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प्राप्त था । शत्रु-रूप काठको जलाने के लिये जो धनंजय- - अनिके—समान था । इसका दूसरा नाम अर्जुन था । वह इस लिये पड़ा था कि उसके शरीरकी कान्ति अर्जुन (चॉदी) के समान थी । वह दुष्टों के निग्रह करनेमें दक्ष था, यशको संचय करनेवाला था । उसकी माताने स्वममें इन्द्रको देखा था । इस लिये सत्रुष उसे शक्रसून कहते थे । यदि किसीके सौ जीमें भी हो जायें, तब भी वह उसके रूप, गुण, तेज, यश और बलको नहीं कह सकता । इसके वाद समुद्रकी नॉई गंभीर मद्रीने कुलको उज्ज्वल करनेवाले नकुलको जन्म दिया और देवतौके साथ क्रीड़ा करनेवाले महान वली सहदेवको उत्पन्न किया । इस प्रकार वैरियोंको खंडन करनेवाला और प्रचंड तेजका, धारक पांडु पाँच पुत्रोंके साथ सुख भोगने लगा, जिस तरह नीरोग मनुष्य अपनी पाँचों इन्द्रियोंसे सुख भोगता है । इस प्रकार सब गुण सम्पन्न सुतोंवाली कुन्ती, सुंदर मुद्राको धारण करनेवाली तथा सज्जनोंकी रक्षक मद्री तथा प्रचंड वली पांडु ये तीनों अपने पाँचों श्रेष्ठ पुत्रोंके साथ-साथ आनंदपूर्वक सांसारिक सुखोंको भोगते थे ।
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पाडण्व-पुराण |
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उधर परम प्रीतिको प्राप्त हुई धृतराष्ट्रकी प्रिया गांधारी अपने बन्धुवर्गके साथ साथ सुख भोग रही थी। वह धैर्यकी खान थी । धृतराष्ट्र गांधार के मुख-कमल के साथ भरेकी नॉई क्रीड़ा' किया करता था । गांधारी के बिना उसे कहीं भी चैन न पड़ती थी । वह उसके साथ सब सांसारिक सुखोंको भोगता था । और ठीक ही है कि कामिनीजनको छोड़कर कामी- पुरुष और जगह कहीं सुख नहीं पाते हैं ।
गांधारी पतिभक्ता साध्वी थी, अतः वह भी हास्य, कटाक्ष और विनोदोंके द्वारा धृतराष्ट्रको खूब रमाती थी । एवं वे दोनों दम्पति विनोदके साथ क्रीड़ा किया करते थे और सुशोभित होते थे, जिस तरह कि मनको मोहनेवाले बिजली और मेघ सुशोभित होते हैं । एक समय उस सदाचारीने गांधारीके साथ महाभोग, वराभोग, आदि क्रीड़ायें कीं । उस समय पुण्ययोगसे गांधारीने गर्भ धारण किया । नीतिके, पंडितोंने कहा है कि संसार में ऐसी कौनसी दुर्लभ वस्तु है जो पुण्ययोग्यसे प्राप्त नहीं होती। धीरे धीरे जब गर्भके दिन पूरे हुए तब उस सुखशालिनीने पुत्रको जन्म दिया, जिससे लोगों को बड़ा भारी हर्ष हुआ । वे परम प्रीतिको प्राप्त हुए। और ऐसे उत्तम पुत्रको जन्म देनेके उपलक्ष्य में पुरंधीजन उसे आशीर्वाद देने लगीं कि हे देवी, तुम लोकोपकारी ऐसे ही सैकड़ों पुत्रोंको पैदा करो | वह पुत्र शत्रुओंके साथ बड़ी भयंकरतासे युद्ध करनेवाला