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उन्नीसवाँ अध्याय ।
तितर-बितर कर दिया; जैसे कि थोड़ीसी चायु भी बड़े बड़े मेघोंको तितर बितर
कर देती है । इसके बाद उस महावलीने लक्ष्य बॉध कर राजविन्दुके हाथी, घोड़े, ' रथ और धुजाओंको छेद कर सबको घराशायी कर दिया। यह सब मार काट देख
अर्जुन वड़ा विपन्न हुआ और उसने अन्तमें सोचा कि इस युद्ध में मैं किस किस राजाको मा; किस किसके प्राण लूं। हिंसा करनेसे तो बड़ा पाप होता है, अतः किसीको भी मारना उचित नहीं । यह सब सोच-विचार कर हिंसा दूर करनेके लिए धनंजयने मोहन-बाण छोड़ा और उन्हें ऐसा वे-सुध कर दिया मानों उन्होंने धतूरेका फल ही खा लिया है । वे उसके नशेसे वेसुध हो गये सबके सब राजा मुर्देके जैसे पृथ्वी पर गिर पड़े।
इस प्रकार शत्रुओं पर विजय पाकर और उनके छत्र-धुजा, हाथी-घोड़े, स्थ-महारथ वगैरह पाकर अर्जुन वड़ा सन्तुष्ट हुआ।
इसके बाद विराटने उसी वक्त नौवते झड़वाई और असंख्य वीरोंके साथ पार्यका बड़ा भारी आदर और अपूर्व उत्सव किया । इसी समय हर्षित-चित्त , और शिष्टों द्वारा सेवित निर्भय युधिष्ठिरने उधरसे गो-कुलको भी छुड़ा लिया।
इसके बाद किसी तरह जब कौरव होशमें आये तव वे बड़े लजित और निर्मद हो दीनकी भॉति अपने पुरको चले गये।
इधर जब विराटको यह निश्चय हो गया कि ये पांचों ही वास्तवमें पांडव हैं तब हाथ जोड़, नमस्कार कर उसने युधिष्ठिरसे कहा कि देव, इतने समय तक मैंने आपको जाना नहीं था कि आप ही धर्मपुत्र है । अत: आप मेरे अपराधोंको क्षमा करें । प्रभो, अवसे इस राज्यके आप ही स्वामी हैं और मैं आपका किंकर हूँ। अतः आप बन्धुवर्ग सहित यहीं राज्य कीजिए । इसके बाद विराट गोकुलको बाड़ेमें वन्द करवा कर आप स्वयं पांडवों-सहित बड़े भारी उत्सवके साथ नगरमें आया । विराटने युधिष्ठिर आदिसे बड़े विनय-पूर्वक वहीं रहनेके लिए प्रार्थना की और पार्थसे इच्छा प्रकट की कि वह उसकी पुत्रीके साथ विवाह करे । वह बोला कि धनंजय, मेरी भोग-योग्य और सब तरहसे कृतार्थ एक पुत्री है । वह रूप-सौन्दर्यकी सीमा है । पहले जरासंधके पुत्रने मुझसे उसके लिए बहुत बार प्रार्थना की थी; परन्तु मैने उसे नहीं दी। इस लिए हे पार्थ, आप उसका पाणिग्रहण कीजिए । इस पर पार्थने कहा कि महाराज, सुभद्राके गर्भसे उत्पन्न' हुआ अभिमन्यु नाम मेरा एक पुत्र है । आप अपनी