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________________ १२६ पाण्डव-पुराण। ~~~irur rur . or not.wwmanmmmmmmmmrrormomx.mmmmer पहिने। इसके बाद वह सुकेशी अपने स्वामी पांडुके पास पहुंची। पांडने उसका यथायोग्य आदर किया और उसे अपने आधे सिंहासन पर बैठाया । इसके बाद । कुन्तीने पांडुको स्वमोंका सब हाल सुना कर उनका फल पूछा । उत्तरमे पांडुने । कहा कि सुन्दरी, ध्यान देकर सुनो । तुमने जो हाथी देखा है उसका तो यह फल है कि तुम्हारे पुत्रका जन्म होगा; समुद्र देखनेसे वह बड़ा गंभीर होगा;, चाँद देखनेसे वह जगत भरको आनंददायी होगा और अन्तमें तुमने जो कल्पवृक्ष देखा है उसका फल यह है कि वह दानी होगा, उससे जो कोई जो कुछ भी याचना करेगा उसे वह वही देगा। और चार शाखायें देखनेका यह फल है कि उसके चार भाई और होंगे । वे पाँचों भाई सुन्दर रूपवाले और विजयी होंगे। इस प्रकार अपने स्वमोका फल सुन कर मुग्ध मनवाली सती कुन्ती वहुत हर्षित हुई। इसके कुछ समय बाद अच्युत स्वर्गसे एक भाग्यशाली देव चया और उसको अपने गर्भ-कमलमें धारण कर कुन्ती गर्भवती हुई । सच तो यह है कि पुण्यके योगसे जीवोको पुत्र आदि कोई भी सामग्री दुर्लभ नहीं रह जाती । धीरे धीरे उसका वह गर्भ वढ़ने लगा और लोगोंको आनंद देने लगा । उसका वह गर्भ शत्रुपक्षका घातक और स्वजनोंको आनंद देनेवाला था ।- पांडर शरीरवाली और चंचल भौहेंवाली गर्भवती कुन्तीको देख कर पांडके हर्षका पार न . रहा। वह उस समय ऐसी मालूम पड़ती थी मानों रत्नोंसे रञ्जित भूमिवाली खान ही है । क्योंकि वह रत्न-जड़ित बहुतसे गहने पहिने थी और उनके रत्नोंकी.. ज्योति पृथ्वी पर पड़ती थी। गर्भके निमित्तसे उसके पेटकी त्रिवली मिट गई थी। जान पड़ता था कि उस त्रिवली भंगसे वह यही जनाती थी कि इस गर्भसे वैरियोंका भंग अवश्यंभावी है । इसके सिवा उनकी और कोई भी गति नहीं हो सकती । कुन्तीको उत्तम मिट्टी खानेकी इच्छा होती थी, जिससे जाना जाता था कि इसके गर्भमें जो पुरुष स्थित है वह सारी पृथ्वीको भोगेगा और सम्पूर्ण राजों महाराजोंको अपने अधीन करेगा। उसके कुच उन्नत हो गये थे और साथमें ही उनके चचक काले पड़ गये थे। जिनसे ऐसा भान होता था कि मानों- वे अपने , स्वजन वन्धुओंकी उन्नति और शत्रुपक्षकी कालिमाको ही जनाते हैं । उसके मुंहमें .. थूक बहुत आता था, उससे जाना जाता था कि वह लोगोंको यही जनाती है कि इस गर्भस्थ बालकके मारे शत्रु-गण मारे मारे फिरेंगे-कहीं भी उन्हें शान्ति नहीं मिलेगी । इस प्रकारके गर्भ-चिन्होंसे अलंकृत कुन्ती देवीकी अलंकार, भोजन, ,' भंषण, वाणी आदि किसी भी वातमें प्रीति नहीं रह गई; परंतु जिनेन्द्रदेवकी ।
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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