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पाण्डव-पुराण।
एवं ब्रह्मचारी गांगेय (भीष्म पितामह) इन सव पांडवों और कौरवोंकी रक्षा करते थे तथा इन्हें शिक्षा देते थे । धीरे धीरे ये सब पूर्ण समृद्धिशाली हो गये । सच है कि वृद्धके द्वारा पाला-पोपा जाकर कौन परमोदयको नहीं प्राप्त होता । एवं इन परमोदयके धारकोंको द्रोणाचार्य द्विजेशने भी पाला-पोषा, जिससे ये सुन्दराकृति कौरव और पांडव परम वृद्धिको प्राप्त हुए । द्रोण बड़े दयाल थे, शरण-योग्य थे, आश्रितोंको अपनाते थे; अतः उन्होंने धनुष विद्या-रूप समुद्रको पार करने के लिये इन्हें द्रोणी (नौका) का काम दिया और थोड़े ही समयमें इन सवको धनुपविद्यामें निपुण कर दिया । ये सब द्रोणाचार्यका खूव आदर और विनय करते थे; क्योंकि विद्या विनयसे ही प्राप्त होती है । अर्जुन सरलचित्त था, विनयी और पाप-कर्मोंसे रहित था अर्थात् वह हमेशा शुभ क्रियाओंमें ही लगा रहता था । अतः पितृव्य तुल्य और धनुषविद्या-विशारद द्रोणने प्रसन्न होकर उसे धनुप-विद्याकी खूब शिक्षा दी । इसके सिवा द्रोणने उसे शब्दवेधी महाविद्या भी सिखा दी। , अर्जुनको पार्थ भी कहते हैं । पार्थने जो कुछ भी गुरुसे विद्या पाई थी वह सव उसके विनयका फल था । नीतिकार कहते हैं कि गुरुके विनयसे क्या क्या नहीं होता, विनय मनोभिलषित पदार्थों को देनेवाला है; लोगोंके सभी मनोरथोंको साधता है । इस प्रकार अर्जुनने गुरु द्रोणसे, विनयके बल, प्रचंड और अखंड धनुषरूप लक्षणके द्वारा, लक्ष्य (निशाना) वेध करनेको, वेध्य-वेधक भावसे अर्थात् लक्ष्यका बार बार वेध करनेसे सीख लिया, जिसके द्वारा वह सारे जगतके धनुष-विद्याके पंडितोंको नीचा दिखा कर, आकाशमें चाँदकी नॉई, राज्यरूप आँगनमें सुशोभित होने लगा।।
___ इस प्रकार सुख-सागरमें निमम हुए उन पांडवों और कौरवोंका बहुतसा काल बीत गया, पर उसका उन्हें कुछ भी भान न हुआ । ठीक ही है कि सुखी जीवोंका एक वर्ष भी क्षणकी नाई बीत जाता है।
इस तरह पांडु सुखसे अपना समय बिताता था। उसका कोई शत्रु न था और उसके पक्षमें बड़े बड़े वीर थे। स्वयं उसके पुत्र ही आद्वितीय योधा थे। इसके सिवा वह विद्वान् था, अतः उसके पास बुद्धिबल भी था। ,
उसके पुत्र युधिष्ठिर आदि युद्धमें शत्रुओंको एक क्षण भी नहीं ठहरने देते थे; वे सभी अद्वितीय वीर थे । उनको देखकर लोगोंके दिल खुश होते थे