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________________ पाण्डव-पुराण। और द्वारावतीकी स्थिति कितनी है । भगवानने उत्तर दिया कि नृप, द्वारावती पुरी आजसे वारह वर्ष बाद मदिराके हेतुसे द्वीपायन मुनि द्वारा नष्ट होगी; और कृष्णकी जरत्कुमारके द्वारा लगभग तभी मौत होगी । भगवानकी यह वाणी . सुन कर और संयम लेकर द्वीपायन दूर देश चले गये और जरत्कुमार जाकर कौशाम्बीके वनमें रहने लगा। इसके बाद भगवान भी फिर वहाँसे अन्य देशको विहार कर गये। इसके बाद जब समय पूरा हुआ तव द्वीपायन वापिस आ गये और अपनी दुर्दशा करनेवाले यादवों पर क्रोध करके उन्होंने सारी द्वारिकाको भस्ममें मिला दिया । सच है कि जिन-भाषित वात मिथ्या नहीं होती । इस तरह जव द्वारिका भस्म हो गई तव कृष्ण और बलदेव जाकर कौशाम्बीके गहन वनमें पहुँचे । वहाँ कृष्णको प्यासकी बड़ी बाधा हुई । बलदेव उनके लिए पानी लेने गये और कृष्ण अकेले ही वहीं रहे । इसी बीचमें दैवयोगसे वहाँ जरत्कुमार आ गया और कृष्ण उसके बाणोंका निशाना बन परलोक यात्रा कर गये । जब बलदेव पानी लेकर लौटे तो उन्होंने कृष्णको गत-आण पाया। बलभद्र और नारायणमें पूर्व भवकी बहुत ही गाढ़ी प्रीति होती है, अतः प्रीतिके वश हुए वलदेव कृष्णके मृत-शरीरको छह महीना तक छातीसे लगाये लिये फिरे । सिद्धार्थ देवने उन्हें बहुत कुछ समझाया, पर वे कृष्णके शरीरको किसी तरह भी मृत शरीर माननेको तैयार नहीं हुए और उसे लिये लिये ही फिरते रहे। .. इसके बाद जरत्कुमार पांडवोंके पास गया और उसने अपने द्वारा हुई कृष्णकी मृत्युका हाल उनसे कहा । कृष्णका मरण सुन कर वे बड़े दुःखी हुए । साध्वी कुन्तीने भी बड़ा विलाप किया । इसके बाद बलदेवको देखनेकी इच्छासे जरत्कुमारको आगे कर सब पांडव बन्धु, मित्र, कलत्र आदि सहित वनमें चले । कितने ही दिनों तक चल कर वे जब वनविहारी वलदेवके पास पहुँचे तब उन्हें दुःखकी दशामें देख कर उन सबके हृदय दहल गये और दुःखी होकर उन्होंने बड़ा विलाप किया । इस समय उन्हें देख कर बलदेवको कुछ चेत हुआ और उठ कर उन्होंने कुन्तीको नमस्कार कर सबसे भेंट की । इसके बाद वहाँ कुछ देर बैठ कर पांडवोंने कहा कि बलदेव, आप विष्णुके महा शोकको अव छोड़ दीजिए और संसारकी विचित्र दशाको जान कर कृष्णके मृत शरीरका जल्दी ही संस्कार कीजिए । यह सुन कर मोहके वश हुए बलदेवने कहा कि जाइए, ऐसी बातें न कीजिए । तुम ही न अपने मित्र, पुत्र, बन्धु-बान्धवों सहित
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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