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________________ तेरहवाँ अध्याय । १९३ उन्होंने गुप्त रीति से थोड़े ही दिनोंमें इतनी बड़ी भारी सुरंग खोद कर तैयार कर दी जो आने और जानेके लिए काफी थी । सुरंग खुद कर जब तैयार' हो चुकी तब विदुरने सोचा कि यदि कभी कौरव-गण इस लाखके महलमें आग भी लगा दें तब भी पांडव सुरंग मार्गसे निकल जायँगे और अपने प्राणोंकी रक्षा कर लेंगे। इसमें अब तनिक भी सन्देह नहीं है। इस तरह आनन्दके साथ विदुरने लाखके उस महलमें जो कि कौरवोंने पांडवोंके साथ छल करने के लिए बनवाया था, सुरंग बनवा दी और कौरवोंसे पांडवोंको निर्भय कर दिया। इसके बाद उसने पांडवोंके सम्बन्धकी बिल्कुल ही चिन्ता छोड़ दी --- वह निश्चित हो सुखसे अपना काल बिताने लगा । परन्तु उसने वह सुरंग स्वयं न तो देखी और न सुखी पांडवोंको ही दिखलाई । कारण वह तैयार होते ही किसीको बिना दिखाये ढक दी गई थी। इसके बाद पांडव शोक, विषाद, मद आदि से रहित हो, - विना कष्टके, प्रीतिके साथ उस महलमें निवास करने लगे । और इस प्रकार कुन्ती सहित वहाँ रहते उन्हें एक साल बीत गया । उन्हें वह बिल्कुल ही नहीं जान पड़ा | क्योंकि वे बहुत सी कलाओंके विज्ञ थे, अतः उनका काल शान्ति और प्रेमके साथ बीतता था । इधर धृतराष्ट्रके दुष्ट और कलुषित-चित्त पुत्र दुर्योधनने पांडवोंको मार डालने के लिए उस लाखके महल में आग लगानेकी फिक्र की--उसने सोचा कि इस महल में आग लगा देने पर लाख पिघल जायगी और तब उसमें रहनेवाले ये दुष्ट-चित्त पांडव अवश्य ही जल कर भस्म हो जायेंगे। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है । मंत्री के साथ इस प्रकार विचार जब वह निश्चित कर चुका तब उसने अर्क - कीर्ति नामके एक कीर्तिशाली कोतवालको रातमें बुला कर कहा कि तुम इसी समय पांडवोंके महल में आग लगा कर उसे भस्म कर डालो। तुम्हें इस काम में देर न करना चाहिए, यह मेरी आज्ञा है । इस महलमें किसीके लिए आने जानेकी रुकावट नहीं है, अत एव अति शीघ्र इसे भस्म कर दो। तुम कुछ भी आगा पीछा मत सोचो । इस कामको ठीक ठीक हो जाने पर मैं तुम्हें वहीं दूँगा जो तुम चाहोगे । या अभी माँग लो जो तुम्हें रुचता हो । काम हो जाने पर मैं वह तुम्हें अवश्य दे दूँगा । समझ गये । सच तो यह है कि यदि तुम्हें धन-सम्पदा, जागीर आदि वैभव प्यारा हो तो विलम्ब न कर जल्दी जाओ और महलभ आग लगा दो । पाण्डव-पुराण २५
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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