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________________ तेरहवाँ अध्याय । .. mmmmmmmmm ~~~~ommmmwwwcom इन कर्मोको क्यों करता है, अब तो इनसे अपना पिंड छुड़ा । इन कोंके कारण ही सत्पुरुष संसारमें दुःख उठाते हैं । देखो, इन्हींके फलसे तो सगरके पुत्र दुःखी हुए और इन्हींके जालमें पड़ वार जगत्मसिद्ध अर्ककीर्ति जो कि भरत चक्रवर्तीका पुत्र था, जय सेनापति द्वारा बॅधनमें पड़ा । इसमें विल्कुल सन्देह नहीं है । तथा इनके सिवा और और राजा लोग भी इन्हींके प्रेरे हुए संसारमें वध-बंधन आदिके दुःखोंके भोक्ता हुए हैं । एवं खेदकी बात है कि हम भी इन्हीं दुष्ट कर्मोंकी कृपासे आज आगके मुंहमें आ पड़े हैं । और इन्हींकी कृपासे यह हमें जला कर भस्म किये देती है । इस लिए अब विस्मयको दिलसे निकाल कर हमें इन दुष्ट काँको छेदनेवाले प्रभुका स्मरण करना चाहिए। इस प्रकार विचार कर विशिष्ट-बुद्धि युधिष्ठिर बैठे ही थे कि इतनेमें सहसा संतप्त-चेतना कुन्ती जाग उठी और वह जलते हुए महलके आगे आकर उपस्थित हुए दुर्गम दुःखोंको देख रोने लगी कि हाय ! मैंने ऐसा कौनसा निकृष्ट कर्म किया है, जिसके प्रभावसे मुझे ऐसा भारी दुस्सह दुःख-रूप फल मिला है ।-आश्चर्य है कि ये लोग जिस पापके फलसे तीव्र दुःखोंको भोगते हैं फिर भी उसी पापको करते हैं । अहो धिकार है लोगोंके इस अज्ञानको जिसके पंजेमें फँस जानेसे उन्हें कुछ भी हित-अहितका विवेक नहीं रह जाता । -अब मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ, जब कि सव ओरसे खूब ही जल रही इस भयंकर आगमें यह महल बिल्कुल ही जला जा रहा है। ऐसी हालतमें मैं कहाँ ठहर कर अपने प्राणोंको वचाऊँ । मुझे तो कुछ उपाय ही नहीं सूझ पड़ता है । इस तरह विलाप करती हुई कुन्तीको भीमने समझाया और वह निर्भय अपने आसनसे उठ कर इधर उधर रास्ता सोधने लगा। आग इस जोरसे बढ़ रही थी कि डरके मारे उसके शरीरकी कान्ति भी फीकी पड़ गई। पुण्ययोगसे इसी समय उसे सच्चे उपदेशकके जैसी वह सुरंग मिल गई जो कि पृथ्वीके भीतर ही भीतर विदुरने 'खुदवाई थी। परस्परके स्नेहसे भरे हुए वे सव पांडव जिन भगवानको हृदयमें धारण करनेवाली कुन्ती-सहित उस सुरंगके रास्तेसे बाहर निकल अति शीघ्र वहॉसे चल कर वनमें पहुंच गये-जैसे कि भव्य-पुरुष थोड़ी ही देरमें संसारको नाश कर मुक्तिमें पहुंच जाते हैं । पुण्यका फल कितना मनोहर और अच्छा है कि जिसके प्रसादसे अनजानी सुरंग भी वक्त पर हाथ आ गई । इसी पुण्यसे आग जल हो जाता है, समुद्र थल हो जाता है, शत्रु मित्र और साँप गिजाई हो जाता है।
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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