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नौवाँ अध्याय
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भोगा वह सब उसके लिये अपूर्व ही था । ठीक ही है कि इन्द्रिय-मुखकी वाञ्छा रखनेवाले जीवोंको स्त्रीके सिवा और कोई गति ही नहीं है। __अपनी नव वधूकी रूप-सुधाका पानकर-दिव्य औषधिको पीकर रोगीकी नॉई-पांडु थोड़े ही कालमें पूर्ण सुखी हो गया; उसका मदन-ज्वर उतर गया । वह उनके साथ कभी महलके बगीचे और कभी वेलोंसे छाये हुए मंडपवाले वनके प्रदेशमें क्रीड़ा करता था। एवं कभी उनके साथ-ही-साथ वह क्रीड़ापर्वत पर जाता और वहाँ मन-चाही क्रीड़ा करता था । कभी कभी नदियों में जा सिकता-स्थलमें विहार करता था । और कभी उनके साथ वावड़ियोंके जलमें तथा हिंडोलोंमें मनको बहलाता था। इस प्रकार भॉति भाँतिके भोगों, जिनेन्द्रदेवके महिमावाले उत्सवों और पात्रदान आदि क्रियाओं द्वारा उसने बहुत काल विताया।
भोजकदृष्टि राजाकी एक पुत्री थी । उसका नाम था गांधारी । वह शीलवती थी, गुणोंकी खान थी और उसने अच्छे अच्छे विद्वानोंसे शिक्षा पाई थी। वह अपने मुखसे चॉदको और नेत्रोंसे मृगीको जीतती थी; तथा रूपसे रतिफो भी नीचा दिखाती थी । अपनी मंद गतिसे वह हथिनीको लजाती थी.।। वह धृतराष्ट्र के साथमें विवाही गई थी । उसका विवाह आर्षविधिसे हुआ था ।
और ऋषभ प्रभुके निमित्तसे जैसे यशस्वतीके सौ पुत्र हुए थे उसी तरह इसके भी सौ पुत्र होनेवाले थे।
इसके बाद कुमुदती नाम देवक राजाकी पुत्रीके साथ प्रेमसे विद्वान् . विदुरका पाणिग्रहण हुआ।
एक दिन रातके पिछले पहर कुन्ती अपनी शय्या पर सुखकी नींद सोई . हुई थी। उस समय उस शुद्धमनाने कई एक शुभ स्वमोंको देखा । उनका हाल सुनिए-.
पहले स्वममें उसने मदसे जिसके कपोल भर रहे हैं और रॉडको जो इधरउधर घुमा रहा है, ऐसा हाथी देखा । दूसरेमें कल्लोलोंसे सुशोभित और शब्द करता समुद्र देखा । तीसरेमें प्रकाशमय और संसारको सुख देनेवाला पूर्ण चॉद देखा । एवं चौथे स्वममें उसने चार डालोंवाला और अर्थियोंको धन देनेवाला कल्पक्ष देखा । इन स्वमोंको देख चुकने पर जब सवेरा हुआ तब वह जागी और प्रभात-कालकी क्रियाओंसे निवट कर उसने सुन्दर वस्त्र और भूषण