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________________ पाण्डव-पुराण । नहीं करते; कौआ कौनसी वस्तुको नहीं खाता; और वैरी कौनसी बातको नहीं कहता । भावार्थ यह कि दुर्जन सभी अनाँको कर डालते हैं, कौआ विष्टा वगैरह सब कुछ घृणित वस्तु खा जाता है और वैरी जो मनमें आता सो . कह डालता है । इसके बाद वह दुष्ट, अनिष्टकारी और कलुपित-चित्त पुरोहित न जाने कहाँ चला गया । ग्रन्थकार कहते है कि पापियोंका चित्त कभी शुभ नहीं हो सकता । इधर आग आकाश तक उठनेवाली अपनी भयंकर ज्वालासे महलको खूब जलाने लगी। ठीक ही है कि आग लगा देनेवाले पुरुषोंमें दया नहीं होती । इस समय उस लेम्बे-चौड़े और ज्वालासें खूब घिरे हुए महलको जलाती हुई आग अत्यन्त दीप्त हो रही थी, दूर दूरसे उसका उजेला देख पड़ता था। सो ठीक ही है कि जलानेवाली आग स्वयं भी तो जलती है। अतः उसका इतना तेज हो जाना कोई वात नहीं है। परन्तु ऐसे समयमें भी पांडच लोग जाग्रत नहीं हुए । लोग कहते है कि नींद शान्ति है--विश्राम-है। परन्तु उनका यह भ्रम है । क्योंकि नींद विश्राम नहीं, किन्तु सुध-बुध भुला देनेवाली एक तरहकी मौत ही है। इधर आगने लाखको शत्रुकी नॉई अपना लक्ष्य बना कर क्षणभरमें ही महलकी सव सुन्दर सुन्दर वस्तुयें जला-कर भस्म कर दी। धीरे धीरे जब उसकी महा-- ज्वालासे महलकी सारी भीते जलने लगी और उसकी ऑचका उन परं कुछ असर हुआ तब पांडव जाग्रत हुए; और जाग्रत होते ही उन्होंने देखा कि लाखके संयोगसे खूब ही प्रदीप्त हुई आगकी ज्वाला सव ओरसे महलको जला रही है । जान पड़ता है मानों वह प्रलयकी ही अग्नि है। उन्होंने अपने निकलनेके लिए इधर उधर बहुत उपाय किये; परन्तु आगकी ज्वालाके मारे उन्हें कहीं भी पाँव देनको जगह न देख पड़ी । उस समय पांडवोंने देखा कि तड़तड़ाती हुई भींतोंको ढाहती हुई ज्वाला सव दिशामेंको फैल रही है। ऐसी जरा भी जगह नहीं बची है जहाँ उसने अपना साम्राज्य न जमा लिया हो । इधर उधर बहुत देखने पर जब कहींसे भी उन्हें निकलनेका उपाय न देख , पड़ा तब धर्मात्मा और धर्म-बुद्धि युधिष्ठिर स्थिर-चित्तसे श्रीजिनेन्द्रका स्मरण करने लगेउनके नामकी माला जपने लगे। वह पंच नमस्कार मंत्रसे अपने मनको मंत्रित करके अपने तेजसे आगको भी दवा कर स्थिर हो वैठ गये। वे विचारने लगे-आश्चर्य है कि कर्म इतने विकट हैं कि उन पर सज्जनोंका भी वश नहीं चलता-उन्हें वे भी नहीं जीत सकते और उसके तीत्र फलको भोगते हैं। फिर भी हे आत्मन्, तू
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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