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नौवाँ अध्याय ।
१२७ पूजा तथा और और धर्म एवं धर्मके फलमें उसे दोहद रूपसे प्रीति अवश्य होती
थी । वह जिनेन्द्रदेवकी पूजा करती थी, व्रत करती थी और व्रती पुरुषोंमें : वात्सल्य रखती थी । उसे एक बार यह दोहला हुआ था कि मैं युद्धमें बड़े बड़े
शत्रुओंका संहार करूँ । इस तरहसे उसको और और भी बहुतसे दोहले उत्पन्न हुए । इस प्रकार धीरे धीरे जव गर्भके दिन पूरे हो गये तब उस पुण्यवतीने
-जैसा उसका मनोरथ था वैसे ही-उत्तम पुत्रको जन्म दिया । उसके जो पुत्र हुआ उसके नेत्र-कमल खूब विस्तीर्ण थे, मुख चन्द्रके जैसा था । वह नीतिका ज्ञाता
और राज-कुलका अभ्युदय था । वहुत क्या कहें उसकी अपूर्व शोभा थी । जिस समय पुत्रका जन्म हुआ उस समय अँधेरा न जाने कहाँ बिला गया, जैसे सूरजका उदय होते वह बिला जाता है । और जिस तरह रातकी शोभा चॉदसे होती है उसी तरह पुत्र-जन्मके समय पुत्रके द्वारा कुन्तीकी भी अपूर्व शोभा हो गई थी; वह अपूर्व द्युतिको धारण करती थी । या यों कहिए कि उस समय वह पांडुके तेज-रूप सूरजके द्वारा दिनकी दीप्सिसी शोभित होती थी। उस समय डंडोंके सिरोंसे ताडी हुई महान आनंदमेरी वज रही थी और उसके शब्दसे राज-महल गूंज रहा था । जान पड़ता था मानों मेघ ही गरज रहा है । इसके सिवा उस समय नगाड़े, झालर, शंख, काहल, वीणा, मुंदग आदि बाजोंकी भी ध्वनि हो रही थी । इनका शब्द सुनकर ऐसा भान होता था कि मानों ये सव बाजे अपने आप ही खुशीसे बज रहे हैं और संसारको कुन्तीके पुत्र-जन्मकी सूचना करते हैं । इस समय अच्छी अच्छी नर्तकियों को भी लीलामात्रमें जीतनेवाली नटियोंने • लयके साथ महान नृत्य ..... शुरू किया । पुरकी गली गलीमें चंदनके जलकी छटा देख पड़ने लगी। अधिक क्या कहा जावे पुरकी यहाँ तक शोभा और सजावट की गई थी कि जिससे ऐसा भान होता था कि मानों वह स्वर्गकी शोभा और सजावटको हॅस ही रहा है । घर घरमें रत्नोंके तोरण बॉधे गये थे और उत्सबके लिये मंडप सजाये गये थे। एवं रत्नोंके चूर्ण द्वारा भूमिमें नाना रंगकी रत्नावली पूरी गई थी, जो अपूर्व ही शोभा पाती थी । वहाँ घरोंके ऊपर सोनेके बडे बडे कलश चढ़े हुए थे और वे मकान आकाश तक ऊँचे चले गये थे, अतः ऐसी प्रतीति होती थी कि मानों इन मकानों पर आकर सूरज ही तो नहीं स्थित हो गये हैं।
पांडुरूप मेघने जब पुत्र-जन्मके समाचारको सुना तब लोगोंकी इच्छाके अनुसार उसने धारासार बरसाकी तरह खूब ही दानकी बरसा की । उत्तम