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अठारहवाँ अध्याय।
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हुआ। दोनों ओरसे इतने बाण छोड़े गये कि उनके द्वारा उन दोनोंके बीचमें एक मंडपसा बन गया । वह ऐसा शोभने लगा मानों भमहृदय पुरुषोंके लिए आश्रय ही खड़ा किया गया है । इस समय क्रोधके आवेशमें आकर उस भील पर अर्जुनने जो जो बाण छोड़े उस भीलने उन सवको ही व्यर्थ कर दिया। उसे दुर्जेय देख कर अर्जुनने धनुष-वाण तो छोड़ दिया और वह बाहु-युद्ध करनेके लिए उस पर झपटा।
___ तव रण-कुशल और तेजस्वी वे दोनों वाहुदण्डोंके द्वारा परस्परमें भिड़ते हुए ऐसे जान पड़े मानों दो मल्ल स्नेहमें आकर एक दूसरेका आलिंगन ही करते हैं । परन्तु इस बाहुयुद्धमें भी जब पार्थ उस पर विजय न पा सका तव वह उसे सर्वथा अजय्य समझ कर कुछ हतोत्साह सा हुआ। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी । इसके बाद उसने बड़े साइसके साथ चटसे उस किरातके दोनों पॉव पकड़ कर उसे मस्तककी ओरसे चारों ओर खूब घुमा डाला। तव वचारे भील पर बड़ी विपत्ति आई और कुछ समयमें ही उसके प्राण शिथिल हो गये।
इसके बाद अर्जुन उसे पृथ्वी पर पछाड़ना ही चाहता था कि वह बिकट महाभट प्रकट होकर भूषणोंसे विभूषित एक दिव्य रूपमें देख पड़ा। उसने पृथ्वी तक मस्तक झुका कर विनयके साथ अर्जुनको नमस्कार किया और कहा कि नराधीश, मैं तुम्हारे ऊपर अतीव प्रसन्न हूँ। अतः तुम चाहो जो दिव्य वर मांगो । मैं इस समय तुम्हें सब कुछ देनेको तैयार हूँ। उसकी बातें सुन कर परमार्थके ज्ञाता अर्जुनने उत्तर दिया कि अच्छा मैं यही चाहता हूँ कि तुम मेरे सारथी बनो । इसके उत्तरमें अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार उस विद्याधरने कहा कि तुम जो कहते हो मुझे वह स्वीकार है । उसके ऐसे प्रतिज्ञा-बद्ध शब्दोंको सुन कर पार्थको बड़ा संतोष हुआ और उसने प्रेमभरे शब्दोंमें उससे पूछा कि भाई, तुम कौन हो ? कहाँसे आये हो ?
और तुमने यह युद्ध किस मतलवसे किया था ? उत्तरमें विद्याधरने कहा कि प्रभो, सुनिए । मै युद्धका कारण तुम्हें बताता हूँ।
इसी भरत-क्षेत्रमें एक विजयाई नाम मनोहर पहाड़ है । वह इतना ऊँचा है कि उसके शिखर आकाशको छुते हैं। जान पड़ता है कि वह पृथ्वी और आकाशके बीचको नाँपने के लिए है। इतना ऊँचा उठा हुआ है ।।
उसकी दक्षिण श्रेणी में एक स्थनूपुर नाम उत्तम नगर है, जो कि अपने • विशाल कोदसे स्वर्गके विमानोंकी भी तर्जना करता है। वहाँका राजा विद्युत्मभ