देनी चाहिए; नहीं तो वह बढकर रोगकी नॉई बल (ताकत-सेना) का ध्वंस कर देगा । जैसा कि कहा है-व्याधि, चोर, शत्रु-समूह, दुष्ट पुरुष, आपत्ति
और दुर्दम भीति इनको पैदा होते ही नष्ट कर देना चाहिए; नहीं तो ये बढ़ जाने पर दारुण दुःख देते हैं; उदाहरण यह कि शरीरमें विष चढ़ जाने पर जैसे दुःखदाई हो जाता है वैसे ही ये भी बढ़कर जीवको साता नहीं होने देते; किन्तु दुःखदाई हो जाते है । इस लिए इस भयंकर भीमको हमें अति शीघ्र मार डालना चाहिए; नहीं तो यह आगकी नाई बढ़कर हमें जला देगा-हमारे कुलका नाश कर देगा। इस प्रकार मंत्रियों के साथ सलाह करके खोटे विचारोंवाला दुर्योधन भीमको मारनेके लिए उद्यम करने लगा।
एक समय जव कि भीम सोया हुआ था, उसे सोया जान कर स्नेह-हीन दुर्योधनने कपटसे बॉध लिया; और रोषमें आकर गंगाके प्रवाहमें बहा दिया। भीम उस हालतमें भी सुखसे सोकर उठने की तरह जाग्रत हुआ । उसने जान लिया कि यह सब दुर्बुद्धि दुर्योधन हीका कर्म है । वह बंधन तोड़ कर, हाथोंको
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फैलाये हुए वैसा ही जल-तल पर पड़ा रहा जैसा शय्या पर सोता था । भावार्थ यह कि वह विना हाथ-पैर हिलाये ही जलके ऊपर स्थित रहा ।
इसके बाद वह मनोहर शरीरधारी लीला मात्र ही गंगा पार कर जल वाहर निकल आया। पुण्ययोगसे उसे विल्कुल ही परिश्रम न हुआ । वह कपट रहित था, अत: जलको पार कर वह उन दुष्ट कौरवोंके साथ ही साथ घर आ गया, जो उसे बहानेको गये थे । इसके बाद उस वीरके साथ ईपर्या-द्वेष करनेवाले कौरवोंने उसको मारनेके लिए मंत्री-गणसे फिर सलाह की; और उन्होंने एक दिन परमोदयशाली भीमको भक्तिभावसे निमंत्रण देकर भोजनके लिए बुलाया । वहाँ दुष्ट दुर्योधनने उसे तत्काल प्राणहारी हालाहल विषका मिला हुआ भोजन खिला दिया । परन्तु पुण्योदयसे वह हालाहल विष भी अमृतरूप हो. गया
और वह भोजन भी उसे बहुतं रुचिकर मालूम पड़ा । यहाँ गौतम गुरु कहते है कि श्रेणिक, देखो पुण्यका माहात्म्य कैसा है कि जिससे प्राणोंको हरनेवाला विष भी अमृत-तुल्य हो गया । और भी देखो कि पुण्यात्माके पुण्यसे विष अमृत हो जाता है और शाकिनी, भूत, राक्षस वगैरह सब दूर भाग जाते हैं । धर्मात्माके लिए धर्मके प्रभावसे फणकी फुकारसे डरावना और क्रोधसे लाल नेत्रोंवाला महान् सॉप काँचली सा हो जाता है । सारे संसारको जलानेवाली अत एवं दुःखदाई तीव्र ज्वालावाली भयंकर आग जल हो जाती है । और तो क्या धर्मात्मा जनोंके धर्म-वलसे बड़े बड़े हाथियोंके समूहको रोकनेवाला सिंह, स्याल और समुद्र स्थल हो जाता है । तथा धर्मके प्रभावसे मनुष्योंको चक्रवर्तीका-जिन्हें बड़े बड़े राजा-महाराजा सिर झुकाते हैं-महान् राज्य मिल जाता है । इसी धर्मसे लोगोंको कुचोंके भारसे सुहावनी, लावण्यकी समुद्र और चंचल' भौह नेत्र-कमलवाली स्त्रियाँ मिल जाती है । एवं मनुष्योंकी तुलना करनेवाले हाथी प्राप्त हो जाते हैं । जैसे मनुष्यों के कर (हाथ) होते हैं वैसे ही वे भी कर (सूंड़) वाले होते हैं । जैसे मनुष्य महान् वंशवाले होते है वैसे ही वे भी महान् वंश (पीठकी रीढ़ ) वाले होते है । मनुष्योंके सुन्दर दाँत होते हैं, उनके भी सुन्दर दाँत होते हैं ।। और मनुष्य भूतों-परिवारके लोगों से परिपूर्ण होते हैं, वे भी भूतों-भस्म-पुंजोंसे सजे होते हैं । मनुष्य सुन्दर कपोलवाले होते है, उनके भी कपोल-गंडस्थलसुंदर होते हैं । और भी सुनो कि धर्मके प्रभावसे जीवोंको इतना ही परिकर नहीं मिलता; किन्तु विना परिश्रम किये ही धन-धान्य, पवित्र और धर्म-अर्थ-काम-रूप
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ग्यारहवाँ अध्याय । त्रिवर्ग-सेवी पुत्र मिलते हैं; शिक्षा पाये हुए, अच्छे मार्गसे चलनेवाले, स्वामी
की भक्तिमें लीन और अच्छे संस्कारोंवाले उत्तम नौकरोंकी नॉई उत्तम उत्तम घोड़े ' मिलते हैं; एवं उन धीरजधारी, समर्थ, धर्मात्मा पुरुपोंको चक्राके संगमसे चीत्कार
शब्द करनेवाले बहुमूल्य रथ भी स्वयमेव आकर प्राप्त होते हैं । इसी तरह धर्मके प्रभावसे मनुष्योंको हार, कुंडल, केयूर, अंगूठी, कंकण आदि भूपण और सुन्दर सुंदर वस्त, तांबूल, कपूर आदिकी प्राप्ति होती है । और सुन्दर सुन्दर खिड़कियोंवाले, पहरेदार्गेसे रक्षित, अक्षय और भॉति भॉतिके उत्सवोंसे परिपूर्ण महल-मकानोंकी भी प्राप्ति होती है । देखो, धर्मका ऐसा बड़ा और मनोहर फल मिलता है । इस लिए चतुर पुरुषोंको निर्मल चित्त हो धर्म सेवन करना चाहिए और उसके फलका अनुभव लेना चाहिए ।
इसके बाद निर्भय हो पृथ्वी पर घूमता फिरता वली भीम सॉपके साथ क्रीडा करनेवाले और चंचल-चित्त कौरवोंके साथ इसी तरहका क्रीडा-विनोद करता रहा। एक दिन उन मायाचारी कौरवोंने विप-कण उगलते हुए साँपसे गीमको कटवा दिया। पर भीपके पुण्य-प्रमावसे उस सॉपके विपका उसके शरीर पर कुछ भी असर न हुआ; वह विप उसके लिए अमृत तुल्य हो गया-उसकी उसे रंचमान भी वेदना न हुई।
इसके बाद एक दिन गांगेय, द्रोणाचार्य, पांडव और कौरव सब मिल कर क्रीड़ाके लिए वनमें गये । वहाँ वे सोनेके दंडों द्वारा, सोनेके तारोंसे अतीव सुन्दर गुंथी हुई गेंदसे खेलने लगे । उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे मानों दूसरे देवता-गण ही हैं। और पूर्ण चॉदके जैसी गोल गेंद भी दंडोंसे ताड़ी गई पृथ्वी पर इधर उधर दुलकती हुई ऐसी जान पड़ती थी मानों वह राजा लोगोंके भयसे ही इधर उधर भागती फिरती है । इस प्रकार खेलते हुए उनमेंसे किसीके दंडेसे गेंद एक बार बहुत उछली और जाकर एक ऐसे अंधकूपमें जा पड़ी जो सीढ़ी रहित था और अथाह एवं रमणीक जलसे भरा हुआ था । उसको उस अगाध अंधकूपमें पड़ती हुई देख कर चिल्लाते हुए वे सव लोग उस कुँए पर गये और उन्होंने कहा कि हम लोगोंमें कोई ऐसा शक्तिवाला भी है जो इस कुँएमसे गेंदको निकाल लावे । यह सुन कर उनमेंसे विना विचारे किसी वाचालने कहा कि पातालमें गई हुई इस गेंदको मैं बहुत जल्दी ले आ सकता हूँ | किसीने कहा कि महाराज, इसकी तो बात ही क्या है मै इससे भी
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पाण्डव-पुराण |
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कठिन काम कर सकता हूँ। यह देख एक राजा वोला कि वाह जव कि मैं पातालको भी उठा लाने के लिए समर्थ हूँ तब इसके लानेकी तो बात ही कितनी सी है । मैं अभी दोनों हाथोंसे इस कुँएको ही उखाड़ कर गेंद लिए आता हूँ । एकने कहा कि इस गेंदकी तो बात ही क्या चली, यदि मैं चाहूँ तो अपने वलसे इन्द्रको इन्द्रासन सहित ले आ सकता हॅू और पाताल-मूलसे पातालके रक्षक धरणेन्द्रको पद्मावती सहित बॉध कर आपके सामने ले आकर उपस्थित कर सकता हूँ । इस तरह उन वाचाल और चंचल जनोंने वड़ा क्षोभ मचाया; परन्तु गेंदको ले आनेके लिए कोई भी समर्थ न हुआ । सब उपाय कर करके रह गये । तव चंचल चक्षुओंसे वे एक दूसरे के मुॅहकी ओर देखने लगे। यह देख कर द्रोणाचार्यसे न रहा गया— उन्होंने उसी समय धनुष चढ़ाया और भ्रकुटी चढ़ा कर एक वार उसे पृथ्वी पर फटकारा | उसके भयानक शब्दकी कठोरतासे समुद्र में रहनेवाले दिग्गज तक वहिरे हो गये । इस समय द्रोण ऐसे जान पड़ते थे कि मानो वे मूर्तिमान धनुर्वेद ही हैं । और जब वे उस प्रचंड, अखंड और तीव्र तेजवाले धनुषको ऊपर की ओर तानते थे, तब ऐसे देख पढ़ते थे कि मानों वे इन्द्रधनुषको ही हाथमें लिये हुए हैं । उनके धनुषके प्रचंड शब्दको सुन कर गजोंको बड़ा त्रास हुआ । वे इधर उधर भागने लगे, जान पड़ता था भयके मारे वे दिग्गजों की शरणमें ही भागे जा रहे हैं। गंधर्वोके घोड़े बंधनोंको तोड़ कर भागे । यह देख गंधर्व देव कॉपने लगे । नगरवासी लोगोंने उस धनुषके शब्दसे यह समझा कि कोई शत्रु ही चढ़कर आ गया है । अत एव वे भी भागने लगे । स्त्रियाँ हाथमें बटलोई लिये अपने भोजन वगैरहके कामोंमें लगी हुई थीं । इतनेमें द्रोणके धनुषका शब्द हुआ । उससे वे बड़ी डरीं" और डरके मारे उनके वस्त्र तक गिर पड़े। सच है कि डरसे क्या नहीं होता - सभी अनहोनी बातें हो जाती हैं । इस तरह स्वयं चंचल लोगोंको द्रोणने और भी चंचल बना दिया । इसके बाद द्रोणने एक वाण ऐसा मारा कि वह जाकर गेंदमें जा छिदा । फिर क्या था, उन्होंने अब एकके बाद एक बाण मारना शुरू किया । वे बाण सिलसिले से बिंधते हुए गेंद से लेकर ऊपर तक एक लम्बी रस्सीके आकारके बन गये । इस प्रकार बड़ी आसानीसे वह गेंद निकाल ली गई, जिसे निकालनेके लिए कौरव असमर्थ थे। उस समय द्रोणकी धनुर्विद्याकी कुशलताको देख कर देवता और मनुष्य उसकी बड़ी तारीफ करने लगे; एवं पर्वतोंकी गुफाओं में बैठ कर किन्नर-गण उसके यशका गान करने लगे । राजा - गण उसके गुणोंकी प्रशंसा करते हुए कहने
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ग्यारहवाँ अध्याय ।
१५९ लगे कि ऐसी वाण-कुशलता पहले हमने कभी न तो देखी और न इस समय
कहीं दीखती है । इसके बाद कुछ काल वहाँ और ठहर कर परस्पर प्रेम-पूर्वक , कौरव और पांडव अपने नगरको लौट आये ।
कौरव लोग भीमके पुण्य और शक्तिको देख कर जब कुछ न कर सके तव सुतरां शान्त हो गये । और है भी ऐसा ही कि असमर्थ पुरुष जब कुछ नहीं कर सकते तब वे क्षमाका आश्रय ले लेते हैं।
इस तरहसे पांडवों और कौरवोंको राज्य करते करते बहुत काल वीत गया, उन्हें वह कुछ भी न जान पड़ा । सच है पुण्यात्मा सत्पुरुपोंका महान् काल भी क्षणकी नाई गुजर जाता है और उन्हें उसका कुछ भान भी नहीं होता।
इसके बाद एक समय गांगेयने तथा और और राजोंने विवाहके सम्बन्धमें द्रोणाचार्य से प्रार्थना की। कहा कि गुरुवर्य, अब आप अपना विवाह कीजिए
और सद्गृहस्थ घनिए । द्रोणाचार्यने उनकी प्रार्थनाको उत्तम समझ कर स्वीकार कर लिया । गुरुकी सम्मति पाकर गांगेयने उनके विवाहका उत्सव शुरू कर दिया और गौतमके पास जाकर उससे उसकी कन्याकी द्रोणके लिए याचना की। कन्या लोगोंको आनंद देनेवाली और रूप-सौंदर्यकी मूर्ति थी । जान पड़ता था कि वह साक्षात् दूसरी रति ही है ।
उसके साथ द्रोणका विवाह-मंगल हो गया। विवाहके समय भाँति भॉतिके बाजे और कामिनी-गोंके मंगल-गीतोंसे बडी चहल-पहल रही । तात्पर्य यह कि विवाहके समय खूब ही धूमधाम की गई थी।
विवाहके बाद उन दम्पति पर कामने अपना अधिकार जमाया और वे रति-सुख भोगते हुए आनंद-चैनसे अपना समय बिताने लगे। और एक दूसरे पर आसक्त चित्त होकर प्रेमसे स्वर्गके सुखोंको यहाँ भोगने लगे।
__ अनन्तर कुछ कालमें उन दम्पतीके अश्वत्थामा नाम एक पुत्र पैदा हुआ । वह बुद्धिमान था, धीर था, धर्मात्मा और व्रती पुरुषोंका सेवक था । उसका शरीर तेजका पुंज था । वह धनुप-विधामें इतना निपुण था कि सब धनुषविद्या-विशारदोंमें महेश्वर----मुखिया--गिना जाता था । उसका हृदय हमेशा ही प्रेमसे परिपूर्ण और फूला हुआ रहता था, अत एव वह सव लोगोंको आनंददायक था।
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पाण्डव-पुराण।
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एक दिन द्रोणाचार्यने अपने परम प्रीतिभाजन अर्जुन आदिसे कहा कि प्रिय शिष्यो, तुम धनुष-विद्याके सम्बन्धमें हमेशा मेरी आज्ञाके अनुसार ' ही चलना; कभी मेरी आज्ञासे विरुद्ध न होना।
द्रोणाचार्य सब विद्याओंमें पारंगत, कृपाके सागर तथा धनुष-विद्याके पूर्ण पण्डित थे। तब भी कौरवोंने उनके वचनोंकी अवज्ञा की और वे स्वतंत्र रहने लगे । परंतु बुद्धिमान् और समर्थ अर्जुनने उनकी आज्ञाका यथावत् पालन किया और यह उचित ही था, क्योंकि विद्या उन्हींको प्राप्त होती है, जो गुरुके आज्ञा-पालक होते हैं । इस पर प्रसन्न होकर द्रोणाचार्यने अर्जुनको वर दिया कि मैंने तुम्हें आज पूर्ण धनुप-विद्या दी; तुम शुद्ध, निर्दोष धनुप-विद्यासे मेरे समान ही हो जाओगे । इसमें बिल्कुल सन्देह नहीं । ऐसी मेरी हार्दिक इच्छा है ।
गुरुके इन वचनोंको सुन कर पवित्र-चित्त अर्जुन वड़ा कृतार्थ हुआ। और उस परमार्थके ज्ञाता तथा गुरुको हमेशा अपने हृदयमें विराजमान किये रहनेचाले अर्जुनने धनुष-विद्याके अभ्यासमें लगे रह कर थोड़े ही दिनमें उसमें पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया।
इसके बाद एक दिन पांडवों और कौरवों सहित द्रोणाचार्य अपने शिष्योंको धनुष-विद्या सिखानेके लिए वनमें गये । वहाँ उन लोगोंने ऊँची डालियोंवाले और फल-पत्तोंसे लदे हुए एक वृक्षको देखा । उस पर वहुतसे पक्षी बैठे हुए थे । उसकी बीचकी डाली पर एक कौआ बैठा हुआ था । उसको देख कर धनुर्वेदी द्रोणने पांडवों और कौरवोंसे कहा कि जो इस कौएकी दाहिनी आँखको लक्ष्य-निशाना बना कर वेधेगा, वही विद्वान् धनुषधारी, दक्ष और धनुष-विद्या-विशारदोंमें अगुआ माना जायगा । यह सुन कर दुर्योधन आदि तो उस निशानेका लगाना कठिन समझ कर चुप रह गये । वे आपसमें विचार करने लगे कि प्रथम तो यह कौआ चंचल है और दूसरे इसकी आँख और भी चंचल है-पलमात्र भी एक ओर नहीं ठहरती, फिर इसके इस दाहिने नेत्रको कौन वेध सकता है और कैसे वेध सकता है । उनको इस प्रकार चुप-चाप देख कर चाप विद्या-विशारद और लक्ष्यको भली भॉति जाननेवाले द्रोण गंभीर ' वाणी द्वारा पांडव-कौरवोंसे बोले कि यदि तुममेंसे कोई भी इसे वेधनेको तैयार नहीं है तो लो मैं ही इसे वेधता हूँ । यह कह कर उसने धनुष पर सपुंख वाण चढ़ा कर ज्यों ही उस कौएकी दाहिनी ऑखकी ओर संघान लगाया-दृष्टि
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ग्यारहवाँ अध्याय
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बॉधी -त्यों ही उन धनुर्धर गुरुको प्रणाम कर धनुपके संधान में बुद्धिमान और धनुर्धर धनंजय (अर्जुन) चोल उठा कि हे धनुप-विद्या- विशारद गुरुपुंगव, इस लक्ष्यको बेधनेके लिए तुम सर्वथा समर्थ हो, फिर तुम्हारे बेधनेमें अचम्भा ही क्या हैं । हे तातपाद, इस समय आपका यह लक्ष्य वेध करना ऐसा है जैसे सुरजको दीया दिखाना और आम पर वन्दनवार बॉधना या कस्तूरीको चंदनकी धूपसे सुगन्धित करना । भावार्थ यह कि जिस तरह सूरजको दीया दिखाना शोभा नहीं देता उसी तरह यह लक्ष्य वेध आपको शोभा नहीं देता । और एक बात यह भी है कि मुझ सरीखे आपके ही धनुपधारी विद्यार्थीके उपस्थित रहते आपको यह काम करना युक्त भी तो नहीं मालूम पडता । इस लिए प्रभो, मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं आपके ममादसे पाई हुई धनुप-विद्या के मलसे इस विपम लक्ष्यको भी आसानीसे वेध सकूँ। यह सुन द्रोणने गौरव -शाली अर्जुनको लक्ष्य वेध करनेके लिए आज्ञा दे दी। और अर्जुन भी उसी समय हाथमें धनुप लेकर वहाँ जाकर अचल हो बैठ गया, जहाँसे उसे लक्ष्यवेध करना था । इसके बाद धनुष पर डोरी चढ़ाकर उस यशस्त्रीने वज्रके शब्द जैसी गर्जना की । कौआ बहुत ही चंचल था, वह क्षण-क्षणमें गर्दनको इधर से उधर और उधर से इधर मोडता था । उसके नेत्र और भी अधिक चंचल हो रहे थे । ऐसी हालत में उसकी दाहिनी आँखको लक्ष्य बनाना बहुत ही कठिन था, परन्तु फिर भी अर्जुनने उसे लक्ष्य वना उसीकी ओर अपने मन और बुद्धिको लगा दिया । उसने इस इच्छासे कि कौआ मेरी ओर नीचेको देखे, फिर धनुष - का शब्द फिया । जिसे सुन कर कौआ उसकी ओर मुॅह कर नीचेको देखने लगा । इतने हमें उस लक्ष्य वेधके पूर्ण विद्वान अर्जुनने अति शीघ्र उसकी दाहिनी आँखको वैध दिया । उसकी इस सफलताको देस कर द्रोणाचार्य और कौरव आदि सभी चापविद्या - विशारद अर्जुनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा करने लगे । वे बोले कि बहुतसे धनुषधारियोंको देखा; परन्तु ऐसा धनुष-विद्या-निपुण अब तक कोई भी देखने में नहीं आया । अर्जुन, तुम धनुप-विद्यामें पारंगत विद्वानों में भी श्रेष्ठ विद्वान् हो । अत्र और गुणी या गुणग्राही तुमसे चढ़कर कौन होगा । इसके बाद वे सब अर्जुनकी इस सार्थक कीर्ति कहानीको कहते सुनते हुए अपने अपने घर चले आये । परन्तु अर्जुनके इस निर्मल बलको देख कर कौरवोंका हृदय बड़ा दुःखी हो रहा था ।
पाण्डव-पुराण २१
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पाण्डव-पुराणे।
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एक समय शत्र-विध्वंसक समर्थ अर्जुन धनुप-वाण हाथमें लेकर वनको गया और वहॉ हिंसक सिंह, व्याघ्र आदि जीव-जन्तुओं द्वारा लोगोंको जो आपदायें हो रही थीं उन्हें दूर कर, वनचर हिंसक जीवोंको डराता हुआ, घृमता फिरता, एक गहन स्थानमें पहुंचा । वहाँ उसने सिंहकी नाँई उन्नत एक कुत्तेका मुंह वाणोंसे विघा हुआ देखा । उसको देख कर वह सोचने लगा कि यहाँ इस तरह बाण चलाने वाला कोई मनुष्य तो दीखता ही नहीं, फिर इस प्रचंड कुत्तेका मुंह इस तरह वाणोंसे किस धनुष विद्या-विशारदने वेध दिया है । दूसरी बात यह है कि शब्द-वेध जाने विना कोई ऐसा काम कर भी नहीं सकता । और यहाँ शब्द-वेधके ज्ञाताका होना बड़े अचम्भेकी बात है । क्योंकि शब्द-वेधके कारण ही मेरे गुरु महान् पंडित द्रोणको सभी धनुषविद्या-विशारद मानते हैं और इसीसे वे संसार में प्रसिद्ध हैं । और यह सुना भी जाता है कि शब्द-वेध बहुत कठिन है; दुराराध्य है-उसको कोई भी नहीं जानता। यदि कोई जानता है तो द्रोण ही जानता है । फिर यहाँ शब्द-वेधका ज्ञाता कहाँसे आया । यदि किसी दूसरे विद्यार्थीको द्रोण गुरुने ही सिखाया हो तो यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि मैं हमेशा ही उनके पास शब्द-वेध सीखनेके लिए उपस्थित रहता हूँ और उन्हींके आश्रयसे मैं धनुषविद्या-विशारद हुआ हूँ, मेरा धनुषविद्यामें चंचु-प्रवेश हुआ है । एवं प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे शब्दवेध-विद्या सिखाई है और किसीको नहीं सिखाई है । फिर दूसरा कोई शब्द-वेध-कुशल यहाँ हो ही कैसे सकता है। परन्तु इसमें भी संशय नहीं कि इस कुत्तेको भोंकते वक्त किसी शब्दवेध-विशारदने ही मारा है। बड़े अचम्भेकी बात है कि उसका कुछ पता नहीं चलता।
इसके बाद वह धीरवीरोंको भी शिक्षा देनेवाला वीरवर अर्जुन इसी बातका बार वार स्मरण करता हुआ गर्वके साथ जंगलमें घूमने लगा। और उस शब्द-वेधी वाण चलानेवालेको देखनेकी प्रबल इच्छासे वह अनायास ही बड़ी बड़ी दूर तक धूम आया। उसने पहाड़ोंकी गुफायें और शिखर देखे, कताओंके सुन्दर मंडप देखे । इतने में उसे एक भील देख पड़ा। वह कंधे पर धनुष लिये था, वीर था, वनमें रहनेवाला था, वाण छोड़नेमें वड़ा चतुर था, उसके नेत्र बड़े भयंकर थे, दोनों पसवाड़े इधर उधर घूमनेके कारण क्षुभित हो रहे थे । वह कमरमें तरकस वॉधे था । उसका तरकस वाणोंसे परिपूर्ण था। उसको आलस लेशमात्र न था । उसका हाथ हमेशा नृत्यसा करता था और वह • अपने वेगकी चंचलतासे इवाको भी मात करता था । उसका मुंह नीचा था । उसकी
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नाकका आगेका भाग वाणके अग्र-भागकी तरह विल्कुल पतला. था । उसके वाल वधे हुए थे। वह भयानक और एक कुत्तेको साथ लिये हुए था । उसको देख कर तेजस्वी पाडुनन्दन अर्जुन बोला कि मित्र, तुम कौन हो ? कहाँ रहते हो ? और कौनसी विद्या जानते हो? यह सुन क्रोधसे लाल नेत्र किये हुए अत एव क्षमा-रहित और देखनेमें भयावना वह भील अहंकार भरे शब्दोंमें बोला कि सुनिए, धनुषधारियोंको भय देनेवाला तथा औरोंको प्रीति देनेवाला मैं एक भील हूँ और इसी वनमें बसता हूँ। मैं धनुपकलाका पण्डित हूँ। मुझमें धनुप-वाणके द्वारा हर एक माणीको वेधनेकी अपूर्व सामर्थ्य है । मैं शब्दवेध करनेसें पूर्ण समर्थ हूँ। मेरे समान लक्ष्यवेध करनेवाला पृथ्वीकी पीठ पर और कोई नहीं है । और तो क्या, मेरी भृकुटिको देख कर ही कई तो प्राण त्याग देते हैं । उस धनुर्धर भीलके ऐसे पराक्रमको सुन कर अर्जुन बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उससे पूछा कि हे शब्दवेध-निपुण, उस सिंह-तुल्य कुत्तेको क्या तुमने ही अपने अपूर्व वाण-विद्याके पल मारा है ? भील बोला-हे सुन्दर श्रोत्रोंवाले और कामकी मूर्ति, आप मनोरथ सिद्धिके साधक, सुन्दरांग और कमलके जैसे नेत्रोंवाले, कमला-लक्ष्मी-के आलय, सुन्दर कामियों द्वारा वांछनीय, कर्तव्य-परायण और भॉति भॉतिकी कलाओंकी केलिके स्थान देख पड़ते है । अतः मैं अपनी कृतिको आपसे कहता हूँ। आप ध्यान देकर सुनिए । वह यह कि मैं शान्तचित्तसे कहीं जा रहा था कि इतनेमें मैंने उस कुत्तेका भयावह शब्द सुना । सुन कर मुझे कुछ रंजसा हुआ और ऐसी ही अवस्थामें मैंने उसका वाण द्वारा काम तमाम कर दिया । भीलकी इस बातसे उसे शब्द-वेधी जान कर कौरवाग्रणी अर्जुनको बहुत अचम्भा हुआ और तब उसने शोभा-विहीन और लोभी उस भीलसे पूछा कि किरात, बताओ कि तुमने यह शब्दवेधिनी उत्तम विद्या कहॉसे सीखी है ? देखो, यह अक्षरशः सत्य है कि उत्तम विधाका उत्तम फल मिलता है या यों कहिए कि उत्तम विद्या उत्तम फल देती है। ऐसी उत्तम विद्याका देनेवाला कौन अपूर्व पण्डित तुम्हारा गुरु है । इस समय तो शब्द-वेधिनी-विद्याको सिखानेवाले गुरु कहीं दीखते भी नहीं । अर्जुनकी ऐसी युक्ति-संगत वातोंको सुन कर मुसक्याता हुआ वह कृतज्ञ और सुकृती भील पोला कि शत्रु-समूहके ध्वंसक द्रोणचार्य मेरे सद्गुरु हैं, और उन्हींके प्रसादसे मैंने यह उत्तम विधा पाई है। इस समय यह विद्या उनके सिवा और किसीके पास नहीं है । अतः इस विद्याकी विधिको बतानेवाले मेरे वही गुरु हैं और कोई नहीं । उसके इन वचनोंको सुन कर सफल-मनोरथ, पवित्र-चित्त
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और सूक्ष्म-बुद्धि अर्जुन मन-ही-मन सोचने लगा कि कहाँ तो परिवारके साथ । नगरमें रहनेवाले, उत्तम उत्तम भोगोंको भोगनेवाले, मिष्टभाषी, राज्यमान्य
और विद्वानोंमें श्रेष्ठ विद्वान् द्रोणाचार्य और कहाँ निर्दय, जीवोंका घातक और अति क्रूर जीवोंके साथ निडरतासे युद्ध करनेवाला यह भील । नगर और वनमें रहनेवाले इन दोनोंका समागम होना अत्यन्त विषम है। जैसे कि पूर्व-समुद्रमें छोड़ी गई सैल और उत्तर समुद्रमें छोड़े गये जुआका समागम बड़ा कठिन होता है। इसके बाद अर्जुनने उस किरातसे कहा कि तुमने उत्तम गुणोंसे शिष्टोंमें भी गरिष्ट उन द्रोण गुरुको कहा देखा है ? इसके उत्तरमें चई बोला कि यहाँ एक रमणीय स्तूप (थंमा ) है । उसी स्तूपको द्रौण समझ कर मैंने यह विद्या माप्त की है । इतना कह कर वह नम्र और गुण-गौरवका ज्ञाता भील अर्जुनको उस स्तूपके पाम ले गया और दिखा कर बोला कि देखो, यही पवित्र आत्मा द्रोण मेरे परम गुरु हैं । इनके आश्रयसे लोहा उसी तरह सोना हो जाता है जिस तरह कि पारसके संयोगसे । हे राजन्, मैं हमेशा सवेरे उठतेके साथ ही इस विपुल और पावन स्तूपको गुरु-बुद्धिसे नमस्कार करता हूँ। इसीके प्रसादसे ही मैंने यह शब्दवेधिनी विद्या पाई है । मैं हमेशा इसकी सेवा भक्तिमें लगा रहता हूँ । मैं परोक्ष रूपसे द्रोण गुरुकी विनय करता हूँ और रातदिन स्थिर चित्तसे उन्हींके गुणोंको स्मरण करनेमें लगा रहता हूँ । हे राजन्, द्रोण गुरुके संख्यातीत गुणोंका चिंतन करता हुआ मैं जिस वक्त इस गुरु-तुल्य स्तूपको देखता हूँ तब मेरा चिच स्नेहसे भर आता है । देखो, कहा है कि जो गुरु-बुद्धिसे गुरुके चरणोंकी स्थापनासे पवित्र हुए स्थानकी भी सेवा करता है वह भी संसारमें मन-चाहे सुखोंको पाता है । यह सुन कर पायें अपने शुद्ध वधनों द्वारा उसकी प्रशंसा करने लगा और बोला कि चाहे सज्जन पुरुष कितनी ही दूर क्यों न हों पर सत्पुरुष उनके गुणोंको ले ही लेते हैं। क्यों कि गुण-ग्रहण करनेका सत्पुरुषोंका स्वभाव ही होता है। शवरोत्तम, तुम महान् हो, महान् पुरुषों द्वारा मान्य हो एवं गुरु-भक्ति-परायण और गुणवानोंमें श्रेष्ठ हो ।
इस प्रकार उस भीलकी स्तुति कर अर्जुन वहॉसे अपने नगरको चला आया। पर उक्त घटनासे उसके हृदयमें बड़ी उछल-कूद मच रही थी। अतः वह शीघ्र ही द्रोणाचार्यके पास पहुंचा और उन्हें नमस्कार कर उनके पास बैठ गया । वाद वह बोला कि गुरुवर्य, मैं आज शत्रुओंको नाश करनेकी इच्छासे वनमें गया था। वहाँ मुझे तरकस बाँधे हुए एक भील दीख पड़ा। वह कुण्डलके आकार
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जैसे धनुषको लिये था । उसके हाथमें बाण या । उसको देख कर मैंने पूछा कि मित्र, तुम कौन हो ? कहाँ रहते हो १ और कौनसी विद्या जानते हो ? उसने उत्तर में कहा कि मैं किरात हूँ, यहीं वनमें रहता हूँ और द्रोणाचार्य गुरुके उपदेशसे में शब्द वेधिनी विद्याको भली भाँति जानता हूँ । परम पूज्य गुरुवर्य, उसके इस वचनों को सुन कर मै आपसे कहने के लिए यहाँ आया हूँ । स्वामिन, वह बड़ा निठुर है, दुष्ट और दुरात्मा है । उसकी सभी चेष्टायें अनिष्ट रूप होती हैं । वह हतबुद्धि, सदा ही निरपराधी जीवोंको मारा करता है । खेदकी बात यह है कि वह मायाचारी आपके उपदेशका बहाना करके जीव-राशिके गाणको व्यर्थ ही हरता है और घोर पाप करता है। पार्थके इन दुःख भरे शब्दों को सुन कर द्रोणको वडा भारी खेद हुआ और वह मन ही मन विचारने लगे कि इस पापात्माको इस दुष्कृत्यसे रोकने क्या उपाय हैं । कुछ सोच कर वह उसको दुष्कृत्यसे रोकने के लिए अर्जुनके साथ उसी समय वहाँसे वनको चले और रास्ते में धनुष-बाणधारी भीलोंको जाते हुए देखते उसी वनमें पहुॅचे। वहाँ अति शीघ्र ही उनकी उस भील से भेंट हो गई । भीलने अति शान्त-चित्त गुरुको नमस्कार किया। परन्तु वह जानना न था कि जिसका मैं गुरु मानता हूँ वह द्रोणाचार्य यही हैं और माया- वेप घर कर यहाँ आये हैं। इसके बाद वह गुरुके चरणों में बैठ गया । उस समय द्रोणने उससे पूछा कि तुम कौन हो ? और तुम्हारा गुरु कौन है ? इसके उत्तरमें वह द्रोणाचार्यको प्रसन्न करता हुआ मीठे वचनों में बोला कि मैं भील हूँ और नाना कलाओं के जानकार महान पुरुष द्रोणाचार्य मेरे गुरु हैं | उन्हीं प्रसादसे मैंने यह सब मनोरथों को साधनेवाली विद्या पाई हैं, और यदि मुझे उन महान् पुरुषका दर्शन मिले तो मैं अपना बड़ा भारी सौभाग्य मानूँगा । यद्यपि वह विशुद्ध आत्मा और समृद्धि-सिद्धि-बुद्धिसे युक्त मुझसे परोक्ष है तो भी इस समय मैं उन्हें भक्ति भावसे प्रत्यक्ष समझ कर ही आराघता हूँ । भक्तिबलसे वह हमेशा ही मेरी दृष्टिके सामने रहते हैं । मैं उन्हें कभी भी नहीं भूलता हूँ। यह सुन कर द्रोणने कहा कि किरात, यदि इस समय नाना लक्षणोंसे लक्षित उन द्रोणाचार्यको तुप प्रत्यक्ष देख पाओ तो उनके प्रति तुम कैसा व्यवहार करो ! इसके उत्तर में किरात चोला कि यदि मैं इस समय उन्हें प्रत्यक्ष देखें तो मैं अपनेको निछावर कर सब प्रकार उनकी सेवा करूँ । मुझमें और कुछ परोपकार करनेकी सामर्थ्य तो नहीं है, इस लिए मुझ सरीखे शक्ति-हीनों के लिए गुरुसेवा ही पर्याप्त है, बस है । इस पर द्रोणने कहा कि तुम द्रोणके कुछ लक्षणोंसे उसे
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जानते हो । उत्तरमें किरातने कहा कि हाँ, मैं उन्हें पहिचानता है। तव द्रोण बोले कि सारे-संसारका हितैषी, विद्वानों द्वारा मान्य और मनोहर मैं ही तुम्हारा गुरु द्रोणाचार्य हूँ। यह सुन कर भील बहुत ही खुश हुआ। उन्हें अपने गुरु जान कर । उसका मुख-कमल खिल उठा और उसने द्रोणको पृथ्वी तक मस्तक झुका कर साष्टांग प्रणाम किया। सो ठीक ही है कि इष्ट वस्तुके चिरकालसे मिलने पर सभी को भीति होती है । उस विनयीने गुरु द्रोणाचार्यका खूब विनय-सत्कार किया। सच है कि गुरुके मिलने पर सभी बुद्धिमान् उनका विनय करते हैं ।
इसके बाद द्रोणने उस भीलसे पूछा कि तुम कुशल तो हो न ? वह बोला, कि नाथ, तुम्हारे प्रसादसे मैं कुशल हूँ। मुझे किसी तरहका कष्ट नहीं है । गुरुके समागमसे मैं बहुत ही प्रसन्न हूँ। इस पर वह न्याय-मार्ग-पारंगत और वाग्मी द्रोण बोल कि किरात, तुम वनवासी हो, विन-समूहके विघातक हो, मेरी सेवा-विधिक ज्ञाता हो, मेरी आज्ञाके प्रतिपालक हो, तुम्हारे समान इस भूतल पर मैंने आज तक कोई भी विद्यार्थी नहीं देखा है । तुम बड़े ही अच्छे मालूम पड़ते हो । देखो, मैं यहाँ तुमसे एक याचना करनेके लिए आया हूँ। यदि तुम देना स्वीकार करो तो यात्रु; क्योंकि याचनाका भंग बहुत ही दुःखदाई होता है । यह सुन भील काँपता हुआ और मनमें विस्मय करता हुआ वोला कि स्वामिन् , यह आप क्या कहते है ! मैं तो सर्वथा आपकी आज्ञाका पालक हूँ। मुझ शक्तिहीनके पास ऐसी कौनसी सम्पत्ति है जो आप जैसे पुरुषोंके लिए देय न हो। इस पर द्रोण बोले कि सुनो। मैं जो चाहता हूँ वह देय. वस्तु तुम्हारे पास है। यदि देनेकी इच्छा हो तो वचन दो । फिर मैं यात्रु । भील बोला कि मैं सब कुछ आपको देनेको तैयार हूँ। आप प्रसन्नताके साथ मॉगिए । द्रोणने कहा कि बस, मैं यही चाहता हूँ कि तुम अपने दाहिने हाथके अंगूठेको जड़से काट कर मुझे दे दो। यह सुन कर भक्तिके वश हो गुरुकी आज्ञाके प्रतिपालक और उनके गुणों पर मुग्ध उस भीलने अपने दाहिने हाथके अँगूठेको काट कर गुरुको सौंप दिया। सच है कि अँगूठे हीकी क्या वात है तो भक्त लोग, भक्तिके वश हो कर अपना जीवन भी दे डालते है । उसके अँगूठेको कटवा कर द्रोणाचार्यने अपने उसी उद्देश्यको जिसके लिए कि उसका अँगूठा कटवाया था, उस भीलके सामने कहा कि दाहिने हाथके अंगूठेके विना कोई भी धनुषको नहीं चढ़ा सकता, अतः इसके द्वारा जो जीवोंके वधसे बड़ा भारी पाप होता था. वह
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अव न होगा। इसके बाद उन्होंने यह सोच कर कि पापी पुरुषों के लिए शब्दावेधिनी-विद्या नहीं देना चाहिए, पार्थको वह विद्या पूर्ण रीतिसे सिखा दी।
इसके बाद पार्थके साथ वह अपने नगरको चले आये और सुख-शान्तिसे उत्तम उत्तम चीजोंमे उत्पन्न हुए भोगोंको भोगने लगे; आनंद-चैनसे अपना समय विताने लगे। इसी तरह भीतरसे विरोध रखनेवाले पर बाहिरसे मीठे मीठे बोलनेवाले नाना कला-कुशल कौरव-पांडव भी वहीं रह कर सुखसे काल विताने लगे।
भीमके शरीरकी फान्ति सोनेके जैसी थी। बड़े बड़े विनोंका वह निवारक था। उसके लिए विष अमृत और सॉप सर्प-कंचुकीके जैसा निस्सत्व हो गया था । एवं अथाह गंगाका जल भी उसके लिए जॉघों गहरा रह गया था । यह सब पुण्यका ही महत्व है । देखो, जिसके पुण्यका जोर होता है उसके लिए सुतरां ही सब अच्छे अच्छे निमित्त आ मिलते हैं और सम्पत्ति उसका पीछा नहीं छोड़ती।
___ वह अर्जुन संसारसे सुशोभित हो जिसकी कीर्ति दिगन्त-व्यापिनी है, जो उपमा-रहित है, अनोंको दूर करनेवाला और उत्तम अभिप्रायवाला है, जो सत्पथगामी और सव कामोंमें हमेशा एक मनोरथसे चलता है। अत एव जो समर्थ, धनुर्धरोंमें मुख्य और धर्म-बुद्धिका धारक है, जो धर्म-धनुष द्वारा वैरियोंका ध्वंस कर चुका है, जिसका कोई भी वैरी नहीं है और जो प्रमाण-प्रसिद्ध पदार्थों पर विश्वास करता है।
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बारहवाँ अध्याय |
उन पद्मप्रभ जिनदेवको मेरा प्रणाम है जो लक्ष्मीके दाता है, जिनका शरीर लाल कमलके जैसी कान्तिवाला है, जिनके वक्षःस्थलमें लक्ष्मीका
निवास है और केवलज्ञान होनेके बाद विहारके समय जिनके चरण-कमलोंके नीचे देवता- गण कमल (की रचना करते हैं ।
इसके बाद श्रेणिक महाराजने गौतम भगवानको पूछा कि प्रभो, जिस समयकी यह कथा है उस समय यादवोंके कैसी विभूति थी और वे कहाँ रहते थे । इसके उत्तरमें गौतम स्वामीने अपनी गंभीर ध्वनिसे कहा कि श्रेणिक, अब यादवों का पवित्र चरित कहा जाता है । उसको तुम सावधान चित्तसे सुनो।
एक दिन अंधकवृष्टिने संसारसे विरक्त होकर अपने वडे पुत्र समुद्रविजयको सव राज्य सौंप दिया और आप गुरुके निकट जा दीक्षित हो गया । राज्य अब जयी समुद्रविजय करने लगा ।
समुद्रविजयके छोटा भाई वसुदेव था । एक दिन वह गंघसिन्धुर नामके हाथी पर सवार हो, सेना सहित उत्सवके साथ क्रीड़ा करनेके लिए वनको गया । उसके ऊपर चमर ढुल रहे थे और भाँति भाँति के भूषणोंसे विभूषित, स्वभाव - सुन्दर उसके शरीरकी अपूर्व ही शोमा थी । उसे देख कर शहरकी कामिनियाँ बहुत व्याकुल हुई । उसके सौन्दर्य पर मुग्ध होकर वे अपने घर गिरस्तीके कामोंको छोड़ कर उसको देखनेके लिए बाहिर आ गई । और तो क्या, वे उसे जब आता सुन पातीं तभी अपने पति देवोंको भोजन आदि करते और बाल-बच्चोंको दूध पीते छोड़ कर बाहिर भाग आती थीं । यह हाल देख कर शहरके लोगोंने राजासे प्रार्थना की और राजाने भी उनकी प्रार्थना पर उचित ध्यान देकर अवसे घरके बगीचेमें ही क्रीड़ा करनेका प्रबंध कर कुमारको उद्यान जानेसे रोक दिया ।
एक दिन कुमार अपने चागमें क्रीड़ा कर रहा था । इसी समय निपुणमति नाम नौकरने आकर राजकुमारसे वन जानेसे रोके जानेकी बात कह दी । सुन कर उससे वसुदेवने पूछा कि मुझे वन जानेसे किसने रोका है ? उत्तरमें उसने कहा कि प्रभो, जिस समय आप वनको जाते
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बारहवाँ अध्याय। हुए शहरसे निकलते हैं, उस समय आपके रूप-सौन्दर्यको देख कर शहरकी नारियोंका चरित्र शिथिल हो जाता है । वे कामदेवका ग्रास बन जाती हैं और लान-शर्म छोड कर विपरीत चेष्टायें करने लगती हैं। कन्या, सधवा और विधवा सभी ऐसी देख पड़ने लगती हैं मानों उन्होंने मदिरा ही पीली है । यह देख कर शहरके लोगोंने राजासे प्रार्थना की और राजाने ही उनकी प्रार्थना परसे आपको उद्यान जानेसे रोक दिया है।
निपुणमतिके इन वचनोंसे वसुदेवने अपने आपको बन्धनमें पड़ा समझा। इसके बाद एक दिन रातको किसी विद्या साधनेके बहानेसे घोड़े पर चढ़ कर राजकुमार नगरसे वाहिर निकल गया। • वह वहॉसे सीधा मसान भूमिमें पहुंचा । वहाँ उसने एक मुर्देको अपने सब वस्त्र-आभूषण पहिना दिये और वाद उसे जला कर आप . आगे चल दिया। धीरे धीरे वह विजयपुर पहुंचा । वह बहुत थक गया था, इस लिए अपनी थकावट दूर करनेको वहाँ एक अशोक वृक्षके नीचे बैठ गया।
वहाँ मगध देशके राजाकी ओरसे एक भील रहता था। दैवयोगसे इसके वहाँ पहुँचते ही भीलको निमित्तज्ञानीके बताये हुए निमित्तकी सूचना मिली । अतः वह राजाके पास गया और उसने राजाको वसुदेवके आनेकी खबर की । राजा उसी समय वहॉ आया और वसुदेवको बड़े भारी ठाट-बाटके साथ नगरमें लिवा , ले गया । इसके बाद उसने उसके साथ अपनी स्तोमला नाम पुत्रीका ब्याह कर दिया । ब्याहके बाद कुछ दिनों तक कुमारने वहीं विश्राम किया । पश्चात वहॉसे चल कर वह पुष्परम्य नाम वनमें पहुँचा । वहाँ एक वनेले हाथीको मद-रहित कर-उसका मद उतार घर-वह आनंद-चैनसे उसके साथ क्रीडा करने लगा । वन-गजके साथ क्रीड़ा करता हुआ उसको देख कर एक विद्याधर विजयाई पर्वतके किन्नर गीतपुरमें ले गया। वहाँ अशनिवेग और पवनवेगाकी पुत्री श्यामाके साथ उसका ब्याह हो गया । श्यामाका दूसरा नाम शाल्मलिदत्ता भी था। श्यामाके साथ कामक्रीड़ा करता हुआ कुछ दिनों तक वह वहीं रहा; परन्तु एक दिन उसे वहाँसे रातके समय एक दुष्ट अंगारक नाम विद्याधर हर ले गया । यह देख श्यामा तलवार लेकर उसके पीछे पीछे भागी । तब अंगारक डरा और श्यामाके डरके मारे उसने वसुदेवको आकाशसे नीचे छोड़ दिया । यह देख श्यामाने पर्णलध्वी विद्या भेजी । उसने जाकर जिनदेवको
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पाण्डव-पुराण
हृदयमें धारण करनेवाले वसुदेवको नीचे गिरनेमें सहारा दिया, ताकि वह आसानीसे चंपापुरी तालाब में जाकर पड़ा - उसे कुछ भी तकलीफ न हुई । इसके बाद वह तालाव से निकल कर चम्पापुरीमें गया । वहाँ गंधर्वदत्ताका स्वयंवर था । गंधर्वदत्ता गानविद्यामें बहुत बढ़ी चढ़ी थी । स्वयंवरका हाल सुन कर वसुदेव भी तत्काल स्वयंवर मंडप में पहुँचा । वहाँ पहुँच कर उसने गंधर्वदत्तासे कहा कि सुपण्डिते, दोष-रहित, अच्छे तारोंवाली और ठीक प्रमाणकी बनी हुई एक वीणा दो, ताकि जैसी तुम चाहती हो मैं वैसी ही उसे बजा सकूँ । यह सुन उसने वसुदेवको तीन-चार वीणायें दीं, पर वसुदेवने उन सबमें कोई न कोई दोष बता कर वापिस लौटा दीं । तव गंधर्वदत्ताने उसे घोपवती नाम वीणा दी, जो बिल्कुल निर्दोष थी । उसे लेकर कुमारने बजाना शुरू किया और बड़े अभिमान के साथ उसने जैसा कि गंधर्वदर्त्ता चाहती थी वैसा ही बजा कर सुनाया । जिससे वह बहुत ही प्रसन्न हुई और साथमें वसुदेवके ऊपर तन-मनसे निछावर भी हो गई ।
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इस प्रकार कुमारके द्वारा जीती गई अपनी कन्याका चारुदत्तने उसके साथ ब्याह कर दिया । कुमार भी इस व्याहसे अतीव प्रसन्न हुआ । एवं विजयार्द्ध पर्वत पर उस पुण्यात्माने विद्याधरोंकी और सातसौ कन्याओंके साथ विवाह किया । सच है कि पुण्यका उदय होने पर संसारमें कुछ भी मिलना दुर्लभ नहीं रह जाता । वहाँसे चल कर वह अरिष्टपुर नाम नगरमें आया । यहाँका राजा था हिरण्यवर्मा और रानी थी पद्मावती । उनके रोहिणी नाम एक पुत्री थी । वह चाँदकी रोहिणी के तुल्य थी । वहाँ उसका स्वयंवर था और देश विदेश के राजा उसमें उपस्थित थे । वसुदेव भी उस स्वयंवरमें गया और अपने योग्य स्थान पर जाकर बैठ गया । इसके बाद रोहिणी स्वयंवर - मंडप में आईं और उसने सव राजोंको छोड़ते हुए चले जाकर वसुदेवको पसंद किया और बड़ी भारी उत्कंठा साथ उसीके गलेमें वरमाला पहिना दी । यह देख उन सब राजों में बड़ा क्षोभ मचा, युद्धकलामें समुद्रके जैसे उमड़नेवाले समुद्रविजय आदि सब राजा उस समय मान-मर्यादा छोड़ कर युद्धके लिए तैयार हो गये । इधर हिरण्यवर्मा और वसुदेव भी निकल कर मैदानमें आ डटे । इस समय समुद्रविजयको अपना परिचय देनेकी इच्छासे वसुदेवने वह वाण चलाया जिस पर वसुदेवका नाम लिखा था । उस बाणको देख कर समुद्रविजयने उसी समय युद्ध बन्द करवा दिया । इसके बाद वह अपने सब भाइयों सहित वसुदेवसे
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चारहवाँ अध्याय।
मिल कर परम भीतिको प्राप्त हुआ । पश्चात् सब भाइयोंने बड़े हर्षके साथ वसुदेवका व्याह-महोत्सव किया । अनन्तर प्रौढ़ रागरंगसे वे दोनों दम्पती सुखचैनसे सुख भोगने लगे।
एक दिन शुभ स्वमोंको देखनेके बाद रोहिणी देवीने शुक्र स्वर्गसे चय कर आये हुए एक उन्नत देवको गर्भ धारण किया और क्रमसे जब नौ महीना पूरे हो गये तब बलभद्र नामके नवमें वलदेवको जन्म दिया । बलभद्र रूपशाली और जगतको आनंद देनेवाला था। इसके बाद गंभीर आशयवाले वे सब यादव वसुदेव-सहित सुखसे मरीपुरमें रहने लगे।
एक दिन जरासिंघको देखनेकी इच्छासे विदांवर वसुदेव वीर कंसके साथ राजगृह नगर आया । वहाँ इसी समय जरासिंघने सव राजोंके लिए यह आज्ञा निकाली थी कि जो कोई नृपति सुरम्यदेशके पोदनापुरके राजा सिंहस्थको वॉध कर मेरे आगे ले आयगा उसे मैं कलिंदसेनाके गर्भसे उत्पन्न हुई जीवधशा नाम अपनी पुत्रीके साथ साथ आधे राज्यका स्वामी बना दूंगा । सारांश यह कि जो सिंहरथको पकड़ ले आयगा उसे मैं अपना आधा राज्य दूंगा और उसके साथ अपनी पुत्री भी व्याह दूंगा।
इस आज्ञाको पाकर और राजा लोग तो चुप-चाप अपने घर पर ही बैठे रहेकिसीकी हिम्मत सिंहरथको वाँध लानेकी न हुई । परन्तु वसुदेवसे न रहा गया । वह जरासिंघके आज्ञापत्रको पाते ही उसी समय कुछ सेनाको साथ लेकर कंस सहित वहाँसे निकल पड़ा और विधा-वलसे सिंहोंका स्थ बना, उस पर चढ़ वातकी वातमें उसने सिंहरथको बॉध लिया और लाकर जरासिंधको सौंप दिया। तब जरासिंघ अपनी प्रविज्ञाके अनुसार उसे कन्या और आधा राज्य देनेकी व्यवस्था करने लगा। परन्तु वसुदेवने पुत्रीको कुलक्षणा जान कर जरासिंघसे कहा कि शत्रुको मैंने नहीं बॉधा है। किन्तु वाँधा है मेरे इस मित्रने । इस लिए आप इसको ही पुत्री दीजिए । यह सुन जरासिंध मन-ही-मन सोचने लगा कि यह कौन है । इसका नाम क्या है और न जाने इसका कुल कैसा है । इसके वाद उसने कंससे पूछा कि तुम्हारे माता-पिता कौन हैं ? कंसने उत्तर दिया कि नाथ, मैं मन्दोदरीका पुत्र हूँ। यह सुन कर मरासिंधने मंदोदरीको बुलाया । वह अपने साथमें एक सन्दूक लेकर आई और उस सन्दूकको राजाके आगे रख कर बोली कि महाराज, यह यमुनाके प्रवाहमें वहता
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पाण्डव पुराण।
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हुआ आकर दैवयोगसे मेरे हाथ लग गया था और इसीमें मैंने इसे पाया था। इस लिए जन्म देनेवाली तो इसकी यही माता है, पर पालने-पोपनेके लिहाजसे देखा जाय तो मैं भी माता हूँ। मैने इसका कंस नाम रक्खा है । परन्तु । इस मंजूषामें इसके साथ एक पत्र और मिला था। उसके वाँचनेसे मालूम हुआ कि यह उग्रसेन राजा और पद्मावती , रानीका पुत्र है । मंदोदरीके अन्तिम वचनोंसे जरासिंधको संतोष हुआ और उसने हर्षित होकर उसे आधे राज्यके साथ अपनी कन्या ब्याह दी।
. ____ इसके बाद कंस, पितासे अपने वैरका बदला लेनेके लिए बहुतसी सेना सहित मथुरा आया और क्रोधके वश हो, माता-पिताको वाँध कर उसने शहरके 'दरवाजे में कैद कर दिया । कंसकी वसुदेव पर बड़ी भक्ति हो गई थी, अत एव उसने वसुदेवको अपने यहीं बुला लिया।
मृगावती देशमें दशार्ण नामएक नगर है । वहाँका राजा देवसेन था और उसकी रानीका नाम था धनदेवी । वह इन्द्रकी इन्द्राणी जैसी थी। उनके एक पुत्री थी। उसका नाम था देवकी । उसका कोयलके जैसा सुंदर स्वर था। वह बहुत ही अच्छा आलाप लेती थी। कंसने बड़े भारी आग्रहसे देवकी वसुदेवके लिए दिलाई थी।
___ इसके बाद क्रमसे वसुदेवके निमित्तसे देवकीके तीन बार दो दो करके छह पुत्र पैदा हुए; और वाद सातवाँ पुत्र कृष्ण पैदा हुआ।कृष्ण वड़ा पराक्रमी था। कृष्णका जन्म होते ही वसुदेव वलभद्रकी सलाहसे, कंसके भयके मारे, गोकुलमें नंदगोप और यशोदाके यहाँ गये और वहाँ कृष्ण नारायणको इस लिए छोड़ आये कि जिसमेंनिर्भीकतासे उसका पोषण हो । कृष्णका नंदगोपके यहाँ बड़ी अच्छी तरह पालन होता रहा । वह थोड़े ही दिनमें खूब हुशियार हो गया। वह बहुत ही बुद्धिमान था। इसके बाद वह चाणूर और कंसका निग्रह करके पूर्ण सुखके साथ रहने लगा।
___ रूपाचल पर्वत पर एक स्थनूपुर नाम पुर है । वहाँका सुकेतु नाम राजा था । उसकी प्रियाका नाम था स्वयंप्रभा । वह सुकेतुको वहुत ही प्यारी थी और अपने रूप-सौन्दर्यसे खूब सुशोभित थी । उसके एक पुत्री थी । उसका नाम था सत्यभामा । वह सुभामा थी-सुन्दर कान्ति और श्रीवाली थी । वह अपने रूपसे इन्द्राणीको भी नीचा दिखाती थी । उसको ऐसी सुन्दरी और कान्तिवाली देख कर उसके पिता सुकेतुनें
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बारहवाँ अध्याय।
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निमित्तकुशल नाम निमित्तज्ञानीको पूछा कि सत्यभामा किसकी वल्लभा होगी। नैमित्तिकने उत्तर दिया कि वह तीन खंडके स्वामी कृष्ण नारायणकी पट्टरानी होगी। यह जान कर सुकेतुने दूतके हाथ भेंट वगैरह भेज कर सत्यभामाका कृष्णके साथ व्याह कर दिया। इसके बाद वह तो ससारसे विरक्त हो गया और कृष्ण नारायण सत्यभामाको पाकर सांसारिक सुख भोगने लगा।
इसी समय उग्रसेन राजाको मथुराका राजा बना कर कृष्ण-सहित सबके सब यादव सौरीपुर चले आये।
इसके बाद जीवधशा नाम अपनी पुत्रीके मुंहसे राजगृहके राजा जरासिंधने जव कंसका मरण सुना तब उसे यादव लोगों पर बड़ा भारी क्रोध आया । उसने उसी समय यादवोंके साथ युद्ध करनेको अपने पुत्रोंको भेजा । परन्तु वे यादवोंके दैव और पौरुपके मामने ठहर न सके-सब नष्ट हो गये। यह देख कर जरासिंधक क्रोधका कुछ पार न रहा । तब उसने तीनसौ छियालीस योधाओंको साथ देकर, यादवोंको तहसनाश करनेके लिए, अपराजित नाम अपने बड़े पुत्रको भेजा। लेकिन यादवोंकी शरताके सामने उसकी भी कुछ न चली-वह भी युद्ध-स्थलकी वलि हो गया । इस दुःख-मय समाचारको सुन कर तो वह दुद्धर्ष वीर स्वयं ही फवच वगैरह पहिन कर तैयार हुआ और यादवोंके साथ लड़नेको गया । कंसको आया सुन कर यादव लोग बड़े डरे और वे सौरीपुर तथा मथुराको भाग गये । यह देख जरासिंघने उनका पीछा किया, परन्तु देवोंने मायाके द्वारा जरासिंधको तो पीछा लौटा दिया और यादवोंको पच्छिम दिशामें सुदूर समुद्रतट पर भेज दिया।
इसके बाद मनस्वी कृष्ण नारायणने समुद्र मार्ग पानेकी इच्छासे जैसी विधिसे होने चाहिए, आठ उपवास किये । पुण्योदयसे उसके पास नैगम नाम एक देवने आकर कहा कि भोगियों-साँपों-को मर्दित करनेवाले निर्भय प्रभो, आप इस अश्व-भेष-धारी देव पर सवार होकर समुद्रमें जाइए वहाँ आपको स्थान मिलेगा । यह सुन कर नारायणने वैसा ही किया-वह समुद्रमें गया । उस समय समुद्रका जल उसके लिए स्थलके जैसा हो गया । सारांश यह कि समुद्रमें जहाँसे नारायण जाता था वहाँका जल इधर उधर दोनों ओरको हटता जाता था । नारायण शान्तिके साथ वहाँ पहुँचा जहाँ कि इन्द्रकी आज्ञासे कुबेरने नेमिनाथ प्रभु के लिए वारह योजन-अड़तालीस कोशकी-लम्बी-चौड़ी नगरी
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पाण्डव-पुराण। रची थी। कुवेरने नगरीके चारों ओर चमकते हुए रत्नोंका विशाल कोट और कोटमें सुन्दर थंभोंवाले दरवाजे बनाये थे और उसके चारों ओर खाई खोद दी थी। उस नगरीके भीतर देवतोंने प्रभुके वन्धु यादव राजोंके लिए सुन्दर महल बनाये और अन्य जनोंके लिए मकान वगैरहकी रचना की थी । कुवेरने कहीं तालाव, कहीं वावड़ियाँ और कहीं श्री जैनमन्दिरोंकी रचना की थी। वह नगरी समुद्र-रूप खाईसे वेदी हुई थी और नाना दरवाजोंसे युक्त थी । इस लिए उसकी द्वारिका नामसे प्रसिद्धि हुई । वह इन्द्रपुरीके जैसी देख पड़ती थी । बल्कि वह अपनी सम्पत्तिसे उसको भी नीचा दिखाती थी । वहाँ देवतोंके बनाये हुए महलोंमें समुद्रविजय आदि यादव राजा कृष्ण सहित आनंद-चैनसे रहते थे। वहाँ सुखपूर्वक रहनेवाले समुद्रविजयकी अपूर्व ही शोभा थी । वह विजेता था, किसीके द्वारा जीता नहीं जाता था, जितेन्द्रिय और मान-मत्सर-रहित था, विशुद्ध था, धर्मबुद्धि था, धीर था, विद्वान् था, देवता-गण द्वारा सेवित था, संतोषी था, धर्म-कर्ममें लीन था, समृद्धिशाली था, पृथ्वीका पति था, भोगी और भव्यात्मा था, संसारके शत्रु जिनदेवका पूरा भक्त था, आदर योग्य था, पृथ्वीका पालक था, और कान्तिशालियोंका भूषण था । उसकी जाया थी शिवादेवी । वह सारे संसारको आनंद और दान देनेवाली थी, चतुरा थी और निर्मल बुद्धिवाली थी। कामदेवने उसे रति समझ कर अपना आवास बना लिया था। वह रति-प्रदा थी-अपने पतिको खूब रमाती थी । वह सुन्दरियोंका भूषण थी
और ज्ञान-समुद्रके पार पहुंची हुई थी । उसका स्वर तो इतना अच्छा था कि उसके सामने कोयलका स्वर भी अच्छा नहीं मालूम पड़ता था । मानों इसीलिए कालेपनेको स्वीकार कर विचारी कोयले वनमें जाकर. रहने लगी हैं;
और है भी ठीक कि दूसरों द्वारा जीते गये हुओंकी ऐसी ही गति होती है। . ___उसके चरण-कमलोंको देख कर कमलोंको इतनी लज्जा हुई कि वे जाकर जलमें रहने लग गये । सच है कि लज्जाके मारे ही लोग जड़ोंकी संगति करते हैं; जैसे कि कमलोंने जड़ (जल) की संगति की है । उसके उरुस्थल केलेके थंभोंकी नॉई सरस और कोमल थे । वे ऐसे जान पड़ते थे मानों कामदेवके महलके लिए सुस्थिर खंभे ही बनाये गये हैं । उसकी नाभि बहुत ही गंभीर (गहरी) थी, कान्तियुक्त और सुहावनी थी । वह सरसी (तलइया) की समता करती थी । सरसीमें जल होता है, उसमें लावण्यरूप जल था ।
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सरसीमें आवर्त होते हैं, वह भी शंख, चक्र आदि चिह्न-रूप आवर्तवाली थी। सरसीमें मछलियाँ होती हैं, उसमें भी रोपराजि-रूप मछलियाँ थीं । सरसी हाथियोंकी केलिसे शोभित होती है, वह भी कामदेव-रूप हाथीकी केलिसे सुशोभित थी । उसके दुर्गम पहाड़ोंकी नॉई कुच थे । वे ऐसे जाने जाते थे कि मानों कामी पुरुषों के काम-भूपको रहने के लिए किले ही बनाये गये हैं । उसका मुख ठीक चन्द्रमाके समान था और उसके ललाटके ऊपरी भागमें सुन्दर बाल विखरे हुए थे; जान पड़ता था कि उसकी मुखच्छविको देख कर उसको असनेकी इच्छासे राहु ही आ गया है । उसके दोनों कान सोनेके भूषणोंसे विभूषित थे
और शास्त्र सुननेसे जो संस्कार होता था उसके सम्बन्धसे वे संस्कृत थे । इस तरह वे दम्पती आनंदसे सुख भोगते थे और अपनी उत्तम बुद्धिसे प्रभासुर हुए अपूर्व शोभा पाते थे।
एक समय सौधर्म इन्द्रने अवधिज्ञानसे जिनदेवके गर्भागमनको जान कर छह महीने पहलेसे ही रत्नोंकी वरसा करनेके लिए वहाँ कुवेरको भेज दिया। धर्मबुद्धि कुवेरने भी इन्द्रकी आज्ञानुसार प्रभुके गर्भमें आनेके छह महीने पहलेसे जन्म तक-पंद्रह महीने-वरावर रत्नोंकी वरसा की । आकाशसे गिरी हुई उन दिव्य रत्नोंकी वरसा ऐसी जान पडती थी मानों जिन-माताको देखनेके लिए स्वर्गकी लक्ष्मी ही आ रही है। या यों कहिए कि सारे आकाशको घेर कर पड़ती हुई वह रत्नोंकी वरसा ऐसी शोभती थी मानों जिनमन्दिरको देखनेकी इच्छासे ज्योतिषी देवतोंकी पंक्ति ही आ रही है । रत्नोंकी बरसासे, भगवानके महलका
आँगन परिपूर्ण हो गया था। उस महलके शिखरों पर सोनेके कलश जड़े हुए थे । उसे देख कर लोगोंसे यही कहते बनता था कि यह सब धर्मका फल है।
एक दिन शिवादेवी शय्या पर सुखकी नींद सोई हुई थी। रातका पिछला पहर था। उस समय उसने सोलह स्वप्नोंको देखा । वे स्वम ये थे । ऐरावत हाथी बैल-जो खूब मदोन्मत्त उन्मत्त स्कंघवाला और सुधाके पिंड जैसा सफेद था, चन्द्रमाकी छायाके जैसा मृगेन्द्र (सिंह)-जो छलांग मारता हुआ और जिसकी लाल कंधरा थी, लक्ष्मी-जिसका कि कमलयुक्त कुंभों द्वारा दो हाथी अभिषेक कर रहे थे; दो मालायें-जिन पर फूलोंकी सुगंधसे भौरे आकर गूंजते थे; चॉदै--जो तारोंसे युक्त और शिवादेवीके मुख-कमलके तुल्य था; सूरजजो अंधेरेको दूर करनेवाला और सोनेके. कलश सरीखा था। सोनेके दो कुंभ
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पाण्डव-पुराण. जो शिवादेवीके कुच कुंभोंकी नॉई उन्नत थे; दो मछलियाँ-जो ऐसी मालूम होती थीं कि शिवादेवीके विस्तृत नेत्र ही हैं। पांकर-(तालाव) जो कमलोंकी केसरसे पीला हो रहा था और चंचल तरंगोंसे परिपूर्ण था; समुद्र-जो गंभीर - शब्दमय था; सिंहासन--जो ऊँचे सुमेरु पर्वतके शिखरकी नाई उन्नत था; विमान-जो पुत्रके. प्रसूति गृहके तुल्य और विपुल श्रीका स्थान था; धरणेन्द्रका भवन--जो ऐसा जान पड़ता था मानों पृथ्वीको चीर कर ही वाहिर निकला है। रत्नोंकी रौशि-जो खजाने सी जान पड़ती थी और जो किरणोंके पूरसे भरपूर थी; अग्नि-जो निर्धूम थी और ऐसी मालूम पड़ती थी कि मानों पुत्रका प्रताप ही है । इसके बाद ही उसने एक हाथीको अपने मुंहमें प्रवेश करते हुए देखा।
इन स्वप्नोंको देखनेके वाद ही उसकी निद्रा तो भंग हो ही गई थी कि इसी समय प्रातःकालीन वाजोंकी और देवांगनाओं द्वारा गाये गये मंगल गीतोंकी सुंदर ध्वनि उसके कानों पड़ी। उसे सुन कर मंगलमयी शिवादेवी प्रबुद्ध हुई। उसे प्रबुद्ध देख देवाङ्गनाओंने उसकी स्तुति करना आरंभ किया कि हे मात:, जिस तरह तुम्हारे मुखकी प्रभासे मानसिक अँधेरा (अज्ञान) नष्ट हो जाता है उसी तरह रातके अँधेरेको नष्ट कर यह सूरज उदित हो आया है और तुम्हारे गर्भस्थ वालककी नाँई अपनी किरणोंको विस्तृत कर संसारको अवोध देता है। लोगोंको मार्ग सुझाता है।
देवी, तुम सैकड़ों कल्याणोंको प्राप्त करो और तुम्हारे लिए यह सुप्रभात शुभ हो । तुम उसी तरह पुत्रको जन्म दोगी जिस तरह कि पूर्व दिशा सूरजको जन्म देती है । तुम्हारा पुत्र तीन लोकको प्रकाशित करेगा । देवांगनाओंके इन मनोहर शब्दोंको सुन कर वालुके जैसी स्वच्छ रुईकी श्वेत-कोमल शय्या परसे शिवादेवी उठी। इसके बाद उसने स्नान आदि प्रभात-सम्बधी सब क्रियाएँ करके और दर्पणमें अपना मुँह देख कर वस्त्राभूषण धारण किये और वह सती समुद्रविजय महाराजके पास गई। उन्हें नमस्कार कर वह उनके साथ आधे सिंहासन पर बैठ गई । इस समय उसका मुख कमलके जैसा खिल रहा था। उसने हाथ जोड़ कर स्वमोंका सब होल महाराजसे कहा और उनसे उनका फल पूछा। उत्तरमें पुण्यात्मा समुद्रविजयने कहा कि मीति देनेवाली प्रिये, तुम ध्यानसे इन स्वप्नोंका फल सुनो । पहले स्वममें तुमने जो हाथी देखा है उसका यह फल •
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बारहवाँ अध्याय |
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है कि तुम्हारे पुत्र होगा। बैल देखनेसे वह संसार भर में श्रेष्ठ होगा। सिंह देखनेसे पराक्रमी, महान वीर्यशाली होगा । माला देखनेसे धर्म- तीर्थका प्रवर्तक होगा अभिषिक्त होती हुई लक्ष्मीके देखनेसे उसका सुमेरुके शिखर पर अभिषेक होगा । पूर्ण चाँद देखनेसे वह संसारको आल्हादित करेगा । सुरज देखने से दीप्तिशाली, भासुर होगा | कुंभ देखनेसे निधियोंका भोक्ता और मछलियाँ देखनेसे सुखी होगा | तालाव देखनेसे नाना लक्षणोंवाला और समुद्र देखनेसे केवलज्ञानी होगा । सिंहासन देखनेसें साम्राज्यका भोक्ता होगा । विमान देखनेसे वह स्वर्ग से आयगा । धरणेन्द्रका भवन देखनेसे अवधिज्ञानका धारक होगा । रत्नराशि देखनेसे गुणोंका आकर होगा । और निर्धूम आग देखनेसे वह कर्मोंको जलानेके लिए आगके तुल्य होगा । वह हाथीके आकारको लेकर तुम्हारे गर्भमें आवेगा और धर्म-रूपी समीचीन रथको प्रवर्तानेके कारण उसका अरिष्टनेपि नाम होगा ।
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इस प्रकार स्वमका फल सुन कर शिवादेवी बहुत हर्षित हुई। उसके रोमाश्च हो आये । हर्षसे उसका चित्त गद्गद हो गया। इसके बाद कार्तिक सुदी छटके दिन, पिछली रातमें, उत्तराषाढ़ नक्षत्र में, शिवादेवीने गर्भ धारण किया। उस समय प्रभुको गर्भ में आया जान कर अपने अपने चिन्ह सहित देवता गण आये और गर्भकल्याणकका उत्सव करके अपने अपने स्थानको चले गये । प्रभु जबसे गर्भमें आये तभी से लेकर इन्द्रकी आज्ञा से छप्पन दिक्-कुमारियों उनकी माताकी सेवा करती थीं । वे गर्भ-समयके योग्य क्रियाओं द्वारा सेवा करने में बहुत ही दक्ष थीं। श्रीदेवीने प्रभुकी माताको श्री दी और ही देवीने त्रपा ( लाज ) दी। धृति देवीने धैर्य दिया और कीर्ति देवीने कीर्ति दी। एवं बुद्धि देवीने बुद्धि दी और लक्ष्मी देवीने सौभाग्य दिया। सारांश यह कि उक्त छह देवियोंने मञ्जुकी माताको उक्त छह गुण दिये । इनके सिवा कोई शिवादेवीकी आँखों में अंजन ऑजती थी; कोई पान लगा कर देती थी; कोई मंगलगीत गाती थी; कोई उसके शरीरका संस्कार करती थी; कोई रसोई बनाती थी; कोई कोमल वस्त्रोंकी शय्या बिछाती थी; कोई उसके पाँव दावती थी; कोई उसके बैठने के लिए मनोहर सिंहासन पर गद्दी तकिया वगैरह डालती थी; कोई पुरंध्रीकी नॉई सुगन्ध द्रव्य चन्दन, कर्पूर वगैरहका लेप करती थी; कोई उसके आभूषणोंको लिए खड़ी हुई ऐसी मालूम पड़ती थी मानों दीप्तिके पूरसे विभूषित कल्पलता उसे भूषण ही दे रही है; कोई उसे रेशमी वस्त्र देती थी: कोई फूलोंकी गूँथी हुई मालाऍ देती हुई वेलसी जान पड़ती थी; कोई तलवार
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पाण्डव पुराण |
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उठाये हुए की माताके शरीरकी रक्षा के लिए उसके पास पहरा देती थी-वह ऐसी जान पड़ती थी मानों बिजली ही है; कोई चन्दनके जलसे मणिजड़ित भूतलको सींचती हुई ऐसी शोभती थी मानों चंदन वृक्षकी लता ही है; कोई भोग्य वस्तुओं को देनेवाली फूलोंके चौक पूरती थी; कोई पृथ्वीको सोधनेवाली भूमिको साफ करती थी- झाड़ती- चुहारती थी; कोई प्रभुकी माताको खाने के लिए अच्छे अच्छे सब प्रकारके पकवान मोदक, व्यंजन आदि देती; कोई उसके पॉव धोती थी; कोई मुँह देखने के लिए पृथ्वीतल पर आये हुए चन्द्रमाके जैसा उसे दर्पण देती थी; कोई हाथमें पुष्पोंकी माला लेकर प्रभुकी माताके आगे खड़ी हुई ऐसी शोभती थी मानों उसकी सेवा करनेको यहाँ किसी वृक्षकी शाखा ही आ गई है; कोई उसे मुकुट और कोई कुण्डल पहिराती थी; कोई उसके कंठमें हार पहिनाती हुई कल्पवृक्षकी शाखा जैसी शोभती थी; कोई पुष्पोंकी धूल ( केसर ) से भरपूर अत एव सोनेकी धूलसे धूसरित जैसी और जिस पर इधर उधर मोती विखर रहे हैं ऐसी पृथ्वीको साफ करती थी; कोई सुपारी, इलायची, लौंग आदि से सुसज्जित पान देती थी -- वह ऐसी जान पड़ती थी मानों नागवेल ही है; कोई स्वर्गकी गणिका उत्तम हाव-भावोंको दिखाती हुई उसके सामने नृत्य करती थी; कोई उसके मनको आनन्दित करती थी, कोई मनोहर कामधेनुका रूप धर कर प्रभुकी माताको उत्तम उत्तम वस्तु देती थी; कोई माताकी प्रीतिपात्र बनी हुई सुशोभित होती थी; कोई उसके शरीरकी रक्षा करती थी कोई उसके हाथसे वस्तु लेती थी; कोई उसके मनको पुष्ट करती - बढ़ाती थी; कोई उत्तम उत्तम वार्तालाप द्वारा उसके साथ विचार करती थी; कोई उसके मलको स्वच्छ करती थी; कोई उसके मोहभावको उत्तेजना देती थी; कोई चोर आदिके भयसे उसकी आत्माको छुड़ाती थी; कोई रातके समय दैदीप्यमान दीपकों द्वारा उसकी भक्ति करती थी; और कोई सुन्दर सुंदर वस्त्र प्रदान करती थी । तात्पर्य यह कि इन्द्रकी आज्ञासे सव देव- कन्याएँ जिनमाताकी नाना भॉतिसे सेवा-शुश्रूषा करती थीं। इसी प्रकार कुछ देवियों मनुष्यनीका रूप घर कर वहाँ आती और नाना तरहके हाव-भाव विलासके साथ नृत्य कर सब जनों को हँसाती और आनंदमें मन कर देती थीं। देवियाँ जिनमाताकी सेवामें इतनी लवलीन थीं कि वे जिस तरह बनता उसके चित्तको सदा ही खुश रखती थीं । वे कभी, जल-लीलासे और कभी नृत्यके हास-विनोदसे प्रभुकी माताके दिलको रमाती थीं; और शुद्ध मनवाली जिनमाता भी उनकी गीत -गोष्ठी में जाकर उन
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बारहवाँ अध्याय ।
१७९ देवियोंके साथ नाना तरहकी रस भरी बातें करती थी। शिवादेवीने इस तरहसे दिक्कुमारियोंके साथ बहुतसा काल बिताया । इस समय वह अपनी कान्तिसे चन्द्रमा की कलाके जैसी सुशोभित होती थी। इसी प्रकार आनंद- चैनसे धीरे धीरे आठ महीने बीत कर नौवाँ महीना लग गया । इस समय वे देवियाँ गर्भिणी जिनमाताको रस पूर्ण और उत्तम रचनावाले गद्य-पद्य सुनाती थी और उसका चित्त प्रसन्न करती थीं। इसके सिवा वे प्रभुकी मातासे गूढ़ अर्थवाले प्रश्न पूछती थीं और जिनमांता उनका उत्तर करती थी । किसीने पूछा कि हे माता,
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पुष्पावगुंठिता का स्यात्का शरीरपिधायिका । का देहदाहिका देवि, वदाद्याक्षरत पृथक् ॥ १ ॥
अर्थात- पुष्पोंसे गूँथी गई क्या चीज होती है ? शरीरको कौन ढँकता है ? और शरीरको क्षीण कौन करता है ? इन तीन प्रश्नोंके ऐसे उत्तर दीजिए जिनका पहला अक्षर ही केवल दूसरा दूसरा हो ।
उत्तर में माताने कहा --- खक् ( माला ) त्वक् ( खाल ), रुक् ( रोग ) । किसीने पूछा
संसारासुखच्छेवी को -- पादो भ्राम्यति स्वयम् । को दत्ते जनतातोप, पठाद्यव्यंजने पृथक् ॥ २ ॥
अर्थात्- सांसारिक दुःखों को दूर कौन करता है ? पैरों विना कौन चलता हैं ? और लोगोंको संतोष कौन देता है ? इन प्रश्नोंके ऐसे उत्तर कीजिए जिनका आदि व्यंजन ही केवळ दूसरा दूसरा हो ।
उत्तर में माता ने कहा- जिन ( अर्हन्त ), स्वन ( शब्द ), घन (मेघ ) । किसीने पूछा अच्छा माता
आद्यंतरहितः कोऽत्र कः कीलालसमन्वितः ।
वादुत्पद्यते कोsa, कथयाद्यक्षरै पृथक् ॥ ३ ॥
अर्थात् — इस लोक में आदि-अन्त रहित कौन है ? जल-युक्त क्या होता है ? और इसे क्या उत्पन्न होता है ? इन प्रश्नोंके ऐसे जवाब दीजिए जिनके पहले के अक्षर ही दूसरे दूसरे हों ।
उत्तर में माता बोली- संसार, कासार ( तालाव ), और व्याहार ( वचन ) । किसीने पूछा
नरार्थवाचक कोsa, कः सामान्यप्ररूपकः ।
का ते प्रथमे ख्याता, कीडशी त्वं भविष्यसि ॥ ४ ॥
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पाण्डव-पुराण । अर्थात-नर-पुरुष-अर्थका वाचक कौन है ? सामान्यको कहनेवाला कौन है ? पहले व्रतमें क्या माना गया है ? और 'तुम कैसी होओगी?
उत्तरमें माताने कहा-ना (शब्द ), क, दया और नाकोदया (स्वर्गसे ' चय कर आये हुए पुत्रवाली)। तात्पर्य यह कि 'त' शब्दकी प्रथमा विभक्तिका एक वचन 'ना' और 'क' शब्दका 'क' दोनों एकत्र लिखनेसे हुआ 'नाका'। फिर दया शब्दका 'द' आगे होनेसे 'क' के आगेवाले विसर्गका हो गया 'ओ' तब अन्तके प्रश्नका उत्तर 'नाकोदया। हो गया। किसीने पूछा
सुखप्ररूपकं किं स्या-त्का भाषा च कृपातिगा।
भुजप्ररूपकः कः स्या-त्कः सेन्यो जनसत्तमैः ॥५॥ अर्थात्-सुखका प्ररूपक कौन है ? कृपा-विहीन कौनसी भाषा होती है ? भुजाओंको कहनेवाला कौन है ? उत्तम पुरुष किसकी सेवा करते हैं ?
___ माताने उत्तर दिया--शम् , अदया (जो दया विना बोली जाती है), कर, और शमदयाकर (समताभाव और दयाका आकर)। किसीने पूछा-- . .
वित्तमरूपकं किं स्या-त्पदं संग्रामतः खलु । ___ का स्यात्संग्रामशूराणां, कः स्यादर्जुनपाण्डव ॥ ६॥
अर्थात्-चित्तको कहनेवाला कौनसा शब्द है ? योधाओंको युद्धसे कौनसा पद मिलता है ? और गर्जुनको क्या कहते हैं ?
माता वोली-धन, जय, और धनंजय । किसी देवीने पूछा
पानार्थे पिब को धातू-रक्षणार्थेऽपि को मत । क. सामान्यपक्षभ्यासी, कृशानुः कोऽभिधीयते ॥७॥ आद्यक्षरं विना पक्षी, कः को मध्याक्षरं विना।
भुक्त्यर्हः कोन्त्यमुन्मुच्य, सम्बुद्धिः पानरक्षणे ॥८॥ अर्थात्-पीने अर्थमें जिसका कि लोटके मध्यपुरुषके एक वचनमें पिव रूप होता है, कौनसी धातु है ! तथा रक्षण अर्थमें कौन धातु है ? और सामान्य पदको कहनेवाला कौन है ? तथा कृशानु किसे कहते हैं ? इन प्रश्नोंके ऐसे उत्तर दीजिए जिनका मिला हुआ पद पहले अक्षरके विना पक्षीका कहनेवाला हो,
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बारहवाँ अध्याय।
१८१ चिके अक्षर विना भोग्य पदार्थको कहनेवाला हो और अन्तके अक्षरको छोड़ देनेसे वही पीने और रक्षण अर्थमें जो धातुयें हैं उनसे निष्पन्न शब्दोंका सम्बोधनका रूप हो जायें।
उत्तर-पा, अर्व, क, पाचक, बैंक ( बगुला ), पाक, प, अव । किसीने पूछा
वसुसंख्या काप्त्यर्थधातुरूपं च किं लिटि।
किं कलत्रं सुवर्ण किं, के कैलाशं वदाशु भोः ॥९॥ अर्थात-वसुको कहनेवाली संख्या कौन है ? प्राप्ति-अर्थवाली धातुका लिट्में क्या रूप होता है ? स्त्रीलिंगका बोधक कौन है ? सोना और कैलाश किसे कहते हैं ?
माताने उत्तर दिया-अष्टे, आप, टाप, अष्टापद, अष्टापद । किसीने कहा
कि निश्चयपदं लोके, कस्तिरचा लघुर्वद।
शुभ. को मोक्षसिद्धयर्थ, को भवेत् सर्वदाहकः ॥१०॥ अर्थात्-निश्चयवाचक पद कौन है ? तिर्यश्चोंमें छोटा कौन है ? मोक्ष सिद्धिके लिए उपयुक्त कौन है ? और सबको जलानेवाली क्या चीज होती है ?
उत्तरमें माताने कहा--, श्वा (कुत्ता), नर (मनुष्य ), वैश्वानर ( आग )। किसीने पूछा--
कृष्णसंबोधनं किं स्या-त्किं पदं व्यक्तवाचकम् । के गर्वाः को विधीयेत, वादिभिर्निगमश्च कः॥११॥
प्रसिद्धोऽथ भुजगेशाह, कारवादकस्तु कः। अर्थात्-कृष्णका सम्वोधन क्या होता है ? व्यक्तको कहनेवाला पद कौनसा है ? गर्व कौनसे हैं ? वादी लोग क्या करते हैं ? प्रसिद्ध निगम ( गॉव) कौनसा है ? भुजंगेश और अहंकारको कहनेवाले कौनसे शब्द हैं ?
माताने उत्तर दिया-अ, हि', मैदा (आठ मदः), चाँद, अहिमैदावाद, अहि, मंद।
इनके सिवा देवियाँ और भी क्रियागुप्त आदिके प्रश्न करती थीं और माना उनका उत्तर देती थी, एकने पूछा कि--
रम्यं काय (१) फलं मातः, सर्वेषां तोषदायकं । जिनचक्रिवलादीना, पदस्य सकलोलतेः॥१॥
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पाण्डव-पुराण । ___ अर्थात्-जिन, चक्रवर्ती बलभद्र आदि सवको पूर्ण उन्नतिके पदका सन्तोष देनेवाला रमणीय फल क्या है, सो कहो। ,
माताने उत्तर दिया, अमृत--मोक्ष ।
इनमें कोई मातासे विन्ती करती थी कि माता, तुम लोगोंके पाप-समूहको दूर करो। वह उन्हें बहुत दुःख देता है और उनकी आत्माको चन्द्रमाको ग्रसनेवाले राहुकी भाँति ग्रसता है। कोई माताका जयजयकार बोलती थी कि सुहावने मुँहवाली माता, तुम्हारी जय हो, देव और जगतके स्वामी पुत्रको पैदा करनेवाली, तीन लोककी सारी स्त्रियोंके रूपकी सीमा तथा कोयलके जैसे कंठवाळी हे माता, तुम जयवन्त रहो।
इस प्रकार देवियोंने जिनमातासे गूढ़ अर्थवाले बहुतसे प्रश्न किये और माताने उनका अति शीघ्र और उचित उत्तर किया । उसकी बुद्धि स्वभावसे ही नाना प्रश्नोंके उत्तर करनेको समर्थ थी । वह प्रभुको गर्भमें लिये ऐसी शोभती थी जैसी कि मणियोंके द्वारा हारलता शोभती है। स्वभावसे ही तेजशाली उसके शरीरकी शोभा गर्भके तेजसे और भी बढ़ गई थी; जैसे कि स्वभावसे कान्तिमय खानकी शोभा रत्नोंकी कान्तिसे और भी बढ़ जाती है । गर्भके निमित्तसे उसे कभी स्वममें भी कोई दुर्बह पीड़ा न हुई । ठीक ही है कि क्या मनोहर दर्पणमें पड़ा हुआ आगका प्रतिविम्ब उसे जला सकता है ? उसका गर्भ दुर्बह नहीं हुआ था । न उसकी त्रिवलीका भंग हुआ था और न उसके कुचोंके चूचक काले पड़े थे, न उसका मुँह पीला हुआ था और न उसे आलस ही आता था। उसकी हंसके जैसी पहले गति थी वैसी ही अब थी; उसमें कुछ भी फर्क नहीं हुआ था । तात्पर्य यह कि दुःखकी वात तो दूर रही, पर ज्यों ज्यों उसका गर्भ बढ़ता जाता था त्यों त्यों वह उसके लिए सुखकर होता जाता था।
इस प्रकार धीरे धीरे आनंद-चैनसे जब नौ महीना पूरे हो गये तव सावन सुदी छटके दिन, चित्रा नक्षत्रमें, उस महादेवी शिवादेवीने पुत्र-रत्नको जन्म दिया: जैसे पूर्वदिशा सूरजको जन्म देती है । पुत्र जन्मसे ही तीन ज्ञानका धारक था और गुणोंका पुंज था। प्रभुके जन्म-समय मंद मंद सुगन्धित वायु चल रही थी। पृथ्वी धूल-रहित दर्पणकी नॉई निर्मल हो गई थी। खिले हुए नील कमल उसके रोमाञ्चके जैसे जान पड़ते थे । भगवानका जन्म होते ही एकाएक देवतोंके आसन कंपित हो उठे । उनके मुकुट अपने आप नम गये । एवं बिना बजाये ही
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बारहवाँ अध्याय |
१८३ कल्पवासियों के यहाँ घंटोंका नाद, ज्योतिषियों के यहॉ सिंह - नाद, व्यन्तरोंके यहाँ दुंदुभियोका शब्द और भवनवासियों के यहाँ शंख नाद होने लगा । जिसको सुन कर उन्होंने प्रभुके जन्मका निश्चय किया और वे बड़े भारी हर्षित हुए ।
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इसके बाद इन्द्रकी आज्ञासे सब देवगण इन्द्रके साथ साथ अपने अपने वाहनों पर सवार होकर स्वर्ग से आकाश मार्ग द्वारा पृथ्वीतल पर उतर कर द्वारिका में आये । इस समय उनके आनंदका कुछ पार न था । वहाँ आकर इन्द्रकी आज्ञासे गुप्त भेपमें इन्द्राणी प्रसूति गृहमें गई और वहाँ प्रभु सहित शिवादेवीको देख कर उसने उन्हें नमस्कार किया । इसके बाद वह प्रभुको सतृष्ण लोचनों से निरखती हुई जिन-जननीके सामने खड़ी हो गई । और जिनमाताके पास एक मायाभय चालकको सुला कर उसने प्रभुको गोदमें उठा लिया और उन्हें वह वाहिर इन्द्रके पास ले आई। मञ्जुको लाकर उसने घड़ी भारी भक्ति और प्रीतिसे इन्द्रकी गोद में दे दिया । इन्द्र प्रभुको गोदमें ले सुमेरु पर्वत पर ले गया । वहाँ उसने पांडुकवनकी पांडुकशिला पर जो अनादिसे एक सिंहासनके जैसी है, विराजमान कर क्षीरसागरके जलसे भरे हुए सोनेके एक हजार आठ कलशो द्वारा प्रभुका अभिषेक किया । अभिषेकके बाद प्रभुके गंधोदकको अपने अपने मस्तक पर चढ़ा सव देव- गण पवित्र हुए। उन्होंने प्रभुके स्नानके जलसे अपने कर्म कलंकको वहा दिया । अनन्तर इन्द्राणीने मधुके शरीरको पोंछ कर उन्हें दिव्य वस्त्र और आभूषण पहनाये । इस समय प्रभुके शरीरका सौंदर्य इतना बढ गया था कि इन्द्राणी उसको देख कर तृप्त ही नहीं होती थी ।
इसके बाद इन्द्राणी के साथ इन्द्रने प्रभुकी स्तुति करना आरंभ की कि प्रभो, आप स्वेद-रहित हैं, मल-रहित निर्मल हैं, विपुल हैं, आपका रुधिर दूधके जैसा सफेद है, आपके पहला संस्थान और पहला संहनन है और आप सार्वोत्तम हैं । तात्पर्य यह कि आपको सव मोक्ष-सामग्री प्राप्त है। स्वामिन्, आपका शरीर सुन्दरतासे परिपूर्ण है, नाना तरहकी सुगन्धिसे विभूषित है तथा एक हजार आठ लक्षणोंसे युक्त है । प्रभो, आप उपमा-रहित निरुपम हैं, वीर्यके भंडार हैं, हित, मित और प्रिय वचनोंके बोलनेवाले हैं, अतः प्रभो आपको मैं नमस्कार करता हूँ । आप शिवादेव पुत्र हैं और दस अनोखी बातों - अतिशयों से सुशोभित हैं, अरिष्ट-समूहको दूर करनेवाले हैं और कल्याण -रथकी धुरा हैं; अतः हे प्रभो, मैं आपको नमस्कार करता हूँ । इस तरह प्रभुकी स्तुति कर इन्द्रने खूब ताण्डव नृत्य किया ।
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पण्डिव-पुराण
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इसके बाद वह प्रभुको गोदमें लेकर देव-गणके साथ वापिस द्वारिकाको चला आया। वहाँ आकर उसने देवोंके देव और जगत्पूज्य प्रभुको उनके माता-पिताको सौंप कर उनके आँगनमें खूब नृत्य किया। इसके बाद वह भाँति भॉतिकी निर्मल भोग-सम्पदाकी योजना कर और प्रभुकी रक्षाके लिए देवोंकों नियुक्त कर स्वर्गको चला गया।
इधर देवों द्वारा सेवित नेमिप्रभु कला और कान्तिसे बढ़ने लगे । वे मनोहर थे, श्रेष्ठ और संसारके बन्धु थे--जिस तरह चॉद समुद्रको वृद्धिंगत करता है उसी तरह वे भी संसारमें सिद्धिको वृद्धिंगत करते थे । प्रभुके साथ देव-गण बच्चोंको सा रूप धर-धर कर खेलते थे और उन्हें जिस तरह होता खुश रखते थे । प्रभु जब लड़खड़ाते हुए पृथ्वी पर चलते तब बहुत ही सुशोभित होते और महाराज उन्हें देख कर अति हर्षित होते थे। प्रभु विनोद करते हुए अपने अंगूठेको मुँहमें दे लेते थे और उससे अमृतमय आहारका स्वाद लेते थे।
इसके बाद भभुके पॉच कुछ जमने लगे; वे अच्छी तरह दृढ़तासे पॉव जमाकर सुन्दर चालसे चलने लगे । प्रभुका मुँह पूर्ण चॉदसे भी सुन्दर था, नेत्र कमलके जैसे थे । कान कुण्डलोंसे सुशोभित थे । प्रभुका मस्तक (ललाट ) खूब विशाल था। उनके वाहु (हाथ) कल्पक्षकी नॉई मनोरथोंके साधक थे। उनका वक्षस्थल रक्षाके लिए पूर्ण समर्थ था । वह अंजन पर्वतके तट जैसा था। उनकी नाभि सुहावनी और गंभीर थी । कटिभाग करधौनीसे सुशोभित था । उनके उरु स्तंभके समान थे । जाँघे सुन्दर हाथीकी रॉड़के जैसी और विनोंको हरनेवाली थीं । कमल जैसी आभावाले उनके पॉच पापको हरनेवाले थे । उनके नख नक्षत्रके जैसे चमकते हुए थे । वे प्रभु महान् पांडित्य-पूर्ण, अतुल ऐश्वर्यके धारक और अनुपम प्रभा-मंडलसे शोभमान थे । वे श्री नेमि जिनेश्वर संसारकी रक्षा करें।
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तेरहवाँ अध्याय ।
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तेरहवाँ अध्याय ।।
-+are . उन सुपार्थ प्रभुकी मैं स्तुति करता हूँ जो जीवोंका हित करनेवाले हैं,
जिनके प्रभावसे जाति-विरोधी जीव भी अपने वैर-विरोधको छोड़ कर मित्र वन जाते हैं और जिनके चरण-कमलोंमे साथियाका चिन्ह है । वे मुझे संसारसमुद्रके पार पहुंचा।
एक समय यादव-गण अपनी सभामें बैठे हुए थे, इतनेहीमें वहाँ नारदजी आ गये । उन्हें आया देख कृष्ण आदि सव यादव-गण उठ खड़े हुए और सबने उनका स्वागत कर विनीत भावसे उन्हें नमस्कार किया । इसके बाद वे महलमें सत्यभामाके पास गये । सत्यभामाने उनका यथोचित आदर नहीं किया। इससे असन्तुष्ट हो वे एकदम कुंडिनपुरको चले गये । वहाँ पहुँच कर उन्होंने भीष्म और श्रीमतीकी पुत्री, रुक्मीकी छोटी बहिन रुक्मिणीको देखा । उसे देख कर वे मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए । वहाँसे वे फिर कृष्णके पास द्वारिका आये । यहाँ आकर उन्होंने रुक्मिणीकी सारी कहानी कृष्णको सुनाई, जिससे कृष्णके हृदयमें उसके प्रति राग हो गया और वह उसे चाहने लगे । यह वात बल्देवके कानमें पहुंची । उनने कृष्णको कुंडिनपुर जानेकी प्रेरणा की । कृष्ण उन्हें साथ लेकर कुंडिनपुर पहुँचे । कृष्ण चलते समय अपनी सब सेनाको भी कुंडिनपुर आनेका आदेश कर गये थे, अतः उनकी सेना भी अति शीघ्र ही वहाँ पहुँच गई । उधर रुक्मीने पहले हीसे शिशुपालको रुक्मिणी देनेका वचन दे रक्खा था, अतः शिशुपाल पहलेसे ही कुंडिनपुर घेरे हुए था। ___इन्हीं दिनों एक दिन सोनेके जैसी आभावाली रुक्मिणी नागदेवकी पूजाके लिए नाग-मन्दिरको गई हुई थी। वहाँ उसे कृष्ण नारायणने हर लिया; और इसकी उसने शंख-ध्वनि द्वारा औरोंको भी सूचना कर दी। इसके बाद ही कृष्ण
और बलदेव दोनों भाई वहॉसे चल दिये.। उन वीरोंके चलनेसे पृथ्वी भी चलती हुई सी जान पडती थी। उधर जव शंख-ध्वनिसे रुक्मिणीके हरे जानेकी रुक्मी और शिशुपालको सूचना मिली तब वे दोनों भी बहुतसी सेनाको साथ लेकर कृष्ण और पलदेवके साथ युद्ध करनेको निकले । इधर द्वारिकासे आई हुई कृष्णकी सेना पहले से ही तैयार थी, अतः कृष्ण और वलदेवके साथ उन दोनों मतवालोंका युद्ध छिड़ ही गया। दोनों ओरके योधा खूव ही वीरतासे शत्रु-दलके योधाओंको
पाण-पुराण २४
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ललकार कर वाण छोड़ते थे । सबने दृढ़ता से युद्ध कर अपनी मृत्यु निश्चित कर रक्खी थी; कोई भी पीछे पाँव देने को तैयार न था । इसी समय युद्ध करता हुआ रुक्मी कृष्ण के सामने आ गया । रुक्मिणीने यह देख कर अपने पिताका कृष्णको परिचय दिया । फल यह हुआ कि उसको रुक्मिणीके आग्रह से कृष्णने मारा तो नहीं; परन्तु नागपाशसे वाँध कर अपने रथमें डाल दिया | इसके बाद सैकड़ों अपराधों के अपराधी तथा क्रोधसे तप्त शिशुपालको हरि ( कृष्ण ) ने मार कर एक क्षणहीमें धराशायी कर दिया जैसे कि हरि ( सिंह ) हाथीको मार कर बात की बात में ही धराशायी कर देता है । इसके बाद रणभेरियोंके शब्द से शब्द - मय युद्धको उसी समय बन्द कर वह वली सेनाको साथ लेकर गिरनार पर्वत पर आया । वहाँ उसने रुक्मिणीको उत्साह देकर समझा कर उसके साथ विवाह कर लिया और बाद वह फहराती हुईं करोड़ों धुजाओं से परिपूर्ण द्वारिका चला आया ।
पाण्डव-पुराण |
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एक दिन प्रसन्नचित्त दुर्योधनने समझा कर एक दूतको कृष्ण नारायणके पास भेजा । दूतने जाकर नारायणको सूचित किया कि प्रभो, दुर्योधन महाराजने आपके पास मुझे यह समाचार देकर भेजा है कि यदि आपके पहले पुत्र और मेरे पुत्री हो या मेरे पुत्र और आपके पुत्री हो तो उन दोनोंका परस्पर विवाह सम्बन्ध हो — इसमें कोई रुकावट न हो । यह सुन उत्तर में नारायणने कहा कि ठीक है जैसी दुर्योधन महाराजकी इच्छा है, मुझे स्वीकार है। इसके बाद कृष्णने दूतका योग्य आदर-सत्कार कर उसे वहाँसे विदा कर दिया । दूत वहॉ से चल कर अति शीघ्र हस्तिनापुर आ गया ।
इसके बाद कृष्णके रुक्मिणीके गर्भ से प्रद्युम्नका जन्म हुआ; परन्तु दैवयोग से उसे जन्म समयमें ही कोई वैरी हर ले गया और विजयार्द्ध पर्वत पर रहनेवाले किसी विद्याधरके यहाँ उस महाभागका पालन-पोषण हुआ । वहाँ वह सोलह वर्षकी अवस्था तक रहा और उसने वहाँ सोलह लाभ भी प्राप्त किये । इसके बाद वहाँसे उसे नारदजी द्वारिका पुरीको ले आये और वहाँ वह भाग्यशाली आनंद-चैन से रहने लगा ।
प्रद्युम्न कुमारके जन्म के बाद ही सुखिनी सत्यभामाने भानुकुमारको जन्म दिया, जिस तरह पूर्वदिशा भानु (सूरज) को पैदा करती है। भानु अँधेरेको दूर करता है, वह भी अपने शरीर की प्रभासे अँधेरेको दूर करता था ।
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तेरहवाँ अध्याय ।
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भाँति भाँतिकी सम्पत्ति द्वारा आधे आधे राज्यको भोगते हुए पांडव और कौरव एक समय सभा भवन में बैठे हुए थे । इस सम्बन्धमें यह जान लेना आवश्यक है कि पांडव वड़े चतुर और विद्वान थे । वे समयकी कदर करते थे और लक्ष्मीसे युक्त थे । अतः आधे राज्यको संभालते हुए सुखसे अपना समय बिताते थे । परन्तु कौरवोंका स्वभाव इनसे बिल्कुल ही विपरीत था । वे हमेशा दूसरोंकी सम्पत्तिको देख कर जला करते थे । उनका अदेख-सखाभाव वडा मल था । मजा उनसे असंतुष्ट रहा करती थी । वे सूरजको दोष देनेवाले उल्लूकी नॉई सत्पुरुषों को दोष देते थे । अतः वे दुष्ट आपसकी सन्धि तोड़नेके लिए तैयार हो गये और उन अन्यायियोंने खुल्लमखुल्ला कह दिया कि हम सौ भाई है और ये केवल पॉच ही है; फिर आधे आधे राज्यको कैसे भोग सकते हैं—- यह सरासर अन्याय है | चाहिए तो ऐसा कि कुल राज-पाटके एक सौ पाँच भाग किये जाये और इन्हें पाँच तथा हम लोगोंको सौं भाग दिये जायें। भला, विचार कर तो देखिए कि पॉच के लिए आधा राज्य और उनसे बीस गुने लोगों के लिए भी उतना ही राज्य ! यह अन्याय नहीं तो और क्या है ? इस तरह दोषोंके भंडार और मन ही मन युद्ध करने को तैयार उन दुष्ट दुर्योधन आदिने परस्पर के प्रेम सूत्र - को तोड डाला ।
दुर्योधन आदिकी ऐसी विपथरी बातों को सुन कर यद्यपि पांडव पण्डित थे और वैर-विरोध दूर थे तो भी - भीमसेन आदिको घड़ा क्रोध आया और भौहें चढ़ जाने से उनके मुँह भीषण हो गये । वे आवेश-वश इधर उधर घूमने लगे, जिससे अचला ( पृथ्वी ) भी हिल गई । इसके बाद वे बोले कि हमेशा ही सति रहनेवाले और कौओंकी नॉई दीन ये विचारे हम सरीखे शक्तिशाली पुरुषों के होते हुए भला कर ही क्या सकते हैं ! और यह बात कुछ छुपी नहीं, स्वयं वे भी जानते हैं ।
भीमने कहा कि भाई युधिष्ठिर, यदि आपकी आज्ञा हो तो इन दुष्टोंको अभी क्षणभर में ही भस्म कर दूँ। क्योंकि आगका एक छोटासा कण भी धधक कर बड़े बड़े जंगलों को जला डालता है । या कहो तो हीन विचारवाले इन सौके सौको ही एकदम उठा कर समुद्र में फेंक दूँ और इनका काम तमाम कर दूँ ।
भीमको इस तरहसे क्रोधित देख कर युधिष्ठिरने उसे मधुर वचनों द्वारा शान्त किया, जिस तरह कि जलती हुई आग पानीसे ठंडी की जाती है । और जिस
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पाण्डव-पुराण ।
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तरह काठका निमित्त पाकर आग जल उठती है उसी तरह कौरवोंके इन वचनोंको सुन कर अर्जुन (सोने) की नॉई दीप्त अर्जुनकी क्रोधाग्नि भी भभक उठी । वह बोला कि जिस तरह सैकड़ों कौओंको एक साथ ही भयभीत कर देने के लिए एक ही . पत्थरका टुकड़ा काफी होता है उसी तरह शक्तिशाली मेरा एक ही वाण इन सौको ही एकदम भयभीत कर देनेके लिए काफी है। उसके सामने इनकी कुछ भी न वन पड़ेगी। ये लोग मदोन्मत्त होकर तभी तक मर्यादाको लाँघते हैं जब तक कि अँधेरेको दूर करनेवाले सूरजकी नॉई तेजशाली मैं क्रुद्ध नहीं हुआ--- मेरे क्रोधके सामने इनकी कुछ भी कला काम न आयगी, जिस तरह कि सूरजके सामने अँधेरेकी कुछ भी नहीं चलती । इसके साथ ही पार्थने हाथमें धनुष उठाया और उस पर वाण चढ़ा कर वह युद्धके लिए उद्यत हो गया । उसकी उस समयकी अवस्थाको देख कर स्थिरघुद्धि युधिष्ठिरने उसे शान्तिसे समझा कर रोका।
और है भी यही ठीक कि सज्जन पुरुष विरोधको दूर करनेवाले होते हैं । इसके वाद कुलीन नकुल बोला कि मैं इसी समय इन कौरवोंके कुलरूपी शालवृक्षको जड़से उखाड़ नष्ट किये देता हूँ। ये तो पतंगोंके समान हैं और मैं हूँ इनके लिए आगके तुल्य, अत: प्रयत्नके विना ही ये अभी जल कर खाक हुए जाते हैं इनमेंसे एक भी वचनेका नहीं । इसी बीचमें सहदेव भी बोल उठा कि ये कौरव-वृक्ष तो चीज ही क्या हैं ! मेरे द्वारा कु-हाड़ेसे काटे जाने पर ये विनश्वर ठहर ही कहाँ सकते हैं। मैं अभी अपने बाहु-दंडोंसे कुल्हाड़ेको उठाता हूँ
और इनके टुकड़े टुकड़े करके दिशाओंके स्वामी दिगीशोंको वली दिये देता हूँ । सच कहता हूँ कि ज्ञान-शून्य, पिशुन और महान् आभिमानी इन कौरवोंको जब तक मैं गर्व-रहित न कर दूंगा तब तक मुझे चैन ही न पड़ेगी। ये अभिमानी सॉपके समान हैं और मैं हूँ इनके लिए गरुड़के समान; फिर ये मेरे सामने फण उठा कर चाहे कितनी ही पुकार क्यों न करें पर इनका कुछ वश नहीं है । आखिर इन्हें ही प्राणोंके लाले पड़ेंगे।
इस प्रकार क्रोधसे आगके समान जलते हुए इन दोनोंको भी युधिष्ठिर-रूप मेघने अपने वचन-रूपी जलको वरसा कर शांत किया । इस तरह. युधिष्ठिरके समझाने पर वे चारों भाई पहलेकी नॉई ही शान्तचित्त हो गये और युद्धकी कामना छोड़ कर, स्थिर-चित्तसे. राज्यको भोगते हुए, निर्भय हो अपना समय योग्य कार्यों में बिताने लगे।
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तेरहवाँ अध्याय।
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इधर दुर्बुद्धि तथा कलुषित-चित्त दुर्योधन युधिष्ठिर आदिको मारनेकी चिंतामें अपनी धर्मशून्य-बुद्धिको व्यय करने लगा। वह हमेशा इसी चिंतामें रहता. था कि जिस तरह हो सके पांडवोंका विध्वंस करूँ।
एक बार उस उद्धत-आत्माने कपटसे एक लाखका महल बनवाया । वह बड़ा सुन्दर और अति शीघ्रतासे बनवाया गया था । उस पर बड़े ऊँचे और विशाल कूट बनाये गये थे और उन कूटों पर सुन्दर कलश चढ़ाये गये थे। वे उस पर ऐसे शोभते थे मानों सूरज जड़ दिये गये हैं । उस महलमें विस्तृत और लम्बी-चौड़ी जाली लगाई गई थी, वह ऐसी जान पड़ती थी मानों पांडवोंको फंसानेके लिए आगकी समता करनेवाला जाल ही लगाया गया है । उसमें छोटे छोटे और सुन्दर झरोखे थे, मानों उनकी दीप्तिको हरनेके लिए उसने अपने नेत्र ही खचित करवा दिये थे । उस पर रत्नोंके तोरण बंधे हुए थे, अतः उनसे उस महलकी एक मिन ही शोभा थी और ऐसा भान होता था कि मानों दुर्योधनने पांडवोंका रण-छल देखनेको यह मूर्तिमान् रण ही तोरणके छलसे यहाँ खड़ा किया है । उसके थमे ऐसे जान पड़ते थे मानों वैरियोंको वॉधनेके लिए स्तंभन-विधाके रूपमें खड़े किये गये सुदृढ़ · स्तंभ ही है । उसमें चित्र-विचित्र चित्र लगे हुए थे, उनसे जाना जाता था कि वे शत्रु ही खचित कर दिये गये हैं । उनको देखनेसे चित्तमें एक भिन्न ही स्फूर्ति पैदा होती थी । उसमें नाना रास्ते थे । वह खाईसे घिरा हुआ था । उसके चारों ओर कोट बना हुआ था, जिससे उसकी एक सवसे निराली ही छटा थीशोभा थी। अधिक क्या कहा जाय वह सब तरह सुशोभित था-उसमें किसी भी वातकी कमी.न थी । इस अपूर्व महलको कौरवोंके अगुआ दुर्योधनने वनवाया था। इसके वनवानेमें उसे बहुत देर न लगी थी।
इसके बाद दुर्योधन आदि कौरव शान्त-चित्त भीष्म पितामहके पास गये और उन्होंने विनयके साथ उन्हें मस्तक नवा कर कहा कि गंगाके जल समान निर्मल-चित्त पितामह, हमने भक्तिसे प्रेरित होकर सब तरहसे सुसज्जित एक महल बनवाया है । वह इतना विशाल और ऊँचा है कि अपने शिखरोंसे आकाशको छूता है । महाराज, उसे देखनेसे ऐसा जान पड़ता है कि मानों वह विजयी देवतोंके महलोंकी संततिको जीतनेके लिए जानेकी तैयारी ही कर रहा है । वह अपने थंभों-रूप हाथोंसे ऐसा जान पड़ता है कि - मानों उनसे शत्रुओं के मालोकी सम्पति ही हरना चाहता है । अपने शिखर, रूप मस्तकसे वह इतना
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पाण्डव-पुराण |
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शोभाशाली और सुन्दर जान पड़ता है और लोगोंको भ्रममें डाल देता है कि कहीं ऋद्धि-सम्पन्न कौरवोंका कुल ही तो नहीं है । उसके शिखर बड़े ऊँचे हैं, अत एव वहाँ आकर अपनी मार्गकी थकावट दूर करने को कभी कभी खेद खिन्न चॉद रातमें ठहर जाता है । उसके शिखरोंमें जो धुजायें लगी हुई हैं वे जिस समय हवाके वेगसे फड़-फड़ाती हुई फहराती हैं तव ऐसा मालूम होने लगता है कि वह महल अपने हृदयमें स्थान देनेके लिए इन धुजाओं-रूप हाथों के इशारेसे स्वर्ग देवताको ही बुलाता है । सुस्थिर थंभोंवाले और लोगोंको आश्रय देनेवाळे उस महलके वाणके जैसे तीखे शिखरों द्वारा आकाशमें विचरनेवाले ग्रहन्तारागणोंके विमान घिस जाते हैं और क्षीण हो जाते हैं ।
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देव, यह उत्तम और सिद्धि-साधक महल हमने पाडवोंके लिए बनवाया है, अतः इसे अब उनके रहने के लिए दे दीजिए । महाराज, हम चाहते हैं कि स्थिरचित्त युधिष्ठिर दर्शों दिशाओंमें अपने तेजको फैला कर, सुख-शान्तिसे राज्य करते हुए इस नये महलमें रहें और हम सब राजकी आयसे सुख भोगते हुए समुद्री नाँई अचल और चिन्ता-रहित हो, स्थिर चित्तसे अपने ही महलमें रहें । कौरवोंके इन मधुर वचनोको सुन कर उदार-बुद्धि और सरल - चित्त पितामह बोले कि जो तुमने कहा वह ठीक है; तुम्हारी बात मेरे गले उतर गई । तुमने जो कुछ सलाह दी वह मुझे पसंद आई है। कारण कि मैं जानता हूँ कि तुम्हारा एक जगह रहना परम वैरका कारण हैं । जहाँ मनमें कुछ मैल रहता है वहाँ जरा जरासी वातों परसे वैर-विरोध खड़ा हो जाता है । इस लिए वैर-विरोध मिटाने के लिए तुम्हारा जुदा जुदा रहना ही अच्छा है । जहाँ परिवारके लोगों में लड़ाई झगड़ा हुआ करता है भला, वहाँ सुख हो ही कहाँसे सकता है। देखिए, भरत चक्रवर्ती और वाहुवलीने इसी कौटुम्बिक कलहसे क्या कुछ फल उठाया था । अतः तुम लोगोंका जुदा रहने में ही सुख है और ऐसी ही हालत में राज्य सुखसे भोगा जा सकता है । देखिए, नेत्रोंके रहने के स्थान जुदे जुदे हैं, इसी लिए उनमें कुछ विरोध नहीं है ।
इस प्रकार निश्चय करके बुद्धिमें वृहस्पति तुल्य, राजसिंह भीष्म पितामहने पाण्डवको बुलाया और उनसे कहा कि धनुष-विद्यामें निपुण और इन्द्र-तुल्य पाण्डव-गण, तुम मेरे वचनोंको ध्यान देकर सुनो । वे तुम्हारे लिए सुखके कारण होंगे । तुम किसी अच्छे मुहूर्तमें, बहुत जल्दी, सुन्दर शरीरके जैसे इस नये महलमें रहने लगो । देखो, इसमें रहनेसे
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तरहवाँ अध्याये । तुम्हारे सभी झगड़े-टंटे तय हो जायेंगे; फिर किसीसे कोई प्रकारका वाद-विवाद या व्यर्थका वितण्डा न होगा । देखो, तुम लोग जुदा रहनेमें कुछ भी भय न करो । मैं तो जानता हूँ कि तुम्हें जुदे रहने में ही सुख होगा। पांडव गुरुआज्ञाके प्रतिपालक और गुणोंसे पूर्ण थे । वे उसी समय शुभ मुहूर्त और शुभ दिन दिखवा कर अपने घरको चले गये और जब वह शुभ दिन आया तव उन्होंने शुभ मुहूर्तमें नये महल में प्रवेश किया । उनके प्रवेश समय बड़ा महोत्सव मनाया गया था । उस समय भेरियोंका सुहावना और महान शब्द दशों दिशाओंमें गूंज रहा था । नगाड़ोंकी गर्जना हो रही थी। वंशीकी सुरीली आवाजसे कर्ण-कुहर गूंज रहे थे । रोमाञ्च हुए नट-गण विशाल मृदंग, ताल, कंसाल, वीणा आदि वादिनोंकी लयके साथ मनोहारी नृत्य करते थे । कामिनी-गण अपने सुन्दर नादसे पांडवोंके गुणोंको गाती थीं । गायक-गण सुहावने मंगलगीत गाते थे । इस तरह बड़े ठगट-वाटके साथ यथायोग्य दान देते हुए उन मंगल-मूर्तियोंने नये महलमें प्रवेश किया । वहाँ रहते हुए वे स्थिर-चित्त पांडव गरीबोंको दान देते थे और ऊँच कुली लोगोंका उचित आव-आदर और मानसन्मान करते थे । एवं वे पूज्य पुरुषोंकी पूजा-प्रभावनामें भी कभी आगा-पीछा नहीं सोचते थे । वे शुद्ध बुद्धिसे धर्म-कर्मका निर्वाह करते थे । उनको कभी भी धर्म-कर्ममें प्रमाद तथा आलस नहीं सताता था । तात्पर्य यह कि वे विद्वान् वहाँ सुखका अनुभव करते हुए निर्भयतासे रहते थे । उन्हें न तो किसी वातका भय था और न चिन्ता ही । वे सरल चित्त थे, अतः उन्होंने कौरवोंके इस कपट-माया-जालको विल्कुल ही नहीं जाना । अत एव वे वहाँ सरलताका व्यवहार करते हुए सुखसे रहने लगे । और है भी ऐसी ही बात कि काठकी भीतरी पोलको कौन जान सकता है कि उसमें क्या भरा है । परन्तु धीरे धीरे किसी तरह विदुरको यह पता लग गया कि यह महल लाखसे बनाया गया है । विदुर दयाल्ल था और तेजशाली था । अतः कौरवोंके मायाजालको समझ कर उसने कौरवोंके कपटसे अज्ञात तथा जिनदेवमें सच्ची श्रद्धा रखनेवाले युधिष्ठिरको बुला कर कहा कि वत्स, सज्जनोंको सज्जनों पर ही विश्वास करना चाहिए; दुर्जनों-दुष्टों-पर नहीं । नहीं तो उनके द्वारा वैसे ही दुःख सहने पड़ते हैं जैसे कि सॉपके द्वारा । देखो, अपरसे मीठे बोलनेवाले और भीतरसे महा मैले इन दुष्टोंसे सज्जनोंको हमेशा दूर ही रहना चाहिए; नहीं तो दुःख अवश्यंभावी है जैसे कि काई चढ़े हुए पत्थर पर भूलसे भी यदि पैर पड़
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पाण्डव-पुराण । जाय तो भी उस परसे अवश्यंभावी पतन होता ही है । पुत्र, देखो नीति कहती है कि राजा लोगोंको कभी दूसरेके हृदयका विश्वास नहीं करना चाहिए, फिर जो सुखी होना चाहते है उनके लिए भला शत्रुका विश्वास तो करना ही कैसे उचित हो सकता है । और भी सुनो कि राजा-गण स्त्री-पुत्र, माता-पिता, भाई-बहिन आदि किंसीका भी विश्वास नहीं करते, तब वे दूसरे दुष्ट पुरुषोंका भरोसा तो करें ही कैसे । इस लिए तुम इन कलहकारी कौरवोंका विश्वास मत करो। ये दुर्बुद्धि तुम्हें 'इस महलमें रख कर मार डालेंगे और तुम्हारे कुलका सर्वस्व नष्ट कर देंगे । भद्र! यह महल लाखसे बनाया गया है-यह तो मुझे निश्चय हो गया; पर किस मनोरथसे ऐसा किया गया इसका मुझे अभी निश्चित पता नहीं है । सो ठीक ही है कि इन माया-जालियोंके मायाजालको कोई जल्दीसे नहीं जान सकता । मेरे कहनेका मतलब इतना ही है कि तुम लोग कदाचित् भी इस महलमें न रहो । नहीं तो तुम्हें बड़े भारी दुस्सह दुःखका सामना करना पड़ेगा। और एक उपाय करो कि एक तुम लोग प्रतिदिन क्रीड़ाके बहाने वनमें जाया करो और सो भी बड़ी सावधानीसे । वहाँ विघ्नों को दूर करनेके लिए दिन भर आनन्द-पूर्वक समय गुजारा करो। तुम लोगोंसे और ज्यादा कहनेकी कोई जरूरत नहीं हैं; क्योंकि तुम स्वयं ही वैरियोंके गर्वको खर्व करनेवाले हो । परन्तु जब रात हो जाय तव यहाँ आकर अपने निश्चल स्वभावसे जागते हुए समय विताया करो । जागनेकी जरूरत तुम्हें इस लिए है कि नींदमें मनुष्य मरे सरीखा हो जाता है । उसे कुछ भी सुध-बुध नहीं रह जाती, उसके नेत्र बन्द हो जाते हैं, कान बहिरे हो जाते हैं, गला घर-घर करने लगता है और शरीर विल्कुल शिथिल हो जाता है । इस प्रकार विदुरने वनमें स्थिराशय पांडवोंको सब बातें खूब समझा दी। इसके बाद वह सदद्धि अपने महलको चला आया।
__इतने पर भी विदुरकी फिक्र नहीं गई और वह पांडवोंको 'सर्वनाशसे बचानेकी फिक्रमें हमेशा रहने लगा । वह चतुरमना सदा इसी सोच-विचारमें रहा करता था कि पांडव-गण किस तरह सुखी हों। इसके लिए उसके विचारमें यह उपाय आया कि महलसे लेकर जंगल तक एक सुरंग वनवा दी जाय तो किसी तरहकी आपत्ति पड़ने पर पांडव-गण उसके द्वारा निकल कर बच सकते हैं। यह सोच कर उस शुद्ध हृदयने चुपचाप सुरंग खोदनेवालोंको बुलाया और उन्हें उसके खोदनेकी सब विधि समझा दी । सुरंग खोदनेवाले भी महलके एक कोनेमेंसे सुरंग निकाल देनेको तैयार हो गये। कारण कि वे इस काममें अति प्रवीण थे।
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उन्होंने गुप्त रीति से थोड़े ही दिनोंमें इतनी बड़ी भारी सुरंग खोद कर तैयार कर दी जो आने और जानेके लिए काफी थी । सुरंग खुद कर जब तैयार' हो चुकी तब विदुरने सोचा कि यदि कभी कौरव-गण इस लाखके महलमें आग भी लगा दें तब भी पांडव सुरंग मार्गसे निकल जायँगे और अपने प्राणोंकी रक्षा कर लेंगे। इसमें अब तनिक भी सन्देह नहीं है। इस तरह आनन्दके साथ विदुरने लाखके उस महलमें जो कि कौरवोंने पांडवोंके साथ छल करने के लिए बनवाया था, सुरंग बनवा दी और कौरवोंसे पांडवोंको निर्भय कर दिया। इसके बाद उसने पांडवोंके सम्बन्धकी बिल्कुल ही चिन्ता छोड़ दी --- वह निश्चित हो सुखसे अपना काल बिताने लगा । परन्तु उसने वह सुरंग स्वयं न तो देखी और न सुखी पांडवोंको ही दिखलाई । कारण वह तैयार होते ही किसीको बिना दिखाये ढक दी गई थी। इसके बाद पांडव शोक, विषाद, मद आदि से रहित हो, - विना कष्टके, प्रीतिके साथ उस महलमें निवास करने लगे । और इस प्रकार कुन्ती सहित वहाँ रहते उन्हें एक साल बीत गया । उन्हें वह बिल्कुल ही नहीं जान पड़ा | क्योंकि वे बहुत सी कलाओंके विज्ञ थे, अतः उनका काल शान्ति और प्रेमके साथ बीतता था ।
इधर धृतराष्ट्रके दुष्ट और कलुषित-चित्त पुत्र दुर्योधनने पांडवोंको मार डालने के लिए उस लाखके महल में आग लगानेकी फिक्र की--उसने सोचा कि इस महल में आग लगा देने पर लाख पिघल जायगी और तब उसमें रहनेवाले ये दुष्ट-चित्त पांडव अवश्य ही जल कर भस्म हो जायेंगे। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है । मंत्री के साथ इस प्रकार विचार जब वह निश्चित कर चुका तब उसने अर्क - कीर्ति नामके एक कीर्तिशाली कोतवालको रातमें बुला कर कहा कि तुम इसी समय पांडवोंके महल में आग लगा कर उसे भस्म कर डालो। तुम्हें इस काम में देर न करना चाहिए, यह मेरी आज्ञा है । इस महलमें किसीके लिए आने जानेकी रुकावट नहीं है, अत एव अति शीघ्र इसे भस्म कर दो। तुम कुछ भी आगा पीछा मत सोचो । इस कामको ठीक ठीक हो जाने पर मैं तुम्हें वहीं दूँगा जो तुम चाहोगे । या अभी माँग लो जो तुम्हें रुचता हो । काम हो जाने पर मैं वह तुम्हें अवश्य दे दूँगा । समझ गये । सच तो यह है कि यदि तुम्हें धन-सम्पदा, जागीर आदि वैभव प्यारा हो तो विलम्ब न कर जल्दी जाओ और महलभ आग लगा दो ।
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पाण्डव-पुराण । wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwner
दुर्योधनके इन अनिष्ट वचनोंको सुन कर कोतवाल बोला कि नृपसत्तम, यह आप क्या कहते हैं । न्यायी पुरुषोंको ऐसा अन्याय करना बिल्कुल ही उचित नहीं है । विद्वान् लोग ऐसी बातोंकी बड़ी निंदा करते हैं । सुजीवन, यह जो लोग धनका संग्रह करते हैं वह जीवनके लिए ही न करते है। परन्तु विचार कर देखनेसे जाना जाता है कि यह जीवन भी तो ओसकी बूंदकी नॉई क्षणिक है-नाश होनेवाला है । और स्वयं धन भी स्वमकी नॉई असार और देखते देखते नष्ट हो जानेवाला है। यह मेघ-पटलकी भाँति एक क्षणमें ही नष्ट हो जाता है। और जिस लक्ष्मीका लोभ देकर आप मुझे इन महा पुरुषोको मार डालनेके लिए कह रहे हैं भला वह लक्ष्मी भी तो किसीके साथ हमेशा रमनेवाली नहीं हैव्यभिचारिणी स्त्रीके जैसी है । वह इस घरसे उस घर और उस घरसे इस घर मारी मारी फिरा करती है । महाराज, जीव-घातसे होनेवाले पाप-वन्धसे जीवकी दुर्गति होती है। अत: उस धनसे भी क्या लाभ जिसके द्वारा जीवोंके प्राण पीड़े जायें । इस लिए प्रभो धन-सम्पदाकी वात तो रहने दीजिए और जो आज्ञा हो सो कहिए । कोतवालके इस उत्तरको सुन कर दुर्योधनके क्रोधकी सीमा न रही । वह आपसे बाहिर हो गया । पाप करनेमें अग्रणी वह क्रोधके साथ बोला कि नीच तू यह क्या कहता है । जरा संभल कर वोल | सच्चा और सबसे उत्तम सेवक वही है जो मालिककी आज्ञा पालनेमें कभी आगा-पीछा नहीं करता । अत एव तुझे ऐसा ही वर्ताव करना चाहिए। और इसीमें तेरी भलाई छिपी हुई है। वह भी इस समय प्रगट हो जायगी । क्या तूने नहीं सुना है कि काम पड़ने पर नौकरोंकी, संकट पड़ने पर भाई-बन्धुओंकी, आपत्तिके समय मित्रोंकी और धन-हीन दरिद्री हो जाने पर भार्याकी खूब पहिचान हो जाती है-उनके स्वभावका इन समयोंमें अच्छा परिचय मिल जाता है । अत एव तुझे मेरी आज्ञाके अनुसार चलना चाहिए। ऐसा करनेसे तुझे सम्पत्ति मिलेगी और इसके विपरीत करनेसे विपत्तिका पहाड़ तेरे सिर पर टूट पड़ेगा।
दुर्योधनके इन क्रोध भरे और उत्तेजित करनेवाले वचनोंको सुन कर सत्याग्रही कोतवाल अपने आपको मौतके हाथमें सौंप वोला कि राजन्, मुझे मार डालो चाहे जीता रहने दो; धन-दौलत दो चाहे मेरी और हर लो; मुझे अपनी प्रसन्नताका पात्र बनाओ चाहे क्रोधका; कृपा' करके राज्य दो चाहे मेरा सर्वस्व हर लो; मेरा मान-सन्मान करो चाहे मस्तक काट डालो; परन्तु देव, कपटसे मै पांडवोंके सुंदर महलमें आग नहीं लगा सकता । यह कह कर वह दयाल कोतवाल
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बिल्कुल चुप हो गया; उसके मुँह से फिर एक शब्द भी न निकला | कोतवालके इस उत्तरसे दुर्योधनका क्रोध एकदम उभर आया और उसने उसे खूब मजबूत सॉकल से वधवा कर जेलखानेमें डलवा दिया |
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इसके बाद कौरवाग्रणी दुर्योधनने अपने पुरोहितको बुलवाया और वनभूपण आदि से उसका सन्मान कर उससे कहा कि पुरोहितजी, तुम सारे जगतमें प्रसिद्ध हो और पृथ्वी पर देव तुल्य हो । वह इस लिए कि तुम लोगोंके सब काम कर देते हो | आज हमारा भी एक काम आ पडा है, सो तुम उसको भी कर दो तो बड़ी कृपा हो । महाराज, मैं जिस कामको आपसे कराना चाहता हूँ वह बहुत ही गुप्त काम है | मेरा विश्वास है कि उसे तुम्हीं कर सकते हो । क्योंकि उत्तम काम तुम सरीखे पुरुषोंके द्वारा ही पूरे पड़ते हैं। वह कार्य यह है कि यह जो पांडवका लाखका महल हैं इसे तुम रातमें आग लगा कर फूँक दो। इससे मुझे बड़ा सन्तोष और सुख होगा। यदि आप मन चाहा पुरस्कार चाहते हो तो क्षणभर में ही इसे भस्म कर दो। यह कह कर दुर्योधनने उन्हें मुँह माँगा धन देकर संतुष्ट कर दिया और महल जला डालनेकी उनसे स्वीकारता ले ली। लोभी द्विजने भी लोभके वश हो यह अनर्थ करना स्वीकार कर लिया । हाय, यह लोभ इतना वडा पाप है कि इसके बराबर दूसरा कोई पाप नहीं । इस लोभसे अत्यन्त कठिन और दुःख मय कार्य हो जाते हैं । अतः लोभी पुरुषोंके लोभको धिक्कार है, एक बार नहीं, सौ बार नही, किन्तु असंख्य और अनंत बार धिक्कार है। यह लक्ष्मी सुख देनेवाली है, जो ऐसा कहते हैं वे भारी भूलते हैं । किन्तु यह तो खोटे कर्मों की खान है । इसके अधीन होकर लोग क्या क्या दुष्कृत्य नहीं करते । जरा ही सोचो तो मालूम होगा कि इससे ही संसारके सारे अनर्थ होते हैं । और तो क्या लोभी पुरुष भाई-बहिन, माता-पिता, स्त्री- पुत्र नौकर-चाकर, गुरु और राजा आदि किसीको भी मारनेसे नहीं हिचकते । एक जमाना था जब कि ऐसे भी नरपुंगव हो गये हैं जिन्होंने दीक्षाकी इच्छा से लक्ष्मी, महल, हाथी-घोड़े आदि सत्र सम्पत्तिको जलाञ्जलि दे वन्यवृत्ति अर्थात् नन दिगम्बर भेषको पसंद किया था ।
इसके बाद वह जनेउधारी मूढ तथा जड़ द्विज लक्ष्मीके लोभमें फँस कर पांडवोंके महलको जलाने के लिए तैयार हो गया, और जाकर उस दुष्टने महल के चारों और आग लगा दी । सो ठीक ही है कि दुष्ट, दुर्जन जन कौनसे अनर्थ
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नहीं करते; कौआ कौनसी वस्तुको नहीं खाता; और वैरी कौनसी बातको नहीं कहता । भावार्थ यह कि दुर्जन सभी अनाँको कर डालते हैं, कौआ विष्टा वगैरह सब कुछ घृणित वस्तु खा जाता है और वैरी जो मनमें आता सो . कह डालता है । इसके बाद वह दुष्ट, अनिष्टकारी और कलुपित-चित्त पुरोहित न जाने कहाँ चला गया । ग्रन्थकार कहते है कि पापियोंका चित्त कभी शुभ नहीं हो सकता । इधर आग आकाश तक उठनेवाली अपनी भयंकर ज्वालासे महलको खूब जलाने लगी। ठीक ही है कि आग लगा देनेवाले पुरुषोंमें दया नहीं होती । इस समय उस लेम्बे-चौड़े और ज्वालासें खूब घिरे हुए महलको जलाती हुई आग अत्यन्त दीप्त हो रही थी, दूर दूरसे उसका उजेला देख पड़ता था। सो ठीक ही है कि जलानेवाली आग स्वयं भी तो जलती है। अतः उसका इतना तेज हो जाना कोई वात नहीं है।
परन्तु ऐसे समयमें भी पांडच लोग जाग्रत नहीं हुए । लोग कहते है कि नींद शान्ति है--विश्राम-है। परन्तु उनका यह भ्रम है । क्योंकि नींद विश्राम नहीं, किन्तु सुध-बुध भुला देनेवाली एक तरहकी मौत ही है। इधर आगने लाखको शत्रुकी नॉई अपना लक्ष्य बना कर क्षणभरमें ही महलकी सव सुन्दर सुन्दर वस्तुयें जला-कर भस्म कर दी। धीरे धीरे जब उसकी महा-- ज्वालासे महलकी सारी भीते जलने लगी और उसकी ऑचका उन परं कुछ असर हुआ तब पांडव जाग्रत हुए; और जाग्रत होते ही उन्होंने देखा कि लाखके संयोगसे खूब ही प्रदीप्त हुई आगकी ज्वाला सव ओरसे महलको जला रही है । जान पड़ता है मानों वह प्रलयकी ही अग्नि है। उन्होंने अपने निकलनेके लिए इधर उधर बहुत उपाय किये; परन्तु आगकी ज्वालाके मारे उन्हें कहीं भी पाँव देनको जगह न देख पड़ी । उस समय पांडवोंने देखा कि तड़तड़ाती हुई भींतोंको ढाहती हुई ज्वाला सव दिशामेंको फैल रही है। ऐसी जरा भी जगह नहीं बची है जहाँ उसने अपना साम्राज्य न जमा लिया हो । इधर उधर बहुत देखने पर जब कहींसे भी उन्हें निकलनेका उपाय न देख , पड़ा तब धर्मात्मा और धर्म-बुद्धि युधिष्ठिर स्थिर-चित्तसे श्रीजिनेन्द्रका स्मरण करने लगेउनके नामकी माला जपने लगे। वह पंच नमस्कार मंत्रसे अपने मनको मंत्रित करके अपने तेजसे आगको भी दवा कर स्थिर हो वैठ गये। वे विचारने लगे-आश्चर्य है कि कर्म इतने विकट हैं कि उन पर सज्जनोंका भी वश नहीं चलता-उन्हें वे भी नहीं जीत सकते और उसके तीत्र फलको भोगते हैं। फिर भी हे आत्मन्, तू
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.. mmmmmmmmm ~~~~ommmmwwwcom इन कर्मोको क्यों करता है, अब तो इनसे अपना पिंड छुड़ा । इन कोंके कारण ही सत्पुरुष संसारमें दुःख उठाते हैं । देखो, इन्हींके फलसे तो सगरके पुत्र दुःखी हुए और इन्हींके जालमें पड़ वार जगत्मसिद्ध अर्ककीर्ति जो कि भरत चक्रवर्तीका पुत्र था, जय सेनापति द्वारा बॅधनमें पड़ा । इसमें विल्कुल सन्देह नहीं है । तथा इनके सिवा और और राजा लोग भी इन्हींके प्रेरे हुए संसारमें वध-बंधन आदिके दुःखोंके भोक्ता हुए हैं । एवं खेदकी बात है कि हम भी इन्हीं दुष्ट कर्मोंकी कृपासे आज आगके मुंहमें आ पड़े हैं । और इन्हींकी कृपासे यह हमें जला कर भस्म किये देती है । इस लिए अब विस्मयको दिलसे निकाल कर हमें इन दुष्ट काँको छेदनेवाले प्रभुका स्मरण करना चाहिए।
इस प्रकार विचार कर विशिष्ट-बुद्धि युधिष्ठिर बैठे ही थे कि इतनेमें सहसा संतप्त-चेतना कुन्ती जाग उठी और वह जलते हुए महलके आगे आकर उपस्थित हुए दुर्गम दुःखोंको देख रोने लगी कि हाय ! मैंने ऐसा कौनसा निकृष्ट कर्म किया है, जिसके प्रभावसे मुझे ऐसा भारी दुस्सह दुःख-रूप फल मिला है ।-आश्चर्य है कि ये लोग जिस पापके फलसे तीव्र दुःखोंको भोगते हैं फिर भी उसी पापको करते हैं । अहो धिकार है लोगोंके इस अज्ञानको जिसके पंजेमें फँस जानेसे उन्हें कुछ भी हित-अहितका विवेक नहीं रह जाता । -अब मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ, जब कि सव ओरसे खूब ही जल रही इस भयंकर आगमें यह महल बिल्कुल ही जला जा रहा है। ऐसी हालतमें मैं कहाँ ठहर कर अपने प्राणोंको वचाऊँ । मुझे तो कुछ उपाय ही नहीं सूझ पड़ता है । इस तरह विलाप करती हुई कुन्तीको भीमने समझाया और वह निर्भय अपने आसनसे उठ कर इधर उधर रास्ता सोधने लगा। आग इस जोरसे बढ़ रही थी कि डरके मारे उसके शरीरकी कान्ति भी फीकी पड़ गई। पुण्ययोगसे इसी समय उसे सच्चे उपदेशकके जैसी वह सुरंग मिल गई जो कि पृथ्वीके भीतर ही भीतर विदुरने 'खुदवाई थी। परस्परके स्नेहसे भरे हुए वे सव पांडव जिन भगवानको हृदयमें धारण करनेवाली कुन्ती-सहित उस सुरंगके रास्तेसे बाहर निकल अति शीघ्र वहॉसे चल कर वनमें पहुंच गये-जैसे कि भव्य-पुरुष थोड़ी ही देरमें संसारको नाश कर मुक्तिमें पहुंच जाते हैं । पुण्यका फल कितना मनोहर और अच्छा है कि जिसके प्रसादसे अनजानी सुरंग भी वक्त पर हाथ आ गई । इसी पुण्यसे आग जल हो जाता है, समुद्र थल हो जाता है, शत्रु मित्र और साँप गिजाई हो जाता है।
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पाण्डव-पुराण |
इसके बाद वे विपन्न पाण्डव कुन्ती सहित मसान भूमिमें पहुॅचे। वहाँ पहुँच कर उपाय खोज निकालनेमें प्रवीण भीमने अपनी रक्षाके लिए एक नई ही युक्ति खोज निकाली और उसने उसे कार्य रूपमें परिणत भी करें दिया । वह ५ मसान भूमिसे छह मुर्दे उठा लेजा कर उन्हें अति शीघ्र जलते हुए लाखके महल में डाल आया । इस लिए कि जिससे लोग समझें कि पांडव जल कर मर गये । उसे किसीने भी देख न पाया, और वह अति शीघ्र पीछा लौट आया । इसके बाद वे राज-नन्दन पांडव चुप-चाप वहाँसे चल दिये । वे जाते हुए ऐसे शोभते थे मानों पहाड़ ही चलते हैं ।
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यह बात सारे सब लोगोंको
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उधर जब हस्तिनापुरमें सबेरा हुआ तब ऊपरसे दुःखका ढोंग दिखाते हुए कपटी कौरव पांडवोंको देखनेके लिए आये । धीरे धीरे नगरमें फैल गई । इस अनहोनी वातको सुन कर नगरके बड़ा दुःख हुआ— सबके हृदयोंमें वज्रसे भी भयंकर चोट लगी । उनके मुँह से निकली हुई हाहाकारकी ध्वनिने सारे नगरको शोक-पूरित कर दिया। वे लोग तीव्र दुःख के आवेग से रोते और कहते थे कि आज इस नगर में समझ लो कि श्रेष्ठ और सज्जन पुरुषोंका नाम शेष ही हो गया है । न जाने किस दुष्ट वैरीने इन सत्पुरुषोंको कालके मुँहमें पहुॅचा दिया है । पुण्य से पांडव कितने अच्छे पण्डित, शान्ति, निर्मल-चित्त, तेजस्वी और धनुष -विद्या- कुशल थे । वे कितने पराक्रमी थे । उनके पराक्रमके आगे सभी शीस झुकाते थे । उन्होंने अपने पराक्रम से सब राजों - महाराजों पर विजय पाली थी । आश्चर्य है कि ऐसे पराक्रमी और महाभाग को भी दुष्ट कर्मोंने अपने जाल में फॅसा लिया वे भी इनके पंजेसे न छूटे । अहो, कर्म, तेरी चतुराईको धिकार है, असंख्य और अनंत वार धिक्कार है जो तूने ऐसे अच्छे विद्वान और बुद्धिमान पांडवोंको भी भस्म कर दिया । एवं पांडवोंके वियोगसे दुःखी होकर कोई कहता था कि विचार करने से मुझे यह सन्देह होता है कि ऐसे विद्वान् और व्यवहार कुशल पांडव कैसे भस्म किये गये और क्यों किये गये। मुझे यह भी सन्देह है कि ऐसे उत्तम - पुरुषोंका इस रीति से मरण हो । इसका कोई विशेष कारण नहीं जाना जाता ! और एक बात यह भी है कि पुण्यात्मा पुरुष प्राय: करके हीन आयुवाले नहीं ' होते और जो होते भी हैं उनका इस तरहसे मरण नहीं होता । देखो, आज सारा नगर कैसा बुरा उजाड़ सा देख पड़ता है । हा, अब ऐसे ऊजड़ नगरमें भला हम लोग कैसे रह सकेंगे । आज तो ऐसा दीखता है कि मानों मेघकी
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तेरहवां अध्याय ।
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समता करनेवाला मेघेश्वर नरेश आज ही मृत्युका ग्रास बना है और आज ही शान्तिनाथ चक्रवर्तीने इसे अनाथ किया है । क्या हम लोगोंके दुःखको देख न सकनेके कारण आज ही शांतनु राजा और व्यास काल-कवलित हुए हैं । क्या सचमुच आज पांडुकी मृत्यु हुई है ! तात्पर्य यह कि पांडवोंके गुप्त रूपसे चले जाने और उनकी जगह मुर्दे देखनेसे नगरवासी लोगोंने बड़ा विलाप किया।
जव गांगेयने इन सब बातोंको सुना तब उसका मन शोकसे भर आया । उसके चेहरे पर बड़ी उदासी छा गई । तीच मोहके कारण उसे मूर्जा आ गईवह बेहोश हो गया । जान पड़ता था मानों उसके शरीरसे मृत्यु ही लिपट गई है । और है भी ऐसा ही कि मृत्यु भूछीकी सखी ही है, तब उसका वहाँ भ्रम होना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । मृत्युसे जिस तरह मनुष्य सब सुध भूल जाता है उसी तरह मूर्छासे भी भूल जाता है अतः मूर्छाके समय मृत्युका भ्रम होना बहुत ही वाजिव है।
इसके बाद चंदन आदि शीतोचारसे उसकी मूर्छा दूर हुई और वह दरिद्रकी नॉई शोकमें डूबा हुआ उठा । शोकसे संतप्त होनेके कारण उसके नेत्रोंसे ऑसुओंकी धारा वह निकली; वह शोकरूप वारि (जल ) से एकदम सरोवरके जैसा हो गया । उसके हृदयमें बड़ा खेद हुआ । वह विलाप करने लगा कि पुत्र, तुम तो सब वातोंको जानते-समझते थे, फिर इस तरह कैसे जला दिये गये! क्या तुम्हें इस वातका कभी भान ही न हुआ था। कहिए तो अब तुम्हारे विना हमेशा दुखित रहनेवाले हम लोग सुख कैसे पा सकेंगे। हमें इस बातमें सन्देह है कि भला, तुम सरीखे पुण्य-पुरुषोंकी मृत्यु आगसे क्यों कर हुई । चाहिए तो यह था कि यदि तुम्हारी मृत्यु ही इस समय होती तो वह वैरियोंके मदको उतार देनेवाले युद्धमें होती । अथवा धर्मधारणके साथ दीक्षा और आत्म-साध्य संन्यासके द्वारा तुम्हारी मृत्यु होती। इसके सिवा और तरहसे तुम्हारी मृत्यु होना बहुत ही बुरा हुआ । जान पड़ता है कि तुम लोगोंको इन दुष्ट कौरवोंने ही जला दिया है । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं । पापी पुरुषोंकी बुद्धि पाप-रूप ही होती है, उसमें हित-अहितके विचारकी तो गंध ही नहीं रहती। और ऐसा ही हुआ भी है।
पांडवोंकी मृत्युका हाल सुन गांगेयकी तरह द्रोणाचार्यको भी मूर्छा आ गई । और वह शोकसे विलाप करने लगे जिससे दशों दिशायें शब्द-मय हो
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पाण्डव-पुराण । गई। उन्होंने सोचा कि नीच काम करनेवाले पापात्मा कौरवोंने ही यह शिष्टोंके विरुद्ध अनिष्ट काम किया है। औरोंसे ऐसा अनिष्ट होना असम्भव नहीं तो असाध्य अवश्य है । द्रोणसे रहा न गया और उस निर्भयने कौरव-राजोंसे खुल्लमखुल्ला कहा कि आप लोगोंको इस तरहसे अपने कुटुम्वका विनाश कर देना उचित न था । परन्तु, दुष्ट-चित्त खल पुरुपोंका स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे सजनों । को भी दुर्जन बना देते हैं, जैसे कि तूमड़ीका रस मीठीसे मीठी चीजको भी कडुवा बना देता है । द्रोणके इस तिरस्कारसे कौरवोंने अपना सिर नीचा कर लिया; वे बहुत ही लज्जित हुए । फिर ऊँचा मुँह करनेका भी उनका साहस न हुआ। सच तो यह है कि कहीं निर्दय पुरुषोंके भी लाज और धर्म-वुद्धि हो सकती है । इस वक्त चारों ओरसे नगरके लोग आ गये और उन्होंने महलकी आग बुझाई । शोकसे पीड़ित हुए पुरुष क्या कठिन काम नहीं करते; किन्तु जव जैसा मौका आता है तब वैसा ही उन्हें करना पड़ता है । क्योंकि शोक करके बैठ जानेसे भी तो काम नहीं चलता । वे आग बुझानेवाले उन मुदीको देख कर वोले कि देखो ये पांडवोंके मुंदै शरीर पड़े हुए हैं। उस समय उन मुदीको देख कर कोई शोकातुर वोला कि यही थिर-चित्त युधिष्ठिर हैं, यह महाबली भीम - हैं, यह सरल-चित्त अर्जुन हैं और यह निर्मल नकुल तथा देवतों द्वारा सेव्य और पवित्र हृदयवाले सहदेव हैं । और यह सकुमार अंग तथा सुंदर वालोवाली अवला इनकी जननी कुन्तीका मुर्दा शरीर पड़ा है। देखो, यह सती कितनी निर्मल
और विशाल हृदयवाली थी । एवं दे सव विदग्ध पुरुष, अधे-जले मांसके पिंडसमान उन मुदोको देख कर उनके जैसे ही अध-जले हो गये-उन्हें बड़ा भारी शोक हुआ।वे लौट लौट कर उन मुदौको देखने लगे और बड़ी देर तक देखभाल कर उन्होंने यही निश्चय किया कि पांडव ही जल गये हैं। और इस निश्चयके अनुसार ही शोकके मारे उन लोगोंने उस दिन खाना, पीना और अपना व्यापार धंधा भी बन्द कर दिया । सब लोग दुःखसे व्याकुल हुए बैठे रहे। अधिक क्या कहें उस दिन शोकके मारे क्या पुरुष, क्या स्त्रियाँ, क्या वाल-बच्चेयहाँ तक कि पशु पक्षी तक-सबकी हाय हायकी ध्वनिसे सारा शहर गूंज रहा , था। भावार्थ यह कि उस-दिनका दृश्य शोकका बड़ा भारी भयंकर दृश्य था, जो हृदयको विदार कर टुकड़े करनेवाले वज्र-प्रहारके जैसा था। - उधर पांडवोंकी मृत्युः सुन धृतराष्ट्रकी रानी गांधारीको बड़ा भारी,
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संतोष हुआ । सम्पूर्ण राज्य मिल जानकी खुशी में उसने पुत्रकी बधाई के बहाने
खूब उत्सव मनाया ।
धीरे धीरे पांडवोंके जल-मरनेकी बात सारे संसार में फैल गई और कुछ समय में वह द्वारिका पुरीमें समुद्रविजय आदि दसों भाइयों और वलभद्र नारा
के कानोंमें पड़ी । उसको सुन कर उन्हें भी बड़ा भारी रंज हुआ । अत एव भयानक वडवानल से क्षोभको प्राप्त हुए समुद्रविजयसे न रहा गया— कौरवों का यह अन्याय उनसे न सहा गया । अतः वे समुद्रकी तरंगोंकी नाँई सेनारूप तरंगोंसे लहराते हुए द्वारिका से हस्तिनापुरका ओर रवाना हुए और इसी प्रकार सब तरह से समृद्ध, भाँति भाँतिके आयुधोंवाला महान योधा, चली बलभद्र भी युद्ध के लिए उसी वक्त तैयार हुआ । और है भी ठीक ही कि जो बलवान् होता है वह ऐसे समय कभी विलम्ब नहीं कर सकता । इसी प्रकार अनेक शत्रुओंको जड़ मूलसे उखाड़ फेंक देनेवाले और सिंहके जैसे पराक्रमी कृष्ण नारायणने भी कवच पहिननेको अभिमान से अपने हाथ पसारे और कवच पहिन कर वह युद्ध के लिए तैयार हो गया । इस घटनाको सुन कर और सब यादवों को भी बड़ा दुःख हुआ। उन सबका शरीर भी शोकसे संतप्त हो उठा । उनके नेत्रों में आँसू भर आये | और कौरवोंके इस अन्यायसे वे बहुत ही क्षुब्ध हुए । अतः उन्होंने युद्ध के लिए रणभेरी बजवाई - युद्धकी घोषणा कर दी। उस भेरीके शब्दको सुन कर कुछ पंडित लोगोंको क्षोभ हुआ और वे समुद्रविजय, कृष्ण और वलदेवके पास आकर उनसे कहने लगे कि आप लोगोंका योग्य बातके लिए उद्योग करना अच्छा ही है । विद्वानोंको चाहिए भी ऐसा ही, नहीं तो मरणके सिवा और कोई दूसरा फल नहीं हो सकता है । यह सुन कर अपनी दीप्तिसे सुरजकी तुलना करनेवाला नारायण बोला कि मै कौरवोंको यहाॅ बॉध लाकर वडवानळमें डाल दूँगा अथवा युद्धमें जीत कर उनके टुकड़े टुकड़े करके दिशाओं की बलि चढ़ा दूँगा ।
पर हाथियोंको कहीं सरीखे समृद्धशालीके उन्हें कहीं भी जगह न जर्जर बिचारे कौरव
मै सच कहता हूँ कि जिस तरहसे सिंहके क्रुद्ध होने भी जंगलमें रहनेको जगह नहीं मिलती उसी तरह मुझ क्रुद्ध होने पर पांडवोंको मारनेवाले चंड कौरव कहाँ रहेंगे मिलेगी -- वे भागे भागे फिरेंगे । सुनिए ये रंक और तभी तक गर्जते हैं जब तक कि इन्होंने मुझे नहीं देखा | कौन नहीं जानता कि मेंडक तब तक ही टरटर किया करते हैं जब तक कि वे सॉपका दर्शन नहीं करते ।
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कृष्णके इन वचनोंको सुन कर सम्पूर्ण वातोंका ज्ञाता एक वाग्मी बोला कि नृपेन्द्र, यह सब तो ठीक है; परंतु नीति यह है कि छिद्र पाकर ही वैरियों के साथ छल करना चाहिए । देखिए खाली घड़ीके छिद्रको पाकर ही उसके छिद्र द्वारा उसमें र जल भर जाता है । विना छिद्र पाये वैरी अतीव कप्ट-साध्य होते है । वे देवों के द्वारा भी पराजित नहीं किये जा सकते । कहिए क्या छेदके विना भी कहीं सूतमें मोती पोये जा सकते हैं । देखिए, इस समय कौरव-गण भारी अभिमानसे भर रहे हैं, उनके पास खासी विजयी उत्तम सेना है। उन्हें अपने शारीरिक बलका भी बड़ा भारी मद है। विशेष कर उन्हें अपने घोड़े, हाथियों आदिका बहुत घमंड है । अत: जिस तरह मदिरा पीनेवाले मनुष्य जल्दी किसीको दवते नहीं हैं उसी तरह वे मतवाले भी वैरीको वल-रहित जान कर विल्कुल नहीं दवंगे-आपका कुछ भी भय न मानेंगे । इतने पर भी कौरवोंको जरासंधका सहारा है। इस लिए ये और भी उद्धत हो रहे हैं। जिस तरह कि नागदमनी (सर्पका जहर उतारनेवाली जड़ी ) के सहारेको पाकर मेंड़क सॉपके सिर पर नाचने लगते हैं। आज कल वे जरासंघके सहारेसे राजों महाराजों द्वारा उसी तरह पुन रहे है जिस तरह कि उत्तमांग ( मस्तक ) का आश्रय पाकरके केश-राशि पुजती है । अतः बुद्धिसागर और पवित्रात्मन् , आपको इस समय कौरवोंके साथ युद्ध करनेको जाना उचित नहीं जान पड़ता है। कौन नहीं जानता कि धीरे धीरे ही सब काम अच्छे बनते हैं। आप अभी कुछ दिन ठहर जाइए | वाद जव जरासंधके साथ आपका युद्ध होगा तब आप बड़ी आसानीसे ही इनका निग्रह कर सकेंगे; और इसीमें आपका हित है। यदि आप हठ कर इसी समय ही कौरवोंके साथ युद्ध ठानेंगे तो जरासंध भी क्रोधित होकर युद्धके लिए उठ खड़ा होगा तब यह कार्य सोते हुए सिंहको जगानेके जैसा ही होगा। इस लिए स्थिर-चित्त
और धैर्यशाली कृष्ण, आप अभी धीरज धरें। बाद जब समय आवेगा तब मैं स्वयं ही उन सबका विध्वंस कर दिखाऊँगा । इस तरह उस विद्वान्के समझाने पर यादव लोग युद्ध करनेसे रुक गये । क्योंकि वे वैरीकी विक्रियाको जानते थे, व्यवहारके जानकार और स्थिर-चित्त एवं धैर्यशाली थे। ' उधर पांडव भेष बदल कर भस्मसे ढकी हुई आगकी नॉई छुपे हुए वहॉसे पूर्व दिशाकी ओर चले आये । वे बड़े तेजस्वी थे, उनकी भुजायें हाथीकी सूड़के जैसी खून मजबूत थी। उनके पराक्रमसे दशों दिशायें व्याप्त हो रही थीं। उनका विक्रम चक्रवर्तीके जैसा था। उनके साथमें उनकी माता कुन्ती थी, अत:
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वे कुन्तीकी गतिके अनुसार ही धीरे धीरे चलते थे । वे निर्मल हृदयवाले तथा तत्ववेदी उसके थक जाने पर जब वह खड़ी हो जाती तब आप भी खड़े हो जाते और जब वह चैठ जाती तब आप भी बैठ जाते ।
इस प्रकार धीरे धीरे चलते हुए वे कुछ कालमें गंगा नदीके पास पहुँच गये । गंगा अथाह जलसे भरी हुई थी और अनन्त लहरोंसे लहरा रही थी । उसका प्रवाह मंद और बड़ी गंभीरतासे बह रहा था । उसके किनारे पर कल्प-क्षके समान ऊँची ऊंची शाखाओंवाले और विशाल सालक्ष थे। वे खूब ही फले-फूले हुए थे । अत: उनसे उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। वह स्त्रीके तुल्य जान पड़ती थी। स्त्रीके नामि होती है, उसके भी भेवर-रूप नाभि थी । स्त्रीके वाहु होते है, उसके कल्लोल-रूप वाहु थे । स्त्रीके कृय होते है, उसके भी बड़े बड़े पत्थर-रूप कुच थे । स्त्री पॉच होते हैं, गंगाके दोनों तट ही पाँव थे। स्त्रीके नितम्ब होते हैं, उसके भी नजदीकके पहाड़-रूप नितम्ब थे । स्त्री मंद मंद चलती है, और वह भी मंद मंद वहती थी । स्त्रीके वक्षास्थल होता है, उसके महाहद-रूप क्षास्थल था । स्त्रीके नेत्र होते हैं, उसके भी कमल-रूप नेत्र थे। स्त्री जड़-मूर्ख-होती है, वह भी जड़-जल-युक्त--थी । स्त्री अपने कपोलआदि पर बनाये हुए मीन, केतु वगैरह चिह्नोंसे युक्त होती है, उसमें भी मीन, केतु वगैरह थे । स्त्री इसके जैसी चाल चलती है अर्थात् हंसगामिनी होती है वह भी हंसगामिनी थी--उसमें इस विचरा करते थे । स्त्री मधुर वचन बोलती है, वह भी पक्षियोंके कलरव शब्द द्वारा मधुर शब्द कर रही थी । तात्पर्य यह कि वह स्त्रीसे किसी भी वातमें कम न थी।
उसको अथाह और पार होनेके लिए विषम देख कर, पांडव असमर्थ हो उसके किनारे पर ठहर गये और पार पहुंचा देनेके लिए एक धीवरको बुला कर उससे बोले कि भाई, तुम अति शीघ्र अपनी नौका ले आओ और हमें गंगा पार कर दो; . परन्तु ध्यान रखना कि नौका ऐसी हो जिसके द्वारा हम सकुशल और जल्दीसे पार पहुंच जायें । उनके वचनोंको सुन कर वह धीवर उसी समय अपनी नौका ले आया। नौका छिद्र रहित थी और पानी पर तैरती हुई तैरनेके उपायको बताती थी। पांडव कुन्ती-सहित नौकामें सवार हो, अथाह गंगाके भीतर चले। कुन्ती भयसे कभी कभी उन लोगोंका हाथ पकड़ लेती थी, उसे बहुत भय मालूम पड़ता था। पांडव निडर थे। थोड़े ही समयमें उठती हुई कल्लालों ( तरंगों) के सहारे सीधी
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पाण्डव-पुराण । वहती हुई, नौका वीच धारमें पहुंच गई और वहाँ पहुँच कर वह अटक गई , यद्यपि वह चंचल थी; परन्तु गतिके रुक जानेसे विल्कुल ही अचल हो गई। उस वक्त धीवरने बहुत ही प्रयत्न किया; परन्तु वह विल्कुल ही न चली-एक . पैंड भी आगे वह न बढ़ सकी । वह ऐसी हो गई मानों कर्मके द्वारा कील ही दी गई हो। बेचारे धीवरने नाना भॉतिके सैकड़ों उपाय किये पर वह विल्कुल ही न चली-जैसीकी तैसी अचल वनी रही; जिस तरह कि दंडोंके द्वारा मारी-पीटी गई हठी स्त्री एक पाँव भी आगे नहीं बढ़ती; वहींकी वहीं मचला करती है । या यों कहिए कि जिस तरह कालज्वरके वश होकर क्षीण हुआ शरीर विल्कुल ही नहीं चल सकता, चाहे उसके लिए कितने ही उपाय क्यों न किये जावें । उसी तरह नौका चलानेके लिए वह धीवर सव यत्न कर करके थक गया, परन्तु नौका वहाँसे तिलमात्र भी न बढी ।।
यह देख कर पांडवोंने कहा कि भाई, वात क्या है। यह नौका इतने उपायोंसे भी क्यों नहीं चलती। यह इस समय ऐसी अटक कर क्यों रह गई; जैसी कि उत्तम शास्त्रोंमें खोटी बुद्धि अटक कर रह जाती है-आगे नहीं चलती। पांडवोंके वचनोंको सुन कर उत्तरमें धीवरने कहा कि स्वामिन, इस जगह एक जलदेवी रहती हैं । उसका नाम है तुंडिका। वह, जगत्मसिद्ध और अमृतका आहार करनेवाली है । इस समय वह इस नौकाको रोक कर आप लोगोंसे अपने नियोगके अनुसार भेंट मॉगती है। अतः आप इसे इसका हक देकर नौकाको चलती करवा दीजिए । प्रभो, देखिए- इसमें न तो आपका दोष है और न मेरा ही । किन्तु यह अपना नियोग (इक ) चाहती है । न्याय भी ऐसा ही है कि हकदार लोग अपने हकको लेकर ही मनुष्योंको छोड़ते हैं । इस लिए अब आप देरी न कीजिए; किन्तु इसे इसका हक देकर यहॉसे जल्दी चलिए । और यहॉसे जल्दी चल देने में ही आपका हित है । यह सुन कर नौकाको चलानेके लिए तैयार हुए धीवरसे युधिष्ठिरने कहा कि इस समय यहाँ तो हमारे पास कुछ भी नहीं है । इस लिए यहाँसे किनारे तक चलो । वहाँ पहुँच कर हम नाना प्रकारके पकवान तैयार करेंगे और फिर यहाँ आकर आदरके साथ देवीकी भेंट चढ़ा देंगे । भला, इस वातको तुम्हीं कहो कि इस अथाह जल-प्रदेशमें हमें क्या चीज मिल सकती है ! और यदि तुम्हें कोई चीज यहाँ मिल सकती हो तो तुम्ही ला दो। और जब कोई चीज मिल ही नहीं सकती तव हम क्या भेंट कर सकते है। युधिष्ठिरके इन वचनोंको सुन कर धीवर बोला कि महाराज, देववल्लभ प्रभो, कृपा कर
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मेरी एक बात सुनिए । वह यह है कि यह तुंडिका देवी पकवानोंसे दस नहीं होती है; किन्तु देव, इसे सन्तोष होता है मनुष्य - बलिसे । यह जब जब भूखी होती हैं तव तव मनुष्य के मांस से ही सन्तुष्ट होती है । और वस्तुओं से न जाने इसे क्यों सन्तोष नहीं होता । अतः आप भी इसे मनुष्य मांससे तुष्ट कीजिए । महाराज, देर न कर इसे जल्दी से मनुष्य - वलि देकर पार चलिए; नहीं तो वडा भारी अनर्थ होगा ।
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उस धीवरके ऐसे विकट उत्तरको सुन कर युधिष्ठिर आदि बड़े क्षोभको प्राप्त हुए । और अपनी मौतको सामने आ खडी हुई समझ कर वे यो विचार करने लगे कि अहो, जब कर्म ही टेढा है- विमुख हैतब भला हमारा दुःखसे पिंड छूट ही कैसे सकता है । और इसी लिए कहा जाता है कि संसारी जीवोंके लिए कर्म जितना बलवान् होता है संसारमें उतना बलवान दूसरा और कोई भी नहीं होता । देखो, इस दैवकी विचित्रता कि पहले तो हम लोगोंकी कौरवोंके साथ युद्ध होने पर विजय हुई और वाद जब लाक्षागृहमें आग लगा दी गई तब वहाँसे भी जीते जागते हम लोग सुरक्षित निकल आये | और इस समय उसी दैवके मेरे हुए इस नौका बैठ कर अपने आप ही मरनेके लिए इस तुंडिका के शरणमें आ गये । आश्चर्य है कि बड़े बड़े अनिटोंसे तो वच आये, परन्तु जरासे अनिष्टसे मृत्युके ग्रास वने जाते हैं । तब तो यही कहना होगा समुद्रको पार करके अब यहाँ छोटेसे पलवल ( क्षुद्र जलाशय ) में हम लोगों की मृत्यु होगी । सच है कि कर्मके आगे किसीका बल नहीं चलता है । इसके बलके आगे सभी थक कर बैठ जाते हैं । देखो, यह तो वही बात हुई कि धीवर के हाथसे किसी तरह मछली छूट पाई तो जाकर जालपें फँस गई और जालसे भी जैसे तैसे छूटी तो बगुलेने उसे अपना आहार बना लिया ।
इसके बाद युधिष्ठिरने एक दृष्टि भीमकी ओर डाली और इति कर्तव्यतासे विमूढ हुए उस धर्मात्मा ने कहा कि विपुलोदर भाई भीम, इस भय से छुटकारा होनेका कोई उपाय जान पडे तो बतलाओ । देखो, क्या तो विचार किया था और क्या अनिष्ट सिर पर आकर पड़ा है । यह तो वही बात हुई कि विचारा ब्राह्मण राज-पुत्रीकी इच्छासे तो घर बाहर हुआ और रास्तेमें उसे खा लिया व्याघ्रने । अतः इस विमको दूर करने का कोई उपाय करो; और सो
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पाण्डव-पुराण। भी जल्दी करो । नहीं तो अभी थोड़ी ही देर में हम लोगोंका सर्व-नाश हो जाना संभव है । मैं बहुत विचार करता हूँ, पर मेरी समझमें कुछ भी उपाय नहीं आता । सच है कि चिंतासे बुद्धि नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है । इस पर निर्भय भीमने कहा कि पूज्यपाद, अवसर देख कर ही बुद्धिमानोंको काम करना उचित है। देखिए इस सम्बन्धमें मैंने एक निर्दोष उपाय सोचा है और उसमें कोई आपत्ति भी नहीं है । हाँ, उससे मेरी कीर्ति अवश्य होगी । महाराज, इस उपायसे न तो अपयश होगा और न अपमान ही । एवं निंदा और हानि भी इस उपायके करनेसे न होगी । इस लिए इसे कार्य-सिद्धिके लिए आप जल्दी कीजिए। वह उपाय यह है कि यह धीवर जरा-ज्वरका प्रेरा हुआ है, वदसूरत और दरिद्र है, दुःखी है, निर्दय है; अतः इसीको मार कर और देवीको बलिसे तुष्ट कर आगे चलिए। रही नौका चलानेकी बात सो आप इसका बिल्कुल ही भय मन करिए । मुझे भरोसा है कि हम लोग अनायास ही नौकाको चला लेजा कर पार पहुँच जायेंगे | भीमके इन भयानक वचनोंको सुन कर विचारा धीवर तो कॉपने लग गया-उनके होश-हवाश उड़ गये उसका हृदय मानों करोतसे चीर सा दिया गया हो। उसके चेहरेकी सब कान्ति नष्ट हो गई । तात्पर्य यह कि उसे अपने प्राणोंके लाले पड़ गये । वह कहने लगा कि धीमान्, शुद्ध हृदयवाले नृपेन्द्र, मेरे मारे जाने और न मारे जानेसे तो कुछ भी हानि न होगी। परन्तु इतनी बात अवश्य होगी कि मेरे मर जाने पर आपको पार कोई नहीं पहुँचावेगा । मेरे बिना आपकी इस गंगामें ही स्थिति होगी । और इस लोकापवादसे आपकी बड़ी भारी अपकीर्ति भी होगी कि देखो राजाने पार उतारनेवाले बेचारे गरीब धीवरको भी मार डाला-भला करते बुरा कर दिखाया। राजन्, यदि आपको जीवन भर गंगामें ही रहना अच्छा लगता हो, तो भले ही अपने विचार माफिक काम कीजिए । मुझे मार कर देवीको तृप्त कीजिए । परन्तु ध्यान रखिए कि ऐसा करनेसे फिर हमारे कुलके लोग कभी भी आप लोगोंको इस गंगाके पार न पहुँचायेंगे । भला, आप ही सोचिए कि क्या एक वार धोखा खाया पुरुष फिर उसी मार्गको जाता है ?
. धीवरकी इन बातोंको सुन कर दयालु युधिष्ठिरने भीमसे कहा कि भाई, इतने चतुर होकर भी तुम यह क्या कहते हो । तुम्हारे इन वचनोंको सुन कर हम लोगोंका तो दिल दहल गया; जिस तरह कि यमका नाम सुनते ही कर्मका रचा हुआ कोमल शरीर दहल जाता है । तुम्हें ऐसी
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तेरहवाँ अध्याय । ... ... ... .. .. . . . . .mmanmamr बात कभी अपने मुंहसे भी नहीं निकालनी चाहिए । तुम तो स्वयं ही सव कुछ समझते हो और विद्वान् लोगोंमें आदर पाते हो । फिर तुमसे इस विषयमें और अधिक क्या कहा जावे । पुण्य और पापका क्रमसे शुभ और अशुभ या यों कहिए कि सुख और दुःख-रूप फल मिलता है । यह तुम अच्छी तरह जानते हो। इस विषयमें भी तुम्हें समझाना नहीं है । देखो, जो दयालु संसार परिभ्रमणसे डरता है वह पुण्योदयसे प्राप्त होनेवाली सम्पदाकी नॉई ही सुखको पाता है । और जो निर्दय व्रत वगैरहको न पाल कर मदके आवेशमें जीवोंको मारता है वह ढीठ पुरुप दुर्बुद्धिसे नष्ट होनेवाली सम्पदाकी नॉई नष्टभ्रष्ट हो जाता है-दुःखी होता है; उसे कभी सुख नहीं मिलता है । विचार फर तो देखा कि यह धीवर कितना गरीब है, भूखसे खेद-खिन्न होनेके कारण कितना दुःखी है, पापसे पीड़ित और असन्तुष्ट है । इस लिए दयालु भाई, इसे मारना कैमे उचित हो सकता है। दूसरे यह कि यह हम लोगोंको गंगा पार ले जा रहा है, इस लिए हमारा उपकारी है । फिर तुम्ही बताओ कि कहीं उपकारीको भी मारा जाता है ? भाई, इसे मारना किसी तरह भी उचित नहीं है । तुम कोई दूसरा उपाय सोचो, जिससे हम सब सुखसे पार पहुंच जावें।
यह सुन कर अद्भुत पराक्रमी, भीम मुसक्या कर बोला--तो प्रभो, आप निश्चित होकर इस डिकाको वृप्त करनेके लिए युद्ध-अकुशल, नकुलको या दया-रहित
और कुलकी रक्षाके लिए असमर्थ सहदेवको मार कर भेट दे दीजिए । इन दोनोंमेसे किसी एककी बलि देकर पुण्य-रूप वायुकी सहायतासे सुखसे पार चले चलिए; विलम्ब न कीजिए । यह सुन कर महिमाशाली और महान् पुरुषों द्वारा मान्य युधिष्ठिरको मूछी सी आ गई और वह विशिष्ठात्मा भीमसे बोला कि हा तात भीम, तुम्हारे मुंहसे इतनी भयानक वात कैसे कही गई ! मुझे तो ये दोनों भाई पुत्रोंकी भाँति प्यारे हैं-इन पर मेरा कितना प्रेम है, यह तुम नहीं जानते ? हाय ! सुखसे रहनेवाले प्यारे भाइयोंको मैं कैसे मार सकता हूँ। ये तो मुझे मेरे प्राणोंसे भी कहीं ज्यादा प्यारे हैं और इन्हींके भरोसे मैं निर्भय हो रहा हूँ। फिर तुम्ही वताओ कि इनको मारना क्या उचित है ? नहीं, भीम, ऐसी वात मत कहो, ऐसा करनेसे बडा अन्याय होगा-इस अन्यायकी कुछ सीमा ही न रह जायगी । देखो, यदि हम यहॉसे इनको मार कर जायँगे तो सब लोग धिकार देंगे और अपयशका पटह पीटेंगे । वे कहेंगे कि देखो, यह राजा अपने जीवनको प्यारा समझ कर अपने छोटे भाइयोंको मार कर देवीकी भेंट दे आया
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है ! ओह, दया बिना जीते रहनेको धिक्कार है। जिसके हृदयमें दया नहीं उसका जीना व्यर्थ है; किसी भी कामका नहीं । हे निर्दय और हे भयंकर विचारको हृदयमें जगह देनेवाले भीम, ऐसा वचन भूल कर भी कभी अपनी जीभ पर न लाना, जिसमें कि दया न हो । भाई, तुम्हें हमेशा दयापूर्ण वचनोंका ही व्यवहार करना चाहिए | क्या दयासे सने हुए अच्छे वचनोंकी कमी है । यदि नहीं है तो फिर निर्दय वचनोंका प्रयोग ही क्यों करते हो । मेरे विचक्षण भाई, कोई अच्छा उपाय बताओ जो सुखकर हो ।
यह सुन कर चतुर भीम बोला कि देव, यदि आपको मेरी यह बात भी नहीं रुची तो आप देवीको तृप्त करनेके लिए समर्थ अर्जुनको भेंटमें दे दीजिए, ताकि देवी कोई विघ्न न उपस्थित करे । भीमके इन वचनों को सुनते ही युधिष्ठिरका मस्तक घूम गया और वह सम्पूर्ण बातों को समझनेवाला दया-मय बोला कि गंभीराशय भाई भीम, तुम यह क्या निंद्य वचन कहते हो। इससे तो हमारी सर्व सुख-शान्ति धूलमें मिल जायगी । देखो तो भला, यह पार्थ कितना तेजस्वी है । इसको सव राजा महारांजा जानते और मानते हैं । इसे कोई वैरी नहीं जीत सकता । यह अजय्य और धनुर्वेद - विशारद है । इसके जीते रहनेसे तो कभी अपना राज्य वापिस फिर भी अपने हाथ आ जायगा । क्या तुम नहीं जानते कि यह वालकाल से ही प्रचंड वलशाली भुजाओंवाला है और शत्रुओंका शत्रु है । उनको कालके गाल में पहुँचा देने के लिए समर्थ है । यह शब्दवेधमें अतीव प्रवीण पण्डित है, अच्छा धनुर्धर हैं, धर्मात्मा और धीरवीर है । इस लिए यह कभी मार डालने के योग्य नहीं है; अतः इसे नहीं मारना चाहिए |
यह सुन भीम बोला कि अच्छी बात है आप किसी को भी नहीं मारना चाहते तो कमलकी नाँई कोमल माता कुन्तीको ही देवीकी भेंट कर दो, जिससे और सर्व पांडव आपत्तिसे छुटकारा पालें । इसके उत्तरमें युधिष्ठिरने कहा कि मेरे भाई भीम, ऐसा मत कहो । देखो, यह अपनी जननी है, जन्म देनेवाली है, अत एव सदा ही पूजे जाने योग्य है। दयालु है, दयाकी मूर्ति है और सब लोग इसे मानते हैं। भाई, विचारो तो इसने हमें नौ महीने अपने गर्भाशयमें रक्खा है और फिर जन्म देकर बड़े भारी कष्टों से हमें पाला-पोषा है । अतः जो सुखी होना चाहते हैं उन्हें संसार भर द्वारा मान्य जननीको मारना कभी भी उचित नहीं है । देखो, संसारके प्रसिद्ध पुरुषोंने तो जननीको तीर्थ बताया है और हम उसे मार डालें, यह कहाँ तक योग्य और न्याय्य बात है । भाई भीम, तुम तो दया के सागर हो;
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तेरहवाँ अध्याय । न्यायके जानकार और प्रवीण हो, धर्म और अधर्मका अन्तर समझते हो तथा लोक-व्यवहार और लोकनीतिको भी जानते हो और मेरा तो यह विश्वास है कि तुम्हारे समान लोकमें न तो कोई विजयी है और न चतुर ही । तुम अद्वितीय पराक्रमी हो । अतः हे भाई तुम युक्ति-युक्त विचारपूर्ण बात कहो और वैसा ही उपाय भी करो।
- इसके बाद विशिष्टात्मा और हितैषी युधिष्ठिरने भयको दूर करनेके लिए मन-ही-मन यह भव्य विचार किया कि भीमने जो प्यारे भाइयोंको तथा पूज्या जननीको मारनेके लिए कहा वह तो ठीक नहीं है, किन्तु इस समय मुझे स्वयं अपनी ही बलि दे डालना कहीं अधिक उचित है । यह सोच कर वह पवित्रामा स्वयं अपनी बलि देने के लिए तैयार हुआ । उसने अपने भाइयोंको कहा कि भाइयो, तुम लोग हमेशा भक्ति और मानके साथ माताकी सेवा करना । देखो, माताकी सेवासे सब मनोरथ सिद्ध होते हैं और मनचाही सम्पत्ति मिलती है। अत: तुम कभी माताकी सेवासे विमुख न होना । तथा परोपकारसे तुम हमेशा लोगोंको प्रसन्न रखना । देखो, जो परोपकारी होते हैं, परोपकार करते है वे संसारके सिरताज बन जाते हैं। तुम लोग कभी कौरवोंका विश्वास नहीं करना; क्योंकि वे सब बड़े विश्वासघाती है, दूसरोंके मनोरथों बाधा डालनेवाले हैं। अधिक क्या कहें व आशीविष सॉपके समान हैं। उन पर विश्वास करनेसे तुम्हें कभी सुख नहीं हो सकेगा । किन्तु इसके विपरीत मौका पाकर तुम कौरवोंके वंशका विध्वंस करके अपने अद्भुत पराक्रमसे सारे देश पर अधिकार जमाना और सुख-पूर्वक रहना। युधिष्ठिरने सुशिक्षित और दक्ष भीम आदिको इस तरह खूव समझाया।
इसके बाद वह गीले वस्त्रसे शरीरको साफ कर, मनके मैलको धोकर ध्यानमें 'स्थिर हो गये और पंच परमेष्ठीका नाम जपने लगे । इस समय उनके मनमें राग-द्वेषको बिल्कुल ही जगह न थी, अतः शत्रुमित्र, भाई-बन्धु सब पर उनका एक सा भाव हो गया था । वह शरीरसे भिन्न आत्माकी भावना करते थे तथा इच्छाओंके जालको तोड कर निरीह हो गये थे । वह संसारको विनश्वर और परम पदको नित्य-रूपमें देखते थे। और इसी कारण वह दो प्रकारका संन्यास धारण करके निर्भय हो गये थे। इसके बाद उन शुद्धमनाने अपने सब भाइयोको क्षमा कर उनसे क्षमा करवाई
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और माताको नमस्कार किया । अब वह वली युधिष्ठिर अपनी चाल देनेको तैय्यार हुए । यह देख भयके मारे काँपने हुए भीम आदि सब भाई वडे दुखी होकर बोले कि देव आपने यह क्या दुःखका कारण उपस्थित कर दिया है, जिसको कि हमने कभी स्वप्नमें भी नहीं विचारा था। यह वात बड़ी दुराराध्य, दुःसह तथा कष्ट-मय है । देव, आपका यह प्रयत्न हमारे लिए असह्य है; हमें वड़ा दुःख हो रहा है । हमारी तो यह इच्छा थी कि हम लोग अपना वनवास समाप्त कर फिर वापिस जायेंगे और इन दुष्ट कौरवोंको घोर युद्ध करके यमराजका ग्रास बनायेंगे । सो हम तो इच्छा ही करते रह गये और देवने एक दूसरी ही अवस्था सामने खड़ी कर दी। इस दैवको धिक्कार है जो पुरुषार्थको जगह ही नहीं देता।
इन सवकी यह दशा देख दैवको दूषण देनी हुई, करुणासे पूर्ण-चित्त कुन्ती भी इस दुःखदशासे पीड़ित होकर विलाप करने लगी । हा पुत्र, हा पवित्रात्मन्, हा करुणरससे कोमल-चित्त, हा राज्ययोग्य, हा राज्य भोगनेवाले भव्य, हा भव-भाव विदांवर, हा बाहुवलसे वैरियोंको खंडित करनेवाले युधिष्ठिर, तुम्हारे विना अब कुरुजांगल देशको कौन पालेगा । पुत्र, शत्रुओंको मार कर अब राज्यको तुम्हारे विना कौन हस्तगत करेगा, क्योंकि तुम्हारे सिवा दूसरा कोई भी ऐसा नहीं है जो कौरवोंका ध्वंस करनेके लिए समर्थ हो । इस प्रकार विजलीकी प्रभाके समान प्रभावाली कुन्ती रोती हुई
और हाथोंसे छाती पीटती हुई मोहके वश हो, मूच्छित हो गई । सच है मोह चेतना-सुध-बुध-हर लेता है। कुन्ती तो इधर मूर्छित ही पड़ी थी कि इतनेमें युधिष्ठिर जलमें कूद पड़ने के लिए उद्यत हुए।
इसी समय भयसे विह्वल हो कर उनसे भीप बोला कि स्वामिन् , आप तो स्थिर रह कर पृथ्वीका पालन कीजिए और शत्रुओंको यमका घर दिखाइए । हे कुरु-वंश-रूप आकाशके चंद्रमा, आप मुझे गंगामें कूद पड़नेकी आज्ञा दीजिए । मैं अपनी बलिसे तुंडिकाको सन्तुष्ट कर दूंगा। इस पर युधिष्ठिरने कहा कि भाई भीम, तुम्हें व्यर्थ यमके मुंहमें पड़नेकी आवश्यकता नहीं है । भीमने कहा कि मैं उस महासुरी तुंडिकाके साथ अपने वज्रके जैसे हाथोंके प्रहारोंके द्वारा युद्ध. करके अभी उसे पद-दलित किये देता हूँ और देखता हूँ कि उसका पुरुषार्थ कितना है । यह कह
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कर निर्भय भीमने देवीसे कहा कि “देवि, लो मेरी वलि लो, मुझे ग्रहण करो"। इसके बाद वह गंगाके अथाह जलमें कूद पड़ा । उसे सचमुच ही कूदा हुआ देख कर युधिष्ठिर आदि रोने लगे और कुन्ती भी हाहाकार करती हुई विलाप करने लगी। हा भीम, हा महाभाग, हा पराक्रमशाली भुजाओंवाले, हा परोपकारपारीण और हा शत्रुपक्षके विध्वंसक भीम, तुमने हमारे लिए सारा जगत सुना कर दिया । तुम्हारे विना हमें यह सारा जगत सूना देख पडता है । तुम्हारे बिना हमारा मन विचार-विमूढ हो गया है । कहो अब हम इस दुःख-रूपी सागरको तुम्हारे चिना कैसे पार करेंगे । उधर भीम ज्यों ही गंगामें कूदा कि देवताने नौकाको छोड़ दिया । फिर क्या था थोड़ी ही देरमें नौका पार पहुंच गई और शोकसागरमें डूबे हुए दुःखी चार पांडव भी कुन्तीसहित गंगाके पार पहुंच गये । परन्तु वे भीमके वियोगसे बड़े दुःखी थे। अत एव वे विचक्षण वार वार भीमकी ओर देख रहे थे । इस समय महान दुःखसे उनका हृदय जला जा रहा था । भीमके गुणोंका स्मरण कर उनकी ऑखोंमें ऑसू भर आते थे। परन्तु दैव-वश वे कर कुछ नहीं सकते थे। आखिर नौकामेसे उतर कर उन्होंने अपना रास्ता लिया।
महान् भयंकर भीमके गंगामें कूदते ही तुंडी मगरका रूप कर उसकी ओर दौड़ी । उसको अपनी ओर आती हुई देख कर भीमको चडा भारी क्रोध आया । वह जल पर तैरता हुआ उसके साथ युद्ध करने लगा । भीमका और तुंडीका आपसमें पैरोंके आघातों द्वारा खूब ही युद्ध हुभा । जान पड़ता था कि मानों जलके ऊपर रोषके भरे दो निष्ठुर मल्ल ही लड़ रहे है । इस समय अखंड और प्रचंडात्मा भीमने पावोंके प्रहार द्वारा तुंडिकाको अधमरा कर दिया, जिससे वह बड़ी क्रुद्ध हुई और उसने भीमको एकदम ही निगल लिया । तब भीमके भी क्रोधकी सीमा ही न रही
और उस वीरने अपने हाथके वज्र जैसे महारके द्वारा उसका पेट ही फाड़ डाला तथा उसकी पीठकी हड्डीको जो कि खूब ही मजबूत और वज्रके जैसी थी, उखाड़ कर फेंक दिया और आप आरामके साथ उसके पेटसे बाहिर निकल आया । देवी भीमकी भयानक मारसे अत्यन्त विह्वल हो गई । उससे जब कुछ भी न वन पड़ा तब वह गंगाके उस मार्गको छोड़ कर उसी समय भाग गई । इस प्रकार-उसे पराजित कर भीय हाथोंसे गंगाको तैर कर आ गया । उसे आता हुआ देख कर, लौट लौट कर पीछे की ओर देख रहे स्थिरव्रत युधिष्ठिर आदि
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पाण्डव-पुराण। mwermenimmornaraan पांडव और प्रसन्न-मुख कुन्ती सब वहीं ठहर गये । भीमने जाकर उन सबके चरणोंको नमस्कार किया और बड़ी भारी उत्कंठाके साथ गले लग कर उन सवका आलिंगन किया। इसके बाद उससे युधिष्ठिरने पूछा कि भाई, तुम इतनी गहरी अथाह गंगाको हाथोंसे कैसे तैर आये और तुमने हाथोंसे ही उस दुष्ट तुंडिकाको कैसे जीता । इसके उत्तरमें भीमने कहा कि पूज्यवर, मैं आपके पुण्यके प्रभावसे ही हाथोंके प्रहारसे तुंडिकाको हरा कर गंगाको तैर कर यहाँ आया हूँ।
इस प्रकार अथाह गंगाको तैर कर, तुंडी देवीको जीत कर तथा शत्रुओं पर विजय लाभ कर वे जयशील पांडव परस्परमें खूब ही आनन्दित हुए। ___ भव्यजीवो, देखो, यह सब धर्मका ही प्रभाव है । और है भी ऐसा ही कि यदि धर्मका समागम हो तो जीवोंको भला क्या क्या सम्पत्ति नहीं मिल सकती-धर्मात्माओंको सव सम्पदायें अपने आप खोज कर उनकी सेवामें उपस्थित हो जाती है । तात्पर्य यह कि धर्मके प्रभावसे जीवोंको सब कुछ मिल जाता हैकुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता।
जिसे धर्मसे प्रेम होता है वही संसारमें सुख पाना है, वही मोक्षके लिए प्रयत्न कर सकता है और वही अपने शरीरकी प्रभासे अँधेरेको दूर करता है अर्थात् देवतों जैसे सुन्दर तेजशाली शरीरको पाता है । उसकी देव रक्षा करते हैं, जिसका कि धर्म सहायक होता है । उसीको धन-समृद्धि मिलती है और वही उत्तम उत्तम पुरुषों द्वारा पूजा जाता है।
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चौदहवाँ अध्याय।
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चौदहवाँ अध्याय।
उन चन्द्रप्रभ भगवानको प्रणाम है जो गुणों के भंडार हैं, जिनके चरणों में
चन्द्रमाका चिन्ह है, जिनके शरीरकी ममा चन्द्रमाकी प्रभाके समान है, जो चन्द्र द्वारा पूजे जाते हैं, और जिनकी चन्दन आदि उत्तम द्रव्योंके द्वारा पूजा होती है । वे हमें शान्ति दें; हमारे कर्म-फलंकको दूर करें।
इसके बाद उन तेजस्वी पांडवोंने ब्राह्मणका रूप बनाया और कुन्तीकी गनिके अनुसार धीरे धीरे चल कर वे लोग कौशिकपुरीमें आये । कौशिकपुरी सब नरह शोभासे युक्त थी। उसमें जो उत्तम उत्तम विशाल महल बने हुए थे वे स्वर्गमे च्युत होकर वहाँ आये हुए विमानसे देख पड़ते थे। उनकी सुन्दरता स्वर्गके विमानों जैसी थी । उस नगरीका कोट बहुत ऊँचा था । अतः जान पड़ता था कि मानों उसने पृथ्वीका आधार पाकर इस कोटके बहानेसे आकाशमें निराधार ठहरे हुए स्वर्गीको जीतने के लिए ही जानेका इरादा किया है ।
___ उसके स्वामीका नाम वर्ण था । वर्ण राजा श्रीमान् था, सुमति था, शास्त्रका ज्ञाता और उत्तम वर्णका था । उसका रूप-सौदर्य वर्णनातीत था-उसका कोई वर्णन ही नहीं कर सकता था । उसकी रानीका नाम प्रभाकरी था । वह भी अपने पति के जैसी ही थी । अन एन वर्ण उस पर खूब ही प्यार करता था । उसके शरीरकी कान्ति सव ओर फैल रही थी, जिससे उसकी खूब शोमा हो रही थी। उसका मुंह चॉदके जैसा था, अतः उसकी ज्योत्स्नाके मारे कौशिकपुरीमें कभी किसी जगह अँधेरेको जगह न मिलती थी; सब जगह हमेशा ही प्रकाश रहता था । वर्ण और प्रभाकरीके एक पुत्री थी। उसका नाम था कमला । कमलाका रूप कमला (लक्ष्मी) के जैसा ही था । वह रूप-सौन्दर्यकी सीमा थी। उसके नेत्र बहुत ही सुहावने थे, उन्हें देखनेवालेकी तृप्ति ही नहीं होती थी। वह गणोंकी समुद्र थी। उसका शरीर तेज-शाली था । अतः वह तेजकी दूसरी मूर्ति सी देख पड़ती थी।
एक दिन उस मुग्धाके मानसमें वनक्रीडाकी उत्कंठा हुई और वह अपनी सखी-सहेलियोंको साथ लेकर निर्मल, श्रीयुक्त, उत्तम वृक्षोंवाले और चंपक आदि भाँति भॉतिके फूलोंसे सुंदर प्रमद नाम उद्यानमें गई और वहाँ जाकर उसने
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सखियोंके साथ खव क्रीड़ा की। एवं उस लज्जा-रूप भूषणसे विभूषित सुन्दरीने झूलेमें झूल कर बहुत आनन्द-विनोद किया ।
___ इसके बाद कमलाने दूरसे एक जिन मन्दिरको देखा । वह बिल्कुल सुधाके जैसा सफेद था, समृद्धशाली था । उस पर सोनेके सुन्दर कलश चढ़े हुए थे। उसे देख कर जिन भगवानकी वन्दना करनेके लिए जानेकी उसकी इच्छा हुई । इसी समय पांडव भी उस जिनमन्दिरके पास आये । उसमें चन्द्रप्रभकी मनोज्ञ प्रतिमाको देख कर और प्रासुक जलसे स्नान कर पवित्र हो, निःसहि निःसहि कहते हुए उन्होंने मंदिरमें प्रवेश किया । भगवानकी पूजा-वन्दना करके वे, पवित्र, परमोदय और विचित्र स्तोत्र-मंत्रोंके द्वारा उनकी भक्तिभावसे स्तुति करने लगे कि जिनेन्द्र, भव्योंके जीवनाधार और जन्म-मरणके दुःखोंको हरनेवाले प्रभो, तुम्हारी जय हो । सदाकाल धर्मका उपदेश करनेको उद्यत, अजय्य
और शत्रु-समूहको जीतनेवाले चन्द्रप्रभ भगवन, आपके कान्तिशाली शरीरकी प्रभा ऐसी है कि उससे आपने चाँदको भी जीत लिया है । और प्रभो, इसमें तानिक भी सन्देह नहीं है, नहीं तो चंद्रमा चिन्हके वहाने भला आपके चरणोंकी सेवा ही काहेको करता । प्रभो, आपकी जय हो । आप केवलज्ञानके स्वामी हैं, संसारके उद्धारक हैं, कृपा-पारंगत हैं। अतः स्वामिन् , आप हमारी रक्षा करो। हमें संसारसे पार कर इन दारुण दुःखोंसे हमारा पिंड छुड़ाओ। इस प्रकार भक्तिभावसे प्रभुकी स्तुति कर उन्हें बड़ा आनंद हुआ । उन्होंने खूब पुण्य-कर्मका वध किया।
इसके बाद वे पुण्यात्मा वहाँ बैठे ही थे कि इतनेमें वहीं सखी-सहेलियोसहित प्रभुकी-वन्दना करनेके लिए कमला भी आ गई। उसके नेत्र-कमल खिल रहे थे और-' गलेमें मनोहर हार पड़ा था। वह अपने विछुओंके शब्दोंके द्वारा कोयलोंके कंठोंको लज्जित करती थी। उसके नितम्ब बड़े भारी. भारवाले थे, अतः वह स्खलित चालसे चलती हुई अपनी मंद गतिसे हथिनीकी गतिको जीतती थी। उसकी कमर करधौनीसे सुशोभित थी । वहाँ आकर वह जिनभवनके भीतर गई । वहाँ जाकर उस सुखिनीने जैसी विधिसे चाहिए प्रभुकी भक्तिभावसे वन्दना की और बाद उसने सुगन्धित चन्दनके द्वारा जिस पर कि भौरे गूंज रहे थे, प्रभुके चरण कमलोंकी पूजा की; उनके चरण-कमलोंमें मंदार, मल्लिका केतकी, कुंद, कमल, चंपक आदिके उत्तम उत्तम सुगन्धित पुष्प चढ़ाये; उसने सब दिशाओंको सुगन्ध-मय कर देनेवाली धूपको आगमें खेकर अपने कर्म-जालको जलाया
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और मनोहर, उत्कृष्ट फल प्रभुकी भेंट रक्खे । तात्पर्य यह कि उसने आठ द्रव्योंसे प्रभुकी खब भक्तिके साथ गुण गा-गा कर पूजा की । । ) इसके बाद वह जिनभवनसे वाहिर निकली और वहाँ उसने पवित्र पांडवोंको
देखा। उनमें तेजशाली और रूप-सौन्दर्यशाली युधिष्ठिरको देख कर वह उनके अतिशय सुन्दर रूप पर मोहित हो गई और मन-ही-मन विचारने लगी कि यह कौन है ? सुर है या सुरेश, चॉद है या सूरज, नगेन्द्र है या किन्नरदेव । ये मनुष्यसे देख पड़ते हैं पर देवोंके जैसी ही इनकी प्रभा है, अतः सुरके जैसे देख पड़ते हैं। लेकिन वास्तवम ये हैं कौन । इतने विचारके बाद नेत्रोंके पलक झपकनेके कारण उसने पका निश्चय कर लिया कि यह कान्तिशाली कोई पुण्यात्मा पुरुष ही हैं। इन पुण्यात्माने मेरे मनको विल्कुल ही चुरा लिया है, अतः मैं इनके विना विल्कुल ही अधीर हूँ । अब इन प्राणोंकी मैं मनके विना कैसे रक्षा करूंगी। इस प्रकार वह कामके वाणों के द्वारा विल्कुल ही जर्जरित हो गई, जिससे उसे वहाँसे घर जाना तक मुश्किल हो गया। वह पैर रखती थी कहीं, पर वह जाके पड़ता था और ही कही । क्योंकि उसका मन विल्कुल ही उसके कामें न रह गया था । वह जैसे तैसे सखियोंके सहारे, उनकी जबरस्तीसे महल तक पहुंची । वहाँ वह सालसा न तो कुछ खाती थी
और न वोलती-चालती ही थी; न हँसती थी और न किसीकी ओरको देखती थी। किन्तु खेदखिन्न होकर कभी रोने लगती और कभी सो जाती, कभी उठ बैठती और कभी बैठे बैठे हँसती हुई स्वयं ही गिर पड़ती। कमलाकी ऐसी अवस्था देख कर उसकी माताने सखियों वगैरहसे पूछ कर उसकी ऐसी बुरी हालत होने के कारणको जान लिया। और फिर जाफर उसने सव हाल अपने स्वामी वर्णसे कह सुनाया। सुन कर वर्णने उसी समय 'मंत्रियोंको बुलाया और उन्हें पुत्रीकी क्लेश-मय दशा बता कर उसने पांडवोंको बुला ले आनेके लिए भेजा। पांडव आकर राजासे मिले । राजाने भोजन, वस्त्र, आभूपण आदिसे उनका जैसा चाहिए उचित आदर किया । अत: वे प्रेमके वश हो वहीं ठहर गये। इसके बाद वर्ण राजाने युधिष्ठिर महाराजसे कन्याके लिए प्रार्थना की और उनकी अनुमति पाकर शुभ मुहूर्तमें विधिपूर्वक उनके साथ कमलाका प्रेमविवाह कर दिया और साथमें उन्हें बहुत धन भी दिया।
कमलाका पाणिग्रहण कर पांडव भी उसके साथ दिव्य भोगोंको भोगते हुए मावा और भाइयों सहित वहॉ कितने ही दिनों तक रहे। इसी बीच में एक दिन
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पाण्डव-पुराण । उनसे उनके ससुर वर्णने पूछा कि प्रभो, आप कौन हैं, आपके साथ यह कौन है ? और ये दूसरे चार पुरुष कौन हैं ? आप सब यहाँ आये कहाँसे हैं ? वर्णके इन प्रश्नों के उत्तरमें युधिष्ठिरने कहा कि महाराज, आप हमारे कर्म-कौतुककी बात - सुनिए । हम पाँचों पांडु पण्डितके पुत्र पांडव हैं, हमें कौरवोंने जला कर मारना चाहा था और हमारे महलमें आग लगा दी थी । परन्तु पुण्ययोगसे हम वहाँसे निकल आये-हमें कोई कष्ट नहीं हुआ, और अब हम द्वारिका पुरीको जा रहे हैं । द्वारिकाके राजा समुद्रविजय हमारे मामा हैं और उनके पुत्र नेमिनाथ तीर्थकर तथा कृष्ण, बलदेव हमारे वन्धु हैं। उनके दर्शनोंकी हमें बहुत ही उत्कंठा लग रही है । इस लिए यहाँसे हम द्वारिकाको जायेंगे । इस प्रकार अपनी सारी वातें कह कर वे धर्मात्मा और सत्यवादी कमलाको वहीं छोड़ कर वहॉसे चल दिये।
इसी प्रकार वे सदाचारी और विचारशील तथा परमोत्साही पांडव और भी जहाँ जहाँ गये वहाँ वहाँके माननीय पुरुषोंने उनका खूब सत्कार किया । वे जहाँ पहुँचते थे पुण्योदयसे उन्हें वहाँ सब कुछ सामग्री मिल जाती थी । आसन, शयन, सवारी, आहार वगैरह सब कुछ लेले कर लोग स्वयं ही उनके सामने आ जाते थे । उनका विक्रम दशों दिशाओंमें व्याप्त हो रहा था। रास्तेमें उन्हें जहाँ जहाँ जिनमंदिर मिलते थे उन्हें वे पूजते हुए आगेको जाते थे। इस प्रकार धीरे धीरे वे वृक्षोंसे परिपूर्ण और शोभाके स्थान पवित्र पुण्यद्रुम नाम वनमें पहुँचे । उस वनके ठीक वीचमें बहुतसे जिनमंदिर थे । . वे खूब लम्बे-चौड़े पूरे विस्तारको लिए हुए थे, शरद कालके मेघों जैसे स्वच्छ थे, आकाश तक ऊँचे तथा सोनेके सुन्दर कलशोंसे सुशोभित थे । दुंदुभियों के गंभीर शब्दोंसे वे शब्द-मय हो रहे थे और जय शब्दोंका उनमें कोलाहल हो रहा था । वे निर्मल और विशाल थे, भाँति भाँतिके भूषणोंसे विभूषित भव्योंसे सुशोभित थे और जीवोंको नित्यानंदके दाता थे । उनको दूरसे देख कर धर्मामृतके पिपासु पांडव प्रसन्न होते हुए उनकी ओर गये । वहाँ चित्रोंसे चित्रित भीतोंवाले उन जिनालयोंको देख कर उन्होंने हर्षके साथ, माता-सहित उनमें प्रवेश किया। सोनेके घरोंसे सुसज्जित उन सुन्दर जिनालयों में प्रवेश कर । उन्हें अपूर्व आनंद हुआ। इसके बाद जब उन पुण्यात्माओंने उन मंदिरों में विराजमान सोने और चाँदीकी अतिशय रूपवाली, पवित्र परमोदयवाली प्रतिमाओंका दर्शन किया तब उनके आनंदकी कुछ सीमा ही न रह गई । इसके बाद उन्होंने फल-फूल आदि द्रव्योंके द्वारा जिनबिम्बोंकी अतीव भक्ति-भावसे पूजा
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२१७ की । क्योंकि पुरुषोंको पवित्र जीवन प्रभुकी पूजाके फलसे ही मिलता है। उन्होंने सैकड़ों स्तोत्रों के द्वारा स्तुति कर मस्तक झुका कर प्रभुको प्रणाम किया। इसके वाद सच्चे धर्मको चाहनेवाले उन पांडवोंने गुण-गौरवशाली, गंभीर और सम्यरज्ञानी गुरुकी वन्दना करके उनसे जिन-पूजाके फलको पूछा । उत्तरमें मुनि वाले कि भन्य, सुनिए मैं पूजाके फलको कहता हूँ, अत: इधर ध्यान दीजिए। जो भव्यजन सदा बड़ी भक्तिके साथ जिनपूजा करते हैं उन चतुर पुरुषोंको जिनेन्द्र देवकी पूजासे और तो क्या परम पद भी मिल जाता है, उनके सभी दुःख दूर हो जाते हैं और वे भात्मिक सुखको भोगने लगते हैं। उन्हें फिर कभी दुःख, कष्ट आदिका सामना नहीं करना पड़ता।
देखो, जो जिन भगवानके चरण कमलोंके आगे जलधारा देता है उसकी कर्मरज उपशान्त हो जाती है । जो सुगन्धित चडन चढाता है उसे सुगन्धित शरीरका लाभ होता है। अक्षत चढ़ानेवालेको अक्षय सुख मिलता है । जो पुष्पोंसे पूजा करता है उसे स्वर्गमें दिव्य फूलोंकी मालायें पहिननेको मिलती हैं । नैवेद्य पूजाका फल धन-दौलतकी प्राप्ति और दीप पूजाका फल शरीरमें दीप्ति होना है। अगुरु-चंदनकी धूपसे जो प्रभुकी पूजा करता है उसे नेत्रोंको सुहावना शरीर मिलता है । फलकी पूजाका फल यह है कि उसे मोक्ष लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है । और अय॑से जो पूजा की जाती है उसका फल होता है देवों द्वारा पूज्य अनर्घपदका लाभ । इस तरह मुनिराजके मुख-कमलसे पूजाके फलको सुन कर महान् श्रीशाली और क्रोध आदि कषायोंसे रहित अत एव निर्मल-चित्त, श्रावकव्रती पाडव हर्षसे गद्गद हो गये। उनके रोमाञ्च हो आये ।
इसके बाद पांडवोंने नाना लक्षणोंसे लक्षित एक अर्जिकाको देखा । वे उसे नमस्कार कर उसके आगे बैठ गये और कुन्ती एक ओर बैठ गई। वहीं एक फन्या वैठी हुई थी। वह सुंदर लक्षणोंसे युक्त थी । उसके नेत्र चंचल थे और उनकी सुन्दर पलकें थीं। उसकी चितवन मनको मुग्ध कर देती थी । चंचलता, प्रेम
और क्षमाका वह भंडार थी। प्रोषधसे उसका शरीर बहुत कृश हो रहा था । वह अच्छे सुशील रक्षकों द्वारा रक्षिन थी । लिखना पढ़ना उसने अभी · आरंभ ही किया था। उस सुन्दरी कन्याको देख कर कुन्तीने अर्जिकाको नमस्कार कर पूछा कि आर्ये, धर्मध्यानको धारण करनेवाली और धर्म-कर्ममें धुरीण यह साध्वी कन्या जो तप तपती है, इसके तप तपनेमें कारण क्या है। क्योंकि
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पाण्डव-पुराण । ऐसी विषम यौवन अवस्थामें जिसमें कि कामका खूब जोर रहता है, कारणके विना वैराग्य नहीं हो सकता । अतः इसके वैराग्यका कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए। यह रंगीन वस्त्र पहिने हुए है, अतः अभी दीक्षित नहीं हुई है। परन्तु फिर भी यह स्थिरमना आपके पास वनमें किस कारणसे रहती है। उसके रूप-सौंदर्यको देख कर कुन्तीकी इच्छा उसे अपनी वधू बनानेकी हुई । अत एव उस साध्वीने उस चंचल नेत्रोंवाली कन्याको अपने मनोहर चक्षुओंकी एक टक दृष्टि से देखा । उधर वह कन्या भी अपनी चंचल दृष्टिसे बैठी बैठी चुपचाप युधिष्ठिरको देख रही थी । और युधिष्ठिर भी कन्याके मुख-कमलकी ओर दृष्टि डाल रहे थे। फल यह हुआ कि अपनी अपनी दृष्टिके साथ युधिष्ठिरने कन्याको और कन्याने युधिष्ठिरको अपना अपना मानस दे दिया। वे चंचलात्मा मन ही मन एकमें एक खूब मिल गये । केवल शरीरसे एक दूसरेका सेवन और वचनसे आपसमें बातचीत न कर सके । इतनेमें कुन्तीके प्रश्नोंके उत्तरमें अर्जिकाने कहा कि देवी, इसका चरित वड़ा विचित्र है । मैं थोड़ेमें कहे देती हूँ। तुम ध्यान देकर सुनो।
इस पुरीका नाम कौशाम्बी है । इसमें उत्तम उत्तम जनोंका निवास है। यह उनके धैर्य, चातुर्य और उत्तम आचरणसे शोभित है । यहाँका राजा विध्यसेन है । वह पुण्यात्मा है और उसका मुँह चंद्रमाके जैसा है। उसकी रानीका नाम विंध्यसेना है । वह सदा प्रसन्नचित्त रहती है, अत एव उन दोनोंमें बड़ी गाढ़ी प्रीति है । उनके एक पुत्री है । उसका नाम वसंतसेना है । वह सर्वगुण-सम्पन्न, सुन्दरी, सुन्दर नेत्रोंवाली, साध्वी, कला-विज्ञानमें पारंगत यही वह कन्या है । राजाने विचार करके इसके सम्बन्धमें यह निश्चय कर लिया था कि भाँति भॉतिके भूपोंसे विभूषित इस सुन्दरी कन्याका व्याह मैं युधिष्ठिरके साथ करूँगा। परन्तु थोड़े ही समयमें लोकमें फैलती हुई यह अफवाह सुनी गई जो कि बहुत ही दुःख देनेवाली है । वह यह कि कौरवोंने पांडवोंको महलमें आग लगा कर जला दिया है। उसे सुन कर वसन्तसेनाने मनमें सोचा कि पतिका जल-मरना बहुत ही बुरा हुआ । परन्तु इसमें मेरे पापके उदयके सिवा और कुछ भी कारण नहीं है । इस चतुराने तव इस बात पर बहुत विचार कर स्थिर किया कि मै अब युधिष्ठिरके सिवा और किसीको अपना स्वामी नहीं बनाऊँगी । वह जल चुके हैं, अव मिलनेके तो है नहीं, अतः मैं अव उत्तम तप ही तपूँगी। जिससे अब आगे और किसी भवमें ऐसे निंद्य कर्मका बंध न हो । यह
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२१९ सोच कर जब यह दीक्षा लेनेको तैयार हुई तब इसके पिता आदिको बड़ा दुःख हुआ और संसारसे भयभीत हुई वसन्तसेनाको उन्होंने बहुत समझाया कि वेटा, पत्तोकी नॉई बड़े कोमल तुम्हारे हाथ है, चॉदके जैसा सुहावना तुम्हारा मुँह है और कमलके जैसे कोमल पाँव हैं । तात्पर्य यह कि तुम्हारा सारा शरीर ही अत्यंत कोमल है; सुकुमार है । फिर ऐसे कोमल शरीरसे इतना भारी दुष्कर तप भला कैसे होगा। क्या कहीं मछकी भी अपने दाँतोंसे लोहेके चने चबा सकती है । अथवा हे मधुरभाषिणी पुत्री, यदि तुझे दीक्षा ही लेना है तो कुछ दिन और ठहर जा और किसी अर्जिकाके पास सच्चे शास्त्रका अभ्यास कर । कदाचित् तेरे पुण्य-प्रतापसे ही युधिष्ठिर निर्विघ्न हो; उनके ऊपर आई हुई आपत्ति टल गई हो । तू इतनी जल्दी क्यों करती है । देख, ऐसे पुण्यात्मा पुरुषोंकी थोड़ी आयु नहीं होती; वे दीर्घजीवी होते हैं । यदि वे जीवित होंगे तो सुवासिनी पुत्री, तू उनकी पत्नी होकर उनके साथ आनन्द-चैनसे घरगिरस्तीके सुखोंको भोगना
और नहीं तो दीक्षा लेकर तप तपना । पर अभी कुछ दिनोंके लिए मेरा कहना मान जा और दीक्षा मत ले।
इस प्रकार माता पिताके समझानेसे वसन्तसेना समझ गई और इसने कुछ दिनके लिए दीक्षा लेनेका अपना इरादा बदल दिया । परन्तु यह हमेशा मेरे पास आकर कायक्लेश करके शरीरको सुखाया करती है । यह संयम पालती है, रसपरित्याग तप तपती है और कायोत्सर्ग करके कठोर तप किया करती है । यह साध्वी है-शीलवती है । इसका चरित बिल्कुल निर्दोष है । एवं यह शुद्ध सिद्धान्तको जाननेके लिए सदा अच्छे अच्छे शास्त्रोंको सुना करती है । इधर वसंतसेनाने मनमें सोचा कि कहीं यही सुगुण कुन्ती और ये पाँचौ पांडव ही तो नहीं हैं। आखिर वह अपनी उत्सुकताको न दाव सकी और वह बोली कि गुणोंकी खान पुण्यात्मा और चमरके जैसे घालोंवाली महाभाग देवीजी, आप कौन हैं और सर्व-गुण-सम्पन्न ये पाँवों कौन हैं। विचार-शील माताजी, आप मुझसे सव बातें कहें । कुन्ती बोली कि बेटी, सुनो मैं तुम्हें सव वातें वताये देती हूँ।हम सब ब्राह्मण हैं-ब्रह्मविद्याके जानकार दैवज्ञ हैं । इस लिए पुत्री, मैं जो कुछ कहूँ तुम उस पर पूरा भरोसा करना । अपनी सब बातें कह कर कुन्तीने वसन्तसेनासे हंस कर कहा कि पुत्री, तुम पवित्र हो, पुण्यात्मा हो, सुन्दरी सुहावनी हो, गुणज्ञा और गुणाधार हो, उत्तम और महोदया हो, अत: जन्मपर्यन्त शीलको धारण करो और दीक्षाकी आशा छोड़ कर श्रावकके व्रतोंमें
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पाण्डव-पुराण |
मनको स्थिर करो । सम्भव है तुम्हारे पुण्यसे पांडव अवश्य ही जीवित होंगे क्योंकि ऐसे महान पुरुषोको मनुष्य तो क्या देवता भी नहीं मार सकते हैं । यह सुन कर कान्ति-हीन और खेदखिन्न वसन्तसेना आर्तध्यान से संतप्त हो उठी; परन्तु उसने अपने मनरूप मत्त गजेन्द्रको रोका और अपने पूर्वकर्मकी निंदा करती हुई वह कठोर तप तपने लगी ।
इधर प्रतापी पांडव कुन्ती सहित वहाँसे चल कर नाना विनोदोंमें मस्त हुए और प्रकृतिकी सुन्दरताको देखते हुए त्रिशंग नाम नगरमें आये । यह नगर वड़ा सुंदर था । इसके महल - मकान इतने भारी ऊँचे थे कि उनके शिखरों पर आकर चन्द्रमा विश्राम करता था । यहाँका राजा चंडवाहन था । उसने अपने भुजा-रूप दंडोंके द्वारा बड़े बड़े वैरियोंका सर्व नाश कर दिया था, अतः वे जायें उसका भूषण हो गई थीं । उसकी प्रिया विमलप्रभा थी । वह नित्य आनन्दित रहती थी । उसका शरीर कान्तिका पुंज था, निर्मल था और उसके पॉव अतीव सुन्दर थे | चंडवाहन और विमलप्रभा दस पुत्रियाँ थीं । वे सब सुशिक्षिता, विदुषी थीं । उनमें सबसे बड़ी पुत्रीका नाम था गुणप्रभा । वह गंभीर थी और गुणज्ञा थी । वाकीकी और नौ पुत्रियों के नाम ये थे । सुप्रभा, ह्री, श्री, रेति, पद्मा, इन्दीवरा, विश्वा, ओश्चर्या, अशोकी । ये सभी गुणवती परम शोभाकी स्थान थीं, रूप-सौभाग्य से सुशोभित थीं और यौवन अवस्थाको प्राप्त हो चुकी थीं । एक दिन उन सबको यौवन अवस्थामें देख राजाने एक निमित्तज्ञानीसे पूछा कि इनका स्वामी कौन होगा । निमित्त ज्ञानीने निमित्तज्ञानसे कहा कि महाराज, इनका वर युधिष्ठिर नाम पांडव होगा । यह बात सुन कर उन गुणवती कन्याओंने युधिष्ठिरको ही अपना पति निश्चित किया और वे सुखसे वहीं रहने लगीं । परन्तु कुछ दिनों बाद उन्हें पांडवोंके सम्बन्धमें कुछ और ही बात सुन पड़ी, जिससे वे बहुत ही दुःखी हुई ।
यहीं एक सेठ और था । उसका नाम प्रियमित्र था । वह धनी था, श्रीमान् था । मित्र (सुरज) के समान उसकी प्रभा थी । मित्रोंके द्वारा वह वृद्धिंगत था । उत्तम गुणवालोंमें श्रेष्ठ था । उसकी मियाका नाम सौमिनी था । उनके नयनसुन्दरी नाम एक कन्या थी । वह मृगाक्षी थी, उसका मानस बहुत ही निर्मल था । वह बड़ी सुन्दरी थी, गुणोंकी खान थी । राजाकी तरह सेठने 'इसको भी निमित्तज्ञानीके वचन से युधिष्ठिरको देनी कर रक्खी थी । अतः वह
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चौदहवाँ अध्याय। भी पांडवोंके जलनेकी बात सुन कर खेदखिन्न हुई और गुणप्रभा आदि राजपुत्रियोंके साथ रहने लगी । इसके बाद ये ग्यारहकी ग्यारह ही कन्यायें धर्मध्यानमें लीन होकर बत-उपवास वगैरह करने लगी । और राजा, सेठ तथा उन दोनोंकी भार्यायें ये चारों अपनी कन्याओंके ब्याह देनेकी चिंतामें मग्न होकर दुःखसे अपना समय बिताने लगे । ये मधुरभाषिणी कन्यायें सभी पर्वदिनोंमें स्थिरचित्तसे दुष्कर उपवास करती थीं । इसी प्रतिज्ञाके अनुसार इन्होंने एक दिन चतुर्दशीको सोलह प्रहरका उपवास किया और वे एक वनके जिन मंदिरमें-जहाँ किसी तरहका कोई उपद्रव न था-गई । वहाँ उन्होंने धर्म-ध्यान पूर्वक कायोत्सर्ग धर कर रात और दिनको बिताया तथा अपनी आत्माको शुद्ध किया । उस दिन जिन भगवान्, चक्रवर्ती तथा अन्य महापुरुषोंकी फयाओं
और उनके पचित्र जीवन-चरितोंके श्रवण-पूर्वक रात विता कर सवेरे उन्होंने मामायिक आदि क्रियायें की । इस समय उन सबसे श्रीमती गुणप्रभा राजपुत्रीने कहा कि हम लोग आज यहीं पारणा करेंगी । और यदि आज मुनिदानसे हमारा पारणा सफल हो गया तो समझो कि जन्म ही सफल हो गया । तथा एक बात यह है कि मुनिको दान देकर उनके पाससे हम उत्तम तप ग्रहण करेंगी । इसके बाद वह शुद्धमना इस प्रकार भावना भाने लगी कि संसार बड़ा भारी विचित्र है, इसमें मोहके वश होकर बुद्धिमान लोग भी ममत्व करने लग जाते है-इसकी विचित्रतासे अपनेको भूल जाते हैं । फिर भी यहाँ यह स्त्रीपना तो और भी निंद्य है, यह पापके उदयसे प्राप्त होता है। - देखो, कन्याके उत्पन्न होते ही तो माता-पिता संकटमें पड़ जाते हैं । वे उसके जन्मकी खवर पाते ही निसासें डालने लगते हैं और पुत्रकी आशा छोड़ कर निराशाके समुद्रमें गोते लगाने लगते हैं । इसके सिवा जब वह सयानी होती है तब उन्हें उसके विवाहकी चिन्तामें जलना पड़ता है । एवं किसी तरह
आपत्तियोंको सह कर भी वे उसके विवाहसे पार पड़े तो उन्हें इस बातकी चिन्ता लगी रहती है कि कन्याको पतिके समागमसे सुख होगा या नहीं । सुख हुआ तब तो अच्छा ही है; अन्यथा कहीं पापके उदयसे वर दुष्ट, व्यसनी, झूठा, लवार, गैरसमझ, अविनयी, अन्यायी, व्यभिचारी, रोगी, दरिद्री, परस्त्री-लंपट, क्रोधी, अधर्मी और दुर्बुद्धि हुआ तव तो उस बेचारीके दुःखका पार ही नहीं रह जाता। फिर उस स्त्रीके दुःखोंको-जिसको कि ऐसा पति मिला हो-कौन जान
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सकता है। और माना कि वर निर्दोष भी मिल गया; परंतु कहीं सौतका समागम हो गया तव और भी अधिक दुःखका पहाड़ ही उसके सिर पर आ पड़ता है। क्योंकि स्त्रियोंको जैसा दुःख सौतका होता है वैसा दुःख संसारमें न तो किसीको है, न हुआ और न होगा ही । इसके सिवा यदि स्त्री-पतिकी प्यारी न हुई या चाँझ हुई तब भी दुःख ही है और कदाचित् पतिको प्यारी हुई और वाँझ भी न हुई तो गर्भवती होने पर नौ महीने गर्भका दुःख होता है । यह तो सभी जानते हैं कि गर्भवती स्त्रीको गर्भके भारके मारे सुख नहीं मिलता । इसके बाद भी जव वालवच्चा पैदा होता है तव स्त्रीको इतना दुःख होता है कि उस दारुण दुःखको कोई कह ही नहीं सकता । इसके सिवा स्त्रीको भारी दारुण दुःख पतिके मर जाने पर विधवापनेका भोगना पड़ता है । सच पूछो तो इस ' दुःखके समान संसारमें कोई दुःख ही नहीं है । परन्तु फिर भी जो स्त्रियाँ पतिव्रता होती हैं वे अपने सतीत्वका पालन कर इन कष्टोंको भी ‘सह लेती हैं । तात्पर्य यह है कि स्त्रीजन्मका दुःख कोई कह ही नहीं सकता । परन्तु देखिए तो इन दुष्ट कोंकी लीला जो हम सब विवाह न हुए ही विधवा हो गई । अत एव वास्तवमें यह स्त्री-पर्याय ही धिक्कार योग्य है । और अब सांसारिक भोगोंसे भी हमारी मनसा पूरी हो गई है । अतः इसके द्वारा हमें कल्याण ही करना उचित है । और सुनो कि स्त्री सर्वथा पतिके अधीन होती है और इसी लिए पतिकी प्रसन्नतासे ही उसके धर्म, अर्थ और कामजन्य मनोरथ सिद्ध होते हैं-बह सुखी होती है । अतः पतिके बिना स्त्रीका जन्म व्यर्थ है और उसका निर्वाह भी नहीं हो सकता । इस लिए वहिनो, हम जव संयमका शरण लेंगी तभी हमें सुख होगा; और तरह सुख मिलनेका नहीं । देखो, शील, संयम और सच्चे ध्यानके वलसे और तो क्या हम दारुण दुःखदायी इस स्त्रीलिंगको छेद कर तथा पुरुष जन्म पाकर मुक्तिको भी पा सकेंगी। ___ गुणप्रभाके इन वचनोंको सुन दीक्षा लेनेको उद्यत हुई कोई दूसरी राजपुत्री बोली कि सखी, तुमने जो कुछ भी कहा है वह अक्षरशः सत्य है। उसमें तनिक भी सन्देह नहीं है । यह सुन गुणप्रभा वोली कि सखी, और भी सुनो। देखो, पतिके स्नेहसे होनेवाले सुखकी आशासे ही स्त्री घर-गिररतीमें रहती है
और वास्तवमें अवला स्त्रीके लिए पति ही वल है। फिर उस बलके न होने पर कौन घर-गिरस्तीमें रह कर झंझट भोगेगी । सखी, विना पतिके विधवा स्त्रीकी जनसमाजमें उसी तरह शोभा नहीं होती जिस तरह कि अविवेकी मनुष्य और
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लोभी साधुकी । और भी देखो कि विधवा होने पर स्त्रीको श्रृंगार करने, अच्छे खानेपीने आदि बातें लज्जित करनेवाली हैं। केवल सफेद वखके सिवा और कोई वस्त्र, आभूषण वगैरह उसे शोभा नहीं देता। इस लिए पतिके मर जाने या परदेश चले जाने पर खीको उचित है कि वह संयमका शरण ले और तपके द्वारा शरीरको सुखा कर इन्द्रियों को जीते। मतलब यह है कि भोजन, वस्त्र, बोलचाल, जीवन, धन और घरगिरस्तीसे प्रेम ये सब बातें पतिके विना स्त्रीको शोभा नहीं देतीं ।
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इस प्रकार वे सब राजकन्यायें आपस में विचार कर ही रही थीं कि इतने में ही वहाँ जिनालय में संयम - कुशल और ज्ञानी दमतारि नाम एक सुन आ गये। उन्हें देख कर वे सब बडी प्रसन्न हुई और उन्होंने तीन प्रदक्षिणा देकर भक्तिभाव से उनके चरण-कमलोंमें नमस्कार किया । इसके बाद वे बोलीं कि स्वामिन, योगीन्द्र, योगभास्कर और मनोमल रहित स्वच्छ भगवन्, आप कृपा करके हमें दीक्षा दान दीजिए। हम दीक्षा के लिए बहुत दिनोंसे उत्सुक हैं। अब आप हमारी, उत्सुकता को मिटाइए। उत्तरमें योगीन्द्रने कहा कि पुत्रियों, सुनो एक तो तुम्हारी अभी बाल्यावस्था है और दूसरे तुम अबला हो, ऐसी अनस्थामें तुम सव वैराग्य क्यों धारण करना चाहती हो, इसका कोई कारण होना चाहिए । यह सुन कन्याओंने मुनींद्रको पांडवों पर बीती हुई सारी कथा कही और कहा कि जब हमारे पति मर चुके हैं तब हमारे लिए दीक्षा लेना ही श्रेष्ठ है, शुभ है और इसमें हमारा कल्षाण भी है । क्योंकि कुलीन नारियोंका एक ही पति होता है | कन्याओंके इन वचनों को सुन कर उन अवधिज्ञानी सुनिने कहा कि तुम अभी ठहरो । देखो, अभी एक क्षणमें ही पवित्रात्मा पाँचों पांडव यहीं आये जाते हैं और उनके साथ अभी तुम्हारा समागम होता है । मुनिराजके इन वचनोंको सुन कर वहाँ जितने श्रावक थे वे सब बड़े अचम्भे में पड गये । वे सोचने लगे कि भला जले हुए पांडव कैसे अभी यहाँ आये जाते हैं । सब इसी सोच-विचार में उलझ रहे थे कि इतनेमें पवित्रात्मा पाँचों पांडव सफेद वस्त्र पहिने हुए निःसहि निःसहि कहते हुए वहीं आ पहुँचे । और आते ही उन्होंने मुनिराजको नमस्कार किया तथा स्तुति कर उन्होंने उनकी भक्तिभाव से पूजा की । वे भक्तिके भाजन थे और मुनियोंको जिन भगवानका प्रतिनिधि जानते थे | पांडवों देख कर सब कन्यायें मुनिराजके ज्ञानकी प्रशंसा करने लगीं कि देखो, इन प्रभुका ज्ञान कितना बड़ा है कि ये सारे लोकको जानते हैं
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इनसे कोई बात छुपी नहीं है । धन्य है ज्ञानकी महिमा, जिसके द्वारा कि हो गई, हो रही और होनेवाली सभी बातें सामने आ जाती हैं । इसके बाद इन्द्र जैसे
और अद्भुत श्री-युक्त युधिष्ठिर महाराजको देख कर उन सव कन्याओंको बड़ा सन्तोष हुआ।
. उधर चंडवाहन राजाने ज्यों ही पवित्र पांडवोंके आगमनको सुना त्यों ही उसे उनसे मिलनेकी बड़ी उत्सुकता हो उठी और उससे फिर एक मिनिट भी न रहा गया।अतः वह गुणोंका भंडार वहाँसे उसी समय उनके दर्शनके लिए चल पड़ा । उसके सिर पर छत्र लग रहा था और आगे आगे मेघकी नाँई गर्जने.. वाले बाजे वजते जाते थे; तथा साथमें सुन्दर सुन्दर बहुतसे घोड़े थे । उसने वहाँ जाकर पहले मुनिराजको नमस्कार किया-उनकी वन्दना की और वाद मस्तक झुका कर पाँचों पांडवोका गाढ़ आलिंगन किया-उनसे भेंट की । सके वाद सवने परस्परमें एक दूसरेसे कुशल-वार्ता पूछी । ऐसा करनेसे आपमें प्रेम बढ़ता है, अत एव ऐसा करना ही चाहिए। क्योंकि साधर्मी भाइयोंके साथ वात्सल्य दिखानेसे चित्तमें बड़ी प्रसन्नता और स्नेह होता है-एक दूसरेके प्रति निजी भाव पैदा होता है । और फिर धीरे धीरे आत्मवल बढ़ता जाता है। यहाँ तक कि वह शत्रु, पित्र सवको एक दृष्टिसे देखने लगता है । इसके बाद राजा उनको साथ लेकर पुत्रियों सहित नगरको चला आया। वहाँ उसने भोजन आदिसे उनका . खूब आदर किया और उन्हें अपने एक महलमें ठहरा दिया। इसके बाद उसने युधिष्ठिरसे विवाहके लिए प्रार्थना की। ,
चंडवाहनने विवाहोत्सवके लिए एक बड़ा सुंदर मंडप वनवाया, जो मंगल-नादोंसे शब्द-मय और नटियोंके नृत्योंसे नृत्य-मय हो रहा था। उसमें जो मोतियोंकी झालरें लगी थीं उनसे वह हँसता हुआ सा दीखता था, लटकती हुई मालाओंसे वोलता हुआ सा जान पड़ता था और तख्तोंसे आदर करता हुआ सा देख पड़ता था । विवाहके समय उसमें विवाह-मंगलके सूचक सोनेके सुन्दर कलश सजाये गये थे, जिनसे उसकी अपूर्व ही शोभा हो गई थी । ऐसे सुन्दर मनको मोहनेवाले अपूर्व मंडपमें राजा चंडवाहनने विवाहोत्सव किया । इसके बाद युधिष्ठिरने पुण्योदयसे मंगल-गीतोंकी मधुर ध्वनिके साथ उन ग्यारह ही कन्या
ओंके साथ विवाह फिया-उनका पाणि-ग्रहण किया । उस समय युधिष्ठिरके पासमें खड़ी हुई वे कन्यायें ऐसी शोभती थीं मानों वाञ्छित, अर्थको देनेवाले
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कल्पलोंके पासमें खड़ी हुई कल्पलतायें ही हैं । यहाँ प्रन्यकार कहते हैं कि जीवोंको इस लोक और परलोकमें जो सुख मिलता है, वह सब पुण्य-क्षका ही फल है । इस लिए जो सुख चाहते हैं उन्हें सदा धर्ममें लगा रहना चाहिए। देखो, यह सव पुण्यका ही फल है, जिससे कि युधिष्ठिर सारे संसारमें युद्धमें पीछे पॉच नहीं देनेवाले प्रसिद्ध हुए । उन्हें श्रेष्ठ बन्धुओका लाभ हुआ । वे देश, विदेश, भयानक वन-जंगलों में जहाँ कही गये वहीं राजी महाराजाने उनका आदर किया; स्त्रियोंने उनकी पूजा की और उन्हें अपना पति बनाया । वह युधिष्ठिर वाञ्छित फलको देनेवाले इन्द्रके जैसे सुशोभित हुए ।
और भी देखो, फि कहाँ तो हाथियों के नादोंसे शब्दमय होनेवाला हस्तिनापुर है-और कहाँ कौशिफपुरी जहाँसे युधिष्ठिरको कन्याका लाभ हुभा; कहाँ कौशाम्बीपुरी जहाँसे उन्हें वसन्तसेना मिली; और कहाँ त्रिशंगपुर जहाँप्ते उन्होंने ग्यारह सुंदरियाँ लाभ की । यह सब क्या, है, इस प्रश्नका उत्तर यही है कि पुण्यका फल ।
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-- -- 'उन पुष्पदत्त भगवानको प्रणाम है जिनके दॉत कुन्दके पुप्प-तुल्य हैं,
कान्तिशाली है, जिनके शरीरका वर्ण भी कुन्दके पुष्पके जैसा निर्मल है और जो संसारके प्राणियोंको निर्मल-कर्ममल रहित करते हैं । वे मुझे निर्मलता प्रदान करें। ____ इसके बाद गंभीर पांडव आनन्द-चैनसे त्रिशंगपुरके गली-पाजारों वगैरहकी सुंदर शोभाको देखते हुए वहाँसे चले और एक महान् अरण्यमें पहुंचे, जो उत्तम प्राणियोंका शरण और वृक्षावलिसे प्रच्छन्न था । वहाँ मार्गकी थकावट
और सूरजकी गर्मीसे युधिष्ठिरको प्यासकी पीड़ा सताने लगी। उन्होंने पीड़ित होकर भीमसे कहा कि प्यारे भीम, मुझे बहुत प्यास लग रही है और उसके कारण अब मैं आगे एक कदम भी नहीं जा सकता हूँ। इस लिए तुम सब कुछ देर तक यहीं ठहर जाओ । यह कह कर युधिष्ठिर पृथ्वी पर बैठ गये।। उनके इस समयके प्यासके दुःखको सूरज भी अपनी आँखोंसे देख न सका, सो इसी लिए मानों वह पच्छिमकी ओर अस्ताचल पर जाकर छिप गया। वात भी यही है कि दुर्द्धर आपत्ति किसीसे देखी नहीं जाती । सुरजके अस्त होते ही भौरोंके समान विल्कुल काले अंधेरेके समूहने सभी दिशाओं पर अपना अधिकार जमा लिया।
इस समय प्याससे अत्यन्त दुःखी होकर युधिष्ठिरने पुनः भीमसे कहा कि भाई भीम, तुम जल्दी जाओ और कहीसे ठंडा जल लाकर मेरी प्यासको शान्त करो । तुम्हें यह नहीं मालूम कि प्यासा पुरुप न तो मार्ग ही तय कर सकता है और न अपने शरीरकी ही रक्षा कर सकता है । इतना कह कर कष्टसे युधिष्ठिर वहीं भूमि पर लेट गये । उनकी ऐसी अवरथा देख कर भीम बड़ा भयातुर हुआ और वह उसी समय वर्तन ले, जल लानेके लिए दूसरे वनमें गया । दैवयोगसे वहाँ पहुँचते ही उसे एक सुन्दर तालाब दीख पड़ा। उसे देख कर उसके हृदयका भव कम हुआ । तालाव हंसोके द्वारा हँसता हुआ और चकवे चकत्रीके शब्दों द्वारा बोलता हुआ जान पड़ता था । उसमें तरंगें लहरा रही थीं और सुन्दर कमल खिल रहे थे । वह लम्बा-चौड़ा भी खूब था। उसके किनारों पर सघन वृक्षावलि उसकी अपूर्व ही शोभा बढ़ा रही
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थी । भाँति भाँति वृक्षोंके फल उसमें उतरा रहे थे । वह अपनी अतीव चंचल लहरोंसे ऐसा जाना जाता था मानों तरंग-रूपी हाथोंके इशारेसे प्यास बुझाने के लिए प्यासे पुरुषोंको ही बुला रहा है । भीमने उसमेंसे जल भर लिया और कमलसे वर्तनका मुॅह ढक वह पवनकी नॉई तेजीसे वापिस गया; परन्तु वह जल्दी न जा सका । युधिष्ठिर इसके पहले से ही प्याससे बड़े पीडित होकर एक वरगद के पेड़के नीचे सो गये थे । उनको सोया देख कर भीमके हृदय में बड़ा विषाद हुआ। वह सोचने लगा कि इस संसारकी विचित्रता बड़ी विषम हैं । वह जीवों को भींत में लिखे हुए चित्रकी नाई केवल देखने में प्यारी लगती है; परन्तु वास्तवमें उसमें कुछ भी तथ्य नहीं है । देखो, इस संसार रूप नाटक में कर्मके उदयकी प्रेरणासे पवित्रात्मा पुरुष भी सुधर नटकी नॉई स्वांग वना बना कर नाचते हैं और दुःखोंका भार सिर पर ढोते हैं । अधिक क्या कहा जावे यहीं देख लो कि जो कौरवोंका स्वामी है और पांडव जिसको अपना राजा मानते हैं, वही आज यहाँ जमीनका विस्तर लगा कर सो रहा है; और जिसे अपने तन वदनकी भी सुध तक नहीं है । वह न देता है और न कुछ खाता पीता ही है दृष्टिपात तक नहीं करता है मेरा इस समय कर्तव्य क्या है
बोलता है, न कुछ लेता
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और तो क्या वह किसीकी ओर
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इस समय । वास्तव
रहा हूँ ।
मुझे कोई उपाय नहीं सूझ पड़ता कि में इस समय कर्तव्यविमूढ़ सा हो
भीम इस प्रकार विचार कर रहा था कि इतनेमें उसके पास अपनी कन्याको साथ लिए एक विद्याधर वहाँ पहुँचा । उस पके हुए बिंवा फलके समान ओठोंवाली, चन्द्र-वदनी, सुलोचना और कठिन तथा गोल कुचोंवाली कन्याको देख कर भीम मन-ही-मन विचारने लगा कि यह लक्ष्मी है या मंदोदरी, सीता है या शची, एवं पद्मा है या रोहिणी । यह कितनी सुंदरी है। इतनेमें उसके चरण-कमलोंमें प्रणाम कर वह विद्याधर राजा वोला कि देव, आप विधि पूर्वक विवाह कर इस कन्याको ग्रहण कीजिए । यह सुन कर भीसने उससे पूछा कि तुम कौन हो ? कहाँसे आये हो ? यह कन्या कौन है और इसके माता-पिता कौन हैं ? एवं तुम यह कन्या मुझे क्यों देते हो ? कृपा कर आप मेरे इन प्रश्नोंका उत्तर दीजिए । फिर विचार करके मैं आपकी बातका उत्तर दूँगा । इस पर विद्याधर बोला यि महाभाग, सुनिए, मैं इस कन्या के चरितको कहता हूँ, जो कि बहुत उत्तम और सुखकर है । राजन, यहाँ एक
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पाण्डव-पुराण ।
संध्याकार नाम पुर है । वह सायंकालके मेघोंकी रंग-बिरंगी छटासे युक्त है। वहॉ पर तीनों संध्याओंमें आत्म-साधन करनेवाले सिद्ध योगीजनोंका निवास है।
वहाँका राजा सिंहघोष है । वह हिडंव-वंशी है और वैरी-रूपी हाथियोंके । लिए सिंह है। उसकी रानीका नाम है लक्ष्मणा । वह भी उत्तम लक्षणोंवाली
और मृगाक्षी है । वह इतनी मधुर और प्यारी बोलनेवाली है कि जिसकी वोली सुन कर कामदेव भी जीवित हो जाता है । उसीकी यह रतिको भी जीतनेवाली हिंडवा नाम कन्या है । यह रूप-लावण्यकी सरसी है, शरीरकी कान्तिसे अँधेरेको दूर करती है, मंदगतिसे हथिनीकी चालको जीतती है। यह यौवन अवस्थाको प्राप्त है, कामदेवका निवास स्थान है और इसी कारण सदाकाल कामविकी विडम्बनाको अपने सुन्दर शरीर द्वारा भोग रही है ।
सब प्रकार शोभा-सम्पन्न यह कन्या एक दिन सुंदर वस्त्राभूषण पहिने अपनी सखी-सहेलियों के साथ गैंद खेल रही थी । इसको खेलती देख कर सिंहघोषने नि-ही-मन विचार किया कि अब यह युवती हो गई है, अत: किसी योग्य वरके जाय इसका अति शीघ्र ही व्याह कर देना चाहिए। वह वर इसीके समान रूपशाली, शक्तिशाली, सुंदर आचार-विचारवाला, अच्छे स्वभावका और प्रीतिपात्र होना शाहिए । यह सोच कर उसने भविष्यके ज्ञाता निमित्तज्ञानीसे पूछा कि हिडंवाका र कौन होगा । उसने विचार कर उत्तर दिया कि जो महान् पुरुष पिशाचहटके नीचे ठहर फर निश्चिन्त हुआ जागता रहेगा वही पुरुष इसका वर होगा। अथवा जो वटवृक्षमें रहनेवाले पिशाचको अपनी भुजाओंके विक्रमसे जीतेगा वह इसका वर होगा। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। निमित्तज्ञानीके इन वचनों पर भरोसा करके सिंहघोष राजाने मुझे तभीसे यहाँ रख छोड़ा है । अतः
आपको यहाँ जागते हुए देख कर मैं इसे यहीं ले आया हूँ। स्वामिन् , जिसतरह आप धरा, धृति बुद्धि, सिद्धि आदिको ग्रहण किये हुए हैं उसी तरह इसको भी ग्रहण कीजिए । हे बुद्धिमान् धर्मात्मा और हित-अहितके जानकार विद्वन, आपअव देर न कर जल्दी इसे स्वीकार कर, स्वर्गीय सुखोंका अनुभव कीजिए। हिंडंबाने भी संकोच छोड़ कर कहा कि स्वामिन, आप मेरा प्राणिग्रहण करने में विलम्ब न कीजिए और न दिलमें कुछ संदेह कीजिए। यह शीघ्रता इस लिए की जाती है कि इस विशाल वटवृक्षमें एक पिशाच रहता है। वह बड़ा दुष्ट हैं। दूसरे एक विद्याधर एक दिन आकाशमें जा रहा था सो इसके नीचे आते ही न
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पन्द्रहवाँ अध्याय । जाने कैसे उसकी सारी विद्यायें नष्ट हो गई । अतः वह भी विद्या साधनेके लिए यहीं रहता है। वह बड़ा मानी और मुदबुद्धि है । वह मनुष्योंको कष्ट दिया करता है । वह मुझे भी कष्ट देने लगेगा। और हे विक्रमशाली वीर, आपके वचनोंको सुन कर अचिंत्य विक्रमवाला वह पिशाच क्रोधित भी होगा। क्योंकि वह बड़ा भारी क्रोधी है-उसे क्रोध आते देर नहीं लगती । इस लिए जीवनाधार, अब आप कुछ न कह कर मुझे स्वीकार कीजिए।
हिडम्बाके इन वचनोंको सुन कर भीमने बजके शब्द जैसी बड़ी भारी गर्जना की, जो कि उस पिशाचके कानोंको फाड़ देनेवाली थी। मदोन्मत्त यमराजकी भॉति मानी भीमात्मा भीम पिशाचको बुलानेके लिए बोला कि हे पिशाचराज, यहाँ आकर अपनी भुजाओंके पराक्रमको दिखाइए, जिसके अभिमानमें आ तुम लोगोंको कष्ट दिया करते हो । भीमके वज्र जैसे महान् निर्घोषको सुन कर यम सदृश और काले मुंहका वह भयानक निशाचर पिशाच भीमके पास आया और किलकारियों मारता हुआ क्रोधसे भीमके साथ लड़नेको तैयार हुआ । उसको देखते ही भीम वोला कि पिशाचेश, अब देर न करो; और जल्दीसे द्वंद्व युद्ध के लिए तैयार हो । रे पशुघातक, तू अपने गर्वको दूर कर दे, नहीं तो अभी तेरे गर्वको खर्व किये देता हूँ।- इसके बाद वे दोनों खूब क्रोधमें भरे हुए और अपने शब्दोंसे पर्वतोंको भी भेद डालनेवाले शब्दोंफो करते हुए एक दूसरेसे लड़ने लगे। वे वज्रके प्रहारसे पर्वतकी नॉई एक दूसरेको जवरदस्त मुष्टिके प्रहारसे गतविक्रम करने लगे । एवं वे मदसे उद्धत हुए पॉवके प्रहारसे पृथ्वी पर एक दूसरेको गिराने लगे । इस तरह उन दोनोंमें खूब युद्ध हुआ। उन दोनोंका युद्ध तो समाप्त ही नहीं हो पाया था कि इस बीचमें वह विद्याधर भी, जो कि विद्या साधनेके लिए वटवृक्षमें रहता था, हिंडबाके पास आकर नाना भूषणोंसे मंडित हिंडवाको पीड़ा देने लगा । वह उससे बोला कि आश्चर्य है हिडवा, मेरे यहाँ होते हुए कोई दूसरा ही तुझे ब्याहे । यह कह उस खेचरने ज्यों ही हिडंवाको पकड़नेके लिए हाथ बढ़ाये त्यों ही भीमने उसे अपने दाहिने हाथके घूसेसे दूर हटा दिया । और उधर पिशाचकी पीठमें एक जोरकी लात मार कर उसे भी नीचे गिरा दिया। परन्तु वह निर्लज्ज पापी पुनः उठ खड़ा हुआ और लगा लड़ने । इतने में दौड़ कर वह विद्याधर भी आ गया, जिसको कि भीमने घूसेसे दूर हटा दिया था और पिशाचको हटा कर स्वयं भीमसे खूब ही मुस्तैदीके साथ लड़ने लगा । इधर इन दोनोंका युद्ध हो रहा था । उधर क्रोधसे लाल
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हुए उसे पिशाचको भी कर चैन पड़नेवाली थी, अतः वह भी भीमके ऊपर झपट रहा था। भीम उसका भी प्रतिकार करता जाता था। उसे गिरा कर भीमने पहले के जैसा ही उसे जमीन पर गिर पड़ने पर न छोड़ दिया; किन्तु उसकी पीठके ऊपर अपना पॉत्र पूरी तौरसे जमा रक्खा । एवं क्षणभरमें उसने उस विद्याधरका भी मान-मद चूर डाला, जिससे वह निर्बल बड़ा दुःखी हुआ। उसका शरीर कॉपने लगा। इसके बाद उसने भीमको प्रणाम कर उससे अपने अपराधकी क्षमा कराई और उससे कितने ही गुणोंनो ग्रहण करके वह विद्याको सिद्ध कर अपने घर चला गया । इतनेमें युधिष्ठिर जाग उठे और उन्होंने भीमसेनके द्वारा हिडम्बाका पाणिग्रहण करवा दिया। इसके बाद युधिष्ठिर आदि पांडव बहुत दिनों तक वहीं रहे । भीमने हिडम्बाके साथ खूब ही सुख भोगा । भीमके साथ भोग भोगती हुई हिडम्बा गर्भवती हो गई । और गर्यके दिन पूरे हो जाने पर उसने जगत्प्रसिद्ध पराक्रमवाले पुत्र-रत्नको जन्म दिया। पुन-जन्मसे सबको बड़ा आनन्द हुआ । उसका नाम घुटुक रक्खा गया । घुटुक सब लक्षणोंसे लक्षित था, अतः उसकी बहुत जल्दी संसारमें प्रसिद्धि हो गई।
इसके बाद पांडव वहॉसे चले और भीम नामके एक भयानक जंगलों आये, जो सिंह आदि हिंसक जन्तुओंसे परिपूर्ण था । यहॉ एक भीमासुर नाम देव था । वह बहुत ही प्रसिद्ध था, दुष्ट या, दुर्द्धर था, जीवोंको दुःख देनेवाला था तथा उसके भुजदंडोंमें पूर्ण बल था । वह इन्हें चनमें आया देख कर मेघकी नाँई गर्ज कर अपने स्थानसे निकला और इनके पास आकर कहने लगा कि तुम लोग यहाँ किस लिए आये । क्या तुम लोग मेरे इस पवित्र वनको अपवित्र बना देनेकी इच्छासे यहाँ आये हो । नहीं तो तुम्ही बताओ कि तुम्हारे यहाँ आनेका दूसरा और कारण ही क्या है ? मैं जानता हूँ कि ऐसी सामर्थ्य किसी मनुष्यों नहीं है जो मेरे इस पवित्र वनमें आवे और अपने पाँवोंकी धूलसे इसे अपवित्र करे । फिर तुम लोगोंने यहाँ आकर इसे क्यों अपवित्र किया ?
उस भीमासुरको ऐसी बेढब बातें करते हुए देख कर विचक्षण भीमने कहा कि तू व्यर्थ ही मेंडककी नॉई या गाल फुलानेवाले दुष्ट पुरुषकी नाई क्यों गर्जता है और खेदखिन्न होता है । तू हमें अपवित्र बता कर आप पवित्र वनना चाहता है, यह तेरा झूठा अभिमान है । हम अपवित्र नहीं हैं किन्तु बड़े पवित्र हैं। हम सदाचारी हैं, जैसे कि चक्रवर्ती वगैरह होते हैं । वात यह है कि मनुष्य
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२३१ पर्याय सदा ही पवित्र है; क्योंकि तीर्थंकर, नारायण वगैरह उत्तम उत्तम पुरुष
सब इसीमें उत्पन्न होते है और इसे पवित्र बनाते हैं । फिर तू क्या कह रहा है, + जरा हित-अहितको भी विचार । और सुन, यदि तुझमें कुछ ताकत हो, तुझे
अपने असुरपनेका अभिमान हो तो आ हमारे साथ युद्ध कर । हम अभी है। तुझे तेरे असुरपनेका फल चखाये देते हैं । बाद वे दोनों भीम और भीमासुर अपने अपने बाहु युगलको ठोक ठोक कर मदोद्धत मल्लोंकी नॉई युद्ध करनेको तैयार हो गये । इन दोनों के पॉवोंके कठोर आघातसे पृथ्वी काँपती थी । इनके वज्र जैसे भयंकर शब्दोंको सुन कर सिंह वगैरह वनजन्तु भी अपने प्राणोंको लिये इधर उधर भाग रहे थे और दुःखी हो रहे थे । इन दोनोंका बडी देर तक घनघोर युद्ध हुआ; परन्तु आखिरमें अपनी मुष्टिके प्रहारसे भीमने भीमासुरको निर्मद कर दिया जैसे सिंह हाथीका मद उतार कर उसे निर्मद कर देता है । इसके बाद भीमासुरने भीमके चरणोंमें प्रणाम किया और उसकी दासताको मंजूर कर वह अपने स्थानको चला गया | इधर पांडव भी अति शीघ्र उस वनसे चल दिये । ये आगे जानेको बहुत ही उत्सुक हो रहे थे।
पांडव वहॉसे चल कर धीरे धीरे श्रुतपुर नामके एक नगरमें आये और यहाँ उन्होंने एक जिनालयमें जा भगवानकी प्रतिमाओंका पूजन किया और भक्तिभावसे उनकी स्तुति की । वहाँ कुछ देर ठहर कर वे गनमे रहनेके लिए एक वणिकके घर पर आये वे बहुत थके हुए थे, इस लिए शयन करना चाहते थे । वे उसकी कुटीमें ठहर गये । संकटको हरनेवाले विकट पराक्रमी, पांडव बैठे हुए वहॉके विचित्र जिनालयोंकी वावत कुछ चर्चा कर रहे थे कि इतनेमें संध्या होते ही, उस घरवाले वैश्यकी भार्या महान् शोकसे पीडित होकर अत्यन्त दीनताके साथ विलाप करने लगी । तव दयाल कुन्तीने उसके पास जाकर उसे आश्वासन दिया-धीरज बंधाया और ऑसुओंसे परिपूर्ण नेत्रोंवाली खेदखिन्न उस वैश्यभार्यासे प्रेमके साथ पूछा कि तुम इतना भारी
शोक क्यों कर रही हो ? वैश्यमाय ने कहा कि सुनिए, मैं अपने दुःखपूर्ण ' रोनेका कारण बताती हूँ।
. देवी, इसी श्रुतपुरमें श्रीमान् वक नाम राजा था । वह वगुलेकी नॉई ही धर्म-हीन था; परन्तु प्रजाके ऊपर शासन करनेमें अच्छा प्रवीण था । उसे कारण-वश मांस खानेकी चाट पड़ गई और वह इतनी जबरदस्त
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कि वह हमेशा मांसके संबंधमें ही अपनी सारी बुद्धि खर्च किया करता था। उसका रसोइया उसे सदा पशुका मांस पका-पका कर देता था और वही नीच निर्दय उसके लिए पशुओंका घात करता था । लेकिन एक दिन कहींसे भी जब उसे पशुका मांस न मिला तब वह दुष्ट मांसकी खोजमें नगरसे वाहिर निकला और मसानभूमिसे किसी गढ़े से एक मरे हुए बच्चेको खोद कर ले आया । एवं उस पापीने उस बच्चेको मसाला आदि डाल कर बड़ी चतुराईसे पकाया और उसका मांस वक राजाको खिला दिया । राजाको वह मांस बहुत ही अच्छा स्वादु मालूम पड़ा । अतः उस मांस लोलुपीने बड़े भारी आग्रहके साथ रसोइयेसे पूछा कि पाककार, तुम ऐसा अच्छा सुस्वादु मसि कहाँसे लाये । मैंने तो कभी ऐसा उत्तम मांस खाया ही नहीं। यह सुन रसोइया अभयदान मॉग कर डरता डरता बोला कि प्रभो, माफ कीजिए, यह मांस मनुज्यका है। आज कहींसे भी जब मुझे पशुका मांस न मिल सका तव मैंने इसे ही चतुराईसे पका कर आपको खिलाया है ।
यह सुन कर राजा बोला कि प्रिय, यह मांस मुझे बहुत ही अच्छा मालूम हुआ है और इससे मुझे वृप्ति हुई है । इस लिए अवसे तुम मुझे मनुष्यका ही मांस खिलाया करो । राजाकी इतनी सम्मति पाकर वह रसोइया और भी निडर हो गया । और अब वह हमेशा मनुष्यके मांसकी खोजमें गली-कूचोंमें जाकर नगरके बच्चोंको मिठाई आदि बाँटने लगा । मिठाई लेकर सब बच्चोंके चले जाने पर जो बच्चा पीछे रह जाता उसे पकड़ कर वह उसका गला घोंट देता और उसका मांस राजाको खिला देता । ऐसा दुष्कृत्य वह रोज रोज करने लगा। ___उधर धीरे धीरे जब नगरके बच्चे प्रति दिन कम होने लगे तब सारे नगरमें खलबली पड़ गई और लोगोंने छुप-छुप कर बच्चोंके घातकको देखना खोजना आरम्भ कर दिया। इसके थोड़े ही दिनोंमें वह रसोइया पकड़ा गया। लोगोंके पूछने पर उसने साफ साफ कह दिया कि मेरा तनिकसा भी इस दुष्कृत्यमें अपराध नहीं है । किन्तु मुझसे राजाने जैसा करवाया वैसा ही मैंने किया। इस पर सब लोगोंकी सम्मतिसे राजा वक राजगद्दी परसे उत्तार दिया गया। इसके बाद बक वनमें रह कर मनुष्योंको मार कर खाने लगा। धीरे धीरे जब उसने नगरके बहुतसे मनुष्योंको मार खाया तब नगरके लोगोंने पिल कर विचार
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२३३. कर यह निश्वय किया कि इसके लिए वारी बारीसे हर रोज एक मनुष्य खानेको देना चाहिए । बस, इसी नियमके अनुसार अपनी अपनी बारी पर • सब लोगोंने उसे घर घरसे एक एक मनुष्य प्रति दिन खानेको दिया और धीरे धीरे आज वारह वर्ष ऐसे ही बीत गये । पापयोगसे आज मेरे प्यारे बच्चेकी बारी है और इसीसे दुःखी होकर में रो रही हूँ । देवी, मेरे रोनेका दूसरा और कोई निमित्त नहीं है । नगरके लोग आज ही एक गाड़ी में मिठाई आदि भर कर और उसके वीचमें मेरे प्यारे पुत्रको वैठा कर उस अधर्मीकी भेंट देंगे तथा साथमें एक भैसा भी देंगे । माता, मेरे यह एक ही तो प्यारा आँखों का तारा सर्वस्व पुत्र है और यही आज कालके गाल में पहुँचाया जा रहा है । इसके विना हाय अव मैं क्या करूंगी और कैसे अपना जीवन बिताऊँगी । पुत्रके वियोगका चित्र मेरी आँखोंके सामने खिंच रहा है और वह मेरी छाती चीरे डालता है-हृदयमें वज्रके जैसी चोट कर रहा है । बताइए अब मैं कैसे और किसके भरोसे धीरज धरूँ । मुझे तो कोई उपाय ही नही सूझ पड़ता ।
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यह सुन कर कुन्तीका हृदय दयासे भींग गया । वह मिष्टभाषिणी उसके लिए सुखका उपाय सोचती हुई उसे शान्ति देकर बोली कि वणिग्वधू, तुम sa | सवेरा होने दो। तुम्हारे पुत्रकी वारी आने पर मैं उसकी रक्षाका उपाय करूँगी । सुनो, मै उस भूतकी वलिके लिए अपना ' अतीव रूप- शाली पुत्र भेज दूँगी । तुम्हारा पुत्र आनंद- चैनसे अपने मंदिरही में रहेगा । तुम्हें और उसे कोई चिंता न करनी चाहिए । उस वैश्य भार्या को इस तरह समझा कर कुन्ती चहाँ गई जहाँ कि भीम बैठा हुआ था । उसे आती देख कर भीम उठ खड़ा हुआ और उसने उसके चरण कमलों में प्रणाम किया । इसके बाद कुछ देर बैठ कर सबके मनको अपनी ओर झुकानेके लिए कुन्तीने भीमको उस दुष्ट वक राजाका सारा हाल कह सुनाया । वह बोली कि भीम जरा शान्तचित्तसे मेरी बात पर ध्यान दो । इस बेचारी वैश्यपत्नीके एक ही तो पुत्र है और उसीकी लोग आज नरभक्षी बक राक्षसके लिए बलि देंगे । पुत्रके विना यह बेचारी जन्म-भर के लिए दुःखिनी हो जायगी । इसे अपना जीवन भी घोश-मय हो जायगा । देखो, आज रातमें तुम लोग इसके घर बड़े आरामके साथ ठहरे हो । इसके सिवा इसने तुम्हारा खूब अतिथि सत्कार किया है, वस्त्र, जल आदि द्वारा तुम्हारी पाहुनगत की है । अस्तु, जब कि तुम लोग परोपकारी हो और तुम्हारा यही
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naran in an ar.m on man. . . सच्चा व्रत है तब तुम्हें इन बातोंकी तो परवाह नहीं है कि कोई तुम्हारी भलाई करें या न करे। तब तुम परोपकार दृष्टिसे ही ऐसा काम करो जिससे कि इसका प्यारा पुत्र जीता रह जाय-इसकी आँखोंके सामने बना रहे । और पेटा, भीम, आगेके लिए कोई ऐसा उपाय कर दो जिससे यह मनुष्य जो कि हमेशा मनुष्यों को खाया करता है और महान् निर्दय है, नरभक्षणसे रुक जाय । आगे ऐसा दुष्कृत्य न करे; जिससे लोगोंमें बड़ी भारी खलबली मच रही है । कुन्तीके वचनोंको सुन कर कर्मवीर भीमने कहा कि माता, भला आप यह क्या कहती हो, मैं तो तुम्हारा आज्ञाकारी हूँ। तुम्हारी आज्ञा-पालनेके लिए आज ही उस मनुष्यराक्षसके पास जानेको तैयार हूँ । इस प्रकार अति प्रवीण और न्यायके जानकार माता-पुत्र इस प्रकार परोपकारकी बातें कर ही रहे कि इतनेमें उस वैश्य-पुत्रको ले जानेके लिए कोतवालने आकर उससे कहा कि वैश्यवर, उस
मनुष्य-राक्षसकी वलिके लिए गाड़ीमें सवार होकर अति शीघ्र मेरे साथ चलो; • देर न करो। और जरा देरके जीवनके लिए देर करनेसे भी क्या होगा।
कोतवालका बात सुन कर उससे भीमने कहा कि आप जाइए, में आकर उस नर-पिशाचको अपनी बलि दे दूंगा । भीमके वचनोंको सुन कर यमके दूत जैसा कोतवाल हर्षित होता हुआ चला गया । इसी समय पूर्व दिशामें सूरजका उदय हो आया । जान पड़ता था कि मानों उसके दुश्चरितको देखने के लिए ही आया है। और है भी सच कि दयालु पुरुष लोगोंके दुश्चरित्रको देख कर-जहॉ तक बन सकता है-उसे सुधारनेकी कोशिश करते हैं।
- इसके बाद एक गाड़ी सजाई गई और उसमें कढ़ाईभर भोजन रक्खा गया । उसके ऊपर भीम वड़ी निर्भयता-पूर्वक सवार होकर चला । वह ऐसा जान पड़ता था मानों उस नर-पिशाचको जलानेके लिए आग ही जा रही है। वह थोड़ी ही देरमें उस यमके जैसे पापी वकके पास पहुँच गया । उसे सामने आया देख कर वह दुष्ट उसके ऊपर झपटा और क्रोधसे गर्जना कर उसने सभी दिशाओंको शब्द-मय बना दिया | उसे इस तरह क्रोधित देख कर भीमने कहा कि दैत्येन्द्र, आओ मैं आज तुम्हारे भुजदण्डोंका पराक्रम देख कर , ही तुम्हें अपनी बलि दूंगा; वैसे नहीं । खेद है कि इतने काल तक तुमने इन गरीब लोगोंको व्यर्थ ही सताया । सच है कि जो दीनता दिखाते है, दॉतोंमें तिनकोंको दवा कर रहते हैं वे संसारमें मारे जाते है । तात्पर्य यह कि गरीबों
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पर ही सबका वश चलता है, बलवानों पर नहीं । क्योंकि बलीका सामना करनेके लिए कुछ ताकतकी जरूरत होती है ।
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इसके बाद क्रोध से उद्धत हुए वे दोनों ही खम ठोक कर भिड़ गये; और आकाश तथा पृथ्वीको उन्होंने गुँजा दिया। वे कभी मस्तकके द्वारा और कभी पॉवोंके द्वारा एक दूसरे पर महार करते थे; तथा हाथोंकी कुहनियोंसे एक दूसरेका सिर फोड़ते थे । इस समय वे दोनों ही दयासे कोसों दूर थे कोई भी किसी पर तीव्र प्रहार करनेमें कसर न रखता था । दोनों ही निर्दय भावसे एक दूसरे पर टूटते थे । यमके पुत्र जैसे उन दोनों में बड़ा भारी भीषण युद्ध हुआ । आखिर निर्भय भीमने उस पापी, नरभक्षक, दुष्ट और क्रोधसे कॉप रहे नर-पिशाचको तृणके जैसा निःसत्व कर उसके सिरमें अपने भुज- दण्डका एक ऐसा भीषण प्रहार किया कि वह विल्कुल ही हतप्रभ हो गया । इसके बाद ही वह फिर न उठ खड़ा हो इसके लिए क्रोधमें आकर बली भीमने उसकी पीठमें एक ऐसी जोरकी ळात मारी कि जिससे वह अधम जमीन पर लौट गया । भीमने उसका तव भी पिण्ड न छोड़ा और वह उसके दोनों पॉव पकड़, उसे आकाशमें चारों ओर घुमाने लगा । जान पड़ता था कि वह उसे जमीन पर पछाड़ना ही चाहता है । तब वह नर-पिशाच बड़ा डरा और भीमके हा हा खाने लगा । यह देख भीमने उसे सत्र लोगों के सामने जो कि उन दोनोंके युद्धको सुन कर वहाँ अति शीघ्र आ गये थे और खड़े खड़े क्रोधसे उद्धत हुए उन दोनोंका युद्ध देखते थे, अपना सेवक बना कर छोड़ दिया; और उससे आगे के लिए मनुष्य घात न करनेकी प्रतिज्ञा करवा ली । तात्पर्य यह कि भीमने उसका सारा मद उतार कर उसे सीधा साधा मनुष्य बना कर छोड़ दिया । उसको इस तरह निर्मद हुआ देख कर दर्शक लोगोंको बड़ी खुशी हुई और वास्तव में खुशी होने की बात ही थी । उस खुशी के मारे वे लोग भीमका जय जयकार करने लगे तथा भक्तिसे स्वाभिमानी भीमकी मुक्त कंठसे मशंसा करने लगे कि आप अवश्य ही बड़े बड़े पुरुषों द्वारा मान्य है, संसारको आनन्दित करनेवाले हैं और संसारको अपने निर्मल यशसे पवित्र करते है । अतः हे सज्जन आपकी जय हो । देखिए हम लोगों को यहाँ जीना भी मुश्किल पड़ रहा था; परन्तु महाभाग, आपके प्रसादसे अब हमें कोई भी खटका नहीं रहा । अतः अब हम बेफिक्र होकर अपने जीवनको आनंद-चैन से बिता सकेंगे । तात्पर्य यह है कि आजसे हम सब अपनी नींद सोयेंगे और अपनी ही नींद
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उठेंगे। हमें अब कुछ चिन्ता नहीं है। कौन नहीं जानता कि जब मेघोंकी कृपा होती है तब तृण वगैरह सव खूब हरे भरे रहते हैं । वे जरा भी नहीं मुरमाते हैं। इस प्रकार उन दक्षोंने भीमकी खूब स्तुति की और भेटमें उसे अनन्त धन-सम्पदा दी। और है भी यही बात कि भक्त लोग जिसके ऊपर मुग्ध हो जाते हैं उसके लिए वे फिर कोई वात उठा नहीं रखते-~जो कुछ सम्पत्ति उनके पास होती है वह सब देनेको वे तैयार हो जाते हैं।
इसके बाद जिनभक्त परमोदयशाली पांडवोंने वह सब सम्पत्ति जो कि उन्हें लोगोंने भेंटमें दी थी, श्रुतपुरमें ही एक विशाल जिनालय बनवानेमें लगा दी। इसी वाचमें वर्षाका आरम्भ हो गया और मेघोंने धारासार जलवर्षा कर नदी, पर्वत और पृथ्वीको जल-मय कर दिया । ऐसा भान होता था मानों - सूरजके तापको दूर करनेके लिए ही मेघोंने वह धारासार वर्षा की है । अपने अपने वैरीको नष्ट करनेके लिए सभी महान् पुरुष तैयार होकर प्रयत्न करते हैं । इस समय इतनी वर्षा हुई कि जलके मारे मार्ग भी नहीं देख पड़ता था; और पानी-ही-पानी दीखता था । जान पड़ता था मानों लोगोंको सुखी करनेके लिए पृथ्वी पर मेघ ही आ गये है। वर्षा ऋतुको आ गई जान कर पांडव वहीं ठहर गये और उन्होंने धर्म-ध्यान पूर्वक वरसातके चार महीने वहीं विताये । वहाँ वे वर्षा ऋतुके योग्य महोत्सवोंको करते हुए अपने निजके बनवाये जिनालयमें रहते थे ।
जव चौमासा पूरा हो गया तब वे वहॉसे चले और पृथ्वीको लाँघते हुए कुछ समयमें कुन्ती-सहित उस पवित्र और प्रसिद्ध चंपापुरीमें आये जहाँ कि कर्ण राजा था। वहाँ आकर वे सुन्दर सुन्दर घों और चक्रोंसे सुशोभित एक कुंभारके घर ठहरे । वहाँ विनोदमें आकर भीम स्थास, कोश, कुशूल वगैरह कैसे बनते हैं यह देखने के लिए कुंभारका चाक फिराने लगा एवं हंसी-विनोदमें ही उसने दण्डको हाथमें ले उस कुंभारके ढक्कन, मटके, कॅड़े आदि बहुतसे वर्तन फोड़ डाले। उनके फूटनेकी आवाज सुन कर निर्मलमना कुन्तीने कुछ कोष और भय दिखा कर भीमसे कहा कि भीम, तुम बड़े चंचल हो । तुमने यह क्या किया । तुम जहाँ जाते हो वहीं अनर्थ करते हो। तुम बड़े दुष्ट हो । तुम्हारे पास शिष्टाचारकी तो वू भी नहीं है । तुम्हारे हाथों में भी चंचलताका बड़ा दोष है। भाई, तुम तो अपराधके सिवाय दूसरा काम करना जानते ही नहीं । माताके ऐसे उलाहनेको सुन कर भीम चुपका हो गया। और माताकी मर्यादाके भयसे वह उसी समय वहाँसे चल दिया।
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२३७ इसके बाद भोजन करनेकी इच्छासे वह पवित्रात्मा प्रवीण भीम हलवाई की दुकान पर पहुँचा । वहाँ उसने एक हलवाईसे कहा कि भाई, यह चमकती हुई सोनेकी मोहर लेकर हमें भोजन के लिए मिठाई दे दो। देर मत करो; क्योंकि हमारे भाई भूखसे दुःखी हो रहे हैं । हलवाई उस मोहरको लेकर खूब संतुष्ट हुआ। सो ठीक ही है कि सोनेको पाकर कौन सन्तुष्ट नहीं होता । इसके वाद हलवाईने भीमको भोजन करनेके लिए एक मजवत आसन पर बैठाया
और भक्ति-भाषसे उसके सामने भोजनका थाल परोस दिया । भीम बहुत ही भूग्वा था सो उसने धीरे धीरे कंठ तक-वहाँ जितनी सामिग्री मिली उसे खूब खाया; जरा भी कोई चीज उसने बाकी न छोड़ी। भीमने खा-पी कर संतुष्ट हो हलवाईसे कहा कि अब भाइयों के लिए भोजन दो । यह देख वह चकराया
और डरता डरता बोला कि अब आप ही कहिए कि मैं क्या हूँ कुछ बाकी तो बचा ही नहीं है । हॉ, कहें तो क्षणभरमें मैं तैयार करवाये देता हूँ। यह कह कर उसने भक्तिभावसे भीमके चरणों में नमस्कार कर उसे सन्तुष्ट किया । यह सुन भीम थोड़ी देरके लिए वहीं ठहर गया। इतनेहीमें कर्णफा एक महाकाय हाथी मदसे उन्मत्त होने के कारण निरंकुश हो सॉकल तोड़ कर निकल भागा । और जो जो बाजारके मनोहर मकान, वृक्ष वगैरह-उसके सामने आये उन्हें उसने उखाड़ कर फेंक दिये । धीरे धीरे उसके उत्पातकी खवर भीमके कानोंमें पड़ी
और वह उसके पास पहुँचा । लोग उसे देखते ही कहने लगे कि हम सब आपकी शरणमें हैं, हमें इससे बड़ा भय हो रहा है । देखिए इसीके कारण हम सब कॉप रहे हैं। अतः अब आप हमारी रक्षा कीजिए; हमे इस संकटसे वचाइए । महाराज, आप बड़े वली हैं, अतः आपको प्रजाकी रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि आपको बड़े बडे वली भी मानते हैं और आपका नाम भी विपुलोदर है। ऐसे भयानक समयमें चलवानोंकी ही हिम्मत पड़ सकती है। उन लोगोंके ऐसे दीनता भरे वचनोंको सुन कर भीम उस मदोद्धत हाथीको जीतनेके लिए तैयार हुआ। उसने व्रजके जैसे अपने मुष्टि-प्रहार, पैरोंके प्रहार और भुजदण्डोंके प्रहारसे उसे क्षणभरमें निःसत्व कर उसके दाँतोंको उखाड़ कर मद-रहित कर दिया । यह देख एक मनुष्यने जाकर भीमकी यह सारी लीला कर्णको कही । उसने कहा कि देव, एक प्रचंड ब्राह्मणने आपके हाथीको एक क्षणमें ही वशमें कर लिया है। महाराज, घड़े अचम्भेकी बात है कि जिस हाथीको युद्धमें कोई भी नहीं जीत सकता था उसी हाथीको उस यलीने 'एक क्षणमे ही निर्मद कर दिया है । देव,
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पाण्डव-पुराण |
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वह बड़ा वलवान है, शायद कोई उपद्रव खड़ा कर दे । अत एव आप युद्धके विना ही छळसे उसका निग्रह कर डालिए । उसके वचनोंको सुन कर कर्णने उसे समझा कर टाल दिया और आप अपने महलमें चला गया ।
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इसके बाद विजयी पांडव कुछ दिन तो वहाँ और रहे बाद वहाँसे चल कर वे वैदेशिकपुरमें आये । यहाँका राजा नृपध्वजं था । वह धर्मात्मा था । उसकी रानीका नाम दिशावली था । उसका यश सब दिशाओंमें फैला हुआ था । वृषध्वज और दिशावली के एक पुत्री थी । वह बड़ी शुद्ध हृदयकी धारक थी । उसका नाम दिशानंदा था । वह आपने जघन और स्तनोंके भारसे मंद मंद चलती हुई हथिनीकी गतिको जीतती थी और अपने चन्द्रमा समान मुखसे वह सारे घरके अधेरेको दूर करती थी ।
वहाँ पहुँच कर भूखे और थके हुए पांडवोंको किसी विश्रामकी जगह छोड़ कर उत्तम गुणोंका सागर और वलशाली भीम अकेला ही भिक्षाके लिए नगरमें गया और ब्राह्मणका वेष बना वह राजाके महलके आगे पहुँचा । उस समय झरोखमें बैठी हुई शुभानना दिशानन्दाने उसे देख कर मन-ही-मन सोचा कि कहीं यह मनुष्य रूपधारी मानी कामदेव ही तो भीख मॉगनेके छलसे यहाँ नहीं आया है । क्योंकि ऐसा सुन्दर रूपशाली दूसरा कोई और तो हो ही नहीं सकता । भीमको देखते ही वह उसके रूप पर निछावर हो गई और एकटक दृष्टिसे उसकी ओर देखने लगी । उसकी यह दशा राजाको भी मालूम पड़ गई कि इस सुन्दर युवा पर पूर्ण मोहित होकर दिशानन्दाने अपना सर्वस्व भी इसे अर्पण कर दिया है । यह देख उसने भीमको बुलाया और उससे पूछा किवि, तुम यहाँ किस लिए आये हो । यदि सचमुच ही भीख माँगनेके लिए आये हो तो लो मेरी इस राजकुमारीको भीखके रूपमें ग्रहण करो । यह कह कर राजाने महान् रूपशाली, भाँति भाँतिके गहनोंसे विभूषित और लोगोंको आनंद देनेवाली दिशानन्दाको लाकर भीमके आगे खड़ा कर दिया । यह देख भीम बोला कि राजन्, इस सम्बन्ध में मैं कुछ भी नहीं कह सकता । मेरे वड़े भाई जो कुछ करेंगे वही मुझे प्रमाण होगा । इस पर राजाने पूछा कि वे कहाँ हैं | भीमने बतलाया कि वे नगर के बाहिर प्रदेशमें ठहरे हुए हैं । तव राजा भीमके साथ साथ - जहॉ पांडव ठहरे हुए थे - वहाँ गया ।
वहाँ युधिष्ठिरके पास पहुँच कर उसने उन्हें नमस्कार किया तथा स्नेहके साथ उनसे कुशल- समाचार पूछा। इसके बाद बड़े स्नेहसे राजाने उनसे नगरमें
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पन्द्रहवाँ अध्याय । चलनेके लिए प्रार्थना की और पांडव भी राजाके स्नेह-वश नगरमें चले आये । वहाँ राजाने भोजन आदिसे उनकी खूव भक्ति की-उनका उचित आदर किया। इसके बाद राजाने भीमके साथ अपनी कन्याका विवाह करने लिए युधिष्ठिरसे प्रार्थना की । युधिष्ठिरने उसके लिए अपनी स्वीकारता दे दी । तव शुभ लममें राजाने उन दोनोंका बड़े गट-बाटके साथ विवाह कर दिया । देखो, पुण्यकी महिमा कि भीम आया तो था मिक्षाके लिए और प्राप्त हुआ उसे कन्या रत्न । राजाकी भक्तिसे पांडव बड़े सन्तुष्ट हुए।
इसके बाद पांडव कुछ दिनों तक और ठहर कर वहॉसे चल दिये और विना श्रमके वे मनोहर नर्मदा नदीको पार कर विंध्याचल पर्वतके पास आये । वहॉ दूरसे ही उनकी दृष्टि विंध्याचलके उन्नत शिखर पर बने हुए जिनालय पर पड़ी, जो नाना प्रकारकी शोभासे शोभित और कैलास पर बने हुए सोनेके मंदिर सरीखा देख पडता था। उस समय यद्यपि वे थके हुए थे, पर भक्तिके आवेशमें आकर विंध्याचलके अतीव ऊँचे शिखर पर चढ़नेको तैयार हुए और थोड़े ही समयमें वहाँ पहुँच गये । वहाँ पहुँच कर उन सत्पुरुषोंने उस चैत्यालयकी विचित्रताको देख कर बड़ा हर्प प्रकट किया । उस जिनालयके चारों ओर एक सुन्दर कोट था, जिससे उसकी अपूर्व ही शोभा थी । उसमें जाने-आनेके लिए सोनेकी मनोहर सीढ़ियाँ बनी हुई थीं । उसमें भाँति भॉतिके चित्र बने हुए थे । उसके दरवाजोंके किवाड़ बड़े सुन्दर थे। उसमें चित्र विचित्र खंभे लग रहे थे । ऐसे विशाल जिनभवनको देख कर उन्हें पहले तो बड़ा हर्षे हुआ; परन्तु जब वे किसी तरह उसके भीतर न जा सके तब दुःखसे कुछ उद्विम हुए। इसके बाद द्वारके किवाड़ खोलनेकी इच्छासे भीमने उठ कर ज्यों ही किवाडॉको हाथ लगाया त्यों ही किवाड़ खुल गये । तव पांडव जय जय ध्वनि करते हुए उस जिनालयके भीतर गये और वहाँ उन्होंने भव्य प्रतिमाओंके दर्शन किये । इसके बाद उन्होंने फकों और पुष्पोंसे उनकी पूजा की उनके आगे भक्तिभावसे अर्घ चढ़ाया और शान्त-चित्तसे उनके गुणोंका गान कर खूव स्तुति की कि हे जिनेन्द्र, आपके दर्शन करनेसे आज हमारा जन्म सफल हो गया हमें मनुष्य पर्यायका फल मिल गया । हमारे नेत्र भी सफल हो गये । हे प्रभो, आपके गुणोंका चिन्तवन करनेसे आज हमारा हृदय सफल हुआ एवं हमारी सव थकावट दूर हो गई। भगवन् , आपकी यात्रासे आज हमारे हाथ-पॉव भी सफल हो गये तथा परिणाम भी सफलीभूत हुए । अधिक
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क्या कहें हम आज कृतार्थ हो गये, मनोहर और मान्य हो गये-- मानों हम आज ही मोक्षको प्राप्त कर चुके । इस प्रकार जिनदेवकी स्तुति कर तथा उन्हें नमस्कार कर वे जिनालय से वाहिर निकले । वे बाहिर आकर वहाँ बैठे ही थे कि इतनेमें वहाँ श्री मणिभद्र नामका यक्ष आया और उनको नमस्कार कर बोला कि नरोत्तम, आप बड़े विवेकी हैं, श्रेष्ठ हैं और गुण सम्पदासे युक्त हैं। अतः मैं आपको धन्यवाद देता हूँ । हे मान्य पुरुष, आपने इस जिनालयके किवाड़ खोले हैं, मैने इसीसे जान लिया है कि आप बड़े पुण्यात्मा जीव हैं, और ऐसा ही एक योगिराजने कहा था । इतना कह कर उस यक्षने महान धीरजधारी, शूरवीर भीमको शत्रु विघातनी नाम एक गदा दी, जिसके नामको सुनते ही भीषण युद्धके लिए उद्यत शत्रु भी रणांगण छोड़ कर भाग जाते हैं; जैसे कि दवाईसे मनुष्योंके रोग भाग जाते हैं । इसके बाद उस यक्षने रत्नोंकी बरसा कर भक्ति से प्रेरित हो उन पाँचों ही पांडवोंको वस्त्र, आभूषण और मणि- मुक्ता वगैरह भेंट दिये । एवं उसने उन्हें निर्दोष विद्या भी दी । उस निर्दोष विद्या और शत्रुघातकी गदाको पाकर पांडव निर्भय होकर ठहरे ।
पाण्डव-पुराण ।
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WORK
1
वह भीम योद्धा जयको प्राप्त हो, जो भाँति भॉतिकी लीलासे युक्त गज गामिनी ललनाओं को पाकर सांसारिक सुखकी सीमा पर पहुँच गया; जो रणमें शत्रुओं पर विजयको लाभ कर चुका; जिसकी राज-गणोंने वन्दना - स्तुति की और जो शुद्ध पक्षवाला, सबको हर्ष देनेवाला और निर्दोष था ।
एवं जिसने सैकड़ों युद्ध करके निशाचर और विद्याधरको भय चकित कर - गर्व-रहित कर --- हिडंवा नामकी विद्याधर - कन्याको पाया, हाथीका मद उतारा, दिशानन्दाको ब्याहा और जिनालयके द्वारके किवाड़ोंको खोल कर गदाको प्राप्त किया वह विपलोदर भीम सदा जयको पावे |
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सोलहवाँ अध्याय ।
सोलहवा अध्याय ।
रन शीतलनाथ भगवानकी मैं स्तुति करता हूँ जो पूर्ण शीलके स्वामी हैं,
जिनका अतीव मनोहर शरीर है, जो जीवोंको शान्ति-दाता हैं, उत्कृष्ट लक्ष्मीके स्थान हैं और जो श्रीक्षके लक्षणसे युक्त है।
__इसके बाद युधिष्ठिरने उस यक्षसे पूछा कि यक्षराज, तुमने भीमके लिए जो गदा दी है उसके देनेका क्या कारण है । इसके उत्तरमें उस उत्तम पक्षवाले
और शासन-कुशल यक्षने कहा कि राजन्, सुनिए, मैं गदा देनेका कारण वताता है। . इस भरत क्षेत्रके वीचमें एक अति ऊँचा विजयाई नाम पहाड है । वह पूर्व और पच्छिमकी ओरको लम्वा है और दोनों ओरके कोनोंसे लवण समुद्रको छूता है । अतः वह ऐसा जान पडता है मानों भरत क्षेत्रको नापनेके लिए मान-दंड ही है । वह पञ्चीस योजना ऊँचा है, पचास योजनका उसका विस्तार है और सवा छह योजनकी उसकी जड़ है । उसकी दो श्रेणियाँ हैं । एक दक्षिण श्रेणी और दूसरी उत्तर श्रेणी । दक्षिण श्रेणीमें रथनूपुर नाम एक नगर हैं । उसका स्वामी मेघवाहन था । उसने रणमें बहुतसे वैरियों पर विजय पाई थी । उसकी प्रियाका नाम प्रीतिमती था । वह राजाको बहुत प्यारी थी और वह भी राजा पर पूर्ण प्रेम रखती थी। इन दोनोंके एक पुत्र था । उसका नाम था धनवाहन | धनवाहनके बहुतसे अच्छे अच्छे वाहन थे । वह विद्या साधनेमें दत्तचित्त था। उसने अपने पराक्रमसे बहुतसे शत्रुओंको तो वशमें कर लिया था और अपने राज्यको पढ़ानेकी इच्छासे वाकी शत्रुओंको जीतनेको वह तैयार था । इसी लिए वह गदा देनेवाली विद्या साधनेके लिए विंध्याचल
पर्वत पर गया था। वहाँ उसने बहुत दिनों तक विद्या साधी । उसके फलसे -उत्तम विधा-साधनसे सिद्ध होनेवाली और तीन लोकमें प्रसिद्ध यह गदा उसे मौत
हुई । इसी समय आकाश मार्गसे देव जा रहे थे । उनको जाते हुए देख कर विद्याके वैभवसे युक्त उसं विधाधरोंके राजाने कहा कि ये देव कहाँ जा रहे है
और किस लिए जा रहे हैं। इस पर एक देवने कहा कि सुनिए, मै आपको सर्व हाल कहता हूँ।
पामाव-पुराण ३१
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पाण्डव-पुराण।
विंध्याचल पर्वत पर क्षमाधर नाम योगीराजको तीन लोकको प्रकाशित करनेवाला केवल ज्ञानलाभ हुआ है । इस लिए ज्ञान-सम्पत्तिको चाइनेवाले हम सब धर्मामृत पीनेकी इच्छासे प्रभुका ज्ञानकल्याण करनेके लिए वहाँ जा , रहे हैं । यह सुन कर वह विद्याधर भी वहाँ गया और पापसे पराङ्मुख हो उसने मुनिके चरण-कमलों में प्रणाम करके धर्मा-मृतका पान किया और संसारसे विरक्त होकर संयम लेनेकी इच्छासे उस क्षमाके भंडार और शान्त परिणामी विद्याधरने दीक्षाके लिए मुनिराजले प्रार्थना की । यह देख उस गदा विद्याको बड़ी चिन्ता हुई और वह आकर उस विचक्षणसे कहने लगी कि हे कृत अर्थको जाननेवाले निद्वन्, आपने मेरे साधनेमें इतना भारी कष्ट सहा तव कहीं मैं सिद्ध हुई। और अब आप मेरा कुछ भी फल प्राप्त न कर दीक्षा ले रहे हैं, यह क्या बात है । यदि आपकी ऐसी ही मनसा थी तो फिर मेरे साधनेके लिए आपने व्यर्थ ही इतना क्लेश उठाया । यह प्रौढ़ और दृढ़ गदा युद्धमें जय दिलाती है, संसारमें कीर्ति फैलाती है और भॉति भाँतिके दिव्य भोगोंको देती है । अत एव जव आपने इसे साधा है और यह सिद्ध हो गई है तब इसका आप अवश्य ही फल प्राप्त कीजिए और गंभीरतासे काम । लीजिए । भला जिसके प्रभावसे देव भी आकर नौकरी बजाते हैं और मनुष्य सदा ही सेवामें हाजिर रहते हैं ऐसी उत्तम विद्यासे आप उदास होते हैं, यह कहाँ तक उचित है । अतः आप इससे किसी तरह भी उदास मत हूजिए। विद्याके इन वचनोंको सुन कर उसने उत्तम वचनोंमें कहा कि विद्यादेवि, तुमसे मैंने यही भारी फल पा लिया है जो मुझे तुम्हारे प्रभावसे ऐसे महा मुनिराजका समागम मिल गया । तुम्हीं कहो कि यदि मैं विद्या न साधता तो इनका समागम माप्त कर सकता । अतः मैं जो तुमसे मुनि समागम रूप फल पा चुका-यही मेरे लिए बहुत है । इस उत्तरसे उसको निश्चल जान कर विद्याने मधुर वाणी द्वारा फिर भी कहा कि नरेन्द्र, तुम बड़े विचक्षण पुरुष हो, सब कुछ जानते हो । देखो, मै फिर भी कहती हूँ कि तुम मुझे साध कर मत छोड़ो । मै तुम्हारे पुण्य-प्रतापसे ही अपना स्थान छोड़ तुम्हारे पास आई हूँ, और तुम तुझे छोड़ना चाहते हो । तव आप ही कहें कि मै दोनों ओरसे भ्रष्ट होकर अब क्या करूँ।' इस वक्त मेरी वैसी ही गति हो रही है जैसी कि राज्य छोड़ कर दीक्षा ले पुनः दीक्षासे भी भ्रष्ट हो जानेवाले पुरुषकी होती है । वह न इधरका रहता है और उधरका । यही हाल मेरा भी है जो मैं न इधरकी रही न उधरकी-मेरा कोई
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सोलहवाँ अध्याय।
ठिकाना ही नहीं रहा । राजन्, उस विद्याके ऐसे दीन वचनोंको सुन कर मैंने उन कृती मुनिराजसे पूछा कि प्रभो, अब इस विद्याका कौन नीतिवान् विनयी पुरुष पति होगा । मुनिराजने उत्तर दिया कि यक्ष, इसका स्वामी अब महापुरुष भीम होगा । यह सुन कर मैंने फिर मुनिराजसे पूछा कि भीम कौन है ? और वह कैसे जाना जायगा ! इसके उचरमें संसारको आनन्द देनेवाले वे मुनिराज प्रमोदके साथ यों कहने लगे
इसी भरत क्षेत्रमें एक हस्तिनापुर नाम नगर है । वहाँका राजा पाड्ड था। वह गुणोंका समुद्र था । भीमसेन उसीका पुत्र है । और वह शुद्ध परिणामी तीन लोकमें सुन्दर इस चैत्यालयकी वन्दनाके लिए अपने भाइयों सहित अति शीघ्र ही यहॉ आवेगा । स्पष्ट वात यह है कि जो कोई यहाँ आकर इस जिनालयके किवाड़ोंको खोलेगा वही इस गदाका स्वामी होगा । यह सुन कर वह विद्याधर राजा तो विद्याको समझा कर मुनिके पास दीक्षित हो गया और मैं तभीसे इसकी रक्षा करता हुआ और आप लोगोंकी प्रतीक्षा करता हुआ यहीं ठहरा हुआ हूँ। आज आप लोगोंको आया देख कर मुझे बड़ा भारी संतोष हुआ
और मुनिके कहे अनुसार मैंने भीमको यह गदा दी । इसके बाद उस यक्षने वस्त्र, आभूषण आदिके द्वारा उनकी पूजा-भक्ति की और अन्तमें उनके गुणों को याद करता हुआ वह अपने स्थानको चला गया।
___ इस प्रकार पांडव दक्षिणके देशोंमें विहार करते और धर्मके फलको भागते हुए हस्तिनापुर जाने को तैयार हुए। वहॉसे चल कर वे धीरे धीरे मार्गमें पड़नेवाली माकन्दी नाम नगरीमें आये । वह देवतों जैसे सत्पुरुषोंका और देवागनाओं जैसी ललनाओंका निवास थी, अतः स्वर्गपुरी सी जान पड़ती थी । उसके चारों ओर एक सुन्दर विशाल कोट था । जैसे स्त्रियाँ मॉगमें उत्तम लाल वर्णका सिंदूर भर कर शोभा पाती हैं वैसे ही उसमें भी उत्तम वर्णके लोग भर रहे थे, अत: वह भी अतीव शोभा पाती थी । तात्पर्य यह कि वह सुंदर सजावटसे ऐसी जानी जाती थी मानों स्वर्गपुरी ही नीचे उत्तर कर यहाँ आ गई है । वहाँ पहुँच कर वे ब्राह्मण वेष-धारी पांडव एक कुंभारके घर गये और वहाँ ठहर गये। इसके बाद वे पवित्र और लोकोंको पालनेवाले पंडितोंसे परिपूर्ण उस पुरीको देखने के लिए निकले । उसकी शोभा देख कर वे बडे संतुष्ट हुए; जैसे कि स्वर्गपुरीको देख कर अमर-गण संतुष्ट होते है। वहाँका राजा द्रुपद था। वह वृक्षकी
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पाण्डव-पुराण। जड़ जैसा स्थिर था, वीर्यशाली था, धीरज-धारी था और शत्रुओंको जीतनेवाला था। वह स्वयं किसीसे नहीं जीता जाता था । उसकी मियाका नाम भोगवती था । वह वास्तवमें भोगवती ही थी---भोगोंकी खान थी । भाँति भॉतिके मनोहर भोगोंको भोगती थी। वह आभूषणोंसे खूब सजी हुई थी। द्रुपद्रके कई पुत्र थे। वे सुवर्णके समान कान्तिवाले थे। उन्होंने अपने पराक्रमसे सबं दिशाओं पर अधिकार जमा लिया था । वे इन्द्रकी नाँई मनोहर थे । उनके नाम धृष्टद्युम्न आदि थे। इनके सिवा उसके एक पुत्री भी थी। उसका नाम द्रोपदी था । वह उत्तम लक्षणोंवाली थी और अपने सुन्दर रूप तथा गुणोंसे इन्द्राणीको भी जीतती थी। अपनी चालसे वह हंसीको और नखोंसे तारा-गणको जीतती थी । चरणोंसे कमलोंको
और जॉघोंसे केलेके स्तंभोंको जीतती थी । जघनोंसे कामक्रीडाक घरको और नितम्बोंसे सोनेकी शिलाको जीतती थी । नाभि-मंडलसे भँवरोंवाले सरोवरको
और वक्षःस्थलसे कैलासके तटको जीतती थी । जिन पर हार लटक रहा था ऐसे कुचोंके द्वारा वह सॉपोंसे वेष्टित कुंभोंको जीतती थी। हाथोंके द्वारा 'कल्पवृक्षकी शाखाओंको, मुखसे चाँदको और स्वरसे कोकिलोको जीतती थी । आँखोंसे मृगीको, नाकसे वाँसकी सुंदर वाँसुरीको और ललाटसे अष्टमीष्टे चंद्रमाको जीतती थी। अपने सुंदर केशपाससे वह भुजंगको जीतती थी। वह कला-कौशलमें पूर्ण कुशल थी। उसका कटिभाग कृश था और स्तन गोल और कठिन थे।
एक दिन द्रुपदने देखा कि पुत्री अव युवती हो गई है, अत: इसका जल्दी विवाह कर देना चाहिए । यह सोच कर उसने अपने मंत्रियोंको बुलाया और उनसे इस सम्बन्धमें सलाह ली । उन्होंने भी अपनी अपनी योग्यता और बुद्धिके अनुसार सलाह दी और बहुतसे राजोंके नाम कहे और कहा कि इनमेंसे राजन्, आप जिसे पसन्द करें, उसीके साथ द्रोपदीका ब्याह कर दें । मंत्रियोंकी इस सम्मतिके अनुसार राजाने भी किसी किसी कुमारकी ओर दृष्टि दौड़ाई पर फिर याचना भंग होनेके भयसे उसने यही निश्चित किया कि स्वयंवरकी तैयारी करके अति शीघ्र एक सुन्दर स्वयंवर-मंडप बनवाया जाय । स्वयंवरके विना ठीक नहीं होगा। किसीसे वरकी याचना की गई और उसने मंजूर न की तो उल्टा दुःख ही होगा। इसके बाद राजाने दूतोंको बुलाया और उन्हें निमंत्रण पत्र देकर कर्ण और दुर्योधन आदि राजोंको पास भेज दिया।
खगाचल पर्वत पर एक विद्याधर राजा रहता था। उसका नाम सुरेन्द्रवर्धन था। उसे सब साधन प्राप्त थे। उसके एक कन्या थी । एक समय उसने
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सोलहवाँ अध्याय । एक नैमित्तिकसे पूछा कि मेरी कन्याका वर कौन होगा । नैमित्तिकने कहा कि राजन, माकंदी पुरीमें आकर जो वलवान पुत्रष गांडीव धनुष चढावेगा वही पुण्यशाली, श्रीमान् और परमोदयशाली तुम्हारी 'कन्या और द्रोपदीका वर होगा । यह सुन कर कुंदके समान यशवाला वह विद्याधर गांडीव धनुष और अपनी कन्याको लेकर माकन्दी पुरीमें आया और वहॉ द्रुपद राजाके पास जाकर उससे उसने कन्याके सम्बन्धकी सारी वात कह दी, और साथ ही उस स्पष्टवक्ताने द्रुपद्रको वह धनुष भी दे दिया।
इसके बाद द्रुपदने अति शीघ्र एक सुन्दर मंडप तैयार करवाया । उसमें सोनेके खंभे लगे हुए थे और सोनेका ही तोरण बांधा गया था । उस पर मुक्ताफलोंसे विभूषित चॅदोवे तने हुए थे । भाँति भॉतिके चित्रोंसे सुशोभित सोनेकी उसकी भी थीं । उस पर इतनी पताका फहरा रही थीं कि उनसे सारा गगन-मंडल लॅक गया था । वह नगरके जैसा दीख पड़ता था । उसमें बहुंतसी गलियाँ बनी हुई थी । उसके ठीक वीचमें एक ऊँची वेदिका वनाई गई थी । दीप्तिशाली सोनेके पायोंके उसमें बहुतसे तख्त पड़े हुए थे। वह बहुत ही सुन्दर आकारका था और भाँति भौतिकी भोग-सम्पतिका दाता था।
___ स्वयंवरके समय कर्ण, दुर्योधन आदि यादव, मगघाधीश, जालंधर, और कौशल आदिके सब राजा आये और वे महान रूप-सौन्दर्यशाली मंडपमें आकर विराजे । ब्राह्मण-घेषमें पाँचों पांडव भी यहीं माकन्दी पुरीमें ठहरे हुए थे । इसी समय द्रुपद और सुरेन्द्रवर्द्धन विद्याधरने मेघके शब्दको भी जीतनेवाली घोषणा करवाई कि जो कोई गांडीव धनुष चढ़ा कर राधावेध करेगा वही पुण्यवान इन दोनों कन्याओंका वर होगा । कन्याओंकी यह प्रतिज्ञा-घोषणा सुन कर कर्ण आदि सव राजा आकर उस धनुषको देखने लगे । वह इतना कान्तिशाली था कि उसके तेजको वे लोग सह न सके । उसे फिर छूने और चढ़ानेके लिए तो उनमें शक्ति ही कहाँ थी।
इसी समय अनेक प्रकारके गहनोंसे विभूषित और रेसमी ओढ़नीसे अपने शरीरको ढंके हुई द्रोपदी मंडपमें आये हुए राजोंको देखनेकी इच्छासे वहाँ आई । वह बारीक कंचुकीसे प्रच्छन्न कुचकुभोंके भारसे युक्त थी और अपने नूपुरोंके रण-झण शब्दसे रतिको भी जीतती थी। उसकी नासाके अग्रभागमें मुक्ताफलोंसे जड़ी हुई सोनेकी सुंदर नथ सुशोभित थी । तात्पर्य यह कि इस वक्त वह अपूर्व
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पाण्डव-पुराण। ही शोभायुक्त थी और इन्द्राणीके जैसी देख पड़ती थी । वह रूपलावण्यकी खान थी। उसके सब ओर उसकी सखियाँ थीं । धायके हाथमें उसने मणियोंकी माला दे रक्खी थी । वह निर्मल थी और अपने कटाक्षपात द्वारा उन राजोंके मनको मोहित करती थी । ऐसी मनमोहिनी मूर्तिवाली द्रोपदीको उन राजोंने ज्यों ही देखा कि उनकी कामाग्नि धधक उठी । वे मन-ही-मन बोले कि ऐसी सुन्दरी रूप-सौन्दर्यकी सीमा दूसरी स्त्री तो हमने आज तक नहीं देखी । इसका रूप-सौन्दर्य संसार भरसे बढ़ा चढ़ा है।
इस समय वहाँ जितने राजा थे सवकी विचित्र ही चेष्टा हो रही थी । कोई अपने मित्रके साथ बातें करता हुआ द्रोपदी पर मंद कटाक्ष फेंक रहा था । कोई मंद मुसक्यानसे अपने पानके रंगसे लाल हुए दाँतोंकों दिखाता हुआ दाँतोंके नीचे पान दवा कर उसे बड़े जोरसे चवा रहा था। कोई पाँवके अंगूठेके द्वारा सिंहासन पर लिख सा रहा था । कोई दाहिने पॉवको बायें पॉच पर रक्खे हुए था । कोई जंभाई ले रहा था । कोई सिर पर मुकुट रख रहा था । कोई अपने हाथोंके कड़ोंको इधर उधर घुमा रहा था, जिससे उसकी भुजायें ऐंठती सी थीं । कोई हाथसे मूंछोंको मरोड़ता था। कोई अंगूठियोंकी कान्तिसे प्रकाशित हाथोंको ऊँचे उठा उठा कर दिखाता था। इस प्रकार विचित्र चेष्टायें करते हुए वे लोग वहाँ बैठे हुए थे । उसी समय वीणा, मृदंग, बाँसुरी, नगाड़े आदिकी आवाज हुई, जिससे सब दिशायें गूंज उठीं।
इसके बाद उस मिष्टभाषिणी सुलोचना धायने जो कि वरमाला हाथमें लिये हुए थी, वहाँ बैठे हुए राजोंका द्रोपदीको परिचय कराया । वह बोली बेटी, देखो ये अयोध्याके राजा हैं। ये सूर्यवंशके शिरोमणि हैं। इन्द्रके जैसी विभूतिके धारक हैं। पण्डित लोग इनका आश्रय लेते हैं । इनका नाम सूरसेन है । ये शत्रुपक्षके विघातक बनारसके राजा हैं । ये सुवर्णकी सी कान्तिवाले चंपापुरीके राजा कर्ण हैं । ये हस्तिनापुरके राजा दुर्योधन हैं । बड़े बुद्धिमान हैं। और यह इन्हींका भाई दुश्शासन है । यह शत्रुओंका नाश करनेवाला दुर्मर्षण राजा है । देखो, ये यादव-वंशीय राजा हैं । ये मगध देशके अधिपति हैं । ये जलंधर देशके राजा हैं । ये वाल्हीक देशके राजा हैं । पुत्री, मैं नहीं कह सकती कि इन राजों से कौन धनुषको उठा कर बाणके द्वारा राधावेध .
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सोलहवाँ अध्याय ।
२४७ करेगा । बहुतसे राजे लोग तो उस धनुषके उठानेके लिए इसी लिए असमर्थ हुए कि वह जलती हुई आगकी महान् ज्वालासे व्याप्त था; नागोंके फणोंकी फुकारोसे वह शब्द-मय हो रहा था । अतः जो उसे उठानेके लिए उसके पास जाते उन्हें वह अपनी प्रचंड ज्वालाके द्वारा भस्म किये डालता था, जिससे वे अपनी ऑखें बन्द कर करके उससे दूर भागते थे । कोई राजा उन भयंकर जहरीले साँपोंको देख कर दूरहीसे डरके मारे कॉपते थे और उनको न देख सकनेके कारण अपने नेत्रोंको ढक लेते थे । कोई हिम्मत बॉध कर उसके पास तक जाते भी थे तो उसकी विषम ज्वालासे पीड़ित होकर वे जमीन पर गिर पड़ते थे और उनमें बहुतोंको मूर्जा तक आ जाती थी । कोई बिचारे कहते थे कि हमें द्रोपदी नहीं चाहिए; किन्तु हम सकुशल अपने घर पहुँच जायें तो बड़ी खुशी मनायें
और आनंद-पूर्वक दीन, अनाथ और दरिद्रोंको दान दें । कोई कहते थे कि हम तो अपने घर जाकर अपनी स्त्रियोंके साथ ही-क्रीड़ा, मनोविनोद करेंगे, हमें ऐसी सुन्दरी द्रोपदी नहीं चाहिए, जिसके पाछे प्राणोंके ही लाले पड़ जायें।
और जिन राजोंके कामिनियाँ न थीं वे कहते थे हमें ऐसे प्राणोंके घातक विषय-सुखकी चाह नहीं है । इससे तो हम घर जाकर कुछ समय ब्रह्मचर्यसे रहें यही परम उत्तम है । देखिए एक तो यह अपने रूपसे ही लोगोंके प्राण लिये लेती है और उस पर साँपके विषकी तीव्र ज्वाला जैसे कामके वेगसे मारे डालती है । यह कन्या नहीं है, किन्तु कहना चाहिए कि महान् विष ही है। ___यह देख कर मदके आवेशमें आ दुर्योधन बोला कि मेरे सिवा इस राधावेधके लिए दूसरा और कौन समर्थ हो सकता है । इस राधाके मोतीको तो मै ही वेबॅगा । इतना कह कर वह नेत्रोंको लाल करके उठा और धनुषके पास पहुंचा; परन्तु उस धनुषसे उत्पन्न हुई ज्वालासे पीड़ित होकर वह भी उसके पास ठहर न सका और असमर्थ होकर भूमि पर गिर पड़ा और बड़ी कठिनतासे उठ कर अपनी जगह पर आकर बैठा । इसी प्रकार कर्ण आदि और और राजा भी उसकी ज्वालाको न सह सकनेके कारण मानको छोड़ कर अपने अपने स्थान पर चुपचाप आ बैठे । जब कोई भी उस धनुषको न चढ़ा सका तब युधिष्ठिरने अपने छोटे भाई अर्जुनसे उसके चढ़ानेके लिए कहा । वे बोले कि जान पड़ता है इन राजोंमेंसे कोई भी यह धनुष नहीं चढ़ा सकता है । इसके लिए ये सब असमर्थ हैं, अतः तुम उठो और इस धनुषको चढ़ाओ । तुम्हारे सिवा इस धनुषको और कौन ऐसा है जो सिद्ध करेगा । युधिष्ठिरके वचनोंको सुन
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पाण्डवे-पुराणे ।
कर सिद्धोंको और अपने बड़े भाई युधिष्ठिरको प्रणाम कर विशुद्ध-बुद्धि अर्जुन उठ खड़ा हुआ। उस समय उस द्विज-वेष-धारी और कामदेवसे भी अतिशय रूपशालीको दूरसे ही देख कर द्रोपदी उसके रूप पर मोहित हो कामके वाणों द्वारा वेधी जाने लगी।
इसके बाद अर्जुन सव राजोंको लॉघ कर धनुषके आगे जाकर खड़ा हो गया। उसके वहाँ पहुँचते ही पुण्यसे वह सब ज्वाला उसी समय विल्कुल शान्त हो गई और सब साँप अन्तर्हित हो गये । पुण्यात्मा पुरुपोंके सम्बंधसे बहुधा सब शान्त हो जाते हैं । और वे यदि शूरवीर हों तव तो कहना ही क्या है । धनुर्धर अर्जुनने उस गांडीव धनुषको उसी क्षण हाथमें उठा लिया और चढ़ा कर उस पवित्र आत्माने उसकी डोरीका शब्द किया, जिसे सुन कर वहाँ बैठे हुए सब राजा बहिरे हो गये और घोड़े भड़क कर इधर उधर भागने
और हांसने लगे । हाथी चिंघाड़ने लगे तथा दिग्गज अपनी प्रतिध्वनिके द्वारा शब्द करते हुए ऐसे जान पड़ने लगे मानों मड़ उठा कर गर्न ही रहे हैं। उस विशाल शब्दको सुन कर द्रोणाचार्य चकित होकर बोल उठे कि क्या यहाँ मरा हुआ अर्जुन आ गया है । इसके बाद उस महान् विक्रमी पार्थने धनुषवाण चढ़ाया और घूमते हुए राधाकी नाकके मोतीको बातकी बातमें ही वेध दिया । उस समय मोतीके साथ बाणको पृथ्वी पर गिरा हुआ देख कर वहाँ बैठे हुए सभी राजोंको बड़ा भारी हर्ष हुआ और वे उसके गुणोंको ग्रहण करनेके लिए उत्कंठित हो उठे । इस द्विज-वेष-धारी पार्थकी यादव, मागध आदि राजोंने बड़ी प्रशंसा की और द्रुपद राजा तथा उसके पुत्र भी मन-ही-मन बहुत आनंदित हुए। इसके बाद ही द्रोपदीने अपनी धायके हाथमेंसे 'वरमाला' लेकर अर्जुनके गलेमें पहिना दी । परन्तु दैववशात् वह माला वायुके अति वेगसे टूट गई, जिससे वहीं पासमें बैठे हुए चार पांडवोंकी गोदमें भी उसके मोती जा पड़े । अतः लोगोंकी मूर्खतासे यह दन्तकथा चल पड़ी कि इसने पॉचों ही पांडवोंको घरा है । उन दुर्जनोंने--जहाँ तक उनसे बन सका-इसकी संसारमें खूब घोषणा कर दी।
इस समय द्रोपदी अर्जुनके पासमें खड़ी हुई ऐसी शोभती थी मानों साक्षात् लक्ष्मी ही है । अर्जुनकी आज्ञाको पकिर द्रोपदी कुन्तीके पास जाकर बैठ गई। इस समय वह मनमोहनी ऐसी जानी जाती थी मानों मेघमालासे युक्त
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सोलहवाँ अध्याय ।
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विजली ही है। ये सब बातें दुर्योधनसे न सही गई, अतः वह दुर्मुख राजा लोगों को भड़काने लगा कि आप लोग ही कहिए कि इतने राजों के यहाँ होते हुए एक दीन ब्राह्मणको भला इस बातका अधिकार ही क्या था कि राजोंकी सभा में राधावेध करे । इसके बाद उसने और सब कौरवोंसे सलाह करके द्रुपद राजाके पास चन्द्र नामके एक सुशिक्षित दूतको भेजा । उसने दुपदके पास जाकर नम्रताके साथ कहा कि महाराज ये सब तेजस्वी राजे मेरे द्वारा कहते है कि द्रोण, दुर्योधन, कर्ण, यादव, मागध इत्यादि सभी राजोंके होते हुए कन्याने जो एक दीन ब्राह्मणको वरा है यह बड़ा भारी अन्याय किया है । आप ही सोचिए कि जो परदेशी है, जिसके देशका कुछ पता नहीं है और जो एक लोभी ब्राह्मण है जैसे कि और और ब्राह्मण होते हैं तब वह इतने राजोंके रहते हुए यहाँ से कन्या - रत्नको कैसे ले जा सकता है ? अतः आप इस लोभी ब्राह्मणको कुछ रत्न वगैरह भेंट देकर सीधी-साधी बातोंसे टाल दीजिए और राजोंके योग्य इस कन्याको किसी राजाके हवाले कीजिए । यदि यह बात आपके कानूकी न हो तो आप इन राजोंके साथ युद्ध करनेको तैयार होइए | चंद्र दूतके मुँह से राजोंके अभिप्रायोंको सुन कर क्रोधमें आ द्रुपदने उत्तर में कहा कि न्यायके जानकार और स्वयंवर विधिको जाननेवाले राजोंको अपने मुँहसे ऐसे वचनोंका निकालना ही अधर्म हैं । इस सम्बन्धमें और विशेष कहने की आवश्यकता नहीं । साध्वी द्रोपदीने स्वयंवर विधिसे जिसको वरा है वही यह भूसुर ( ब्राह्मण ) इसका घर है । मैं इसमें कुछ भी फेर फार नहीं कर सकता । इसमें युद्ध करनेका इन राजको अधिकार ही क्या है । क्योंकि चाहे नीच हो या ऊँच स्त्रीका वही वर होता है जिसे वह अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार वरती है । इस लिए युद्ध की प्रतिज्ञा करना इनका ठीक नहीं है । हाँ, यदि वे न मानें और उन्हें युद्ध करने हीमें मजा है तो मैं भी इन व्यर्थ ही बुरे मार्ग पर जानेवालोंको युद्धके लिए निमंत्रण देता हूँ। यह सुन दूत लौट कर दुर्योधन आदिके पास आया और उसने द्रुपदके संदेशेको ज्योंका त्यों उन्हें सुना दिया । यह देख दुर्योधन आदि बड़े क्रुद्ध हुए और रणके लिए तैयार हो गये । उन्होंने उसी वक्त रणके आमंत्रणको सुचित करनेवाली रणभेरी बजवा दी । जिसे सुन कर युद्धके सब साधनों से युक्त होकर राजा लोग निकल पड़े ।
हाथियों विशाल सेनासे युक्त और अपने अपने वाहनों पर सवार थे । उनके साथमें जो योद्धा गण थे उनमें कोई रथ पर सवार थे, कोई अन्य अन्य
पाण्डव-पुराण ३२
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पाण्डव-पुराण।
वाहनों पर थे तथा कोई पैदल थे। वे भॉति भाँतिके हथियार लिये हुए थे । कोई दंड लिये था, कोई ढाल तलवार बॉधे था और कोई भाला लिये थे । वे सभी मदसे उद्धत हुए मन-मानी बातें करते जाते थे । कोई क्रोधमें आकर कहते थे कि : जल्दीसे कन्याको पकड़ लो और इन दुष्ट तथा मतवाले ब्राह्मणोंको यहाँसे मार । भगा दो। यह सुन कर कोई मानी कहते थे कि ऐसा क्यों, पहले मानी द्रुपदको ही पकड़ कर न मार डालो, जिसके कारणसे यह सव झगड़ा खड़ा हुआ है । इस प्रकार शत्रुओंके शब्दोंको सुन कर द्रोपदी काँप उठी । उसे पसीना आ गया । वह अर्जुनकी शरण आ गई। उसको इस तरह घबड़ाई हुई देख कर भीमने कहा कि तुम डरो मत । प्रसन्न होकर मेरी भुजाओंके पराक्रमको देखो । मैं अभी इन वैरियोंको मार कर भगाये देता हूँ। मेरे मारे ये अभी एक क्षणभर भी यहाँ नहीं ठहर सकेंगे और पर्वतकी गुहाओंकी जाकर शरण लेंगे ।
इसके बाद रणांगणमें आई हुई उभय पक्षकी सेनाओंमें प्रचंड वाणोंके छोड़नेका शब्द होने लगा और घड़ा भारी क्षोभ मच गया । यह देख कर कि यमके तुल्य शत्रु पक्षकी सारीकी सारी सेना चढ़ करके युद्ध स्थल में आ पहुँची है, द्रुपद आदि भी युद्धके लिए तैयार हो गये । इसी समय द्विजोतम युधिष्ठिरने द्रुपदसे प्रार्थना की कि आप हमें अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित पॉच रथ दीजिए । यह जान कर धृष्टद्युम्न आदि द्रुपदके पुत्रोंने मन ही मन सोचा कि ये लोग जो अस्त्र-शस्त्रोंसे सजे हुए रथ चाहते हैं इससे जान पड़ता है कि ये कोई महान् पुरुष हैं। इसके बाद धृष्टद्युम्न पाँचाली ( द्रोपदी) को अपने रथमें बैठा कर उसकी रक्षा करने लगा। इधर युधिष्ठिर स्थ पर आरूढ़ हो सौधर्म इन्द्रके जैसे शोभने लगे और गांडीव धनुष लेकर अर्जुन सफेद घोड़ोंके रथ पर सवार हो प्रतीन्द्र जैसा शोभने लगा। वह धनुष पर बाण चढ़ाये हुए था । इसी प्रकार द्रुपद भी सोनेके कवचको पहिन कर वैरियोंको कष्ट देने के लिए तैयार हुआ अपने वैभव और मुकुटसे अपूर्व ही शोभा पाता था।
इतनेहीमें शत्रुकी दुर्द्धर सेनाको चढ़ आई देख कर भीम एक वृक्षको. . जड़से उखाड़ उसके ऊपर दौड़ पड़ा और यमके समान क्रुद्ध हो उसने , अपने आगे आनेवाले राजोंको, हीसने हुए घोड़ोंको, गर्जते हुए हाथियोंको मारा और 'रथोंको चूर करके उन्हें चक्र-रहित कर दिया । बात यह है कि वहाँ ऐसा कोई भी नहीं बचा जो भीमके द्वारा अधमरा न कर दिया गया
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२५१ womammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm हो । इस समय भीम अपनी गंभीर वाणीके द्वारा गजेन्द्र के जैसा गर्जता था और
यमकी तुल्य निर्भय होकर शत्रुओंको दंड देता था। इस तरह सम्पूर्ण सेनाको मारता । पीटता हुआ भीम रमणीय रणांगण में सिंहके जैसा शोभता था और घास काटने
वाला जैसे धासको काटता जाता है उसी तरह वह भी शत्रु-दलका संहार करता जाता था । भीमके ऐसे अपूर्व पराक्रमको देख कर वहाँ जो मध्यस्थ राजा थे वे उसकी जय जय ध्वनिके साथ तारीफ करते थे। इस तरह भीमके द्वारा अपनी सेनाको नष्ट हुई देख कर तूर्यनादसे सारे शत्रुओंको त्रास देता हुआ दुर्योधन उठा । उधरसे सेना लेकर कर्ण भी धनंजय पर टूट पड़ा और उस वीरने विघ्नसमूहके जैसे वाणोंको सब और छोड़ कर सारे आकाशको वाणोंसे पूर दिया। इस प्रकार अपने योद्धाओंको लेकर उसने अर्जुन के साथ खूब भीषण युद्ध किया । उधरसे पार्थ भी कर्णके छोड़े हुए वाणोंको बड़ी शीघ्रताके साथ छेदता जाता था। क्योंकि वह लक्ष्यवेध करनेमें वड़ा भारी कुशल था । अतः जैसे वायु मेघोंको उड़ा देता है वैसे ही वह कर्णके बाणोंको वारण करता था । उसके ऐसे अपूर्व धनुप-धाण-कौशलको देख कर कर्णको बड़ा भारी अचम्भा हुमा। वह मन-ही-मन सोचने लगा कि मैंने पृथ्वी पर आज तक ऐसा धनुष-बाण चलानेवाला कोई पुरुष नहीं देखा । कर्ण अपने हृदयके भावोंको न रोक सका । वह बोल उठा कि द्विजेश, तुम धनुष-विद्याके बड़े अच्छे पंडित हो । तुमने आज धनुप-विद्याके कौशलको दिखानेमें कमाल ही कर डाला । हम तुम्हारी इस कुशलताकी प्रशंसा ही नहीं कर सकते । यह तुम्हारी कुशलता संसार भर द्वारा स्तुत्य है।
इसके बाद कर्णने वाणोंसे अर्जुनको पूरते हुए हँसते हँसते कहा कि द्विजेश, भला तुमने यह महोन्नत विद्या कहाँ पर सीखी है जो तुम्हारे आत्माके जैसे विलक्षण चमत्कारको दिखाती है और मनको मोहित करती है । तुम्हारी यह विद्या लब्धिके तुल्य है। हे द्विजोत्तम, क्या तुम पुण्यके उदयसे स्वर्गसे तो यहॉ नहीं आये हो । क्योंकि मैंने तुम्हारे जैसा धनुष-विद्याका पंडित और कहीं नहीं देखा । तुम इन्द्र हो या सूरज, अथवा अग्मि हो या रणमें उद्धतपनेको दिखानेवाले मरे हुए अर्जुन ही यहॉ जी कर आ गये हो । सच कहो तुम हो कौन ? कर्णके इन मश्नोंको सुन कर हँसता हुआ अर्जुन बोला कि राजन, मैं ब्राह्मण ही हूँ; लेकिन पार्थका सारथी रह कर मैंने यह धनुषविद्या पाई है और इसीके वल यहॉ ठहर सका हूँ। इस पर कर्णने कहा कि अच्छी बात है विभ, पहले तुम अपने उत्तमसे उत्तम
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पाण्डव-पुराण।
वाणोंको चला लो और फिर बाद अपनी सामर्थ्य से मेरे महान शरोंको सहो । इतनी वात-चीतके बाद वे दोनों सिंहकी तरह पराक्रमी योद्धा कान तक धनुषोंको खींच खींच कर युद्ध करने लगे और एक दूसरेके हृदयको चिदारने लगे। अन्तमें पार्थने कर्णके वचनोंकी नाँई उसकी धुना, सूरजकी गर्मीको दूर करनेवाले छत्र और कवचको छेद डाला।
उधर सारे शत्रुओंको आपदाके पंजेमें फंसानेके लिए द्रुपदने कौरवोंकी सारी सेनाको वाणोंकी वरसा करके पूर दिया । इसी तरह वैरियोंको नष्ट करनेके लिए धृष्टद्युम्न आदि धीर वीर स्थिरताके साथ रण-स्थलमें युद्ध करने लगे। एवं रथ पर सवार होकर भीमसेनने दुर्योधनका सामना किया और वातकी वातमें उसका वखतर छेद डाला । इस महा समरमें ऐसा कोई भी मनुष्य, मत्त हाथी और महान् उत्कट घोड़ा न वचा जो कि पांडवोंके वाणोंसे न वेघा गया हो । अपनी सेनाको इस तरह नष्ट होती हुई देख कर भीष्म पितामह समरके लिए तैयार हुए और उन्होंने युद्ध कुशल शूरोंकी रण-कुशलताको अपनी कुशलतासे भुला दिया। उनको इस तरह युद्धस्थलमें उतरे हुए देख कर युद्ध-कुशल अर्जुनने अपने शरों द्वारा उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया; और वह पार्थ केसरी पितामहके बाणोंको अपने रण-कौशलसे निष्फल करने लगा। इतनेमें द्रोणाचार्यने दुर्योधनसे कहा कि राजन, देखो, घोड़ोंकी टापोंसे उठी हुई धूलसे आकाश कैसा लॅक गया है और रणमें अद्भुत क्रीड़ा करनेवाला यह पराक्रमी कैसी रण-कुशलता दिखा रहा है । राजन, जान पड़ता है यह अर्जुन ही है क्योंकि अर्जुनके सिवा और किसी में इतनी धनुष-कुशलता आई कहाँसे सकती है । यह बिल्कुल ही झूठ है कि विद्वान पांडव लाखके महलमें जल गये । क्योंकि वे जले
नहीं किन्तु जीते जागते ही वहाँसे निकल गये और वे ही ये युद्ध में आ गये . हैं । यह सुन कर दुर्योधनका चित्त बड़ा व्याकुल हुआ और मस्तक घूम गया। वह चकित हो हँसता हॅसता बोला कि वाह गुरुराज, आप भी अच्छी बातें करते हैं । मला, जव पांडव लाखके महलमें ही जल चुके तव फिर वे यहाँ कहाँसे. आ गये। उनके साथ ही अर्जुन, भी वहीं जल चुका था फिर वह कहाँसे आया। गुरुवर, आश्चर्य है कि इतना होते हुए भी आप धनंजयके नामकी रटंतको नहींछोड़ते हैं । मैंने तो संसारमें आपके मोहका महत्व एक निराला ही देखा जो आप मरे हुए अर्जुनको निद्वंद हुए याद करते रहते हैं।
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२५३ ___ कर्णकी यह मर्म भेदी वाणी सुन कर द्रोणाचार्यने हाथमें धनुष-वाण लेकर अर्जुनसे ललकार कर कहा कि वीरवर, युद्ध के लिए तैयार हो । अपने परम गुरु द्रोणाचार्यको सामने देख कर धनंजयने चिचमें विचारा कि यह तो मेरे पूज्य गुरु हैं, गुणोंके समुद्र हैं । इन्हींके प्रसादसे मैंने इस युद्ध में विजय पाई है। फिर मैं इतना विचारशील होकर इनके साथ कैसे युद्ध करूं । मैं नहीं जानता कि वे पापी कहाँ जायेंगे, कौनसी दुर्गतिमें पड़ेंगे जो असंख्य गुणों के भंडार और हितैषी गुरुओंको भूल जाते हैं । यह विचार कर धनंजयने सात पैंड़ आगे जाकर द्रोणके चरणोंमें नमस्कार किया और द्रोणके पास लिख हुए पत्र के साथ एक वाण छोड़ा। बाण जाकर द्रोणके पास गिरा। उसे देख कर द्रोणने उग लिया और उसमें बंधे हुए पत्रको वॉचा। पत्र पढ़ कर हर्पके उत्कर्षसे द्रोणका मन खिल उठा । उस पत्रमें लिखा था कि " परम गुरु द्रोणाचार्यके चरणों में मेरा मस्तक नम्र है । मैं कुन्तीका पुत्र और आपका गुणसागर शिष्य हूँ। गुरो, मेरा नाम अर्जुन है । मैं आपसे एक प्रार्थना करता हूँ। उसे आप सुनिए । वह यह कि मैने विना कारण ही जो इस रणमें इतने योद्धाओंको मारा है इसका मुझे बड़ा दुःख है। गुरो, दुष्ट कौरवोंने हम लोगोंको विना कारण ही जला देनेका उपक्रम आरम्भ किया था । परन्तु पुण्य-योगसे किसी तरह हम उस महलसे निकल आये । वहॉसे नाना देशोंमें घूमते हुए सुखके सदन-रूप इस माकंदीपुरीमें आये । पुण्यसे आज यहाँ हमें आपके चरणोंके दर्शन हुए, इसका हमें बड़ा आनन्द है । अन्तमें आपसे मेरा यही नम्र निवेदन है कि आप थोड़ी देर ठहर जाइए और चुपचाप अपने इस विद्यार्थीकी भुजाओंके वलको देखिए ताकि मैं भी सार्थक हो जाऊँ । दुर्योधन आदिने जो पांडवोंको जला कर मारना चाहा था-इन्हें भी इनकी करतूतका फल चखा दूं।"
उस पत्रको पढ़ कर द्रोणाचार्यकी ऑखोंमें पानी भर आया । उन्होंने जाकर कर्ण और दुर्योधन आदिसे पत्रका सारा हाल कहा । पत्रको सुन कर कर्णने कहा कि सच है कि अर्जुनके विना और किसमें ऐसी सामर्थ्य थी जो इस तरह रणमें वाणोके द्वारा शत्रुओंके सिरोंको छेदता । इसी तरह एक भीम ही सारे रणका संहार करने के लिए सदा समर्थ है; तथा युधिष्ठिर आदि पांडव भी इसके लिए खूब समर्थ हैं । यह सब हाल सुन कर कौरवाग्रणी दुर्योधन क्षणभरके लिए इति-कर्तव्य-विमूढ़ हो चकित सा रह गया । इतनेमें ही द्रोण पांडवों के पास पहुंचे। पांडवोंने उनके दर्शन कर, उनका आलिंगन कर उनके चरण
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पाण्डव-पुराण। wmmmmmmmmmmmmmmmm warrm ammmmmran कमलोंमें नमस्कार किया और अपने पर बीता हुआ सारा हाल कह सुनाया । अन्तमें भाई-भाइयोंमें होनेवाले इस महान युद्धको द्रोणाचार्यने रोक दिया । इसके बाद उन्होंने पांडवोंसे कहा कि तुम लोग मेरी एक वात सुनो । वह यह कि तुम लोगोंको कौरवोंके इस दोष पर ध्यान नहीं देना चाहिए, क्योंकि तुम जानते हो कि हित किसमें है । पुत्रो, तुम लोगोंको अव रोष करना उचित नहीं। कारण रोष करनेसे कुछ हित साधन नहीं होता । तुम लोगोंके पुण्यके माहात्म्यको कौन कह सकता है कि जिसके प्रभावसे जलते हुए महलमेंसे भी तुम जीते जागते निकल आये और जहाँ जहाँ गये वहीं वहीं कन्या आदि सम्पदाके द्वारा पूजे गये । पांडव इस तरह द्रोणाचार्यके साथ वार्तालाप कर ही रहे थे कि इतनेमें भीष्म पितामह कर्ण, आदि कौरव राजा भी वहीं आ पहुँचे ।
और वे सब प्रीतिके साथ आपसमें नम्रता-पूर्वक यथायोग्य रीतिसे मिले-भेटे । तथा गर्व-रहित हुए कौरव नीचा मुंह करके चुपचाप बैठ गये और वे बड़े लज्जित हुए। __ इसके बाद कर्ण, द्रोण, भीष्म ( गांगेय ) आदिने कौरवोंकी और पांडवोंकी परस्परमें क्षमा करवाई --उनके हृदयका मैल दूर करवाया । यह ठीक ही है कि सज्जनोंका समागम शुभ कृत्योंके लिए ही होता है । अन्तमें दुर्योधनने' कहा कि लाखके महलमें मैंने आग नहीं लगाई और इस विषयमें मैं श्रीजिनेन्द्रकी साक्षी देता हूँ। मैं तो यही कहता हूँ कि जिस दुष्टने महलमें आग लगाई हो वह जन्तु-पीड़क पुरुष घोरातिघोर नरकमें पड़े । परन्तु यह बड़ा अच्छा हुआ जो आप लोगोंका समागम फिर हो गया और इससे हम लोगोंका अपवाद दूरगया। नहीं तो लोग हमें ही कलंक लगा रहे थे कि इन्होंने पांडवोंको जला दिया है । यह सच है कि पहले जन्ममें किये हुए कर्मको कोई रोक नहीं सकता चाहे फिर उससे जीवोंकी कीर्ति हो या अपयश । इस तरह बहाना करके कौरवोंने अपना दोष छिपा कर मुख पर मगिपन दिखाया । सच है दुष्टोंकी दुष्टता घट नहीं सकती । इस प्रकार कौरवोंने सब राजोंके दिलोंमें जैसे बना सन्तोष । करा दिया।
- इसके बाद कुंभारके घर जाकर भक्ति-भावसे नन्न राज-गणने कुलकी मर्यादा पालनेवाली कुन्तीको बड़े विनयसे नमस्कार किया । इसी प्रकार दुर्योधन आदि भी कुंतीको मस्तक झुका नमस्कार कर और उसे सन्तोषित कर
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सोलहवाँ अध्याय।
२५५ nun ann an nanann amenom स्थिर-चित्तसे उसके आगे बैठ गये । तव कुन्तीने दुर्योधनसे कहा कि भाई, धृतराष्ट्रके इस महान् वंशमें तुमने न जाने क्यों कालिमा लगाई। दुर्योधन, तुमने यह क्या किया जो अपने वंशको भी जलानेका यत्न कर वंशके नाश ही की चेष्टा की । देखो, जो अपने कुटम्बका नाश कर उत्तम सुख चाहते हैं वे वैसे ही कुमौत मरते हैं जैसे कि आगसे हरे वॉस जल कर खाक हो जाते हैं । यह राज्य भी तो तभी तक सुख देता है जब तक कि दिलमें इसकी चाह रहे। जब दिलसे इसकी चाह निकल जाती है तब यही उसे संताप, दुःख देनेवाला हो जाता है और बड़े बड़े अनर्थका कारण हो जाता है । क्योंकि यह राज्य वास्तवमें तृणके अग्र भागमें लगी हुई ओसकी बूंदके समान ही नष्ट होनेवाला है। फिर न जाने इसको चाहनेवाले क्यों अपने वंशके लोगोंको भी मार कर इसे चाहते हैं। ऐसे स्वार्थियोंके जीवितको धिक्कार है-एक वार नहीं, सौ बार नहीं; किन्तु असंख्य बार अनंत बार धिकार है। यह सुन कर दुर्योधन आदिका मुंह काला पड़ गया और लज्जाके मारे वे नीचा मस्तक करके रह गये ।
इसके बाद जब द्रुपदको यह जान पड़ा कि ये ब्राह्मण वेषधारी पांडव हैं तब उसे बड़ी खुशी हुई और वह अति शीघ्र द्रोपदीका विवाह करनेको तैयार हो गया। उसने पांडवोंको एक सुन्दर महलमें ठहराया। इसके बाद रथमें सवार होकर बाजोंके शब्द और जय कोलाहालके साथ अर्जुन विवाह-मंडपमें आया
और उसने मंडपकी वेदीके ऊपर शुभ मुहूर्त और शुभ लममें उस विद्याधरकी पुत्री सहित द्रोपदीका पाणिग्रहण किया।
इस समय नगाड़ोंके सुन्दर शब्द हुए, दुदमियोंकी गर्जना हुई और नटियों के मनोरम नृत्य हुए । कान्तिशाली द्रुपद राजाने इस समय आगन्तुक राजोंका दिव्य वस्त्राभूषण और उत्तम उत्तम वस्तुओं द्वारा खूव आदर सत्कार किया । इसके बाद भीष्म, कर्ण आदि अर्जुनके विवाहोत्सवको देख कर युवतिजनोंके साथ अपने अपने सुन्दर महलोंमें चले गये और चतुरंग सेना सहित चतुर पांडव तथा कौरव हस्तिनापुर चले आये।
___ वहाँ पांडवोंने बड़े ठाट-बाटके साथ नगरमै प्रवेश किया । इस समय हस्तिनापुरमें घर घर तोरण बाँधे गये थे और द्वार द्वार पर सुन्दर शोमाशाली कलश रक्खे गये थे। तात्पर्य यह कि इस वक्त हस्तिनापुरमें खूब ही शोभा की गई थी।
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पाण्डव पुराण |
सती द्रोपदी पवित्र थी, बड़ी विदुषी थी, शील-सम्पतिले युक्त थी, रूपसौन्दर्यकी सीमा थी । वह उत्तम गुणोंके आकर एक अर्जुनको ही भजती थी; अन्य पांडवोंको नहीं । क्योंकि यदि वह और और पांडवों पर भी आसक्त - चित्त होती तो सती कैसे कही जाती तथा उस वंश भूषणका नाम सारी सतियोंमें पहले क्यों लिया जाता ।
इस सम्बन्ध में कोई मत पुरुष कहते हैं कि द्रोपदी दिव्य रूप- सम्पतिको पाकर कामासक्त हो गई थी, अत एव उसने पाँचों पांडवोंको अपना हृदय दिया । परन्तु यहाँ यह प्रश्न उठता है कि जिन पाँचोंको वह भजती थी वे तो बड़े सुशील और निर्मल-बुद्धि थे । फिर वे कैसे एक पत्नी पर आसक्त चित्त हुए । वे तो स्वयं श्रीमान थे; उनके लिए कोई कमी नहीं थी । जब दीन, दरिद्र लोगों के भी जुदी जुदी स्त्रियाँ होती हैं तब ऐसे समझदार पाँचोंके बीच एक ही स्त्री हो यह आश्चर्य है । हम पूछते हैं कि यदि मान भी लिया जाय कि द्रोपदी पाँचों पर आसक्त थी तो क्या फिर कोई उसे सती कहने के लिए तैयार हो सकता है । नहीं, हरगिज नहीं । बुद्धिमानोंको इस पर विचार करके उसे शुद्ध और गंभीर - बुद्धि साध्वी ही कहना चाहिए । जो अपने मतके अन्ध श्रद्धालु ऐसी सतीको दोष देते हैं भगवान जाने वे पापी कौनसी दुर्गतिमें पड़ेंगे।
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जो जीव ज्ञान और सुखको देनेवाले, मोक्षके मार्ग, उत्तम पुरुषों द्वारा प्रशंसा और सेवा किये गये, अमृतका स्थान और सारे संसार में सार वस्तु शील - धर्मका आदर करता है वह कभी शोकका पात्र नहीं होता और उसे कभी क्रोध आदि कषायें भी नहीं सता सकतीं । उसे सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रका लाभ होता है, जिससे कि उसका सारा मोह, अज्ञान और विषय-राग नष्ट हो जाता है ।
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सत्रहवाँ अध्याये।
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सत्रहवाँ अध्याय।
मैं उन श्री श्रेयांस भगवान्का आश्रय लेता हूँ जो कल्याण-मय है, जिन्होंने
'घातिकाको आत्मासे जुदा कर दिया है अत एव जिन्हें जिन कहते हैं, जो चाय और अभ्यन्तर लक्ष्मीसे युक्त है, आश्रितोंको श्रेयके दाता हैं और उन्नत है। वे प्रभु मुझे भी कल्याण-मार्ग पर लगावें ।
इसके बाद पांडव और कौरव सारे राज्यको आधा आधा बॉट कर एक दुसरेके साय स्नेह रखते हुए राज्य भोगने लगे । इसी तरह पांडव भी अपने हिस्सेके पॉच भाग कर और पाँच मुख्य स्थान नियत कर जुदा जुदा रहने लगे। उनसे शत्रु-विजयी, स्थिर-चित्त युधिष्ठिर इन्द्रमस्य ( देहली ) में रहते थे । गंभीराशय भीमसेन वहीं देहलीके पास ही तिलपथ पुरमें रहते थे । नीति-निपुण और विचारशील अर्जुन शत्रुओंको व्यर्थ कर नीतिसे पृथ्वीको पालते हुए सुनपतमें रहते थे। नकुळ अपने कुलको सफल करते हुए जलपथमें निवास करते थे
और मीतिभाजन सहदेव वणिकपथ पुरंम रहते थे । तात्पर्य यह कि वे महाभाग इस तरह जुदा जुदा रह कर अपने अपने हकके अनुसार आनंद-चैनसे उत्तम लक्ष्मीको भोगत थे । जव सब समुचित प्रबन्ध हो चुका तब युधिष्ठिर और भीमने जो देश देशमें राज-पुत्रियाँ व्याही थी, उन सबको वे वहीं ले आये । साथ ही वे कौशाम्बी पुरीसे विंध्यसेन राजाकी पुत्री वसन्तसेनाको भी लिया ले आये और युधिष्ठिरने उसके साथ व्याह कर लिया । भीमसेन आदि युधिष्ठिरकी आनाके अनुसार पृथ्वीको पालते हुए सदा उत्तम सुख भोगते थे और उनकी सेवाके लिए तैयार रहते थे । इन्हें धन-धान्य और सोने-चॉदी आदि जंगम विभूतिसे कुछ अधिक प्रयोजन न था; किन्तु ये सदा ही अपनी सेनाकी वढती दत्त-चित्त रहते थे । तात्पर्य यह कि इनका अपनी सेनाको बढ़ानेमें खूब यत्ल था। इनके हृदय विल्कुल साफ थे और यही कारण है कि इनके चेहरे सदा ही कमल से खिले रहते थे ये अपने मनकी स्वच्छतासे सब कामोंमें सफल होते थे । इन लोगोंको राज्यका विलकुल गर्व न था। ये सरल भावसे सदा ही गंगाके जलके जैसे स्वच्छ भीष्म पितामहकी भक्ति भावसे सेवा-उपासना करते थे । और इसी लिए पितामह भी इन पर पूरा स्नेह रखते थे। : ।
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पण्डिव-पुराणें। पांडवोंके साथ पितामहकी ऐसी मीति देख कर एक समय कौरवोंने उनसे कहा कि कलुषित-चित्त पितामह, तुमने यह क्या करना शुरू किया है। भला सोचिए तो जब आप पांडवों और कौरवोंकी राज-सम्पत्तिको वरावरीसे भोगते हो तव फिर इस ; प्रकार पांडवकी ओर ही आपका झुकाव क्यों है ? इसका कारण क्या है । दुर्योधन
आदिके ऐसे क्रोध भरे शब्दोंको सुन कर पितामहने कहा कि कौरवाधीश, सुनिए, इसका भी कारण है । और वह यह कि ये सत्पुरुष हैं, शूरवीर हैं, अच्छे गुणोंके पात्र हैं, नीति-न्यायके पण्डित हैं और सच्चे धर्म-रूप अमृतके पीनेवाले हैं। इसके सिवा इनमें बड़ा भारी गुण यह है कि ये बीती हुई और आनेवाली बातोंकी व्यर्थ चिन्ता नहीं करते । ये वर्तमानमें उपस्थित विषय पर ही पूरा पूरा विचार करते हैं । वस, इसीसे ये मुझे अतीव प्यारे हैं।
एक समय कृष्णने प्रेमके वश हो अर्जुनको क्रीड़ाके लिए गिरनार पर्वत पर वुलाया। विशाल गिरनार पर्वत मनुष्यकी तुलना करता था । मनुष्यके वंश होता है उसमें वंश-बाँस-थे। मनुष्यके पाँव होते हैं उसके किनारेकी भूमि ही पाँव थे । मनुष्य तिलक लगाते हैं उसमें भी तिलक वृक्ष थे। वह बड़ा भारी उन्नत था और उसमें नाना जातिके जीव-जन्तु रहते थे। कुछ समय उधरसे तो कृष्ण गिरनार पहुँचे और इधरसे क्रीड़ामें दत्तचित्त अर्जुन भी वहाँ पहुँच गया । उन दोनोंने प्रेमके साथ एक दूसरेका आलिंगन किया और वे महामना आनंद-चैनसे गिरनार पर क्रीड़ा करने लगे । क्रीड़ा करते हुए वे दोनों स्नेही ऐसे जान पड़ते थे मानों इन्द्र और प्रतीन्द्र ही क्रीड़ा करते हैं। उनकी क्रीड़ा विलक्षण ही थी। वे कभी वनमें दौड़ते फिरते थे; कभी पानीमें डूवते निकलते थे; कभी एक दूसरे पर वे केसर मिले हुए चंदनकी पिचकारी भर कर छोड़ते थे; कभी दौड़ते दौड़ते गिरनार पर चढ़ जाते और पीछे पाँव लौट आते थे कभी देवांगनाओंके जैसी नृत्यकारणियोंके नृत्यों और गीतों द्वारा मनोविनोद करते थे और कभी गैंद खेलते थे । तात्पर्य यह है कि इस तरहसे उन दोनोंने स्नेहके साथ गिरनार पर खूब क्रीड़ा-विनोद किया और दिलको बहलाया।
इसके बाद कृष्णके साथ साथ अर्जुन भी द्वारिकामें आया । वह उसमें प्रवेश करता हुआ अतुल विभूतिके धारक इन्द्रके जैसा शोभता था। अर्जुन मनोविनोद पूर्वक काल बिताता हुआ कृष्णके साथ द्वारिकामें बहुत दिनों तक रहा। उसके साथ अन्य राजा भी सुख-पूर्वक अपने समयको बिताते हुए वहीं रहे । इन राजोंके साथ पूरी पूरी राजविभूति थी । हाथी घोड़ों आदिकी पूरी पूरी सेना थी।
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सत्रहवाँ अध्याय ।
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एक समय महत्वशाली अर्जुनने स्वच्छपना और भद्र विचारोंवाली सुभद्राको जाते हुए देख कर सोचा कि रूप-सौन्दर्य से इन्द्राणीको भी जीतनेवाली यह सुन्दरी कौन है । यह अपने रण-क्षण शब्द करते हुए नूपुरोंके शब्दसे देवांगनाओंको जीतती है और कटाक्ष-निक्षेपसे उस कामको भी जीवित कर देती हैं जिसे पहले ध्यान-रूपी अग्निके द्वारा योगीजन जला चुके हैं । नहीं जान पड़ता यह रूप-सौन्दर्यकी सीमा कौन है । रति है या लक्ष्मी पद्मावती है या रोहिणी; या सूरज की प्रिया है । जो हो यदि यह मृगनयनी और सुख-चन्द्रसे अँधेरेको दूर करनेवाली अनिंद्य सुन्दरी मुझे मिले मेरी मिया बने तब ही मैं अपना सौभाग्य समझँगा और तब ही मुझे सुख होगा। इसके बिना मेरा जन्म ही व्यर्थ है। अतः किसी-न-किसी उपायसे मै इसे अपनी प्राण-वल्लभा बनाऊँगा । मन ही मन यह सोच कर उस मनस्वीने कृष्णसे पूछा कि महाराज, साक्षात् लक्ष्मी जैसी और उत्तम लक्षणोंवाली यह किस महाभागकी पुत्री है । उत्तरमें कृष्णने कुछ मुसक्या कर कहा कि धनंजय, क्या तुम इसे सचमुच ही नहीं जानते । यह अतीव रूप-सौन्दर्यशालिनी मेरी सुभद्रा नाम वहिन हैं । यह सुन पार्थने हँस कर उत्तर दिया कि तब तो यह गजगामिनी मेरे मामाकी पुत्री है और मेरे सम्बन्धके योग्य है । इस पर कृष्णने कहा कि अच्छी बात है धनंजय, तुम्हारी इस रायसे मैं खुश हूँ और इसके साथ तुम्हारा संबंध स्थिर करता हूँ । तुम इसे स्वीकार करो। यह सुन अर्जुन कृष्णके मुख कमलकी ओर देखने लगा । तब कृष्णने अर्जुनका अभिप्राय जान कर उसके लिए वायुके वेग जैसे शीघ्रगामी घोड़ोंवाला एक सुन्दर रथ मँगवा दिया, जिसे पाकर अर्जुन प्रसन्न हुआ । इसके बाद वह सुभद्राको परस्पर प्रेमालाप द्वारा अपने पर मोहित कर, रथमें बैठा, वायुके वेगसे भी जल्दी चलनेवाले घोड़ोंके द्वारा, वायुके वेगकी नाँई अति शीघ्र ही वहाँसे चल दिया । उधर जव यादवोंने सुभद्राके हरे जानेकी बात सुनी तब वे बड़े क्रुद्ध हुए और कवच वगैरह पहिन पहिन कर, धनुष-बाण ले उसी वक्त दौड़ पड़े । कोई कवच पहिन कर हाथमें मुहर लेकर दोड़े; कोई भाला और चमकती हुई तलवार लेकर भागे, कोई रथोंमें सवार होकर और कोई पैदल ही शक्ति हाथमें लेकर चले कोई आकाश-तल तरंगोंकी नॉई उछलने कूदनेवाले घोड़ों पर सवार होकर चले और कोई यह कहते हुए चले कि घोड़े आदि सवारियोंकी जरूरत ही क्या हैं, आखिर काम तो तलवारोंसे ही पड़ेगा । अतः वे कवच वगैरह बिना पहिने ही हाथमें तलवार लिये हुए भागे । कुछ वीरगण अर्जुनकी इस घोखे
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पाण्डव-पुराण। वाजी पर बड़े क्रोधित होकर कहने लगे कि यादवोंकी कन्याको हर लेजा कर यह दुर्जन अर्जुन छिप करके जायगा ही कहाँ ? हम लोगोंके मारे पानीमें डूबने पर भी तो नहीं बचेगा।
. इस प्रकार समुद्रके जैसा गंभीर और चतुरंग सेना-रूप तरंगोंसे तरंगित समुद्रविजय अपने वन्धु-वर्गको साथ लेकर चला और घोड़ेके हीसनेके शब्दसे उन्नत सेना-सहित बलदेव भी चला । इनके साथ ही पराक्रमी नारायण धनुष-बाण लेकर, पाँचजन्य शंखका मंद मंद शब्द करता हुआ कुछ सेनाको साथ ले सिंहकी नॉई बढ़ा। इसी प्रकार भूरि विभूतिवाले, लोकोत्तम, तेजस्वी और निर्भीक राजा भी इनके साथ रवाना हुए । इसके बाद,नारायण , इधर उधर कुछ घूम कर सेना-सहित द्वारिका वापिस आ गया और बलदेव आदिको बुला कर उसने कहा कि दादा, वात यह है कि अब ज्यादा झगड़ा बढ़ानेसे कुछ लाभ नहीं । अतः अच्छा यही है कि सुलक्षणा होने पर भी हरे जानेके दोषसे दूषित हुई बहिन सुभद्रा पार्थको ही दे दीजिए । और अर्जुन अपना भनेज ही है तव उसके लिए यह सर्वथा योग्य है । अत एव सोच कर उसे अर्जुनके लिए अपने हाथसे ही देना योग्य है । क्योंकि अर्जुनके साथ झगड़ा करना अब व्यर्थ ही है । कृष्णके ऐसे माया भरे शब्दोंको सुन कर उन लोगोंने अर्जुनके लिए सुभद्रा देना स्वीकार कर लिया । इसके बाद कृष्णने अपने चतुर मंत्रियोंको बुलाया और उन्हें सुभद्राको ले आनेके लिए सुनपत भेज दिया। उन्होंने वहाँ जाकर अतीव विनयके साथ अर्जुनको प्रणाम किया और अर्जुनको वचन देकर सुभद्राकं साथ वे द्वारिका वापिस आगये ।
इसके बाद वहाँ व्याहकी सब तैयारी की गई और एक सुन्दर विवाहमंडप निर्माण किया गया । उसमें परम उत्साहके साथ शुभ मुहूर्त, शुभ लग्नमें परम भौतिके साथ अर्जुनने सुभद्राका पाणिग्रहण किया । अर्जुन उसके लिए बड़ा उत्सुक हो रहा था। विवाह के समय अनेक प्रकारके वाजोंके शब्दसे दिशायें शब्द-मय हो रही थीं। नट-नाटियोंके मनोहारी नृत्य हो रहे थे । दीन-हीन गरीब अनाथोंको खूब दान-मान, धन-दौलतसे तृप्त किया जा रहा था। इस विवाहोत्सवमें यादवोंके बुलाये हुए सव पांडव भी आकर सम्मिलित हुए थे । इस प्रकार अपनी प्यारी सुभद्राको पाकर अर्जुन सुखके साथ समय विताने लगा। इधर भीमसेनने लक्ष्मीमती और शेषवनीका पाणिग्रहण और किया । तथा नकुलने विजयाका और सहदेवने जो सवप्त छोटा था, सुरतिका पाणिग्रहण किया।
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इस प्रकार विवाहोत्सव के समाप्त हो जाने पर सब राजा जव अपनी अपनी राजधानी में चले गये तब एक दिन पार्थके साथ कृष्ण उपवनमें क्रीड़ा करनेको गया । और वहाँ उन दोनोंने सफल- मनोरथ होनेके कारण अतीव प्रसन्न ताके साथ जल-कल्लोलोंसे खूब क्रीड़ा की। वे जल-क्रीड़ायें निमग्न हो रहे थे कि इतने में उधर से जाते हुए और अपने मीठे वचनोंसे सबको सन्तुष्ट करनेवाले एक ब्राह्मणने अर्जुन से कहा कि पार्थ, मुझे भोजन और उत्तम उत्तम वस्तुएँ देकर सन्तुष्ट करो |
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राजन, मैं दावानल हॅू और आप कौरवोंके वीर पुत्र हैं। मैं चाहता हूँ कि आप अपने समर्थ सेवकोंको साथ लेकर मेरे इस वनको जला कर नष्ट कर दीजिए | उसके इन वचनों को सुन कर उत्तरमें तेजस्वी पार्थने कहा कि आज न तो मेरे पास रथ है और न कोई धनुर्धर ही है । और मेरे सब कार्योंके साधक दिव्य शर भी मेरे पास नहीं हैं । यह सुन कर उस द्विजने अर्जुनको एक ऐसा रथ दिया जो वानरके लक्षणसे युक्त था और शत्रु जिसको जीत नहीं सकते थे । इसके बाद फिर उस द्विज- वेष धारी देवने मुसकरा कर अर्जुनको वन्दि, वारि, भुजंग, तार्क्ष्य, मेघ और वायु आदि बाण दिये । नारायणको उसने गदा और गरुड़की धुजा से चिन्हित एक रथ दिया और नाना कार्य करनेवाले बहुत से रत्न नारायणकी भेंट किये। इस समय इन वाणको पाकर पार्थने उस वनको जलाने के लिए एक बाण छोड़ा, जिससे भयभीत हुए वनेचर जन्तुओंको जलाता हुआ दावानल धीरे धीरे सारे वनको घेर कर सव ओरसे वनको जलाने लगा । पक्षी, सॉप, हाथी, सिंह और मृगों आदिको जलाती हुई वह आगकी ज्वाला आकाशमें वहुत ऊँचे तक जाने लगी । उसने थोड़ी ही देरमें सारे वृक्ष और तृण-समूहको जला कर खाकमें मिला दिया । सच है जब भूखा यम क्रोध करता तत्र देव-दानव और मनुष्य आदि किसीको भी वह नहीं छोड़ता । इसके बाद अर्जुनको एक बाण देते हुए उस द्विजने कहा कि इस बाणके प्रभाव से जिस वस्तुको आप चाहें जला सकते हैं और निश्चय रक्खें कि जिसको आप जला देंगे उसको फिर न तो सुरेन्द्र बचा सकता है और न यम ही ।
इस प्रकार सारे वनके समस्त जीव-जन्तुओंको जलते हुए देख कर एक तक्षक नाम नागको बड़ा भारी क्रोध आया और उसने सब देवतको निमंत्रित किया। उससे क्रोधमें भाकर सब देवता यह कहते हुए दौड़े आये कि महानुभाव पार्थ,
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पाण्डव-पुराण। । ~wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwr ठहरिए- अब तुम हमारे क्रोधसे बच कर जाओगे कहाँ ? हम तुम्हें कहीं छोड़नेके नहीं । यह कह कर उन देवोंने सारे गगन-मंडलको मेघोंसे भर दिया। काजलके जैसे काले वे मेघ महान् ध्वनि करते हुए गर्जने लगे। उनको गर्जते हुए देख कर अर्जुनने विजलियोंको दिखाते हुए कृष्ण कहा कि देखिए मैं इस मेघमालाको एक ही बाणसे अभी उड़ाये देता हूँ। मैं सुरोंकी' इस मेघविद्याको एक ही बाणके द्वारा अभी छेदे डालता हूँ । इसके बाद वह दावानलसे बोला कि हे दावानल, तुम यथेष्ट रीतिसे विहार करो। तुम्हें कोई नहीं रोक सकता । तुम्हारे साथ द्वेष करनेवाले या तुम्हारी भक्षक इस मेघमालाको तो मैं अभी नष्ट किये देता हूँ । इतना कह कर अर्जुनने गांडीव धनुष हाथमें उठाया और उसे चढ़ा कर उसने उसकी टंकार की, जिसको सुन कर सारा जगत बहिरा हो गया और धनुषकी यमके हुंकार जैसी ध्वनिको सुन कर अर्जुनको डरानेके लिए देवगण बोले कि अर्जुन, कपटसे वनको जला कर तुम हम जैसे विक्रमशाली देवोंसे बंच कर कहाँ रहोगे? गरुड़के आगे वलवान सॉपकी भी क्या चल सकती है? ।
इसके बाद देवोंने क्षुब्ध होकर धारासार जलकी वरसा की और थोड़ी ही देर में सारी पृथ्वीको जलमय कर दिया । उन्हें अर्जुनकी वनको जला डालनेकी इच्छाको नष्ट करना था। यह देख अर्जुनने शर-समूहके द्वारा एक उत्तम मंडप रचा और पानीकी एक बूंद भी दावानल पर नहीं पड़ने दी, जिससे दावानल न बुझ कर बढ़ता ही गया। अन्तमें देवतोंने और अधिक वरसा की पर उससे भी वह दावानल शान्त नहीं हुआ।
इसी समय क्रोधमें आकर कृष्णने वायु बाण छोड़ा, जिससे उन मेघोंको बड़ा त्रास हुआ और साथ ही अर्जुनने बाण चलाये, जिससे वातकी वातमें सव मेघ नष्ट हो गये; जैसे कि गरुड़के मारे पूर्ण बलशाली फणेश्वर भी भाग जाते हैं । तब अर्जुनसे इस प्रकार तिरस्कृत होकर देवगण महान् ऐश्वर्यशाली इन्द्रके पास गये । और इन्द्रसे उन्होंने आपना सारा हाल कह कर कहा कि देव, आपके क्रीड़ा करनेके योग्य, सुंदर वृक्षावलीसे सुशोभित खांडव वनको अर्जुनने जला कर खाक कर दिया है। हम लोगोंने उसके बचानका बहुत कुछ उपाय किया; परंतु उस मानीने हमें वहॉसे मार भगाया और हमारा बड़ा तिरस्कार किया, जिससे भयातुर होकर हम सब आपकी शरणमें आये हैं। यह सुन कर इन्द्रको बड़ा क्रोध आया। वह उद्विग्न हुआ। इसके बाद वह ऐरावत हाथीको
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सजा कर रणके लिए तैयार हुआ उसकी रणभेरीको सुन कर आये हुए देवगणको उसने चलनेके लिए आदेश दिया और वह स्वयं भी हाथमें वज्र लेकर चला । परन्तु इस समय अकस्मात् यह आकाशवाणी हुई कि "सुरेश, स्वर्गको छोड़ कर देवतोंके साथ कहाँ जाते हो। तुम अर्जुनके लिए कुछ भी विघ्न उपस्थित नहीं कर सकते । क्योंकि वह उसी पवित्र वंशका है, जिस वंशमें प्रसिद्ध और तीन लोकके स्वामी नेमिप्रभु, कृष्ण नारायण और पांडव जैसे महान पुरुष पैदा हुए हैं। इस लिए तुम अपना हठ छोड़ कर आनन्दसे अपने स्थान पर ही रहो ।" यह सुन कर सुरेन्द्र अपने स्थान पर ही रह गया । उधर अर्जुन भी सब विनोंको दूर करके प्रेमके साथ हस्तिनापुर चला आया । एवं उत्कंठित कृष्ण भी प्रमोदके साथ अपनी नगरीमें आ गये । अपनी राजधानीमें पहुंच कर अर्जुन सुभद्राके साथ रमता हुआ दिव्य भोगोंको भोगने लगा। इसके कुछ काल बाद उसके सुभद्राके गर्भसे पुत्र रत्नका जन्म हुआ। वह सब उत्तम लक्षणोंसे युक्त था । उसका नाम अभिमन्यु था।
एक समय दुष्टबुद्धि दुर्योधनने कपटसे पांडवोंको बुलाया और स्नेह-वचनों द्वारा धीर-बुद्धि युधिष्ठिरसे कहा कि कौन्तेय, आइए, हम आप दिल बहलाने के लिए अक्षक्रीड़ा करें-जूआ खेलें । यह कह कर कौरवाग्रणी दुर्योधनने युधिष्ठिरके साथ जूआ खेलना शुरू किया । कपटसे कौरव जो पामे फेंकते थे वे उनके अनुकूल ही पड़ते थे। देख कर ऐसा जान पडता था मानों अच्छी तरहसे सिखाये गये दोनों पासे कौरवोंके आज्ञा-धारी सेवक ही है । और वे जो कभी भीमके हुंकारके मारे इधर उधर जाकर पडते थे उससे ऐसा जान पडता था मानों भीमके नादके डरके मारे वे स्थिर ही नहीं होने पाते; किन्तु इधर उधर जाकर उल्टे पड जाते हैं । यह देख कौरवोंने किसी बहानेसे भीमको महलसे बाहर भेज दिया और उन छलियोंने अब पूरे कपटसे द्यूत-क्रीड़ा आरम्भ की, और थोड़े ही समयमें छली दुर्योधनने छलसे धर्मात्मा युधिष्ठिरको जीत लिया । युधिष्ठिर अपना सर्वस्व हार गये। उन्होंने बाजूबंद, कुंडल, विशाल हार, सोनेके कंकण, धन-धान्य, रत्न-मुकुट आदि और समस्त देश, घोडे, हाथी, रथ, योद्धा वगैरह सब धन-सम्पचि जूआमें हार दी।
यहाँ तक कि सुखको देनेवाली तमाम वस्तुएँ हार कर भी युधिष्ठिरने धूतक्रीड़ा बंद न की । अन्तमें वे अपनी रानियों और प्यारे भाइयोंको भी दाव पर
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'पाण्डव-पुराण
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रखनेको तैयार हो गये । इतनेमें ही हुंकार करता हुआ भीम वहाँ आ पहुंचा
और सारी सम्पत्तिको हारी हुई तथा बाकीको दाव पर रक्खी हुई देख कर उसने भयभीत हो युधिष्ठिरसे कहा कि पूज्य भाईसाहब, यह क्या है ? तुमने सारी हानि करनेवाला यह जूआ काहेको शुरू किया । क्या आपको नहीं मालूम है कि इस जूआसे सारा यश नष्ट हो जाता है और सारे संसारमें वदनामी होती है। इससे पद पद पर हानि भोगनी पड़ती है । महाराज, यह द्यूत सभी अनाँका मूल है और इस लोकका विगाड़नेवाला तो है ही, परन्तु एक क्षण भरमें जीवोंके परलोकको भी विगाड़ देता है।
___यह सब व्यसनोंमें प्रधान है, दुर्द्धर दुःखोका दाता है। विद्वान् मुनिजनोंने इसी लिए इसे भी मदिराकी नॉई विल्कुल ही हेय बताया है । उन्होंने तो यहाँ तक कहा है कि इसके समान संसारमें न तो कोई पाप है, न हुआ और न होगा। भीमके ऐसे उत्तम वचनोंको सुन कर युधिष्ठिर क्षुब्ध हो उठे और जूआ खेलना उन्होंने बंद भी कर दिया, परन्तु इसके पहले ही वे बारह वर्षके लिए सारी पृथ्वीको पण पर रख कर हार चुके थे। ..
इसके बाद व्यथित मन हो युधिष्ठिर भीम आदिके साथ घरको चले आये। उनके घर पहुंचते ही दुर्योधनने एक दूतको उनके पास भेजा । दूतने आकर युधिष्ठिरको प्रणाम किया और कहा कि हे महीनाथ, मेरे मुखसे दुर्योधन महाराज कहते हैं कि वारह बर्षके लिए आप यहाँसे चले जायें; क्योंकि यहाँ रहनेमें आपका हित नहीं है । आप अपना भला चाहते हैं तो आपको बारह साल तक वनमें रहना चाहिए और सो भी इस तरह कि जिसमें इतने दिनों तक कोई आप लोगोंका नाम भी न सुन सके । कहनेका मतलब यह है कि आपको इसीमें सुख है कि आप वनवास स्वीकार करें। आप लोग आज ही रात यहॉसे चले जायें, नहीं तो आप लोगोंको संताप भोगना पड़ेगा। दूत इतना निवेदन करके चला गया।
_इधर दुष्ट दुःशासन द्रोपदीके महलमें आकर, द्रौपदीकी चोटी पकड़ उसे महलसे वाहर खींच लाया । उस समय ऐसा जान पड़ता था मानों- उसने कमल-चनमें रहनेवाली महान लक्ष्मीको ही कमल-वनसे निकाल लिया है। यह हाल देख भीष्म पितामहने कौरवोंसे कहा कि यह आप लोग अच्छा नहीं करते । इससे सारे संसारमें तुम्हारी अपकीर्ति होगी । काम वह करो, जिससे
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20. ANANAWWANA-N
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२६५ संसार भरमें तुम्हारा यश विस्तृत हो । देखो, यह तुम्हारे भाईकी स्त्री है, पवित्र है, जिसको कि तुमने घरसे निकाल कर बाहिर कर दिया है । विश्वास रक्खो कि जो कोई अपनी भौजाईका तिरस्कार करता है उसे दुर्गतिके दुःसह अनन्त दुःख झेलने पड़ते हैं। ___अपनी इस दुर्दशासे दुःखी हो ऑसू वहाती और रोती हुई द्रोपदीने पांडवोंके पास आकर कहा कि देखिए जितना आप लोगोंका तिरस्कार हुआ है उससे भी अधिक-चोटी पकड़ कर खींची जानेके कारण-मेरा हुभा है । हाय, जिसके आगे मेरा सिर कभी खुला नहीं रहा उसीने मेरा सिर खोल कर चोटी खाँची । बतलाइए अव मेरा बचा ही क्या! यमके जैसे दुष्ट दुःशासनके आगे मैं कर ही क्या सकती थी। उसने मेरी सब इज्जत ले ली । द्रोपदीने भीमको सम्बोधित करके कहा कि हा भीम, यह मैं जान चुकी कि मेरे इस अपमानका बदला तुम्हारे विना कोई नहीं ले सकता । किसीमें ऐसी सामर्थ्य नहीं जो इस पराभवको दूर करे । द्रोपदीके ऐसे तिरस्कार भरे वाक्यों को सुन कर क्रोधमें आकर भीमने युधिष्ठिरसे कहा कि स्वामिन्, मैं आज शत्रुओंके कुलको जड़ मूलसे उखाड़े फेंके देता हूँ । द्रोपदीके इस तिरस्कारको न सह सकनेके कारण, पार्थ भी उठा। यह देख कर युधिष्ठिरने कहा कि यह हम लोगोंके लिए उचित नहीं है । जिस तरह वायुके वेगसे क्षोभित होने पर भी समुद्र अपनी मर्यादा नहीं छेड़ता उसी तरह ही महान् पुरुष भी किसी भी अवस्थामें अपनी मर्यादाको नहीं लॉघतें। युधिष्ठिरने इस तरह समझा कर वचन-रूपी अंकुशसे भीम-रूपी मदोन्मत्त हाथीको अनर्थ करनेसे रोका और अर्जुनकी क्रोध-वन्हिको भी उसने वचनरूपी शीतल जलसे शान्त कर दिया । वह उन्हें समझाने लगे कि भाइयो, अभी कुछ समय धीरज रक्खो। बाद जब मैं समर्थ हो जाऊँगा तव शत्रु-कुलका अवश्य ही नाश करूँगा इसमें तनिक सा भी सन्देह नही । परन्तु यह निश्चित है कि चाहे जो हो, अपने वचन नहीं हारूँगा । मेरे अद्भुत पराक्रमी वीर भाइयो, अव यहाँ रहनेकी मति छोड़ कर शीघ्र चल दो और वन जाकर डेरा डालो । अवसे हमें वन ही अपनी राजधानी बनानी होगी।
___ युधिष्ठिरके इन वचनोंको सुन कर भीम, अर्जुन आदि चारों भाई मान छोड़ कर वन चलनेके लिए उठ खड़े हुए और अपने वियोगसे अतीव दुःखित अतएव रोती हुई जननी कुन्तीको विदुरके घर ही छोड़ गये । उन्होंने अपमानसे
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पाण्डव-पुराण दुखी हुई द्रोपदीको भी वहीं छोड़ना चाहा, पर वह रूप-सौन्दर्यकी सीमा वहाँ नहीं ठहरी । वह उनके साथ ही वनको चली । धर्मात्मा पांडव मन-ही-मन भावनाओं पर विचार करते हुए द्रोपदीकी गतिके अनुसार मंद मंद चले जाते थे। . वे वन, उपवन, शिला और पहाड़की चोटी पर सिंहकी नॉई निर्भय हो कर वास करते थे । वे मार्गमें जो फले हुए वृक्ष मिलते थे उनके फलोंको खाते, रास्तेमें पड़नेवाली नदियोंका पानी पीते और वल्कलोंके वस्त्र पहिनते थे।
इसके बाद वे मार्गके कष्टोंको सहते हुए पहाड़ों आदि विषम स्थलोंको लाँघ कर भॉति भॉतिके वृक्षोंसे सुशोभित कालिंजर नामके वनमें पहुंचे । वहाँ उन्होंने एक ऐसा वरगदका पेड़ देखा, जो पत्तों और डालियोंसे खूब छायादार था। उसे देख कर भूख-प्याससे थके हुए पांडव उसके नीचे घनी छायावाली भूमिमें आराम करनेके लिए ठहर गये।
जूआ नरफका रास्ता है, दुःख-रूपी साँपका बिल है, धर्मका विध्वंसक है, सब दोषोंका स्थान है, पराभवको देता है, आपत्तिका समुद्र है और हित-अहितके विवेकको भुला देनेवाला है । इस लिए सुखके चाहनेवालोंको उससे सदा दूर ही रहना चाहिए।
और भी देखो कि यह द्यूतकर्म दुर्गतिको देनेवाला है, झूठ तथा पापका खजाना है । माँस मदिराकी रुचिको बढ़ाता है, अत एव शिकारमें प्रत्ति कराता है, वेश्या और परस्त्रीकी चाहको बढ़ाता है और चोरीकी शिक्षा देता है । इसकी संगतिसे जीवोंकी लोलुपता बढ़ जाती है । मतलब यह कि यह सभी व्यसनोंमें प्रकृति कराता है। और इसी कारणसे आचार्योंने इसे सारे व्यसनोंमें प्रधान बताया है, अतः उत्तम पुरुषको इसका नाम भी नहीं लेना चाहिए।
देखो, यह सब इसी जूआका ही प्रभाव है कि जिसके निमित्तसे उपमारहित प्रवीण पांडव भी अपने देशसे भ्रष्ट होकर व्याघ्र, साँप वगैरहके निवासस्थान वनमें रहे और सो भी आहार आदिके बिना दारुण दुःखोंको सहते हुए। भतः महान महान पुरुषोंको भी दारुण दुःखोंमें डालनेवाले इस दुष्ट कर्मको चेष्टाकी धिक्कार है और यह सब अनौँका मूल छोड़ने योग्य है।
महातिसे जीवोंकी लाचाहको बढ़ाता जाता है, अत एवमला है, झूठ तथ
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MAnAmAAMAnnar
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tove रन वासुपूज्य तीथेश्वरको प्रणाम है जो बसुपूज्यके पुत्र हैं, इन्द्र, नरेन्द्र
आदि जिनकी पूजा-स्तुति करते हैं और जिनके प्रसादसे जीव स्वयं भी पूज्य बन जाते हैं । वे प्रभु मुझे संसार-समुद्रसे पार करें।
इसके बाद जहाँ पांडव ठहरे हुए थे, वहाँ एक मुनियोंका संघ आ गया। वह सब गुण-सम्पन्न था, निर्मल-बुद्धिका धारक था, ईर्यापथ शुद्धिका पालक था, परिग्रह-रहित और शीलसे विभूषित था । उसको देख कर पांडव बहुत हर्षित हुए; और वे धर्मात्मा उसी वक्त मुनियोंकी वन्दनाके लिए गये तथा उन्हें विनीत भावसे प्रणाम कर उनके आगे बैठ गये।
इसके बाद विचार-चतुर युधिष्ठिरने मन-ही-मन विचार किया कि मेरे पापका बड़ा उदय है और उसीका प्रेरा हुआ मैं वनमें घस रहा हूँ । इस समय मैं अपने कर्तव्यको कैसे 'निवाह सवता हूँ जब कि 'मैं स्वयं 'यहाँ फलों पर निर्भर रह कर ज्यों त्यों अपने कुदिनोंको विता रहा हूँ । मेरे पास कुछ धन भी नहीं है । तव ऐसी हालत मैं इन महात्मा मुनिजनोंको दान कैसे हूँ और जन्म सफल करूँ । मुर्दे जैसे मुझ गरीवका यह जीवन धिक्कारका पात्र है । मुनिदानके विना दिये जीते रहनेसे तो कहीं मरना ही अच्छा है।
युधिष्ठिर इसी चिन्तामें उलझ रहे थे। उन्हें इस प्रकार चिंतित देख कर संघनायक महामुनिने उनसे कहा कि युधिष्ठिर, जब कि तुम संसारकी हालतको जानते समझते हो तव तुम्हें इस सम्बन्धमें तनिकसा भी विषाद और खेद नहीं करना चाहिए । विनयके आगार और वात्सल्यके भंडार भव्य, तुम देखो कि हमारा तुम्हारा जो समागम हो गया है यह भी एक भारी धर्मका वैभव है, इसे तुम कुछ थोड़ा न समझो । और एक बात यह है कि यहाँसे आगे तुम्हें और भी बड़े बड़े कष्ट होंगे; परन्तु तुम उससे विचलित न होकर उन्हें शान्तिसे सह लेना । - इसके बाद वह मुनियोंका संघ तो सिंह, शार्दूल आदिके निवास स्थान और महान उन्नत सगिरि नाम पहाड़ पर चला गया और न्यायके ज्ञाता तथा गंभीराशय मांडव धर्म द्वारा अपना समय बिताते हुए बहुत दिनों तक वहीं रहे ।
एक समय रूप-सौन्दर्यशाली अर्जुन, हायमें गांडीव धनुष ले इन्द्र-क्रीडाके लिए निकला । उस समय उस निर्भयने किसी भयंकर रास्तेमें जाते हुए
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ર૬૮
' पाण्डव-पुराण । एक मनोहर नामके मनोहर पहाड़को देखा । देखनेकी इच्छासे वह उस पर चढ़ गया । वहाँसे उसने बड़े बड़े विशाल पत्थरों और वृक्षोंसे विषम पृथ्वी तलको देखा। इसके बाद वह जोरसे चिल्ला कर बोला कि इस पहाड़ पर कोई देव, विद्या- । धर या मनुष्य है ? यदि हो तो वह मेरे सामने आवे और मुझे कोई ऐसा उपाय बतावे जिससे मेरा अभीष्ट सिद्ध हो; और अन्य जनोंके सव मनोरथोंको साधनेवाले पदार्थोकी सिद्धि हो । इसके उत्तरमें आकाशमें फैलती हुई आकाशवाणी हुई कि पार्थ, मेरी वात एकाग्र चित्तसे सुनो।
इसी भरत क्षेत्रमें वैताब्य नाम एक पहाड़ है । उसकी दो श्रेणियाँ हैं.। एक उत्तरश्रेणी और दूसरी दक्षिणश्रेणी । आप वहाँ जाइए । वहाँ अतिशीघ्र ही आपको जयलक्ष्मी अपनावेगी और आपके सौ ऐसे शिष्य होंगे जो आपके सभी मनोरथोंको साधेगे । परन्तु वहाँ आपको पाँच साल तक रहना चाहिए । निश्चय रखिए कि इसके बाद नियमसे आपका आपके वान्धवोंके साथ समागम होगा । इस आकाशवाणीको सुन कर अर्जुनको बड़ी खुशी हुई। वह वैग ही था कि इतनेमें वहाँ एक भील आ गया । उसका शरीर भौंरे जैसा काला और लम्बा था । उसका मुंह और ओंठ सूखे हुए थे । वह वातुल था, दुन्तुर था, काले केशोंवाला था । वह एक हाथमें प्रचंड अखंड धनुष और दूसरे हाथमें वाण लिये था । और उसे चढ़ानेके कारण उसके नेत्र रक्त जैसे लाल हो रहे थे।
सारांश यह है कि वह बड़ा. भयंकर मूर्ति था । उसको देख कर अर्जुनने कहा कि वनेचर, यह धनुष मेरे योग्य है, इस लिए इसे तुम मुझे दे दो। तुम व्यर्थका भार क्यों लिये फिरते हो । ऐसा उत्तम धनुष महान पुरुषोंके ही हाथमें शोभा देता है । तुम व्यर्थ ही अपने आपको कष्टमें काहेके लिए डाल रहे हो अर्जुनकी इन बातोंसे तो उसे बड़ा क्रोध आया और वह उसके विरुद्ध खड़ा हो गया। उसने आकाशमें मेघकी नॉई गर्जनेवाले धनुषका टंकार किया और उस पर बाण चढ़ाया । इस समय उसके धनुषकी आवाज सुन कर सारे वनेचरोंके दिल दहल गये।
इसके वाद धनंजय और वह भील दोनों ही युद्धके लिए आमने सामने खड़े हुए । उन शूरवीरों में परस्परमें खूब ही तीव्र प्रहारों द्वारा युद्ध छिड़ा । कर्ण पर्यन्त डोरीको खींच खींच कर छोड़े गये तीक्ष्ण वाणोंके द्वारा उनमें खूब युद्ध
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हुआ। दोनों ओरसे इतने बाण छोड़े गये कि उनके द्वारा उन दोनोंके बीचमें एक मंडपसा बन गया । वह ऐसा शोभने लगा मानों भमहृदय पुरुषोंके लिए आश्रय ही खड़ा किया गया है । इस समय क्रोधके आवेशमें आकर उस भील पर अर्जुनने जो जो बाण छोड़े उस भीलने उन सवको ही व्यर्थ कर दिया। उसे दुर्जेय देख कर अर्जुनने धनुष-वाण तो छोड़ दिया और वह बाहु-युद्ध करनेके लिए उस पर झपटा।
___ तव रण-कुशल और तेजस्वी वे दोनों वाहुदण्डोंके द्वारा परस्परमें भिड़ते हुए ऐसे जान पड़े मानों दो मल्ल स्नेहमें आकर एक दूसरेका आलिंगन ही करते हैं । परन्तु इस बाहुयुद्धमें भी जब पार्थ उस पर विजय न पा सका तव वह उसे सर्वथा अजय्य समझ कर कुछ हतोत्साह सा हुआ। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी । इसके बाद उसने बड़े साइसके साथ चटसे उस किरातके दोनों पॉव पकड़ कर उसे मस्तककी ओरसे चारों ओर खूब घुमा डाला। तव वचारे भील पर बड़ी विपत्ति आई और कुछ समयमें ही उसके प्राण शिथिल हो गये।
इसके बाद अर्जुन उसे पृथ्वी पर पछाड़ना ही चाहता था कि वह बिकट महाभट प्रकट होकर भूषणोंसे विभूषित एक दिव्य रूपमें देख पड़ा। उसने पृथ्वी तक मस्तक झुका कर विनयके साथ अर्जुनको नमस्कार किया और कहा कि नराधीश, मैं तुम्हारे ऊपर अतीव प्रसन्न हूँ। अतः तुम चाहो जो दिव्य वर मांगो । मैं इस समय तुम्हें सब कुछ देनेको तैयार हूँ। उसकी बातें सुन कर परमार्थके ज्ञाता अर्जुनने उत्तर दिया कि अच्छा मैं यही चाहता हूँ कि तुम मेरे सारथी बनो । इसके उत्तरमें अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार उस विद्याधरने कहा कि तुम जो कहते हो मुझे वह स्वीकार है । उसके ऐसे प्रतिज्ञा-बद्ध शब्दोंको सुन कर पार्थको बड़ा संतोष हुआ और उसने प्रेमभरे शब्दोंमें उससे पूछा कि भाई, तुम कौन हो ? कहाँसे आये हो ?
और तुमने यह युद्ध किस मतलवसे किया था ? उत्तरमें विद्याधरने कहा कि प्रभो, सुनिए । मै युद्धका कारण तुम्हें बताता हूँ।
इसी भरत-क्षेत्रमें एक विजयाई नाम मनोहर पहाड़ है । वह इतना ऊँचा है कि उसके शिखर आकाशको छुते हैं। जान पड़ता है कि वह पृथ्वी और आकाशके बीचको नाँपने के लिए है। इतना ऊँचा उठा हुआ है ।।
उसकी दक्षिण श्रेणी में एक स्थनूपुर नाम उत्तम नगर है, जो कि अपने • विशाल कोदसे स्वर्गके विमानोंकी भी तर्जना करता है। वहाँका राजा विद्युत्मभ
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था । वह नमिके वंशका था । वह कान्तिशाली और विद्याओंके विधान से विशुद्ध आत्माका धारक था । वह विद्याधर था । उसके पुत्रका नाम इन्द्र है । वहू स्फूर्तिवान और बड़ा शक्तिशाली है । इसके सिवा उसका एक पुत्र और भी हैं। - उसका नाम विद्युन्माली है । वह शत्रु-सन्ततिका बड़ा भयानक शत्रु है । एक दिन क्षणमें नष्ट होनेवाले बादलोंको देख कर विद्युत्प्रभ संसार - देह-भोगों से विरुक्त हो गया, अत एव इन्द्रको राज-पाट और विद्युन्मालीको युवराज पद देकर वह स्वयं निःशल्य हो, दीक्षित हो गया ।
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इसके बाद युवराज विद्युन्मालीने प्रजा पर बड़ा अन्याय करना आरम्भ किया । वह कभी नगरके लोगों की स्त्रियोंको पकड़ लेता, कभी उनका धन हरण कर लेता और कभी उन्हें और और संकट देता। सांराश यह कि वह सब तरह प्रजाको दुःख देता था । अखिर परिणाम यह हुआ कि उसके मारे सारे नगरमें उपद्रव ही उपद्रव मच गया। यह देख उसे एक दिन इन्द्रने एकान्तमें बुला कर कुछ उचित सीख दी। परन्तु उसका विद्युन्माली पर विपरीत ही प्रभाव पड़ा, जिससे वह इन्द्रसे भी विमुख हो गया; और मदसे मत्त हो उससे वैर रखने लगा । इसके बाद वह क्रोध आ नगरी छोड़ कर ही चला गया और बाहिर रह कर लोगोंको लूटने-खसोटने लगा । वहाँसे कुछ दिनों में वह खरदूषणके वंशके लोगोंके साथ स्वर्ण - पुरमें जाकर वहीं रहने लगा ।
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इस प्रकार जब इन्द्रको शत्रुकी ओरसे अत्यधिक संताप पहुँचा तब उसे राहुके द्वारा ग्रसे गये चंद्रमाकी भाँति क्षणभरके लिए भी सुख पाना कठिन हो गया । वह हमेशा ही चिन्तासे व्यग्र रहने लगा और यही कारण है कि भयके मारे वह अब नगरीके फाटक बन्द करवाये रहता है और गुप्त रीति से अपने दिन बिताता है ।
महाराज, मैं उसी इन्द्रके सेवकका एक पुत्र हूँ, 'जिसका नाम विशालाक्ष हैं और मेरा नाम चन्द्रशेखर है । अतः पिताके स्वामीको इस तरह चिन्तासे संतप्त और शोकाकुल देख कर मुझसे नहीं रहा गया । और इसी कारण मैंने एक निमित्तज्ञानीको प्रणाम कर विनयके साथ पूछा कि विभो, इन्द्रके शत्रुदलका नाश कैसे और कब होगा । उत्तर में उन निमित्तज्ञानीने कहा कि जो मनोहर गिरि पर तुझे जीतेगा वही पार्थ धनुर्धर इन्द्रके शत्रुओं का भी संहार करेगा । बस, प्रभो, उस नैमित्तिकके वचनों पर विश्वास करके ही मैं गुप्त वेशमें इस
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अठारहवाँ अध्याय । गिरि पर रहता है। स्वामिन, पुण्ययोगसे आज मुझे आप जैसे महामति पुरुषोंके दर्शन भी मिल गये हैं, जिसके लिए कि मैं बहुत दिनोंसे लालायित था । अव • अन्तमें आपसे मेरा यही नम्र निवेदन है कि आप मेरे साथ चलिए और अपना कर्तव्य कीजिए । इसके बाद वे दोनों फहराती हुई धुजाओंवाले एक व्योमयानमें बैठ कर वहाँसे चल दिये । जिस विमान पर वे सवार थे वह घड़ी तेजीसे चलता था और रण-घन्टाके शब्दसे शब्दमय किया जा रहा था।
वे थोड़ी ही देरमें विजयार्द्ध महागिरि पर पहुँच गये । उनके आनेका हाल सुन कर इन्द्र सन्मुख आकर उनसे बड़े स्नेहके साथ मिला । उधर इन्द्रके शत्रुओंको ज्यों ही पार्थके आनेकी खबर लगी त्यों ही वे विमानों पर सवार होहो कर आये और उन्होंने सब दिशाओंको घेर लिया । यह देख कर अर्जुन खेवटियाफी भाँति इन्द्रके साथ विमानमें बैठ शत्रुओंके सामने गया और उसने रण-घोषणा कर दी।
जिसको सुन कर प्रचंड धनुपधारी रण-कुशल शत्रु पार्थ धनुर्धरके साथ युद्धके लिए तैयार हुए और उन्होंने उसके साथ युद्ध छेड़ दिया । वह युद्ध इतना भीषण था कि जिससे पार्थको भी यह पता चल गया कि शन्नु सामान्य शस्त्रसे नहीं जीते जा सकेंगे; किन्तु दिव्य शस्त्रसे पराजित होंगे । अतः उसने दिव्यास्त्रके द्वारा कितने ही शत्रुओंको नागपाशसे वॉध लिया, वहुतोको जला कर भस्म कर दिया और बहुतोंको अर्द्धचन्द्र वाण द्वारा छिन्न-भिन्न कर दिया। अन्तमें वह इन्द्रको शत्रु-रहित करके नगाड़ोंकी आवाजके साथ-साथ रथनूपुर चला गया। इस समय रथनपुरकी स्त्रियोंने घर घरमें मंगल गीत गाये और धनंजयकी जयके समाचार दिगंगनाओंके कानों तक पहुँचाये । गाथकोंने पांडवोंके वंशकी तारीफ की और उसका यश वर्णन किया तथा मद-रहित हुए सव विद्याधरोंने भक्तिभावसे पार्थकी पूजा-प्रशंसा की। ___ इसके वाद अर्जुन बहुतसे विद्याधरोंको साथ लेकर विजयार्द्धकी दोनों श्रेणियोंको देखनेके लिए गया और थोडे ही समयमें उन्हें देख कर वह वापिस रथनपुरमें आ गया।
इसके बाद उसने विधाघरोंके आग्रहसे गंधर्व आदि मित्रों के साथ वहाँ पाँच साल विताये और बाद वह वहाँसे मित्रों सहित चला आया। उस यशस्वीके साथ ही धनुषविद्या सीखनेवाले चित्रांगद आदि उसके सौ शिष्य भी चले
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पाण्डव-पुराण । amo norm ammmmmmmmmmmmmwwwimw wwwwwwe n n n armimmorns आये । वह वहाँ आया जहाँ उसके भाई युधिष्ठिर आदि ठहरे हुए थे। उन्हें देख कर वह विमानसे उतरा और उसने उन्हें भक्तिभावसे यथायोग्य नमस्कार किया।
जबसे अर्जुन चला गया तवसे उसके वियोगसे पांडव बड़े दुःखी हो रहे थे । अत: उसके समागमसे उन्हें भी बड़ा हर्ष हुआ । कौन ऐसा पुरुष है जिसे अपने बन्धुके समागमसे सुख न हो।
इसके बाद पुण्यात्मा पार्थ जाकर प्रणयवती द्रोपदीसे मिला । उससे मिल कर उस प्रतापीको वहुत शान्ति मिली।
इस समय धनुष-विद्या-कुशल चित्रांगद आदि सत्पुरुष विद्याधर भक्तिसे सदा धनंजयकी सेवामें उपस्थित रहते थे तथा महामान्य और विज्ञानी युधिष्ठिरकी आज्ञाको भी शिरोधार्य करते थे।
उधर एक दिन दुर्योधनको खबर लगी कि न्याय मार्ग-गामी पांडव सहाय वनमें आ गये हैं। यह सुन उसे बड़ा क्रोध आया और वह बहुत सी सेनाको साथ लेकर उनको मार डालनेके लिए निकला।
इसी समय इस बातकी खवर देनेके लिए ऋषितुल्य संयमी नारद चित्रांगदके पास आये । वे उससे बोले कि चित्रांगद, तुम वैरियोंसे भरे हुए
और भयावने इस जंगलमें किस लिए रहते हो । उन्होंने गंधर्व आदिको भी सम्बोधित करके कहा कि कुछ समझमें नहीं आता कि तुम लोग इन वनवासी पांडवोंकी सेवामें ऐसे क्यों लीन हो रहे हो । यह सुन कर चित्रांगदने कहा कि प्रभो, महापुरुष धनंजय हमारा गुरु है । इस महाभागने वैरियोंको वारण करके इन्द्रको राज-गादी पर बैठाया है, अतः यह हमारा स्वामी है और हम सब सदाके लिए इसके सेवक हैं । यह सुन नारदने कहा कि देखो, अभी यहाँ दुर्जय दुर्योधन आ रहा है । इस लिए हम तुम्हारा सञ्चा शिष्यपना तभी समझेंगे जव कि तुम लोग एक क्षणमें ही उसे साथियों सहित मार भगाओगे और यमका घर दिखा दोगे । नहीं तो तुम्हारा यह गाल-फुलाना किसी भी कामका नहीं कि हम अर्जुनके बड़े सेवक हैं।
___ क्या तुम लोग मुझे जानते हो, यदि नहीं जानते तो सुनो, मै आजन्म ब्रह्मचारी-स्त्रीके नामसे भी विमुख-और धर्मकर्ममें लीन रहनेवाला नारद हूँ। देखो, भीष्म पितामह महान बुदिशाली और बड़े पराक्रमी हैं।
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२७३ परंतु ये कलहकारी कौरव उनकी भी सीख नहीं मानते और न ये अपने परम गुरु द्रोणाचार्य और चाचा विदुरकी बात सुनते हैं । ये उन्मार्ग-गामी जो जीमें आता है वही वैर-विरोधका काम कर बैठते हैं । ये न्याय-शून्य अपनी मन-मानी कर यहॉ युद्धके लिए आ रहे हैं। इस लिए भक्तिवत्सल और रणको आतिथ्य देनेवाले आप लोग भी युद्ध के लिए तैयार हो जाइए। . __ नारदके इन उत्तेजक वचनोंको सुन कर चित्रांगद क्रोधसे लाल हो उठा और वैरी-रूपी-जंगलके लिए दावानलके जैसे उस वीर योद्धाने उसी समय . गर्वके साथ रणके लिए तैयारी कर दी।
इसी समय उधरसे दुर्योधनकी चतुरंग सेना भी सज कर युद्धके लिए आ गई । इसमें दुर्योधनके सब भाई थे और वे जी-जानसे युद्धका प्रयत्न करते थे।
दुर्योधनकी सेनाको देख कर चित्रांगद क्रोधसे संतप्त हो उठा और उसके मनमें नाना प्रकारकी तरंगें उठने लगी । वह स्वच्छ यशशाली गंधर्वके साथ ही शत्रु पर टूट पड़ा। यह देख दुर्योधनके सेना-समुद्रमें बड़ा क्षोभ मच गया । देखते देखते ही उस विचित्र योद्धाने-जैसे अगस्त ऋषिने समुद्रको सुखा दिया था वैसे ही उस-सारे सेना-समुद्रको सुखा दिया । ___ अपने पक्षकी सेनाको इस तरह नाश होती हुई देख कर वलशाली दुष्टचित्त शल्य, विशल्य और दुःशासन आदि योद्धा युद्ध के लिए उठे । उन्होंने खूब जोरसे वाण चलाना शुरू किया । परन्तु उधर चित्रांगद उनके छोड़े हुए बाणोंको अपने शर-कौशलसे छिन्न-भिन्न करता जाता था। इस तरह रणकी लालसा रखनेवाले दोनों ओरके वीरोंमें परस्पर खूब वाणोंकी मारा-मार हुई, जिसमें हजारोंको तो माणोंसे हाथ धो बैठना पड़ा। इस युद्धमें योद्धागण महान तीक्ष्ण वाणों, गदाओं, भीलों और तीक्ष्ण तलवारों के द्वारा एक दूसरेसे घोर युद्ध कर रहे थे।
इस रणमें भूशलोंकी मारसे कितने ही युद्ध-कुशल प्राणोंको खोकार धराशायी ' हो गये थे। सच तो यह है कि ऐसा कोई भी अनिष्ट नहीं जो कि उस युद्धमें न हुआ हो।
कितने ही युद्ध-बी के हृदय होसे चिर गये थे । अतः वे पृथ्वी पर पड़े हुए ऐसे जान पड़ते थे मानों मूर्छाके कारण पृथ्वी पर सोये हुए ही हैं । इस समय जब गंधर्वने देखा कि कौरवोंके तीक्ष्ण बाणोंके द्वारा मेरी सेना वेधी
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जा रही है तब उसने मोहन वाण छोड़ कर सब कौरवोंको मूच्छित कर दिया उनमें केवल अपयशका पात्र एक दुर्योधन ही होशमें रहा ।
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इस प्रकार अपनी सारी सेनाको मूच्छित देख कर दुर्योधन बढ़ा घबढ़ाया। वह तव अपनी मर्यादा भूल कर विह्वलसा हुआ रण-स्थलमें इधर उधर घूमने फिरने लगा | यह देख चित्रांगदने उसे ललकारा । फिर क्या था, उन दोनोंका तीक्ष्ण वाणोंके द्वारा परस्परमें भीषण युद्ध होने लगा, जिसे देख कर देवोंने उन दोनोंकी भूरि भूरि प्रशंसा की ।
इस तरह चित्रांगदको युद्धमें धीरतासे डटा देख कर अर्जुनने उसकी खूब तारीफ की। उसने अपने और और शिष्योंको भी युद्धके लिए आदेश किया । इससे लक्ष्य वाँध में प्रवीण गंधर्वको अच्छा मौका मिला । उसने उसी वक्त अपने शीघ्रगामी वाणोंके द्वारा वातकी वातमें ही दुर्योधनकी धुजाको छेद दिया और बड़ी बहादुरी के साथ चाण- प्रहार जारी रक्खा । अन्तमें उसने थोड़े ही समय में उसके रथ के घोड़ों को वैध कर अपने अपूर्व पराक्रमसे रथको भी वे काम कर दिया | इसके बाद वह धनुर्धर गंधर्व दुर्योधनसे बोला कि दुष्ट, तू अब भाग कर कहॉ जायगा ? हे खल, तूने अपनी खलतासे सारे संसारको खल बना डाला है । पर अब तुझे देखता हूँ कि तू कैसा बहादुर है । अब मेरे मारे तू कहीं भी नहीं बचेगा । पाप-पण्डित, तूने अपनी दुर्जनता से बहुतेक प्राणियों का व्यर्थ ही वध किया है । देख, यह तुझे तेरे उसी पापका फल मिला है और उसी कारण से तू हथियार - रहित बिल्कुल ही दीन वन गया है । इसके बाद उसने दुर्योधनको पशुकी नाई नागपाशसे बाँध लिया । यह देख डरके मारे उसके और और वीर-गण दिशारूपी स्त्रियोंकी शरण में भाग गये । फिर उनका कुछ पता न चला ।
इधर दुर्योधनको वाँध लेनेसे चंद्रमा के जैसा निर्मल गंधर्वका यश भी संसारमें फैल गया । लोग मुक्तकंठसे उसके गुण गाने लगे कि तू धन्य है जिसने कि दुर्योधन जैसे वीर शिरोमणिको भी बॉध लिया । सच है न्यायसे किसकी जीत नहीं होती । अर्थात् नीति से सभीकी विजय होती है । उधर दुर्योधनके पकड़े जाने पर सब योद्धा, सवार, महावत और हाथियों पर चढ़े हुए कौरव शोकसागर में डूब गये । यह सब ही पापका फल है जो उसके योद्धा - ओंका इतना भारी अपमान हुआ ।
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उधर दुर्योधनकी स्त्री भानुमतीने ज्यों ही उसके पकड़े जानेकी खबर सुनी त्यों ही वह रोती हुई वहाँ आई । वह शोक-संताप में बिल्कुल ही डूब रही थी और ऑसुओंकी अविरल धारासे पृथ्वीतलको सींच रही थी । वह चित्रांगद आदिके पास आकर रोती हुई उनसे बोली कि हे वीरगण, आप लोग एक दूसरेके मुॅहकी ओर ताकते हुए क्या बैठे हैं। बताइए कि आप लोगोंने जो मेरे स्वामीको बाँध लिया है इससे आपको क्या सुख और लाभ होगा । अत एव अच्छा हो यदि कौरवोंके अधीश्वर मेरे पतिदेवको आप छोड़ दें; अन्यथा आप लोगोंकी बड़ी अपकीर्ति होगी । और ऐसी हालतमें आप लोग कैसे शान्ति लाभ करेंगे और कौन आप लोगों को अच्छा कहेगा ।
भानुमतो इस तरह विलाप करती हुई देख कर भीष्म पितामह ने उसे आश्वासन दिया और कहा कि कृपापात्रे, तू क्यों इतनी घबरा रही है, और क्यों हर एकके पास जा जा कर रोती है । देख, यदि तुझे अपने पतिको छुड़ाना ही है तो तू मेरा कहना मान और युधिष्ठिरकी शरण में जा । वे तेरे दुरात्मा पतिको बंधन से तुरंत छुटकारा दे देंगे । यद्यपि युधिष्ठिर के साथ तेरे पति दुर्योधनने बड़ा भारी अन्याय किया है; परन्तु फिर भी वह धर्म- बुद्धि है, अतः अपराधी कौरव राजोंको वह अवश्य क्षमा कर देगा । वह धीर सव राजको आपत्ति से छुटकारा दिलाने के लिए समर्थ है । वह अपने दयालु स्वभावको कभी नहीं छोड़ता, अतः मुझे आशा तथा विश्वास है कि वह अवश्य ही दुर्योधनको छोड़ देगा।
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पितामहकी बात मान कर भानुमती वहीं गई जहाँ अपने बन्धुवर्गके साथ युधिष्ठिर बैठे हुए थे । वहाँ पहुँच कर वह बोली कि दयाधीश, शान्त-चित्तं और विवेकी राजन्, आप हम लोगोंके सब अपराधोंको भूल जाइए और सब सुखोंकी देनेवाली मुझे पतिकी भीख दया करके दीजिए ।
उधर गंधर्व विद्याधर दुर्योधनको बॉध कर और रथमें बैठा कर इन्द्रपुरीके जैसी अपनी नगरीको ले गया। इस समाचारको सुन भीम बोला कि दुर्योधन पकड़ा गया यह अच्छा ही हुआ । इसमें शोक करनेकी बात ही क्या है । जिसका वध मुझे या तुम्हें करना था वह दूसरे के द्वारा हो गया। यह तो खुशीकी बात हुई। इस तरह हँसते हुए भीमकी युधिष्ठिरने रोका और कहा कि भाई, उत्तम पुरुषोंका ऐसा स्वभाव होता है जो किसी हालतमें भी विकृत नहीं होता; किन्तु सदा
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nomwwwn ummmmm एक सा रहता है । देखो, जिस तरह राहुके द्वारा ग्रसे जाने पर भी चंद्रमा अपनी उज्ज्वलताको नहीं छोड़ता उसी तरह महान पुरुष भी दुर्जनोंके द्वारा कष्ट दिये जाने पर भी विकार भावको नहीं प्राप्त होते । इसके बाद धर्मपुत्र युधिष्ठिरने पार्थसे कहा कि भाई, इसी समय दुर्योधनको छोड़ देनेका यत्न करो, जिससे संसारमें पांडवोंकी ऐसी अपकीर्ति न उड़ने पावे कि उन्होंने अपने कुटुम्बीके साथ ही ऐसा खोटा व्यवहार किया । तुम शीघ्र जाओ
और वह मर न जाय इसके पहले ही छुड़ा कर उसे यहाँ ले आओ । उसके मर जानेसे पांडवोंकी भारी अपकीर्ति होगी । युधिष्ठिरके उचन शिरोधार्य कर अर्जुन उसी वक्त रथ पर सवार हो कर दौड़ा गया और गंधर्वके पास पहुँच कर उससे उसने कहा कि दुर्योधनको यहीं और अभी छोड़ दो, इसे न ले जाओ। यह सुन कर गंधर्वने अपने वीर्यको प्रगट करते हुए अर्जुनसे कहा कि हम इसे नहीं छोड़ेंगे । यदि तुममें ताकत हो तो अपनी अपूर्व धनुष-विद्याके बल पर छुड़ा लो। ___यह देख अर्जुनका एक शिष्य उससे विमुख हो, रथमें सवार हो कर उसीकी ओर दौड़ा। तब क्रोधमें आकर पार्थने शिष्यके साथ खूब युद्ध किया
और देखते देखते बाणोंकी पंक्तिसे सारे आकाश-मंडलको ढक दिया । यह देख शत्रु विद्याधरने यह कह कर कि आपके धनुर्वेदको देखता हूँ, हॅसते हॅसते अपने बाणोंसे धनंजयको ही प्रच्छन्न कर दिया । ..
- इसके बाद चित्रांगद भी रथमें सवार होकर युद्धके लिए उठा और अपने रथको लेकर अर्जुनकी और आया। उसे देख यह जान पड़ता था मानों वह अर्जुनके साथ महती क्रीड़ा करनेको ही आ रहा है। । __' इस समय चित्रांगदने अर्जुनके ऊपर जो जो बाण चलाये उन्हें ,अर्जुनने मेघोंको नष्ट करनेवाले वायुकी भाँति बिल्कुल नष्ट कर दिया । तब.वे क्रोधसे लाल होकर दोनों ही धनुर्धर दिव्य हथियारोंके द्वारा भीषण युद्ध करने लगे, जिसको देख कर डरपोकोंको अपने प्राणोंकी ही आ पड़ती थी। यह देख चित्रांगदने दावानल वाण छोड़ा जिसको कि पार्थने जलद बाणसे वारण कर दिया। बाद चित्रांदगने वायुवाणके द्वारा जब पार्थके जलदको छेद दिया तब धनंजयने वाड़व-बाणसे उसके सर्वहारी वायुवाणको नष्ट कर दिया । तब चित्रांगदने नागपाश बाणको छोड़ा, जिसे कि धजयने गरुड़ वाणसे वारण कर दिया । तात्पर्य यह है कि
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२७ इस प्रकार अपने शर-कौशलसे धनंजयने चित्रांगदके छोड़े हुए सभी बाणोंको जब निवार दिया तब जयलक्ष्मी स्वयं ही उसके हाथमें आ गई और लोग उसे साधुवाद देने लगे । यह देख पार्थके शिष्योंने उसकी भक्तिसे खूब पूजा-स्तुति की । इसके बाद पार्थने दुर्योधनको विश्वास दिला कर प्रसन्न किया और वाणोंकी सीढ़ी रच कर दुर्योधनको पहाड़के शिखरसे उतारा । इसके बाद उसे युधिष्ठिरके पास लाकर उसने बंधन रहित कर दिया। सच है कि बंधनसे सभीको खेद होता है । इस उदारताके बदले दुर्योधनने युधिष्ठिरकी बहुत बहुत स्तुति की और उन्हें प्रणाम किया। युधिष्ठिरने भी उससे कुशल पूछा, जिसके उत्तरमें दुर्योधनने कहा कि नाथ, मुझे बंधनका उतना दुःख नहीं हुआ जितना कि छूटने पर हुआ है । यह छुटकारा मुझे बहुत ही खटकता है। क्योंकि इससे मुझे नीचा देखना पड़ा है और पडेगा भी। महाराज मानभगके दुःखके बराबर प्राणियोंके सुखका घातक दूसरा नहीं है। यही एक संसारमें भारी दुःख है, जिसके मारे जीव जीते जी ही मरेके जैसे हो जाते है।
इसके बाद युधिष्ठिरने उसे उसके नगरको भेज दिया । यद्यपि वह सकुशल अपनी राजधनीमें पहुंच गया पर उसके हृदयमें मानभंगकी शल्य भालेकी नोंक जैची चुभ रही थी। अतः उसने मन-ही-मन सोचा कि हाय, मेरा यह मनुष्य जन्म क्षणमें ही व्यर्थ हो गया। कहाँ तो मैं कौरवोंका स्वामी और कहाँ मेरे उन्नत विचार । परन्तु यह सब बातें उसने मुझे रणमें छोड़ कर पद-दलित कर दी। मेरा सव कुछ महत्व धूलमें मिला दिया गया। मुझे जितना रणमें पकड़े जानेका दुःख नहीं उतना अर्जुनके द्वारा छुड़ाये जानेका दुःख है। नहीं मालूम प्राणोंको हरनेवाले मेरे इस दारुण दुःखको कौन निवारण करेगा । मुझे विश्वास है कि जो कोई महापुरुप इन तेजस्वी पांडवोंको यमालय भेजेगा वही महाभाग मेरी इस पराभव-रूपी शल्यको भी मिटा सकेगा । उसने पुकार कर कहा कि क्या संसारमें कोई ऐसा पुरुष है जो मेरे इस दुःखको दूर करे । मैं उसे अपना आधा राज्य दूंगा।
यह सुन बुद्धिशाली कनकध्वज राजाने कहा कि महाराज, मै विश्वास । दिला कर कहता हूँ कि मैं मैं आजसे सातवें दिन अवश्य ही पांडवोंका काम
तमाम कर दूंगा। यदि न करूं तो प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अपने आपको अमि देवकी भेंट कर दूंगा।
इसके बाद वह दुर्बुद्धि वहाँसे निकला और वनमें ऋषियोंका जहाँ एक
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आश्रम था वहाँ पहुँचा । वहाँ वह उद्धत कृत्या विद्याको साधने लगा और होम-मंत्र-आदि विधि करने लगा।
जब इस बातकी खबर नारदजीको हुई तब वे उसी समय पांडवोंके पास आये और उनके हितकी वाञ्छासे मधुर शब्दोंमें बोले कि आजसे सातवें दिन कृत्या विद्याके प्रभावसे दुरात्मा कनकध्वज तुम लोगोंको मारना चाहता है और इसी लिए वह कृत्या विद्याको वनमें साध रहा है।
नारदके वचनोंको सुन कर पवित्र-घुद्धि धर्मात्मा युधिष्ठिरने अपनी सारी इच्छाओंको एकदम रोक दिया और वह मेरुवत् निश्चल होकर धर्म-ध्यान करने लगे । उन्होंने परिग्रहसे ममता छोड़ कर नाकके अग्रभाग पर दृष्टि जमाई । वह संसारसे एकदम विमुख-उदासीन हो गये और अपने मन पर उन्होंने पूरा पूरा अधिकार जमा लिया । वह आत्म-स्वरूपकी चिन्तनामें ऐसे उलझे कि सव तरफसे मनको मोड़ कर आत्मामें ही लीन हो गये।
उन्होंने अपने भाइयोसे कहा कि भ्राटगण, धर्म ही एक ऐसी वस्तु है जिसके प्रभावसे प्राणियोंके सब मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं । अत: आप लोग भी अपने मनोरथोंकी सिद्धि के लिए एक धर्मका ही अद्वितीय शरण ग्रहण करें । देखिए जिस धर्मको परलोकके लिए सुर-असुर आदि सब सेवन करते हैं, करते थे
और सदा काल करते रहेंगे वह धर्म विश्वास रक्खो कि अवश्य ही तुम्हारे विनोंको दूर, करेगा और तुम्हें सव सुख देगा | मेरा तो यही विश्वास है कि धर्मके सिवा जीवोंको और कोई भी ऐसा नहीं जो सुखी करे या सुख दे । इस धर्मके प्रभावसे आपत्ति भी पुरुषों के लिए सम्पत्ति-रूप हो जाती है और सुख देती है। कौन नहीं जानता कि ग्रीष्मके सुरजकी किरणें भी वृक्षोंमें फल-फूल रूप ऋद्धि पैदा करती है।
इस प्रकार युधिष्ठिर धर्मकी प्रशंसा कर रहे थे कि इसी समय अपने आसनके कंपित होनेसे एक अवधि-ज्ञानी देवको पांडवोंके इस उपद्रवकी खवर लगी। वह उसी समय वहाँ आया और बोला कि मैं नष्ट होते हुए पांडवोंके कुलकी रक्षा करूँगा; उनें तिलमात्र भी दुश्व न होने दूंगा। इसके बाद वह प्रगट होकर पांडवोंसे बोला कि तुम लोग ऐसे वेफिक्र होकर मेरे स्थानमें क्यों ठहरे हो। क्या तुम लोग मेरे महात्म्यको नहीं जानते; और न पहले क्या कभी तुमने उसे सुना ही है । देखो, मेरा महात्म्य ऐसा है कि मेरे कोपके मारे कोई मनुष्य पृथ्वी
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पर एक क्षण भी नहीं टिक सकता । इसके बाद उस विशुद्धात्माने द्रोपदी सतीको हर लिया । उसके द्वारा द्रोपदी को हरी गई देख कर पांडवोंको बड़ा भारी क्रोध ● आया और वे उसे मारने को उसके पीछे भागे । उनके साथ ही नकुल और सहदेव क्रोधित हो उसके पीछे वेग से यह कहते हुए दौड़े कि दुष्ट तू द्रोपदी सतीको हर कर कहाँ जायगा । अब तू अपने आपको मरा हुआ ही समझ । काहेको इधर उधर भागता फिरता है । निश्चय समझ कि हम तुझे अब जीता न छोड़ेंगे। इसके बाद पांचाली सहित वह जहाँ जहाँ भागता गया नकुल और सहदेव भी वहीं वहीं उसके पीछे पीछे भागे गये । भागते भागते वे दोनों भाई एक निर्जल वनमें आ गये । उन्हें प्यासकी बड़ी पीड़ा हो रही थी। वे जलकी खोजमें उस वनमें इधर उधर घूमने लगे | इतने हीमें एक ओर उस देवका निर्माण किया हुआ तालाब उन्हें दिखाई पड़ा जो जलकी कल्लोलोंसे व्याप्त था, कमलोंसे भरपूर था । उसको देख कर वे पवित्र आत्मा दोनों भाई पानी पीनेके लिए उस पर गये और उसका पानी पीनेके साथ ही वे जमीन पर गिर कर मूच्छित हो गये; जैसे कि विषैले जलको पीकर मनुष्य सुध-बुध-रहित हो जाते हैं। बड़ी देर तक उन्हें वापिस लौटे न देख कर अर्जुन दुखित हो बोला, हाय ! मेरे प्यारे भाई कहाँ चले गये ? उन्हें अति शीघ्र ही लौट आना चाहिए था सो इतना काल बीत गया तब भी वे वापिस नहीं आये; न जाने कहाँ चले गये ।
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इतनेमें एक मनुष्यने आकर उनकी जो हालत हुई थी, वह सारीकी सारी अर्जुनसे कह सुनाई । सुन कर धनंजय फिर एक क्षण भर भी न ठहरा और वह युधिष्ठिरको प्रणाम कर अति शीघ्र ही उन्हें देखने के लिए निकला। थोडी देर में वह उसी तालाब पर पहुँचा जहाँ दोनों मूच्छित पड़े हुए थे । उन्हें उस तालाव के किनारे मरे हुएकी भाँति वेहोश पड़े देख कर उसे बड़ा भारी विषाद हुआ । वह शोकसागर में डूब गया । उसका मुॅह मलिन हो कर मुरझा गया । उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। और आखिर उसका धीरज छूट गया । वह अतीव कातर हो विलाप करने लगा कि हाय ! ये कौन हैं ? क्या आकाशसे पृथ्वी पर सूरज और चॉद ही तो नहीं आ पड़े हैं; या महायुद्ध के समय युधिष्ठिरकी दोनो भुजायें भग्न हो कर तो नहीं गिरी हैं । देखो, ये कैसी हालत में पड़े हुए हैं । इन्हें देख कर तो मेरा हृदय ही फटा जाता है; वह बिल्कुल धीरज ही नहीं धरता । हाय ! मैं यहाँसे जाकर इनके सम्बन्धमें बड़े भाईको क्या उत्तर दूँगा । इस प्रकार अर्जुनने बड़ा विलाप किया ।
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जब उसका हृदय कुछ शांत हुआ तब क्रोधमें आ उसने अपने भयावने स्वरसे सारी दिशाओंको क्षोभित करते हुए कहा कि जिस किसी दुष्टात्माने मेरे इन परम प्यारे भाइयोंको मारा है मै उस दुष्टको अभी ही यम-मन्दिरका अतिथि नाये देता हूँ ।
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पाण्डव-पुराणं ।
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अर्जुनकी इस विभीषिकाको सुनते ही साक्षात धर्म-रूप और निर्भय उस देवने, जैसे कोई शत्रु से कहता है वैसे ही छिपे छिपे, अर्जुन से कहा कि वीर पार्थ, तुम्हारे इन दोनों योग्य भाइयोंको, सच कहता हूँ कि मैंने ही मारा है और तुमसे भी कहता हूँ यदि तुममें कुछ ताकत हो तो तुम भी मेरा एक कहना कर देखो। तुम थोड़ी देरके लिए अपने क्राधको तो छोड़ दो और अपनी प्यास बुझाने के लिए मेरे इस तालावका थोडासा पानी पी देखो ।
देवकी ऐसी आश्चर्य-पूर्ण बात सुन कर क्रोधमें भूल अर्जुनने भी उस तालावका पानी पी लिया और इसके थोड़े ही समय में वह भी उस विषैले जलसे बेसुध हो चक्कर खाकर जमीन पर गिर पड़ा ।
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उधर जब बहुत काल तक पार्थ भी वापिस न लौटा तव खेदित होकर युधिष्ठिरने भीमसे कहा कि भाई, मालूम नहीं पड़ता कि अर्जुनको भी इतना विलम्ब क्यों लगा ।' तुम जल्दी जाकर वह जहाँ हो उसे खोजो । युधिष्ठिरकी आज्ञा पाकर जगतको प्रसन्न करनेवाला भीम उसी वक्त वहाँसे चल कर अपने पाद - प्रहार से जमीनको कंपित करता हुआ वहीं जा पहुँचा जहाँ वे तीनों ही बेसुध पड़े थे ।
भी उनकी मृतक जैसी दशा देख कर बड़ा दुःखी करने लगा | उनकी वह दुःख-मय अवस्था न सह सकने के टूट सा गया । वह दैवको उलहना देने लगा कि राक्षस, तूने यह क्या अनिष्ट उपस्थित कर दिया है ! आज यह जान पड़ता है मानों मेरे भाई ही नहीं मरे; किन्तु समस्त लोक ही नष्ट हो गया ! - दुष्ट, अब तू ही बता कि इन्हें छोड़ करें हम कहाँ जायें, कहाँ रहें, किससे बातें करें और कहाँ अब इन प्यारे सहोदरोंको देखें ! इस प्रकार विलाप करता हुआ महाभट भीम दुःखके मारे मूच्छित हो कर पृथ्वी की गोद में लेट गया; जैसे कि काट दिया गया पेड़ क्रिया- विहीन हो करें जमीन पर गिर पड़ता है । इसके वाद जब वह ठंडी हवाके स्पर्शसे कुछ सचेत हुआ तब उठ कर चकितकी भाँति सब दिशाओंकी ओर देखने लगा और
हुआ और विलाप कारण उसका दिल
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बोला कि जिस दुष्टने मेरे इन परम प्यारे भाइयोंके प्राण लिये है उसको यदि मैं देख पाता तो कभी न छोड़ता । अपने हाथोंके वज्र जैसे महारसे उसे गतप्राण कर दिशाओं की बलि चढ़ा देता । भीमके गर्व-युक्त वचनों को सुन कर आकाशमें ठहरा हुआ वह देव बोला कि सुनिए, आप चाहे अपने मुँह मियामिट्ट भले ही वनें, पर मैं तो उसीको निरंकुश शक्तिवाला मानूँगा जो निर्मय हुआ मेरे इस तालाब में जाकर पानी पियेगा ।
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देव कहने के साथ ही भीम तालाव पर गया और उसने निर्भय हो स्नान कर उसका पानी पिया | इसके बाद ज्यों ही वह महा चली बाहिर आकर बैठा कि उसे भी उसी वक्त मूर्च्छा आ गई और वह एकदम बेहोश हो गया । अ खिर अन्य भाइयोंकी भाँति उसे भी पृथ्वी की गोद में लेट जाना पड़ा । सच है कि बड़े बड़े महात्मा भी अपने ऊपर आनेवाले अनिष्टों को नहीं जान पाते हैं ।
उधर जब समय बहुत वीत गया और भीम भी पीछा न लौटा तब युधिष्ठिरको बड़ी चिन्ताने घेरा । उनका मुॅह फीका पड़ गया । वह मन-ही-मन सोचने लगे कि इतना समय बीत गया और अब तक भी बन्धु-गण पीछे नहीं आये । मालूम नहीं क्या हुआ । जाकर देखूँ कि क्यों नहीं आये । इसके बाद वह उठे और वनको देखते हुए वहीं पहुँचे । वहाँ उन सबको मूर्च्छित देख कर उन्हें भी मूर्च्छा आ गई । इसके बाद जब वे सुधमें आये तव विलाप करने लगे कि वन्धु-गंण, जान पड़ता है आप लोग इस तालाब के पानीसे मूच्छित हो गये हैं। खेद है कि सड़ी चीजोंमें लग जानेवाला घुन इन वज्र कैसे खंभों में कैसे लग गया । हाय ! आज यहाँ पांडव-कुलका सर्वनाश हो गया । अब दुष्ट और के भंडार दुर्योधनकी खूब बन पड़ेगी । वह सारे राज्यका अधीश्वर वन कर मनकी मुराद पूरी कर लेगा । उस दुष्टको अन्यायके रोकनेवाला अब कोई नहीं रह गया है । जब उस दुष्टको क्रुद्ध हुए योधाओंने युद्धमें बाँध लिया था तव दैवके हाथ से मैंने ही उसे छुड़ाया था, उसे मारने नहीं दिया था । परन्तु हाय ! उसी दैवने अब मेरे ही प्यारे भाइयोंको मार डाला है । सुझमें उस दुष्ट दैवको भी हतप्रभ करने की शक्ति है और उसीका यह फल था जो मैंने उस वक्त उन मत्तोंके हाथसे कौरवोंको मौतेसे बचा लिया था । परन्तु फिर भी दुष्ट दैवको भय न लगा और उसने मेरे ही साथ ऐसा व्यवहार किया ।
दैवके प्रति यह उलाहना सुन वह देव बोला कि धर्मराज, तुम्हारे इन प्रचंड धनुषधारी बान्धवोंको मैंने ही अपने प्रभाव से इस अवस्थाको पहुँचाया है । इसमें
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तनिक भी सन्देह नहीं है। तुम भी मेरी एक बात सुनो। वह यह कि यदि तुम भी कुछ शक्ति रखते हो तो इस तालावका पानी पिओ । अन्यथा अपनी शक्तिका व्यर्थ अभिमान क्यों करते हो। क्यों मेंडकके जैसे गाजते हो। तुम्हारी इस टर टरसे कुछ काम न चलेगा। कुछ करके दिखाना पड़ेगा । देवकी ऐसी अचम्भेमें डालनेवाली वान सुन कर प्रबुद्ध, पवित्रमना और धर्म-बुद्धि युधिष्ठिर चटसे तालावमें घुसे और उन्होंने निडर हो उसका पानी पी लिया । इसके थोड़ी ही देर बाद वह भी अन्य भाइयों की तरह विष पीनेवाले पुरुषकी नाँडे, उसी वक्त धराशायी हो गये । हाय ! धिक्कार है उस दैवकी दुष्ट चेष्टाको जिसने कि ऐसे धर्म-बुद्धि और धर्मके अवतारोंकी भी ऐसी शोचनीय हालत कर दी।
उधर कनकध्वजके मंत्र-विधानसे सातवें दिन उसे कृत्या विद्या सिद्ध हो गई और उसके पास आ कर उससे आज्ञा माँगने लगी । कनकध्वजने कहा कि यदि तुम्हारी शक्ति अतुल और विपुल है तो तुम अति शीघ्र जाकर पांडवोंका सर्व-नाश कर दो । उसके इस आदेशको पाकर क्रोधसे लाल हो वह चली गई और वहाँ पहुंची जहाँ कि पांडव मूञ्छित हो मरे से पड़े थे। इसी समय धर्मदेव शोकातुर भील का रूप बना कर वहीं आया और उन्हें इधर उधर लौट लौट कर देग्वने लगा । तव उन्हें निश्चयसे मरा हुआ जान कर उससे वह विद्या वोली कि मुझे पांडवों को मारनेके लिए कनकध्वज राजाने भेजा था; परन्तु मैंने यहाँ आकर कुरुजागर देश के इन स्वामियोंको अपने आप ही मरा पाया। भीलराज, कहो अब मैं क्या करूँ ? विद्याके इन वचनोंको सुन कर भीलने कहा कि वह दुष्ट इतना नीच है तो तुम जाकर उस हताशय कनकध्वजको ही यमालय भेजो। भीलकी यह सलाह उसे ठीक ऊंच गई । वह उसी वक्त उस विफलमनोरथको मारने के लिए वहाँ पहुँची । और उस पापीके सिर पर पड़ कर उसने उसका सर्व-नाश कर दिया जैसे अति कठोर वज्र-प्रहार पर्वतका चकनाचूर कर देता है । इस प्रकार अपने कृत्यको पूरा करके वह कृत्या अपने स्थानको चली गई।
इसके बाद उसने उन पांडवोंको अमृतकी बूंदोंके द्वारा सींचा और सोनेसे उठ बैठने की भाँति उन्हें पूरा पूरा सचेत कर दिया । उस वक्त युधिष्ठिरने उससे पूछा कि शुभ कर्मके जैसे हमारे उपकारी तुम कौन हो । देवने कहा कि धर्मात्मा धर्मराज, मैं सौधर्म इन्द्रका प्रीतिपात्र एक देव हूँ। तुमने जो अभी विशुद्ध
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धर्मकी आराधना की थी उसके प्रभावसे अवधिज्ञान द्वारा तुम्हारे भावी उपसर्गको जान कर उसे दूर करनेके लिए मैं आया हूँ।
मैंने यहॉ आकर वज्र पापके जैसी कृत्या विद्याको चारण किया जो कि तुम्हारा सर्वनाश करनेके लिए कनकध्वजकी भेजी हुई यहॉ आई थी। मैंने सब बातें जान कर उसे ऐसी सम्मति दी कि जिससे उसने जाकर कनकध्वनको ही भस्म कर दिया । यह सब वृत्तान्त कह कर, पार्थको द्रोपदी सौंप कर और उनके चरण-कमलोंको नमस्कार कर वह धर्मदेव अपने स्थानको चला गया।
इसके बाद वहाँसे चल कर पांडव मेघदलपुरमें आये । यहाँका स्वामी सिंह राजा बहुत प्रसिद्ध था । उसकी रानीका नाम कांचनामा था। वह वास्तवमें कंचनके जैसी आभावाली थी और सच पूछो तो इसी कारण से ही कांचनामा उसका नाम पड़ा था। सिंह और कांचनाभाके एक पुत्री थी, जो रूप सौन्दर्य-सम्पन्न थी। उसका नाम कनकमेखला था। वह इन्द्रकी इन्द्राणी' जैसी थी। सबको वह बड़ी प्यारी थी। बड़े भाईकी आज्ञासे राजाकी दी हुई उस राज-कन्याका भीमने पाणिग्रहण किया। ____ इसके बाद पांडव बहुत दिनों तक वहीं रहे और उन्होंने कोशल देशको खूब देखा । वाद वहाँसे भी चल कर धीरे धीरे वे रामगिरि पहाड़ पर आये । यहाँसे धूमते हुए वे सुन्दर विराट नगरमें पहुंचे । वहॉ आकर उन्होंने विचार किया कि हमारे पूरे बारह वर्ष तो वनमें वनेचरोंकी नॉई बीत गये । अब एक वर्ष
और है जो अधिक मासका है । अतः एक साल भेष बदल, छिपे रह कर यही बिताना चाहिए। इस निश्चयके अनुसार युधिष्ठिरने कहा कि मैं भोजन पकानेवाला रसोइया बनूंगा। अर्जुनने कहा कि मैं नाटककी नायिका बनूंगा, उत्तम नृत्य करना सिखाऊँगा और साड़ी तथा चोली पहिन कर रहूँगा । अपना नाम मैं रक्खूगा बृहनला। नकुलने कहा कि मैं घोड़ों की रक्षा परे रहूँगा और धीर-चित्त सहदेवने कहा कि मैं धन-धान्यको वढानेवाले गोधनकी रक्षा करूंगा। एवं द्रोपदीने भी कहा कि मैं उत्तम माला गूंथनेवाली मालिन वनूंगी। ___इस प्रकार सब बातें ध्यानमें रख कर उन्होंने अपना अपना वेष बदला और मैले कपडे पहिन कर कपट-घेषसे वे राजमन्दिर गये । राजमन्दिर देखने में बड़ा सुंदर और आनंद देनेवाला था । वहॉका राजा विराट था । उसने शत्रु-समूहका दमन कर बहुतसे राजोंको नमा दिया था-वह बहुतसे राजों द्वारा
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पाण्डव-पुराण । . पूजा जाता था। पांडव उसके पास गये । उसने भी उनका यथायोग्य आदर किया और बाद उनकी इच्छा जान कर उन्हें उनके योग्य कामों पर नियुक्त कर दिया । वे भी उस चतुर और न्याय-मार्ग-गामी राजाको अपने अपने । कामोंमे खुश करते हुए कुशलतासे काल विताने लगे। इस प्रकार वहाँ उनके बारह महीने बीत गये । उधर पांचालीने भी विराटकी रानी सुदर्शनाको खुश कर अपना समय सुखसे पूरा किया।
चूलिका नाम पुरीके राजाका नाम चूलिक था और उसकी प्रियाका नाम चिकना था। उसके नेत्र खिले हुए कमलके जैसे मनोहर थे । चूलिक और विकचाके कीचक आदि सौ पुत्र थे। वे सब गुणी थे और विराटके साले थे। अत: इसी वीचमें एक समय कीचक अपनी वहिनके पास विराट देशमें आया और वहाँ उसने रूप-सौन्दर्यकी खान द्रोपदीको देखा। वह उसे इन्द्रकी इन्द्राणी जैसी या लक्ष्मीके जैसी दीख पड़ी। उसे देखते ही वह उस पर जी जीनसे निछावर हो गया। उसे अब खाना-पीना, सोना-उठना आदि कुछ भी नहीं सुहाने लगा। वह सब कामोंसे उदासीन हो गया । उसको दिन रात एक मात्र द्रोपदीकी रट लगी रहने लगी। वह हमेशा द्रोपदीके ही मीठे आलापको सुनना चाहता था; उसीके अनोखे रूपको देखना चाहता था। उसीका स्पर्श करना चाहता था और उसीके मुँहकी सुगन्ध सूंघना चाहता था । सच तो यह है कि द्रोपदीके सिवाय उसे और कुछ सुहाता ही न था। जहाँ द्रोपदी जाती वह वहाँ उसके पीछे पीछे जाता और कामसे अन्धा होकर उसके साथ चाटुकार पनेकी वातें बनानेका यत्न करता । उसका यह हाल देख कर एक वार पार्थ-पत्नीने उसे खूब डाटा और उससे अतीव कटुक शब्दोंमें कहा कि कीचक, यह वात तुम्हें बिल्कुल शोभा नहीं देती । देखो सोची-समझो और कुछ विवेकस काम लो तो तुम्हें जान पड़ेगा कि यह व्यवहार अनुचित है, नीच है, निंद्य है एवं नीचोंके जैसा है। परन्तु वह इतने पर भी अपने खुशामदी चाटुकार वाक्योंसे बाज न आया। तब द्रोपदीको वड़ा क्रोध आया और उसने अतिशय कोर शब्दोंमें यों कहना आरम्भ किया कि कीचक, पर-स्त्री-लम्पट कीचक, तू मुझे अकेली मत समझ, मै अकेली नहीं हूँ। किन्तु मेरे साथ अद्भुत पराक्रमवाले पाँच गंधर्व और हैं।
और देख कहीं उन्होंने तेरे इस क्षुद्र वर्तावको जान लिया तो सन्देह नहीं कि वे तुझे क्षणभरमें यमालयका आतिथि बना देंगे। इस पर कीचकने मुसक्या कर कहा कि द्रापदी, प्यारी द्रोपदी, सुनो, जिन पॉच गन्धर्वोका तुम्हें अभिमान है
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वे मेरा कुछ भी नहीं कर सकते । मेरे पास अनेकानेक हाथी-घोड़ों आदिकी सेना है। मेरे पास इतनी शक्ति है कि मै चाहूँ तो जवरदस्ती लेकर तुम्हें भोग सकें। पर नहीं, मैं ऐसा करना ठीक नहीं समझता; अपनी प्यारीको कष्ट देना नहीं चाहता । सुन्दरी, अव विलम्ब मत करो । देखो मैं बड़ा दुःखी हो रहा हूँ, अतः कृपा करके मेरे इस दुःखका इलाज करो, प्रसन्न हो । प्यारी, अब मै तुम्हारे साथ रमनेके सिवा अपने जीनेका और कोई उपाय नहीं पाता हूँ। अतः जैसे उचित समझो, मेरी रक्षा करो। उसकी इस नीचताका वह शीलवती कुछ उत्तर न देकर चली गई। इधर कीचक भी कामके शरोंकी मारसे मुर्दे जैसा होकर पड़ रहा।
इसके बाद एक समय किसी एक शून्य मकानमें उस दुष्टने द्रोपदीका हाथ पकड़ लिया और उससे बोला कि देवी, बस, अब तुम मुझे सुखी करो, मै मरा जा रहा हूँ। यह देख द्रोपदी भारी आपत्तिमें फँस गई । उसके ऊपर
मानों वज्रपात हुआ। परन्तु फिर भी हिम्मत बॉध कर उस वीर नारीने उस , दुष्टके हाथसे उस समय भी छुटकारा पा लिया । इसके बाद वह रोती हुई
युधिष्ठिरके पास आई। वहाँ आकर उसने उस दुष्टके सारे दुष्कृत्यको युधिष्ठिरसे कहा और वह बोली कि हे देव, ऐसी विषम अवस्थामें भी जो मैंने आपके प्रभावसे अपने शीलरत्नको वचा पाया यह मेरे लिए बड़े सौभाग्यकी वात है । द्रोपदीकी इन वातोंको सुनते ही युधिष्ठिरकी क्रोधसे भौहें चढ गई और उन्होंने कहा कि हाय, जहाँ राजा भी इतना दुराचारी है वहॉकी प्रजाके दुराचारका तो फिर ठिकाना ही क्या है ! विद्वानोंने ठीक कहा है कि--
राशि धर्मिणि धर्मिष्ठाः, पापे पापाः समे समा॥
राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजा ॥ अर्थात्---जैसा राजा होता है वैसी ही मजा होती है । राजा धर्मात्मा हो तो प्रजा भी धर्मात्मा होती है और राजा पापी हो तो प्रजा भी पापी होती है। तात्पर्य यह कि जैसा राजा होगा वैसी ही प्रजा भी होगी; क्योंकि प्रजा राजाकी नकल करती है।
इसके बाद उन्होंने घबराई हुई द्रोपदीको ढाढस बंधाया और कहा कि सुशीले, तुम बड़ी वीर नारी हो जो तुमने स्वयं शीलकी रक्षा की। तुम अब कुछ भी चिन्ताभय न करो । क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि शील-सम्पत्तिके बलसे ही सीताकी
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देवतोंने पूजा की थी; और मन्दोदरी, मदनमंजूषा आदिकी भी इसीके द्वारा इतनी प्रतिष्ठा हुई । तुम सच करके मानो कि संसार में स्त्रियोंकी शोभा शीलसे ही होती है । यह शील ऐसी कला है कि इसके होते हुए जीवों में और और गुण स्वयं आ जाते हैं । इसीसे जीवोंको सब सम्पत्ति मिलती है । सच पूछो तो संसारमें शीलके सिवा कोई उत्तम पदार्थ नहीं है, न हुआ और न होगा ।
इस समय अर्जुन भी वहीं द्रोपदीकी दुःख भरी वातको सुन रहा था । उसकी ऐसी अवस्थाको न सह सकने के कारण उसे बड़ा क्रोध आया और वह वह सिंहकी नॉई गर्ज कर उठ खड़ा हुआ । परन्तु उसे युधिष्ठिरने यह कह कर "रोक लिया कि अभी कुछ दिन ठहरो, वाद जो जीमें आवे, करना । धीरे धीरे सूरज अस्त हुआ, और शतका आगमन हुआ । इस समय द्रोपदी नेत्रोंमें ऑस भरे हुए युधिष्ठिर के पाससे भीमके पास गई और लज्जा से खेद - खिन्न हो बोली कि आप जैसे महावली के रहते यह नीच कीचक दुष्ट मेरी ऐसी बुरी हालत करे, अधिक और क्या लज्जाकी बात हो सकती है । यह सुनते ही हाथी की सूँड़ जैसी मजबूत भुजावाले उस वीरने कहा कि भ्रातृजाये, कहो, उस दुष्टने तुम्हें क्या दुःख दिये हैं । उस दुष्टका तिरस्कार करके मैं उसे अभी यमालय भेज सकता हूँ । बोलो क्या कहती हो । तुम्हारा तिरस्कार मैं नहीं सह सकता । इस पर पांचालीने कहा कि महाभाग सिंह जैसे पराक्रमी आपके रहते मुझे दुःख तो दे ही कौन सस्ता
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| परन्तु मुझे अपने इस अपमानका बड़ा ही दुःख है कि दुष्ट कीकचने मेरा हाथ पकड़ लिया और मुझसे अपनी नीच वासना प्रकट की । आप मेरे इसी अपमानका बदला लीजिए । मभो, मुझे बड़ा दुःख हो रहा है । देखिए उसके करस्पर्शसे मेरा शरीर अब तक भी थर थर कॉप रहा है । यह सुनते ही भीम दावानलकी भाँति क्रोध से लाल हो उठा और कीचकको मार डालनेके लिए तैयार होकर उसने कहा कि सती, इसके लिए एक उपाय करो। वह यह कि तुम जाकर उससे दूसरे दिन रातमें वनमें आनेके लिए संकेत कर आओ, पर इस बातका ख्याल रखना कि वह जगह ऐसी हो जहाँ कि मनुष्योंका संचार न हो ।
इसके बाद द्रोपदी भीमके कहे अनुसार कीचकके पास गई और उसने कामसे पीड़ित हुए उस कपटीसे कहा कि मैं आपको चाहती हूँ । अत एव जो जगह आपको रुचे आप वहीं आ जानेके लिए मुझे संकेत बताइए । मैं वहीं 'आ
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जाऊँगी । द्रोपदीके इन वचनोंको सुन कर अतीव प्रसन्न कीचकने कहा कि मानिनी, तुम शामके समय नाट्यशालामें आना । वहाँ मैं तुम्हारी सब इच्छाकी पूर्ति कर , सर्केगा। इसके बाद द्रोपदी भीमके पास आई और उसने भीमसे उस दुष्टकी कही हुई सारी बातें कह दी । द्रोपदीकी बातोंको सुन कर हर्षके साथ, शामके समय सौभाग्य और स्फूर्तिशाली भीमने पैरोंमें नूपुर पहिने, कमरमें करधौनी, हाथों में सुन्दर कंकण और हृदयमें हार पहना । कानों में कुण्डल पहिने और मस्तकमें तिलक लगाया। नेत्रोंमें कज्जल लगाया और सिर पर दीप्तिशाली चूडामणि गूंथा । इस प्रकार दिव्य वस्त्राभूषण आदिके द्वारा उसने अपने आपको खूब ही अलंकृत किया। वह बिल्कुल ही सीमन्तिनी-सौभाग्यवती-स्त्रीके जैसा ही बन गया। उसको देख कर ऐसा भ्रम होता था कि वह रति है या इन्द्राणी, अथवा पृथ्वी पर अव तरित हुई लक्ष्मी ही है । इस प्रकार लोगोंको भ्रम पैदा करता हुआ भीम झपाटेके साथ संकेत-स्थान पर पहुंचा । निर्भय भीम वहाँ क्षण भर बैठा ही था कि उधरसे द्रोपदी पर निछावर हुआ कामसे जर्जरित हृदय दुष्ट कीचक भी वहीं
आ गया । उसके हृदयमें रागकी उत्कटता और गाढ अँधेरा इतना व्याप्त • हो रहा था कि उसके मारे उसे उस समय कुछ भी भान न हुआ । उसने उसे सचमुच ही द्रोपदी समझा । अतः वह उसकी ओर आगे बढ़ा और उसने उसका हाथ पकड़ा । इसके बाद ही वह हाथकी कगेरताका अनुभव कर बडे सोच-विचारमें पड गया । उसे जान पड़ा कि वह द्रोपदी नहीं है, किन्तु कुछ छल है । और कोई दुष्ट धूर्त ही इस द्रोपदीके वेषमें आया है । देखू, आगे क्या होता है । एक बात और याद पडती है कि एक समय नैमित्तिकने कहा था कि कीचककी मृत्यु महाबली भीमके हाथसे होगी । जान पड़ता है कि उसका कहना बिल्कुल ही सच्चा है । यह सोच करके उसने अपना हाथ उसके हाथसे छुड़ानेका यत्न किया, पर वह उसे नहीं छुड़ा सका । फिर क्या था, वे दोनों हाथ-पैरोंके प्रहारोंके द्वारा निर्दयता-पूर्वक परस्परमें युद्ध करने लगे । क्रोधके मारे उनकी ऑखें लाल हो गई। वे अपने अपने ओंठ और दॉत पीसने लगे। पसीनेकी बूंदोंसे उनका शरीर चमकने लगा । इस समय उन दोनोंका 'इतना भयंकर युद्ध हुआ कि उसे देख कर डरपोक कायरों के प्राण पखेरू ही उड़े जाने लगे । अन्तमें भीमने हुंकार नाद करके कीचककी छातीमें एक वजके आघात जैसा हाथका ऐसा प्रहार किया कि वह धड़ामसे पृथ्वी पर गिर गया और उसके शरीरकी सब हड्डियों चटक गई। इसके सिवा भीमने उसकी छातीमें
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एक ऐसी लात और लगाई कि जिससे उसकी साँस रुक गई और फिर उसे एक शब्द बोलना भी कठिन हो गया । उसका कंठ रुक गया । उसकी छाती पर पाँव देकर भीमने उससे कहा कि दुष्ट, अनिष्टकारी, संक्लिष्ट-चित्त, परस्त्रीरत नीच, देख यह सब परस्त्री-लंपटताका ही दोष है ।
. इसके बाद भीमने उसे बड़ी निष्ठुरतासे पीस कर कहा कि तू अब कहाँ जायगा । मैं तुझे कभी जीता न छोडूंगा । इतने पर भी भीमको सन्तोष न हुआ सो उसने उस दुष्टकी छातीमें एक ऐसी जोरकी लात जमाई कि जिससे उसका एक क्षणभरमें ही काम तमाम हो गया, वह मर गया।
- इसके बाद द्रोपदीने राज-मंदिरमें जाकर समाचार दिया कि आज गंधर्वोने कीचकको मार डाला है । जिसे सुन कर विराट वड़ा भयभीत हुआ।
यह समाचार ज्यों ही कीचकके सेवकोंके कानों पड़ा त्यों ही वे दौड़े हुए उस नृत्यशालामें आये । उस समय वह हजारों जनोंसे व्याप्त हो रही थी। उन्होंने वहाँ आकर कीचकको मरा हुआ पाया । वह वहाँ मृत्युकी गोदमें अचेत पड़ा था । जान पड़ता था मानों उसे देवने ही मार डाला है । उन्हें जब यह र जान पड़ा कि इसे गंधर्वने मारा है तब वे महाभट बड़े लज्जित हुए और उन्होंने परस्पर सलाह कर यह निश्चय किया कि चुपचाप इसी समय गंधर्व सहित इसे दग्ध कर देना चाहिए। सवेरा होने पर यदि यह समाचार लोगोंमें फैल गया तो बड़ी भारी हॅसी होगी। इसके बाद वे वहाँ पहुँचे जहॉ कि सौभाग्यवती पांचाली थी। उन्होंने जबरदस्ती उसका हाथ पकड़ कर उसे बाहर निकाला । द्रोपदी भयसे चिल्लाती, ऑसू बहाती तथा गंधर्वको पुकारती हुई निकली।
द्रोपदीका यह हाहाकार शब्द जो कि करुणाजनक था, भीमके कानोंमे जाकर पड़ा । उसे सुनते ही । भीमको इतना क्रोध आया कि वह उसी वक्त कोटकी दीवाल लॉघ कर, बाल बखेरे हुए, एक वृक्षको उखाड़ हाथमें लेकर वायुके वेगकी भाँति अति शीघ्र दौड़ा । उसे देख कर लोगोंको ऐसा भ्रम होता था कि क्या यह राक्षस है जो कि देखते देखते ही सव नष्ट किये देता है, या , सवको एकदम ग्रस लेनेके लिए जबरदस्त काल ही आ पहुँचा है । इस समय ज्यों ही इसे कीचकके भटोंने इस हालतमें देखा त्यों ही वे सब उस मुर्देको वहीं छोड़ कर भयसे चकित हुए अपने प्राणों को ले कर-जिसे जिधर जगह मिली-भागे । परन्तु किलकारियाँ मारते हुए यमके जैसे भीमने तब भी
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अठारहवाँ अध्याय ।
उनका पीछा न छोड़ा-वह उनके पीछे भागा ही गया; जैसे कोई मतवाला छायी लोगोंके पीछे पड़ जाता है और फिर उनका पीछा नहीं छोड़ता । इस वक्त उन भटौंका यह हाल था कि वे वेचारे भम हुए न तो पाछेको मुंड कर देखते थे और न कहीं ठहरते ही थे । और है भी यही बात कि मृत्युसे डरा हुआ कोई भी ऐसा नहीं जो फिर स्थिर रह सके।
इसके बाद बलसे उद्धत हुए फीचकके सौ भाइयोंने जब कहीं भी फीचकको न पाया तब उन्होंने सबसे पूछताछ की और किसी तरह द्रोपदीके द्वारा उसे मरा हुआ जान कर द्रोपदीको ही जला कर खाक कर देना चाहा; और इसके लिए उन्होंने चिता भी रच डाली । यह सब बातें महावली भीमके फानोंमें पहुंची । उसका परिणाम यह हुआ कि उसने उसी वक्त जाकर उन सौके सौ ही भाइयोंको उस चिता पर बलात् डाल कर जला डाला; जैसे कि कोई एक फॉटेको उठग कर आग पर फेंक जला देता है । इस प्रकार द्रोपदीकी रक्षा कर भीपने स्नान वगैरहसे उसे पवित्र किया।
सवेरा हुआ। पांचालीको नगरमें प्रवेश करते हुए सभी नागरिकोंने देखा । वह किसीको प्रलयश्री सी और किंसीको आनंद देनेवाली लक्ष्मी सी देख पड़ी। उधर कीचकके सप भट अपने माथेमें कलंकका टीका लगा कर लजित हो अपने स्थानको चले गये । इसके बाद भीमने युधिष्ठिरके पास जा फर उनसे द्रोपदीके साथ गई रातमें किये हुए कीचकके सारे वृत्तको कह सुनाया, जिसको सुन कर युधिष्ठिरने कहा कि हम लोगोंको यहाँ तेरह दिन और चुपचाप रहना चाहिए और कोई बखेड़ा खड़ा न करना चाहिए। इस प्रकार अपने बड़े भाईके मना करने पर वे धर्ममना सब भाई पिल्कुल मौन हो रहे ।
इसी वीचमें दुर्योधनने अपयश पाये हुए अपने सेवकोंको पांडवोंकी खोजमें भेजा । उन्होंने पहाड़, पृथ्वी, वन, जल, दुर्ग आदि सभी स्थान देख डाले, पर उन्हें कहीं भी पांडवोका पता न लगा । आखिर वे सब जगह देख
भाल कर वापिस आ गये और दुर्योधनको नमस्कार कर उससे बोले कि 1 महाराज, हमने न तो कहीं पांडवोंको देखा, न किसीके मुखसे कहीं जीता सुना
और न कहीं उन्हें हमने मरे हुए पड़े पाया। इस प्रकार दुर्योधनको सन्तुष्ट कर और धन-मान पाकर वे अपने अपने घर चले गये।
यह देख भीष्म पितामहने कौरवोंसे कहा कि राजन्, मेरी एक वात सुनिए । वह यह है कि प्रचंड पांडव विना मौत तो मारे नहीं जा सकते, चाहे
पाण्डव-पुराण ३.
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जो भी तुम उपाय करो। कारण कि वे बड़े भारी पराक्रमी हैं, मेरु जैसे अचल हैं, दीप्तिके धारक तेजस्वी है, मोक्ष-गामी है, सर्वश्रेष्ठ महापुरुष हैं। एक मुनीश्वरने मेरे सामने ही कहा था कि युधिष्ठिर राज्यभोगी बनेगा और पीछे तप तप कर ' शश्रृंजय पहाड़ परसे मोक्ष जायगा । मुझे विश्वास है कि वे अपने गुणों द्वारा पूज्य और पूज्योंकी पूजामें तत्पर रहनेवाले गुणोंके भंडार अब तक जीते हैं; मरे नहीं हैं।
वे पांडव तुम्हारा कल्याण करें, जिन्होंने सम्पूर्ण विघ्न-बाधाओंको नष्ट कर स्थान स्थान पर प्रतिष्ठा पाई, जो बड़े बड़े शिष्ट पुरुषों द्वारा पूजित हुए, जिनकी सभी चेष्टायें परोपकारके लिए ही हुई, जो उत्तम पुरुषोंके अंग्रगण्य हुए, जिनको कोई भी कष्ट नहीं दे सका और जो स्पष्ट मिष्ट भाषी हुए।
उस पांचाली-द्रोपदी के शीलधर्मकी जय हो जो परम पवित्र और मिष्ट-भाषिणी हुई, शीलकी प्रवर्तक हुई, लावण्यामृतकी बावड़ी हुई, उत्तम गुण, गंभीरता और धीरजकी खान हुई और जिसके शीलके प्रभावसे महापापी कीचक काल के गालमें गया और लोकहास्यका पात्र बना ।
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उन्नीसवाँ अध्याय।
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उन्नीसवाँ अध्याय।
उन विमल प्रक्षुकी मै स्तुति करता हूँ जिनकी ध्वनि निर्मल है, जो मल
रहित विमल हैं, जिनके शरीरकी प्रभा विमल है और पवित्र पुरुष भी जिनके चरण-कमलोंकी पूजा-भक्ति करते हैं। वे जिन मेरे कर्म-कलंकको हरें और मुझे निर्मल करें।
इसके बाद भीष्म पितामहने प्रपंचके साथ द्रोणाचार्यसे कहा कि आजसे चौथे-पाँचवें दिन पांडव अवश्य ही आ जायँगे और भरोसा है कि वे महाभट प्रगट होकर दुर्घट कामोंको कर दिखावेंगे । इस समय निष्ठुर और अविचारी जालंधर राजा बोला कि मैं शीघ्र ही विराट देशको प्रयाण करता हूँ । सुना जाता है कि सारे संसार में प्रसिद्ध महाभट, परचक्रको भयभीत करनेवाला, रणमें दुर्जय
और कौरवोंका पक्षपाती कीचक किसी गंधर्वके द्वारा मारा गया है । और इसी कारण इस समय विराट देशका राजा भी निःसहाय हो रहा है । उसके यहाँ । संसार भरमें विख्यात भारी गो-समूह है, अतः इस अवसर पर मैं वहाँ जाकर
उसका गो-धन हरूँगा । कारण कि फिर कभी ऐसा अवसर मिलना दुःसाध्य है। एवं गायोंको हर कर लाते वक्त जो रण-शूर विकट भट मेरा पीछा करेंगे उनको मार कर मैं अखिल गो-समूहको यहॉ ले आऊँगा । सन्देह नहीं कि उस वक्त वहाँ युद्धकी अभिलाषासे प्रगट होकर पांडव भी युद्ध-भूमिमें उतरें। अतः - उन गुप्त-वेष-धारी महा द्रोहियोंको भी मैं यमालयका अतिथि बना सकूँगा । जालंघरके इन वचनोंसे दुर्योधनका हृदय फूल गया और उसने उसकी बडी प्रशंसा की। परिणाम यह निकला कि उसने प्रसन्नताके साथ जालंधरको विराटके गोकुलको हरनेके लिए भेज दिया । वह अपने साथमें चंचल, ऊँचे और हिनहिनाते हुए घोड़े, सजे हुए हाथी और फहराती हुई धुजाओंवाले रथ आदिकी बहुतसी सेना लेकर रवाना हुआ। वह क्रोबसे उद्धत हुआ वहॉ पहुंचा और पहुँच कर उसने ग्वालोंसे सुरक्षित विराटके सारे गोकुलको हर लिया । तब भय-भीत होकर रोते चिल्लाते हुए ग्वालोंने भाग कर विराट नरेशके सामने पुकार की। वे कहने लगे कि देव, दुःख है कि जालंधर राजाने सारा गोकुल हर लिया है
और जलसे युक्त समुद्रकी नॉई चतुरंग सेनासे युक्त हो वह उसको ले करके अपने देशको जा रहा है। ग्वालोंकी इस दुःख भरी पुकारको सुनते ही विराट
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नरेश्वरको बड़ा क्रोध आया। उसने उसी समय युद्धकी उद्धतताको फैलानेवाली रणभेरी बजवा दी - युद्धकी घोषणा कर दी । जिसको सुन कर योद्धा कवच आदि अस्त्र-शस्त्रसे सज कर उठ खड़े हुए और उन्होंने धनुषोंकी ध्वनियोंके द्वारा आकाशको वहिरा कर दिया। इस वक्त युद्ध-स्थल के लिए सोनेके पलानोंसे विभूषित, युद्ध-समुद्रकी तरंगों की नाई, चंचल और खूब सजे हुए घोड़े चले । उन सब पर सवार सुशोभित थे । 'सुन्दर चालवाले हाथी गर्जते हुए निकले और गलियों के मार्गको रोक कर चलनेको तैयार खड़े हुए रमणीय रथं सुशोभित हुए । इस प्रकार चतुरंग सेना सहित पुरकी रक्षाका उचित प्रबन्ध करके रथमें सवार हो विराट नरेश नगरसे बाहिर निकला ।
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उसके पीछे पर्वतके जैसे उन्नत गुप्त वेषधारी पांडव रथ में सवार हो चले । उधर धनुषोंके शब्द से मिला हुआ रण-भेरियोंका शब्द हुआ | विराटऔर जालंधर के इस वक्त भीषण युद्धको देख कर भीरुओं के प्राण संकटमें पड़ गये और महाभटोंके रोमांच हो आये । दोनों ओरके रण-शौंडीर योद्धा धनुषको कर्ण पर्यन्त खींच कर अविरल बाणोंकी वरसासे शत्रुओंके हृदयों को बड़ी निर्दयतासे वेधते थे । वज्र प्रहारसे खंडित होनेवाले पर्वत की नॉई तलवारोंके महारसे खंडित होकर योद्धागण पृथ्वी पर पड़ते थे । सारांश यह है कि उन दोनों में रात रात तक बड़ा भीषण युद्ध हुआ । इस समयके उनके युद्धको देख कर ऐसा कोई भी जीवधारी नहीं रहा, जिसे कि भय न मालूम पड़ा हो । अन्तमें अपने धनुपके द्वारा वाणों पर वाण छोड़ता हुआ और योद्धाओंकी धर-पकड़ करता हुआ जालंधर राजा विराटकी ओर दौड़ा। वह योद्धाओं के हाथ-पाँवको काटता हुआ ऐसा जान पड़ता था मानों वृक्षोंको डालियोंसे रहित ही करता जा रहा है। आखिर विराट तक पहुँच कर उसने उसे ऐसा ललकारा कि उसके होश-हवाश बिगड़, गये । वाद क्षणभर में ही अपने तीक्ष्ण बाणोंके द्वारा विराटको सारथी सहित वेध दिया और कूद कर वह उसके रथमें पहुँच गया। इसके बाद उसने संकटमें पड़े हुए वीर विराटको बाँध कर विवश कर दिया और अपने रथमें बैठा कर वह वहाँसे चलता बना, जैसे कि भयंकर साँपको लेकर गरुड़ - आकाशमें चला जाता है ।
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उधर यह बात जब युधिष्ठिरने सुनी कि दुष्ट जालंधरने विरोटको पकड़ लिया है तब उसने शूरवीरताके स्थान भीमसे कहा कि भीम, रथको जल्दी लेजा
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कर इस महारणमें पकड़े गये विराट नरेशको बन्धन से मुक्त करो और जालधरसे अखिल गोकुलको छीन लाकर तुम मुझे अपना वल दिखाओ। तुम्हारे चलकी परीक्षाका यही समय है । हे महारथी, तुम जाकर संकटमें फँसे हुए और दृढ़ बन्धनों से बँधे हुए विराट नरेशको वन्धन मुक्त कर आपत्ति से छुड़ा कर मेरे मनोरथको पूरा करो। अपने भाई के ऐसे वाक्योंको सुन कर विपुलोदर उसी वक्त तैयार हो गया और युधिष्ठिरको प्रणाम कर एक वृक्षको जड़से उखाड़ वह उस महायुद्धमें घुस पड़ा । घोर शब्द करते हुए उसने इधर उधर खूब दौड़ लगाई। उस समय वह अपने घोर शब्दसे यपके जैसा और उखाड़े हुए वृक्षसे मतवाले हाथीके जैसा जान पड़ता था । एवं युधिष्ठिरकी प्रेरणासे गांडीव धनुर्धारी पार्थ, विपुलाशय नकुल और सहदेव भी मर्यादा रहित समुद्रकी नॉई उमड़ कर युद्धके लिए उद्यत हुए ।
इस समय भीमाकृति भीमने ग्यारहसौ रथोंको चूर डाला, पार्थने अपने शर-कौशलसे साढ़े नौसौ घोड़ोंको बेकाम कर दिया, नकुलने अपने आरम्भ किये घन-घातके द्वारा वैरियोंके कई कुलोंको नष्ट कर दिया और सहदेवने भी दुर्जय शत्रुओं के साथ बड़ी भारी शूरतासे युद्ध किया। जिससे कि जालंधर के सैन्य-समुद्रमें बड़ा भारी क्षोभ मच गया । कहीं भी शान्तिको जगह न रह गई । यह देख जालंधर जल कर आग हो गया और धनुष-बाण लेकर भीमके ऊपर टूट पड़ा । एवं उस धीरज धारीने भीमको वाणकी अविरल बरसासे एकदम बॅंक दिया जैसे मेघ आकाशको ढँक देते हैं। उधरसे भीमने भी अपने बाणोंकी वरसा' शुरू की और वातकी वातमें ही उसने जालंधर के सारथीको मार गिराया । वाद रण- रंगका ज्ञाता भीम उछल कर उसके रथ पर जा झपटा और साहसके साथ उसने जालंधर महीपतिको बाँध कर विराटको बंधन मुक्त कर दिया । यह देख शरोंकी मारसे जर्जरित हुई जालंधर की सारी सेना अपने प्राण लेकर भाग गई । इस प्रकार विराट तथा गोधनको स्वतंत्र कर भीमने आकर युधिष्ठि रके चरणोंमें प्रणाम किया । युधिष्ठिरने भी भीमकी पीठ थपथपा कर बड़ा सन्तोष प्रगट किया ।
उधर जालंधरके पकड़े जानेका समाचार ज्यों ही दुर्योधन के कानों तक पहुॅचा त्यों ही क्रोधमें आ, युद्धके लिए उद्यत हो वह सेना सहित विराट देशको चल पड़ा । और विराट नगरके पास आकर उस महायोद्धाने उत्तर
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. पाण्डव-पुराण। दिशाकी ओरवाले नगरके फाटक पर पड़ाव डाल दिया । और, वहाँ पर जो विराटका, श्रेष्ठ.गोकुल चरता फिरता था उस पर उसने अपना अधिकार जमा लिया। यह देख उत्तरकी ओरका पुर क्षोभ-मय हो गया। वहाँ सब जगह भयने अपना अड्डा जमा लिया। वहॉके सब लोग भयके मारे विह्वलसे हो गये। और चिन्ता-रूपी वन पातकी ताड़नासे शोकाकुल होकर वे मन-ही-मन सोचने लगे कि हम इस वक्त क्या करें, कहाँ जायें, एवं इस समय हमारी रक्षा कैसे हो। आखिर निराश होकर वे कहने लगे कि क्या करें हमारा कोई भी सहायक नहीं है । इसीका यह परिणाम है कि वैरीने हमारा साराका सारा ही गो-कुल छीन लिया है। यदि हमारा कोई सहायक होता तो ऐसा दृश्य कभी भी हमारे देखनेमें न आता । यह देख कर द्रोपदीने अर्जुनकी ओर उँगुली उठा कर उन लोगोंसे कहा कि देखो यह बड़े वीर हैं और रण-कलाके ज्ञाता विद्वान हैं । इन्होंने कई बार पार्थका सारथीपन किया है । तुम इनकी शरण लो। यह तुम्हारी रक्षा करेंगे।
द्रोपदीके वचनोंको सुन कर विराटके पुत्रने उस नटवरको एक महारथ दिया और आप स्वयं भी हाथी, घोड़े, रथोंकी सेना सहित नगरसे वाहिर निकला । और वाहिर आकर उसने ज्यों ही दुर्योधनकी असंख्य सेना पर दृष्टि डाली त्यों ही उस चंचल वुद्धिके देवता कूच कर गये और वह एक क्षणभरमें ही वहॉसे भाग-निकलनेका मार्ग देखने लगा। वह अर्जुनसे बोला कि मैं तो इस रणसे बिल्कुल ही सन्तुष्ट हो गया, मुझे अब युद्धकी इच्छा नहीं है । शत्रुकी सेना बड़ी प्रबल है । देखो, यह घोड़ोंकी सेना कितनी भारी और विकट है । मै तो इस प्राणहारी युद्धमें एक क्षण भी नहीं टिक सकता हूँ। इतना कह कर वह राजपुत्र चुप हो गया और किसी बातका उत्तर न देकर वह वहाँसे एक दम भाग खड़ा हुआ । उसे इस प्रकार भागते देख अर्जुनने उससे स्पष्ट शब्दोंमें यों कहा कि आप युद्धमें वैरियोंको पीठ देते हैं और अपने कुलको लजाते हैं ! तुम्हारे पुण्य-प्रतापसे अर्जुन जैसे वीरका सारथी मैं तुम्हें मिल गया फिर भी तुम कातर होते हो ! यह तुम जैसे क्षत्रियोंको उचित नहीं । युवराज ! डरो मत और मेरे साथ रणमें इन उद्धत शत्रुओंकी उद्धतताका इलाज करो । अर्जुनने उसे इस प्रकार यद्यपि बड़ा साहस दिलाया; परन्तु उसने न माना और युद्ध-स्थल छोड़ भागनेके लिए स्वयं अपना रथ वापिस फेर लिया । यह देख अर्जुनने फिर - कहा कि युवराज ! कायरोंकी भाँति डर कर भागो मत । मेरी बात सुनो । मैं वही प्रसिद्ध अर्जुन हूँ जिसका नाम सुन कर शत्रु कॉप उठते हैं। इसमें तनिक भी सन्देह
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om een mannana ww www ama woman na मत करो । अब स्थिर होइए और भयको हृदयसे निकाल कर शत्रु-समूहका शिर
छेदनेके लिए अपने समुत्कर शरोंको छोडना शुरू कीजिए । थोड़ी देरके लिए भला । मेरा बल ही तो देखो कि मैं क्षण भरमें ही दुर्योधनकी सेनाको कैसी भयभीत
और तितर बितर किये देता हूँ। अर्जुनके इन बचनोंको सुन कर भी अविश्वासी और भयभीत लोगोंने विश्वास नहीं किया कि यह 'वही अर्जुन है। वे इसी विचारमें उलझ रहे थे कि पार्थने घोड़ोंको चलानेमें तत्पर हुए विराट-पुत्रको अपना सारथी बना कर अति शीघ्रतासे रथको शत्रुकी ओर दौड़ाते हुए कहा कि युवराज ! तुम रणांगणमें शीघ्रतासे रथ चलाओ और मैं शरोंके तीक्ष्ण महारसे अभी शत्रुओंको धराशायी किये देता हूँ। मैं शत्रुओंका नाश कर, यश सम्पादन कर, जय-सम्पन्न हो, पुण्य सम्पत्ति लेकर ही अपने पुरको जाऊँगा।
इसके बाद अर्जुन वैरियोंसे यह कहता हुआ कि ठहरिए, स्थिर होइए, रथमें बैठ कर शत्रुकी ओर चला। इधर शत्रु-समूहको निरुत्तर करता हुआ महत्वशाली उत्तरकुमार भी बड़े वेगसे रथको चलाये लिये जा रहा था । पार्थके साहससे खुश होकर ज्वलन नाम देवने पार्थको नंदिघोष नाम एक समर्थशाली रथ भेंट किया । अर्जुन भी देवताधिष्ठित उस रथ पर सवार हो, उत्तरको सारथी बना शत्रु-समूहका नाश करनेके लिए युद्ध-स्थछमें आगे बढ़ा । उसको इस प्रकार निर्भयतासे आगे बढ़ता देख फर द्रोणचार्य अचम्भेमें पड गये और वह क्रूर स्वभाववाले उन धनुर्धर कौरवोंसे बोले कि कौरवो, अव भी कुछ नहीं गया, युद्धकी प्रतिज्ञाको छोड़ कर आप लोग सन्धि कर लीजिए, जिसमें कि आपको सुख हो । नहीं तो आप लोग ही बताइए कि इसमें कौन राजे ऐसे समर्थ हैं जो कि पार्थके तीक्ष्ण चाणोंको सह सकेंगे। क्या कहीं दावानलके जलते हुए कोई काठ बिना जला रह सकता है । मेरी तो यही सम्मति है कि अब आप लोगोंका कपट खुल गया है, अतः आप लोग कपट, गो-धन और युद्धकी प्रतिज्ञाको तो छोड़ कर और परस्परमें प्रीति करके अपने घरको चलिए । क्या आप लोगोंको खयाल नहीं है कि घरसे निकलते समय सैकडों खोटे अशुकन हुए थे, जिनसे सभी अकुशल ही अकुशल झलकता था । अतः युद्ध न छेड़ कर यही उचित समझ पड़ता है कि आप लोग सन्धि करके घर चलें । द्रोणके इन' वाक्योंको सुन कर दुर्योधनकी आँखें क्रोधसे लाल रक्तके जैसी हो गई । वह अपने भटोको बढ़ते हुए देख कर द्रोणसे बोला कि नय-नीति-विहीन द्रोण, तुम ऐसे विद्रोहके वचन कहते हो ! भला यह वैरियोंकी तारीफका अवसर है । जान पड़ता है कि तुम
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अभी तक क्षत्रियोंके स्वाभाविक मार्गसे परिचित नहीं हो। यदि यही बात हो तो सुनो, मेरे क्रोधके सामने पार्थ क्या वस्तु है और तुम सरीखे निर्बल मनवाले कायर, भला कर ही क्या सकते हैं ।
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उधर रथ पर सवार हुए कर्णने भीष्म पितामहसे कहा कि गुरुराज, क्या तुमने मुझ सरीखे बलीको भी रणमें किसीके द्वारा जीता गया देखा है । अव जरा मेरे पराक्रमको भी देखो कि मैं देखते देखते महाभागं अर्जुनको उत्तर- सहित कैसा छिन्न भिन्न किये देता हूँ, जिसमें कि पृथ्वी पर उसका नाम निशान भी न रहे। कर्णके इन वचनोंको सुन कर पितामहको बड़ा रोप आया और उन्हें बड़ा क्लेश हुआ । वे वाले कि कर्ण, पहले तुम यही बताओ कि पृथ्वी पर तुमने ऐसा भयंकर युद्ध कहीं देखा भी है ? सच करके मानों कि युद्धमें अर्जुनका बाल भी बॉका कर सकनेवाला संसारमें कोई पुरुष नहीं है । यदि वह रोषमें आ जायगा तोः सन्देह नहीं कि तुम सबको एक क्षण ही पृथ्वी पर सुला देगा । इसी बीचमें कूद करके शल्य वोल उठा कि तात, सच तो यह है कि यह जो हम सरीखे लज्जाशील पुरुषों में परस्पर युद्ध छिड़ा है, यह सब आपकी करामात है; और कोई भी इसमें कारण नहीं है । द्रोणाचार्यने देखा कि, दुर्योधनने उनकी बात नहीं मानी। तब वे तथा भीष्म पितामह उसकी सुशिक्षित हाथी, घोड़े, रथोंवाली सेना सहित उमड़ करके पार्थसे भिड़नेके लिए आगेको बढ़े। उधर से पार्थने अति शीघ्र ही गांगेयके पास दो बाण ऐसे छोड़े कि जिन पर उसका नाम लिखा हुआ था: । वाण जाकर गरियका पास पड़े । गांगेयने देख कर उन्हें बाँचा | उनमें लिखा था कि, "धनंजय, पितामहसे प्रार्थना करता है कि मैं नत होकर आपके चरण-कमलोंमें मस्तक झुकता हूँ। मैं हमेशा ही। आपकी सेवाके लिए तैयार रहता हूँ । हर्ष है कि आज तेरह वर्ष पूरे हो गये और भाग्यसे हमें फिर आपके चरणोंकी, सेवाका अवसर मिला । अब आगे मै शत्रु-समूहका विनाश कर अपनी वीरता से पृथ्वीको भोगूँगा ।" पितामहने, उस बाणको कौरवोंको दिखाया | देख कर वे क्षोभित हो उठे और उन्हें बड़ा भय हुआः ।
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। इसके बाद लक्ष्यवेधीपार्थने शत्रु दलको अपना लक्ष्य- बानाया और उसीके अनुसार शत्रुकी ओर उसने अपना स्थ भी चलाया। बाद वह दुर्योधनसे बोला कि अधम- दुर्योधन, तू अब मेरे मारे कहाँ जायगा 2. मैं तुझे, अत्र : यमालयका " अतिथि बिना बनाये- कभी न छोडूंगा। इसके साथ ही सहसा पार्थके स्थको अपनी ओरको आता देख कर सूर्ख और दुष्टचित्त दुर्योधन काँप उठा और बड़ा भयभीत हुआ ।
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૨૭ ___ इसी बीचमें पार्थके सामने कौरवोंकी सेना आ डटी और उसने अपने संख्यातीत वाणोंके द्वारा विराट-पुत्रको जर्जरित कर दिया । यह देख धनंजय आगकी नॉई जल उठा और उसने एक ऐसा बाण छोड़ा जिसकी ज्वालासे कौरवोंकी सारी सेना दावानलसे जलनेवाले वनकी भाँति जलने लगी। इसके बाद ही धनंजयने गांडीव धनुष उठा कर कौरवोंकी सेनाको ललकार कर कहा कि यदि तुममें कोई भट कुछ भी सामर्थ्य रखता हो तो वह आये और मेरे आगेसे दुर्योधनको जीता वचा ले जाये । पार्थ के इन वचनोंसे कर्ण क्रोधसे आगकी नॉई जल उठा और युद्धके लिए तैयार होकर अर्जुन पर टूट पड़ा । फिर क्या था, वे दोनों ही वीर आपसमें भिड़ गये और अपने पॉवोंके महारसे पृथ्वीको कम्पित करते हुए तथा हँसी भरे वाक्योंके द्वारा एक दूसरेकी हँसी उड़ाते हुए एक दूसरेको अपने अपने महान् तीक्ष्ण वाणों द्वारा अच्छादित करने लगे। वे परस्परमें कभी तो महान् प्रखर वाणोंकी वरसासे एक दूसरेके छोड़े हुए शरोंको छेदते और कभी विनों के समूह जैसे खगोंके द्वारा एक दूसरेका हनन करते । वे लड़ते हुए जो शब्द करते थे उससे ऐसा जान पड़ता था मानों घोड़े ही हींसते हैं । वे अपनी मारकाटसे पृथ्वीको चकचूर करते हुए हाथीके जैसे जाने जाते थे। वे सिंहकी भॉति ही जीवोंको मार रहे थे । अव और बढ़ा कर कहनेकी आवश्यकता नहीं । उन्होंने अपने संख्यातीत वाणोंके द्वारा सारेके सारे गगन-मंडलको ही पूर दिया था।
इसके बाद भी पार्थने वाणोंकी बरसा जारी रक्खी और मेघोंकी नॉई बाणोंसे आकाशको विल्कुल ही हॅक दिया । अर्जुनकी वीरता देख शत्रु-दल युद्ध-स्थलको छोड़ कर ऐसा भागा जैसे वायुके मारे मेघ भागते हैं । इसके बाद धनुषधारी अर्जुनने अपने शर-कौशलसे कर्णके धनुपकी डोरीको काट डाला
और वातकी वातमें ही उसके रथको भी सारथी-सहित नष्ट कर दिया । कर्ण तब रथ रहित हो गया । इसके बाद शत्रुओंको जीतनेकी इच्छासे दुर्योधनका छोटा भाई शत्रुजय, शत्रु-दलको वाण-प्रहारसे प्रच्छन्न करता हुआ सिंहके जैसा गर्न कर/पाय पर झपटा । उसको युद्ध-स्थलमें उतरा देख करके उससे अर्जुनने कहा कि बालक, जाओ, रणसे वापिस लौट जाओ। तुम व्यर्थ ही अपने माण क्यों गवाते हो? क्या कहीं बेचारा हिरण भी सिंहके पाँवके आघातको सह सकता है। या महान सर्प भी गरुड़के पक्षके महारको सह सकता हैं ! तुम अभी बालक हो, शक्ति-विहीन हो, असमर्थ हो, इस लिए तुम पर बाण छोड़नेको मै तैयार नहीं । अर्जुनकी इस गर्वोक्तिसे उसे बड़ा क्रोध आया । उसने अर्जुनके ऊपर
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- पाण्डव पुराण ।
irrrrrrrrrrmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm अत्यन्त तेजीके साथ एकदम पॉच वाण चलाये जो पार्थकी छातीसे टकरा कर वे-काम हो गिर पड़े। यह देख पार्थने उस पर दस वाण चलाये, जिनसे उसके माण पखेरू उड़ गये और वह धराशायी हो गया । शत्रुजयको मरा देख अर्जुनके : वाणोंको काटता हुआ भयानक युद्ध करनेवाला कर्णका छोटा भाई विकर्ण अर्जुन पर दौड़ पड़ा । फल यह हुआ कि अर्जुनने सारथीको मार कर उसका भी रथ नष्ट कर डाला । और जब वह असमर्थ हो गया तव अर्जुनने उसे भी वाणोंसे पूर दिया। . इसी बीचमे धनुष चढ़ाये हुए यमके जैसा एक वीभत्स नाम योद्धा कौरवोंकी सेनाको तितर वितर करता हुआ युद्ध-स्थलमें उत्तरा और उसने देखते देखते अपने एक ही वाणके द्वारा विकर्णका मस्तक धड़से जुदा कर दिया। तब एकदम विकर्णका चिल्लाना बन्द हुआ और वह यम-मन्दिरको प्रयाण कर गया । विकर्णको धराशायी होता देख कर कौरवोंकी सारी सेना उसी वक्त पार्थ पर टूट पड़ी। परन्तु वह पार्थका वाल भी वॉका न कर सकी । पार्यने उसे उसी दम आगे बढ़नेसे रोक दिया । यह देख उधरसे कर्णने सेनाको भागनेसे रोका और उसे नष्ट करनेको उद्यत हुए पार्थको ललकारा । फिर क्या था, अर्जुन भी कर्ण पर वाणोंकी वरसा करने लगा और कर्ण उसके वाणोंको व्यर्थ करनेकी चेष्टा करने लगा । अन्तमें कर्णने एक साथ चलाये हुए तीन बाणों के द्वारा धनंजयको, उसके सारथीको, रथको और उसकी धुजाको वेध दिया। यह देख धनंजयको बड़ा क्रोध आया और उसने थोड़ी ही देरमें अपने वाणोंकी मारसे कर्णको धराशायी कर दिया, जिससे उसे मूी आ गई। वह वे होश हो गया। उसी वक्त कौरवोंने कर्णको रथमें बैठा कर युद्धस्थलसे बाहिर किया
और वे उसका उपचार करने लगे। इधर क्रोधसे अन्धा हुआ दुःसाध्य दुःशासन युद्ध-स्थलमें कूद पड़ा और उसने यह कह कर अर्जुनके हृदय में एक बाण मारा कि यदि ताकत हो तो तू मेरे चाणोंको सह देख । उसके वाणके लगते ही धनंजयको भी बड़ा क्रोध आया और उसने उसके ऊपर एकदम पञ्चीस बाण चलाये, जिनसे उसे एक क्षणमें ही अधमरा सा हो जाना पड़ा । इसके बाद
और और राजा भी जो पार्थके आगे आये, उन्हें भी उसने मार गिराया और दिगीशोंको उनकी बलि चढ़ा दी । अन्तमें इस प्रकार सब शत्रुओं पर विजय पाकर अर्जुन बड़ा कृतार्थ हुआ और उस शत्रु-समूहके विध्वंसकके सारे मनारय सिद्ध हुए।
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उन्नीसवाँ अध्याय । ___इसके बाद अति शीघ्रतासे पार्थके साथ युद्ध करनेके लिए पितामह युद्धस्थलमें उतरे और उन्होंने पार्थको भीषण ध्वनिके द्वारा ललकारा । तब पार्थने , तीन प्रदक्षिणा दे, नमस्कार कर उनसे नन शब्दोंमें कहा कि पूज्यपाद, वनमें घूमते हुए हम लोग तेरह साल विता कर बड़े पुण्ययोगसे फिर भी आपके चरणोंमें आये हैं । अतः प्रभो, अव आप धनुषको रख दीजिए और धीरजकी शरण लीजिए, जिससे इन आपके सेवकोंका राज्य हो जाय । परन्तु पितामह गांगेयने अर्जुनकी वात पर कुछ भी ध्यान न दिया और रोपमें आकर अर्जुनके ऊपर उन्होंने एक साथ सोलह वाण छोड़ दिये । तब उधरसे अर्जुनने भी बाण-महार शुरू किया और गांगेयके रथको सारथी-सहित वेध दिया। यह देख मद-माते गांगेयके क्रोधका कुछ ठिकाना न रहा । फिर दोनोंमें वाणोंकी तीन मारके द्वारा महान् भीषण युद्ध होने लगा । युद्ध करते करते जब वे सामान्य वाणों के द्वारा एक दूसरे पर विजय न पा सके तब उन्होंने विशेष वाणोंका महार जारी किया । पहले ही पितामहने शत्रुकी सेनाका मोहन, उच्चाटन
और स्तंभन करनेवाले मोहन, उच्चाटन और स्तंभन नाम बाणोंको छोड़ा और ' उन सबको महाभाग पार्थने अपने कौशलसे व्यर्थ कर दिया।
इसके बाद पार्थने मन-ही-मन अनिदेवको याद किया। अर्जुनके याद करते ही वह देव पृथ्वी, वन और सेनाको भस्म करता हुआ आया और सर्वत्र अपना प्रभाव जमाने लगा। गांगेयने उसे पार्थका वाण समझ कर अपनी विद्याके वलसे छेद दिया । इस वक्त देवगण आकाशमें ठहरे हुए उन दोनोंका भीषण युद्ध देख रहे थे और उनके कला-कौशल्यकी तारीफ कर रहे थे । वलसे उद्धत हुए अर्जुनने गांगेयके उस पाणको भी छेद दिया जो कि उसने अर्जुनके अग्निवाणको छेदनेके लिए छोड़ा था । लेकिन अब तक उन दोनों से कोई भी हारा और जीता न था। इसके बाद अर्जुनने अपने एक प्रबल वाणके द्वारा पितामहका वाण छेदा ही था कि इसी बीचमें उन दोनोंके मध्यमें द्रोणाचार्य आ गये । शत्रुको कष्ट देनेवाले वे निरंकुश हाथीकी भाँति खड़े थे । अर्जुनने उनके चरणों में झुक कर बड़े भक्तिभावसे प्रणाम किया और उनसे वह बोला कि आप मेरे गुण-गरिष्ठ गुरु हैं, फिर हे नीति-नयके परम विद्वान् आप ही कहिए कि मैं आपहीका शिष्य हो कर थापके साथ कैसे युद्ध करूँ । अतः गुरुवर्य, आप अपने स्थानको जाइए । मैं आज वैरियोंको यम मन्दिरका अतिथि बनाऊँगा । यह सुन द्रोणने कहा कि पार्थ, तुम जल्दी तैयार हो और वरावर
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पाण्डव-पुराण।
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रोक टोक मेरे ऊपर प्रहार करो । इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है । द्रोणाचार्यके इन वचनोंसे डर कर पार्थने उनसे कहा कि गुरुवर्य, तब पहले आप ही पाण छोड़ें, पीछेसे यथाशक्ति मैं भी आपकी सेवा करूँगा और आपके पलको-देखूगा । इसके बाद अभिमानमें भूल कर वे दोनों गुरु-शिष्य आपसमें युद्ध करनेको उद्यत हुए । इस समयके इन दोनों के भीषण युद्धको आकाशमेसे - देवगण और नीचेसे दोनों पक्षकी सेनाके लोग देखते थे और देख कर बड़े
अचम्भेमें पड़ रहे थे । इसके बाद द्रोणने एक साथ वीस बाणोंको छोड़ कर सारे आकाशको ढंक दिया । उधरसे उद्धत पार्थने उन आते हुए वाणोंको आधे मार्ग में ही छेद डाला । तव क्रोधमें आ द्रोणने अर्जुनके ऊपर एकदम लाख-बाण छोड़े जिनको कि उसने, दो लाख वाणोंसे निवार दिया । यह देख जय-लक्ष्मी अर्जुन जैसे शुभंकर भव्य मूर्ति पर निछावर हो गई । इस प्रकार अर्जुनने अपने प्रखर वाणोंकी मारसे द्रोणाचार्यको युद्ध स्थलसे हटा दिया।
इसी बीचमें युद्धकी प्रतिज्ञा करता हुआ उधरसे द्रोणका पुत्र अश्वत्थामा युद्धस्थलमें आ उतरा । फिर क्या था, अर्जुन और वह दोनों महायोद्धा परस्पर भीषण सिंहके बच्चोंकी भाँति भीषण युद्ध करने लगे । इतनेहीमें बीभत्सने अश्वत्थामाके रथके दोनों घोड़ोंके छेद दिया, जिससे वे प्राणरहित हो कर पृथ्वी पर गिर पड़े। इधर अश्वत्थामाने भी अपने महावाणोंके द्वारा अर्जुनके गांडीव-धनुषकी डोरीको छेद दिया। परन्तु अर्जुनने धनुष पर उसी वक्त दूसरी डोरी चढ़ा कर अश्वत्थामाके हृदयमें कई ऐसे वाण मारे कि जिनसे वह अति शीघ्र बे-होश हो कर जमीन पर गिर पड़ा। इसके बाद उत्तर सारथीने अर्जुनसे कहा कि नाथ, अब मैं दुर्योधनकी ओरको रथ फेरता हूँ, अतः हे धनुधर, आप धनुष पर शर संधान कर अति शीघ्र ही इन शत्रुओंका कम तमाम कर दीजिए। इस पर अर्जुनने दुर्जेय शत्रुओंको अपनी ओर आकर्षित कर मर्मको नर्म करनेवाले वचनों द्वारा समझाया और साथ ही उस शौंडीरने अपने विषम-बाणोंके द्वारा आकाशको पूर दिया । यह देख राजबिन्दु पार्थ पर झपटा और उसने अपनी सेनाके द्वारा उसे चारों ओरसे घेर लिया । उस समय ऐसा जान पड़ता था मानों हाथियोंने सिंहको घेर लिया है । अर्जुन सिंह जैसा था और राजबिन्दुके सैनिक-गण हाथियों जैसे । लेकिन वह सेना अर्जुनका कुछ भी न कर सकी और है भी ऐसा ही कि क्या कहीं हाथी बहुतसे मिल कर भी एक सिंहका कुछ कर सकते है । राजविन्दुकी सारी सेनाको अकेले अर्जुनने ही
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उन्नीसवाँ अध्याय ।
तितर-बितर कर दिया; जैसे कि थोड़ीसी चायु भी बड़े बड़े मेघोंको तितर बितर
कर देती है । इसके बाद उस महावलीने लक्ष्य बॉध कर राजविन्दुके हाथी, घोड़े, ' रथ और धुजाओंको छेद कर सबको घराशायी कर दिया। यह सब मार काट देख
अर्जुन वड़ा विपन्न हुआ और उसने अन्तमें सोचा कि इस युद्ध में मैं किस किस राजाको मा; किस किसके प्राण लूं। हिंसा करनेसे तो बड़ा पाप होता है, अतः किसीको भी मारना उचित नहीं । यह सब सोच-विचार कर हिंसा दूर करनेके लिए धनंजयने मोहन-बाण छोड़ा और उन्हें ऐसा वे-सुध कर दिया मानों उन्होंने धतूरेका फल ही खा लिया है । वे उसके नशेसे वेसुध हो गये सबके सब राजा मुर्देके जैसे पृथ्वी पर गिर पड़े।
इस प्रकार शत्रुओं पर विजय पाकर और उनके छत्र-धुजा, हाथी-घोड़े, स्थ-महारथ वगैरह पाकर अर्जुन वड़ा सन्तुष्ट हुआ।
इसके बाद विराटने उसी वक्त नौवते झड़वाई और असंख्य वीरोंके साथ पार्यका बड़ा भारी आदर और अपूर्व उत्सव किया । इसी समय हर्षित-चित्त , और शिष्टों द्वारा सेवित निर्भय युधिष्ठिरने उधरसे गो-कुलको भी छुड़ा लिया।
इसके बाद किसी तरह जब कौरव होशमें आये तव वे बड़े लजित और निर्मद हो दीनकी भॉति अपने पुरको चले गये।
इधर जब विराटको यह निश्चय हो गया कि ये पांचों ही वास्तवमें पांडव हैं तब हाथ जोड़, नमस्कार कर उसने युधिष्ठिरसे कहा कि देव, इतने समय तक मैंने आपको जाना नहीं था कि आप ही धर्मपुत्र है । अत: आप मेरे अपराधोंको क्षमा करें । प्रभो, अवसे इस राज्यके आप ही स्वामी हैं और मैं आपका किंकर हूँ। अतः आप बन्धुवर्ग सहित यहीं राज्य कीजिए । इसके बाद विराट गोकुलको बाड़ेमें वन्द करवा कर आप स्वयं पांडवों-सहित बड़े भारी उत्सवके साथ नगरमें आया । विराटने युधिष्ठिर आदिसे बड़े विनय-पूर्वक वहीं रहनेके लिए प्रार्थना की और पार्थसे इच्छा प्रकट की कि वह उसकी पुत्रीके साथ विवाह करे । वह बोला कि धनंजय, मेरी भोग-योग्य और सब तरहसे कृतार्थ एक पुत्री है । वह रूप-सौन्दर्यकी सीमा है । पहले जरासंधके पुत्रने मुझसे उसके लिए बहुत बार प्रार्थना की थी; परन्तु मैने उसे नहीं दी। इस लिए हे पार्थ, आप उसका पाणिग्रहण कीजिए । इस पर पार्थने कहा कि महाराज, सुभद्राके गर्भसे उत्पन्न' हुआ अभिमन्यु नाम मेरा एक पुत्र है । आप अपनी
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पाण्डव-पुराण |
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सुंदरी कन्याको उसे दीजिए । अर्जुनको इस कहनेको स्वीकार कर विराटने विवाह-मंगलोंके द्वारा बड़े भारी ठाट-बाटके साथ अभिमन्युके साथ अपनी कन्याका विवाह कर दिया ।
इसके बाद पांडवों का यह सब हाल जब द्वारिकामें पहुँचा तव वहाँसे बलभद्र, नारायण, प्रद्युम्न, भानु आदि विराट नगरमें आये । तेजस्वी धृष्टार्जुन और अखंड सत्ताशाली महाभाग शिखंडी भी आया । इसी भाँति रूप-सौन्दर्य से सुशोभित, आनंद के भरे, सैकड़ों मनोरथोंको चित्तमें रख कर और और राजा भी आये । विवाहके बाद भी पांडव और राजा लोग कितने ही दिन वहाँ और रहे। इसके बाद वस्त्राभूषण आदिके द्वारा सम्मानित हो वे अपनी अपनी राजधानीको चले गये । सबको विदा कर नारायण और बलभद्र आदि राजा लोग तीन अक्षौहिनी सेना लेकर प्रीतिके साथ, पांडवों सहित वहाँसे रवाना हो द्वारिकामें आ गये और वहाँ वे परस्पर बड़ी प्रीतिसे रहते हुए अपना समय बिताने लगे ।
इसी समय श्रेणिकने गौतम भगवानसे पूछा कि भगवन, अक्षौहिणीका प्रमाण कितना होता है ? गौतमने उत्तर दिया कि २१७८० हाथी, इतने ही रथ, ६५६१० घोड़े, १०९३५० प्यादे योद्धा इन सबको मिला एक अक्षौहिणी होती है।
द्वारिकापुरी में रहते हुए अर्जुनने एक दिन नीतिसे बृहस्पतिको भी जीतनेवाले कृष्णसे कहा कि कौरवोंने छलसे हमें लाखके महल में रक्खा और बाद उन शठोंने उसमें आग लगा दी । पुण्यसे हम लोग उस समय बाल बाल बच गये । इसके सिवा उन. दुष्टोंने एक बड़ा भारी अपराध यह किया है कि द्रोपदीकी चोटी पकड़ कर उसे बलात् घर बाहर किया और उसका घोर अपमान किया । अर्जुनके वचनों को सुन कर महामना नारायण दाँतों तले जीभ दवा कर बोले पार्थ, दुर्योधनने यह सचमुच ही बड़ा अन्याय और बहुत ही क्षुद्रता की है यह दुष्ट न तो बन्धुवर्गको चाहता है और न इसमें कुछ कुलीनता ही है । इसी कारण संसार में इसका इतना अपयश फैल रहा है, जिसकी कोई सीमा नहीं । कौरवोंके दुराचारोंको पृथ्वी पर ऐसा कोई नहीं जो सह सके । पांडवोंके साथ इस विषय पर खूब विचार कर नारायणने अपना कर्तव्य निश्चित किया और फिर दुर्योधनके पास एक दूत भेजा । दूत थोड़े ही समय में हस्तिनापुर
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पहुंच कर उसने दुर्योधनको नमस्कार किया और नीतिके साथ वह बोला कि " महाराज, मैं द्वारिकासे आया हूँ । मैं एक निपूण दूत हूँ। राजन, पृथ्वी पर ऐसा कोई नहीं जो पांडवोंको जीत सके । फिर व्यर्थ ही आप अपने कुलका उच्छेद क्यों करते हैं । देखिए नारायण, संसार भरमें विकट विराट, द्रुपद, सब विघ्नोंको दूर करनेवाला प्रलंवन, सब प्रकार योग्य दाह-गण तथा प्रद्युम्र आदि सब राजा पांडवोंकी पक्षमें हैं। उनकी सहायताके लिए तत्पर हैं । फिर युद्ध में उनके सामने आप एक क्षण भी कैसे ठहर सकते है । इस लिए राजन्, अव आप मान छोड़ कर उनके साथ कपट रहित सन्धि कर लीजिए और आपसमें आधी आधी पृथ्वीको बॉट कर दोनों महाभाग अपने अपने हिस्सेका उपभोग कीजिए। और सच पूछो तो इसीमें आपकी भलाई है । " दूतके इन वचनोंको सुन कर दुर्योधनने विदुरसे कहा कि तात, वताइए, इस समय क्या किया जाये । वह कौनसा उपाय है जिससे हम पूरे राज्यको भोग सके । यह सुन विदुरने कहा कि भाई, जीवोंको सुख धर्मसे मिलता है और राज्य भी निरंकुश इसीसे होता है । वह धर्म और कोई वाहिरी चीज नहीं, किन्तु आत्माकी विशुद्धि है । एवं आत्म-विशुद्धि मन-वचन-कायकी सरलताको कहते हैं । अथवा क्रोध, लोभ और गर्वके त्यागको धर्म कहते हैं । इस लिए तुम क्रोध आदि छोड़ कर अपनी बुद्धिको धर्ममें लगाओ। यदि तुम निर्मल यश चाहते हो तो वत्स, अपने आप ही पांडवोंको बुला कर विनयके साथ उन्हें आधा राज्य बॉट दो । यह सुन दुर्योधनको वड़ा क्रोध आया । उसका हृदय गर्वसे भर आया, चेहरा लाल हो उठा। वह विदुरसे बोला कि मैं हमेशासे आपकी इतनी भक्ति करता आ रहा हूँ कि जिसका कोई ठिकाना नहीं, परन्तु आप इतने कोर है जो पांडवोंका ही गौरव और राज्य चाहते हैं और हमें उससे वंचित रखना चाहते हैं !
इसके बाद उसने अपमान भरे वचन कह कर दूतको भी सभासे निकाल दिया । अपमानके साथ द्वारिका आकर उस कुशल दूतने पांडवों और यादवोंको प्रणाम कर उनसे दुर्योधनका सब हाल कह सुनाया । वह बोला कि राजन्, कौरव बड़े दुष्ट और पापी हैं । उनका स्वभाव बिल्कुल ही क्षुद्र है । वे संघि करना नहीं चाहते । और न वे आए लोगोंसे सन्तुष्ट ही हैं । यह सुन मिष्टभाषी युधिष्ठिरने कहा कि जो हो, हम तो नीतिका पालन कर अपयशसे वरी हो गये।
और अनीति न हो इसी लिए हमने तुम्हें भी भेजा । इसके बाद ही पांडव यादवों सहित कौरवों पर चढ़ाई करनेकी तैयारीमें लग गये ।
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पाण्डव-पुराण। इस अध्यायमें यह बात कही गई कि पांडव सोरी पृथ्वी पर घूम कर गुप्त वेष नाना भटोंसे परिपूर्ण विराट नगरमें आये । वहाँ उन्होंने दुर्जेय कौरवोंको युद्धमें पराजित किया और जन-समूहको आनंद देनेवाले गो-कुलकी उनसे रक्षा . कर पुण्य-योगसे वे 'जयी हुए।
और ठीक ही है कि 'धर्मसे ही वैरी नष्ट होते हैं, वन्धुओंका समागम होता है, सुन्दर शरीर मिलता है, मनको मुग्ध करनेवाली सुंदर स्त्रियाँ और सुख मिलता है, कोमल शरीर और कला-विज्ञान प्राप्त होते हैं, पुत्र पौत्र आदि सम्पत्ति प्राप्त होती है । और बढ़ा कर कहाँ तक कहें जीवोंकी मोक्ष लक्ष्मीसे भेंट भी यही धर्म कराता है । इस लिए समझदार लोगोंको सदा धर्मका सेवन करते रहना चाहिए।
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वीसवाँ अध्याय ।
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बीसवाँ अध्याय |
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उन अनंतनाथ भगवानको प्रणाम है जो अनंत संसार-समुद्र से पार उतरने के लिए सेतु हैं और जो अनंत गुणोंके भंडार हैं । वे मुझे भी अनन्त चतुष्टयका दान दें |
इसके वाद विदुरने विरक्त हो सांसारिक सुखको क्षणभंगुर समझा । वैराग्यमें लीन हो वे सोचने लगे कि इस सम्पत्ति, प्रभुता और विषयजन्य सुखको धिक्कार है जिसके लिए पिता पुत्रको, पुत्र पिताको, मित्र मित्रको और बन्धु बन्धुको भी मार डालता है । ये कौरव अधर्मरूपी चांडालके सम्बन्धसे मलिन हो रहे हैं । अतः ये अवश्य ही युद्धमें अपने प्राण देंगे और इसी लिए अत्र मैं इन दुष्टोंका मुँह देखना नहीं चाहता । इस प्रकार विचार करके विज्ञानी विदुर कौरव राजोंसे कह कर वनको चले गये । वहाँ जाकर उन्होंने विपुलमना विश्वकीर्तिमुनिको प्रणाम कर उनसे धर्मका उपदेश सुना तथा सुनिधर्मकी दीक्षा ले ली | बाद परिग्रह रहित दिगम्बर मुनि हो परम तप तपते हुए वे विहार करने लगे ।
एक दिन एक पुरुष राज- मन्दिर पुरमें आया और उसने जरासंघको रत्न-समूह भेंट कर प्रणाम किया । जरासंघने उससे पूछा कि तुम कहाँ से आये हो । उत्तर में वह बोला कि राजन्, मैं आपके दर्शनोंकी इच्छासे द्वारिकासे यहाँ आया हूँ | जरासंध पुनः पूछा कि वहाँका राजा कौन है । उस आगन्तुकने कहा कि नेमि प्रभुके साथ-साथ कृष्ण नारायण वहाँका राज्य करते हैं । वहाँ यादवका निवास सुन कर जरासंध के क्रोधका पारा एकदम चढ़ गया । वह असमयमै क्षुभित होनेवाले मलय कालकी भाँति अपनी सेना द्वारा समुद्रको क्षोभित करता हुआ द्वारिकाको चल पड़ा ।
उधर बिना कारण ही इस युद्धको छिडता देख कर नारदको बड़ी मसनता हुई और उन्होंने वैरियोंका विध्वंस करनेवाले जरासंध के महान क्षोभका हाल आकर कृष्ण से कहा । तब कृष्ण नेमिप्रभुके पास आये और उन्होंने शत्रुके क्षयसे होनेवाली अपनी विजयके वाचत उनसे पूछा । उत्तर में इन्द्रों द्वारा सेवित प्रभु कुछ न कह कर कुछ मुसक्या गये । प्रभुके इस मंदस्मितसे अपनी विजय निश्चय कर कृष्ण युद्धके लिए तैयार हुए । उनके साथ ही यादवों के अन्य
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पाण्डव-पुराण । बहुतसे राजा शत्रुका ध्वंस करनेके लिए बंद्ध परिकर होकर युद्ध-स्थलमें उतरनेको चल पडे । वह राजे बलदेव, नारायण, जयशील समुद्र-विजय, वसुदेव, अनावृष्टि, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, प्रद्युम्न, धृष्टद्युम्न, सत्यक, जय, भूरिश्रत्र, भूप, सहदेव, * सारण, हिरण्यगर्भ, शंव, अक्षोभ्य, विद्भरथ, भोज, सिंधुपति, वज्र, द्रुपद, पौंड्भूपति, नारद, नकुल, दृष्टि, कपिल, क्षेमधूर्तक, महानेमि, पद्मरथ, अक्रूर, निषध, दुर्मुख, उन्मुख, कृतवर्मा, विराट, चारु, कृष्णक, विजय, यवन, भानु, शिखंडी, सोमदत्तक और वाह्रीक आदि थे।
उधर जरासंधका भेजा हुआ दूत दुर्योधन के पास गया और उसने दुर्योंधनको प्रणाम कर उससे जरासंधके उद्देश्यको कह सुनाया। उसने कहा कि जिस बलीने दुर्द्धर विद्वान् और जरासंधके दामाद कंशका ध्वंस किया, जिसने अपने मुष्टि प्रहारसे चाणूरको चूर डाला और गोवर्द्धन नाम पहाड़को उठा लिया वह सॉपोंका मर्दन करनेवाला, प्रजाका सुरक्षा और महान् वक्षःस्थलबाला गोपालकृष्ण-संसार भरमें विख्यात है। उसे सब जानते हैं । और जो यादव युद्धमें भाग कर आग जल गये थे, सुना जाता है कि वे सब जीते हैं और पच्छमकी - ओरवाले समुद्र में रहते हैं । यह सब हाल बहुतसे रत्न वगैरह भेंट देकर वहींसे आये हुए एक वैश्यने जरासंध चक्रवर्तीसे कहा है । उसने कहा है कि द्वारिकामे यादवोंका बड़ा भारी राज्य है और वहाँ उनका पूरा पूरा वैभव है । उसके मुंहसे यादवों और पांडवोंको द्वारिकामें रहते हुए सुन कर जरासंधको वड़ा क्रोध आया। उसने नृपोंके पास दूत भेज कर सब राजोंको चुलाया । उनके निमंत्रणसे सब राजे सज्ज होकर वहाँ इकट्ठे हो गये हैं। अतः हे दुर्योधन महाराज, आपको बुलानेके लिए भी चक्रवर्तीने मुझे आपके पास भेजा है । इस लिए विभो, आप चलनेको तैयारी कीजिए । स्वामिन् , चक्रवर्तीने यह संदेशा भेजा है कि यशस्वी वत्स, वीरोंसे युक्त, इष्टको साधनेवाली अपनी सव सेना लेकर अति शीघ्र ही आइए । दूतके हाथ जरासंधके इस संदेशेको पाकर आनन्दके मारे दुर्योधनके रोमाञ्च हो आये । खुशीमें आकर उसने वस्त्राभूषण और धन देकर दूतका खूब आदर किया। वह मन-ही-मन सोचने लगा कि जिस बातको में पहलेसे ही चाहता था, उसीको चक्रवर्ती कर रहे हैं यह बहुत ही अच्छा हुआ।
इसके बाद वीर दुर्योधनने उसी समय रणभेरी वजवाई। जिसे सुन कर रणकी लालसा रखनेवाले वीर योद्धा बड़े प्रसन्न हुए । वे सब सेनाको सजा
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कर चले | उनके साथ झूलोंसे प्रच्छन्न मतवाले हाथी चले । सारथियोंके द्वारा तेजी से चलाये गये शीघ्रगामी घोड़ोंवाले रथ चले । चलते हिलते हुए किसवार - वाले चंचल घोड़े चले | हाथोंमें भाँति भाँतिके हथियार लिये हुए पयाद चले | इस प्रकार चतुरंग सेना सहित घोड़ोंकी टापोंसे उड़ती हुई धूलसे आकाशको ढकता हुआ दुर्योधन राज-मन्दिर पुरकी ओर चला और जैसे गंगाका प्रवाह समुद्र में जाकर मिलता है वैसे ही वह कौरवाग्रणी वाहिनी - सेना - सहित चक्रवर्ती जगसंघकी सेनामें आकर मिल गया । जरासघने उसका कर्ण-सहित वडा आदर किया जैसा कि लोग सूरज के साथ किरणोंको आदर करते हैं ।
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इसके बाद चकवर्तीने यादवोंके पास द्वारिकाको दूत भेजा । दूतने जाकर वहाँ यादवों को यह सूचना दी कि आप सब यादवों पर चक्रवर्ती जरासंध यह आज्ञा करते है कि अपने देशको छोड़ कर आप लोग इस समुद्रमें क्यों रहते हैं ? बुद्धिमान् समुद्रविजय और वसुदेव मुझे बहुत ही प्रिय हैं । फिर ये अपने आपको ठग कर यहाँ क्यों आ छिपे । इनके लिए ऐसी छिपनेकी बात ही क्या थी । अस्तु, अब भी कुछ गया नहीं है । वे अपने गर्वको छोड़ कर सब सुख देनेवाले मेरे चरणों की सेवा करें । दूतके मुँहसे जरासंघकी इस आज्ञाको सुन कर बलशाली वलभद्रने अभिमान के साथमें यों कहना आरम्भ किया कि दूत, जाओ और अपने महाराज से कह दो कि कृष्णको छोड़ करके और दूसरा चक्रवर्ती नहीं जिसके चरणोंकी सागर (समुद्रविजय ) सेवा करे ।
बलभद्रके इन वचनोंको सुन कर ओठ डसता हुआ दूत बोला कि मुझे यह तो बताइए कि जिसके भय से आप यहाँ समुद्रके वीचमें आ छिपे है उसके चरणोंकी सेवामें दोष ही क्या है । अस्तु, आपकी जैसी इच्छा । परन्तु आपके इस गर्वको कृष्ण नहीं सह सकता और वह क्रोध से तप्त होकर अभी यहीं आता है । उसके साथ में ग्यारह अक्षौहिणी सेना है । वह आपके गर्वको खर्व करेगा, आपको पदच्युत करेगा ।
दूतके ऐसे कठोर वचनों को सुन कर भीमको बड़ा क्रोध आया । वह प्रगट होकर बोला कि स्वतंत्रता से बकनेवाले इस दूतको यहाँसे अभी निकाल दो | यह सुन कर दूत क्रोधके मारे उसी समय वहाँसे चल दिया और जरासंधंके पास जाकर उसने उससे यादवोंकी गुजरी हुई सारी कहानी कह सुनाई । वह बोला कि देव, वे लोग मदिराके नशेकी भाँति मतवाले हो रहे हैं और " के
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पाण्डव-पुराण। भी नहीं समझते हैं । महाराज, वे पुण्यहीन पापी हैं और इसी लिए आपकी सेवा नहीं करना चाहते । दूतके वचनोंको सुन कर जरासंधको अत्यंत कोध आया
और युद्ध के लिए उचत हो उसने सव दिशाओंको बहिरा कर देनेवाली रण- . भेरी बजवा दी; युद्धकी घोषणा कर दी । उसकी घोषणाको सुन कर आकाश मार्गसे जाते हुए बहुतसे विद्याधरोंने आकर अपने विमानोंसे जरासंघको चारों
ओरसे घेर लिया। इस वक्त वह, ऐसा शोभता था जैसा कि किरणोंसे घिरा हुआ सूरज शोभता है । एवं कुमुद ( कुमुदपुष्प और पक्षमें पृथ्वी ) को विकशित करनेवाले चन्द्रमाके से बहुनसे भूमिगोचरी राजे आये । वे राजनीतिक अच्छे ज्ञाता और उसीके अनुसार चलनेवाले थे । गंभीराशय और सब प्रकार सुख-सम्पन्न थे। उनका सुयश सभी दिशाओंमें व्याप्त था । अत एव जैसे तारागणके द्वारा आकाशकी शोभा होती है वैसे ही उनके द्वारा राज-मन्दिरकी शोभा हो रही थी। इनके सिवा और भी बहुतसे वीर राजे उसके साथ हुए। वे द्रोण, भीष्म, कर्ण, रुक्मी, शल्य, अश्वत्थामा, जयद्रथ, कृप, अर्जुन, चित्र, कृष्णकर्म, रुधिर, इन्द्रसेन, हेमप्रभ, भूभुज, दुर्योधन, दुःशासन, दुमर्पण, कलिंग आदि थे। इत्यादि अनेक राजों महाराजोंके साथ अपने भारसे सारी पृथ्वीको पाता हुआ जरासंध राजा कुरु-क्षेत्रके युद्ध-स्थलमै जो उतरा ।
उसके वहाँ आनेके समाचार सुन कर जीवनसे निराश हो बहुतसे लोगोंने जाकर प्रभुकी पूजा की और गुरुके निकट जाकर अहिंसा आदि व्रत ले वे विरक्त हो गये । एवं बहुनोंने शस्त्र-ग्रहणके लिए उद्यत अपने अधीन सेवकोंको धन आदि देकर उनसे कहा कि प्रत्य-गण, अब शरीर-क्षाकी परवाइ मत करो; किन्तु हाथोंमें चमकती हुई तलवारें लो, धनुषोंको चढ़ाओ, हाथियोंको सजाओ, घोड़ों पर पलान वगैरह रक्खो और रथोंमें घोड़ोंको जोतो।
___ इसके बाद कृष्णका दूत कर्णके पास आया और उसे भक्तिभावसे नमस्कार कर बोला कि राजन् , नारायणका आपके लिए यह संदेश है कि राजन्, वही कीजिए जो आपको योग्य जान पड़े; परंतु मेरा तुमसे इतना ही कहना है कि कृष्ण थोड़े ही समयमें नियमसे चक्रवर्ती राजा बनेंगे। इसमें कुछ सन्देह नहीं है। क्योंकि जिन भगवान्का ऐसा ही कहना है और उनका कहा झूठ नहीं होता। अतः हे नप, तुम कुरुजांगल देशका राज्य ग्रहण करो और झगड़ेमें न फँसो । तुम पांडके पुत्र हो और कुन्तीसे तुम्हारा जन्म हुआ है । इस कारण पाँचों पाडिव
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बीसवाँ अध्याय।
wwmmwwwwwwwwwwwwwww तुम्हारे भाई हैं। यह सुन कर्णने उत्तरमें कहा कि दूत, मेरी बात सुनो । न्यायके कारण मुझे इस वक्त यहाँसे वहाँ जाना योग्य नहीं है । नीति यही है कि युद्ध छिड़ जाने पर राजा लोग न्यायको नहीं छोडते । और इसी तरह सुसेवित भूपको युद्ध-समयमें मृत्य-गण भी नहीं छोडते । और जो ऐसा करते हैं समझो कि वह अन्याय करते हैं । लोग उनकी निंदा करते है । हॉ, इतना मैं अवश्य करूँगा कि युद्ध बन्द हो जाने पर बलवान पांडवोंको कौरवोंसे राज्य नियमसे दिला दूंगा। इसमें तुम तनिक भी सन्देह मत करो। यह कह कर उसने दूतसे चले जानेके लिए कहा । दूत भी वहाँसे चल कर कौरवों-सहित बैठे हुए जरासंधक पास पहुंचा। वहाँ उसने जरासंधको नमस्कार कर यह कहा कि राजन् जरासंध, आप महाभाग यादवोंके साथ सन्धि कर लीजिए। नहीं तो जिनदेवकी यह सच्ची वाणी सुनिए कि "इस महायुद्धमें कृष्णके हाथसे आपकी मृत्यु होगी। पितामहकी मृत्यु शिखंडीके हाथसे होगी और धृष्टार्जुनके हाथसे द्रोणाचार्यकी मृत्यु होगी । इसके सिवा शल्यका युधिष्ठिरके हाथसे और दुर्योधनका भीमके हाथसे मरण होगा। और इसी प्रकार जयद्रथका अर्जुनके हाथ से और कुरु-पुत्रोंका अभिमन्यु कुमारके हाथसे वध होगा । इसमें तुम तनिक भी सन्देह न करो । क्योंकि भवितव्य ही ऐसा है"। यह कह कर दूत अति शीघ्र द्वारिका पहुंचा । वहाँ उसने कृष्णको प्रणाम कर कहा कि देव, जरासंघकी सुदारुण सेना कुरु-क्षेत्रमें पहुंच चुकी है और कर्ण किसी तरह भी यहाँ आना स्वीकार नहीं करता । वह युद्ध-स्थलमें उपस्थित है । देव, अब आपको भी कुरु-क्षेत्रमें पहुंच कर इस महायुद्धमें शत्रु-योद्धाओंके साथ घोर युद्ध करना होगा । इसके बाद ही रणभेरी दिलवा कर अपने पाँचजन्य शंखके नादसे आकाशको कॅपाता, हुआ कृष्ण कुरुक्षेत्रको चले । और जलको थल और थलको जल करती हुई उसकी सेनायें चलीं । जान पड़ता था मानों पृथ्वीके साथ-साथ नहरें ही बहती हुई चली जा रही हैं । इस समय सेनाके द्वारा उड़ी हुई धूलसे सारा आकाश ढक गया । सूरज कहीं दिखाई ही न देता था। कृष्णकी अनंत चतुरंग सेनासे सारा भूतल भर गया । बाजोंकी आवाजसे दिशायें शब्द-मय हो गई । सजे हुए दिग्गज चिंघाड़ने लगे । इस प्रकार अपनी सेनाको लेजा कर यादवोंने उसे कुरु-क्षेत्रके वाहिरी भागमें ठहराया।
इस वक्त जरासंध चक्रीकी सेनाको हारके सूचक बार बार बहुतसे अपशकुन हुए और इसी समय संसारको भय उत्पन्न करनेवाला आकाशमें
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पाण्डव-पुराण।
के मंत्री को देख कर दुर्योध्य मा हुए दुर्दर गीधरह कर बैठे
सूर्यग्रहण पड़ा । मेघने जल वरसा कर उसकी सारी सेनाको जलसे पूर्ण कर दिया । सेनाकी धुजाओं पर सूरजकी ओर मुंह कर बैठे हुए कौए वोले । छत्रोंके ऊपर क्रोधसे भरे हुए दुर्द्धर गीध पक्षी वैठे देख पड़े । इन : अपशकुनोंको देख कर दुर्योध्य दुर्योधनने अपने सुचतुर मंत्रीको बुला कर पूछा कि मंत्री महोदय, ये खोटे निमित्त क्यों देख पड़ रहे हैं । इस पर मंत्रीने कहा कि देखो, यह वह भयानक कुरुक्षेत्र है जो मछलीकी नॉई सयको निगल जायगा । अच्छी बात है, कह कर दुर्योधनने फिर पूछा कि मंत्री महाशय, मतलवकी बात बताइए कि शत्रुकी सेना कितनी है और युद्धके लिए उद्यत योद्धा कितने हैं । मंत्रीने कहा कि राजेन्द्र, वलशाली दक्षिणके जितने राजा हैं वे सव नारायणके सेवक हो चुके हैं । रणमें नष्ट होनेवाले बहुतसे राजोसे तो क्या हो सकता है, पर उनमें एक ही अर्जुन ऐसा है जो सबसे समझ लेगा। उसने पहले भी रणमें झूठ ही वीरताकी डींग हॉकनेवाले बहुतसे वीरोंको चूर डाला था । सच तो यह है कि विष्णुको कोई देवता या मनुष्य युद्धमें जीत नहीं सकता। आप जानते हैं हरिकी पक्षमें बलभद्र है, जो मूशल और हलोंकी मारसे वैरियोंके उदर फाड़ डालता है-उसके सामने कोई भी नहीं उठ सकता वह बड़ा दुर्धर है । और उस प्रद्युम्नको रणांगनमें कौन निवार सकता है जिसे कि शत्रुका विध्वंस करनेवाली प्रज्ञप्ति आदि विद्याऍ सिद्ध हैं । तथा उस पवित्र भीमको अपनी छाती परसे कौन हटा सकता है जो शत्रु-समूहको वातको बातमें ही धराशायी कर देता है । इस प्रकारके हरिकी सेनामें और भी बलशाली विद्याधर राजा हैं जो असंख्य हैं और महायुद्धमें इधरसे उधर घूमते हुए दिखाई दे रहे हैं । राजन्, शत्रुघातक विष्णुके पास सात अक्षौहिणी सेना है।
दुर्योधनने सव हाल जरासंघसे कहा; परंतु तब भी वह कुछ न चेता; और क्रोधमें भर कर उस मदांधने कहा कि ओह, गरुड़के सामने सॉप कितना , फण फटकारेगा | क्या सूरजकी किरणों के आगे अँधेरा कहीं ठहर सकता है ? वैसे ही ये राजा-गण मेरे सामने भी कैसे ठहर सकेंगे । यह कह कर तीन खंडका स्वामी प्रचंड आत्मा जरासंध कायरोंका खंडन करता हुआ अखंड और प्रचंड धनुषको हाथमें ले रण-स्थलकी ओर रवाना हुआ। फिर क्या था, बाजोंके शब्दोंके द्वारा दिशाओंको पूरते हुए और छत्रोंके द्वारा आकाशको ढंकते हुए राजा लोग भी युद्धके लिए उद्यत हो चले । इस वक्त सेनाके द्वारा
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उड़ी हुई धूलके द्वारा आकाश व्याप्त हो गया, छत्र और धुजाओंके मारे सुरजका प्रकाश रुक गया और रातसी जान पड़ने लगी । धूलके मारे सारा रणांगण अंधकारमय बन गया । इस समयके बाजोंके नादसे ऐसा जान पड़ता था मानों शब्द के बहाने से महायुद्ध सैनिकोंसे यही कहता है कि सैनिको, तुम लोग युद्ध-स्थल छोड़ कर जल्दी चले जाओ, नहीं तो तुम पर बड़ी भारी विपत्ति आनेवाली है ।
इसके बाद जरासंध ने अपनी सेनामें चक्रव्यूह रचा और कृष्णने अपनी सेनामें तार्क्ष्य व्यूहको रचा । उस समय उभय पक्षकी सेनाओंमें इतनी धूल उड़ी कि सब जगह घोर अन्धकार छा गया । जिससे सूरजके अस्तकी शंका से कौए घोंसलों में घुस गये और उल्लू पक्षी रात समझ कर अपने घू घृ शब्द के द्वारा भोंके स्वरोंकी नकल करते हुए दिनमें ही उड़ने लगे । थोड़ी देरमें दोनों सेनाओं का घोर युद्ध शुरू हो गया । इस रणमें सुभट-गण तलवारें निकाल निकाल कर सुभटोंको मारते थे और भालोंकी तीक्ष्ण नोकोंसे फलकी नॉई शत्रुओंके सिर छेदते थे । कोई मतवाले जोरकी गर्जना करते हुए अपनी गर्जनाके आघातसे ही शत्रुओं के हृदयों को भेदते थे; जैसे वायु मेघोंको भेदता है। कोई हाथियोंके कुम्भोको विदार कर उनके रक्तकी धारासे केसरकी भाँति दिशाओंको लाल करते थे । इस वक्त जरासंघकी सेनाने विष्णुकी सेनाको कुछ ठंडा कर दिया जैसे जलप्रवाह जलती हुई - आगको ठंडा कर देता है । यह देख अपनी सेना के योद्धाओंको धीरज देता हुआ शंबुकुमार युद्धके लिए उद्यत हुआ और उसने शत्रु दलके योद्धाओंको वीरतासे इधर उधर भगा दिया । तब शंबुकुमारके साथ युद्ध करनेको क्षेमविद्ध नाम एक विद्याधर उठा । शंबुने उसे बातकी बात में ही रथ - विहीन कर दिया | अपनी दुर्दशा देख वह उसी वक्त भाग गया । इसके वाद शंके साथ युद्ध करनेको एक दूसरा विद्याधर उठा और वह तलवारों द्वारा युद्ध करने लगा; परन्तु शंबुने उसे भी वारण कर भगा दिया ।
इसके बाद युद्धमें शत्रुओं को पछाड़ देनेवाला कालसंबर राजा बड़े साहस के साथ युद्धमें आया । यह देख सूरजकी भाँति दीप्तिशाली प्रद्युम्न शंबुको युद्ध करनेसे रोक कर स्वयं मेघ जैसे जल वर्षाते हैं वैसे ही शर-धाराको छोड़ता हुआ उसके सामने आया । उसने कालसंवरसे कहा कि प्रभो, आप मेरे पिता तुल्य हैं, इस लिए आपके साथ युद्ध करना मुझे उचित
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नहीं है, अतः आप लौट जाइए । उत्तरमें उसने कहा कि प्रद्युम्न यह न कहो, मैं क्षत्रिय हूँ वापिस नहीं लौट सकता । क्योंकि वे ही सचे सेवक कहाते हैं जो जी-जानसे स्वामीके कार्यमें काम आते हैं । इस लिए बीर, तुम कुछ ख्याल न करके धनुष संधान करो । अन्तमें लाचार हो प्रद्युम्नने प्रज्ञप्ति विद्याको छोड़ कर उसी समय कालसंवरको वॉध लिया और शत्रु-दलके योद्धाओं के साथ युद्ध करते हुए उसे अपने स्थमें बैठा लिया। यह देख शल्य विद्याधर प्रद्युम्नके साथ युद्ध करनेको उद्यत होकर आया । प्रद्युम्नने उसे आते ही अपने तीक्ष्ण बाणों के द्वारा उसके रथको छेद डाला । तव वह दूसरे रथ पर सवार होकर उसके साथ घोर संग्राम करने लगा। इसी वीचमें प्रधुम्न के साथ युद्ध करनेके लिए शिशुपाल राजाका छोटा भाई तैयार हुआ और उसने प्रबुन्न पर एक ऐसा वाण छोड़ा जिससे वह मूर्छित होकर वे-सुध हो गया। फिर क्या था, अवसर पाकर उसने शत्रुका ध्वंस करनेवाले वाणोंके द्वारा प्रद्युन्नका रथ भी तोड़ ताड़ डाला । यह देख प्रद्युम्नका सारथी बड़ा डरा और उसने भागना चाहा; परन्तु इसी समय प्रद्युम्नने होशमें आकर सारथीसे कहा कि यह क्या करने हो! युद्ध-स्थलसे भागनेका विचार भी किया तो देवतों मनुष्य, विद्याधर, पांडव, समुद्रविजय आदि यादवों और खास कर कृष्ण, बलभद्र के आगे बड़ा लज्जित होना पड़ेगासिर उठाना मुश्किल पड़ जायगा । फिर इस दुःखदायी और अशुचि शरीरसे बन ही क्या पड़ेगा और रसीले आहारसे पोपे गये इससे लाभ ही क्या होगा। यह कह कर शीघ्र है। प्रद्युम्न दूसरे रथ पर सवार हो युद्ध के लिए उठ खड़ा हुआ। फिर क्या था, वे दोनों ही युद्ध-कुशल योद्धा युद्ध करने लगे । उनको युद्ध करते देख कर कृष्णके मनमें भी कुछ लोभ पैदा हो उठा और वह उन दोनोंके वीचमें
आ गया । तब जरासंधकी पक्षका शल्य नाम विद्याधर यह कहता हुआ युद्ध-स्थलमै उतरा कि मैं इन उद्धत शत्रुओंको अपने बाण-प्रहारसे अभी धराशायी किये देता हूँ। ये अब जीवित नहीं रह सकते। इसके बाद उसने थोड़ी ही देरमें अपने बाणोंसे सारा आकाश ढेंक दिया और इसी कारण उस वक्त किसीको भी न नारायण देख पड़ता था और न उसका रथ तथा सारथी ही देख पड़ते थे। देख पड़ता था तो सिर्फ शरोंके बीचमें कृष्ण फँसा हुआ सा देख पड़ता था, उसके जीवितमें भी लोगोंको संशय होता था और यही उसके सारथीकी भी हालत थी।
- इसी बीच में वहाँ एक मनुष्य आया जो मायामय था, रुधिरसे जिसका शरीर लाल हो रहा था और जो थर-थर कॉप रहा था। उसने आकर
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बहुत से राजों से घिरे हुए कृष्ण से कहा कि कृष्ण, तुम व्यर्थ ही क्यों युद्ध करते हो । उधर जरासंधने पांडव, यादव और बलभद्रका काम तमाम कर दिया है । इतना ही नहीं, किन्तु उसने और और रणशौंडीरोंको भी कालके गाल में पहुँचा दिया है, तुम्हारी द्वारिका पुरी पर भी अधिकार जमा लिया है और द्वारिका में सुखासीन समुद्रविजयको भी रणका आतिथ्य देकर यमालयका अतिथि बना दिया है । फिर नाथ, आप भी यहॉ व्यर्थ अपने प्राण क्यों गवाते हैं ! अतः यदि आपको सुखी होनेकी वाञ्छा हो तो आप रण-स्थल छोड़ कर चले जाइए | उस माया-मय पुरुष के इस प्रकार के वाक्योंको सुन कर कृष्णको बढ़ा क्रोध आया । वह बोला कि दुष्ट, मेरे जीते रहते हुए ऐसी शक्ति किस पुरुषमें है जो यादवको यमालयका अतिथि बनाये ! कृष्णके ऐसे विकट वचनोंको सुन कर वह दुष्ट बुद्धि-माया-मय पुरुष उसी समय वहॉसे भाग गया । और कृष्ण हाथमें धनुष उठा कर शत्रुओंकी ओर चला। रास्तेमें कृष्णको एक निशाचर मिला, जिसे देख कर बड़ा भय लगता था। वह कृष्ण से वोला कि कृष्ण, तुम तो यहाँ युद्ध करते हो और उधर वसुदेव युद्धमें मारा गया है। उसके बिना सारे विद्याधर युद्धस्थल से चले जाने को तैयार हो रहे हैं । यह कह कर छलसे उसने कृष्ण पर वृक्षवाण छोड़ा, जिसको विष्णुने अग्नि-वाणके द्वारा उसी वक्त जला दिया। इसके बाद उस विद्याधरने पत्त्थरोंको गिरानेवाला क्ष्माभृत् वाण छोड़ा और हरिने उसे वज्रवाणसे वारण कर दिया । आखिर कृष्णके सामने वह विद्याधर न ठहर सका और भाग गया । यह देख उस वक्त नर, सुर आदि सबने कृष्णकी मुक्त कंठसे प्रशंसा की । इसी समय उस विद्याधरने आकर जो पहले निशाचरके रूपमें था, कृष्णको प्रणाम करके कहा कि नरेन्द्र, जब तक मैं इस विद्याधरके साथ युद्ध करता हूँ तब तक आप उधर जाकर अपने चक्र के द्वारा जरासिंधका सिर छेद डालिए और संसार में अपना यश विस्तृत कीजिए । व्यर्थ ही औरों को मारनेसे क्या होगा । यह सुन कर क्रोधमें आ कृष्णने कहा कि इस महायुद्ध में जब तक मैं इसे न जीत लूँगा तब तक कैसे तो जरासंघ जीता जायगा और कैसे पृथ्वी भोगी जा सकेगी । यह कह कर हरिने शल्य के साथ साथ उस विद्याधरको भी दो ट्रैक करके प्राण रहित कर दिया, जिससे कि वह उसी समय धराशायी हो गया । इसके साथ ही मधुसूदनके हाथमें जय लक्ष्मी आ गई और उसके सब विघ्न नष्ट हो गये । इस समय उसके ऊपर देवतोंने पुष्पोंकी बरसा की ।
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इसके बाद चक्रव्यूह भेदनेके लिए दृढ़-प्रतिज्ञ कृष्णने तीन शूरवीरोंको अपने साथमें लिये और जाकर थोड़े ही समयमें जरासंधका चक्रव्यूह भेद दिया; जैसे वज्र पहाड़को भेद डालता है । यह देख जरासंघको बड़ा क्रोध आया। उसने शत्रुका नाश करने के लिए दुर्योधन आदि तीन योद्धाओंको भेजा । तत्र दुर्योधनके साथ पार्थ, विरूप्यके साथ रथनेमि और हिरण्यनाभके साथ युधिष्ठिर उधरसे भी महायुद्ध करनेको उद्यत हुए | ये सब युद्ध-प्रवीण योद्धा हुंकार शब्द करते हुए परस्पर में युद्ध करने लगे । उन्होंने बहुत देर तक युद्ध किया और बहुतसे घोड़े, हाथी, और रथोंको चूर डाला | उनके उस वक्तके युद्धको देख कर शूरवीर तो युद्धको तैयार हुए और कायर भागने के लिए मार्ग सोधने लगे । यह देख नत्योद्यत नारद आदि देवगण बड़े हर्षित हुए । इस वक्त दुर्योधनने अर्जुनसे कहा कि पार्थ, उस वक्त तो आग में जलने से भाग्य से तुम बच गये ! अब व्यर्थ फिर अहंकार क्यों कर रहे हो । तुम्हें कुछ लज्जा नहीं आती जो सजे हुए मेरे सामने खड़े हो । यह सुन कर धनुष हाथमें ले, प्रलय कालके मेघोंकी भाँति गर्जते हुए उस विघ्न समूहको हरनेवाले वीर अर्जुनने धनुषका भयावना शब्द किया और फिर बातकी वातमें उसने शरोंसे दुर्योधनको पूर दिया तथा उसका धनुष भी छेद डाला । परन्तु इतने में ही उनके वीचमें जालंधर राजा आ गया और उसने पार्थके साथ अत्यन्त घोर, दुर्धर संग्राम किया ।
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इसके बाद रूप्यकुमार युद्ध-स्थल में उतरा और उसने पार्थसे कहा कि सुलक्षण, आप अन्याय पक्ष काहेको लेते हैं। देखो, यह विष्णु पर-कन्याका हरनेवाला बड़ा अन्यायी है । यह सुन पार्थने भयंकर चेहरा वना कर उससे कहा कि कुमार, अब तैयार हो, मैं तुम्हें न्याय और अन्याय सब यहीं बताये देता हूँ । यह कह कर धनंजयने एक क्षणमें ही विघ्न-रूप रूपय नाम विद्याधरको अपने शरोंकी भीषण मारसे छेद डाला । इस समय स्थिरतासे युद्धमें उठा हुआ युधिष्ठिर, उन्नतिशील अर्जुन और रथारूढ़ रथनेमि ये तीनों ही जयके लिए उद्यत हुए युद्ध-स्थलमें अपूर्व ही शोभा पाते थे। इसके बाद वे शीघ्र ही जरासंध के चक्रव्यूहको भेद कर, यशस्वी बन कर सज्जनोंको प्रसन्न करते हुए यादवोंके सैन्यमें आ गये ।
इसके बाद युधिष्ठिरने पुनः युद्ध आरम्भ किया और युद्धमें लहू-लुहान हुए जरासंध के हिरण्य नाम बड़े भारी वीर योद्धाको अनेक वीरोंके साथ यमपुर भेज दिया । उसका वध देख कर सुरजको भी बड़ा खेद हुआ और इसी लिए
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वह शोक-जनित श्रम दूर करनेको पच्छिम समुद्र में स्नान करनेकी मनसासे अति शीघ्र ही पच्छिमकी ओरको चला गया । तव रात हुई जान कर मरे हुए भटकी यथायोग्य व्यवस्था करके राजे लोग भी अपने अपने ढेरों पर आ गये ।
'इसके बाद जरासंध ने अपने मंत्र - कुशल मंत्रियोंसे कहा कि सेनापतिके पद पर अबकी बार और कोई ऐसा समर्थ पुरुष नियत करना चाहिए जो शत्रुओं पर दबाव डाल सके। यह सुन मंत्रियोंने सम्मति करके बड़े हर्ष के साथ सैनिक पद पर गेवकको स्थापित किया । इसी समय उधर दुर्योधनने पांडवोंके पास दूत भेज कर उनसे यह कहलवाया कि आज तक मैंने तुम लोगोंको जो जो दुःख दिये हैं उन्हें याद करके तुम लोग स्वयं ही अति शीघ्र युद्धके लिए क्यों नहीं आते । सच कहता हूँ कि मैं अब तुम लोगोंको जीता न छोडूंगा, चाहे लोग तुम्हारी और तुम्हारे शासनकी कितनी ही तारीफ क्यों न करें । यह सुन कर समर्थ पांडवोंने दूतसे कहा कि जाकर अपने स्वामीसे कह दो कि यम-पुर जानेके लिए अब वह तैयार हो जाये । हम जरासंधके साथ-साथ उसे भी यमालयका अतिथि बनावेंगे । यह सुन कर दूतने अति शीघ्र जाकर धार्तराष्ट्रों से वह सब हाल निवेदन किया । उसी समय मानों वह सब देखने के लिए ही सुरज उदयाचल पर उदित हुआ । तब भटको उत्साहित करनेके लिए प्रातःकालीन मंगल बाजे जे । सव योद्धा युद्धके लिए तैयार हो युद्ध-स्थल में पहुँचे । उन्हें देख रथ में बैठे हुए पार्थने अपने सारथी से कहा कि मुझे बताओ कि रथोंमें कौन कौन राजे हैं । सारथी उनके घोड़ों और धुजाओंको बताळाता हुआ बोला कि राजन्, देखिए तालकी धुजावाले रथमें बैठे हुए पितामह है । उनके रथमें काले घोडे जुते हुए हैं । यह लाल घोड़ोंवाला द्रोणका रथ है और उस बलीकी कलशकी धुजा है । नागकी धुजावाला और नीले घोडोंवाला धनुर्धर दुर्योधन है । पीले घोडोंवाला वह रथ दुःशासनका है, जिसमें कि जालकी धुजा लगी हुई है । वह सफेद घोडोंवाला अश्वत्थामाका रथ है । उस पर वानरकी धुजा फहराती है । वह लाल घोड़ोंवाला रथ जिस पर कि सीताकी धुजा है, शल्यका है । कोलकी धुजावाला और लाल घोड़ोंवाला वह रथ जयद्रथका है । इस प्रकार सब राजोंका परिचय प्राप्त कर अर्जुन युद्धके लिए उठा । उस समय हाथियोंकी घटाओंके साथ स्वामी के कार्यमें तत्पर योद्धा रण-साज सज कर युद्ध-स्थलमें आये । उधर अभिमानसे भरे हुए पितामह वहाँ आये । आते ही वह धीर-बुद्धि अपने धनुष पर डोरी चढ़ा कर अभिमन्युके ऊपर टूटे । अभिमन्युने एक क्षणमें ही अपने वाण
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द्वारा उनकी ध्वजाको छेद दिया । उसे देख यह जान पड़ता था मानों उसने पहले पहल कौरवोंके उन्नत महत्वको ही छेद दिया है । वाद इसके गांगेयने भी अपने वाणों द्वारा अभिमन्युकी धुजाको छेद डाला । तब अभिमन्युने उनके सारथीको वाणसे वेध कर पितामहके हाथों और धुजाको भी वेध दिया । यह देख विद्वानोंने उसकी बड़ी तारीफ की कि अभिमन्यु साक्षात् पार्थ ही है । यह बड़ा धीरज-धारी है और इसकी स्थिरता संसार-मसिद्ध है । इस एक ही वालकने सैकड़ो वरियोंको नष्ट किये हैं; जैसे निरंकुश हुआ एक ही हाथी सब नष्ट कर डालता है । इतनेहीमें पार्थके सारथी उत्तर कुमारने दूसरे रण-स्थलमें रणके लिए भाला, तलवार और धनुष लिये हुए शल्यको ललकारा । यह देख शल्यको बड़ा क्रोध आया। उसने उसे एक वाणहीमें मार गिराया। उस वक्त उसे युद्ध भूमिमें गिरा हुआ देख कर यह जान पड़ता था कि मानों पार्थका प्रचंड भुजदण्ड ही गिर पड़ा है । अपने बड़े भाईकी यह दशा देख कर विराटका दूसरा पुत्र श्वेतकुमार दौड़ा आया । और उसने उसी वक्त शल्यके धुजा-छत्र और अत्र वगैरह छेद कर उन्हें पृथ्वी पर गिरा दिये । इसी समय क्रोधसे जलते हुए पितापह दौड़े। उन्हें श्वेतने बहुत रोका । पर जब वह न रुके तब उसने उन्हें शरोंकी वर्षासे विल्कुल ही ढंक दिया । यहाँ तक कि वह देख ही न पड़ने लगे; जैसे मेघोंके द्वारा ढंक जाने पर सूरज नहीं देख पड़ता है । यह देख इसको मारो, छोड़ो मत, यह कहता हुआ दुर्योधन दौड़ा आया । परन्तु जैसे आगको जल वुझा देता है वैसे ही पार्थने उसे जहॉका तहाँ रोक दिया; आगे न बढ़ने दिया और गांडीव धनुष हाथमें लेकर उसने दुर्योधन पर एक साथ सैकड़ों बाण छोड़े। परंतु उससे दुर्योधनकी कुछ हानि न हुई । तब वे दोनों ही वीर भाला, तलवार आदिके द्वारा प्रहार करते हुए मदमत्त होकर परस्परमें भीषण युद्ध करने लगे । उधर इस महायुद्ध में युद्ध करते हुए उस विराट कुमार श्वेतने पितामहक धनुष, छत्र, धुजा आदि छेद दिये और उनके वक्षःस्थलमें तलवारका एक ऐसा आघात किया कि जिससे कौरवोंकी सारी सेनामें हाहाकार मच गया । इस वक्त देवतोंने आकाशसे दिव्य स्वरमें कहा पितामह, कायर मत हो, धीरजका शरण लो । हे वीर, इस महायुद्धमें वीरोंका संहार करो-घबड़ाओ मत ।
यह सुन कर पितामहने सावधान हो स्थिरतासे हथियार हाथमें उठाया और लक्ष्य वाँध कर श्वेत पर एक साथ सैकड़ों ही बाणोंको छोड़ा, जिससे वह
लगे। उधर इसम आदि छेद दिये आसारी
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धराशायी हो गया और जिन भगवानका स्मरण करते हुए मर कर स्वर्गमें देव हुआ।
__ इसी समय सूर्य अस्ताचलगामी हुए । रात हो गई । जान पड़ता था मानों रण बन्द करने और घायल मनुष्योंका पता लगानेके लिए दयादेवी ही आई है। उभय पक्षोंकी सेनायें अपने अपने डेरेको चली गई। रण बन्द हो गया। वाद जव घायलोंका पता लगाया गया तब जान पड़ा कि विराटके पुत्र श्वेतका देवलोक हो चुका है । यह सुन विराटको बड़ा दुःख हुआ । पुत्र-वियोगमें वह बड़ा विलाप करने लगा । हा पुत्र! युद्धमें तेरी किसीने भी रक्षा न की । हा धर्मात्मा धर्मपुत्र, क्या तुमने भी मेरे प्यारे पुत्रकी रक्षा न की । हे भीममूर्ति भीम तथा शत्रु-समूहके लिए अग्नि जैसे हे धनंजय, आपके देखते हुए मेरे पुत्रको वैरीने कैसे मार डाला! विराटकी वह दशा देख, क्रोधमें आकर बुद्धिमान युधिष्ठिरने दृढ़ प्रतिज्ञा की कि मैं आजसे सत्रहवें दिन तक शल्यको अवश्य ही मार डालूंगा । यदि न मार सका तो अपने मानको छोड़ कर आप लोगोंके देखते हुए ही आगमें कूद पढूंगा और अपनेको भस्म कर दूंगा। वैरियोंका विध्वंस करनेवाले शिखंडीने यह प्रतिज्ञा की कि मैं आजसे नौवें दिन पितामहको अवश्य ही धराशायी कर दूंगा । यदि नहीं करूँ तो मै भी अपने आपको आगमें होम दंगा। इसी तरह धृष्टद्युम्नने यह कहा कि मैं युद्धके लिए उद्यत हिरण्यनाम सेनापतिको अवश्य ही यमलोक दिखाऊँगा।
___ इसी समय अँधेरेको दूर करके योद्धा लोगोंका हाल देखनेके लिए ही मानों सूरजका उदय हुआ। फिर क्या था, दोनों ओरके वीरोंने फिर भयंकर युद्ध आरम्भ किया और वे महायुद्ध करके एक दूसरेके शरीरोंको छेदने लगे। एवं क्रोधमें भर कर हाथी हाथियों के साथ, रथ रथोंके साथ, घोड़े घोड़ोंके साथ, पयादे पयादोंके साथ युद्ध करनेको उद्यत हुए । इसी समय धनंजय वीर सुभटोंके ऊपर टूट पड़ा और उनको क्षणभरमें ही तितर-बितर कर डाला; जैसे सिंह मदोन्मत्त हाथियोंको तितर-बितर कर देता है । धनंजयकी विजय हुई । यह देख पितामहने असंख्य वाणोंके द्वारा अर्जुनको पूर कर आगे बढ़नेसे रोक दिया जैसे जलको नदीके किनारे रोक देते हैं । इस प्रकार अनंत बाणबरसा कर गांगेयने सारे आकाशको ही बाणोंसे भर दिया । यह देख पार्थने उन सब बाणोंको अपने एक बाणके द्वारा ही निष्फल कर दिया । और अपने
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पाण्डव-पुराण। घाणोंकी अविरल वर्षासे उसने हाथियोंकी सूड़ोंको, घोड़ोंके ऊँचे पाँचोंको
और रथोंके पहियोंको एकदम छेद डाला । इसके सिवा उस जयके अर्थीने मर्मकी भाँति शूरोंके कवच भी अपने दिव्य गांडीव धनुषके द्वारा छेद दिये।
यह देख कर पितामहकी निंदा करता हुआ दुर्योधन वोला कि तात, तुमने यह पराजयकारी युद्ध क्यों शुरू कर रक्खा है । इस तरह युद्ध करिए, जिससे अर्जुन युद्धमें ठहर ही न सके । भला, वैरीके आगे आ उपस्थित होने पर कौन ऐसा सुभट होगा जो आपकी भाँति निश्चित हुआ बैठा रहेगा। दुर्योधनकी यह मर्मभेदी वाणी सुन कर गांगेय पार्थके साथ युद्धके लिए फिर बड़ी वीरतासे उद्यत हुए । यह देख अर्जुनने उनसे कहा कि पितामह, आपका मेरे साथ युद्ध करना व्यर्थ है । मैं अभी आपको यमालय भेज कर इस युद्धको समाप्त किये देता हूँ।
इसके बाद ही वे दोनों सुभट बड़ी क्रूरतासे युद्ध करने लगे। इसी बीचमें द्रोण आकर धृष्टद्युम्न पर झपटे और उन्होंने महायुद्ध कर थोड़ी देरमें ही धृष्टघुम्नके रथकी धुजा हर ली । यह देख धृष्टार्जुनने द्रोणके, छत्र, धुजा आदिको हर लिया । तब शत्रुको दुःख देनेवाले द्रोणने धृष्टार्जुन पर शक्तिबाण छोड़ा, जिसको कि उस वीर धृष्टार्जुनने आधे क्षणमें ही छेद दिया।
___ यह देख धृष्टार्जुनने पितामहके ऊपर गदा चलाई और पितामहने उसे बीचमेंसे ही वारण कर दिया।
___ इसके बाद गदा वारण कर घाँये हाथमें ढाल और दाहिने हाथमें तलवार लेकर युद्धके लिए तैयार हो द्रोण आये । उधर हाथमें गदा लेकर भीम दौड़ा और उसने महोन्नत कलिंग-पुत्रको मार गिराया । एवं वलसे उद्धत होकर वह कौरवोंको त्रास देता, दिशाओंको कष्ट-मय बनाता और रणमें शत्रुओंको दलता क्रीड़ा करने लगा । उसने अपनी गदाके आघातसे वैरियोंके साथ-साथ सातसौ रथोंको भी चूर डाला और उनसे पृथ्वीके बिलोंको पूर दिया । इस प्रकार रणोद्धत बलवान भीमने अपनी गदाके बलसे एक हजार हाथियोंको चूर करके जय-लक्ष्मीको प्राप्त किया।
इसी बीचमें छेदन-कला-निपुण वीर द्रोणाचार्यने धृष्टार्जुनकी उज्ज्वल तलवारको छेद दिया; जैसे कुठार वृक्षको छेद देता है । उधर अभिमन्युने द्रोणका रथ छिन्न-भिन्न कर दिया । इतनेमें दुर्योधनका पुत्र सुलक्षण लक्ष्मण आ धमका
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बीसवाँ अध्याय। और उसने अभिमन्युके धनुषको तोड़ डाला । तब अभिमन्यु दूसरा धनुष लेकर शत्रुओंको हटाने लगा। उसे इस प्रकार असह्य देख एक साथ हजारों ही शत्रुओंने , आकर उस प्रौढ़मना और महावीर अभिमन्युको सव ओरसे घेर लिया । उस
समय ऐसा भान होता था मानों मतवाले बहुतसे हाथियोंने महान् पराक्रमी सिंहको हो घेर लिया है । तब हाथमें गांडीव धनुष उठा पार्थ आया और उसने सब शत्रुओंको वातकी वातमें ही तितर-बितर कर अपने वीर पुत्रको स्वतंत्र कर दिया; जैसे वायु मेघोंको तितर-बितर करके सूरजको स्वतंत्र कर देता है । इस प्रकार योद्धाओंका युद्ध होते होते जब नौवॉ दिन आया तव शिखंडीने युद्धके लिए गांगेयको ललकारा।
___ उस समय पार्थने शिखंडीसे कहा कि वैरियोंका ध्वंस करनेके लिए सर्वथा समर्थ मेरा यह वाण लो और तुम इसके द्वारा वैरियोंका ध्वंस करो । देखो, इसी वाणके द्वारा मैंने पहले खंड वनको दग्ध किया था, अतः तुम इसकी शक्तिमें कुछ सन्देह न करो। यह सुन कर वीर शिखंडीने उस बाणको ले लिया
और वैरियोंका ध्वंस करता हुआ वह यमकी नाई युद्धके लिए उठ खड़ा हुआ। गांगेय और शिखंडी दोनों ही वीर आपसमें भीषण युद्ध करने लगे । उन्हें युद्ध करते हुए बहुत समय बीत गया पर उनमेंसे किसीने भी किसीको जीत न पाया । इस वक्त इन दोनोंको सिंहकी नॉई भिड़ते हुए देख कर देवतोंने इनकी भूरि भूरि प्रशंसा की। यह देख बुद्धिमान् धृष्टद्युम्नने शिखंडीसे कहा कि शिखंडिन् , तुमने युद्ध तो बहुत किया है, पर अब तक भी गांगेय रणमें मेघकी नॉई गाज रहे हैं, उनका रथ भी वैसा ही अखंड है एवं पताका भी वैसी ही उड़ रही है । फिर तुम्हारे इस युद्धसे लाभ ही क्या हुआ । अतः अपने पराक्रमको वरावर काममें लाकर शत्रुका शीघ्र नाश करो । तुम निःसहाय नहीं हो, तुम्हारी पीठ पर शत्रुओंको पीस डालनेवाला पार्थ है और विराट भी इस महारणमें तुम्हारी सहाय कर रहा है । यह सुन शिखंडीको खूब जोश आया। उसने धनुप चढ़ा और एक साथ असंख्य बाणोंको छोड़ कर धनुर्धर दुर्द्धर पितामहको वाणोंसे पूर दिया; जैसे मेघ आकाशको पूर देते हैं । यह देख कौरवोंकी सेनाने भी शिखंडी पर खूब वाणोंकी वरसा की; परन्तु उसके बाण उसे न लगे, मानों वे उससे डरते थे । इसी समय वज जैसे कठोर मुँहवाले बाणों को धान भी छोड़ रहा था जो शत्रुओंके पक्ष-स्थलरूप पर्वतमें बजकी
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पाण्डव-पुराण। नॉई विषम घाव करते थे । उधरसे गांगेयके छोड़े हुए वाण आकर शिखंडीके हृदयमें फूलके जैसे लगते थे जिनसे कि उसे उल्टा सुख होता था । और है भी ठीक ही कि पुण्यके उदयसे कष्ट भी सुख रूप हो जाता है । पितामह इस समय जो जो धनुष हाथमें लेते थे उसे समुद्धत धृष्टद्युम्न वाणके द्वारा छेदता जाता था। सच है कि पुण्य क्षीण होने पर सब कुछ देखते देखते ही विला जाता है । चाहे धन हो, चाहे आयु हो, चाहे पुत्र-मित्र-कलत्र आदि हो, एवं चाहे सुख हो।
इसी समय शिखंडीने अपने वाणोंके द्वारा गांगेयका कवच भेद डाला; जैसे वरसा कालके मेघकी धारा वनोंको भेद डालती है। उसने थोड़ी ही देरमें उसके सारथी और रथकी धुजाको पृथ्वी पर गिरा दिया तथा स्थके दोनों घोड़ोंको वाणोंकी मारसे जर्जरित कर दिया। यह देख पितामह अकंप हो कर-रथ बिना ही-हायमें तलवार लेशिखंडीको छेद डालनेके लिए दौड़े। शिखंडीने अपने प्रखर वाणोंके द्वारा उनकी' तलवारको भी बेकाम कर दिया और उस हतात्माने उनके हृदयको भी वेध दिया।
इसके साथ ही वह पावन वीर घडामसे पृथ्वी पर गिर पड़े और अपने प्राणोंको निकलते देख उन्होंने संन्यास ले लिया । इस प्रकार धर्ममें लीन होकर उन्होंने परम धैर्यका सहारा लिया। उन्होंने अपने हृदयमें सु-परीक्षित वारह भावनाओंको धारण किया। पितामहकी यह हालत देख कर सव राजे युद्ध छोड़ कर उनके पास आ गये । पांडवों को उनकी दशासे बड़ा दुःख हुभा । वे उनके चरणोम प्रणाम कर ऑसू बहाते हुए बोले-हे गुणी, आपने जन्म भर वह ब्रह्मचर्य पाला है जो सब व्रतोंमें उत्तम है और जिसका पालना बड़ा कठोर है । इस व्रतके बराबर कठिन दूसरा कोई व्रत नहीं है । उस समय दुःखसे जर्जरित होकर युधिष्ठिरने कहा कि हे सुवतिन् , हे उन्नत-हृदय वीर, यह मौत हम लोगोंको क्यों नहीं आई, आपके इस दुःखको हम नहीं सह सकते। तब बाणोंसे जजेरित भीष्म पितामहने कौरवों और पांडवोंसे कहा कि हे भव्यो, अन्तमें मेरा आप लोगोंसे यही कहना है कि अब परस्परकी शत्रुता छोड़ कर आप लोग मैत्री कर ले
और इन बेचारोंको अभयदान दें । कहते दुःख होता है कि ये नौ दिन यो ही चले गये, किसीके हाथ कुछ नहीं लगा। हाँ, इतना जरूर हुआ कि युद्धमें जो लोग मरे हैं वे बिचारे निंद्य गतिमें गये होंगे । अस्तु, जो हो गया सो तो हो गया। अब आप लोग दस लक्षण धर्मको धारण करें। , .
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बीसवाँ अध्याय ।
इसी समय आकाश-मार्गसे वहाँ दो चरण मुनीश्वर आ गये। उनके नाम हंस और परमहंस थे। वे शुद्ध मनवाले थे, गुणोंके भंडार थे, उत्तम उत्तम तपोको तपते• वाले थे और उनके चरण-कमल आकाशमें चलनेसे कारण अतीव उज्ज्वल थे
धूलसे धूसरित न थे । वे महाभाग पितामहके पास जाकर बोले कि हे महा पुरुष, तुम बड़े वीर हो, वीरोंके शिरोमणि हो। इस पृथ्वी पर तुम्हारे जैसा दूसरा कोई वीर और धीर नहीं है । यह सुन कर अगणित गुणोंके पुंज और गंभीराशय पितामह उन दोनों मुनियोंको प्रणाम कर अपनी मधुर वाणीके द्वारा वोले कि प्रभो, इस संसार-रूप वनमें भटकते हुए मैने अब तक यह परम धर्म नहीं पाया । अव वताइए कि मैं क्या करूँ । महामुने, मैं अब आपकी शरण हूँ। मुझे आशा है कि मैं आपके प्रसादसे संसार पार कर सकूँगा । यह सुन मुनिराजने कहा कि हे भन्य, तुम सनातन सिद्धोंको नमस्कार कर चार आराधनाओंका आराधन करो । तत्वार्थ-श्रद्धानको दर्शन-आराधना कहते हैं और इसमें सम्यक्त्वकी आराधना की जाती है । आत्माके निश्चित ज्ञानको ज्ञान आराधना कहते हैं और इसमें जिनदेवकी कही हुई भावनाओंके मानकी आराधना होती है । चैतन्य-स्वरूपमें प्रवृत्ति करनेको चारित्र-आराधना कहते हैं और इसमें फर्मोंकी निवृत्ति और आत्मामें प्रवृत्तिकी आराधना की जाती है। और जो दो प्रकारका तप तपा जाता है, दो तरहका संयम लिया जाता है उसे तप-आराधना कहते हैं । इन सब आराधनाओंमें निश्चय और व्यवहारका सम्बन्ध लगा हुआ है । इस प्रकार आराधनाओंकी विधि बता कर वे महामुनि तो चले गये और इधर गुणी, बुद्धिमान् पितामहने आराधानाओंको धारण आराधना शुरू किया।
इसके बाद उन्होंने चार प्रकार आहार और शरीरसे ममता छोड़ कर तथा दर्शन-ज्ञान-चरित्रमें लीन हो सल्लेखना ग्रहण की; और सब जीवोंसे क्षमा
करा कर तथा सवको क्षमा करके पंच नमस्कार मंत्रको जपते जपते उन्होंने - अपनी जीवन-लीला समाप्त की । वह जाकर ब्रह्म नाम पाँचवें स्वर्गमें देव हुए, जहाँ कि भन्यजीव सदा आत्मासे उत्पन्न हुए सुखोंको भोगते हैं ।
इसके बाद जगत्की शून्यताको नित्य मानते हुए तेजस्वी कौरव और पांडव शोक सन्तप्त होकर खूब रोये । एवं और लोगोंने भी शोकसे वह रात
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पाण्डव-पुराण । विताई। बाद संवरा हुआ। सूरजका उदय हुआ । ऐसा जान पड़ा कि मानों सूरज पितामहका शोक मनानेके लिए ही आया है। ___अनंत मनुष्योंको धारण करनेवाले इस संसार-चक्रमें जीव मेघ-समूहकी । भाँति बिखर जाते हैं, लक्ष्मी विजलीकी नाँई चपल है, जीवन संध्याके रागकी प्रभाके समान चंचल है और स्वजन-सुत-सुख आदि जलकी कल्लोलोंकी भॉति विनश्वर हैं।
इस प्रकार सब बातोंको जान कर सच्चे श्रद्धानी लोगोंको चाहिए कि वे शुद्ध-धर्ममें बुद्धि लगावें।
जो शुभमति महान् ब्रह्मचारी पितामह युद्धमें धर्मकी प्रतिज्ञा कर और अपने आत्माको शान्त रख कर पाँचवें ब्रह्मस्वर्गको प्राप्त हुए उनकी जय हो।
और उन धर्मात्मा, धर्मके ज्ञाता, नय-कुशल युधिष्ठिरकी भी जय हो जो धर्मके बलसे शुभ नय-ज्ञानको प्राप्त हुए और जिन्होंने पापसे अपने आत्माको सुरक्षित रक्खा।
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ghatna अध्याय i
इकबीसवाँ अध्याय |
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उन धर्मनाथ प्रभुको नमस्कार है जो धर्मके उपदेशक हैं, धर्मयुक्त और धर्म - शाली हैं, जो अन्य जीवोंको भी धर्मात्मा बनाते हैं और धर्मराज ( यम ) को हरनेवाले हैं । वे मुझे भी धर्म- बुद्धि दें ।
सवेरा हुआ । भट-गण उठें और निर्दय हो मलय कालकी वायुसे क्षोभको प्राप्त हुए सागरकी भाँति क्षुब्ध होकर रणांगणमें पहुँचे । वे पृथ्वीमें रहनेवाले सॉपोको पददलित करते और दिशा-नाथोंको क्षुब्ध करते युद्धके लिए उद्यत हुए। उधरसे पार्थने मृत्युका आलिंगन करनेको हाथ बढ़ाये हुए भटों, घोड़ों और मतवाले हाथियोंको तितर-बितर करके उस युद्धका और भी विस्तार कर दिया । इसी समय महान् सुभट अभिमन्यु युद्धस्थल में आया और विश्वसेनके साथ युद्ध करनेको उद्यत हुआ । एवं हाथमें धनुष लेकर शत्रुओं को कंपित करनेवाले उस पार्थ- नन्दनने थोड़ी देर ही विश्वसेन के सारथीको घराशायी कर दिया । इतने में वैरियों के हृदयमें शल्यसा चुभने वाला और अपने रथको अपने आप ही चलाता हुआ शल्य-पुत्र अभिमन्यु के साथ युद्ध करनेके लिए आया । वे दोनों अपने अपने वाणोंकी वरसासे परस्परमें एक दूसरेको पूरने लगे । आखिर अभिमन्यु के शरोंके द्वारा शल्य- पुत्र ध्वस्त हो कालके गालमें चला गया । यह देख सुलक्षण लक्ष्मणने लक्ष्य वॉघ कर पार्थ- पुत्रको वज्रके जैसे तीव्र प्रहार करनेवाले वाणोंके द्वारा खूब पूर दिया । अभिमन्युने भी तव बाणोंको चलाना शुरू किया और लक्ष्मणको यमका अतिथि बना दिया । उसने रणमें स्थिर बने रह कर अपने माणाहारी वाणोंके द्वारा चौदह हजार और और कुमारौको भी मार गिराया । इस समय वह भद्र रण-क्रीड़ा करता हुआ और महान् महान् शत्रुओं को पृथ्वी की गोदमें लिटाता हुआ ऐसा शोभता था मानों हाथियों को तितर-बितर कर उनके मस्तकोंको विदार रहा पराक्रमी सिंह ही है ।
यह देख दुर्योधनको बड़ा क्रोध आया । उसका मन अत्यन्त क्षुब्ध हुआ । उसने मधुर मायाभरे शब्दों द्वारा उत्साह देते हुए अपने महान शूरोंकी ओर बड़ी आशासे देखा । उसके इस स्नेहसे कृतज्ञ हो वीरगण विचित्र और चंचल हाथी, घोड़ों तथा रथों पर सवार हो-हो कर युद्ध-स्थलको चले । वे कठोर शब्दोंका प्रयोग करते हुए चले जाते थे । उनके चेहरे भयंकर हो रहे थे । उनके साथ ही
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पाण्डव-पुराण ।
सुलक्षणास लक्षित द्रोण भी शत्रु-दलको भयभीत करता हुआ चला । कलिंग और . कर्ण भी युद्ध-स्थलमें पहुंचे। दोनों ओरकी सेनाकी मुठ भेड़ हुई। अभिमन्युने थोड़ी ही देरमें कलिंगके हाथीको मार गिराया और कर्णके गर्वको खर्व कर दिया। एवं उसने द्रोणको भी जराकी नाँई अपने शस्त्र-महारसे वातकी बातमें जरित कर दिया। बात यह है कि अभिमन्युने जहाँ जहाँ युद्ध किया वहाँ वहाँ सब -जगह ही उसने विजय पाई । उस समय ऐसा कोई वीर न था जो युद्ध में उसका सामना करता । और यह सच है कि मतवाला होने पर भी हार्थी सिंहका सामना नहीं कर सकता। उस समय रण-स्थलमें घोड़े, हाथी, रथ पियादे वगैरह कोई भी ऐसे न वचे जो अभिमन्युके वाणके लक्ष्य न हुए हों; उसके वाण द्वारा न वेधे गये हों।
यह देख अपनी सेनाकी रक्षा करते हुए वीर अक्षयकुमारने दस वाणोंको छोड़ कर अभिमन्युको घायल कर दिया। तव वह सुध-बुध रहित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। बाद थोड़ी देरमें जब उसकी मूछी दूर हुई , तब वह फिर उठ खड़ा हुआ और धनुष लिये दौड़ कर आते हुए तेजस्वी अश्वत्थामाको उसने अपने वाणोंकी मारसे एक क्षणमें ही विमुख कर दिया । यह देख, कर्णने द्रोणाचार्य से पूछा कि गुरुवर्य, अभिमन्युने लक्ष्मणको आदि लेकर हजारों कुमा-' रोको यमलोक पहुंचा दिया । परन्तु उसे कोई भी नहीं मार सका। तब बताइए कि वह भी इस काल जैसे कराल युद्धमें मरेगा या नहीं । सुन कर द्रोणने कहा कि कर्ण, भला तुम्ही कहो कि जिस रणशौन्डीरने अकेले ही इतने वीर राजोंको पछाड़ दिया है उसे कौन मार सकता है ! इसके बाद रणनाद करते हुए द्रोणने क्रोधित हो राजा लोगों से कहा कि मारो मारो, इसे मार डालो और इसका धनुष छीन कर तोड़ डालो ! देखो वह भागने न पावे। द्रोणकी वीर वाणी सुन कर राजा लोग जोशके साथ उठे और न्याय-अन्याय कुछ न गिन कर रणनाद करते हुए वे एक साथ उस पर टूट पड़े। परन्तु उस बलीने अकेले ही उन सबसे युद्ध कर क्षणभरमें ही उन्हें पराजित कर दिया। लेकिन थोड़ी ही देरम पुनः उद्यत हो वे सब बड़े जोशके साथ फिर युद्धके लिए आ डटे और उन्होंने कुमारका पताका सहित रथ छिन्न-भिन्न कर डाला । यह देख अभिमन्युने वज. दण्ड हाथमें लेकर बातकी बातमें उन सघको चूर डाला। .
. इसी समय ‘जयाने अभिमन्युको अपने महा शरोंके द्वारा वेध दिया; परन्तु तब भी वह धीरजके साथ उसके सामने स्थिर हो इदा रहा । अन्तमे वह.
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इकबीसवौं अध्याय ।
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पीड़ित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा । इस समय देवोंके हाहाकार शब्दसे पृथ्वी भर गई । न्यायी राजोंने कहा कि अभिमन्युके साथ यह बड़ा भारी अन्याय हुआ है जो एक साथ इतने वीरगण एक वालक टूट पड़े । उसे पीड़ित देख कर्णने कहा कि कुमार, पानी पिओ । इससे तुम्हें कुछ शान्ति होगी । सुमना अभिमन्युने उत्तरमें निर्मल वचनों द्वारा कहा कि नृप, मैं अब जल न पीकर उपवास करूँगा और परमेष्ठीका स्मरण करते हुए माणोंका त्याग करूँगा । यह सुन कर द्रोण आदि क्षमाशील अभिमन्युको निर्जन स्थानमें ले गये । वह वहाँ आत्मस्वरूपका चितवन करता हुआ स्थिर रहा; और काय तथा कपायको क्षीण करके जिनदेवका स्मरण करते हुए तथा सवको क्षमा कर और सबसे क्षमा कराते हुए उस वीरात्माने इस अशुचि शरीरका त्याग किया और निदानरहित हो स्वर्गमें विक्रिया-युक्त दिव्य गुणोंके भंडार दिव्य शरीरको पाया।
उधर दुर्योधन आदि कौरवोंने जब अभिमन्युके मरणका समाचार सुना तष वे बड़े हर्षित हुए और उन्होंने खूब खुशी मनाई।
इसी समय सूर्य अस्ताचल पर पहुंचा। रात हुई । जान पडा कि मानों वह युद्धको वारण करने और कौरवोंकी सेनाको नया उत्साह देनेके लिए ही आई है। ___अभिमन्युकी मृत्युसे कृष्णकी सेनामें बड़ा शोक फैल गया। विलाप करते और आँसुओंकी धारा बहाते राजा-गण बड़े दुखी हुए । अभिमन्युकी मृत्युसे युधिष्ठिर भूञ्छित हो उन्नत कुलाचलकी भॉति पृथ्वी गिर पर पड़े। इसके बाद जब वह होशमें आये तव दुःख-पूर्ण 'स्वरसे यह कहते हुए रोने लगे कि हा पुत्र, तुम्हारे सिवा और कौन ऐसा संग्राम करनेवाला है जो अकेला ही हजारों शत्रुओंको इस वीरताके साथ मौतका घर दिखा सके । तुमने जालंधर राजाकी बारह हजार सेनाको नष्ट करके विजय पाई थी । हाय ! न जाने किस पापीने तुम जैसे शुरको भी धराशायी कर दिया।
युधिष्ठिरको इस प्रकार विलाप करते देख शोकसे सन्तप्त हुआ अर्जुन आया और बोला कि भाई, और और सब कुमार तो युद्धभूमिसे आ गये; परन्तु अभिमन्यु अब तक नहीं देख पड़ा, यह क्यों ? क्या चक्रव्यूहमें उसे शत्रुओंने मार डाला है या वह स्वयं मर गया है ! युधिष्ठिरने बड़े दुःखके साथ कहा कि अर्जुन, वह हाल सुन कर की तुम क्या करोगे! कैसे धैर्य धरोगे! कहते हुए छाती फटती है कि क्षत्रिय धर्मको
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पाण्डव-पुराण । छोड़ कर नीच राजोंने एक साथ मिल कर अन्यायसे अभिमन्युको मार डाला है। . सुनते ही पार्थको मूर्छा आ गई और वह पृथ्वी पर धड़ामसे गिर पड़ा। इसके बाद उसे जव चेतना हुई तब वह भी शोकपूर्ण हो बड़ा विलाप करने लगा कि : पुत्र, तुम्हारे बिना पृथ्वीका पालन करनेके लिए कौन समर्थ है । तुम्हारे विना कौन तो राज्य भोगेगा, कौन कुलकी रक्षा करेगा तथा कौन वैरियोंको जीतेगा। इसी समय वहाँ कृष्ण आ गये और बोले कि पार्थ, आज केवल तुम्हारा पुत्र ही नहीं गया, किन्तु वह मेरी सेनाको एक विधवा स्त्रीकी भॉति कर गया है। वह मुझे बड़ा प्यारा था । आज वह मुझे दुर्लभ हो गया है । अतः भाई, इस वक्त शोक न करो, क्योंकि अभी शोक करनेका मौका नहीं है । यदि इस वक्त तुम शोक करोगे तो इससे शत्रु वड़े खुश होंगे और उनका साहस बहुत बढ़ जायगा । इस लिए हे धर्म-विशारद, तुम धीरज धरो और युद्धमें शत्रुओंका ध्वंस करो । बात यह है कि अभिमन्युके मारनेवालेको उसके अपराधका फल चखा देना इस समय तुम्हारा पहला कर्तव्य है।
उधर अभिमन्युकी मृत्यु सुन कर सुभद्रा भी मूञ्छित हो ऐसे गिरी जैसे जड़से उखाड़ दी गई वेल चेतना रहित हो गिर पड़ती है । इसके बाद जब वह कुछ होशमें आई तब हा हा पुत्र कहती हुई विलाप करने लगी । हा पुत्र, तुम सहायके विना मृत्युके ग्रास बन गये! यदि कोई तुम्हारी सहाय पर होता तो तुम्हारी ऐसी हालत कभी न होती । हा पुत्र, तुम इस दुस्तर शरोंके बिछौने पर कैसे सो गये ! क्या किसीने तुम्हारी रक्षा नहीं की ? हा प्रभो, युधिष्ठिर ! आपने भी मेरे पुत्रकी रक्षा नहीं की । अव आपके महलमें ऐसा कुलदीपक पुत्र फिर कौन अवतार लेगा। हा भीम, आपने अभिमन्युको क्यों नहीं बचाया । हे प्राणप्यारे, धीर धनंजय, तुम्हें तो अपने प्यारे पुत्रकी रक्षा करनी थी । हा प्यारे भाई कृष्ण, इस महान् भयंकर युद्धमें आपने भी माणोंसे अधिक प्यारे मेरे पुत्रकी परवाह न की। हा, गुणोंके भंडार बली पुत्रकी किसीने भी रक्षा न की । देखो, आज अभिमन्युके वियोगसे सारे नगरके लोग दुःखी हो रहे हैं।
___ हाय ! मेरे कृष्णके जैसा सुखी, पृथ्वी-पालक भाई है। युधिष्ठिर, भीम जैसे उत्तम पुरुष जेठ हैं तथा पावनमना और पृथ्वीकी रक्षा करनेवाले वीर अर्जुन स्वामी हैं फिर भी मुझे आज रोना पड़ा और मैं इस तरह निराधार हो गहे ।
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shared अध्याय |
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इतने बड़े बड़े वीरोंके रहते हुए भी मुझे पुत्र वियोगका विशाल और अतिशय गहरा समुद्र तैरना पड़ा ।
इस समय दीर्घ निसॉसें खींचते हुए पार्थने सुभद्रासे कहा कि प्रिये, सुनो — मेरे पुत्रका वध करके जिस दुष्टने मेरी यह दुर्दशा की है मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि उस जयार्द्रका सिर यदि मैं घड़से जुदा न कर दूँगा तो अग्नि- प्रवेश करूँगा । क्योंकि मुझसे अपने प्रिय पुत्रकी यह दुर्गति सही नहीं जाती है । प्यारी, अब तुम न रोभो; किन्तु धीरजका शरण लो और पानी लेकर मुँह घो डालो | इसके बाद कृष्णने धैर्य देते हुए सुभद्रासे कहा कि बहिन, तुम शोक मत करो, शोक करने से अब कुछ हाथ लगनेका नहीं; क्योंकि जो कुछ होना था वह तो हो चुका । अब उसके लिए शोक करनेसे लाभ ही क्या है ? और देखो, यह संसार चंचल है, विचित्र है तथा इसका यह हमेशाका नियम है कि इसमें जीवोंको कभी सुख मिळता है तो कभी दुःख भी भोगना पड़ता है । इसमें सदा सुखी कोई नहीं रहते और न कोई सदा स्थिर ही रहते हैं; किन्तु इसी सुखदु:ख-रूप हालत में विलीन हो जाया करते हैं । बात यह है कि संसारमें जीव हमेशा ही जन्म-मरणके चक्कर लगाया करते हैं और दुःख भोगते हैं ।
बहिन, इस संसार में पहले भी तो अपने पूर्व- पुरुष स्वयं अपनी ही रक्षा न कर सकनेके कारण कालकी शिकार बन गये हैं, यह क्या तुम नहीं जानती । और अपनी ही नहीं, किन्तु सारे संसारकी ही यही हालत है । कारण कि संसार रहटकी घड़ियोंके समान उलट पलट होते रहनेवाला है, और यही कारण है कि यहाँ कोई भी थिर नहीं है; सभी अधिर दीखते हैं - सभी कमोंके चक्कर में पड़े हुए हैं । कर्म जैसा उन्हें नचाते हैं वैसे ही वे नाचते हैं । कृष्णने इस प्रकार अपनी बहिनको बहुत कुछ समझाया और उसे धीरज दिया ।
उधर जया के किसी हितैषीने उसे जाकर यह समाचार दिया कि भद्र, पार्थने आपको मार डालनेका दृढ संकल्प किया है । इस लिए आप उसकी शरण में जाइए, नहीं तो परिणाम बहुत ही बुरा होगा - आप अपनी स्थिति कायम न रख सकेंगे । आश्चर्य हैं कि आप मृत्युके आँखोंके आगे घूमते रहते भी बेफिक्र बैठे है ! यह सुन कर जयार्द्र चिन्ताओंसे घिर गया और बहुत देर तक सोच विचार करता रहा । यह सोच कर उसका हृदय हिल उठा कि प्रभात होते ही यमकी भाँति क्रोधित हो वीर अर्जुन मेरे मस्तकको घड़से जुदा कर देगा ! कुछ स्थिर
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पाण्डव-पुराण
न कर सकनेके कारण वह दुर्योधनके पास गया और उससे कहने लगा कि कि मैं वड़ा भयभीत हो रहा हूँ। मुझ पर बड़ा संकट आनेवाला है, अतान तो वनमें जाकर निर्दोष तप धारण करूँगा, जहाँ कि फिर अर्जुनका भय कभी कानों तकमें भी सुनाई नहीं पड़ेगा! धनंजय ऐसा वली है कि जब वह धनुष-घाण लेकर युद्ध में रहता है तब सुर-असुर कोई भी उसका सामना करनेके लिए समर्थ नहीं होते। ___ यह सुन द्रोणने कहा कि सुमति, मेरे वचन सुनो । देखो, इस संसारमें कोई भी पुरुष अजर अमर नहीं हैं । एक दिन सभीको जराके मुंहमें होकर कालके गालमें जाना है । तब फिर क्षत्रियोंका युद्ध-स्थलको पीठ दिखाना संसारमें शोभा नहीं देता । अतः यदि शक्तिशाली पुरुषका मस्तक चला जाये तो भले ही चला जाये । इसमें भय ही काहेका है। और यदि जीत हो गई तो थोड़ी ही देरमें उन वीरोंके हाथमें जय-लक्ष्मी आ जाती है । अत एव मरनेसे तुम्हें भयभीत नहीं होना चाहिए । और एक बात यह भी है कि आज सूर्यास्तके समयमें ही अर्जुन यमलोकको प्रयाण कर जायगा, क्योंकि उसकी प्रतिज्ञा ही ऐसी है। फिर बताओं तुम्हें मारेगा ही कौन ? तुम निश्चिन्त होकर रहो, डरो मत । यई सुन कर जयाई जयकी वाञ्छासे थिर हो गया और उसने सारी चिन्ताएँ छोड़ दी।
रात वीत चुकी । सवेरा हुआ। धनंजयका जाजूस युद्धकी खबर लानेको रवाना हुआ। उसे एक आदमी मिला । उससे उसने पूछा कि रणमें जयाका स्थ कैसे जाना जायगा-उसकी विशेष पहिचान क्या है । उस आदमीने उत्तरमें कहा कि कौरव राजोंने बड़ा विषम चक्रव्यूह रचा है । उसके भीतर उन्होंने जयाको रक्खा है, अतः वह दिखाई तक नहीं पड़ता, उसके पहिचाननेकी तो वात ही जुदी है । वात यह है कि वह इतना सुरक्षित है कि उसे मनुष्यकी तो बात ही क्या है देवता भी नहीं देख सकते । यह समाचार सुन कर अर्जुनने कहा कि जयाकी चाहे देव ही क्यों न रक्षा करें; परन्तु मैं उसे आज बिना मारे छोड़नेका नहीं। यह कह कर वह एक यक्षके चबूतरे पर कुशासन डाल कर स्थिरतासे बैठ गया और धीरजके साथ शासन-देवताकी आराधना करने लगा । वह थिर चित्त मन-ही-मन साशन देवतोंसे संबोधन करके बोला कि यदि मैंने जिनदेव, जिनधर्म और गुरुकी सच्चे दिलसे आराधना की है तो हे शासनदेवते, तुम प्रगट होकर मेरी सहाय करो। यह जिन-देवका ध्यान कर ही रहा था कि
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इकबीसवाँ अध्याय। उसी समय वहॉ शासनदेवता आई और वह कृष्ण तथा पार्थसे बोली कि प्रभो, कृष्ण, पार्थ और महामना नेमिप्रभु जैसे महात्मा जहाँ कहीं भी होंगे मैं सदा उनकी सेवा करूँगी । आप मुझे जो जी चाहे आज्ञा कीजिए । यह सुन कर उन्होंने उससे वैरीके सम्बन्धका सारा हाल कहा। जिसे सुन कर शासनदेवता वोली कि आप शीघ्र मेरे साथ चलिए । आपके सब कार्य सिद्ध होंगे। देवीके कहने पर पार्थ और कृष्ण उसके साथ गये । वे कुबेरके स्नानकी वावड़ी पर पहुँचे । बावड़ी सुखकी खान थी, सुंदर थी, सुवर्ण जैसे कमलोंसे पूर्ण थी और हंस-सारस आदिकी क्रीड़ाका स्थान थी । मणियोंकी उसकी सीढ़ियाँ थीं और जलकी कल्लोलोंसे वह व्याप्त थी । वहाँ पहुँच कर देवीने पार्थसे कहा कि पार्थ, इस बावड़ीके गहरे जलमें विशाल फणवाले भयंकर दो सॉप रहते हैं । उनका तुम बिल्कुल भय न कर बावड़ीमें प्रवेश कर उन्हें पकड़ लो । वे दोनों नाग तुम्हारे शत्रुको शल्यकी नॉई चुभेंगे और उनके लिए कालका काम देगें। यह सुन निपुण पार्थ उसी दम बावडीमें घुस गया और उसने विनोंको हरनेवाले उस नाग-युगलको पकड़ लिया। यह देख देवीने उनसे कहा कि इन दोनों नागोंमेंसे एक तो शरका काम देगा और दूसरा धनुषका । यह सुन कर धनुषधारी अर्जुन और कृष्णको वड़ा संतोष हुआ। इसके बाद देवीने पार्थसे कहा कि पार्थ, इनके द्वारा वैरीको जीत, जया के मस्तकको काट कर प्रसन्न हो ओ। परन्तु सुनो जयाका पिता वनमें विद्या साधनेकी इच्छासे तप कर रहा है । अत एव जयाको मार कर ही तुम न रह जाना; किंतु जयाईके मस्तकको काट कर तुम उसके पिताके पास वनमें जाना और उसके हाथोंमें वह सिर रख देना। तुम ज्यों ही उसके हाथोंमें जयाका मस्तक रक्खोगे त्यों ही वह भी काल-कवलित हो जायगां
और इस तरह तुम शत्रु-रहित हो जाओगे। बस, शत्रुके सम्बन्धमें इसके सिवा और कोई उपाय करनेकी जरूरत नहीं है। यही उपाय बस है। देवीके इन वचनोंसे पार्थको बहुत सन्तोष हुआ और वह धनुष-बाण लेकर कृष्णके साथ-साथ अपनी सेनामें चला आया।
___ सवेरा हुआ। मानों लोगोंको युद्धका दृश्य दिखानेके लिए ही सूरज निकला है । उभय पक्षके सबल योद्धा युद्ध के लिए उठे । इस समय जयाको धीरज देकर द्रोणने कहा कि, वत्स, चिन्ताको छोड़ो, अपने दिलको स्वच्छ रक्खो
और आनंदसे हो । मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा । इसके बाद द्रोणाचार्यने जयाईकी रक्षाके लिए चौदह हजार हाथियोंके घेरेके वीचमें उसे रक्खा और उन हाथियोंके
पाण्डव-पुराण ४२
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चारों ओर तीन घेरे और डाले । जिनमें पहला घेरा लाख घोड़ोंका था; दूसरा साठ हजार रथोंका और तीसरा बीस लाख पयादोंका था। इस तरहसे जयाईकी रक्षाका ठीक ठीक प्रवन्ध कर चुकने पर समुद्रकी भॉति धीर-बुद्धि द्रोणने अपने पक्षके राजा लोगोंसे कहा कि आप लोग तो जया की रक्षा करें और मैं उधर रणमें शत्रुओंका नाश करनेके लिए जाता हूँ । मैं निश्चयसे उनका ध्वंस करूँगा।
इसी समय सिंहकी भॉति पराक्रमी कृष्णसे युधिष्ठिरने कहा कि हम लोग बिल्कुल ही कर्तव्य-हीन हैं । इस प्रकार बैठे बैठे हम कर क्या सकते हैं ? जान पड़ता है हमारे वशकी बात नहीं है । यही कारण है कि पार्थकी प्रतिज्ञाका निर्वाह करनेके लिए इतने समय तक वनमें रहना भी व्यर्थ ही हुआ । सचमुच हम लोग अकिंचित्कर ही हैं। लोग हर एक वात आसानीसे कह तो देते हैं परन्तु फिर उसका निर्वाह करना उन्हें भारी दुर्लभ पड़ जाता है । यह सुन कर केशवने कहा कि महाराज, आप कोई शंका न करें । आपके सव कार्य निर्विघ्न सिद्ध होंगे । और आप ही कुरुजांगल देशका राज्य करोगे । इसी समय पार्थने प्रणाम कर युधिष्ठिरसे कहा कि देव, आज्ञा कीजिए जो मैं आपको अपनी भुजाओंका पराक्रम दिखाऊँ । यह सुन महामना युधिष्ठिरने धनंजयको बड़ी प्रसन्नतासे युद्ध-प्रयाणकी आज्ञा दी । युधिष्ठिरकी आज्ञा पाते ही अर्जुन रथ पर सवार होकर कृष्णके साथ-साथ चला । युद्धके सूचक भयंकर वाजे वजे । रण नाद करते हुए सैनिक, चिंघाड़ते हुए हाथी, हींसते हुए घोड़े विजयके गीत गाते हुए करोड़ों पयादे और रथ-समूह चले । युद्ध-स्थलमें पहुँच कर वे धीर सुभट वैरियोंके मस्तकोंको छेदते हुए तथा पृथ्वीको खूनसे तर करते हुए उमड़ उमड़ कर घमासान युद्ध करने लगे। वीर पार्थने शत्रुके रथोंको तोड़ गिरा या । चिंघाड़ते हुए हाथियोंके सुण्डादण्डोंको छिन्न कर उन्हें भी धराशायी कर दिया, जिनसे मार्ग-विल्कुल रुंघ गया। कहींसे निकलनेको जगह न रही । वातकी वातमें योद्धाओंके धड़ नाचने लगे। लहू-लुहान मस्तकोंसे पृथ्वी तर हो गई।
___इस महारणमें ऐसा कोई सुभट न रहा जो कि खूनसे न रँगा गया हो । यहाँ तक कि वहाँ रक्तका बड़ा भारी प्रवाह वह निकला, जिसमें तैरनेके लिए असमर्थ होकर योद्धा कहीं ठहर न सके; जैसे अगाध समुद्रमें न तैर सकनेके
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कारण लोग कहीं ठहर नहीं सकते । इसी समय अपनी सेनाको मारके मारे
भागती हुई देख कर द्रोणने उसे धीरज देते हुए कहा कि वीर भट-गण, आप लोग . न भागें, न भय करें। ऐसा करनेसे हम लोगोंको बड़ा लज्जित होना पड़ेगा।
और जहाँ मैं हूँ वहाँ आप लोगोंको भय ही क्या है । आप लोग स्थिर हो निर्भय होइए । द्रोणके वचनोंको सुन सब सुभटगण भागते हुए ठहर गये । इसी वीचमें अर्जुन और कृष्णने आकर द्रोणको प्रणाम कर कहा कि प्रभो, आपसे हमारी प्रार्थना है कि इस युद्धमें योग न देकर आप रण-स्थलसे वापिस चले जाइए । आपके होते हुए हम अपने पूज्य गुरुको लॉप कर शत्रु-सेनाका विध्वंस कैसे करें। ___ यह सुन उत्तरमें द्रोणने कहा मैं रण-स्थलसे वापिस कैसे जा सकता हूँ। मुझे तो तुम लोगोंके साथ युद्ध करना होगा। एक बात और है जो तुम्हारे ध्यान देने योग्य है । और वह यह है कि मैंने आज तक जिसकी भी रक्षा की है संसारमें वही पुरुष अमर हो गया है, और जिसे मारा है वह सदाके लिए सो गया है । अत एव इस पर विचार कर ही तुम्हें युद्धमें बढ़ना चाहिए । यह सुन कर पार्थका हृदय क्रोधसे भर आया। वह फिर उसी समय रथमें सवार हो, धनुष संधान कर युद्धके लिए चल पड़ा । उसी समय भटोंको भय देनेवाले भयंकर बाजे वजे । रण आरंभ हुआ। बलशाली पार्थने पहले ही द्रोणको नौ बाण मारे, जिनको कि द्रोणने उसी समय अपने वाणोंसे छेद दिया। इसके बाद पार्थने फिर दूने दूने बाण छोड़े, और जब तक वे पूरे एक लाखकी संख्या तक पहुँच न गये तब तक वह वराबर बाण छोड़ता ही चला गया । द्रोणने रणके सन्मुख हो अपने वाणों द्वारा उन्हें भी निवार दिया । यह देख हारने पार्थसे कहा कि तुम विलम्ब क्यों कर रहे हो । क्या वैरियोंके सुभटोंके साथ तुम्हें गुरुशिष्य कैसा युद्ध करना युक्त है ? सुन कर अर्जुन हाथमें तलवार ले शत्रुकी सेनामें मार्ग करता हुआ चला । यह देख द्रोणने उससे कहा कि अर्जुन, ठहरो, तुम कहाँ जा रहे हो। यह सुन पार्थने हॅसते हुए कहा कि गुरुवर्य, आप युद्ध न कीजिए । आपको यह युक्त नहीं है। कारण हम सब आपहीके पुत्र हैं। आपके लिए तो जैसे ही अश्वत्थामा और जैसे ही हम सव और विष्णु हैं । फिर आपको हमारे साथ युद्ध करना युक्त है क्या? गुरुवर्य, पिता-पुत्रोंका दुःखपद युद्ध शोभा नहीं देता । व्यर्थ ही इसमें योद्धाओंका संहार होता है । इस लिए प्रभो, आप युद्धके संकल्पसे लौट जाइए-युद्ध न कीजिए | पांडवोंकी इस प्रार्थनासे
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द्रोण लौट गये और अब अकेला अर्जुन ही अपने पराक्रमसे वैरियोंका ध्वंस करने लगा जैसे अकेला सिंह अपने पराक्रमके वलसे मतवाले हाथियोंका ध्वंस करता है । इसके बाद, गांडीव धनुषकी भीषण टंकारसे प्रलय कालके : समुद्रकी तुलना करनेवाले पार्थने दुःख देनेवाले कौरवोंकी सारी सेनाको ही भेद डाला। ___इस समय पार्थको अपनी ओर बढ़ते हुए देख कर राजे लोग कहने लगे कि द्रोणने ही जान-बूझ कर यहाँ पार्थको भेजा है । यह सेनामें प्रविष्ट हो कर बड़ा अनर्थ करेगा । इसे द्रोणका सहारा न होता तो यह कभी इधर नहीं बढ़ सकता । यह सुन कर शतायुधको वड़ा क्रोध आया और उसने उसी वक्त कृष्ण और अर्जुनको आगे बढ़नेसे रोक दिया । तब उन दोनोंने भी क्रोध आकर शतायुधके रथ, घोड़े और हाथी वगैरह सव छिन्न-भिन्न कर डाले । इसके वाद शतायुधने मन-ही-मन गदाका स्मरण किया । स्मरण करते ही वह दासीकी भॉति उसके हाथमें आ गई । यह देख कृष्णने पार्थसे कहा कि पार्थ, अब तुम्हारा कार्य सिद्ध होता नहीं दीखता । परन्तु खैर, तुम कोई चिन्ता न करो। मैं अपने बुद्धि-वळसे ही वैरीका नाश कर दूंगा । इसके बाद कृष्णने शतायुधसे ललकार कर कहा कि तुम अपनी गदा मुझ पर प्रहार करो; विलम्ब मत करो--और शस्त्रोंसे युद्ध करनेकी आवश्यकता नहीं । यह सुन चंचल-चित्त शत्रुने मन-ही-मन सोचा कि अर्जुन और कृष्ण ही इस युद्धके मूल कारण है, अतः यदि मै गदाके प्रहारसे इन दोनोंको ही कालका ग्रास बना दूं तो दुर्योधन अवश्य ही आनन्दित होगा और वह मेरा अच्छा मान करेगा । यह सोच कर उसने पहले ही कृष्णके वक्षःस्थलमें गदाका प्रहार किया । कृष्णके महान् पुण्यसे वह गदा सुगन्धसे परिपूर्ण पुष्पोंकी मालाके रूपमें परिणत हो गई और उसके हृदयकी शोभा बढ़ाने लगी। इसके बाद वह कृष्णकी पूजा करके वापिस जाकर वैरीके मस्तक पर पड़ी और उसने उसी समय शतायुधका सब गर्व उतार दिया उसे यमलोक पहुंचा दिया । यह देख कौरवोंकी सारी सेना युद्धकी इच्छासे उठ खड़ी हुई । उसे कृष्ण और अर्जुने शसेंकी प्रवल मारसे क्षणभरमें - ही तितर-वितर कर दिया। . इसके बाद कृष्णने पार्थसे कहा कि पार्थ, हम लोगोंके घोड़े बहुत प्यासे हैं, अतः अब वे मार्गको तय नहीं कर सकते । ऐसी हालतमें हमें पैदल ही शत्रुका
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विनाश करने के लिए सिपाहीके रूपमें युद्ध करना चाहिए । सुन कर धनंजयने कहा कि प्रभो, खंडवनमें एक देवताने मुझे महत्त्वशाली दिव्य बाण दिया था । उसके प्रभाव से मैं अभी ही गंगा के जलका प्रवाह यहीं प्रगट किये देता हूँ । यह कह कर उसने वह वाण छोड़ा और एक क्षणमें ही अनन्त कल्लोलोंसे व्याप्त गंगाका प्रवाह वहाँ जारी हो गया । उसमें उन्होंने अपने घोड़ोंको नहलाया और पानी पिलाया, जिससे वे फिर तरो ताजे हो गये । यह देख आकाशमेंसे देवतोंने कहा कि जो महा पुरुष पाताळसे पृथ्वी पर जल ले आया, फिर वे लोग कितने जड़ हैं जिन्होंने उसीके साथ युद्ध ठाना है । ये लोग इसके साथ कभी विजय नहीं पा सकते ।
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इसके बाद ही कृष्ण युद्धके लिए उठा और साथ ही रथ में सवार हो पार्थ भी चला । कृष्णने शत्रुओं का विनाश करनेके लिए एक साथ लाख बाण छोड़े। जिनके द्वारा कौरवोंकी सेना के हाथी, घोड़े, पयादे वगैरह सब वेध दिये गये । रथ नष्ट हो गये और सेना भाग छूटी । यह देख दुर्योधनने सेनाके लोगों से कहा कि तुम लोग क्यों भाग रहे हो ? भागनेका कारण ही क्या है । क्या तुममें यही शूरता है ? यह सुन संजयन्त बोला कि राजन, क्या आपने कृष्ण और अर्जुनकी वीरता नहीं देखी जो ऐसा कह रहे हैं। उन लोगोंने आपकी सेनाको वेष डाला, दुमर्पणकी सेनाको परास्त करके भगा दिया; दुःशासन ढरके मारे उनके सामने ही नहीं आया, द्रोणको उन्होंने गुरु जान कर छोड़ दिया; युद्ध-तल्लीन कृतकर्माको मार गिराया; शिशु, दक्षिण मुख आदि राजोंको वाणसे वेध दिया; शतायुध, वृन्द तथा विदके प्राणोंको हर लिया; पातालसे वे परम पावन गंगाको यहाँ ले आये- फिर भी आप कहते हैं कि क्यों भागते हो ! राजन्, वे बड़े वीर हैं। उनकी वीरताका कोई अन्दाजा नहीं लगा सकता है ।
यह सुन कर दुर्योधनका क्रोध उबल उठा और वह द्रोणकी निंदा करता हुआ बोला कि द्रोण, तुमने यह क्या किया जो शत्रुको रास्ता देकर इस महायुद्ध में वैरीके द्वारा सबका अपमान कराया । तुम्हें पांडवोंका पक्ष करते संकोच नहीं होता । यही क्या तुम्हारी बुद्धिकी बलिहारी है । दुर्योधनकी मर्मवाणी सुन खेदखिन्न हुए द्रोणने कहा कि देखो, मैं पार्थके बाणसे बेधा गया हूँ, मैं उसकी बरावरी नहीं कर सका और न कर ही सकता हूँ । यह तुम ही सोचो कि कहाँ तो वह जवान और कहाँ मैं वृद्ध । फिर उसके साथ युद्ध करनेको मै कैसे समर्थ
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हो सकता हूँ । वात यह है कि इस वक्त तुम यौवन-श्री करके युक्त हो, अत एव तुम्हें ही इसके साथ युद्ध करना चाहिए । ___ यह सुन कर दुर्योधन वोला कि अच्छी वात है आप देखते रहिए कि मैं पार्थको क्षणभरमें यमपुरका पथिक बनाये देता हूँ। इसके साथ ही वह हायमें धनुष उठा पार्थके साथ युद्धके लिए उद्यत हुआ । उधरसे पार्थ भी उससे युद्धके लिए तैयार हो कर आया । उन दोनोंके साथ और भी बहुत वीर-गण थे। उन दोनोंका शरीर रणश्रीसे भूषित हो रहा था । युद्ध करते हुए दुर्योधनने पार्थके वाणोंको छेद दिया और अभिमानमें आकर वह पार्थकी यह कह कर हँसी उड़ाने लगा कि तुम्हारा गांडीव धनुष अब तक काम नहीं आया। यह देख नारायणने हँस कर अर्जुनसे कहा कि पार्थ, तुम थक तो नहीं गये हो ? पार्थने कहा कि नहीं, मैं तो सिर्फ वैरियोंको मार कर कुछ शान्तिके लिए बैठ गया हूँ । मैं अभी इन सव शत्रुओंको धराशायी किये देता हूँ। आप तो मेरे अपूर्व पराक्रमको देखते जाइए । विश्वास रखिए कि मैं कौरवोंको जीत कर चन्द्र जैसे स्वच्छ, उत्तम यशको संचित करूँगा । यह कह जोशमें आ पार्थने शरोंकी प्रवल मारसे दुर्योधनको वेध डाला । उसके द्वारा अपनी सेनाको छिन्न-भिन्न देख कौरव हाहाकार कर उठे । इसी समय कृष्णने अपने पाँचजन्य शंखको फूंका । उसके शब्दको सुन कर जयाको बड़ा कोष हो आया । वह भयभीत हो प्रभा-विहीन हो गया । उधर कौरवोंकी उद्धत हुई सेनाको अकेले पार्थने ही तितर-बितर कर भगा दिया । फिर वह कृष्णके आगे भी मस्तक न उठा सकी । इस समय इतना भयंकर युद्ध हुआ कि सारी पृथ्वी रुंड-मुंड-मय हो गई । सारी युद्धभूमिमें श्वास-उच्छास रहित मुर्दै-ही-मुर्दे देख पड़ने लगे।
इसके बाद पार्थने ज्यों ही जया को देखा त्यों ही उसे बड़ा भारी क्रोध आया और उसने मर्मभेदी वचनों द्वारा उसके हृदयको भेदते हुए कहा कि नीच, तूने ही न युद्धमें अभिमन्युका अन्यायसे वध किया है ! अब मेरे सामने आ
और मुझे अपना पराक्रम और अपनी वीरविद्या वता । नीच, मैंने तुझे वड़ी देरमें देख पाया । अव भी तुझमें शक्ति हो तो तैयार हो रणांगणमें आकर मेरे साथ युद्ध कर और इन कौरवोंको वचा । पार्थके , वचनोंको सुन कर देवतोंको वड़ा सन्तोष हुआ । वे उसकी भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे । इसी समय धनंजयने अपने बाणों द्वारा जयाके धनुष, घोड़े और धुजा वगैरहको छेद दिया। और उधरसे कृष्णने उसके कवचको भेद कर अर्जुनसे कहा कि पार्थ,
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सूरज अस्त होनेके पहले पहले ही तुम अपने तीव्र वार्णोंके द्वारा इसके मस्तकको घड़से जुदा कर दो तभी तुम्हारी वीरता है ।
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यह सुन पार्थने उस नागवाणको हाथमें लिया, जिसे कि शासनदेवताने सौपके रूपमें अर्जुनको दिया था । इसके वाद अर्जुनने देखते देखते ही उस वाणसे जयार्द्रका मस्तक धड़से जुदा कर दिया और उस मस्तकको लेकर वह आकाश मार्गसे वहाँ गया जहाँ उसका पिता तप कर रहा था । जाकर उसने सिरको उसके हाथोंमें रख दिया । इसके साथ ही जिस तरह तालावमें लगा हुआ कमल काट देने पर गिर जाता है उसी तरह उस मस्तकको देखते ही उसका पिता भी गत चैतन्य होकर पृथ्वी पर लौट गया ।
उधर जयाके मारे जाते ही पांडवोंकी सेनामें जय जयकार शब्द होने लगा | और जयसे प्राप्त हुई पार्थकी कीर्ति सारे भूतल पर विस्तृत हो गई । उधर कौरवोंकी सेनामें हाहाकार मच गया। जयार्द्रकी मृत्युसे दुर्योधनकी आँखोंसे आँसुओंकी धारा वह निकली । वह रो उठा और विलाप करने लगा कि जयार्द्र, तुम्हारे बिना आज मेरी सारी सेना शून्य हो गई ।
इसी समय दुर्योधनको धीरज बँधाते हुए अश्वत्थामाने कहा कि राजन, तुम दुःख क्यों करते हैं। मैं तुम्हारे दुःखके कारणको अभी दूर किये देता हूँ । यह कह कर हाथमें धनुप ले वह पार्थके ऊपर टूट पड़ा और क्रोधमें आ उसके साथ तीव्र वाणोंके महार द्वारा युद्ध करने लगा। थोड़े ही समयमें गुणी अश्वस्थामाने पार्थके धनुषकी डोरी छेद दी । यह देख पार्थका चेहरा प्रफुल्लित हो उठा । वह साथ ही धनुप लेकर अश्वत्थामाको दबाने लगा; जैसे सिंह मत्त गजेन्द्रोंको दवा देता है । एवं थोड़ी ही देर में पार्थने छह वाणोंके द्वारा उसके सारथीको पृथ्वी पर गिरा उसे भी धराशायी कर दिया, जिससे वह वे सुध हो गया; उसे कुछ चेतना न रह गई । पार्थने उसे गुरु-पुत्र समझ कर छोड़ दिया । उससे कुछ भी न कहा और न उसे कैद ही किया । इसी प्रकार अर्जुनने और भी वहुतसे राजों को पृथ्वी पर लिटा दिया; जैसे सिंह मतवाले हाथियोंको जमीन पर लिटा देता है । युद्ध करते करते रात हो गई । और सब सेनायें अपने अपने डेरों पर चली आई |
अपनी यह दुर्दशा देख क्रोध-वश हुए दुर्योधनने द्रोणसे कहा कि यह सब तुम्हारा ही किया हुआ है । यदि तुम पार्थको मार्ग न देते तो वह हाथी, घोड़े
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और वीर योद्धाओंको कभी नहीं मार सकता था। दुर्योधनके इन मर्मभेदी वचनोंको सुन कर क्रुद्ध हुए द्रोणने कहा कि राजन, आपका यह ख्याल ठीक नहीं, किन्तु उसने मुझे ब्राह्मण और गुरु समझके ही छोड़ा है । हाँ, तुम क्षत्रिय-पुंगव हो, अतः उसके साथ युद्ध करो । अच्छा मैं तुमसे ही पूछता हूँ कि तुमने युद्ध करते हुए पार्थको क्यों छोड़ दिया । वात यह है दुराग्रहके कारण तुम अपने दोषको नहीं देखते और व्यर्थ ही दूसरेको दोष देते हो । मैंने पार्थके वलको कई बार देख निर्णय किया है कि मैं उसकी बरावरी नहीं कर सकता । अव तुम्हें जो रुचे वह करके तुम अपने दिलका भाव पूरा कर लो।
यह सुन दुर्योधन बड़ा घवराया। वह तब बहुत नम्र होकर बोला--प्रभो, आप महान हैं, महापुरुषोंके भी गुरु हैं, अतः मेरे अपराधों पर आप ध्यान न देकर ऐसा उपाय कीजिए जिससे आज रातमें, ही शत्रु नष्ट हो जायें । उन्मत्त दुर्योधनने यह मंत्र कर्णके कानों तक भी पहुँचा दिया ।
इस निश्चयके बाद कौरवोंकी निर्दय सेना रातों रात ही रण-स्थलको चली । धीरे धीरे वह रण-स्थल के पास पहुंची और उसने पांडवोंकी सोती हुई सेनामें प्रवेश किया; जैसे अँधेरेमें कोकिलाएँ कौओंमें प्रवेश करती हैं। इसके बाद कौरवोंने एकदम बाणोंकी बरसा कर पांडवोंकी सेनाको छिन्नभिन्न कर दिया, जिससे पांडवोंकी पक्षके राजा, उनके सामने क्षणभर भी नहीं ठहर सके और इधर उधर भागने लगे । यह देख कौरवोंने एक साथ दस बाणों द्वारा भीमको और तीन बाणों द्वारा उद्धत हुए नकुल और, सहदेवको वेध दिया। साथ ही उन्होंने दस बाणोंसे भीमके पुत्र घटुकको, पॉच बाणोंसे अर्जुनको और छह बाणोंके द्वारा शिखंडीको वेध दिया । एवं सात बाणोंसे धृष्टधुन्नको और पॉच बाणोंसे प्रसिद्ध शासक कृष्णको वेध दिया। इसी समय क्रुद्ध होकर युधिष्ठिर युद्धके लिए उठा और उसने अपने बाणोंकी प्रबल मारसे दुर्योधनको बड़ी बुरी तरह वेध डाला, जिससे वह बे-होश होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और उसे प्राणोंके लाले पड़ गये।
" यह देख द्रोण युद्धके लिए युधिष्ठिरके सामने आये और उन्होंने पांडवोंकी सेनामें प्रवेश किया। इस वक्त वह ऐसे जान पड़े मानों आकाशमें उन्नत सूरज ही उदित हुआ है । इसी समय सबेरा हो आया । पांडवोंकी सेनाको द्रोणने एक क्षणमें ही पीछे हटा दिया। यह देख वीर पार्थने अपने शस्त्र-कौशलसे ब्रह्मास्त्र
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इकबीसवाँ अध्याय । छोड़ा और वातकी वातमें द्रोणको वेध कर विवश दिया । इसके बाद ही उसने
द्रोणाचार्यको छोड़ दिया और उनकी पूजा कर अपना अपराध क्षमा कराया। द्रोण । तब कुछ लज्जितसे हुए और अब वे युद्धसे उदासीन हो, युद्ध छोड़ कर चुप बैठ गये। ___ इसके बाद पार्थने अपने चतुर सारथीसे कहा कि अब रथ कर्ण, दुर्योधन और अश्वत्थामाकी ओर बढ़ाओ । अर्जुनका यह पराक्रम देख दुर्योधनने भयभीत हो और कर्णके रथको अपने हाथसे रोक कर उससे कहा कि कर्ण, हमारी सव सेना नष्ट हो चुकी, अव क्या किया जाये । सुन कर कर्णने कहा कि इसकी तुम कुछ चिन्ता न करो। मैं पहले पार्थको मार कर ही दूसरे शत्रुराजोंकी खबर लूंगा। इसके बाद क्रोधसे उन्मत्त होकर कर्णने अर्जुनके साथ युद्ध छेड़ दिया और उधरसे सव कौरव युधिष्ठिरके साथ भिड़ गये।
घोर युद्ध हुआ।योद्धाओंकी वाण-वरसासे सारा आकाश-मंडल ढंक गया। उनके रणनादसे दिशाएँ वहिरी हो गई । यह देख पार्थने बाणोंकी प्रबल मारसे कर्णके रथको छिन्न-भिन्न कर दिया और मय डोरीके उसके धनुषको तोड़ डाला। उधर रथमें सवार हो द्रोणने धृष्टार्जुनको घर ललकारा । यह देख धृष्टद्युम्नने द्रोणसे कहा कि जरा ठहरिए, मैं अभी ही आपको यमपुरकी सैर कराता हूँ। यह कह कर उसने द्रोण पर वाण-प्रहार शुरू कर दिया । द्रोणने . अपने शरकौशलसे उसके वाणोंको वीचमें ही छेद दिया---उसने उन्हें अपने पास तक भी न आने दिया । एवं उस गुण-गरिष्ठ द्रोणने उसके रथ-धुजा वगैरहको भी नष्ट कर वीस हजार क्षत्रियोंको यमपुरका पथिक बना दिया। उस समय द्रोणने कोई एक लाख सुभटोको धराशायी किया और हाथी, घोड़े तो इतने मारे कि उनकी कोई गिनती ही नहीं । तात्पर्य यह है कि उन्होंने सारी एक अक्षौहिणी सेनाको नष्ट कर जीबनसे निराश कर दिया। इतनेमें द्रोणको इस महा हिंसा
करनेसे रोकती हुई आकाशमें देववाणी हुई कि " द्रोण, तुम इतना भारी पाप - काहेके लिए करते हो और क्यों इन राजों के साथ विरोध मानते हो। तुम्हें इन
झगड़ोंमें न पड़ना चाहिए। किन्तु हृदयको पवित्र कर तुम स्वर्गके अतिथि ब्रह्मेन्द्र वनों"। यह सुन भीम वोला-हे श्रेष्ठ ब्राह्मण, सचमुच तुम्हें पाप करना उचित नहीं है । इससे कुछ लाभ नहीं । अतः गुरुवर्य, पांडवोंको कुरुजांगल देशका राज्य देकर आप सुखसे रहो । यह सुन द्रोणने कहा कि यह नहीं हो
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सकता । में कौरवोंका राज्य कौरवोंको ही दूँगा । मैने प्रतिज्ञा की है कि मैं अपना जीवन कौरवोंको देकर ही सुखी होऊँगा । इसके बाद द्रोण और धृष्टार्जुन फिर युद्धके लिए उद्यत हुए ।
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उधर अश्वत्थामाने भीमके पुत्र घटुकको ललकारा । घटुकके सामने आते ही क्षणभर में अश्वत्थामाने उसे धराशायी कर दिया । उसकी मृत्युसे पांडवों को बड़ा दुःख हुआ । वे विलाप करने लगे । यह देख कृष्णने उनसे कहा कि क्षत्रिय वीर रण-स्थलमें शोक नहीं करते | यह शोकका अवसर नहीं है । उधर पांडवों को शोक संतप्त देख कर कौरवोंकी सेना युद्धके लिए फिर उठ खड़ी हुई । यह देख भयंकर भीमने अश्वत्थामाको ललकारा और कहा कि गुरु-पुत्र होनेसे पहले मैंने तुझे जीता छोड़ दिया था, परन्तु अब मैं तुझे जीता कभी छोड़नेका नहीं । यह कह कर भीमने उस पर गदाका एक ऐसा प्रहार किया कि जिससे वह मूच्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। इसके बाद भीमने उसके हाथीको भी धराशायी कर दिया । इसी समय पांडवोंकी सेनाने जाकर युधिष्ठिरको नमस्कार किया और उनसे कहा कि देवोंके देव, पूर्ण विचार कर अपने कर्तव्यका शीघ्र निश्चय कजिए। क्योंकि द्रोणने घोर युद्ध करके आपकी सेनाको बिल्कुल ही जर्जरित कर डाला है; जैसे कि वज्र पहाड़को और वायु मेघोंको जर्जरित कर देता है । महाराज, हमारी सेनामें ऐसा कोई भी समर्थ वीर नहीं जो उन्हें रोक सके | इसके लिए एक उपाय है । वह यह कि द्रोणको पुत्र पर बड़ा प्रेम है | अतः आप यह कह दें कि अश्वत्थामा मारा गया है, तो काम बन जाय । पुत्र-वध सुन कर द्रोण अवश्य ही युद्धसे विमुख हो जायगा । सुन कर युधिष्ठिरने कहा कि तुम लोग झूठ क्यों बोलते हो, तुम नहीं जानते कि झूठ बोलने में बढ़ा दोष है, जिससे कि अशुभ कर्मोंका बंध होता है और उससे दुःख माप्त होता है। परंतु अन्तमें उनके आग्रहसे लाचार हो युधिष्ठिरने उक्त बातको स्वीकार किया और जाकर कहा कि युद्ध में अश्वत्थामा मारा गया है । पुत्र वध सुन कर द्रोणको इतना भारी शोक हुआ कि उनके हाथसे धनुष छूट पड़ा और वह आँसुओंकी धारासे पृथ्वीको सींचते हुए रो उठे । उनका धैर्य छूट गया ।
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यह देख युधिष्ठिरने थोड़ी देर बाद कहा कि मनुष्य नहीं, किन्तु हाथी मारा गया है । यह सुन कर द्रोणका शोक कुछ शान्त हुआ । उन्हें कुछ धीरज बँधा। वे चेत हुए कि उधरसे वार्जुनने तलवारसे उनका मस्तक घड़से जुदा करें
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इकबीसवाँ अध्याय।
दिया। महावीर द्रोण धराशायी हो परलोकको प्रयाण कर गये। यह देख
कौरवों और पांडवोंको बड़ा दुःख हुआ। वे विलाप करने लगे और दुःखके आवे। गसे कहने लगे कि हे परम वीर गुरु, तुम्हारे चले जानेसे आज हमारी छन-छाया
ही चली गई है। इससे संसारमें हमारी जो अपकीर्ति हुई वह हमारी सब कृति पर पानी फेरनेवाली है । अथवा हे गुरुवर्य, यह सब दुर्योधन जैसे पुरुषकी संगतिका परिणाम है । द्रोणकी मृत्युसे दुखी होकर पार्थने क्रोधके साथ युधिष्ठिरसे कहा-धृष्टार्जुन हमारा कोई नहीं होता । फिर इसने हमारे गुरु द्रोणका क्यों वध किया। यह सुन धृष्टार्जुन बोला कि पार्थ, इसमें मेरा कुछ दोष नहीं है, किन्तु वात यह है कि युद्ध-स्थलमें जब घमासान युद्ध होता है तव सुभट सुभटों पर प्रहार करते ही हैं। फिर उसमें चाहे जिसका नाश क्यों न हो । वतलाइए ऐसी हालतमें मेरा क्या अपराध है। यह सुन अर्जुन शान्त तो हो गया, पर उयके हृदयमें विषाद वहुत हुआ।
___इसके बाद फिर कौरवोंकी सेना युद्धके लिए उठ खड़ी हुई और उसने , अपने रणनादसे सारे आकाशको पूर दिया तथा पृथ्वीको पद-दलित कर
डाला । इसी बीचमैं उधर युधिष्ठिरने शल्यके मस्तकको धड़से जुदा कर दिया, जिसने कि विराटके आगे अपने पराक्रमकी अद्भुतताका वर्णन कर अपना अभिमान प्रकट किया था। एवं पार्थने भी इस वक्त दिव्य-अत्रके प्रहारसे हजारों राजोंको धराशायी कर दिया था । इस समयके युद्ध में योद्धा रात-दिन युद्ध फरते । जब नींद आती तब चाहे जहाँ भूमिमें लुढ़क रहते । तात्पर्य गह कि इस युद्धमें योद्धा लोगोंको मार-काटके सिवा और कुछ काम ही न था । इस प्रकार कौरवों और पांडवोंमें प्रतिदिन भयावना युद्ध होता रहा और इस तरह युद्ध होते होते सत्रह दिन बीत गये। __ इसके वाद अठारहवें दिन प्रातःकाल ही कौरव और पांडवोंकी चतुरंग
सेना युद्ध-स्यलमें पहुंची और उन दोनोंमें घोर युद्ध हुआ। दोनों सेनाओंमें - मकर व्यूहकी रचना हुई। उनमें मेरु जैसे उद्यत हाथी चिंघाड़ रहे थे, घोड़े हीस
रहे थे और सुभटोंकी तलवारें चमक रही थीं। इसी समय कौरव-पांडव कुरुक्षेत्रके क्षयंकर और भयंकर युद्ध-स्थलमें आये और युद्धके लिए उधत योद्धा परस्परमें मार-काट करने लगे। इस वक्त कौरवोंकी सेना समुद्रसी देख पड़ती थी । क्योंकि उसमें बाहन और हथियार वगैरह मीन-मच्छकी जगह थे और
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खून जलकी जगह था । यह देख भीम उसे नष्ट करनेके लिए रथ-रूपी नौका पर सवार होकर उसमें घुस पड़ा और उसे छिन्न-भिन्न करने लगा । एवं एक और मतवाले हुए कर्ण और अर्जुन युद्ध करने लगे और थोड़ी ही देरमें अर्जुनने अपने बाणोंके तीव्र प्रहारसे कर्णका धनुष छेद डाला । उधरसे कर्णने भी छेदनेमें कुशल अपने शरोंसे पार्थका छत्र छेद दिया। तब वे परस्परमें एक दूसरेके घोड़ोको छेदने लगे । इसी समय कर्णने लाख-वाण छोड़ कर पार्थका दूसरा धनुष भी छेद दिया । तब पार्थने तीसरा धनुष लिया और वह कर्णसे वोला कि कर्ण, तुम कुन्तीके पुत्र और मेरे भाई हो, यह बात सारा संसार जानता है। इस लिए अब तुम भाई-भाईके युद्धमें धीरजके साथ मेरे घनके जैसे आघातोंको सहो । देखो कहीं पीठ दिखा कर भाग न जाना। मैंने पहले रणमें तुम्हें पकड़ कर कई “बार छोड़ दिया; परन्तु अब मैं छोड़नेका नहीं । तुम या तो अति शीघ्र युद्धके लिए तैयार हो अथवा रण-स्थल छोड़ कर अपने घरका रास्ता लो; यहाँ एक क्षण भी न ठहरो । इसीमें तुम्हारी भलाई है। ।
यह सुन वीर कर्णने कहा कि रे जड़ात्मा और अविनयी पार्थ, तू व्यर्थ ही वकता है । देख मैं तुझे अभी धराशायी किये देता हूँ। और यह तो तू भी जानता है कि तेरे आगे ही पहले मैंने अनेकानेक गजोंको घराशायी किया है । इस लिए अब तू व्यर्थ ही अपने मुँह अपनी बड़ाई न कर और न व्यर्थ ही खोटे वचन बोला किन्तु मेरे प्रहारोंको सह । इसी धीचमें कृष्णने आकर कर्णसे कहा, तुम्हारा पुत्र विश्वसेन धराशायी हो कालका अतिथि बन चुका है। यह सुन कर कर्ण शोकके मारे विह्वलसा होकर बड़ी विषम चिन्तामें पड़ गया । वह सोचने लगा कि हाय ! यह कैसा अनर्थ है जो एक तुच्छ राज्यके लिए भाई भाईको भी मार डालते हैं । इस प्रकार कर्णको शोकाकुल देख उससे दुर्योधनने कहा कि वीरवर, यह शोकका अवसर नहीं है । इस लिए तुम शोकको छोड़ दो और अर्जुनका वध करो । इसीसे कौरवोंके हाथमें जय-लक्ष्मी आयेगी। सुन कर कर्ण उठ खड़ा हुआ और अर्जुनके साथ युद्ध करने लगा। इस वक्त उन दोनोंने ऐसी अविरल वाणोंकी बरसा की कि जिससे सारा गगन-मण्डल छा गया । इसी समय कृष्णने पार्थसे कहा कि पार्थ, शीघ्रनासे बाण चलाओ और शत्रुओंको मार गिराओ । कृष्णकी उत्तेजनामे अर्जुनको बड़ा जोश आया और तब वह अति शीघ्रतासे वाण छोड़ने लगा। फल यह हुआ कि उसने थोड़े ही समयमें कर्णके धनुष-बाणको छेद दिया । तब उधरसे कर्णने
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भी अपना जोर चलाया और धनंजयके धनुषको वे काम कर दिया । बाद पार्थ दिव्य अस्त्र हाथमें लेकर और दिव्यास्त्र के रक्षक देवोंसे बोला कि हे दिव्य अस्त्र और दिव्य देहके धारक शरासन, तुम सब सुनो कि यदि तुममें कुछ सत्य है, हम सच्चे कुल रक्षक हैं और युधिष्ठिरमें कुछ धर्म है तो तुम इस वैरीका विध्वंस कर दो । यह कह कर उसने अपने दिव्य - अत्र को छोड़ा और क्षणभर में ही कर्णके मस्तकको घड़से जुदा कर दिया । देखते देखते वीर कर्ण धराशायी हो गया ।
इस प्रकार चंपा नगरीके वीर राजा कर्णको धराशायी होता देख कर कौरव रोने-विलाप करने लगे कि आज आकाशसे सूरज ही पृथ्वी पर पड़ गया है और सदाके लिये अँधेरा कर गया है । हा कर्ण, तुम्हारे बिना अब रणमें अर्जुनका सामना और कौन करेगा । हममें ऐसा शक्तिशाली कोई नहीं जो उस arrar सामना करे और उसे नीचा दिखावे । इसी समय उधर दुःशासन आदि राजे युद्ध-स्थल में आ उपस्थित हुए । उन्हें अकेले भीमने ही यमके घर पहुॅचा दिया; जैसे कि बहुत से वृक्षोंको एक आगका कण खाकमें मिला देता हैजला डालता है । यह देख नृप गण कहने लगे कि देखो, जिस तरह जंगलमें क्रुद्ध हुआ एक ही सिंह बहुतसे गजोंको धराशायी करता जाता है उसी तरह भीम भी इन कौरवों को धराशायी करता जा रहा है । इसे धन्य है ।
इसी समय किसीने दुर्योधनके पास जाकर उससे उसके बान्धवकी मृत्युका दाल कहा, जिन्हें कि भीमने मारा था, जिनकी मृत्यु दुर्योधनको अत्यन्त दुःख देनेवाली थी। उनका हाल सुन कर उस पुरुषके वचन दुर्योधनके कानोंमें ऐसे लगे जैसा कि मस्तक पर वज्र गिर पड़ता है। उससे वह बड़ा भयभीत हुआ । उसका चित्त व्याकुल हो उठा । इसके बाद वह वहाँ गया जहाँ कि उसके भाई मरे हुए पड़े थे । उन्हें देख सारथीने उससे कहा कि राजन, उद्धत शूरवीर होने पर भी देखिए ये कैसे मरे पड़े हैं ! दुर्योधनने भी उन्हें देखा । देखो, जो ऐसे विकराल थे कि ग्रह-भूत-पिशाच आदिके मांससे वप्त होते थे वे ही आज मृत्युके ग्राम होकर पृथ्वी पर लेटे हुए हैं । यह दशा देख सारथीने दुर्योधनसे कहा कि महाराज, इस समय अव युद्धका मौका नहीं है आप युद्धकी इच्छा छोड़ कर घर लौट चलिए । यह सुन कर दुर्योधनको वड़ा क्रोध आया और वह आपेसे बाहिर हो गया । यह देख सारथीने रोपमें आकर कहा कि महाराज, प्रभो, आपने न पांडवोंको पहिले उनके
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हिस्सेका आधा राज्य दिया और न अब भी अपना दुराग्रह छोड़ते हैं। इसीका यह फल है कि इस युद्धमें आपके सौ भाइयोंका सर्वनाश हो गया। और अन्यसेनाका तो इतना संहार हुआ कि उसका तो कुछ पता ही नहीं है। अतः नाय, अव आप स्थिर होकर रहें तो अच्छा है, जिससे कुछ और उपद्रव खड़ा न हो। सुन कर दुर्योधनने उससे कहा कि कायर ! तू यह क्या कहता है । देख, मैं तभी मरूँगा जब पांडवोंकी सत्ता भी संसारसे उठा दूंगा; और तरह मैं कदापि मरनेका नहीं । यह कह कर वह प्रचंड पांडवोंकी सेनाके साथ फिर युद्ध करनेको चला ।
दोनों ओरकी सेनायें महान अहंकारसे भरी हुई दौड़ी। तलवारें हाथमें लिये हुए उनके शूरवीर योद्धा ' मारो मारो कहते हुए परस्परमें भिड़ गये । वे एक दूसरे पर प्रहार करने लगे। उस समय एक योद्धा दूसरेसे कहता था कि वीरो, या तो अपना शरीर हमें सौंपदो या युद्धकी लालसाका शमन करो। और तरह तुम्हारी भलाई न होगी। इसी समय युधिष्ठिर मद्राधिपके साथ और भीम महान् युद्ध करनेवाले दुर्योधन के साथ भिड़ पड़ा । उधर कर्णके तीन पुत्र नकुलके साय युद्ध करने लगे । वीर नकुलने थोड़े ही समयमें अपनी तलवारको आठ योद्धाओंका खून पिला कर उन्हें धराशायी कर दिया। उसने कर्णके पुत्रोंके साथ भी डटके युद्ध किया । इसी समय बुद्धिमान् दुर्योधनने भीमके धनुषको छेद डाला । तब भीमने हाथमें शक्ति ली और दुयोधनके वक्षःस्थलमें एक ऐसा प्रहार किया कि वह मूच्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा । इसके बाद वह थोड़ी देरमें जब होशमें आया तब उसे बड़ा भारी क्रोध आया और वह एक दम भीम पर टूट पड़ा । फल यह हुआ कि उसने जलचर, नभचर और थलचर बाणोंके द्वारा भीमको बिल्कुल ही पूर दिया और उसका कवच छेद डाला। - अपना यह हाल देख भीमके क्रोधका कुछ पार न रहा और गदा हाथमें लेकर उसने कोई बीस हजार योद्धाओंको यमपुर भेज दिया और आठ हजार रथोंको चूर डाला; तथा असंख्य हाथी-घोड़ोंको माण-रहित कर दिया । सच तो यह है कि भीम जहाँ जहाँ जाता था वहाँ वहाँ उसके डरके मारे कोई भी राजा न ठहरता था-सव अपने अपने मनोरथ व्यर्थ समझ कर भागते थे । अथवा यो कहिए कि भीम जिस किसीके, ऊपर अपनी दृष्टि डालता था वही यमलोकका शरण लेता था।
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इसी समय रणोद्धतदुर्योधनसे युधिष्ठिरने कहा कि तुम मेरी अधीनता स्वीकार कर जी चाहे वहीं सुखसे रहो और रथ, हाथी, घोड़े आदि जो कुछ सम्पत्ति चाहिए वह मुझसे लो । तात्पर्य यह कि मेरी भृत्यता मान लेने पर तुम्हें किसी भी तरह की तकलीफ न होगी। तुम जो चाहोगे वही तुम्हारी चाह पूरी होगी । देखो, आज सारे दिन इस बातकी मैं प्रतिक्षा करूँगा कि तुम मेरी आज्ञा स्वीकार कर दयालु होओ, जिससे व्यर्थ ही इन हजारों योद्धाओंकी वाले न चढ़े । तुम सच्चे क्षत्रिय बन कर आज भी सिंहासन पर आरूढ़ हो उन्नत राजा वन सकते हो। ऐसा करनेसे तुम अपने कर्तव्यका पालन कर सकोगे । संसारमें तुम्हारी कीर्ति होगी । मेरा यही कहना है कि अब भी तुम अपनी दुष्टतां छोड़ कर मेरे साथ मैत्रीभाव स्वीकार करो । सुन कर दुर्योधन अभिमानके साथ बोला कि तुम्हारे साथ मेरा तो जन्म से ही वैर है, वह आज कैसे मिट सकता है। मैं तुम्हारी अधीनता स्वीकार करूँ, यह असंभव है; किन्तु याद रखिए मैं अकेला ही सारे संसारसे तुम लोगोंकी सत्ता उठा दूँगा तुमसे एकको भी मैं जीता न छोडूंगा । और एक बात है कि मैं यदि पृथ्वीको नहीं भोग सकूँगा तो तुम्हें भी नहीं भोगने दूँगा । सच तो यह है कि तुम सज कर रण-स्थलमें उतरो और मेरे साथ युद्ध करो। तुम्हारा मेरा फैसला युद्धमें ही होगा । यह कह कर क्रोधके मारे कॉपते हुए दुर्योधनने युधिष्ठिर के ऊपर तलवारका एक वार किया । युधिष्ठिरने उसे अपनी तलवार पर रोक लिया । इसी बीचमें वहाँ, अपनी भृकुटी मात्रसे बैरीके सेनाको कंपित कर देनेवाला भीम आ गया और कौरवोंकी प्रवल सेनाको ललकारता हुआ कि ठहरो ठहरो भागो मत, रण-स्थलमें डट गया ।
वह गदा हाथमें लेकर युद्ध करने लगा । उस समय वह गदा उसके हाथों में ऐसी जान पड़ी मानों बिजली ही है या यमकी जीभ है; अथवा नागकन्या ही है । इसके बाद भीमने क्रोधित हो जो गदा प्रहार किया वह जाकर दुर्योधनके मस्तक पर गिरा । उसने दुर्योधनको कंठ-गत प्राण कर दिया । वह जमीन पर धड़ाम से गिरा । अपने जीवनका कोई उपाय न देख उसने घीमेसे कहा कि क्या अब भी कौरवोंकी सेनामें कोई ऐसा वीर जीता बचा है जो पांडवका सर्वनाश कर सके । यह सुन किसी पास खड़े हुए भ्रत्यने कहा कि हॉ, है, और वह पवित्र गुरु-पुत्र अश्वत्थामा है । वह पांडवोंका विध्वंस कर सकता है । उसे वैरी दबा नहीं सकते | वह उनके लिए दुर्जय है । उधर ज्यों ही अश्वत्थामाने दुर्योधनके
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वधका हाल सुना त्यों ही वह क्रुद्ध होकर जरासंघके पास गया और बोला कि प्रभो, दस हजार राजों के साथ ही आज दुर्योधन भी धराशायी हो गया है । यह सुन जरासंधको बड़ा शोक हुआ । वह व्याकुल हो उठा । इसके बाद ही उसने अपने सेनापति आदिके साथ ही प्रचंड अश्वत्थामाको पांडवोंके साथ युद्ध करनेके लिये आदेश किया । अश्वत्थामा वहाँसे दुर्योधनके पास आया और उसकी यह दशा देख शोक से बोला कि हे वीरवर, आपके बिना आज यहाँ सब शून्य देख पड़ता है; कुछ भी अच्छा नहीं लगता । राजन्, अब तक तुम्हारे ही प्रसादसे हम ब्राह्मण लोग इस उज्ज्वल राज्यको भोगते थे । परन्तु अब तुम्हारे बिना, हम क्या करेंगे | इतनेही में जरासंधने मधु राजाके सिर पर भी वीरपट्टक चाँध कर उसे बहुत सेना देकर पांडवोंसे युद्ध करनेके लिये भेज दिया । वह अपने दिलमें यह ठान कर चला कि मैं अभी जाकर पांडवोंका विनाश किये डालता हूँ और साथ ही कृष्णका मस्तक भी घड़से जुदा किये देता हूँ । इस बातको क्रोध में आकर उसने बड़-बड़ाते हुए कह भी डाला ।
अश्वत्थामाको देख कर मृत्यु- मुखगत दुर्योधन ने उससे कहा कि वीर अश्वत्थामा, लो मैं तुम्हारे मस्तक पर वीरपदक बाँधता हूँ। तुम अभी जाओ और शत्रुके साथ युद्ध कर उसे यमालयको भेजो। इसके बाद अश्वत्थामा अपनी सेनाको साथ लेकर चला और जाकर हो उसने सब ओरसे पांडवोंकी भयंकर सेनाको घेर लिया । उसने इस समय माहेश्वरी विद्याको याद किया । वह त्रिशूलको हाथमें लिये उसी वक्त दौड़ी आई | उसके मस्तक चंद्रका चिन्ह था । वह उससे बड़ी सुशोभित हो रही थी। उसके प्रभावको विष्णु और पांडवोंकी सेना न सह सकी और वह भाग छूटी । और जो कुछ थोड़ी बहुत रही थी उसे अश्वत्थामाने चूर डाला । उसने हाथी, घोड़े, रथ और राजा वगैरह सबको पद-दलित कर पांचालके राजाका मस्तक छेद दिया । इस प्रकार वह जय लक्ष्मी से भूषित हो पांचालके राजाका सिर लेकर दुर्योधनके पास गया और उसे उसने उसके आगे रख दिया । दुर्योधनको वह मस्तक देख कर कुछ संतोष हुआ । वह बोला कि संसारमें क्या कोई ऐसा शक्ति - शाली भी हैं जो पांडवोंको विध्वंस करे, जिन्होंने कि सुर-असुर और नर सबको ही परास्त कर द्रोण और कर्णको कालके घर पहुँचा दिया है । और जिनमें से अकेले भीमने ही हजारों राजों महाराजोंको यमलोकको पहुँचा कर मुझे भी इस इनमें का दिया है। सच तो यह है कि जब पाँचों ही पांडव जीते हैं तब इन
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ફક तुच्छ पांवाल आदि राजोंको मारना तो किसी भी कामका नहीं; व्यर्थ ही है। इन निरीह राजोंके मारनेसे क्या लाभ होगा। मारना तो चाहिए उन पांडवोंको जिन्होंने कि जगत् भरको ही जेर कर रक्खा है।
उधर हरि, पांडव और वलभद्र आदिके कानोंमें जब यह बात पहुँची कि अश्वत्थामाने सेनानी सहित पांचालके राजाका मस्तक छेद डाला तव उन्हें बड़ा दुःख हुआ । यह देख कृष्णने कहा कि इस वक्त शोक न कीजिए, यह शोकका मौका नहीं है । एक पांचालपति मारा गया तो क्या हुआ, हम सब तो अभी जीते हैं। उधर कौरवोंकी दुर्दशा सुन कर जरासंघ क्रोधसे प्रलय-कालके समुद्रकी भाँति उमडा हुआ वहाँ आया । यह देख देवतोंने कृष्णसे कहा कि केशव, समय आ गया है, अब आप विलम्ब न कर मगधाधिपति जरासंघका शीघ्र काम तमाम कीजिए । यही आपके महोदयका समय है । सुन कर भविष्य चक्रवर्ती कृष्णने उसी समय जरासंधको ललकारा | फिर क्या था, यादवोंकी सेना तैयार होकर चली, जिसे देख कर जरासंधने सोमक नाम दूतसे कहा कि तुम मुझे इन सव राजोंका परिचय दो । दूत भिन्न भिन्न सव राजोंके चिन्द बताता हुआ उसे उनका परिचय देने लगा | वह बोला कि देखिए, महाराज, वह समुद्रविजयका रथ है, जिसमें सोने जैसे वर्णवाले घोड़े जुते हुए हैं और सिंहकी धुना है । वह रथनेमिका रथ है, जिसमें हरे रंगके घोड़े जुते हैं और वैलकी धुजा है । सेनाके आगे वह कृष्णका रथ है, जिसमें सफेद घोड़े जुते हैं और गरुड़की धुना है। यह दाहिनी ओर रामका रथ है, जिसमें नीले वर्णके घोड़े हैं और तालकी धुजा है। यह नीले घोड़ोंवाला युधिष्ठिरका रय है और वह विचित्र रथ भीमका है । महाराज, भीम भीतिको दूर करनेवाला अद्भुत वीर योद्धा है । वह सफेद घोड़ों और वानरकी धुनावाला अर्जुन है । वह उग्रसेन है, जिसके रयको लाल वर्णके घोड़े खींच रहे हैं । वह पीले घोड़ोंवाला और हिरणकी धुजावाला जरतकुमार है । शिशुभारकी धुजावाला और लाल-पीले घोड़ोंवाला वह मेरुका रथ है । वह सूक्ष्मरामका रथ है, जिसमें कि कांबोजके घोड़े - जुते हैं और सिंहकी धुना है । कमल जैसे लाल रंगके घोड़ोंवाला यह रथ पद्मरथका है । यह पंचपुड़ देशके घोड़ोंवाला और कुंभकी धुजावाला रथ विदूरथका है । कपोत जैसे रगके जिसमें घोड़े जुते है तथा पद्मकी जिसकी धुना है वह रथ शारणका है। और यह अनावृष्टि नाम सेनापतिका रथ है जिसमें कि। हाथीकी धुजा है और काले घोड़े जुते हुए हैं ।
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पांडवोंकी इस प्रकार विशाल सेनाका हाल सुन जरासंघको बड़ा क्रोध आया । इसके साथ ही वह कृष्णके साथ भिड़ गया । वे धनुपके टंकारसे दिशाओंको शब्द-मय करते, धनुषकी डोरियों पर वाणोंको चढ़ाते ऐसे शोभते थे मानों दो पराक्रमी सिंह ही आपसमें भिड़ रहे हैं । इसी समय कृष्णने एक अनि बाण छोड़ा । उससे जरासंघकी सारी सेनामें आगे लग उठी । चक्रीने जल- बाण छोड़ कर कृष्णके अग्निवाणको वारण किया और सेना शान्ति की । इसके बाद जरासंधने नागपाश चलाया, जिसे कृष्णने गरुड़ वाणसे वारण किया। तब जरासंधने बहुरूपिणी, स्तंभिनी, चक्रिणी, शूला आदि बहुतशी विद्याओंको भेज कर कृष्णकी सारी सेनाको अचेत कर दिया । कृष्णने उन सबको भी महामंत्रके वलसे भगा दिया । यह देख जरासंघकी बहुरूपिणी विद्या भी चली गई। इससे जरासंध बढ़ा खेद खिन्न हुआ उसके विषादका कुछ पार न रहा ।
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इसके बाद जरासंधने चक्ररश्नको याद किया । वह उसी समय उसके हाथोंमें आ गया। उसकी सूरज जैसी प्रभा थी । उसकी किरणें चारों ओर फैल रही थी । पहिले जरासंधने उसकी पूजा की और बाद उसे कृष्ण पर चलाया । वह अपनी किरणोंसे यादवोंकी सारी सेनाको त्रसित करता हुआ सेनाके भीतर घुसा; जैसे अपनी किरणोंसे सुशोभित सुरज आकाशमें प्रवेश करता है । इस समय उसके तेजके मारे वहाँ कोई भी नहीं ठहर सका - सब भाग खड़े हुए । केवल शत्रुओंको भय उत्पन्न करनेवाले निर्भय कृष्ण, बलदेव तथा पांडव ही रहे । जरासंधका चलाया हुआ चक्र कृष्णके पास आकर और कृष्णकी तीन प्रदक्षिणा देकर उसके दाहिने हाथमें आ गया। उसे कृष्णके हाथोंमे आते ही यादवोंकी सेनामें जयध्वनि हुई ।
इस वक्त कृष्णने मधुर मीठे वचनोंमें जरासंघसे कहा कि जरासंध, अब भी समय है, मेरे चरणोंमें मस्तक नमा कर राज्यभोग करो । देखो, अभी कुछ बिगड़ा नहीं है, चेतो, इसीमें तुम्हारी भलाई है । मेरी आज्ञा शिरोधार्य कर तुम पहिलेकी नाँई ही सुखसे राज्य भोगो । कुष्णकी यह मर्मवाणी सुन कर जरासंधको बहुत क्रोध आया और वह विषाद करता हुआ बोला कि ओह, भूल गया कि तू एक ग्वाल है और मैं राजा हूँ ! मैं तुझे नमस्कार करूँ ? यह कभी नहीं हो सकता । तू चक्रका कुछ गर्व न कर । चक्र तो
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कुम्हारके पास भी होता है । सच तो यह है कि तू यहाँसे शीघ्र ही भाग जा, व्यर्थ ही मेरी भुजाओंका बलि न वल । क्या तुझे याद नहीं है कि समुद्रविजय सदासे मेरा सेवक रहा है; और तेरा पिता वसुदेव पहले मेरे यहाँ पयादा था । तू तो एक दीन ग्वालका पुत्र है, फिर रे खल, जान पड़ता है तेरे पापका ही उदय आ पहुँचा है जो तू जान-बूझ कर मृत्युके मुखमें प्राप्त होना चाहता है। सुन कर कृष्ण के नेत्र क्रोध से लाल हो गये । उसने उसी समय जरासंध पर चक्र चलाया । चक्रने उसका मस्तक घड़से जुदा करके पृथ्वी पर गिरा दिया । इसके बाद चक्र लौट कर वापिस कृष्णके हाथमें आ गया । यह देख देवतों, राजों और यादवोंने वड़े प्रसन्न होकर कृष्णका जय-जयकार किया । उस जयध्वनिसे सब दिशायें गूँज उठीं। कृष्ण पर फूलोंकी बरसा करते हुए देवतोंने कहा कि कृष्ण, तुम तीन खंडके स्वामी नौवें नारायण हो । अतः अपने पुण्यसे पाई हुई इस पृथ्वीका अब तुम भरण-पोषण करो; इसका शासन करो ।
इस विजय के बाद कृष्ण रण भूमिमें पहुँचे । जब उनकी दृष्टि मरे पड़े जरासंध पर पड़ी तब उन्हें बड़ा विषाद हुआ । इसी तरह जरासंघको देख कर
पांडव भी बड़े दुःखी हुए । कृष्णने वहीं एक जगह निसाँसें छोड़ते हुए दुर्योधनको देखा । देख कर वे साम्यभावसे बोले कि भाई, अब तुम दयामय धर्मको याद करो और द्वेपकी भावनाको बिल्कुल ही भूल जाओ । देखो, जीवोंको जो जन्म जन्ममें सुख मिलता है वह सब इस धर्मका ही प्रभाव है । इस लिए अब तुम अपने भात्माको और और झंझटोंसे निकाल कर इसीकी ओर झुकाओ। इसमें तुम्हारी भलाई हैं । सुन कर निर्लज्ज दुर्योधनको उस दशामें भी बड़ा क्रोध आया और वह वोला कि तुम घबराओ मत, मैं निश्चयसे जीऊँगा और तुम्हारा सर्वनाश करूँगा । तुम मुझे क्या सीख देते हो, मैं कभी तुम्हें छोड़नेवाला नहीं । तुम चाहे कैसी ही बातें क्यों न बनाओ । उसके ऐसे उत्तरको सुन कर कृष्णने समझ लिया कि यह बड़ा अधर्मी है— इसे धर्मकी बात कभी नहीं सुहायेगी । इसके बाद निसॉसें छोड़ता हुआ वह धर्म-हीन अधर्मी दुर्योधन थोड़ी ही देर में अशुभ लेश्या से मरा और मर कर पापके उदयसे दुर्गतिमें गया, जो बड़ा भारी दुःखका स्थान है।
इसके बाद सेना, द्रोण तथा कर्णको मृत्युके मुखमें पड़े देख कर पांडव, कृष्ण, वलदेव आदि बड़े शोकाकुल हुए और उन्होंने उसी वक्त जरासंध आदि
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पाण्डव-पुराणं। mmmmmmmmmmmmmmmm
. xx. .. सब राजोंकी चन्दन, अगुरु आदिसे दग्ध-क्रिया की । इसी समय जरासंधके मंत्रियोंने सहदेव नाम उसके पुत्रको लाकर उसे कृष्णकी गोदमें रख दिया और कृष्णने भी उसे अपने पिताकी गादी पर बैठा कर मगध देशका राजा वना दिया। सच है कि गंभीर पुरुषोंका क्रोध तभी तक रहता है जब तक कि शत्रु नम्र नहीं होता, है । शत्रुके नम्र हो जाने पर तो वे और भी नम्र हो जाते है और वैर-विरोधको एकदम जलांजलि दे डालते हैं। __इसके बाद तीन खंडके स्वामी होकर कृष्णने बलभद्र सहित भाँति भाँतिके उत्सवों और वाजोंके साथ रमणीक द्वारिकामें प्रवेश किया । इधर पांडव भी अपनी राजधानी हस्तिनापुरमें आ गये । वहाँ वे धर्म-युक्त फर्मोंको करते हुए रहने लगे। उन्हें सब सुख प्राप्त हुए-किसी भी वातकी उनके लिए कमी न रही।
जो वैरियोंके समूहका नाश कर सब मनुष्योंसे सेवित हुए-इन्द्र-तुल्य हुए, जो कल्याण-समुद्रके पूर और संसारके भयको हरनेवाले धर्मके धारक हुए, पुण्य-योगसे जो उत्तम राज्यको प्राप्त कर हस्तिनापुरमें अपूर्व संतान सुखके भोक्ता हुए और अनेक भव्य पुरुषोंने जिनसे सुख पाया उन शत्रुके भयको दूर करनेवाले पांडवोंकी जय हो। '. धर्मात्मा युधिष्ठिर शत्रुओंके भयको हरनेवाले हुए हैं, भीमसेन सेनामें बड़े प्रसिद्ध वीर हुए हैं। पार्थ अपने पृथु गुणोंसे बंदीजनों द्वारा प्रार्थित हुए हैं; इसी प्रकार मद्रीके पुत्र पवित्र नकुल और सहदेव , वीरतामें प्रख्यात हुए हैं ये असाधारण गुणोंके भंडार पाँचों ही पांडव चिरकाल तक पृथ्वीका पालन करें।
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उन मल्लिनाथ प्रभुको नमस्कार है जो शल्यको हरनेवाले और कर्म-मल्लको
जीतनेवाले हैं । मलिकाके फूलके जैसा सुगंध देनेवाला जिनका उत्तम शरीर है तथा जो उन्नत और सत्पुरुषों के पालक हैं।
एक दिन भीम आदि द्वारा पूजित युधिष्ठिर हर्पके साथ सिंहासन पर विराजे थे । उनके ऊपर चवर ढोरे जा रहे थे और उनकी सेवामें बहुतसे नृपति उपस्थित थे । उनके ऊपर जो छत्र लग रहा था उसके द्वारा सूरजकी किरणोंके रुक जानेसे उनकी और भी अधिक शोभा हो गई थी।
इसी समय उनकी सभामें स्वर्गसे नारद आये । महाभाग पांडव उन्हें देखते ही उठ खड़े हुए और उनका उन्होंने उचित आदर किया। नारदने पांडवोंको इधर उधरकी विविध दन्तकथाएँ सुनाई । इसके बाद वह सुमना पांडवोंके साथ साथ उनके अन्तःपुरमें गये । वहाँ मनुष्य द्वारा वन्दित उन महापुरुपने दीप्तिपूर्ण झरोखों, छज्जोंवाले और मनको मुग्ध करनेवाले द्रोपदीके सुंदर महलको देखा। इस समय द्रोपदी वहाँ खूब ही वढिया शृंगार किये, मस्तक पर मुकुट दिये सिंहासन पर विराजी थी। वह अपने विशाल भालमें तिलक दिये थी और हृदयमें सर्वोत्तम सारभूत हार पहिने थी। उसने इस समय घर आये हुए नारदको न देख पाया और दर्पणमें पड़े हुए नारदके चेहरेको देख कर भी वह न तो उठ खड़ी हुई और न उनको उसने नमस्कार ही किया। इस अपमानसे नारद बड़े ही क्रुद्ध हुए और वह मस्तक धुनते तथा मन-ही-मन रोष करते वहॉसे उसी क्षण चले आये। ___ वह बड़-बढ़ाते हुए आकाशमें घूमने लगे । परन्तु जब उन्हें कहीं सन्तोष
न मिला तब वह आकाशमें दूर तक चल कर एक विशाल एकान्तमें पहुँचे। वहाँ . पहुँच कर वह सोचने लगे कि मैं वही न नारद हूँ जो सदा ही हर्षका भरा विना वाजोंके ही नाचा करता हूँ। लेकिन जब कारण मिल जाता है तब तो मेरे आनन्दका पार ही नहीं रहता । इस द्रोपदीने मेरा अपमान कर मुझे व्यर्थ ही कितना दुःखी किया है । अब तो मै जब इसका बदला ले लूँगा मुझे तभी सन्तोष होगा; मेरे इस अपमानका तभी प्रायश्चित होगा। इसके सिवा मुझे किसी तरह
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भी सन्तोष होनेका नहीं । यह अपने स्वामी आदि प्रिय पांडवोंका समागम पाकर ही इतनी निरंकुश हो रही है। इसे दूसरे द्वारा हरवा देकर प्रिय-वियोगमें डाल तभी यह दुःखिनी होगी । मैं इसे मार कर भी अपना बदला ले सकता हूँ; परंतु यह घोर पाप है । इस लिए ऐसा करना मुझे उचित नहीं है । अतः यही ठीक है कि किसी लंपटी पुरुषको खोज कर इसे उसके द्वारा हरवा ही दूँ ।
पाण्डव पुराण |
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नारायण, वलभद्र तथा और और सब राजे महाराजे तो मेरी वन्दना करें, मैं सबका गुरु और विशेष कर स्त्री जातिका गुरु, उस मेरे साथ इसकी यह कष्टदायी घृष्टता तथा दुष्टता जो गर्वके आवेशमें इसने मुझे कुछ भी न गिना और आप मजेके साथ आसन पर बैठी रही । बात तो यह है कि मैं भी अब कोई ऐसा ही प्रयत्न करूँ कि जिसके द्वारा जो शृंगार रस इसे इतना प्रिय है वह सब इसका छूट जाय । यह निश्चय है कि जब मैं इसके सौभाग्यको दूर कर दूँगामेरे मनोरथ भी तभी पूर्ण होंगे। मुझे जो अपमानका दुःख है वह मेरे हृदयसे तभी निकलेगा जब कि मैं आकाशमें होकर इसके हरे जानेको, आँखों देखूँगा । मन-ही-मन यह सब सोच कर कोपके भरे और उपायकी ताकमें लगे नारद ऋषि किसी परस्त्री-रत राजाको देखते हुए आकाश मार्ग होकर चले । खिन्नचित्त हुए नारदने बहुत जल्दी सारी ही पृथिवी घूम डाली । उन्हें कोई परस्त्री- रत राजा न देख पढ़ा । वह बड़े दुःखी हुए। सब जगह घूम फिर आये और जब जम्बूदीप भरमें भी उन्हें कोई ऐसा राजा नजर न आया तब वह परस्त्रीगामी राजाकी खोज में धातकीखंड दीपमें गये ।
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यह दीप विविध खंडों द्वारा समुन्नत है । चार लाख योजनका इसका विस्तार है । इसकी पूर्व दिशामें एक मंदर नाम पहाड़ है जो बहुत. अधिक मनोहर है, चौरासी हजार योजन ऊँचा है और जिस पर चार विशाल वन हैं। उन वनोंसे उसकी और भी अधिक शोभा है। इसकी दाहिनी बाजूमें जगत् विख्यात, अत्यन्त शोभा सम्पन्न और छह खंडों द्वारा मंडित भरत नाम क्षेत्र है । इस क्षेत्र के बीचों बीच अमरकंका नामकी एक पूरी है जो कि भूमंडलकी शोभा है, सुहावनी है, संसार भरमें उत्तम हैं, सार है और सुखकी खान है । इसका रक्षक है पद्मनाभ नामक महीपति। यह राजा इस नगरीकी बड़ी मीति के साथ पालना करता है; जिस तरह कि उन्नत पद्मनाभ - कृष्ण - सदा काल ही लक्ष्मीके मन्दिर ( महल ) की रक्षा - पालना करता है; उसे आश्रय दिये
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रहता है । इसने अपने वाहुदंडों द्वारा चरियोंको दण्डित किया था, अतः सब राजे इसकी स्तुति करते हैं । यह सब पाप-विद्याओंका ज्ञाता विद्वान् था । विशाल
और निर्मल इसका वक्षःस्थल था। पृथिवीकी रक्षा करनेमें यह बड़ा चतुर था । यह कभी भी शत्रुका लक्ष्य न होता था और रूपके द्वारा यह कामदेवको जीतता था।
उधर नारदने यह किया कि एक चित्र पट्ट पर अपनी सुन्दरताके द्वारा सारे स्त्रीसमूहको जीतनेवाला और बड़े अचम्भेमें डालनेवाला द्रोपदीका सुंदर चित्र खींचा और लेजो कर अपनी दीप्तिसे सूरजको जीननेवाले उस चित्रको उसने पद्मनाभ राजाकी भंट किया । उस चित्रमें सोनेकी जैसी उज्ज्वल और सुंदर हार द्वारा शोभित कुचोंवाली द्रोपदीको देख कर वह मन-ही-मन विचार करने लगा कि यह कौन है ! स्वर्गसे आई हुई शची है या अपना महल छोड कर लक्ष्मी ही आ गई है । यह रोहिणी है या सूरजकी पत्नी ही पृथिवी पर आ पहुंची है। अथवा किन्नरी या खेचरी तो नहीं है; एवं गुणशालिनी यह कामकी पत्नी रति तो नहीं है। यह कौन है-किसका यह चित्र है । यो नाना विकल्प पर उसने बहुत विचार किया, पर वह उसके विषयमें कुछ भी निश्चय नहीं कर सका कि यह मोहनवल्ली कौन है, इम तरहका विचार करता करता ही वह मोह-वश होकर मूच्छित हो गया । उसकी यह दशा देख महलके सब लोग हाहाकार करते हुए वहाँ दौड़े आये । उन्होंने तुरंत शीतोपचार आदि उपाय किये तब चिंतासे पीड़ित पद्मनाभ कुछ होशमें आया । होशमें आते ही नारदको देख उसने उन्हें प्रणाम कर पूछा कि प्रभो, यह उत्तम स्त्री कौन है कि जिस महान् रूपवाली, सुविभ्रमा और विभ्रम-पूर्ण भूयुक्त आननवालीका यह चित्र है। भव्येश, सब बातें ठीक ठीक कहिए, ताकि मुझे पूरा पूरा निश्चय हो जाय । उत्तरमें नारदने कहा कि राजन्, यदि आपको इस अपूर्व सुंदरीके विषयमें जिसका कि • यह चित्र है, जाननेकी इच्छा हो तो जरा ध्यान देकर सुनिए । मै उसका
सव वृत्तान्त कहता हूँ । निश्चय है कि उसको सुननेसे आपका चित्त स्थिर हो जायगा।
सब दीपोंके ठीक वीचमें एक जम्बूदीप नामक दीप है जो कि बड़ा ही मनोहर और महान् है और जिसने कि अपने वृत्त (गोलाकार) द्वारा चंद्रमा और योगियोंको भी जीत लिया है। (योगियोंके पक्षमें वृत्तका अर्थ चारित्र समझना
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चाहिए ।) इसके बीच में दीप्त सुदर्शन नाम मंदर ( पहाड़ ) हैं जो लाख योजनका ऊँचा है और पृथिवीका तिलक जैसा है । इसके दक्षिण ओर चढे हुए धनुषक आकारका कलाओंसे पूर्ण, छह खंडोंमें विभक्त और संसार भर में उत्तम भरत नाम क्षेत्र है ।
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इसमें एक कुरुजांगल नाम देश है जो कि वहुत सुंदर हैं, कुरुभूमि तुल्य देशोंसे परिपूर्ण है, अपनी बढ़ी चढ़ी विभूति द्वारा सुशोभित है । इस देश में हाथियों के समूह द्वारा सर्वोत्तम हस्तिनापुर नाम नगर है । जिनकी खाई सदा ही गंगा जल द्वारा भरी रहती है । हस्तिनापुरके राजा युधिष्ठिर हैं। वह कौरवाग्रणी हैं और पृथिवीको धारण करनेके लिए पूर्ण समृद्ध हैं । संसार- प्रसिद्ध सार्थक नामधारी पार्थ उनका एक भाई है । उसकी पत्नीका नाम है द्रौपदी । बस, इस चित्रमें लिखा हुआ यह उसी सुरूपिणीका रूप है सच कहता हूँ कि यदि आपको संसारका सार सुख भोगने की इच्छा हो तो आप इस स्त्रीरत्नको हस्तगत कीजिए । राजन्, इसके बिना पाये आप अपने जीवनको व्यर्थ ही समझिए | अब आपको जो रुचे वही कीजिए | इतना कह कर नारद तो आकाशमार्ग द्वारा चले गये और इधर उधर राजा द्रोपदीके रूप द्वारा चित्तके हरे जानेके कारण उसको याद करता हुआ बड़ा भारी दुःखी हुआ । यहाँ तक कि उसे उसके मिले बिना चैन ही नहीं पड़ने लगा । अन्तमें उसके प्राप्तिका कोई उपाय न देख वह वनमें गया और वहाँ मंत्री आराधना में चित्त देकर उसने बहुत जल्दी एक गदाधारी संगम नाम सुरको साध लिया । संगमने आकर, प्रणाम कर कहा कि देव, मुझे अपनी उस इष्ट - सिद्धिकी आज्ञा दीजिए जिसके द्वारा आपका चित्त प्रफुल्ल हो; आप खुश हों ।
तब राजाने सन्तुष्ट होकर उससे कहा कि, देव, परमोदर्यशाली, अनुपम रूप-सम्पन्न और मानिनी द्रौपदीको लाकर मुझसे मिला दो । बस, मेरी यही कामना है । और इसी लिए ही मैने तुम्हें कष्ट दिया है। राजाके बचन सुन कर अनुरागका भरा कार्य-कुशल वह देव आकाश मार्ग द्वारा बहुत जल्दी दो लाख योजन वाले समुद्रको वातकी बातहोंमें लाँघ कर, विना किसी रोकटोकके हस्तिनापुर पहुँच गया । वहाँ वह रातमें द्रोपदी के महलमें गया और उसने सोई हुई साक्षात् लक्ष्मी जैसी द्रोपदी को हर लाकर, सोई हुई अवस्थामें ही, पद्मनाभके उद्यानके एक सुंदर महलमें छोड़ दिया । नींदके वश हुई द्रोपदीको इस समय हेय उपादेयका
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कुछ भी भान न था-वह वहाँ शय्या पर पड़ी हुई प्रातकाल तक बराबर
सोती ही रही । इसके बाद ही उसके हर ले आनेकी वातकी सूचना देवने पद्म, नाभको दी । वह सहसा जाग कर और अपनेको संभाल कर बड़ी सावधानीके साथ आदरका भरा द्रोपदीके पास आया । वह उस सोने जैसी उज्ज्वल, स्थूल और कठिन कुचोंवाली और सुन्दर जॉघों द्वारा सुशोभित चन्द्रवदनी द्रोपदीकी नींदसे भरी हुई छविको देख कर बड़ा खुश हुआ। वह प्रेमके आवेशमें आकर वोला कि भद्रे, रात्रि चली गई और सवेरा हो गया। अत: भामिनि, अब नींदको छोड़ो और उगे । सुलोचने, कला-कौशलमें पारको प्राप्त हुई देवि, अपनी सुंदर वाणी वोलो । पद्मनाभने इस प्रकार अमृत-तुल्य सुमधुर वाक्यों द्वारा जब उसे जगाया तव आँखें खोलते ही वह भयभीत मृगीकी भॉति व्याकुल नेत्रों द्वारा सव दिशाओंमें देखने लगी । वह बड़ी चिन्तामें पड़ गई कि यह देश कौन है, यह मुझसे कौन बातचीत कर रहा है, यह जो सामने खड़ा है कौन है, यह उद्यान किसका है और यह महल किसका है । जान पड़ता है यह सव स्वम है, साक्षात्में ऐसा दृश्य कहॉसे आ सकता है । यह सोच कर, वह आँखें मींच और मुंह ढंक कर फिर सो रही। उसकी यह हालत देख कामपीड़ित राजा उसके मनकी बात जान कर बोला कि कमलनयनी देवि, देखिए यह स्वम नहीं है । प्रहर्षिणि, जिसे कि तुम स्वम समझ रही हो वह सव सच्चा दृश्य है । उसके वचन सुन कर द्रोपदीको जान पड़ा कि वह स्वम नहीं देख रही है। उसने चारों दिशाओंमें दृष्टि डाली तो उसे छोटी छोटी घंटियोंसे युक्त एक सुंदर शोभमान विमान दिखाई दिया।
इसके बाद परस्त्री-लंपट, लोभी, कपटी, और पटु पद्मनाभ द्रोपदीसे वोला कि भामिनि, जिस देशमें इस समय तुम हो वह घातकीखंड नाम दीप है । इसका चार लाख योजनका विस्तार है और यह सब तरफसे कालोदधि समुद्र द्वारा घिरा हुआ. है। और यह सोनेकी कान्ति युक्त गृहों द्वारा सुदीप्त, मणि-मुक्ताफलों द्वारा भरीपुरी प्रसिद्ध अमरकंका नाम नगरी है । इसका स्वामी मैं पद्मनाभ राजा हूँ, जिसने
कि अपने पराक्रमसे सब दिशाओंको वश कर लिया है और शत्रुओंको जड़से : उखाड कर फेंक दिया है तथा जो इन्द्रके तुल्य है । भामिनि, तुम्हारे लिए मैंने
बड़ा कष्ट उठा कर हठ-पूर्वक एक देवताको साधा और उसीके द्वारा तुम्हें चुला मॅगाया । तुम्हारे बिना मुझे खाना-पीना कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। देखो तुम्हारे विरहमें मै मरेके जैसा हो गया हूँ। उस देवताने बड़ी कृपा की जो कि वह तुम्हें ले आया । भीरु, अब तुम भय मत करो; किन्तु प्रसन्न होकर मेरे साथ
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भोग विलास करो; और देश, खजाना, पुर, रत्न, हाथी-घोड़े, महल वगैरह जो कुछ तुम्हें अच्छा जान पड़े उसे ग्रहण कर अपना मन वहलाओआनंद करो । सुंदरि, मेरे हृदयमें जो विरहकी आग जल रही है उसे बुझाओ-शान्त करो । विरहकी आग द्वारा जलते हुए मेरे मर्म-स्थल पर भोगरूपी जल सींचो । हे कामदेवकी प्रतिमा रूपी देवि, तुम विपाद छोड़ कर मेरी तरफ सीधी दृष्टि डालो और भव्ये, मेरे साथ सुख-भोग भोगो। हे सुख देनेवाली महादेवी, 'तुम मेरे मनकी व्यथाको दूर करनेवाली राज-रानी बनो और भव्य भाव-सीधे-साधे स्वभाव का परिचय दो।'
पद्मनाभके ऐसे वचनोंको सुन कर शोकमें निमग्न हुई वह सती थर थर काँपने लगी और जब वह अपने हृदयके वेगको न रोक सकी तव एकदम से पड़ी। उसकी
आँखोंसे ऑसू बह चले। गरज यह कि वह पद्मनाभकी चापलूसीकी बातोंसे बड़ी खिन्न हुई । वह युधिष्ठिर आदिको याद कर विलाप करने लगी कि हा पूज्य युधिष्ठिर, तुम धर्म-बुद्धि के धारक हो; हा भीम, तुम बड़े वीर और पवित्र कहे जाते हो तथा हा रणमें सामर्थ्य दिखानेवाले और शत्रुओंको वश करनेवाले स्वामी अर्जुन, देखते नहीं कि मुझ पर यह कैसा दुःखका पहाड़ टूट पड़ा है। बतलाओ यहाँ मेरी कौन रक्षा करेगा । तुम ऐसे अचेत-सावधान-रहे जो तुम्हें मेरे हरे जानेकी भी खबर न हुई । यही तुम्हारी वीरता है ! बतलाओ अव मेरी क्या गति होगी । परन्तु इसमें तुम्हारा भी क्या दोष है । तुम्हें मेरे हरे जानेकी खबर ही नहीं है। और जब तक तुमको मेरी खवर न मिले तब तक भला तुम प्रयत्न ही क्या कर सकते हैं। हा, देवताने मुझे सोई अवस्थामें हर लिया और लाकर यहाँ छोड़ दिया । उसने मेरे साथ बड़ा अनुचित काम किया है-उसे ऐसा करना उचित नहीं था । इस तरह विलाप करती द्रोपदी तो रंज कर रही थी और पद्मनाभ अपनी बात सोच रहा था। बाद वह द्रोपदीस बोला कि सुश्रोणि, तुम शोक काहेको करती हो । यहाँ तुम्हें कष्ट ही किस वातका है । तुम शोक छोड़ कर आनन्दसे रहो और सुखकी प्राप्तिके लिए मेरे साथ रमण करो। मेरे साथ रमनेसे तुम्हें अपूर्व सुख होगा । प्रिये, धनंजयकी आशा छोड़ो और विषाद त्याग कर भोगोंका आनन्द लो ।
पद्मनाभके शीलको भंग करनेवाले इन वचनोंको सुन कर द्रोपदीने सोचा कि मनुपयोंका सच्चा गहना शील-रूपी रत्न ही है। यही एक ऐसा मंत्र है कि जिसकी वजहसे
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३५५ सुर-असुर और नरेश्वर भी उसके दास बन जाते हैं । शीलसे ही उज्ज्वल, सुंदर शरीर मिलता है-उच्च कुलमें जन्म होता है, स्वर्गकी प्राप्ति होती है और उसीसे चक्रवर्तीका पद मिलता है। शीलके द्वारा ही स्त्री जातिकी शोभा होती है और उसीके प्रभावसे जलती हुई आग भी पानी हो जाती है; जैसी कि सीताके लिए हुई थी। शीलके प्रभावसे जिस तरह सुलोचनाके लिए गंगा जैसी नदी भी थल हो गई, उसी तरह और भी जो जो स्त्री-जन शीलका परिपालन करेंगी उनके लिए भी जल थल हो जायगा । अधिक कहाँ तक कहा जाय यह शील ऐसा है कि इसका पालन करनेसे जीवोंको सव सुख प्राप्त होते है-उनके लिए बड़ा भारी समुद्र भी क्षणभरमें गायके खुर तुल्य छोटासा गढ़ा हो जाता है। इस सम्बन्धमें श्रीपालकी स्त्री मैनासुंदरी स्मरणीय उदाहरण है । शीलवतका पालन करनेमें माण भी चले जायँ तो भवभवमें सुख प्राप्त होता है। अतः प्राण जायें तो भी मैं किसी तरह शीलको नहीं छोडूंगी । उसे प्राणोंके बदलेमें रक्तूंगी।
यह सब सोच कर वह साहसके साथ पद्मनाभसे बोली-तुम नहीं जानते कि किससे ऐसी वेहूदी बातें कह रहे हो। जानते हो संसार प्रसिद्ध पॉच पांडव मेरे रक्षक है, वे अखंड धनुर्धर हैं, इन्द्रोंके भी विजेता हैं । उनके प्रभावसे दृढ़-चित्त देवता भी थर-थर कॉपते हैं । उनके रहते किसी शत्रुकी ताब नहीं जो उन्हें युद्ध में विचरते जरा भी रोक सके वा उनके आत्मीयको कष्ट दे सके । सच कहती हूँ कि वे ऐसे वीर हैं कि अपने सघन आघातों द्वारा वैरियोंको वातकी बातमें नष्ट कर डालते हैं । इतने पर भी तीन खंडके स्वामी, सुर-असुरों . द्वारा पूजित और भारतके भूपण कृष्ण-बलदेव जैसे जिसके भाई हैं उसी द्रोपदीके न साथ तुम्हारा यह बर्ताव है । तुम्हारी तरह ही एक वार कीचकने मेरे शीलको बिगाड़नेकी चेष्टाकी थी। फिर मालूम है कि उसे उसके सौ भाइयोंके साथ प्रचंड पांडवोंने एकदम मार डाला था । हे मानी राजा, तुमने जो कुछ किया सो तो किया, पर अव अपनी पोप-वासना त्याग दो । देखो, तुमने एक नागिनको या यों कहो कि विषकी वेलको अपने घरमें बुलाया है। इसका परिणाम बहुत बुरा होगा। तुम मेरी आशा छोड़ कर सुखसे रहो । इतने पर भी तुम्हें मेरे कहनेका विश्वास न हो तो एक महीना ठहरो । तब तक बहुत करके पाण्डव भी यहाँ आ जायँगे । तब तुम्हें अच्छा जान पड़े सो करना । द्रोपदीके वचन सुन कर पद्मनाभने मन-ही-मन यह सोचा कि यह कहती तो है, पर इतने विशाल रत्ना
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करको पार कर यहॉ पाण्डव आ ही कैसे सकते हैं । इसके वाद राजा चुप हो रहा। और द्रोपदी आहार -पानी, वेष-भूषा आदि सब छोड़ चित्रमें लिखी हुई काठकी पुतलीकी भाँति हो रही ।
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उधर हस्तिनापुर में सवेरा हुआ । तव पांडवोंको जान पड़ा कि सर्वोत्तमा द्रोपदी महल में नहीं है— वह शत्रु द्वारा हरी गई । उसे बहुत देखा-भाला, पर कहीं उसका पता न पाया — उन्होंने उसकी भर सक खोज की, पर उसे कहीं भी न देखा ।
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इसी समय एक अपरिचित जनने द्वारावती जाकर कृष्णको प्रणाम कर उनसे द्रोपदीके हरे जानेका सारा हाल कहा । जिसे सुन कर रण-विषम कृष्णको बहुत दु:ख हुआ । उसका परिणाम यह निकला कि उन्होंने क्रोधमें आकर युद्धकी घोषणा कर दी । कृष्णकी आज्ञा पाते ही उनके हसते हुए घोड़े, गर्जते हुए हाथी और चीत्कार करते हुए रथ चले । पयादे नंगी तलवारें, भाला, धनुष वगैरह हाथमें लिये हुए राज-आँगनमें आये । इधर जब तक कृष्ण चतुरंग सेना ले चलने को तैयार हुए तब तक उधर नारद अमरकंकापुरी पहुँचे । वहाँ उन्होंने तपे सोने के जैसी प्रभावती कृशोदरी द्रोपदीको बाल बिखरे और आँसुओंसे मुँह भींगे हुए देखा वह मारे रंजके अपने हाथ पर कपोल रखे बैठी थी । ऐसी हालत में उसे देख कर यह जान पड़ता था मानों हलन चलन आदि क्रिया रहित प्रतिमा ही है । अथवा कामसे बिछुड़ी हुई रति या इन्द्रसे बिछुड़ी हुई इन्द्राणी ही है; और वह अपने अनुपम रूप रूपी तलवार जीत कर ही यहाँ स्थिर हो गई है । द्रोपदीको ऐसी हालत देख कर कलहप्रिय नारद मन-ही-मन सोचने लगे कि हाय मानके वश होकर मुझ पापीने इस सतीको व्यर्थ कष्टमें डाला । यह मैंने अच्छा नहीं किया ।
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इसके बाद वह रणके लिए उद्यत हुए कृष्णके पास पहुँचे और उनसे वोले कि नारायण, तुमने यह विशाल सेना किस लिए एकत्र की है । द्रोपदीके लिए हो तो वह तो धातकीखंड दीपकी अमरकंकका पुरीमें मौजूद है। पूछो कि वह वहाँ कैसे पहुँची तो इसका उत्तर: यह है कि जिस तरह रावणने सीताको हरा था उसी तरह वैरियोंके वंशभरका नाश करनेवाले पद्मनाभ राजाने एक देवताकी आराधना कर उसे हरा है— उसे देवताके द्वारा वहाँ बुला मँगाया है। चाहे कैसा ही वलवान मनुष्य क्यों न हो वहाँ जानेकी किसी की भी शक्ति नहीं | अतः आप बेफिक
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३५७. होकर वैठिए । कारण वहाँसे द्रोपदीको लाना बहुत ही दुर्घट है कठिन है।
यह सुन कर कृष्णने सारी सेनाको तो वहीं छोड़ा और आप अकेला ही स्थ , पर सवार होकर हस्तिनापुर गये । वहाँ पाण्डवोंने कृष्णको द्रोपदीके हरे जानेका सारा हाल सुनाया, जिसे सुन कर बड़ा भय मालूम पड़ता था।
इसके बाद उन सबने मिल कर विचार किया और यह निश्चय किया कि लवण-समुद्रका लॉघना बहुत कठिन है, अत: इसके लिए कोई दूसरा ही उपाय करना चाहिए। यह विचार विचार कर वे निष्पाप लवण समुद्रके तीर पर गये और वहॉ शक्तिशाली कृष्णने तीन उपवासके बाद उस समुद्रके स्वामी स्वस्तिक नाम देवको साधा । उसने इन्हें जल पर चलनेवाले शीघ्रगामी छह रथ दिये । जिन पर सवार होकर ये छहोंके छहों ही वातकी घातमें अमरकंकापुरी पहुँच गये। वहाँ जाकर विष्णु और पांडवोंने सिंहनाद किया । कृष्णने सा-धनुष चढ़ा कर भीपण टंकार किया। भीमने विजलीके जैसी गदाको वेगके साथ घुमाया । नकुलने शत्रुको भेदनेवाला माला हाथमें लिया और सहदेवने दीप्तिशाली तलवार हाथ ली । एवं धर्म पुत्र-युधिष्ठिरने जीतनेवाली शक्तिको धारण किया । अपने सव भाइयोंको युद्ध के लिए उद्यत देख कर युधिष्ठिरको प्रणाम कर पार्थने कहा कि आप सब तो विश्राम कीजिए-मैं अकेला ही क्षणभरमें शत्रुको वारण कर दूंगा। आपको कार उठानेकी जरूरत नहीं है ।
यह कह पार्थने देवदत्त नाम शंखको फूंकते हुए एक उत्तम रथमें सवार हो, धनुष सँभाल शत्रु पर घावा मारा । कृष्णने लोगोंको भय देनेवाला पॉचजन्य शंख वजाया । उसको सुन कर वलसे उद्धत पद्मनाभ पुरसे बाहिर निकला; और उस बलीने रणके वाजोंके शब्द द्वारा सव दिशाओंको बधिर करते हुए तथा धूल द्वारा आकाशको ढंकते हुए वेगके साथ पार्थसे खूब युद्ध किया । पार्थने अपने महान् तीखे शरों द्वारा उसे जर्जरित कर दिया, जिससे वह रणको पीठ देकर भागा और फाटक बंद कर पुरी में छिप रहा। कृष्णने जाकर पॉवोंके कठिन महारों द्वारा फाटकको तोड़ डाला । वे सब नगरीके भीतर गये और वहाँ उन्होंने सब लोगोंको भय भीत कर दिया । भीमने अपनी गदाके द्वारा बहुतसे मंदिरमहल गिरा दिये और उनकी सव लक्ष्मी लूट ली । यह देख लोग भागे । उनके साथ ही राजा भी भागा। वह भाग कर त्राहि त्राहि कहता द्रोपदीके शरण पहुंचा और बोला कि देवी, मैंने तुम्हें हर कर जो पाप किया उसीका यह फल मुझे
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पाण्डव-पुराण। www.wwwwwwwwwwwwww ws ano man www ww . - मिल रहा है । मेरी तुम रक्षा करो । द्रोपदी बोली कि मूह, मैंने तो तुझसे पहले ही कहा था कि पाण्डव बहुत जल्दी आवेंगे और तुझे नष्ट कर देंगे । भला, जिन्होंने युर्योधन आदिको क्षणभरमें जीत लिया उनके आगे तेरी तो बात ही क्या है । राजा द्रोपदीकी खुशामद कर ही रहा था कि उसी समय वहाँ हाथी जैसे निरंकुश पांडव पहुँच गये । उन्हें देखते ही रक्ष-रक्ष कहता हुआ पद्मनाभ एकदम नम्र हो गया। वह द्रोपदीकी ओर देखता हुआ भयसै आतुर हो बोला कि देवी, तुम अखंड शील पालनेवाली सच्ची सुशीला हो । तुम मुझे अभयदान दो, जिसके द्वारा कि इनसे मेरे प्राण बचें। यह सुन द्रोपदीने उसे अभयदान दियाउसके हृदयसे पांडवोंकी तरफका भय निकाल दिया । इसके बाद विनयके साथ कृष्ण और पांडवोंको नमस्कार कर उसने उनका भोजन आदिसे बड़ा सत्कार किया। इस समय पांडवोंने द्रोपदीके साथ स्नान कर और अर्हन्त देवके चरणकमलोंकी पूजा कर उसको पारणा कराया । .
शुभचन्द्र जिनेन्द्रको उत्तम भक्तिसे नमस्कार कर भव्य-भावको प्राप्त हुए सुभव्य पांडवोंने द्रोपदीको प्राप्त कर जो सर्वोत्तम लोक-व्यापी उज्ज्वल यश प्राप्त किया वह सब पुण्यका ही प्रभाव है।
देखो, वह सब जिनदेवके बताये धर्मका ही प्रभाव है जो कि राजों द्वारा पूजित पद्मनाभ राजाको जीत कर पांडवोंने दूर देश घातकीखंड दीपमें प्रतिष्ठा पाई
और पार्थ-पत्नी द्रोपदीको प्राप्त किया । यह जान कर हे भन्य-गण, सदा धर्मका सेवन करो।
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तेवीसवाँ अध्याय ।
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तेबीसवाँ अध्याय।
में उन उत्तम मुनि, सुव्रत धारण करनेवाले और मुनियोंको सुव्रत-उत्तम
"व्रत-देनेवाले मुनि-सुव्रत जिनको नमस्कार करता हूँ जिनके आश्रयसे मनुष्य मुनि-सुव्रतका धारी हो जाता है ।
पांडवोंने कृष्ण के चरणों में प्रणाम कर कहा-इन शब्दोंमें हर्ष प्रगट किया कि हमने जो वैरीके द्वारा हरी गई द्रोपदीको प्राप्त किया, यह सब आपहीका प्रभाव है । इसके बाद मनोरथ सफल होनेसे प्रसन्न-चित्त पांडव सुंदरी द्रोपदीको लेकर, रथ पर सवार हो वहाँसे चले । चलते समय कृष्णने महान नाद करनेवाले
और समुद्र जैसी गंभीर ध्वनिवाले अपने पाँचजन्य शंखको पूरा । जिसके पृथ्वीको कॅपानेवाले शब्दको सुन कर धातकीखंडकी चंपापुरीका स्वामी त्रिखंडमण्डल-पति महामना कपिल नारायण जो कि जिन देवकी वन्दनाको आया था, चौंक पड़ा और उस अर्द्धचक्रीने वहीं समवसरणमें स्थित मुनिसुव्रत स्वामीसे प्रश्न किया कि प्रभो, यह शंखध्वनि किसकी है-या किसने की है । उत्तरमें भगवान वोले कि जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें द्वारावती नामकी पुरी सुशोभित है । वहाँका राजा तीन खंडका प्रभु कृष्ण नारायण है । वह पार्थप्रिया द्रोपदीके लिए यहॉ आया है और उसीने यह शंखध्वनि की है।
इसके बाद कपिल चक्रीको कृष्णसे मिलने या उसे देखनेका इच्छुक देख कर भगवानने कहा कि नारायण, देखो, यह नियम है कि चक्री चक्रीको, नारायण नारायणको, तीर्थकर तीर्थंकरको और वलभद्र वलभद्रको देख नहीं सकते; और न ये आपसमें मिल-जुल ही सकते हैं। लेकिन यदि तुम चाहो तो जाते हुए उनकी ध्वजाका अवश्य ही दर्शन कर सकते हो ।
भगवानके द्वारा यह सुन कर भी कपिलके हृदयसे कृष्णको देखनेकी इच्छा दूर न हुई और वह . उसको देखनेकी इच्छासे गया भी; परन्तु जिन देवके कहे अनुसार उन दोनोंको परस्परमें एक दूसरेकी धुजाका ही दर्शन हो सका। दोनोंने अपने अपने शंख फूंके। उनका शब्द भी दोनोंने ही सुना। इसके बाद कृष्णको समुद्रमें प्रवेश कर गया जान कर कपिल पीछा लौट आया और चंपामें आकर उसने परस्त्री-लंपट पद्मनाभकी पूरी-पूरी भर्त्सना की । वाद इसके वह तीन खंडका पति वहाँ सुखसे रहने लगा।
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उधर वे सब पहलेकी भाँति ही समुद्रको पार कर उसके इस तट पर आ गये । वहाँ आकर कृष्णने पाडवोंसे कहा कि आप चलिए और जब तक मैं स्वस्तिक देवको विसर्जन करके आता हूँ तब तक यमुनाकों पार कर मेरे लिए नौका पीछी भेजिए । कृष्णकी आज्ञा पाकर पांडव द्रोपदी - सहित यमुना पार कर उसके दाहिने किनारे जा बैठे । वहाँ यमुनाको पार करते समय कृष्णका बाहुबल देखनेकी इच्छासे भीमने यह धूर्तता की कि नौकाको उठा कर एक किनारे रख दिया । इसी समय देवताको विदा करके कृष्ण आ गये और यमुनाके जलको अथाह देख कर उन्होंने पांडवों से कहा कि आप लोगोंने इतनी जल्दी यमुना कैसे पार कर ली । सुन कर पांडवोंने यह छलभरा उत्तर दिया कि हमने जो यमुनाको पार किया है वह बाहुदंडों द्वारा पार किया है । यह सुन कृष्णने उसी क्षण कूद कर हाथोंसे ही यमुना पार करना शुरू किया और वे बहुत जल्दी उसके पार पहुँच गये । वहाँ जाकर कृष्णने पांडवोंको देख कर बड़ा हर्ष प्रगट किया । इस समय कृष्णको देख कर पांडव खूब ही खिलखिला कर हँस पड़े । उन्हें हँसते देख कर कृष्णने पूछा कि आप लोग इतना क्यों हँस रहे हैं । मुझे इसका भेद बताइए | सुन कर पांडवोंने कहा कि हम सब तो यमुनाको नौकाके द्वारा ही पार कर यहाँ आये — लेकिन तुम्हारा बाहुबल देखनेकी इच्छासे हमने वह नौका छुपा दी थी । महाराज, आपने हमारे साथ जैसा अघटित कार्य किया वैसा कोई नहीं कर सकता । अतः हम कहे बिना नहीं रह सकते कि आप वैरी रूपी हाथियोंके कुंभ - स्थलोंको विदारनेके लिए हरि - हरि ( सिंह ) हो, यह बिल्कुल ठीक है । पांडवोंकी ऐसी छळभरी बातें सुन कर कृष्णने दिखाऊ क्रोध से हसते हुए कहा कि सचमुच तुम लोग बड़े छली हो, स्वजनके स्नेह-रहित और मायाके पुतले हो और सदा ही दुष्टता किया करते हो । अच्छा, बताओ कि नदीको तैरते समय तुमने हमारा कौनसा माहात्म्य देखा, जिसे कि तुमने गोवर्धन उठाने के समय, कालिन्दी नागके मर्दन के समय, चाणूर मल्लको चकनाचूर करते वक्त, कंस घात के समय, अपराजितके नाशके वक्त, गौतम अमर के संस्तवके समय, रुक्मिणी हरणके समय, शिशुपाल वध के समय, जरासंध वधके समय, चक्ररत्नकी प्राप्तिके समय और तीन खंडके परम ऐश्वर्य के समय नहीं देख पाया था । नदी तैरते समय किसीका वल देखने में कौनसा महत्त्व है - यह तो बहुत ही छोटा काम है । बात यह है कि तुम लोग
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दुष्टात्मा हो, अतः तुम्हारी जड़ता नहीं जाती । अब तुम लोग यहाँसे सौ योजन दूर जाकर चिरकाल तक दक्षिण मथुरा में रहो । यहाँ तुम्हारा कुछ काम नहीं है । कृष्णके इन वचनों से पांडवोंको बड़ा दुःख हुआ । वहाँसे वे हस्तिनापुर चले गये । कृष्णने तव वहाँका राज्य सुभद्राके पौत्र, विराट राजाकी पुत्री उत्तरा देवी से पैदा हुए अभिमन्युके पुत्र पारीक्षित को दिया। इसके बाद कृष्ण द्वारावती चले आये । और उद्धत पांडव मातृकान्त आदि पुत्रों सहित दक्षिण मधुरा चले गये ।
द्वारावती में एक दिन नेमिनाथ भगवान और कृष्ण राजसभामें विराज रहे थे । बलके महत्व पर चर्चा छिड़ी कि दोनोंमें कौन अधिक बलवान् है । उस समय I वहाँ नेमिनाथ स्वामीका वल लोगोंने कृष्णसे कम वताया । यह देख नेमि प्रभुने अपना वल वतलाने के लिए कृष्णको अपनी उँगली सीधी कर देने के लिए कहा । कृष्ण उँगली पकड़ कर उसे सीधी करने लगे, पर वे कर नहीं सके। प्रभुने विनोदमें उन्हें ऊपर उठा लिया । कृष्ण एक दम लटक गये और नेमिनाथ उन्हें झुलाने लगे। इससे कृष्णने अपना अपमान समझा । और इसका फल यह हुआ कि अव कृष्ण नेमिनाथ स्वामीकी तरफ से राज-काज से उदास हो गये । इसके बाद एक दिन जलक्रीड़ाके समय नेमिनाथ प्रभुने कृष्णकी रानी जाम्बूवतीसे अपना कपड़ा निचोड़ देनेके लिए कहा । उस समय अभिमानमें आकर उसने नेमि जिनेश्वरकी बात पर कुछ ध्यान न दिया । वहॉसे नेमि प्रभु कृष्णकी शस्त्रशालामें गये । वहाँ जाकर प्रभु नागशय्या पर लेट गये । फिर उन्होंने साई नाम धनुष चढ़ाया और नाकके द्वारा पॉचजन्यको शंखको पूरा | शंख के शब्दको सुनते ही वहाँ कृष्ण आये और उन्होंने नेमि प्रभु के चरण-कमलोंको नमस्कार कर उनके बलकी बड़ी तारीफ की। मौका देख कर उन्होंने प्रभुसे व्याहके लिए भी प्रार्थना की।
इसके बाद कृष्णने नेमिनाथके लिए उग्रसेनसे, जायावती रानीके गर्भ से पैदा हुई राजीमती नाम पुत्रीकी याचना की । राज्यके लोभसे कृष्णने यह प्रपंच रचा कि नेमिनाथ प्रभु किसी तरह विरक्त हो जायें । वारात आनेके दिन कृष्णने मार्गमें जगह जगह बहुत से पशु बंधवा दिये । विवाहके अर्थ जाते समय उन बँधे हुए पशुओं देख कर नेमिनाथ प्रभुने : उनके रखवालोंसे पूछा कि ये पशु काहेके लिए घेरे गये है। उन्होंने उत्तर दिया कि वारातमें जो मांसभक्षी लोग भाये हैं उनके अर्थ ये वध किये जायेंगे । बस यह सुनते ही नेमिनाथ विरक्त हो गये । रागसे उनका आत्मा बहुत अधिक दूर हट गया । वे बारह भावनाओंका विचार करने लगे। फिर क्या था, नियोग वश तत्काल ही लौकान्तिक देव आये और उन्होंने मनुके वैराग्यकी बड़ी भारी प्रशंसा की ।
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पाण्डव-पुराण। ____ इसके बाद देवकुरु नामकी पालकी पर सवार होकर भगवान वनको चले गये। और वहाँ सहस्साम्रक्षके नीचे बैठ कर सावन सुदी छटके दिन हजार राजोंके साथ साथ प्रभुने दीक्षा ग्रहण की । थोड़े ही समयके वाद भागवानको मनापर्यय ज्ञान हो गया । इसके बाद आसन्न-केवली नेमिप्रभु पष्ठोपवासके बाद पारणाके लिए द्वारावती आये । उन्हें पारणाके लिए आया देख कर कनकाम नाम राजाने भक्ति-पूर्वक पड़गाहा, ऊँचे आसन पर बैठा कर उनके पॉच धोकर उनकी पूजा की और मन-वचन-कायकी शुद्धिके साथ उन्हें नमस्कार किया। इसके बाद नरेश्वरने अन्न-शुद्धि पूर्वक उन्हें आहार-दान दिया । तव श्रद्धा
आदि गुणोंके भंडार कनकाभके यहाँ पाँच आश्चर्यमयी वातें हुई । देवोंने साड़े बारह करोड़ रत्न बरसाये, फूल वखेरे, शीतल सुगन्धित पवन चलाई, सुगन्धित जल बरसाया और दुन्दुभि वाजे वजाये । इसके वाद आहार करके प्रभु वनको चले गये और वहाँ स्थिर होकर चिद्रूप परमात्माका ध्यान करने लगे। . इस प्रकार ध्यान करते प्रभुको छप्पन दिन छमस्थ अवस्थामें बीते। यहॉसे प्रभु रैवतक गिरि पर जाकर ध्यान करने लगे। वहाँ षष्ठोपवास धारण कर महाव्रतके धारी, गुप्तियों द्वारा अलंकृत तथा समितियोंके पालक प्रभु परीपहोंके तेजसे बड़े सुशोभित हुए। उन योगी जिनने धर्मध्यानके बल आयुकर्मके विना तीन कर्मको गला दिया। और फिर दर्शनमोहनीय कर्मकी तीन और चरित्र मोहिनीय कर्मकी चार अनन्तानुवन्धी कषाय इस प्रकार सात प्रकृतियोंको, जो कि आत्माके सम्यक्त गुणको घातती हैं, आत्मासे नष्ट कर दिया। इसके बाद शुक्लध्यानके बलसे उन्होंने घातिया कर्मोंकी शेष ४० चालीस तथा नामकर्मकी तेरह-नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, दो इन्द्रिय, ते ईन्द्रिय, चौ इन्द्रिय एकेन्द्रिय आतंप, उद्योत, साधारण,, सूक्ष्म और स्थावर-प्रकृतियोंका नाश किया, जिससे प्रभुकी आत्मामें अद्भुत केवलज्ञान-ज्योति प्रगट हो गई। तब कुँवार सुदी पड़वाके दिन उनके केवलज्ञानकी पूजाके लिए मनुष्य, सुर-असुर सभी आये । भगवानके वरदच आदि ग्यारह गणधर हुए। और तव कृष्ण आदि राजों द्वारा पूजित प्रमुकी अपूर्व ही शोभा हुई। __ इसके बाद वैरियों और पापों पर विजय पानेवाले उन भगवानके लिए धनदने आकर समवसरणकी रचना की । उसकी अद्भुत शोभा-थी .। समवसरण , प्रासादों, परिखाओं, लताओं, उद्यानों, कल्पवृक्षों, गृहों, पीठों भादिसे बड़ा शोभित था । मानस्तंभ,, नाट्यशालाएँ, उन्नत स्तूप, मार्ग,
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३६३ धूपघट, धुजाएँ और तालाव आदि उसकी अपूर्व शोभा बढ़ा रहे थे। सभाके ठीक वीचमें आठ प्रातिहार्यों और महान् चाँतीस अतिशयों द्वारा अलंकृत भगवान मुशोभित थे। समवसरणमें बारह समाएँ थी, जिनके सभ्य क्रमसे इस प्रकार थे-निम्रन्थ मुनि-गण, कल्पवासी देवोंकी स्त्रियाँ, अर्जिकाएँ, ज्योतिषी देवोंकी स्त्रियाँ, व्यन्तर देवोंकी स्त्रियाँ, भवनवासी देवोंकी स्त्रियाँ, भवनवासी देव, व्यन्तरदेव, ज्योतिषी देवे, कल्पवासी देव, मनुष्य, गौ आदि पशु । इन बारह प्रकारके सभ्यों द्वारा शोभित चतुरानन (चतुर्मुख) प्रभुने वरदत्त गणधरके लिए उत्तम धर्मका उपदेश किया । भगवान बोले कि जीव, अजीर, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये जिनमतके सात तत्व-पदार्थ-हैं। इसके वाद प्रभुने छह द्रव्य और पॉच अस्तिकायोंका उल्लेख कर उनके समुदाय रूप लोकका कथन किया और उसकी उर्द्ध, अधः, मध्य-रूपसे तीन तरहकी स्थिति वताई। उन्होंने लोकका हाल बताते हुए कायका उत्सेध, सात नरकोंके संस्थान, स्वर्गलोककी कल्पना तथा द्वीप-सागरोंके भेद कहे । इसके बाद भगवानने चार गति, पाँच इन्द्रिय, छह काय, पन्द्रह योग, तीन वेद, पच्चीस कषाय, आठ मद, सात संयम, चार दर्शन, छह लेश्या, भव्य-अभव्य, छह सम्यक्त्व, संज्ञा और आहारके भेद, यों चौदह मार्गणाओंका कथन किया; और चौदह गुणस्थान, चौदह जीवसमास, छह पर्याप्तियाँ, दस प्राण, चार संज्ञाएँ और वारह उपयोग-इनका दिग्दर्शन कराया। ___एवं प्रभुने जीव-जातियों, कुलों, यतिधर्म और श्रावक धर्मके अध्ययनका भी क्रम वताया । गरज यह कि भगवानने क्रमसे सभी पदार्थ समझाये ।' भगवानके द्वारा इस तरह शुभ धर्मको सुन कर कितनेहीने ग्यारह प्रतिमारूप श्रावक धर्मको ग्रहण किया और कितनोंने महाव्रत-पूर्वक संयमका आश्रय लिया । इस तरह धर्मष्टि कर भव्योंको संवोध देते हुए नेमिनाथ प्रभुने देश-विदेशमें विहार किया। इसके बाद तेजस्वी और आर्जव धर्मधारी भगवान सब देशोंमें विहार कर ऊर्जयंत पहाड़ पर आये । प्रभुको वहाँ आया जान कर उद्यमी यादव-गण वलदेवको आगे कर उनकी वन्दनाके लिए हर्षके साथ आये । वे भव्य भगवानकी स्तुति कर, उनको नमस्कार कर अपने योग्य स्थानमें बैठ गये और एक-चित्त होकर उन्होंने धर्म-श्रवण किया।
इसके बाद जिन भगवानको नमस्कार कर कृष्णके साथ-साथ बलदेवने प्रभुसे पूछा कि भगवन् , कृष्णका यह विशाल राज्यका ऐश्वर्य कब तक रहेगा
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पाण्डव-पुराण।
और द्वारावतीकी स्थिति कितनी है । भगवानने उत्तर दिया कि नृप, द्वारावती पुरी आजसे वारह वर्ष बाद मदिराके हेतुसे द्वीपायन मुनि द्वारा नष्ट होगी; और कृष्णकी जरत्कुमारके द्वारा लगभग तभी मौत होगी । भगवानकी यह वाणी . सुन कर और संयम लेकर द्वीपायन दूर देश चले गये और जरत्कुमार जाकर कौशाम्बीके वनमें रहने लगा। इसके बाद भगवान भी फिर वहाँसे अन्य देशको विहार कर गये।
इसके बाद जब समय पूरा हुआ तव द्वीपायन वापिस आ गये और अपनी दुर्दशा करनेवाले यादवों पर क्रोध करके उन्होंने सारी द्वारिकाको भस्ममें मिला दिया । सच है कि जिन-भाषित वात मिथ्या नहीं होती । इस तरह जव द्वारिका भस्म हो गई तव कृष्ण और बलदेव जाकर कौशाम्बीके गहन वनमें पहुँचे । वहाँ कृष्णको प्यासकी बड़ी बाधा हुई । बलदेव उनके लिए पानी लेने गये और कृष्ण अकेले ही वहीं रहे । इसी बीचमें दैवयोगसे वहाँ जरत्कुमार आ गया और कृष्ण उसके बाणोंका निशाना बन परलोक यात्रा कर गये । जब बलदेव पानी लेकर लौटे तो उन्होंने कृष्णको गत-आण पाया। बलभद्र और नारायणमें पूर्व भवकी बहुत ही गाढ़ी प्रीति होती है, अतः प्रीतिके वश हुए वलदेव कृष्णके मृत-शरीरको छह महीना तक छातीसे लगाये लिये फिरे । सिद्धार्थ देवने उन्हें बहुत कुछ समझाया, पर वे कृष्णके शरीरको किसी तरह भी मृत शरीर माननेको तैयार नहीं हुए और उसे लिये लिये ही फिरते रहे। ..
इसके बाद जरत्कुमार पांडवोंके पास गया और उसने अपने द्वारा हुई कृष्णकी मृत्युका हाल उनसे कहा । कृष्णका मरण सुन कर वे बड़े दुःखी हुए । साध्वी कुन्तीने भी बड़ा विलाप किया । इसके बाद बलदेवको देखनेकी इच्छासे जरत्कुमारको आगे कर सब पांडव बन्धु, मित्र, कलत्र आदि सहित वनमें चले । कितने ही दिनों तक चल कर वे जब वनविहारी वलदेवके पास पहुँचे तब उन्हें दुःखकी दशामें देख कर उन सबके हृदय दहल गये और दुःखी होकर उन्होंने बड़ा विलाप किया । इस समय उन्हें देख कर बलदेवको कुछ चेत हुआ और उठ कर उन्होंने कुन्तीको नमस्कार कर सबसे भेंट की । इसके बाद वहाँ कुछ देर बैठ कर पांडवोंने कहा कि बलदेव, आप विष्णुके महा शोकको अव छोड़ दीजिए और संसारकी विचित्र दशाको जान कर कृष्णके मृत शरीरका जल्दी ही संस्कार कीजिए । यह सुन कर मोहके वश हुए बलदेवने कहा कि जाइए, ऐसी बातें न कीजिए । तुम ही न अपने मित्र, पुत्र, बन्धु-बान्धवों सहित
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अपने माता-पिताको स्मशान भूमिमें लेजा कर चितामें झोंक दो । मुझे न समझाओ। मुझे सीख देने की जरूरत नहीं है । इसके बाद प्रवोध देते हुए पांडवोंने बलदेवके साथ सारा चौमासा बिना नींद लिये ही बिता दिया । एक दिन उसी सिद्धार्थ नाम देवने मृत देहका संस्कार करनेके लिए वलदेवको फिर भी समझाया । तव प्रवोधको प्राप्त होकर बलदेव वोले कि तुम बहुत अच्छे आये । तुम्हारे आनेसे मुझे बड़ा हर्ष हुआ । इसके बाद बलदेवने पांडवोंके साथ-साथ लूँगीगिरि पर जाकर कृष्णके देहकी दग्ध क्रिया की और बाद पिहितास्रव मुनिके पास जाकर उन्होंने संयम ले लिया ।
जिन उत्तम धर्म - रथकी धुराको धारण करनेवाले नेमि प्रभुने राज्यको तथा सुंदरी राजीमतीको त्याग कर दीक्षा धारण की, जो इन्द्रों द्वारा पूजित, कामको हरनेवाले, अतुल समभाव युक्त और भयको दूर करनेवाले हुए तथा जिन्होंने कर्मोंका नाश कर केवल ज्ञान प्राप्त किया वे प्रभु अंतमें संसारको धर्मामृतका पान करा कर गिरनार पर्वतके शिखर पर विराजमान हुए और वहाँसे उन्होंने मोक्ष लाभ किया ।
जो नेमिम अखिल नरेशों द्वारा संसेवित हैं, जिनको देवोंके इन्द्र भी आकर पूजते और मानते हैं और जिन्होंने धर्मतीर्थको प्रवर्तित किया है उन नेमिनाथ भगवान के लिए मेरा वार-बार नमस्कार है ।
नेमिनाथ भगवानमें बड़े मोहक गुण हैं और उनका शासन सर्वोत्तम है । यही कारण है जो मेरा हृदय उन पर अटल विश्वास रखता है । वे महान नेमि मुझे धर्म-दान दें।
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उन नाम जिनको नमस्कार है जो सच्चे धर्म-रूपी अमृतके दाता हैं, जिनकी "विविध नर, सुर और मुनीश्वर बन्दना करते हैं तथा जो जितेन्द्रिय और विपक्ष रहित हैं ।
इसके बाद करुणाके भरे पांडव जारसेयको साथ लिये द्वारिका आये । उन्होंने परमोदयशाली तथा प्रशस्त गृहों द्वारा उस पुरीको फिरसे बसाया और वहाँकी राजगादी पर जरा-पुत्रको बैठाया। इस समय वे कृष्ण बलदेवके पुरातन
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'पाण्डव-पुराण। माज्य राज्यका स्मरण करते हुए बड़े ही शोकाकुल हुए । बोले कि आश्चर्य है जो देवतोंके द्वारा रची हुई भी यह पुरी भस्म हो गई---आँखोंको आनन्द देनेवाली गननपुरीकी भाँति आँखोंकी ओट हो गई-अदृश्य हो गई। बड़ा दुःख होता है कि जिनके यहाँ नित नये उत्सवोंकी भीड़ रहा करती थी और जो सर्वोत्तम पूजाके योग्य थे वे दशाह कहाँ गये । वे कृष्ण-बलदेव कहाँ हैं, जिनका कि पराक्रम देखते ही बनता था। हा! रुक्मिणी आदि स्त्रियोंके वे निवास-महल तो एक भी दृष्टि नहीं पड़ते, जिनको देख कर देवगण भी लजित होते थे। उनके वे पुत्र गण कहाँ है जो कि सदाकाल ही हर्षके उत्कर्ष द्वारा उन्नत रहते थे। सच बात तो यह है कि यह स्वजन-समागम विजलीकी भॉति क्षण-नश्वर है
और मनुष्योंका जीवन चुल्लुके पानी-तुल्य है । यही कारण है कि जो पुरुष स्त्रियोंके रागसे रंगे हुए है वे भी संसारकी यह दशा देख माहुरकी भॉति बहुत जल्दी विरक्त हो जाते हैं । जिस तरह माहुरका रंग बहुत जल्दी छूट जाता है उसी तरह उनका राग भी थोड़े ही समयमै ढीला पड़ जाता है। सच है कि ऐसे पदार्थों में अचल-बुद्धि करेगा ही कौन । इसी प्रकार पुत्र-पौत्र आदि जो पवित्र पदार्थ हैं वे भी वास्तवमें अपने नहीं है। अपने अपने कमाँके कर्ता-भोक्ता हैं-अपनेको सिर्फ संकल्प मात्रसे सुखदायी भास पड़ने लगते हैं वास्तवमें सुख तो आत्मामें है । इसी तरह महल-मकान भी मनुष्योंके लिए विकारमें डालनेवाले ग्रह हैं, पर पदार्थोमें प्रेम करानेवाले हैं, इस लिए आपत्ति रूपी रोगमें फँसानेवाले और सम्पदाको हरनेवाले हैं। गरज यह कि वे परमें प्रेम करा कर निज सम्पदाको भुला कर आपदामें फँसाते हैं। धन-दौलत मेघ-मण्डलकी भाँति चंचल और क्षण-क्षणमें आत्माको लुभानेवाली है । यह प्राणियोंके शरीर भी विनाशशील हैं, चंचल है, सूखे पत्तोंकी भॉति कालका निमित्त पाकर नष्ट हो जाते है । हमारा यह शरीर भी जिसको कि हम विविध भाँतिके तेल-फुलेल लगा कर बढ़ाते है, कालका निमित्त पाकर विपरीतता धारण कर लेता है-कॉपने लगता है और काम देनेमें आनाकानी करने लगता है। बात यह है कि इसका स्वभाव दुर्जन पुरुषके जैसा है। दुर्जन पुरुषको चाहे जैसा ही क्यों न रक्खो वह निमित्त पाकर विपरीत हो ही जायगा। यह कितने दुःखकी वात है कि उत्तम उत्तम आहारों द्वारा पुष्ट किया गया भी यह शरीर शत्रु-समूहकी भॉति एक क्षणमें ही विमुख हो जाता है, जरा भी लिहाज नहीं करता है । जव कि यह शरीर सात धातुमय है, नाश-युक्त है, 'पापका पिटारा है, दुर्गन्धियुक्त है तव फिर न जाने इसमें मनुष्योंकी थिर बुद्धि कैसे होती है। आश्चर्य है
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चौबीसवाँ अध्याय । कि कामके रॅगसे रेंगे हुए कामी पुरुष सुंदरी कामिनियों के साथ चिरकाल. तक रमा करते हैं, न जाने उन्हें सुख क्या होता है । भला जिनके शरीरोंमें करोड़ों रोगोंका निवास हैं और जो साँपके विल जैसे है उनमें उन्हें क्या सुख हो सकता है । यह दूसरी बात है कि वे मोहान्ध हुए उनके साथ रमनेमें सुखकी कल्पना करें-सुख मानें । पर वास्तवमें सुखका लेश भी स्त्रियोंके साथ रमनेमें प्रतीत नहीं होता। इसी प्रकार ये भोग भी क्षण भुंगुर हैं। ये पुरुषोंको केवल भोगनेके समय ही सुखदायी प्रतीत होते है । अन्तमें इनमें कुछ भी स्वाद नहीं प्रतीत होता-नीरस जान पड़ते हैं । फिर कहा नहीं जाता कि उनमें मनुष्य सुख मानते हैं तो कैसे मानते है । समझ नहीं पड़ता कि जब विषय-रूपी आभिष माणहारी विष-तुल्य हैं तब क्षयके उन्मुख हुए मनुष्य उसके साथ क्यों प्रीति करते हैं ? मनुष्योंकी यह वडी भारी मूर्खता है जो विषयोंके द्वारा ठगे गये जीव दुःखदायी दुर्गतिको जाते हैं, यह जानते झते हुए भी वे फिर विषयोंका सेवन करते हैं और दुर्गतिको जाते है । वात यह है कि संसारमें जितने भी पदार्थ हैं वे सब क्षण-स्थायी हैं । यदि चित्तको स्थिर करके देखा जाय तो इन्द्रियाँ, शरीर, धन-दौलत, राज-पाट, मित्र- बान्धव कहीं भी कोई स्थिर नजर नहीं आता । ये भोग भोगी ( सॉप) के जैसे चंचल और भव्य प्राणियोंको भय देनेवाले हैं । सेवन करनेसे इनकी लालसा अधिकाधिक बढ़ती है। जैसे कि आगके निमित्तसे खुजली । भोगोंके द्वारा भजे गये विषय और और अधिक बढ़ते हैं, कभी भी उनकी शान्ति नहीं होती; जैसे काठके मिलते हुए आग शान्त नहीं होती । यही कारण है जो बड़े बड़े दुःखोंके द्वारा पचता हुआ यह जीव खब लम्बे-चौड़े पंच परावर्तन-रूप संसारमें चक्कर काटा करता है । और अनादि वासनासे जाग्रत हुई मिथ्यात्व-बुद्धिके मोहके. मारे, हित-अहितकी पहिचान न होनेसे धर्मकी तरफ इसकी रुचि ही नहीं होती-उसे यह अपनाता ही नहीं किन्तु उसकी तरफसे बहुत उदास रहता है-उसे घृणाकी दृष्टिसे देखता है। फल यह होता है बारह प्रकारकी अविरतिमें रत-चित्त होकर यह विषय रूपी आमिषका भक्षण करता है और संसारकी घोर विपदामें जा पड़ता है।
बुद्धिशाली जीवोंके सद्गुणोंको जो क-विगा.---बुद्धिमान लोगोंने उन्हें कपाय कहा है । कषाय मोक्ष सुखकी प्राप्तिमें अटकाव डालती है, अत जिन्हें मोक्ष सुखकी लालसा है उन्हें चाहिए कि वे कपायोंको छोड़ें । जिनके द्वारा जीवोंका कर्मोंके साथ योग होता है बुद्धिमानोंने उन्हें योग कहा है। वे स्थूलपने शुभ तथा अशुभ इस प्रकार दो भेद रूप हैं परन्तु पारीकीके साथ देखा जाय तो वे श्रेणीके
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पाण्डव-पुराण।
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असंख्यात भाग मात्र हैं । मदसे उद्धत हुए जीव जिनके द्वारा मदिराकी भाँति प्रमादी हो जाते हैं उन्हे प्रमाद कहते हैं। प्रमाद भी त्यागने-योग्य हैं; क्योंकि इनसे संसार बढ़ता है। ____ पांडव वहुत-काल मन-ही-मन यो संसारकी दशाको विचार कर बाद वहाँसे निकले और पल्लव नाम देशमें आये; जहाँ कि जिन भगवान विराजमान थे।
वहाँ उन्होंने सुर-असुरों द्वारा सेवित और तीन लोकके स्वामी नेमि प्रभुकी वन्दना की । नेमिप्रभु छत्रत्रय द्वारा शोभित थे, शोक हरनेवाले अशोक वृक्ष द्वारा अंकित थे । उनके ऊपर सुंदर चौंसठ चॅवर ढोरे जा रहे थे । वे सिंहासन पर विराजे हुए ऐसे जाने जाते थे जैसे कि तीन लोकके सिखर पर ही विराजे हों। उनकी देह स्वयं ही सुगंध-पूर्ण और दिव्य थी, अतः पुष्पोंकी वरसासे उसकी ।
और अधिक शोभा हो गई थी। भगवानने कर्म-वैरियों का नाश कर दिया था, जिसकी.. घोषणाके लिए जो दिव्य दुन्दभियाँ वजती थीं उनसे उनकी और भी शोभा बढ़ गई थी। वे अठारह महा भाषा-रूप एक महाध्वनिमें उपदेश करते थे । करोड़ सूर्योकी प्रभासे भी कहीं अधिक भासमान प्रभावाला उनका निर्मल भामंडल था। ऐसे प्रभुको देख कर पांडवोंने भक्तिके साथ, विविध सामग्री द्वारा उनकी पूजा की सेवा की। ।
इसके बाद वे पवित्र पांडव उनकी यो स्तुति करने लगे कि नाथ, इस संसार रूप समुद्रमें मनुष्योंके लिए यदि कोई नौका है तो तुम्ही हो । तुम्हीं संसारके स्वामी और परमोदयशाली हो । तुम्ही जगत्के रक्षक और परमेश्वर हो । तुम्ही हितैषी और भवसे पार करनेवाले हो । तुम्ही केवलज्ञान द्वारा भासमान और परम गुरु हो । यही कारण है कि जीव तुम्हारे प्रसादसे ही संसार-समुद्रको पार करते हैं और तुम्हारे प्रसादसे ही अविनाशी मोक्ष पदको पाते हैं । हे भगवन् , तुम अव्यय हो, विभु हो, दीप्तिशाली हो, भर्ता हो, भव-भयके हो हो, भव्यजीवोंके ईश हो, भय-संकटोंको भग्न करनेवाले हो । यही कारण है जो गणनायक तुम्हें कैवल्य, विपुल, देव, सर्वज्ञ, चिद्गुणाश्रय, मुनीन्द्र और गणेश कहते हैं । प्रभो, धन्य है आपको जो आपने एक विपुल राज्यके होते हुए भी बाल-कालमें भी गज, घोड़े आदि लक्ष्मी और राजीमतीको स्वीकार न किया । इसी लिए कहते हैं कि आप कंदर्प-दर्प-सर्पको मारनेके लिए गरुड़के जैसे हो । पभो, आप लोकको हितका उपदेश करते हो, अतः सबके हितैषी हो । भगवन् , आप अनन्त धुद्धिशाली है, अतः आपके काम भी बुद्धिसे पूर्ण होते हैं । अतः हे चिदात्मा-मय जिनेन्द्र, हम तुम्हारे लिए नमस्कार करते हैं-बार-बार तुम्हारे चरगमि धोक देते हैं । हे केवलज्ञान-रूप महात्मा, तुम्हारे लिए नमस्कार है। केवल
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चौबीसवाँ अध्याय ।
३६९ आत्मा और शिवके भंडार, तुम्हें नमस्कार है । शत्रुओंके विजेता और ज्ञानसाम्राज्यके राजा, तुम्हें हमारी वन्दना है । वाल ब्रह्मचारी, अनंत सुखके खजाने • अनंत ज्ञानके धनी, विशुद्ध आत्मा आपको नमस्कार है । नाथ, सूरजके जैसी
प्रभावाली, तन्वी, चन्द्रवदनी, रति जैसी रूपशालिनी, गुणोंकी खान, निर्दोष जिस राजीमतीको आपने बाल्यावस्थासे छोड़ दिया वैसी सुंदरी युवतीको कौन छोड़ सकता है काम-जयकी हद हो गई ! प्रभो, तीन लोकमें ऐसा कौन है जो आपके सब गुणोंकी गाथाको गा सके । इस प्रकार स्तुति कर दीप्तिशाली पांडव सभामें बैठ गये।
इसके बाद भगवानने उनके लिए धर्मका उपदेश करना शुरू किया । भगवान बोले कि पांडवों, अब तुम हर-प्रयत्नके साथ एकाग्र-चित्त होकर उस धर्मका उपदेश सुनो कि जो सुखका मुख्य साधन है । राज-गण, धर्म जीवदयाको कहते हैं । वह विशद धर्म एक भेद-रूप ही है । दया-सर्वोत्तम दया-छह कायके जीवों की रक्षाको कहते हैं। इस धर्मके इस प्रकार दो भेद हैं, एक यतिधर्म और दूसरा श्रावकधर्म । इनमें यतिधर्म उसे कहते हैं जिसमें कि पॉच प्रकार आचारका पालन किया जाता है । निर्मल सम्यग्दर्शनके पालनेको दर्शनाचार कहते हैं । जिसके द्वारा ज्ञान विशुद्ध होता है उसे ज्ञानाचार कहते हैं। तेरह प्रकारके चारित्रको ठीक-ठीक पालनेका नाम चारित्राचार है । विचार-शील मनुष्योंने बाह्य और अभ्यंन्तरके भेदसे बारह प्रकारके तप तपनेको तपाचार माना है । और जो वीर्यको प्रगट करके उत्तम आचरण करना है उसे वीर्याचार कहते हैं । पांडवोंको नेमि जिनने इस तरह धर्मका उपदेश किया । बाद वे भव-भेदी नेमि भगवान् वोले कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके भेदसे धर्म तीन प्रकारका भी है । शंका आदि आठ दोष रहित तथा आठ अंग सहित जो पदार्थोंका श्रद्धान करना है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं । जिनदेवने तत्त्वोंके सच्चे, निर्मल ज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहा है । वह शब्द और अर्थके भेदसे
दो तरहका है। कर्मोंको दूर करनेवाले चारित्रके तेरह भेद है और कौंको दूर 7 करनेवाले आचरणको चारित्र कहते हैं । अथवा क्षमा आदिके भेदसे धर्म दस प्रकारका भी है । क्रोधके जीतनेको क्षमा कहते है। मान नहीं करनेका नाम मार्दव है। मायाचारके त्यागको आर्जव कहते है । लोभ नहीं करनेका नाम शोच है। सच बोलनेको सत्य और जीवोंकी रक्षाको संयम कहते हैं । देहके तपानेको तप और धनके छोड़नेको त्याग कहते हैं। शरीर आदिसे ममत्व नहीं करनेका नाम
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किंचन्या ब्रह्मचर्य है । अचलान हनिको धर्मबहारनयकी हा
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पाण्डव-पुराण । wwmummmmmmmmmmmmmmm num, an wwwwwwwwmmammommmmmmmm आकिंचन्य और आत्मामें लीन होनेका नाम ब्रह्मचर्य है । अथवा सव स्त्री मात्रका त्याग करना ब्रह्मचर्य है । अथवा मोहसे उत्पन्न हुए विकल्प-जालोंके विना निर्मलताके साथ आत्म-स्वरूपमें लवलीन होनेको धर्म कहते कहते हैं । गरज यह कि जो ऊपर धर्मके भेद-प्रभेद बताये गये हैं वे व्यवहारनयकी दृष्टिसे कहे गये हैं। नीचे जो आत्म-स्वरूपमें लीन होना धर्म बताया गया है वह निश्चयनयकी दृष्टिसे कहा गया है । और वास्तवमें चिद्रूप, केवलज्ञान स्वरूप, शान्त, शुद्ध और सर्वार्थवेदक तथा उपयोग-मय आत्मा ही सच्चा धर्म है । और यही कारण है जो मनवचन द्वारा मैं चैतन्य-स्वरूप और उपयोग-मय हूँ, इस तरहके दृढ़ विचारको धर्म कहा गया है । धर्म शब्दका अर्थ है कि जो संसार-सागरसे निकाल कर जीवोंको मुक्तिमें पहुँचा दे । और ज्ञान द्वारा आत्माकी जो विशुद्धि होती है वही सच्चा धर्म है । और वही एक ऐसा कारण है जो कि जीवोंको संसारके वधनसे छुड़ा सकता है । तात्पर्य यह है कि आत्माकी बिल्कुल ही शुद्ध अवस्थाको धर्म कहते हैं और सिवा इसके जो भेद-प्रभेद रूप धर्म है वह इसी निश्चयका साधन है । गरज यह कि व्यवहार धर्म द्वारा ही निश्चय धर्म प्राप्त होता है।
इस तरह धर्मका पूर्ण स्वरूप सुन कर कुन्ती-पुत्र पांडवोंने सीधे-साधे वचनों द्वारा आत्म-शुद्धिके अभिप्रायको लेकर प्रभुसे अपने भवान्तरोंको पूछा । वे बोले कि भगवन् , हमने कौनसा ऐसा पुण्य किया कि जिसके प्रभावसे हम लोग परस्पर स्नेहके भरे महावली और निर्मल चित्त हुए । और पांचालीने वह कौनसा पुण्य पैदा किया था जिससे कि वह ऐसी अद्भुत सुन्दरी हुई और फिर उससे ऐसा कौनसा पाप बन गया कि जिससे उसे पॉच पुरुषोंका दोष लगा अर्थात् वह पंचभर्तारी कही गई । उत्तरमें भव्य पुरुषोंके उद्धारके लिए तत्पर भगवान् बोले कि जम्बूवृक्ष द्वारा शोभित जम्बूदीपमें भरत नाम क्षेत्र है । उसमें सब प्रकारसे सुशोभित अंग देश है, जो कि ऐसा जाना जाता है जैसे कि शुभ लक्षण-पूर्ण अंगोंवाला महान् अंगी ही हो। इस देशमें कहीं भी शत्रुका नामनिशान नहीं था। यही कारण है जो कि इसकी ख्याति सारी पृथ्वी पर थी। इसमें एक चंपा नामकी नगरी है जो कि प्राकार, परिखा द्वारा बेढ़ी हुई होनेसे भूतल पर बहुत अधिक शोभाशाली है। वह बहुत अधिक पवित्र है, अतः ऐसी जानी जाती है जैसे पवित्र मनुष्योंको वह और भी पवित्र बनाती हो । उसके राजाका नाम मेघवाहन था। वह कौरववंशी था । मेघवाहनके समय इस नगरीमें एक बड़ा भारी गुणी प्रामण रहता था, जिसका नाम था सोमदेव । सोमदेवकी स्त्रीका
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नाम सोमिला था और यह बहुत ही काले रंगकी थी । सोमदेवके तीन पुत्र हुए, जिनके नाम थे सोमदत्त, सौमिल और सोमभूति । सोमिलाके भाईका नाम अग्निभूति था और उसकी स्त्री थी अनिला । अग्निभूतिके अग्निला के गर्भ से चंद्रमा तुल्य सुंदर मुखवाली तीन पुत्रियाँ हुईं, जिनके नाम थे धनश्री, मित्रश्री और नागश्री । नागश्री तो इनमें सचमुच दूसरी श्री जैसी ही थी। इन तीनोंका क्रमसे सोमदत्त आदिके साथ पाणिग्रहण ( विवाह ) हो गया ।
एक दिनकी बात है कि निमित्त पाकर सोमदेव संसार - देह - भोगों से विरक्त हो गया और जाकर उसने मिथ्या मार्ग से हटानेवाली गुरुके निकट जिनदीक्षा धारण कर ली । उधर भव्य गुणों के भंडार, भक्त, भव्य और धर्मात्मा सोमदत्त आदि तीनों भाई भी धीरता के साथ श्रावक धर्मका अध्ययन करने लगे । और सम्यक्त व्रत धारण करनेवाली निर्मल-चित्त सोमिला भी परम धर्मको धारण कर सिद्धान्त सुनने के लिए उद्यत हो गई । वह उत्तम भावोंवाली अपनी पुत्र वधुओंको सदाकाल यही आदेश देती रहा करती थी कि बुद्धिमानोंने अहिंसा, अचौर्य और ब्रह्मचर्य व्रत कहा है । तुम्हारा धर्म है कि तुम सब इनका पालन करो। इसके साथ तुम्हें यह भी उचित है कि तुम इन व्रतोंकी रक्षाके लिए खॉडना, पीसना, चोका-चूल्हा, पानी छानना आदि विधि बड़ी सावधानीके साथ करो और यथोचित्त तथा पूरी शुद्धिके साथ पात्र दानादि धर्मोंको निवाहो । सोमिलाके इन वचनों को सुन कर दो वधुओंने तो धर्मका बहुत जल्दी और बड़े हर्ष के साथ श्रद्धान कर लिया, लेकिन नागश्रीको उसकी ये बातें न रुचीं और उसने उससे विमुख होकर मिध्यात्वकी ही अभिलाषा की । वा बड़ी दुष्टा थी, उसे धर्म-कर्म सुहाता ही न था । वह क्रोध की खान और कलह- प्रिया थी । सदा ही पाप कर्मों में रत रहती थी ।
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यह सब होते हुए भी सोमिलाने उससे फिर भी कहा — उसकी भलाई के लिए उसे उपदेश दिया कि बेटी, मिथ्यात्व सेते सेते तो बहुत काल बीत गया; अब तो धर्मकी तरफ ध्यान दे और विपादको पैदा करनेवाले मिथ्यात्वको छोड़, जिससे तेरे आत्माका भला हो - तेरा संसार-जाल कटे । देख, संसारकी यह दशा है कि जो जीव मिथ्यात्व के नशेसे मोहित हैं वे धर्म पर श्रद्धा ही नहीं लाते; जैसे कि पित्त-ज्वरवाले जीवको मीठा दूध भी रुचिकर नहीं होता । जो जीव पापी हैं या पापाचरणमें मग्न रहते हैं उन्हें चाहे जितना ही धर्मका उपदेश क्यों न दिया जाय कभी भी- न होगा। जैसे कि चाहे free et यत्न
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क्यों न किया जाय पर उल्लूका बच्चा चमकते हुए सुरजको कभी अच्छा कहेगा ही नहीं । बात यह है कि मिथ्यात्वके मदसे मत्त हुए मोही जीव सदाकाल संसारमें चक्कर काटा करते हैं -- उन्हें कहीं भी सुखका लेश नहीं मिलता; जैसे कि मृग मृगतृष्णा के वश दौड़ा करता है पर वह जल कहीं भी नहीं पाता । इस लिए जो प्राणी अपना हित चाहते हैं उन्हें चाहिए कि वे मिथ्यात्वको बहुत जल्दी छोड़ दें; जैसे कि लोग घरके मैले-कुचैले मलको निकाल कर फेंक देते हैं । सोमिलाने इस तरह नागश्रीको बहुत कुछ धर्मका उपदेश सुनाया, पर उसके मनमें एक भी बात न ठहरी; जैसे कि कमलिनीके पत्ते पर पानी की बूँदें नहीं ठहरतीं ।
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इसके बाद एक दिनका जिक्र है कि धर्मरुचि नाम प्रवर-दृष्टि एक बड़े भारी योगी भिक्षा के लिए सोमदत्त के घर आये | देख कर सोमदत्तने उन्हें पड़ेगाहा और नमस्कार कर ऊँचे आसन पर बैठाया । इसके बाद उसने प्राशुक जल द्वारा उनके पॉव धोये और वह नागश्रीको दानकी विधि बता कार्य वश कहीं बाहर चला गया । इधर नागश्रीने जब दान देने में कुछ गड़बड़ी की तब उसकी सास सोमिलाने उससे कहा कि बहू, दीप्त देहके धारक इन मुनिको तुम उत्तम रीति से तैयार किया आहार दो और नवधा भक्ति-जन्य पुण्यका उपार्जन करो । सासके ये वचन सुन कर मिथ्यात्व-रूपी मदिरा के मोहसे मदोन्मत्त हुई नागश्री बड़ी बिगड़ी और मन-ही-मन इस प्रकार बुरे विचार करने लगी कि यह नग्न मुनि कौन है ? अन्नका नाश करनेवाला दान क्या पदार्थ है ? दान देने से होता क्या है ? और इस नंगेको दान देनेसे फल ही क्या होगा ? इस प्रकार बुरे विचार कर क्रोध से वह थर थर कॉपने लगी । उसे वह सब बड़ा बुरा लगा । उसने तब भोजनमें विष मिला दिया; जैसे नागिनने जहर ही उगला हो ! उसकी सास बड़ी सरल-चित्त थी, अतः उसने न जान पाया कि इस आहार में विष मिला हुआ है । सो उस बेचारीने मुनिको वही आहार दे पात्र दान के प्रभावसे पुण्य उपार्जन किया । उधर भोजन करते ही मुनिके शरीर में क्षण भरमें ही व्याधि बढ़ गई; जैसे कि वर्षाकालमें लताएँ बढ़ जाती है | यह देख योगी भी जान गये कि उन्हें वर्ष दिया गया है । तब बड़ी शान्ति साथ में लीन हो, सावधानी पूर्वक संन्यास लेकर उन्होंने परम तप तपना आरंभ किया और विशुद्ध बुद्धिके साथ आराधानाओं की आराधना कर प्राणों छोड़ा। वह सर्वार्थसिद्धि गये ।
उधर नागश्रीकी इस करतूत का पता जब सोमदत्त आदिको लगा तब उन भश्योत्तमका चित्त बढ़ा उदास हुआ और वे संसार - देह-भोगों से विरक्त
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चौबीसौं अध्याय ।
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हो गये । इसके बाद उत्तम आचरणोंके धारक सोमदत्त आदिने वरुण नाम गुरुके पास जाकर, उन्हें नमस्कार कर उनसे जिनदीक्षा ले ली । इसी प्रकार नागश्रीकी कृतिको जान कर परस्परमें परम भीति रखनेवाली धनश्री और मित्रश्री भी विरक्त हो गई और उन्होंने गुणवती अर्जिकाके पास जाकर दीक्षा ले ली । उक्त तीनोंहाने धर्मध्यानमें लीन होकर पॉच आचारोंका पालन किया और वाह्य तथा अभ्यन्तर तपोंको तपा; तथा अन्त समय संन्यास धारण कर, शम-दममें उद्यत हो, प्राणोंको छोड़ कर वे आरण और अच्युत स्वर्गमें गये । इसी मकार धनश्री और मित्रश्री भी शुद्धिके साथ उत्तम आचरण करती हुई शीलरक्षाके हेतु सिर्फ एक सफेद साड़ी पहिने हुए बड़ी ही सुशोभित हुई और अंतमें परिग्रहसे विमुख हो, संन्यास ले, सम्यग्दर्शनके वलसे स्त्रीलिंग छेद कर, आरण-अच्युत स्वर्गमें गई । आरण और अच्युत नामके स्वर्गोमें उक्त पॉचों ही जीव सामानिक जातिके देव हुए। और वे परमोदयशाली वहाँ सर्वोत्तम सुख भोगते हुए चिरकाल तक रहे । वहाँ उन्होंने उपपाद शिला पर दिव्य शरीर पाया और सूरजके तुल्य उनकी प्रभा हुई । वे अवधिज्ञान द्वारा अपना पहलेका वृत्तान्त जानते थे, विविध नृत्य कला पारंगत थे, शोक रहित और शंका आदिसे विहीन थे, देवों के द्वारा नमस्कृत थे और नाना तरहकी सेनासे विराजित थे। वे शुद्ध जलमें स्नान करते थे और जिन-पूजा द्वारा पवित्र थे। वे बाईस हजार वर्ष बीत जाने पर मानसिक आहार लेने थे और बारह पक्ष चले जाने पर श्वासो.
छास लेते थे। उनकी वाईस सागरकी आयु थी और उन्हें बड़ा ही सुख था। जिनदेवके बताये धर्मके निमित्तसे उनका मोह रूपी अंधेरा दूर हो गया था। उनकी हजारों देव पूजा करते थे । वे तीन लोकमें स्थित जिन भगवानकी यात्रा करते थे और हजारों सुंदर देवांगनाएँ उनकी सेवामें उपस्थित रहती थीं। वे जयवन्त हो।
जो बुद्धिधनके धनी संसारमें मनुष्य-जन्म-जन्य सारभूत उत्तम सुखोंको भोग, चौदह प्रकारके परिप्रहसे मोह छोड़, बारह प्रकारके घोर तर तपको तप कर अच्युत-आरण नामके देवस्थानको गये वह सब धर्मका ही पवित्र प्रभाव है। ऐसा जान कर बुद्धिमानोंका कर्तव्य है कि वे अपनी भलाईके लिए सिद्ध-पदके दाना धर्मका सेवन करें।
सच बात एक ही है कि संसारमें धर्म ध्यान करना ही सार है और जो यह विभूति दिखाई देती है वह सब असार है-क्षणभंगुर है ।
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पाण्डव-पुराण। पच्चीसवाँ अध्याय ।
उन अरिष्ट नेमिनाथको नमस्कार है जो दो प्रकारके धर्म-रथकी धुरा हैं, जिनको नर-सुर-असुर सभी नमस्कार करते हैं; एवं जो न्यायकारी हैं।
इसके बाद नागश्रीका मुनिको जहर देने रूप पाप सव पर प्रगट हो गया। लोग उसकी निन्दा करने लगे और उसे पीड़ा देने लगे । इतना ही नहीं, किन्तु उन्होंने उसका मस्तक मुंडवा कर उसे गधे पर चढ़ाया और सारे नगरमें फिरा कर नगरके वाहिर निकाल दिया । लोगोंने पत्थरोंसे मारा-बड़ा दुःख दिया । अन्तमें वह कोढ़के दुःखसे मरी और पापके वश पाँचवें नरकमें पहुँची । वहाँ उसने छेदन, भेदन, शूलारोहण, ताड़न आदि विविध दुखोंको भोगा और बड़े कष्टोंसे वहाँ सत्रह सागरकी आयुको विताया। बाद आयु पूरी होने पर जब वह दुर्बुद्धि वहाँसे निकली तव स्वयंप्रभ नाम दीपमें दृष्टि-विष जातिका सर्प हुई । उसकी चंचल जीभ थी। क्रोधसे नेत्र लाल थे । वह बड़ा हिंसक था और कृष्ण लेश्याका धारक अतिशय कृष्ण था । फणकी पुत्कारसे वह बहुत भयावह था। उसकी पूछ बहुत चंचल थी और वह कषायके मारे एकदम विवश हो रहा था । जान पड़ता था मानों वह मूर्ति धारण कर क्रोध ही आया हो।।
___ वह यहाँसे आयु पूरी कर मरा और पापके फलसे दूसरे नरकमें पहुँचा । वहाँ उसने तीन सागरकी आयु-प्रमाण दुःखके पूरमें खूब ही गोते मारे । एवं वहाँसे निकल कर वह कुछ कम दो सागर तक त्रस तथा स्थावर योनिमें फिरा
और उसने अगणित जन्म-मरण किये, जिनके दुःखका कुछ ठिकाना ही नहीं । इसके बाद वह पापी जाकर चंपापुरीमें चांडालिन हुआ। दैव-संयोगसे एक दिन वहाँ वह उदम्बर फल आदि खानेके लिए जंगलमें गई थी कि सहसा उसे समाधिगुप्त नाम योगीन्द्र दीख पड़े । उन्हें देख कर सुखकी इच्छासे वह धीरे धीरे उनके पास गई । वे मौन धारण किये स्थिर बैठे थे । वे किसीसे कुछ कहते बोलते न थे । वे ध्यानमें निमग्न थे । उनको इस तरह ध्यानमें बैठे देख कर उस चांडालिनने पूछा कि महाराज, आप यह क्या करते है ? उसके मुँह इस तरहका प्रश्न सुन कर उनका ध्यान भंग हुआ । वह उससे शान्तिके साथ बोले कि भव्ये, भय द्वारा आकुल हुए ये प्राणी संसारमै चकर लगाते हैं और पापके वश हो कर दुर्गतिमें जाते हैं । इतने पर भी जो बड़ी कठिनाईसे हाथ आने
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पञ्चीसवाँ अध्याय । rron manram .nnnn . antar वाले मनुष्य-जन्मको पाकर धर्म नहीं करते वे अधम पुरुष पुनः पुनः दुर्गतिमें पड़ते है और विविध दुःख भोगते हैं।
इस लिए मनुष्यको चाहिए कि वह मद्य, मांस, मधु और पंच उदम्बर फलोंको छोड़ दे । एवं प्राणियोंकी हिंसा भी न करे । जो मनुष्य ऐसा करता है-वही संसारमें धर्म-प्रिय होता है । इसके सिवा रात्रि भोजन और अनंतकायका त्याग करे, कभी बिना छाना पानी न पीवे और न बहु बीजवाले पदार्थ खावे । मक्खन और द्विदलको छोड़ दे । इसी प्रकार दो दिनके रक्खे हुए मठा वगैरहको भी न खावे, फूलोंका खाना छोड़ दे और जिन फलोमैसे दूध निकलता है उन्हें काममें न लावे । कभी झूठ न बोले और न चोरी करे । हमेशा शीलको पाले और परिग्रहकी मर्यादा करे । पर वात यह है कि जो श्रद्धा-पूर्वक इन त्यागीमें बुद्धिको निर्मल रक्खेगा फल उसीको मिलेगा । और जो केवल वाहिरी दिखावके लिए त्यागी बनेगा वह उल्टा फल पावेगा-दुःख भोगेगा । इसके सिवा जिनदेवके बताये मार्गका श्रद्धान रखना, सद्बुद्धिके साथ ध्यान करना और पंच मंत्रका जाप जपना-यही आत्माकी स्वतन्त्रता है और यही सचा धर्म है । इसको पालना और इसकी भावना करना मनुष्यका पूरा-पूरा कर्तव्य है । जो सर्वोत्तम मनुष्य-जन्मको पाकर ऐसे धर्मका पालन नहीं करता उस अधर्मीके लिए दुर्गति-रूपी खाड़ा खुदा हुआ तैयार है ही। इसमें जरा भी सन्देह नहीं है।
यो धर्मका उपदेश देकर उन मुनिनाथने कहा कि, ऊपर जो कुछ भी कहा गया है यह सब तुम्हें विधि-पूर्वक पालन करना चाहिए। मुनिनाथका यह पवित्र उपदेश सुन कर उस चांडालिनने उसी क्षण पंच मंत्रको स्वीकार किया
और यथायोग्य पवित्र व्रतोंको लेकर मद्य-मांस आदिका त्याग किया । इसके बाद वह धर्मका पालन करती हुई जब मरी तब जाकर मनुष्य भवको प्राप्त हुई। चंपा नगरी एक सुबन्धु नामका धन्यात्मा और बहुत धनी वैश्य था। इसे राज-सम्मान प्राप्त था और सभी स्वजन इसकी सेवा करते थे । इसकी स्त्रीका नाम धनदेवी था। वह बड़ी चतुर और कुलको पालनेवाली कुलपालिका थी। उस चांडालिनने आकर ईसीके यहाँ जन्म लिया-वह इसके यहाँ पुत्री हुई । उसके शरीरसे बड़ी दुर्गन्ध आती थी, इस लिए उसका नाम भी दुर्गन्धा पड़ गया था।
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पाण्डव-पुराण |
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इसी पुरीमें एक दूसरा और भी वैश्य था । जिसका नाम धनदेव या और जो बिलकुल ही दरिद्र था । उसकी स्त्रीका नाम अशोकदत्ता था । इसके गर्भ से दो पुत्र हुए। एक जिनदेव और दूसरा जिनदत्त । ये दोनों विद्याभ्यास करते हुए थोड़े दिनों में यौवन दशाको प्राप्त हुए। एक दिनका जिक्र है कि सुवन्धुने आकर घनदेवसे बहुत मान पूर्वक प्रार्थना की कि आप धर्मात्मा जिनदेव के साथ दुर्गन्धाके विवाहकी स्वीकारता दीजिए । राज- मान्य सुबन्धुकी बात सुन कर धनदेव चुप रहा और उसने सोचा कि यदि ऐसा ही भवितव्य है तो उसे कौन रोक सकता है । इसके बाद सुबन्धुने जब दुवारा प्रार्थना की तब धनदेवने तथेति कह कर उसे अपनी स्वीकारता दे दी । सच है कि धनकी चतुराईके आगे मनुष्यकी चतुराई जरा भी काम नहीं देती । यह बात जव जिनदेवने सुनी तब वह बड़ा संकटमें पड़ा । वह मन-ही-मन सोचने लगा कि यदि मेरी ऐसी जाया हुई तो यह खोटे कर्मका फल ही समझना चाहिए | यदि सचमुच ही मेरे साथ दुर्गंधाका विवाह हो गया तो मेरा यौवन विफल ही हुआ । जैसे बकरीके गलेके स्तन निस्सार होते हैं वैसे ही मेरा यौवन भी निस्सार है । बड़ी भारी संकटकी यह बात है कि दुर्गंधाका पिता एक बड़ा भारी श्रीमान् और राजमान्य मंत्रवित पुरुष है, इस कारण मेरे पिता उसके वचनको किसी तरह भी नहीं टाल सकते । यदि दुर्गन्धा जैसी दुष्टा, अभागिनी, दुःखिनी और दीन-चित्त स्त्री मेरी जाया हुई तब तो में फिर भोगोंको भोग ही चुका । ऐसे बुरे सम्बन्धसे तो मनुष्यके लिए मर जाना ही अच्छा है । जिस तरह रोंगके सम्बन्धसे जीवोंको दुःख होता है उसी तरह बुरे सम्बंध से भी पीड़ा पहुँचती है । इस समय न तो उसकी आँखोंमें नींद थी और न उसे खाने पीनेकी ही सुध थी । सिर्फ वह इसी एक चिन्तामें लीन था ।
इसके बाद वह अपने छुटकारेका कोई उपाय न देख माता-पितांसे बिना कहे ही घर से निकल चनको चला गया । वहाँ वह समाधिगुप्त नामक मुनिको नमस्कार कर उनके आगे बैठ गया । मुनिसे उसने धर्मोपदेश सुननेकी जिज्ञासा प्रकट की । उत्तरमें योगी बोले कि जिनदेव, जरा सावधान चित्त होकर सुनो, मैं तुम्हारे लिए धर्मका स्वरूप कहता हूँ । सम्यक्त्व - सहित ज्ञान चारित्रको धारण करना ही धर्म है और मोक्षके अर्थी पुरुषोंको उचित है कि वे इसे धारण करें । छह काय के जीमोंकी रक्षा करना, सच बोलना, परधन और पराई स्त्रीका त्याग करना भी
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पच्चीसवाँ अध्याय |
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धर्म है । पर ध्यान रहे कि यह त्याग जब परिणामोंकी विशुद्धिके साथ किया aanant घर्मका रूप पावेगा । नहीं तो वह धर्म नहीं, किन्तु ढकोसला कहा 1. जायगा | देखो, यह धर्मका ही फल है जो जीवको सारभूत सुखका कारण अच्छा संयोग मिलता है और मनचाही वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं । ऐमा जान कर हे धीर्मन जिनदेव, तुम धर्म-रूपी अमृतको हृदयमें धारण करो । मुनिनाथ के द्वारा धर्मका स्वरूप सुन कर जिनदेवको वैराग्य हो गया और उसने व्रत धारण कर लिये; उन व्रतका आश्रय लिया जो कि संसार-सागर से पार होने के लिए नौका जैसे हैं— संसार से पार पहुँचानेवाले हैं ।
इसके बाद सुबन्धु ने बड़े हठपूर्वक, नाम और गुण दोनोंसे ही दुर्गन्धा जैसी अपनी लड़कीका विवाह जिनदत्त के साथ कर दिया। जिनदत्त उस नवोढ़ाके गाढ़ आलिंगनकी इच्छा से उसे अपने घर लिया गया और वहाँ वह उसके साथ एक शय्या पर बैठा । पर उसके शरीर से निकलनेवाली दुर्गन्धको न सकने के कारण वह भी माता-पिता से कुछ वहाना वना सवेरा होते ही घर से निकल भागा। उसके चले जाने पर दुर्गंधा बड़ी दुःखी हुई ओर अपनी जिन्दा करती हुई विलाप करने लगी कि हाय ! मैंने ऐसे कौनसे पाप किये जिनसे इस समय मेरे ऊपर यह दुःख आकर पड़ा । इसके वाद जिवदत्तके चले जाने की खबर जब दुर्गन्धाकी माताको मिली तब उसने दुर्गन्धाको अपने घर बुला लिया और उसे यह सीख दी कि बेटी, अव तू धर्म में अपनी बुद्धि लगा । तेरा कल्याण होगा। देख पापका कैसा बुरा फल | इसके बाद दुर्गंधा माताके पास ही रहने लगी । परंतु दुर्गंध से उसके स्नेहियोंको दुःख होने लगा तब उन्होंने उसे हमेशा के लिए ही एक जुदे मकान में रख दिया। इससे वह बड़ी दु:खी हुई ।
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इसके बाद एक दिनका जिक्र है कि अक्षुण्ण व्रतोंकी पालनेवाली एक अजिंका उसके पिता घर आई । दुर्गन्धाने जाकर उसे नमस्कार किया और पढ़गा कर विधिपूर्वक उज्ज्वल आहार दिया। अपनी साथकी दो अर्जिका के साथ ग्लानि-रहित और निर्मल मनवाली उस अर्जिकाने आहार लेकर क्षणभर समता भावके साथ वहाँ विश्राम किया। तब दुर्गन्धाने उससे पूछा कि आयें, ये दो युवती अर्जिकाएँ कौन हैं ? और इनके दीक्षित होनेमें क्या कारण है १ उत्तरमें भर्जिका बोली कि ये दोनों पहले स्वर्गमें सौधर्म इन्द्रकी विमला और सुप्रभा नामकी देवियाँ थीं । एक समय ये दोनों पूजाके लिए उद्यत होकर अपने देवके साथ नन्दीश्वर दीप गई और वहाँ इन्होंने हर्ष के साथ जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों की पूजा की। इसके
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पाण्डव पुराण
साथ ही इन्होंने गीत, नृत्य आदि उत्सव कर यह प्रतिज्ञा की कि हम मनुष्य भरमें नियमसे तप करेंगी। इसके बाद आयुको पूरी होने पर वहाँसे चय कर आई और भाकर यहाँ अयोध्याके श्रीषेण राजाकी श्रीकान्त नाम रानीके गर्भसे पुत्रियाँ हुई। इनका नाम हरिषेणा और श्रीषेणा है । कुछ कालमें ये युवती हुई । मदनाषिष्ठित इनका रम्य रूप बहुत ही सुन्दर दिखाई पड़ने लगा। तब कल्पनातीत सैकड़ों उत्सवोंके,
साथ राजाने इनके स्वयंवरकी तैयारी की। उस समय बुलाये हुए देश विदेशोसे ५ बड़े बड़े विद्वान और मंगल-रूप गहनोंसे मंडित गज-गण आये और मंडपमें इकडे हुए । इस समय अपनी कमला नामकी वेत्रधारिणी दामीके साथ ये मंडपमें आई
और वहाँ बैठे हुए राजाको देख कर इन्हें जाति-स्मरण हो आया । ये तब अपने पहले भवके पिताओंकी याद कर, अपने गुजरे हुए भवोंका हाल कह कर और सब भूपोको वापस विदा कर वनको चली आई । वहाँ उत्तम संयमी ज्ञानसागर मुनिको नमस्कार कर उनसे इन्होंने यह प्रार्थना की कि जिसमें फिर इन्हें स्त्रीपर्याय न धारण करना पड़े। इसके बाद इन दोनोंने उन मुनिसे दीक्षा ली और विहार करती करती ये यहाँ आई हैं। -
उस अर्जिकाके ऐसे वचन सुन कर दुर्गन्धा भी विरक्त हो कर ! मन-ही-मन बोली कि धन्य है इनको जो ये बड़भागिनी राज-पुत्रियाँ इतनी सुंदर और सुकोमल होकर.भी भोगोंको छोड़ कर दीक्षित हुई ।
और मैं ऐसी बुरी-देहवाली जिसके पास दुर्गन्धके मारे कोई खड़ा तक भी नहीं होता-सदा दु:खिनी रहती हुई भी विषयोंकी वाम्छा रक्खू तो कहना पड़ेगा कि मेरा बड़ा भारी दुर्भाग्य है-मुझ-सदृश अभागिनी कोई नहीं है । यह कह कर लज्जासे नत-मस्तक हुई उसने संयमके लिए उस अर्जिकासे प्रार्थना की और अपने माता पिताको समझा-बुझा कर तप धारण कर लिया-वह तपस्विनी हो गई। इसके बाद तीव्र तप तपते और परीषहोंको सहते हुए उसने भव्यशान्तिका ( अर्जिका ) के साथ पृथिवी-तल पर विहार किया।
एक दिनकी बात है कि अपने पाँच विट पुरुषों को साथ लिये वसन्तसेना नामकी एक सुन्दरी वेश्या वनमें पहुंची। उसे देख कर इस दु:खिनीने निदान । किया कि मैं भी ऐसी ही होऊँ। इसके बाद ही जब उसे ख्याल हुआ तो वह बड़ी पछताने लगी कि षिकार है मुझे जो मैंने सुखको जलांजलि देनेवाली बातको
हृदयमें स्थान देकर दुष्ट चित्त द्वारा मिथ्या पापका उपार्जन किया । इसके बाद , बह घोर तप तप कर और अन्तमें संन्यास लेकर, प्राणोंको गड़ अच्युत नाम
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पञ्चीसवाँ अध्याय ।
३७९ स्वर्गमें गई और वहाँ जो पहले सोमभूति नाम देव था उसकी देवी हुई । वहाँ उसकी पचपन पल्पकी आयु हुई । उसने देवोंके साथ वहाँ मन-चाहे सुखोंको , भोगते हुए और मानस प्रवीचारका सेवन करते हुए बहुत समय बिताया। ,
, इसके बाद वे देव वहाँसे चये और हस्तिनापुर के राजा पाण्डकी कुन्ती और मद्री दोनों गलियोंके गर्भसे उत्तम पुत्र हुए । देखो जो पहले सोमदत्त था वह तो तुम निर्भय युधिष्ठिर हुए हो । सोमिल नाम तुम्हारा जो भाई था वह यह निर्भीक भी हुआ है। और शत्रुको जीतनेवाला यह अर्जुन सोमभूतिका जीव है। तुम लोग तीन जगतमें प्रसिद्ध हो और अपने ही बल द्वारा उन्नत हुए थे। इसी तरह जो धनश्रीका जीव या वह मद्रीका पुत्र महान् नकुल और मित्रश्रीका जीव तुम्हारा छोटा भाई सहदेव हुआ है। एवं जो पहले सुकुमारिका (दुर्गन्धा) थी वह कापिल्यपुरीके पति द्रुपद राजा और दृढ़ग्या रानीकी द्रौपदी नामकी पुत्री हुई । इसने पहले भवमें समिति, गुति, व्रत और उतम भावना आदि द्वारा जो पुण्य पैदा किया था उसके प्रभावसे तो यह उत्तम रूप और कान्तिवाली हुई और भोग-उपभोगकी इसे पूर्ण सामग्री प्राप्त हुई । और वसन्तसेना नामकी वेश्याको देख कर जो निदान किया था यह उसका प्रभाव है जो सारे संसार इसकी यह अपकीर्ति उड़ी कि द्रोपदीके पाँच पति है-वह पंचभारी है । पात यह है कि जीव मन, वचन और काय द्वारा जिस तरहके कर्म करता है उसे वैसा ही उनका फल भी भोगना पड़ता है। जैसे कि खेतमें जैसा वीज, बोया जाता है वैमा ही फल होता है। ऐसा जान कर जो सुकृती पुरुष हैं उन्हें चाहिए कि वे पापसे दूर रहें और धर्मका सेवन करें, जिसके प्रभावसे संसारमें सव सुख मात होता है। पहले भवमें युधिष्ठिग्ने जो उज्ज्वल चारित्र धारण किया था यह उसीका फल है जो इस भवमें उनकी सत्य-जन्य कीर्ति हुई। एवं भीमने पहले भवमें जों वैयावृत्य किया था उसका यह फल है कि यह वैरियों द्वारा दुर्जय अत्यन्त बली हुआ। पार्थने जो पवित्र चारित्रको धारण किया था उसका यह फल ' मिला कि यह धनुष-कलाका अच्छा ज्ञाता' धनुर्धर हुआ । नागश्रीके ऊपर इसका तव अति स्नेह था । यही कारण है कि द्रोपदी पर इसका अब भी बहुत 'मेह है। क्योंकि प्राणियोंका अत्यन्त स्नेह पूर्व भवके, निमित्तमे ही होता है । इसी प्रकार धनश्री और मित्रश्री नामकी दा ब्राह्मण स्त्रियोंने जो कोको नाश करनेके लिए सम्यक्त्व-सहित उज्ज्वल तप रूपी विचित्र चारित्र धारण किया था 'यह उसीका प्रभाव है जो वे दोनों यहाँ आपके अति प्यारे और प्रसिद्ध
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नकुल और सहदेव भाई हुई हैं । इस प्रकार नेमिनाथ भगवानके द्वारा अपने भव्य भचको सुन कर पांडव बड़े शान्त हुए । उनके चित्तमें, जो उद्वेग था वह अब एक दम जाता रहा ।
जो इस तरहके शुभ भाववाले हैं, संसार वनके लिए दावानक हैं, जिनवाणी रसिक हैं, विकार भावसे रहित हैं, अत्यन्त पवित्र और कर्म बनके लिए afs हैं और जिन्होंने जिन यतियोंके आचरण किये हैं वे सुधी तुम्हें सिद्धि दें।
पाण्डव-पुराण !..
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चिर काल घोर तप तप कर जिन्होंने ब्राह्मणके भवमें बहुत पुण्य संचय किया, खोटे कर्मों का नाश कर उत्तम देव पद पाया, बाद वहाँके सर्वोत्तम सुखोंको भोग वहाँसे यहाँ आ राज-पद माप्त किया - मनुष्योंके मुकुट हुए, युद्धमें दुर्योधन आदि राजोंको जो कि बड़े ही संमरशाली थे, पराजित किया, हरिकी सहाय पाकर जो महा समुद्र पार करनेके लिए समर्थ हुए तथा महा समुद्रको पार कर द्रोपदी को लाये वे वैरियों पर विजय पानेवाले अमर जैसे पाँचों पाण्डव जयवन्त रहें ।
छब्बीसवाँ अध्याय |
क्षेत्र एक
उन पार्श्वनाथ प्रभुको प्रणाम है जो मचन्द्र के आश्रय स्थान हैं, हैं, प्राणियोंके पालक हैं और जिनके सुहावने पार्श्वभागों में सदा ही बैठे रहते हैं ।
इसके बाद सुर-असुर और नर- पूजित नेमिनाथ प्रभुको नमस्कार कर, हाथ जोड़ मस्तक पर लगा पाण्डव बोले कि प्रभो, जिसमें दुःखकी ज्वाला शरीर रूपी वृक्षोंको भस्म कर रही है, कराल काल द्वारा जो बड़ा गहन हैं, नाना दुर्जय दुःवरूपी खोटे मार्गों से दुर्गम और मनुष्यों के लिए बड़ा भयानक है, अनेक क्रूर कर्मजिनके उदयमें आ रहे हैं ऐसे प्राणियोंका जो स्थान है, तथा जो खोटे भात्रोंरूपी बिलों द्वारा भरा-पुरा और भीषण है ऐसे संसार में जो भय त्रस्त प्राणी जन्म-मरण के चक्कर लगा रहे हैं वे सत्र एक आपके शरण बिना ही दुःखी हो रहे हैं । यदि उन्हें आपका शरण मिल जाता तो वे कभीके पार हो गये होते ।
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श्रीपाल भव्य वर्ग
जो कि विविध जन्म-रूपी जलसे सब दिशाओंको लाँघता है; क्लेशकी लहरों से परिपूर्ण है, दुष्कर्म रूपी जिसमें विविध वडवानल हैं और खोटे भावरूपी भँवर उठा करते हैं ऐसे संसार समुद्र से प्राणियोंको तारनेके लिए आप अद्वितीय नौका हैं ।
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हे धर्मेश, पाप कर्मोंने हमें संसार रूपी अंधकूपमें गिरा रक्खा है, अतः कृपा कर आप धर्म-रूपी हाथका सहारा देकर हमारा उद्धार कीजिए । प्रभो, इम संसार रूपी जंगलमें पड़े हुए हैं, सो आप हमें धर्मकी सवारी देकर बहुत जल्दी मोक्ष-क्षेत्र में पहुँचा दीजिए । आज ही हमारा बेड़ा पार कर दीजिए । हे दक्ष, आपके प्रसादसे अब हम बहुत जल्दी शिव प्राप्त करना चाहते हैं । अतः आप हमें वह दीक्षा दीजिए जो कि हमारा कल्याण कर दे । इस तरह प्रभुसे प्रार्थना कर पांडव दीक्षा के लिए उद्यत हो गये । इसके बाद उन्होंने मनुष्यों द्वारा स्तुत्य माज्य राज्य पुत्रोंको सौपा और क्षेत्र, वास्तु आदि बाह्य तथा मिथ्यात्व आदि अंतरंग परिग्रहका त्याग कर, केशलोंचं कर, तेरह प्रकार चारित्र धारण कर जिनदीक्षा धारण की ।
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इनके साथ ही कुन्ती, सुभद्रा और द्रोपदीने राजीमती अर्जिकाके पास जाकर केशोंका लोंच कर संयम धारण किया । इनके अतिरिक्त उस समय संसारसे भयभीत होकर और भी बहुतसे राजा तथा बन्धु-गण शुभ परिणामों के साथ दीक्षित हुए
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इसके बाद जगद्गुरु गरिष्ठ युधिष्ठिरने बिना किसी कष्टके निष्ठुर मोह-मल्लको जीता | भव्य सम्पदाके भावुक, पापसे डरनेवाले लेकिन निर्भय तथा संसारबैरीके लिए मय देनेवाले भीमने भी मोह पर विजय पाई । समुद्धर धनंजयने चिचमें मुक्ति-रूपी वधूको स्थान दिया और प्रतिके साथ आराधनाओंकों आराधा । एवं मद्रीके पुत्रोंने भी द्रव्य, पर्याय आदिका अनुभव कर, परिग्रहसे विमुक्त हो, नासादृष्टि ध्यान लगा उत्तम तप किया । इस तरह कर्मों के शमनके लिए उद्यत हुए पाँचों ही पांडवोंने दृढ़ता से पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियोंको वश करना, छह आवश्यक पालना, केशलोंच करना, नग्न रहना, स्नान नहीं करना, भूमिमें सोना, दॉत नहीं घोना और एक बार दिनमें खड़े आहार लेना - इन मूल गुणका पालन किया। इसके बाद उत्तर गुणों की भावना करते हुए उन धीर धर्मात्मा तपोधनोंने धर्म-ध्यान किया। गुप्तियों द्वारा आत्माको रक्षित रखते हुए गौरवकं साथ द्वादशांगका मनन किया | इस प्रकार अपने वीर्यको प्रगट कर उन गुणाग्रणी पांढबोंने निःशंक होकर नेमिनाथ प्रभुके पास कठिन तप किया और कर्मोके नाश के लिए उद्यत होकर उन नरोत्तमाने' कर्मों की खूब निर्जरा की । उन्होंने छह, छह सात सात उपवास किये और पारणाके दिन केवल बत्तीस ग्रास मात्र आहार लेकर अवमौदर्य किया । मार्ग, घर, गली आदिकी प्रतिज्ञा द्वारा वृत्तिपरिसंख्यान
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छब्बीसवाँ अध्याय |
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पाण्डव-पुराण
कर भोजनकी इच्छाको रोका | पारणा करते हुए रसपरित्याग किया शून्यागार, गुहा, वन, पितृवन (मशानभूमि), वृक्षोंके कोटर, पहाड़ और निर्जन स्थान जैसे भयावने स्थानोंमें सिंहकी भाँति निर्भय होकर शय्या-आसन लगाया । शरीर से ममता भाव छोड़ कर चोराहे आदि जगहमें काय- क्लेश किया । इस प्रकार छह बाह्य तपका आचरण करते हुए और निर्विश विविध तप करते हुए पांडव पर्वत आदि स्थानोंमें ठहरे । वहाँ आत्माकी और व्रतकी शुद्धिके लिए वे आलोचना आदि भेदसे दस दस प्रकार प्रायश्चित्त करते; ज्ञान-दर्शन- चारित्र और उपचार के भेदसे चार प्रकारका विनय पालते चारित्राचरणके लिए उद्यत हो आचार्य आदिके भेदसे दस प्रकार विशुद्धि करनेवाला वैयाहृत्य पालते; ध्यानकी सिद्धिके लिए बाचना, पृच्छना, आम्नाय, अनुप्रेक्षा और धर्मोपदेश एवं पाँच प्रकारका स्वाध्याय करते; कषाय और आत्माका भेद समझ कर निर्जन स्थानमें शरीर से ममता छोड़ने रूप व्युत्सर्ग करते; और आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय नाम चार प्रकार धर्मध्यान साधन करते | इस प्रकार तप करते हुए उन धीरवीरोंने शुक्ल नामके पहले शुक्लध्यानको साधा । इस तरह छह प्रकारके भीतरी तपको तप कर उन कर्मशूरौने कमको अत्यन्त कमजोर कर दिया, जिस तरह कि गरुड़ साँपोंको कमजोर कर डालता है । देखो, तपका ऐसा प्रभाव है कि उसकी बजहसे हृदयमें किसी तरहकी भी व्याधि स्थान नहीं पाती । बस वही कारण हुआ जो तप तपते हुए पांडवोंके पास विविध-समृद्धि, उपस्थित हो गई। तपके प्रभावसे ही वे खूब ऋद्धिशाली हुए । गरज यह कि पांडवोंने चाहिए जैसा बारह प्रकारके तपको तपा, जिसके प्रभाव से उन्हें विविध ऋद्धियाँ प्राप्त हुई।
वे बड़े धर्मात्मा थे । यही कारण है कि वे सभी प्राणियोंमे मैत्रीभाव, अधिक गुणवालों से प्रमोदभाव, दुःखी, दरिद्री जीवोंसे करुणाभाव और विपरीत चलनेवालोंसे मध्यस्थभाव रखते थे । हमेशा अपने शुद्ध-बुद्ध-निरंजन आत्माकी भावना करते और बारह भावनाओं द्वारा उसे स्थिर रखते थे । आत्माको आत्मामें कीन रखते थे । इससे उनकी आत्मायें रत्नत्रयका स्वच्छ प्रकाश हो कर मोहरूपी अँधेरा जड़ मूलसे नष्ट हो गया । उन्होंने शुद्ध चिन्मय आत्मामें लीन हो कर बड़ी धीरता के साथ तिर्यञ्च, मनुष्य और देवोंके किये घोर उपसगको सहा और निर्मळ चित्त द्वारा भूख-प्यास आदि परीषहोंको जीता । वे ब्रह्मवारी थे, धीर ये, अप्रमादी थे, चारित्रके पालनेवाले ये और पवित्र तथा हावीके जैसे
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उन्धीसवाँ अध्याय ।
२८३ निर्भय थे। वे विशुद्ध-चित्त संयमको धारण कर मोह और प्रमादको क्षीण कर चुके थे और ध्यान द्वारा रहे-सहे पाप-समूहको और क्षीण करना चाहते थे।
इसके बाद विहार करते करते वे सौराष्ट्र देशमें पहुँचे । एक समयकी बात है कि वहां उन्होंने शत्रुनय गिरिके शिखर पर ध्यान दिया। वे पंच परम पदका स्मरण करते हुए धीरताके साथ शत्रुनय गिरि पर कायोत्सर्गे ध्यानसे स्थित हुए। और थोड़े ही कालमें आतापन आदि योग द्वारा. सिद्धिके साधक घोरसे भी घोर उपसर्ग सहनेके लिए समर्थ हो गये । उन तपनोंने वहाँ स्थित हो कर अक्षय, परम शुद्ध, चिन्मान और शरीरसे भिन्न परमात्माका ध्यान किया। इस प्रकार योगी पाडव निर्मल चित्तके साथ निर्ममत्व भाव धारण कर वहाँ स्थित ये । इसी समय अचानक वहाँ दुर्योधनका मानना क्रूचित्त कुर्मघर जो कि बड़ा दुष्ट और वज शठ था, आ गया । वह दुष्ट उन्हें धर्मध्यानमें स्थित देख कर मार डालने के लिए तैयार हुआ । वह मन-ही-मन सोचने लगा कि मेरे मामाको मार कर ये मदमच पाण्डव यहाँ आ छिपे है । अब तो मैंने इनें देख लिया । अब ये कहाँ जायगे । इस समय बदला लेनेके लिए मुझे पूरा अवसर आ मिला है। कारण कि ये ध्यानमें आरूढ़ हो रहे है, अतः युद्ध जरा भी नहीं करेंगे । इस लिए मैं इन वाचंयम (मौनधारी) और यम'अर्थात् जन्म मरके लिए प्रतिज्ञा-बद तथा बली हो कर भी निर्बल मानियों को पूरे तिरस्कारके साथ ही क्यों न मारु-मुझे अवश्य ही ऐसा करना चाहिए । इसके बाद उसने लोहेके सोलर आभूषण बनवाये और, उन्हें जलती हुई आगमें खुब तपा कर अपिके जैसा ही हाल करवाया। इसके बाद उसने जलती हुई ज्वाला जैसे लोहके मुकुटको उनके , मस्तक पर रक्खा, कानोंमें कुंटल पहिनाये, गलेमें हार डाले, हाथोंमें कड़े और कमरमें करधौनियाँ पहिनाई । पाँवोंमें लंगर और मंगुलियों प्रदरियाँ, पहिनाई । उस धर्महीन , अधीने इस तरह उन्हें दुःख देनेके लिए तपे हुए काल, लोहेके गहने पहिनाये और पूरा-पूरा दुःख दिया । उन शानियों के शरीरमें क्यों ही वे भूषण पहिनाये गये कि उसी क्षण .. उनका शरीर जलने लगा, जैसे कि आगके योगसे काठ जलता है । उनके मळते हुए शरीरसे 'सब, दिशाओंको व्याप्त करनेवाला वैसा ही घोर धुआं निकला; जैसा, लकड़ीके जलनेसे अभिमसे धुंआ निकलता है । इस समय अपने शरीरोंको जलता देख कर उन श्रेष्ठ,पांडवोंने दाहकी शान्ति के लिए हृदयमें ध्यानरूपी अकको स्थान दिया । जिन, सिद्ध, सर्व साधु और सरे धर्मका नन्होंने
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पाण्डव-पुराण ।
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आश्रय लिया वे रत्तम मंगल और शरण-रूप हैं । अव आत्माको नहीं, किन्तु शरीरको जलाती हुई आगने एक विपुल रूप धारण किया और जिस तरह वह एक कुटीको जलाती हुई गगन-तलमें फैलती है उसी तरह गगन तलमें फैल गई । वें सोचने लगे कि अग्नि मूर्त है, अत एव या मूर्त शरीरको ही जला सकती है हमारे अमूर्त आत्माओंको तो यह छ भी नहीं सकती, क्योंकि सहश पर ही सहशका पश चलता है । यह आत्मा शुद्ध-बुद्ध और सिद्ध है; निराकार और निरंजन है, उपयोग-मय और माता-दृष्टा तथा निरत्यय है । यह तीन प्रकारके कर्मोंसे जुदा है । देहके बराबर है। परन्तु देहसे भिन्न है । अनंतज्ञान
आदि अनंत चतुष्टय द्वारा समुज्वल है । इस तरह आत्म-स्वरूपका विचार करने करते वे विपक्ष के क्षयके लिए अनुप्रेक्षाओंका चिंतन करने लगे।
शुद्ध षनले यों विचार करने लगे कि संसारमें जीवों का जीवन क्षण-स्थायी है-मेघकी भाँति नष्ट होनेवाला है । फिर इसमें स्थिरताका भान तो हो ही कैसे सकता है। शरीर चंचल है, यौवन वृक्षकी छाया-तुल्य है या जलके बलों जैसा है, तया चित्त मेघ-तुल्य है। विषय, पदार्थ वगैरह जव कि चक्रवर्तियोंके यहाँ
भी स्थिर नहीं रहते तब औरोंके पास स्थिर रहनेकी तो कथा ही क्या है । अतः , विद्वानोंको चाहिए कि वे मोक्षकी सिद्धिके लिए विषयोंको स्वयं ही छोड़ दें और इस विनश्वर शरीर द्वारा अविनश्वर पदको साधनेमें कुछ भी उठा न रक्खें-इसीमें उनकी बुद्धिमानी है । सच पूछो तो इस लोकमें अपने आत्माके सिवा और कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है । सब इन्द्र धनुषकी भाँति केवल देखने मात्रके लिए मिय है। वास्तवमें संसारमें कोई मिय वस्तु नहीं । यदि कोई मिय वस्तु है तो वह एक आत्मा ही है । जब कि संसारमें भरतचक्री आदिके जैसे महापुरुषोंका जीवन भी स्थिर नहीं देखा गया तब फिर हे आत्मन, तू व्यर्थ ही क्यों दुःख करता है। अपने जन्मको सफल क्यों नहीं करता । तुझे तो यह चाहिए कि तू अपने एक क्षणको भी व्यर्थ न जाने दे। .
इति अनित्यानुप्रेक्षा । जिस तरह कि अशरण वनमें सिंहों द्वारा घेर लिये गये मृगके बचेको कोई भी बचानेवाला नहीं होता उसी तरह जब इस जीवको यमके नौकर घेर लेते हैं तब इसे कोई भी बचा नहीं सकता। यह यमराज ऐसा बली है कि जीवको चाहे शस्त्रधारी सुभट, · भाई-बन्धु और हाथी घोडे वगैरह क्यों न घेरे रहें पर बा कभी छोड़नेका नहीं; जैसे बिछी को नहीं छोड़ती--पक करें
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छब्बीसवाँ अध्याय ।
३८५ शटसे पकड़ लेती है। अतः कहना चाहिए कि मंत्र, यंत्र आदिक आत्माके लिए कोई भी शरण नहीं है। एक मात्र शरण है अपना किया हुआ पुण्य । जिस तरह समुद्र के बीच जाकर जिस पक्षीने नौकाका सहारा छोड़ दिया उसके लिए कोई भी शरण नहीं होता उसी तरह घायु कर्मके पूर्ण हो जाने पर इस पाणीके लिए कोई शरण नहीं होता। जब कि सुरेन्द्र भी अपनी देवियोंकी कालकीचालसे रक्षा करनेको समर्थ नहीं होता तब दूसरा कौन है जो उससे हे आत्मन् , तेरी रक्षा कर सके । तात्पर्य यह कि चिद्रूप, काल द्वारा अगम्य, अविनवर और शुद्ध आत्माके विना मोहित-चित्त प्राणियों के लिए और कोई भी शरण नहीं है-एक आत्मा ही शरण है।
इति अशरणानुप्रेक्षा। ___आचार्योंने संसारके पॉच भेद वताये है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव । इस पाँच प्रकारके संसारमें इस जीवने ऐसे अनंत चकर लगाये हैं जिनका एक एकका काल भी अनंत है और एक एकका अनेक बार नम्बर आया है। फिर हे प्राणी, तू शुभकी आशा कर संसारमें व्यर्थ ही काहेको अनुरक्त होता है। अपने चिद्रूप आत्मामें ही लीन क्यों नहीं होता । देख, ऐसा करनेसे तुझे संसारमें चकर लगानेके सिवा और कुछ भी लाभ न होगा ।
___ इति संसारानुप्रेक्षा। हे आत्मन, संसारमें चक्कर लगाता हुआ तू जन्म-मरण, लाभ, अलाभ, सुख-दुःख और हित-अहितमें अकेला ही है--कोई भी तेरा साथी नहीं है। जो बन्धु-बान्धवके रूपमें तुझे नजर आते हैं वे सब स्वार्थ के सगे हैं। वे तुझसे भिन्न है । तू ही एक काँका कर्ता है और तू ही अकेला उनका भोक्ता है। यह शरीर भी तेरा साथी नहीं, फिर तू इसे छोड़ कर मुक्तिके लिए यत्न क्यों नहीं करता । एक चिद्रूप, रूपातीत, निरंजन, स्वाधीन और कर्मसे भिन्न सुखरूपआत्मामें लीन हो।
- इति एकत्वानुप्रेक्षा। देख, कर्म भिन्न है, क्रिया भिन्न है और देह भी तुझसे भिन्न है, फिर तू ऐसा क्यों मानता है कि ये इन्द्रियों के विषय आदि पदार्थ मेरे हैं-मुझसे अभिन्न है, मैं देह-रूप हूँ। तू अपने चित्तमें ऐसा ख्याल भूल कर भी मत ला । सच तो ,, यह है कि यह तेरा शरीर सॉपको काँचलीके जैसा है । जिस तरह कॉचली साँपके 'चारों ओर लिपटी रहती है उसी तरह यह तेरे चारों ओर लिपटा हुआ है। तू देहसे बिल्कुल ही भिन्न है, ज्ञानी है, चारित्रधारी है, दर्शन-सम्पन्न है या.. यों कहिए कि रत्नत्रयका पिटारा है, कर्मातीत है, शिवाकार है और आकार रहित है।
इति, अन्यत्वानुमेक्षा।
पामाप-पुराण ४९
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पाण्डव-पुराण।
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हे आत्मन् , यह शरीर मास, हड्डी, लोह वगैरहका बना हुआ है, विष्टाका खजाना है, मेद, चर्म और केशोंका घर है। इसमें तू चित्तको अनुरक्त क्यों करता है--इसे क्यों अपनाता है ।.देख तो सही कि इसके सम्बन्ध मात्रसे ही एकसे एक बढ़- । कर पवित्र वस्तुएँ भी क्षण भरमें अपवित्र हो जाती है । फिर कौनसा ऐसा कारण है कि जिसको देख कर तू शुक्र-शोणितके पिटारे इस शरीरसे मोह करता है। तेरा कर्तव्य तो यह है कि तू सव अशुचियोंसे रहित, सब शरीरोंसे भिन्न, ज्ञानरूप, निराकार और चिद्रूप आत्माको ही सदा भजे। इति अशुचित्वानुमेक्षा 1
जिस तरह समुद्र में पड़ी हुई सछिद्र नौकामें छिद्र द्वारा जल आता है उसी तरह संसार-समुद्रमें पड़े हुए प्राणियोंके भी मिथ्यात्व आदिके निमित्तसे कर्मोंका आस्रव होता है । पाँच मिथ्यात्व, बारह अविरति, पच्चीस कषाएँ और पन्द्रह योग ये आस्रवके भेद हैं । आस्रवके निमित्तसे जीव संसार-समुद्रमें काठकी नाँई तैरा करता है । इस लिए तुझे चाहिए कि तू आस्रवोंको छोड़ कर एक चिद्रूप-शाश्वत आत्माको भेजे।।
इति आसवानुमेक्षा । आस्रवके रोक देनेको संवर कहते हैं और वह संवर समिति, गुप्ति, अनुप्रेक्ष, तप और ध्यानके द्वारा होता है । देखो, कोका संवर हो जाने पर फिर आत्मा संसार-समुद्रमें नहीं डूवता; किन्तु अपने इष्ट पद पर पहुँच जाता है । अतः हे आत्मन, तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम सदा काल अक्लेश-गम्य और आत्माधीन मोक्षमार्गमें बुद्धि दो-व्यर्थ ही वाह्य आडम्बरमें भूल कर मत भटको ।
इति संवरानुभेक्षा। रत्नत्रयके निमित्तसे पहलेके बँधे हुए कमौकी निर्जरा होती है । जिस तरह चेतन की गई आग द्वारा दाह्य वस्तु निःशेष जल जाती है वैसे ही निर्जरा द्वारा पहलेके बँधे हुए सब कर्म नष्ट हो जाते हैं । निर्जराके दो भेद हैं। एक सविपाक और दूसरी अविपाक । इनमें पहली तो सर्व साधारणके होती है और दूसरी व्रतधारी मुनियों के होती है। और यही वास्तवमें कामकी है । हे आत्मन, संवर हो जाने पर जो कर्मोंकी निर्जरा होती है उससे तुम्हारे केवली होने में जरा भी देर नहीं रह जाती। क्योंकि जिस नावमें पानी आनेका रास्ता बन्द कर दिया गया और पहलेका पानी उलिच दिया गया उसमें फिर न तो पानी आ सकता। है और न पानी रह सकता है।
इति निर्जरानुमेक्षा । ___ कटि पर हाथ रख कर, पाँव फैला कर खड़े हुए पुरुषके जैसे आकारका यह लोक आयनन्त रहित अकृत्रिम है-इसे किसीने बनाया नहीं है। इसमें भाणी अनिके वंश होकर बार-बार चकर लगाया करते हैं। क्योंकि - निषित
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छब्बीसवाँ अध्याय । बात है कि कारण समर्थ रहते हुए कभी कार्यका क्षय नहीं हो सकता । उर्द्ध, मध्य और अध:के भेदसे हुई लोककी विचित्रताको देख कर स्वसवेदनकी मिद्धिके लिए हे आत्मन, तुम शान्त हो ताकि तुम्हें सुख मिले। इति लोकानुप्रेक्षा।
हे आत्पन , पहले तो भव्यपना ही दुर्लभ है और भव्य होकर भी मनुष्यजन्म, उत्तम क्षेत्र और उत्तम कुल पाना उत्तरोत्तर दुर्लभ है । कदाचित् उत्तम कुल भी मिल गया तो सत्संगतिका पाना बहुत दुर्लभ बात है । मान लीजिए कि कभी सत्संग भी मिल गया और धर्मबुद्धि न हुई तो उसका पाना भी व्यर्थ ही गया । जैसे कि धान्य अधिकतासे उगा और उसमें यदि बाल न निकली तो वह उसका अधिकतासे उगना कौन काम आया। एवं कभी धर्म भी हाथ आ गया तो फिर मुनिधर्म पाना दुर्लभ ही है और उसके मिल जाने पर भी आत्मबोध होना कोई हँसी-खेल नहीं; किन्तु अत्यंत दुर्लभ है । यदि सौभाग्यसे कदाचित् स्वात्मबोध हो गया जो कि योगीन्द्रोंको ही होता है, तो उसका फिर सदा ही चिन्तन रहता है, वह फिर नहीं छूटना । जैसे किसीका धन चोरी चला जाता है या और किसी तरह खो जाता है तो उसे उसके मन करनेकी सदा ही चिन्ता रहती है । गरज यह कि योगी द्रोंके होनेवाला स्वात्प-बोध हुआ कि वह फिर आत्मासे जुदा नहीं होता। इसी लिए कहा जाता है कि आत्मलाभके सिवा न कोई ज्ञान है, न सुख है, न ध्यान है और न कोई परम पद ही है। जो कुछ भी है वह एक आत्मबोध ही है, अतः बुद्धिमानोंको चाहिए कि आत्मबोधको पाकर फिर घुद्धिको न बुलावें । क्योंकि जिसके हाथ चिन्तामणि रत्न आ गया वह काचके लिए बुद्धि करे यह ठीक नहीं। इति बोधिदुलमानुपेक्षा ।
उस जिनधर्मका सदा सेवन करना उचित है जिसके प्रभावसे मनुष्य उत्तम-उत्तम पदोंको पाकर सर्वोत्तम सुखोंको भोगता है। वह दुर्लभ धर्म दस तरहका है। योगीजन इस धर्मको तेरह प्रकारके चारित्रके रूपमें पालते हैं और मुक्तिपद पाते हैं । देखो, उत्तम धर्म ,वही है जो कि जीवको दु:खकी अवस्थासे निकाल कर शिव रूप सुधा-धाममें पहुंचा दे। मोहसे उत्पन्न हुए विकल्पोंको छोड़ कर शुद्ध चिद्रूपमें लीन होना भी धर्म है । और आत्माकी विशुद्धिको भी धर्म कहते हैं। यही धर्म आत्माको मुक्ति देनेवाला है । याद रखने की बात है कि जब तक
आत्माकी शुद्धि नहीं होती तब तक जीवोंको हेय-उपादेयका ज्ञान भी नहीं होता । एवं आत्माका ध्यान ही उचा धर्म है और वही उत्तम तप है । इसके बिना आत्माको हेय-उपादेयका ज्ञान हो ही नहीं सकता। इति धर्मानुपेक्षा।
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इस प्रकार अनुपेक्षाओंका चिंतन करनेसे उनकी विरक्तता बिल्कुल ही अचल हो गई। सच है कि समर्थ कारण मिलने पर सत्पुरुषोंका शील-स्वभावस्थिर हो जाता है । उन्होंने शरीर आदि परिग्रहको तृणकी बराबर भी न समझा । बुद्धिमान् जन अमृत हाथ लग जाने पर विषको कभी पसंद नहीं करते । इस तरह मनोयोगको रोक कर, शुद्ध योगका आश्रय ले तीन पाण्डवोंने तो बहुत जल्दी क्षपश्रेणी पर आरोहण किया; और प्रबुद्ध होकर शुद्ध ध्यानके वल निर्विकल्प चित्तसे आत्माका ध्यान किया। वे अधःकरणका आराधन कर अपूर्व करण पर चढ़े और बाद अनिवृत्तिकरण पर पहुँचे । एवं परिणामोंको शुद्ध करते हुए उन्होंने अप्रमतगुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय तक तिरेसठ कर्मप्रकृतियोंका नाश किया और केवलज्ञान उपार्जन कर तथा वाद अघातिकर्मोको भी नाश कर तीन पांडव अन्तकृत् केवली होकर मोक्ष गये युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन शिवधाम पहुँचे । वे सिद्धगति लाभ कर सम्यक्त्व आदि आठ गुण तथा अनंत सुखके भोक्ता हुए । अब उन्हें न तो पाँच प्रकारके संसारकी बाधा रही और न क्षुधा आदि अठारह दोषोंका कोई जंजाल रहा-वे निर्दोष और अनंत सुखके भोक्ता हुएं । जिनके सव मनोरथ पूर्ण हो गये हैं और जो अनंतानंतकाल अभय-मोक्ष-के सुखको भोगेंगे वे सिद्ध पाण्डव हमें भी सिद्ध-पद दें। इस प्रकार उन तीनों पांडवोंको केवलज्ञान और निर्वाणकल्याण दोनों एक साथ हुए जान कर तत्क्षण देवगण आये और उन्होंने उनके ज्ञान और निर्वाण कल्याणका महोत्सव मनाया। - उधर पाप-रहित नकुल और सहदेव चित्तमें कुछ अस्थिरता हो जानेके कारण स्वर्गके सन्मुख हुए । उपसर्ग सहते हुए मरे और जाकर सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुए । वहाँ वे तैतीस सागर तक सुख-भोग भोगेंगे । बाद वहाँसे चय कर मनुष्य-लोकमें मनुष्य होंगे और फिर आत्म-साधन कर तप द्वारा सिद्ध होंगे-शिवधाम जावेंगे । इसी प्रकार राजीमती; कुन्ती, सुभद्रा और द्रोपदीने भी धर्म-साधनके लिए तत्पर होकर सम्यक्त्वके साथ-साथ व्रत धारण किये और चिरकाल तक शुद्ध भावोंके साथ उनका पालन किया । वे अ'युके अन्त चार आराधनाओंको आराधते हुए संन्यास धारण कर सोलहों स्वर्ग गई और स्त्री-लिग छेद कर वहाँ उन्होंने देव-पद पाया-वे सब सामानिक देव हुई । इसके बाद बाईस सागर तक वहाँके सुख भोग कर जब वे वहाँसे
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छब्बीसवाँ अध्याय |
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च्युत होंगी तत्र मनुष्य-लोकमें आ, नर-जन्म धारण कर तप करेंगी और ध्यानके योग से कर्म-क्षय कर शिवधाम जायेंगी ।
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इसके बाद ज्ञानी नेमिप भी विविध देशोंमें विहार करते रैवतक पहाड़ पर आये । अब उनकी आयु सिर्फ एक महीने की रह गई थी । वहाँ उन्होंने वचनयोग रोक कर योगनिरोध किया और पर्यकासन लगा निष्क्रिय स्थित हुए । इसके बाद वे अन्तके गुणस्थानमें शेष रहीं पचासी प्रकृतियोंका नाश कर शुक्लपक्षकी सप्तमीके दिन पाँच सौ छत्तीस योगियोंके साथ मुक्तिधाम पधारे । उनके निर्वाण महोत्सव के लिए सब सुर-असुर आये और प्रशुके गुणोंको चाहते हुए निर्वाण -कल्याण कर अपने अपने स्थान चले गये ।
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जो क्रमसे विंध्याचल पर भील हुए, उत्तम गुणोंके धारक वणिक हुए, इमकेतु देव हुए, चिंतागति विद्याधर राजा हुए, सुमना महेन्द्र हुए, पराजित राजा हुए, अच्युतेन्द्र हुए, सुमतिष्ठ राजा हुए और अन्तमें जयंत विमानमें अहमिन्द्र होकर यहाँ नेमिप्रभु हुए -- वे नेमिप्रभु हम सबकी रक्षा करें।
वे पांडव लक्ष्मीदें जो पहले परमोदयशाली ब्राह्मण हो, तीव्र तप कर अच्युत स्वर्ग में देव हुए और वहाँ से चय कर यहाँ युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव हुए तथा पीछे तप कर तीन मोक्ष गये और अन्नके दो मद्री सुत स्वर्गधाम गये ।
जो दीप्तिशाली देव हैं, पाप-दर्प-रूपी दाबके लिए अनिके कंद हैं, भयको दूर करनेवाले हैं, दिव्य चक्षु और दिव्य वीर्यशाली हैं, कीर्तिके दाता हैं, शम-दमसे युक्त है, महान् दीप्तिशाली देहके धारक है और सर्वदर्शी हैं वे दुरितको दारण करनेवाले प्रभु हमें शिव दें ।
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कहाँ तो श्री गौतम आदि द्वारा कहा गया पांडवोंका विशाल चरित और कहाँ मेरा अल्प ज्ञान जो पूर्णपने कर्मरूपी आवरण से ढँका हुआ है । यद्यपि मेरे ज्ञानकी इस विशाल चरित के साथ कुछ भी तुलना नहीं हो सकती तो भी मैंने इसके रचनेका जो प्रयत्न किया है यह मेरी धृष्टता ही है ।
मैंने जो इस उत्तम कथाके कहनेका साहस किया है वह वैसा ही है जैमा बालक तारागणके गिनने की कोशिश करते हैं, मेंदक समुद्र के जलकी थाह लेनेका यत्न करता है और भीरु पुरुष अपने पराक्रमको दिखानेका साहस करता है ।
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। पाण्डव-पुराण!
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____ मैं ऐसे साधुओंकी हृदयसे चाह करता हूँ जो उत्तम शाखके क्षण हरनेवाले और परतोष देनेवाले हैं। मुझे उन असाधुओंकी जरूरत नहीं जो प्रयत्न द्वारा रचे गये शास्त्रमें भी दोष बताते हैं और परको दूषण देते हैं । भूतल पर जो परकार्य करनेमें अनुरक्त साधु-पुरुष हैं उनका स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे दोष देख कर भी किसी पर विकार भाव नहीं दिखाते; किन्तु चंद्रमाकी भॉति ही निज करों (किरणों और हाथों) द्वारा नक्षत्र-वंश-विभव होते हुए भी औरोंको परितोष देते है । और जो तामप्त स्वभावसे पूर्ण हैं वे निरन्तर उत्तम मार्गको विगाड़नेमें ही दत्तचित्त रहते हैं, कुमार्ग पर चल कर अपने आपको भी कीचड़में लयोड़ते हैं और लोकमें अज्ञानांधकारका प्रसार करते हैं ।
देखिए संसारमें अच्छे पुरे जो जो पुरुष हुए यदि जगह जगह उनके अच्छे और बुरे कृत्य न भरे-पड़े होते तो फिर लोगों को अच्छे बुरेकी पहिचान ही कैसे होती; जैसे काचके अभाव में रत्नकी पहिचान नहीं हो सकती।
मैं उन साधुओंकी क्या प्रार्थना करूँ जो पर गुणोंको ही सदा कहते और सुनते है; पराये दोर्षोंको कभी न.कहते और सुनते । और न भूलें हो जाने पर वे हितकारी दंड ही देते हैं । वे तोष-भावके निधान साधु संसारकी शोभा बढ़ावें।
मै उन दुष्टोंकी प्रशंसा करता हूँ जो पराये दोष कहने के लिए सदा ही टकटकी वॉधे रहते है और जहाँ दोषका लेश मात्र भी पाया कि उसे सारे संसारमें गाते फिरते हैं और कहते हैं। कि".अमुककी कृति सारी ही इसी तरह तरह दोषोंसे भारी हुई है। . .
___ पाण्डवोंके इस पवित्र ही नहीं, किन्तु परम पवित्र पुराणको बना कर मैं न तो राज-सुख चाहता हूँ और न और ही कोई वस्तु चाहता हूँ किन्तु मुक्ति-पदकी याचना करता हूँ। भक्ति से सब मनचाहा फल होता ही है।
यदि इस पुराणमें कहीं व्याकरण, युति, छंद, अलंकार, काव्य आदिक्के विरुद्ध वात कही गई हो तो उसे बुद्धिमान् जन शुद्ध कर लें, क्योंकि शुद्ध भावोंके धारक बुधजन जो कुछ भी प्रयास करते है वह परोपकारके लिए ही करते हैं । मैंने न छंदशास्त्र देखा है और न अलंकार तथा गणोंको सीखा है; न मैं कान्य आदि जानता हूँ और न मुझे जैनेन्द्र आदि किसी व्याकरणका ही मान है। इसी प्रकार त्रैलोकसार आदि लोक-ग्रन्थ और गोम्मटसार आदि
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छब्बीसवा अाय । १९१ जीव-अन्य भी मैंने नहीं देखे हैं और न अष्टसहस्री आदि तर्कशास्त्र ही पढ़े हैं। इसका कारण यह है कि मेरा अन्तःकरण मोहसे विषश है । मेरी यह दशा होने पर भी मैं जिनदेवका पूर्ण भक्त हूँ, उनकी उत्तमोत्तम गुणों द्वारा स्तुति करता हूँ। इस कारण सत्पुरुषों तथा अन्य साधारण जनको चाहिए कि वे क्रोध वगैरह छोड़ कर सदा ही मुझ पर क्षमाभाव रक्खें । जो पालक होता है-अबोध होता है-उसका कौन हित नहीं करता।
श्रीमूलसंघमें पधनन्दी आचार्य हुए । उनके पद पर सकलंकीत हुए, जिन्होंने मर्त्यलोकमें शास्त्रार्थकी कला प्रगट की । उनके बाद भुवनाधिपों द्वारा स्तुत्य, उत्तम तप तपनेके लिए उद्यतमना, भव-भयरूपी साँपके लिए गरुड और पृथ्वीकी भाँति क्षमाके धारक भुवनकीर्ति हुए । उनके वाद चिद्रूपके वेत्ता, चतुर, चिद्भूषण और पूजित पाद-पाके धारी चन्द्रसूरि हुए-वे हमारे चारिप्रकी शुद्धि करें। उनके वाद सत्पुरुषों द्वारा सेवित, राजों द्वारा मान्य, सुमतिके धारी और मुदित.आत्मा विनयकीर्ति हुए । वे विभु हमारी संसारसे रक्षा करें। उनके पथ पर गुण-समुद्र, व्रती, गुण-गरिष्ठ, सर्वोत्तम श्रीमान् वादीमसिंह शुभचन्द्र हुए, जिन्होंने उत्तम रुचिके धारक पाण्ड्ड पुत्रोंकी सिद्धिको लेकर यह विचार-सुकर और शुभ, सिद्धि तथा सुख देनेवाला चरित रचा। इन्हीं शुभचन्द्र यतीन्द्र चन्द्रने नीचे लिखे ग्रन्थ और भी रचे है।
चन्द्रप्रभचरित, पंचनामचरित, मन्मथमहिमा, जीवन्धरचरित, चन्दनकथा, नंदीवरकया, आशाघरकत अनगार धर्मामृतकी आचारवृत्ति टीका, तीसचौवीसी पूजा, सिद्धपूजा, सरस्वतीपूजा, पार्धनाथकान्यकी पंजिका । 'इनके सिवा इन्होंने कितने उद्यापन भी रचे हैं। और संशय-वदन-विदारण, अपशब्दखंडन, सत्तत्वनिर्णय, स्वरूपसंबोधिनीवत्ति, अध्यात्मपद्यत्ति, सर्वार्थपूर्व, सर्वतोभद्र और चिंतामणि नाम व्याकरण-आदि ग्रन्थ भी इनकी कृति हैं । एवं सर्वांगार्थमरूपिका अंगप्रज्ञप्ति तथा जिनदेवके कितने पवित्र स्तोत्र भी इन्होंने रचे हैं।
इन्हीं शुभचन्द्र देवने प्रीतिके वश हो यह पांडवोंका परम पवित्र महान, · पुराण बनाया है। यह दीप्तिशाली वंशोंका भूषण है, शुभका स्थान है, शोभा-पूर्ण है, इसमें बहुतसे निर्मल गुण हैं, उत्तम छन्द-रूपी चिंतामणियों द्वारा यह गूंथा गया है और सरल है। इसका दूसरा नाम 'जैन महाभारत' भी है। इन्हीं शुभचन्द्रदेवका समृद्धिशाली बुद्धि-विशद, तर्कशास्त्रका परित, वैराग्य आदि विशुद्धियोंका जनक
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पोण्डव पुराण । श्रीपाल नामका एक ब्रह्मचारी शिष्य था। उसने पांडवोंके इस पूरे चरितको सोधा
और पहले पहल इस अर्थपूर्ण पुराणको उत्तम पुस्तक पर लिखा । उस शास्त्रके अर्थ-संग्रहमें श्रीपाल ब्राह्मचारीने मुझे बहुत सहायता दी, अतः वह श्रेष्ठ विद्याविभूषण चिरंजीवी रहे।
जो पांडवोंके इस पवित्र पुराणको आदरके साथ लिखते पढ़ते और सुनते है- लक्ष्मी, राज्य, नराधिपत्व, देवाधिपत्व आदि उत्तम पदोंके भोगोंको भोग कर उन्नत होते हैं और क्रमसे संसार-समुद्रको पार कर अविनाशी सुखके भोक्ता होते हैं।
उत्तम वचनों द्वारा भव्यों के प्रसन्न करनेवाले अन्ति, सिद्धि-समृद्ध सिद्ध, शिवदाता सिद्धि-शुद्ध साधु, रत्नत्रयरूपी जिनोक्त धर्म, जिनदेवकी रम्य प्रतिमाएँ और जिनालय ये सव सिद्धि दें। ___ जब तक चॉद-सूरज, तारा, सुरपतिसदन, समुद्र, शुद्ध धर्म है। जब तक धरणेंद्र, सुर-निलय-गिरि और देवगंगा है और जब तक त्रिभुवन-मदित कल्पवृक्ष हैं तब तक इस भारत भूमि पर शुभ देनेवाला यह पांडवोंका भारत नाम पुराण भी रहे।
श्रीमद्विक्रमभूपतेतिकहतस्पष्टाष्टसंख्ये शते, रम्येऽष्टाधिकवत्सरे सुखकरे भाद्रे द्वितीयातियो । श्रीमद्वाग्वरनीवृतीमतुले श्रीशाकवाटे पुरे।
श्रीमच्छ्रीपुरुधानि वे विरचितं स्थयात्पुराणं चिरं । भावार्थ-इस पुराणके रचे जानेका समय वि० सवत् १६०८ भादों सुदी दूज है । यह वागड़ प्रान्तके सागवाड़ा नगर स्थित श्रीआदिनाथ भगवान्के मंदिर में रचा गया। यह चिरकाल तक रहे।
इति शुभचन्द्राचार्यविरचित पांडवपुराण ।
मंगलं भूयात् ।
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