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________________ नौवाँ अध्याय । -१३१ " था । उसके द्वारा वैरियोंको बड़ा दुःख होता था, इसलिये उसे लोग दुर्योधन कहते थे । वह अपने स्वजनोंके साथ साथ शीघ्र ही परमोदयको माप्त हो गया । इस समय पुत्र जन्मका समाचार लेकर जो पुरुष राजाके पास आया, राजाने उसे अपने छत्र सिंहासन आदि राज-चिन्हों को छोड़कर और कुछ भी देनेकी कसर न की । इसके सिवा राजाने उस समय कैदमें पढ़े हुए कैदियोंको, पींजरेमें बँधे हुए पक्षियोंको तथा जेलखाने में पढ़े हुए शत्रुओंको छोड़ दिया - उन्हें मुक्त कर दिया । उस समय जो भाँति भाँतिके वाजे वजे उनसे उस सुनीतिवाले और सुख के सागरका जन्म उत्सव सभीको ज्ञात हो गया । वह वर्द्धमान था और विद्वान था, युद्धमें बड़ेसे बड़े वैरियों द्वारा भी जीता न जा सकता था । उसने बड़ी सुरवीरता से भी युद्ध करनेवाले कई एक शत्रुओंको प्राण-रहित कर दिया था । इसके बाद गांधारीने दुश्शांसन नाम दूसरे पुत्रको जन्म दिया । वह भी स्पष्टवक्ता और सर्वश्रेष्ठ था । उसकी जितनी कुछ चेष्टा थी वह सब शुभ कार्योंके लिये थी । वह खोटे काममें कभी हाथ न डालता था । इसके वाद गांधारीने अट्ठानवे और और पुत्रोंको पैदा किया। उनके नाम सुनिए । दुर्द्धर्पण, दुर्मर्षण, रणश्रान्त, समध, बिंद, सर्वसह, अर्जुविंद, सुभीमं सुवन्हि, दुःसह, दुसलं, सुत्र, दु:कर्ण, दुःश्रव, वरवंश, अर्वकीर्ण, दीर्घदर्शी, सुलोचन, उपचित्रं विचित्र, चारुचित्रं, शरासन, दुर्मद, दु, मँगाह, युयुत्सु, विर्केट, ऊर्णनाभ सुनभ, नंद, उपनंद, चित्रैवाण, चित्रैवर्मा, सुबर्मा, दुर्विमोचन, अयोबाहु, महाबहु, श्रुतवान, पद्मलोचन, भीमबाडु, भीमवल, सुषेण, पंडित, श्रुतायुध, सुवीर्य, दंडधर, महोदर, चित्रायुध, निःषंगी, पारों, वृंदारक, शत्रुंजय, शर्तींसह, सत्यसंध, सुदुःसह, सुदर्शन, चित्रसेन, सेनानी, दुःपराजय, पराजित, कुंडशायी, विशालाक्ष, जय, दृढ़हस्ते, सुहस्त, वातवेग, सुवर्चस, आदित्यकेतु, वन्हाँशी, निर्बंन्ध, प्रियों दी, कवची, रणशोंढे, कुंडधार, धनुर्धर, उग्ररथ, भीमरथै, शुरैबाहु, अलोलुप, अभय, रौद्रकर्मा, दृष्टरंथ, अनादृष्ट, कुडेभेदी, विरौजी, दीर्घलोचन, प्रथम, प्रेमाथी, दीर्घलाप, वीर्यवान, दीर्घबाहु, महवक्ष, सुलक्षण, विलेक्षण, केक, कांचन, सुर्ध्वज, सुभज, और अरंज । ये सभी पुत्र वर्द्धमान । और इनका यश सब जगह फैल रहा था तथा हमेशा बढ़ता ही जाता था । ये सबके सब शस्त्र और शास्त्र आदि भाँति भौतिकी कलाओंमें निपुण और सुन्दर थे । इस प्रकार ष्यों पांडव और कौरव वृद्धिंगत होते जाते थे, त्यों त्यों, आनंद देनेवाली उनके सम्पत्ति भी बढ़ती जाती थी । दिव्यचक्षुके धारक, 'सुवर्णके समान कान्तिवाले 1
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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