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'पाण्डव-पुराण ।
थे। उनकी प्रियाका नाम सुममा देवी था। सुनमा देवीके शरीरकी प्रभा चॉदके तुल्य थी । वह अपनी विपुल श्रीके द्वारा कुसुदके फूलोंकी प्रभाको धारण करती थी। अकंपन और सुप्रभाके हजार पुत्र थे और वे सबके सव सूरजकी भाँति तेजवाले थे, उन्नतिशाली थे। उनके नाम थे-हेमांगद, सुकेत, श्रीकांत इत्यादि। इनके सिवा उनके सुलोचना और लक्ष्मीमती ये दो पुत्रियाँ थीं । ये दोनों हिमवत और पद्मद्रहसे उत्पन्न हुई गंगा और सिंधुकी समता करती थीं; तथा उनसे भी श्रेष्ठ थीं । बड़ी पुत्री सुलोचना वास्तव में सुलोचना-सुन्दर नेत्रोंवाली-ही थी। कला और गुणों के द्वारा मनको मोहनेवाली चंद्रमाकी शोभाके समान थी। क्योंकि उसमें भी नाना कलाएँ और गुण थे। अत एव वह संसार भरको प्यारी थी-उसे सभी प्रेमदृष्टिसे देखते थे। सुमति नामकी उसकी एक पाय थी, जो उसके गुण और कलाओंको बढ़ानेकी हमेशा ही चेष्टा किया करती थी । जैसे उजेली रात चॉदकी कलाको सदा ही बढ़ाती रहती है । इसकी जॉधैं रंभाकेलेक-समान थीं, अतः लोग इसे रंभा कहते थे। देवांगना-गण इसे देवांगना ही मानता था। इसका केश-पास भारी सुशोभित था, इस लिए लोग इसे सुकेशी कहा करते थे। बहुत क्या कहें, अपने ऐश्वर्यके द्वारा वह इन्द्राणीके जैसी देख पड़ती थी। फाल्गुनकी अठाईका समय था । उस वक्त सुलोचनाने बड़ी भक्तिसे जिनदेवकी पूजा की और व्रत लिया। व्रत-उपवाससे उसका शरीर कृश हो गया था। पूजा-पाठ पूरा कर वह प्रभुकी आसिका देनेके लिए राजाके पास पहुंची। राजा उसके हाथोंमें आसिकाको देख कर उठा और दोनों हाथोंकी अंजलि बना कर उसने आसिकाको वड़े भक्तिभावसे लिया तथा लेकर अपने मस्तक पर चढ़ाया ।
इसके बाद राजाने कहा कि पुत्री! उपवाससे तेरा शरीर बहुत मुरझा रहा है, इस लिए तू जल्दीसे महलको जा और पारणा करले । इतना कह कर राजाने उसे तो विदा कर दिया, पर आप स्वयं इस सोच-विचारमें उलझ गया कि सुलोचना अव युवती होगई है, इसका विवाह कर देना चाहिए।
इस प्रश्नको जब वह स्वयं हल न कर सका तब उसने श्रुतार्थ, सिद्धार्थ, सार्थ और सुमति इन चारों मंत्रियोंको बुलाया और उनके सामने यह प्रश्न रक्खा कि सुलोचना किसे देना चाहिए। : इस प्रश्नको सुन कर श्रुतार्थ वोला कि भारतभूषण भरत चक्रवर्तीका अर्ककीर्ति नाम जो पुत्र है वह इस कन्याके लिए एक उत्तम वर है । क्योंकि कुल, रूप,