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नौवाँ अध्याय ।
१२९ कि मानों तीनों लोकोंको वशमें लाने के लिये कामदेवकी धुनाएँ ही फहरा रहीं हैं। उसके कंठकी हार वगैरहसे अद्भुत ही शोभा थी । अतः उसका कंठ ऐसा शोभता था जैसा कि ज्योत्स्नासे घिरा हुआ सुमेरु शोभता है । उसका वक्षास्थल वड़ा विस्तृत था और उसमें सुन्दर हार पड़ा हुआ था । जान पड़ता था कि वह पहाड़ ही है और उसमें जो हार पड़ा हुआ है वह हार नहीं, किन्तु झरना वह रहा है । उसकी भुजायें महान् स्तंभ सरीखी थीं । वे संसारको पालनेवाली थीं, हाथीकी सूहके तुल्य थीं और उनमें जयलक्ष्मीका निवास था । उसका हस्ततल नक्षत्र, मीन, कूर्म, गदा, शंख, चक्र, तोरण आदि लक्षणोंके द्वारा आकाशके आँगनसा देख पड़ता था । उसका सुन्दर शरीर कटक, अंगद, केयूर और अँगूठी आदि भूषणोंके द्वारा दीप्त हो रहा था, जैसे कि भूषणों के द्वारा कल्पवृक्ष सुशोभित होता है । उसकी नाभि वावड़ीके तुल्य थी, उसमें लावण्य-रूप जल भना था। उसकी कटिमें करधौनी सुशोभित थी और वह दूसरी स्त्रीसी जान पड़ती थी। जिस तरहसे फेनवाले जलसे भरा हुआ नदीका किनारा शोभता है उसी तरह रेशमी वस्त्रोंसे व्याप्त उसके सघन जघन शोभते थे । उसके स्थलउरुस्थल सोनेकी धुतिके समान पीले थे और वे ऐसे मालूम होते थे कि मानों अपने ठहरनेके लिये कामदेवने दो स्तंभ ही खड़े किये हैं । उसकी जंघाएँ पापसमूहका विनाश कर संसारको लॉघ जानेके लिये समर्थ थीं । वे उनिन्द्र थीं, अतएव ऐसी जान पड़ती थी मानों कामके वाण रखनेके ये तूणीर-तरंकस-ही हैं । पराक्रमशाली उसके चरणोंको प्रवेश करनेमें कहीं रुकावट न होती थी, अतएवं सव कोई उन्हें नमस्कार करते थे । वह क्षत्रियों द्वारा सेव्य था और उसके नख नक्षत्रों के समान थे, मानों वे रूप देखने के लिये दर्पण ही बनाये गये थे । उसका रूप उपमा रहित था । उस कौरवेश राजोंके राजाके रूपका वर्णन करनेको संसारमें कोई भी समर्थ नहीं है । इसके बाद कुन्तीने भीमको जन्म दिया। भीम युधिष्ठिरके तुल्य ही शिष्ट था, गुणोके गौरवसे विशिष्ट था, सुन्दर था । उससे बड़े बड़े रणशाली वैरी भी डरते थे । इस लिये लोग उसे दृष्टिभयंकर-भीम-कहते थे । कल्पवृक्षके बहानेसे स्वममें वायुने उसे कुन्तीको दिया था, इस लिये लोग उसे मरुत्तनय कहते हैं । उसकी महान भुजाएँ थीं, शरीर लम्बा-चौड़ा सुन्दर था, कान्तिशाली था। वह गुणोंका पुँज था; महामना, रूपशाली और पृथ्वीका भूषण था । इसके बाद कुन्तीने धनंजय (आग) सरीखे धनंजयको जन्म दिया । वह महान तेजवाला और धन एवं जयको
पाण्डव-पुराण १७