________________
तीसरा अध्याय ।
अवस्था, विद्या, चरित्र, धन और पुरुषार्थ आदि जो जो वरमें देखनेकी बातें है वे सब उसमें पाई जाती हैं। श्रुतार्थकी इस सम्मतिको सुन कर सिद्धार्थ कहने लगा कि आपकी कही हुई सव वातें अर्ककीर्तिमें हैं यह तो ठीक है; परन्तु सामान्य पुरुषका एक बड़े पुरुषके साथ सम्बंध होना उचित नहीं जान पड़ता । इसको विद्वान लोग आदरकी दृष्टिसे नहीं देखते । राजन् ! आपकी बराबरीवाले प्रभंजन, रथचर, बलि, वज्रायुध तथा मेघेश्वर भूमिभुज आदि बहुतसे और और राजा है। उनमें जिसको आप उचित समझें उसको कन्या दें । सिद्धार्थकी सम्मतिको सुन कर सिद्ध-साधक सर्वार्थ नाम मंत्रीने कहा कि राजन् ! भूमिगोचरोंके साथ तो पहलेसे ही सम्बंध होता चला आता है, पर विद्याधरोंके साथ अब तक कोई सम्बंध नहीं हुआ। अत: मेरी सम्मति है कि आप किसी योग्य विद्याधरके साथ ही इस सम्बं. धको स्थिर काजिए । इस अपूर्व सम्बंधसे हम सबको और कन्याको बहुत ही सुख प्राप्त होगा। सबकी सम्मति सुन कर पीछेरो सुगति मंत्री बोला कि मेरी सम्मति है कि और और वातोंकी अपेक्षा इस वक्त स्वयंवर-विधि करना ही ठीक होगा और उससे सबको सुख-शान्ति भी मिलेगी। सुमतिकी इस सम्मतिको सुन कर बुद्धिमान अकंपनने कहा कि बहुत अच्छा स्वयंवर ही होना चाहिए । इस समय अकंपनने सुप्रभा और हेमांगदकी भी सम्मति ली और स्वयंवर करना ही निश्चित किया । इसके बाद अकंपनने सव राजोंके पास पत्र दे-दे कर दूत भेजे और स्वयंवरमें आनेके लिए उनसे आग्रह किया।
जयकुमार और सुलोचनाके भावी शुभ सम्बंधको जान कर इसी समय पहले स्वर्गसे एक देव आया। उसका नाम था चित्रांगद । वह अकंपनके पास आ कहने लगा कि मैं सुलोचनाके स्वयंवरको देखनेकी इच्छासे यहाँ आया हूँ। यह कह कर उस देवने नगरके पासमें ही जो एक ब्रह्म स्थान बना हुआ था, उससे उत्तरकी और पूर्व मुखवाला बहुत विशाल सर्वतोभद्र नामक महल बनाया; और उसके चारों ओर सुन्दर स्वयंवर मंडपकी जैसी होनी चाहिएरचना की । वह देव सम्यग्दृष्टि था, बुद्धिमान और शुद्ध-चित्त था । उसने जितना कुछ काम किया था वह सब हर्षके साथ और उत्तम रीतिसे किया था। तात्पर्य यह कि उसने स्वयंवरकी अपूर्व और विधिपूर्वक रचना की थी। , दूत-गण गये और जाकर उन्होंने राजा-महाराजोंको अकंपनके पत्र दिये। राज-गण पत्रके द्वारा अकंपन राजाके भीतरी भावको समझ कर स्वयंवरके