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पाण्डव-पुराण । wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwner
दुर्योधनके इन अनिष्ट वचनोंको सुन कर कोतवाल बोला कि नृपसत्तम, यह आप क्या कहते हैं । न्यायी पुरुषोंको ऐसा अन्याय करना बिल्कुल ही उचित नहीं है । विद्वान् लोग ऐसी बातोंकी बड़ी निंदा करते हैं । सुजीवन, यह जो लोग धनका संग्रह करते हैं वह जीवनके लिए ही न करते है। परन्तु विचार कर देखनेसे जाना जाता है कि यह जीवन भी तो ओसकी बूंदकी नॉई क्षणिक है-नाश होनेवाला है । और स्वयं धन भी स्वमकी नॉई असार और देखते देखते नष्ट हो जानेवाला है। यह मेघ-पटलकी भाँति एक क्षणमें ही नष्ट हो जाता है। और जिस लक्ष्मीका लोभ देकर आप मुझे इन महा पुरुषोको मार डालनेके लिए कह रहे हैं भला वह लक्ष्मी भी तो किसीके साथ हमेशा रमनेवाली नहीं हैव्यभिचारिणी स्त्रीके जैसी है । वह इस घरसे उस घर और उस घरसे इस घर मारी मारी फिरा करती है । महाराज, जीव-घातसे होनेवाले पाप-वन्धसे जीवकी दुर्गति होती है। अत: उस धनसे भी क्या लाभ जिसके द्वारा जीवोंके प्राण पीड़े जायें । इस लिए प्रभो धन-सम्पदाकी वात तो रहने दीजिए और जो आज्ञा हो सो कहिए । कोतवालके इस उत्तरको सुन कर दुर्योधनके क्रोधकी सीमा न रही । वह आपसे बाहिर हो गया । पाप करनेमें अग्रणी वह क्रोधके साथ बोला कि नीच तू यह क्या कहता है । जरा संभल कर वोल | सच्चा और सबसे उत्तम सेवक वही है जो मालिककी आज्ञा पालनेमें कभी आगा-पीछा नहीं करता । अत एव तुझे ऐसा ही वर्ताव करना चाहिए। और इसीमें तेरी भलाई छिपी हुई है। वह भी इस समय प्रगट हो जायगी । क्या तूने नहीं सुना है कि काम पड़ने पर नौकरोंकी, संकट पड़ने पर भाई-बन्धुओंकी, आपत्तिके समय मित्रोंकी और धन-हीन दरिद्री हो जाने पर भार्याकी खूब पहिचान हो जाती है-उनके स्वभावका इन समयोंमें अच्छा परिचय मिल जाता है । अत एव तुझे मेरी आज्ञाके अनुसार चलना चाहिए। ऐसा करनेसे तुझे सम्पत्ति मिलेगी और इसके विपरीत करनेसे विपत्तिका पहाड़ तेरे सिर पर टूट पड़ेगा।
दुर्योधनके इन क्रोध भरे और उत्तेजित करनेवाले वचनोंको सुन कर सत्याग्रही कोतवाल अपने आपको मौतके हाथमें सौंप वोला कि राजन्, मुझे मार डालो चाहे जीता रहने दो; धन-दौलत दो चाहे मेरी और हर लो; मुझे अपनी प्रसन्नताका पात्र बनाओ चाहे क्रोधका; कृपा' करके राज्य दो चाहे मेरा सर्वस्व हर लो; मेरा मान-सन्मान करो चाहे मस्तक काट डालो; परन्तु देव, कपटसे मै पांडवोंके सुंदर महलमें आग नहीं लगा सकता । यह कह कर वह दयाल कोतवाल