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________________ १२८ पाण्डव-पुराणं । Gaint खूब दान दिया और उनका उचित आदर किया । वह बालक कौरववंश रूप समुद्रको वृद्धिंगत करनेके लिये चॉदके समान हुआ। चॉद जैसे समुद्र को वृद्धिंगत करता है उस महामनाने भी उसी तरह अन्तःपुर सहित सारे पुरमें आनंद ही आनंद फैला दिया सबको दृद्धिंगत कर दिया। इसके उत्पन्न होने पर बन्धुवर्गको लड़ाईमें स्थिर होनेकी भावना हुई । इस लिये उन्होंने इसका नाम युधिष्ठिर रक्खा । और यह जबसे गर्भमें आया तभी से लोगोंको धर्म-साधनका निमित्त बना, इस लिये उन्होंने इसका धर्मराज या धर्मनन्दन नाम भी रक्खा । इसने अपने जन्मसे ही कौरववंशको आनंद दिया, अतः यह कौरवाग्रणी कहलाया । शत्रु वंश रूप अँधेरेको वह हटानेवाला था, इस लिये इसे लोगोंने बाल-चंद्र कहा । माताका दूध पीते समय जो दूध उसके मुॅहसे बाहर आ छलकता था 'उससे उज्ज्वलताको धारण किये हुए शरीर और शरीरकी स्वाभाविक उज्ज्वल कान्तिसे जो दशों दिशाएँ व्याप्त हो रही थीं उससे उसकी अपूर्व ही शोभा थी । वह अपनी मुसक्यान तथा मणिजटित भूमिमें लटपटाते हुए चलने और मन-ही-मन भाषणसे माता-पिताको हमेशा ही प्रसन्न करता रहता था । इन सब बातोंके सिवा उसकी वृद्धि के साथ-ही-साथ उसमें स्वाभाविक गुण भी बढ़ते जाते थे | मानों वे उसके सौदर्य पर मोहित होकर ही उसकी वृद्धिके अनुयायी बने थे । 1 ही रहीं उसे निर्मल मणियोंसे उसका पिता क्रिया- विधानका अच्छा ज्ञाता था, अतः उसने बालककी अन्नाशन, सुचौल, उपनयन आदि सभी क्रियाएँ कीं । धीरे धीरे दशों दिशाओंमें उसका यश व्याप्त हो गया । उसने क्रमसे वाल-कालको लांघकर युवादस्थामें पैर रक्खा । पर इस समय भी उसकी वाणी, कला, विद्या, छुति, शील' और विज्ञान सभी बातें वैसीकी वैसी स्वाभाविक रंचमात्र भी मद वगैरह न हुआ । उसके मस्तक पर उन्नत और जड़ा हुआ मुकुट ऐसा जान पड़ता था मानों शिखर - सहित सुमेरुका शिखर ही है । उसका मुँह देखने में बहुत ही प्यारा लगता था और वह चाँदके isrst भी लजाता था । क्योंकि चाँद तो कभी कभी घट भी जाता है पर वह तो हमेशा ही एकसा रहता था । उसके कान कुंडलोंसे सुशोभित थे, कपोल दर्पणकी नॉई निर्मल थे और नेत्र सूक्ष्मदर्शी और मनोहर थे । उसकी नाक सुन्दर सुगंधको ग्रहण करनेमें समर्थ और चम्पेके समान शोभाशाली थी । सुन्दर विवाफलके समान सुन्दर उसके ओठ थे । उसकी सुन्दर भौहें बड़ी चंचल थीं । जान पड़ता था. 1 " t A
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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