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उन्नीसवाँ अध्याय। -
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पहुंच कर उसने दुर्योधनको नमस्कार किया और नीतिके साथ वह बोला कि " महाराज, मैं द्वारिकासे आया हूँ । मैं एक निपूण दूत हूँ। राजन, पृथ्वी पर ऐसा कोई नहीं जो पांडवोंको जीत सके । फिर व्यर्थ ही आप अपने कुलका उच्छेद क्यों करते हैं । देखिए नारायण, संसार भरमें विकट विराट, द्रुपद, सब विघ्नोंको दूर करनेवाला प्रलंवन, सब प्रकार योग्य दाह-गण तथा प्रद्युम्र आदि सब राजा पांडवोंकी पक्षमें हैं। उनकी सहायताके लिए तत्पर हैं । फिर युद्ध में उनके सामने आप एक क्षण भी कैसे ठहर सकते है । इस लिए राजन्, अव आप मान छोड़ कर उनके साथ कपट रहित सन्धि कर लीजिए और आपसमें आधी आधी पृथ्वीको बॉट कर दोनों महाभाग अपने अपने हिस्सेका उपभोग कीजिए। और सच पूछो तो इसीमें आपकी भलाई है । " दूतके इन वचनोंको सुन कर दुर्योधनने विदुरसे कहा कि तात, वताइए, इस समय क्या किया जाये । वह कौनसा उपाय है जिससे हम पूरे राज्यको भोग सके । यह सुन विदुरने कहा कि भाई, जीवोंको सुख धर्मसे मिलता है और राज्य भी निरंकुश इसीसे होता है । वह धर्म और कोई वाहिरी चीज नहीं, किन्तु आत्माकी विशुद्धि है । एवं आत्म-विशुद्धि मन-वचन-कायकी सरलताको कहते हैं । अथवा क्रोध, लोभ और गर्वके त्यागको धर्म कहते हैं । इस लिए तुम क्रोध आदि छोड़ कर अपनी बुद्धिको धर्ममें लगाओ। यदि तुम निर्मल यश चाहते हो तो वत्स, अपने आप ही पांडवोंको बुला कर विनयके साथ उन्हें आधा राज्य बॉट दो । यह सुन दुर्योधनको वड़ा क्रोध आया । उसका हृदय गर्वसे भर आया, चेहरा लाल हो उठा। वह विदुरसे बोला कि मैं हमेशासे आपकी इतनी भक्ति करता आ रहा हूँ कि जिसका कोई ठिकाना नहीं, परन्तु आप इतने कोर है जो पांडवोंका ही गौरव और राज्य चाहते हैं और हमें उससे वंचित रखना चाहते हैं !
इसके बाद उसने अपमान भरे वचन कह कर दूतको भी सभासे निकाल दिया । अपमानके साथ द्वारिका आकर उस कुशल दूतने पांडवों और यादवोंको प्रणाम कर उनसे दुर्योधनका सब हाल कह सुनाया । वह बोला कि राजन्, कौरव बड़े दुष्ट और पापी हैं । उनका स्वभाव बिल्कुल ही क्षुद्र है । वे संघि करना नहीं चाहते । और न वे आए लोगोंसे सन्तुष्ट ही हैं । यह सुन मिष्टभाषी युधिष्ठिरने कहा कि जो हो, हम तो नीतिका पालन कर अपयशसे वरी हो गये।
और अनीति न हो इसी लिए हमने तुम्हें भी भेजा । इसके बाद ही पांडव यादवों सहित कौरवों पर चढ़ाई करनेकी तैयारीमें लग गये ।