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पाण्डव-पुराणां
तनिक भी सन्देह नहीं है। तुम भी मेरी एक बात सुनो। वह यह कि यदि तुम भी कुछ शक्ति रखते हो तो इस तालावका पानी पिओ । अन्यथा अपनी शक्तिका व्यर्थ अभिमान क्यों करते हो। क्यों मेंडकके जैसे गाजते हो। तुम्हारी इस टर टरसे कुछ काम न चलेगा। कुछ करके दिखाना पड़ेगा । देवकी ऐसी अचम्भेमें डालनेवाली वान सुन कर प्रबुद्ध, पवित्रमना और धर्म-बुद्धि युधिष्ठिर चटसे तालावमें घुसे और उन्होंने निडर हो उसका पानी पी लिया । इसके थोड़ी ही देर बाद वह भी अन्य भाइयों की तरह विष पीनेवाले पुरुषकी नाँडे, उसी वक्त धराशायी हो गये । हाय ! धिक्कार है उस दैवकी दुष्ट चेष्टाको जिसने कि ऐसे धर्म-बुद्धि और धर्मके अवतारोंकी भी ऐसी शोचनीय हालत कर दी।
उधर कनकध्वजके मंत्र-विधानसे सातवें दिन उसे कृत्या विद्या सिद्ध हो गई और उसके पास आ कर उससे आज्ञा माँगने लगी । कनकध्वजने कहा कि यदि तुम्हारी शक्ति अतुल और विपुल है तो तुम अति शीघ्र जाकर पांडवोंका सर्व-नाश कर दो । उसके इस आदेशको पाकर क्रोधसे लाल हो वह चली गई और वहाँ पहुंची जहाँ कि पांडव मूञ्छित हो मरे से पड़े थे। इसी समय धर्मदेव शोकातुर भील का रूप बना कर वहीं आया और उन्हें इधर उधर लौट लौट कर देग्वने लगा । तव उन्हें निश्चयसे मरा हुआ जान कर उससे वह विद्या वोली कि मुझे पांडवों को मारनेके लिए कनकध्वज राजाने भेजा था; परन्तु मैंने यहाँ आकर कुरुजागर देश के इन स्वामियोंको अपने आप ही मरा पाया। भीलराज, कहो अब मैं क्या करूँ ? विद्याके इन वचनोंको सुन कर भीलने कहा कि वह दुष्ट इतना नीच है तो तुम जाकर उस हताशय कनकध्वजको ही यमालय भेजो। भीलकी यह सलाह उसे ठीक ऊंच गई । वह उसी वक्त उस विफलमनोरथको मारने के लिए वहाँ पहुँची । और उस पापीके सिर पर पड़ कर उसने उसका सर्व-नाश कर दिया जैसे अति कठोर वज्र-प्रहार पर्वतका चकनाचूर कर देता है । इस प्रकार अपने कृत्यको पूरा करके वह कृत्या अपने स्थानको चली गई।
इसके बाद उसने उन पांडवोंको अमृतकी बूंदोंके द्वारा सींचा और सोनेसे उठ बैठने की भाँति उन्हें पूरा पूरा सचेत कर दिया । उस वक्त युधिष्ठिरने उससे पूछा कि शुभ कर्मके जैसे हमारे उपकारी तुम कौन हो । देवने कहा कि धर्मात्मा धर्मराज, मैं सौधर्म इन्द्रका प्रीतिपात्र एक देव हूँ। तुमने जो अभी विशुद्ध