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________________ तेरहवाँ अध्याय । १९५ wwwwww wwan mwan बिल्कुल चुप हो गया; उसके मुँह से फिर एक शब्द भी न निकला | कोतवालके इस उत्तरसे दुर्योधनका क्रोध एकदम उभर आया और उसने उसे खूब मजबूत सॉकल से वधवा कर जेलखानेमें डलवा दिया | U JAC 1 warn PA इसके बाद कौरवाग्रणी दुर्योधनने अपने पुरोहितको बुलवाया और वनभूपण आदि से उसका सन्मान कर उससे कहा कि पुरोहितजी, तुम सारे जगतमें प्रसिद्ध हो और पृथ्वी पर देव तुल्य हो । वह इस लिए कि तुम लोगोंके सब काम कर देते हो | आज हमारा भी एक काम आ पडा है, सो तुम उसको भी कर दो तो बड़ी कृपा हो । महाराज, मैं जिस कामको आपसे कराना चाहता हूँ वह बहुत ही गुप्त काम है | मेरा विश्वास है कि उसे तुम्हीं कर सकते हो । क्योंकि उत्तम काम तुम सरीखे पुरुषोंके द्वारा ही पूरे पड़ते हैं। वह कार्य यह है कि यह जो पांडवका लाखका महल हैं इसे तुम रातमें आग लगा कर फूँक दो। इससे मुझे बड़ा सन्तोष और सुख होगा। यदि आप मन चाहा पुरस्कार चाहते हो तो क्षणभर में ही इसे भस्म कर दो। यह कह कर दुर्योधनने उन्हें मुँह माँगा धन देकर संतुष्ट कर दिया और महल जला डालनेकी उनसे स्वीकारता ले ली। लोभी द्विजने भी लोभके वश हो यह अनर्थ करना स्वीकार कर लिया । हाय, यह लोभ इतना वडा पाप है कि इसके बराबर दूसरा कोई पाप नहीं । इस लोभसे अत्यन्त कठिन और दुःख मय कार्य हो जाते हैं । अतः लोभी पुरुषोंके लोभको धिक्कार है, एक बार नहीं, सौ बार नही, किन्तु असंख्य और अनंत बार धिक्कार है। यह लक्ष्मी सुख देनेवाली है, जो ऐसा कहते हैं वे भारी भूलते हैं । किन्तु यह तो खोटे कर्मों की खान है । इसके अधीन होकर लोग क्या क्या दुष्कृत्य नहीं करते । जरा ही सोचो तो मालूम होगा कि इससे ही संसारके सारे अनर्थ होते हैं । और तो क्या लोभी पुरुष भाई-बहिन, माता-पिता, स्त्री- पुत्र नौकर-चाकर, गुरु और राजा आदि किसीको भी मारनेसे नहीं हिचकते । एक जमाना था जब कि ऐसे भी नरपुंगव हो गये हैं जिन्होंने दीक्षाकी इच्छा से लक्ष्मी, महल, हाथी-घोड़े आदि सत्र सम्पत्तिको जलाञ्जलि दे वन्यवृत्ति अर्थात् नन दिगम्बर भेषको पसंद किया था । इसके बाद वह जनेउधारी मूढ तथा जड़ द्विज लक्ष्मीके लोभमें फँस कर पांडवोंके महलको जलाने के लिए तैयार हो गया, और जाकर उस दुष्टने महल के चारों और आग लगा दी । सो ठीक ही है कि दुष्ट, दुर्जन जन कौनसे अनर्थ
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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