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________________ AAAAAMNAMAnnnA wrr are rrrrrrrrrrrrrrrrrrrm पाण्डव-पुराण । जाय तो भी उस परसे अवश्यंभावी पतन होता ही है । पुत्र, देखो नीति कहती है कि राजा लोगोंको कभी दूसरेके हृदयका विश्वास नहीं करना चाहिए, फिर जो सुखी होना चाहते है उनके लिए भला शत्रुका विश्वास तो करना ही कैसे उचित हो सकता है । और भी सुनो कि राजा-गण स्त्री-पुत्र, माता-पिता, भाई-बहिन आदि किंसीका भी विश्वास नहीं करते, तब वे दूसरे दुष्ट पुरुषोंका भरोसा तो करें ही कैसे । इस लिए तुम इन कलहकारी कौरवोंका विश्वास मत करो। ये दुर्बुद्धि तुम्हें 'इस महलमें रख कर मार डालेंगे और तुम्हारे कुलका सर्वस्व नष्ट कर देंगे । भद्र! यह महल लाखसे बनाया गया है-यह तो मुझे निश्चय हो गया; पर किस मनोरथसे ऐसा किया गया इसका मुझे अभी निश्चित पता नहीं है । सो ठीक ही है कि इन माया-जालियोंके मायाजालको कोई जल्दीसे नहीं जान सकता । मेरे कहनेका मतलब इतना ही है कि तुम लोग कदाचित् भी इस महलमें न रहो । नहीं तो तुम्हें बड़े भारी दुस्सह दुःखका सामना करना पड़ेगा। और एक उपाय करो कि एक तुम लोग प्रतिदिन क्रीड़ाके बहाने वनमें जाया करो और सो भी बड़ी सावधानीसे । वहाँ विघ्नों को दूर करनेके लिए दिन भर आनन्द-पूर्वक समय गुजारा करो। तुम लोगोंसे और ज्यादा कहनेकी कोई जरूरत नहीं हैं; क्योंकि तुम स्वयं ही वैरियोंके गर्वको खर्व करनेवाले हो । परन्तु जब रात हो जाय तव यहाँ आकर अपने निश्चल स्वभावसे जागते हुए समय विताया करो । जागनेकी जरूरत तुम्हें इस लिए है कि नींदमें मनुष्य मरे सरीखा हो जाता है । उसे कुछ भी सुध-बुध नहीं रह जाती, उसके नेत्र बन्द हो जाते हैं, कान बहिरे हो जाते हैं, गला घर-घर करने लगता है और शरीर विल्कुल शिथिल हो जाता है । इस प्रकार विदुरने वनमें स्थिराशय पांडवोंको सब बातें खूब समझा दी। इसके बाद वह सदद्धि अपने महलको चला आया। __इतने पर भी विदुरकी फिक्र नहीं गई और वह पांडवोंको 'सर्वनाशसे बचानेकी फिक्रमें हमेशा रहने लगा । वह चतुरमना सदा इसी सोच-विचारमें रहा करता था कि पांडव-गण किस तरह सुखी हों। इसके लिए उसके विचारमें यह उपाय आया कि महलसे लेकर जंगल तक एक सुरंग वनवा दी जाय तो किसी तरहकी आपत्ति पड़ने पर पांडव-गण उसके द्वारा निकल कर बच सकते हैं। यह सोच कर उस शुद्ध हृदयने चुपचाप सुरंग खोदनेवालोंको बुलाया और उन्हें उसके खोदनेकी सब विधि समझा दी । सुरंग खोदनेवाले भी महलके एक कोनेमेंसे सुरंग निकाल देनेको तैयार हो गये। कारण कि वे इस काममें अति प्रवीण थे।
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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